उदास सा था दिन।
बाहर ठंडे दिनों में घेरने वाला हल्का सा अँधेरा था। भीतर नीति ने रोशनी कर
रखी थी।
कार्तिक ने घर में प्रवेश किया और बीच वाले कमरे में घुसते ही ठिठक कर रह गया।
सामने बिस्तर पर अम्मा लेटी थीं। बुखार की गिरफ्त में। कृशकाय, झुर्रियों वाले
हाथ, सफेद सन से केश, चेहरा तप्त मगर शांत।
कार्तिक के मन में हूक सी उठी। जाने कितने बरसों से वह माँ के पास नहीं बैठा
था। और इस बीच, धीरे धीरे, देखते देखते माँ गुम होती गई थी। कहाँ थी अब वह
युवा, उल्लसित माँ जिसके कंधों पर टिका रहता था घर। चौड़े पाड़ की साड़ी में
होली पर बनाती गूझे, दिवाली पर सजाती दिए, गाते न जाने कौन से मीठे और दर्द
भरे गीत। करती बहनों के साथ राखी का विस्तृत आयोजन, देती दिशा निर्देश घर
बाहर, करती बयान घटनाओं का अपनी रस भरी भाषा में, जीवन से भरी, रस में पगी
माँ।
प्रयत्न नहीं करना पड़ता था उसे जुड़ने के लिए अपने आसपास से। वह धरती की ही
थी और भरी थी एक भीनी सुवास से। लोग अपने आप ही आते थे उसके आसपास जैसे वह हो
एक छायादार हरा पेड़ या खुली हवा का झोंका गतिमय या एक झरना शीतल, जीवंत और
उत्साह भरा।
हर बार की तरह उसने आज भी कार्तिक के आने की आहट पहचान ली। करवट ली और पूछा,
'आ गया तू?'
'हाँ अम्मा।'
'कहाँ चला गया था सुबह सुबह?'
'मीटिंग थी अम्मा।'
'ऐसी भी क्या मीटिंग, हर समय मीटिंग। आ थोड़ी देर बैठ मेरे पास।'
कार्तिक ने चप्पलें उतारीं और अम्मा के पास आकर बैठ गया। वे भी उठकर तकिए के
सहारे बैठ गईं। बहुत दिनों के बाद उन्होंने कार्तिक का हाथ अपने हाथों में
लिया और उसे धीरे धीरे सहलाते हुए बोलीं,
'छोटा था तो इतने मुलायम थे तेरे हाथ कि सब लोग कहते थे लड़कियों की तरह हैं।
अब देखो तो कैसे कड़े कड़े हो गए हैं और रंग भी कैसा काला पड़ गया है।'
'अम्मा, मेहनत करता हूँ दिन भर।'
'सो तो मैं देख ही रही हूँ। अच्छा ये बता तू खुश तो है?'
ये कार्तिक के लिए बहुत किन सवाल था। क्या वह वाकई खुश था? जब उसने पहले पहल
बड़ी नौकरियाँ हासिल की थीं तब वह कुछ दिनों के लिए खुश हुआ था। फिर उसे नीति
मिली और वह कुछ साल बहुत खुश रहा था। फिर उसने आंदोलन की राह पकड़ी और वह
लोगों के बीच खुश रहा था। लेकिन आज, क्या आज भी वह खुश था? उसने अम्मा का दिल
रखने के लिए कहा,
'हाँ, खुश हूँ अम्मा।'
'नहीं, तू सच नहीं कह रहा। मुझे नहीं लगता तू खुश है।'
यूँ ही नहीं कहा जाता कि माँ बेटे की रग रग पहचानती है। उससे बिना बात किए,
बिना उसके काम को ठीक ठीक जाने, बिना उसके दोस्तों को पहचाने अम्मा ने जान
लिया था कि वह खुश नहीं है।
कार्तिक ने कुछ कहा नहीं। वह अम्मा के पैरों के पास सिकुड़ कर बैठ गया।
खुशी से पहला परिचय कार्तिक का अम्मा के माध्यम से ही हुआ था।
अम्मा खूब रौनकदार महिला थीं और घर भर को अपने उत्साह से गतिमान बनाए रखतीं।
त्यौहार कार्तिक के घर पूरे उत्साह और रौनक के साथ मनाये जाते थे। अम्मा बहनों
और दादा यानी कार्तिक के पिता को भी अपने उत्साह में शामिल कर लेतीं।
घर के सामने वाले पार्क में डांडिया गाड़कर कार्तिक होली रखता आया था। शाम को
सारे बच्चे होली के आसपास इकट्ठा होते और भीगी भीगी रातों में आट्या पाट्या और
कई तरह के खेल रचाते।
होली के पंद्रह दिन पहले से ही अम्मा खोये और मावे की सबसे अच्छी दुकानों की
तलाश करवाने लगतीं। फिर गूझों का हिसाब लगाया जाता और करीब दो तीन दिन पहले
अम्मा, बहनें और पड़ोस की मौसियाँ तथा चाचियाँ इकट्ठी होतीं। बीच वाले बड़े
कमरे में चटाइयाँ और चादरें बिछाई जातीं और गूझे और पपड़ी बनाने का व्यापक
कार्यक्रम शुरू होता। घर भर में गर्म गूझों और पपिड़यों की सोंधी खुशबू फैल
जाती।
कार्तिक वहीं आसपास मँडराता रहता था। उसे गूझों में भरा जाने वाला खोये का
मसाला बहुत पसंद था। अम्मा बीच बीच में उसे एक दो चम्मच शक्कर मिला खोआ देतीं
और उससे छोटे छोटे काम करवातीं रहतीं। फिर गर्म गर्म गूझों का भोग, जोर जोर से
घंटी बजाकर भगवान को लगाया जाता और तब वे कार्तिक को बुलाकर दो गूझे उसके हाथ
पर रखतीं और कहतीं,
'जरा चखकर तो बता कैसे बने हैं?'
'बिना चखे बता देता हूँ। बहुत अच्छे!'
'तो ला फिर हाथ वाले वापस कर दे।'
'चलो चख ही लेता हूँ। अच्छा खाने को कब दोगी?'
'खाने को कल मिलेंगे।'
शाम को मुहल्ले के सब लोग होली की पूजा के लिए इकट्ठे होते। बच्चे अपना खेल
जमा लेते। अम्मा खूब सारा प्रसाद बनातीं। होली के लिए माला बनातीं, लकड़ी जमा
करतीं और शाम को सब बहनों के साथ पूजा करने जातीं। कुछ देर वहाँ बैठकर सभी
महिलाएँ गीत गातीं। बच्चे और बड़े, शाम से ही मैदान में पैर फैलाकर बैठते और
पूर्णिमा का आनंद लेते। अम्मा कार्तिक को साथ लेकर सबको दौना भर भर कर प्रसाद
बाँटतीं। पूर्णिमा की भीगी-भीगी रात में वह प्रसाद अमृत जैसा लगता था। होली
जलने के बाद सभी बड़े लोगों के पैर छूने का सिलसिला शुरू होता जिसका प्रारंभ
अम्मा के पैर छूकर आशीर्वाद पाने से होता था। फिर कार्तिक दोस्तों के साथ
दूसरे घरों में पैर छूने तथा दूसरे मुहल्ले की होलियाँ देखने निकल जाता था।
नीति के आने तक भी कार्तिक ने वह सिलसिला जारी रखा था। होली आते ही उसके मन
में उत्साह का संचार होने लगता। नीति भी होली पर खुशी से रंग जाती थी। वह तरह
तरह के रंग इकट्ठे करती और होली के दिन सुबह से ही रंगों भरी बाल्टियाँ तैयार
कर देती। बहुत सारे गुलाल ट्रे में सजा देती। अम्मा आने जाने वालों के लिए
गर्म कचौरियाँ और गूझे पपड़ी की थालियाँ तैयार रखतीं। सुबह मुहल्ले के लोग,
कार्तिक के अपने मित्र, अम्मा और नीति की सहेलियों के जत्थे घर पर आते। दोपहर
होते होते कार्तिक और नीति घूमने निकल जाते। रंग और गुलाल का अजीब नशा सा उन
पर चढ़ जाता था। लौटते लौटते दोपहर हो जाती। रगड़ रगड़ कर नहाने के बाद ऐसी
गहरी नींद आती जो सिर्फ होली के दिन आना ही संभव था।
होली कार्तिक के लिए रंगों का, आनंद का, उत्साह का त्यौहार था। अम्मा उसका एक
जरूरी हिस्सा थीं।
दीवाली का इंतजार होली से भी ज्यादा जोर शोर से किया जाता।
नीति के आने के बाद दीवाली और रौनकभरी हो गई थी। दीवाली के हफ्ते भर पहले वह
अपनी खरीदारी शुरू कर देती। पहले वह घर भर के लिए कपड़े खरीदती। अपने लिए कम
और दूसरों के लिए ज्यादा। कार्तिक कहता - भई अपने लिए भी तो कुछ खरीदो। तो
कहती - बहुत हैं मेरे पास। अभी साल भर जो मिले हैं उन्हें ही नहीं पहन पाई।
धन तेरस के दिन छोटा मोटा घरेलू सामान या बर्तन या चाँदी का सिक्का या लक्ष्मी
गणेश जरूर लिए जाते। कार्तिक ढेर सारे फटाके, दिए, मोमबत्ती और मिठाइयाँ
खरीदता। अम्मा अपने गूझों और पपड़ियों का स्टॉक तैयार कर लेतीं।
छोटी दीवाली के दिन अम्मा घर भर को सुबह सुबह जगा देतीं। तेल और उबटन लगाकर
नहाने का दिन जो होता।
पर असल मजा दीवाली के दिन आता था। नीति पूरे घर को दिल से सजाती। सफाई पुताई
वह पहले से ही करवा चुकी होती थी। घर में एक छोटा सा मंदिर जैसा स्थान था जहाँ
अम्मा अपनी पूजा सजा लेतीं। कार्तिक लाईटिंग लगाता, दियों और मोमबत्तियों की
सजावट करता। ईश्वर पर विश्वास हो या न हो पर कार्तिक दिवाली के दिनों में खुशी
से उमगता। शाम को सब इकट्ठे होकर पूजा करते। अम्मा आगे आगे रहतीं और आरती
गातीं। फिर सबको टीका करके प्रसाद बाँटतीं। नीति के पकवान तैयार रहते। सभी बीच
बीच में खाते जाते और बाहर निकल कर फटाके भी चला आते।
नीति अपनी सुंदर सी साड़ी पहनती और गले तथा हाथों में कोई अच्छी सी चीज।
कार्तिक नई पैंट कमीज या पैंट कुर्ते में महकता। ढेरों लोग घर पर मिलने आते और
फटाकों के बीच मिठाईयों के दौर चलते। नीति चरखी, अनार, फुलझड़ी पर केंद्रित
रहती थी। रॉकेट और बम कार्तिक के जिम्मे रहते थे। अम्मा बाहर कुर्सी डालकर
बैठी रहतीं। बतरस और फटाकों का आनंद लेते हुए।
अगला दिन थकान उतारने और अन्नकूट का होता था जिस दिन कई सब्जियाँ मिलाकर गड्ड
की सब्जी बनाई जाती। किसने कितनी सब्जियाँ मिलाई हैं इन्हें लेकर आसपास के
घरों में प्रतिस्पर्धा होती।
दिवाली की समाप्ति भाई दूज से होती थी। जब नीति और कार्तिक सभी बहनों के घर
पैर छूने और टीका करवाने जाते थे। कैसा प्रेम और आनंद का त्यौहार था दीवाली और
कितनी उदासी तथा खालीपन छोड़ जाते थे वे पाँच दिन।
पर कार्तिक के घर का सबसे बड़ा त्यौहार होता था रक्षाबंधन का त्यौहार।
अम्मा उसके आने के पहले ही कहना शुरू कर देतीं,
'जाने कितने बरस इंतजार किया मैंने ये दिन मनाने के पहले।'
कार्तिक सबसे छोटा था और पाँच बहनों के बाद घर में अकेला भाई था।
उसे खुद बहनों को घर बुलाना बहुत अच्छा लगता। अम्मा उनके रंग रूप के हिसाब से
अलग अलग साड़ियाँ छाँट कर रखतीं। सुबह सुबह नीति घर में सुंदर सा चौक लगाती और
दोनों नहा धोकर, नए कपड़े पहन कर बहनों के आने का इंतजार करते।
वे आतीं और घर में जैसे रोशनी फैल जाती। बहनें कार्तिक को राखी बाँधतीं और
नीति कैमरा सम्हालती। कार्तिक चौक पर से उठकर सबके पैर छूकर आशीर्वाद लेता, और
अम्मा के बनाए पैकेट बहनों को एक एक कर देता जाता।
फिर सब भाई बहन बीच वाले बड़े कमरे में बैठकर खाना खाते।
बहनें राखी का दिन अपने घर, यानी कार्तिक के घर, पर ही गुजारतीं। कभी अम्मा से
हँसी मजाक करते, कभी नीति और कार्तिक से बतियाते और कभी किसी कोने में लुढ़क
कर नींद का मजा लेते हुए।
यूँ भारतीय सामाजिकता के रस में डूबी जिंदगी थी अम्मा की और इन्हीं त्यौहारों
से, परिवारिकता से कार्तिक भी खुशी हासिल करता था, भरा भरा महसूस करता था।
पर धीरे धीरे त्यौहारों की ये खुशी छीजने लगी थी।
कार्तिक पार्टी और प्रोफेशनल कारणों से अक्सर बाहर रहने लगा था और उसका समय
मीटिंगों और आंदोलनों में खर्च होने लगा था। नीति के उलाहना देने पर कि
तुम्हारे बिना त्यौहार क्या, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, अक्सर त्यौहारों पर घर
लौट आता था, पर वह हल्कापन, वह आनंद जो पहले वह त्यौहारों से उठाता था, कम हो
गया था। वह कभी कभी उस खुशी को मिस करता था। काश फिर पहले जैसा वातावरण बन
पाता!
पार्टी में त्यौहार मनाने वालों को दकियानूस माना जाता था। इस बात में बड़ी
वीरता समझी जाती थी कि फलाँ आदमी होली दीवाली पर भी अपने घर नहीं गया, आंदोलन
में लगा रहा। सरफराज कभी भी खुल कर नहीं कहता था कि उसे ईद पर घर जाना है। कि
माँ ईद पर इंतजार करेगी। कुछ इस तरह छुपते छुपाते वह ईद की घोषणा करता था जैसे
कोई अपराध कर रहा हो - मुझे एक दो दिन के लिए घर जाना है, मुझे घर पर काम है।
हालाँकि बंगाल में पार्टी बरसों से राज कर रही थी और दुर्गापूजा भी उतने ही
धूमधाम से मनाई जा रही थी, हिंदी राज्यों में त्यौहारों को लेकर अजीब
हिप्पोक्रेसी फैली थी। इस तरह कार्तिक ने धीरे धीरे कई लोगों को रूखा और रसहीन
होते देखा था।
अम्मा ने करवट ली। देखा, कार्तिक चरणों के पास बैठा है। उन्होंने पूछा,
'क्या सोच रहा है?'
'यही खुशी के बारे में। तुमने पूछा था न, क्या मैं खुश हूँ? मैं सोच रहा था
तुम्हीं ने मुझे खुश रहना सिखाया था।'
'तुझे मालूम है कि मैं पहली बार कब खुश हुई थी?'
'तुमने कब बताया?'
'चल आज बताती हूँ। अच्छा 'घात' के बारे में जानता है?'
'नहीं।'
'तुझे कुछ पीछे से बताना पड़ेगा। तेरे नाना थे कृष्ण गोपाल। साँवले और सुंदर।
तीखे नैन नक्श। हँसता सा चेहरा। बड़ी बड़ी आँखें। मुझे उनकी तस्वीर अभी भी याद
है। मैं छोटी सी थी। मुझे ऊपर उठा लेते। कहते राजा की बेटी है, राजा के घर
जाएगी। चार हजार रुपये खर्च करूँगा जा के ब्याह में। उस समय एक हजार रुपये में
अच्छा खासा ब्याह हो जाता था। वो जो शीशा भगवान के पास रखा है न, उन्हीं के
हाथ का है। एक सिंगार सिंदुकिया भी थी। तेरी बड़ी जिज्जी को दे दी। एक बक्सा
है जो हमारे पास ही रखा है। उस समय साढ़े चार रुपये में इलाहाबाद से लाए थे।
हमारी शादी देख पाते उसके पहले ही उनकी मौत हो गई।'
'कैसे?'
'वही तो बता रही हूँ। तीन गाँवों में जमीन थी हमारी। फरौली, कथला और कंपिल।
सभी एटा जिले के गाँव थे। कंपिल में उनकी ननसार थी। कंपिल में ही उनकी कुछ
जमीन भी थी। उसे लेकर उनकी मामा लोगों से कुछ मुकदमेबाजी हुई थी। तेरे नाना
मुकदमा जीत गए तो उन्हीं ननसार वालों ने उन पर घात चलाई।'
'ये घात होती क्या थी?'
'कुछ पूजा-मंत्र जैसा करते थे सामने वाले आदमी की मृत्यु की कामना के साथ।
कहते हैं एक हंडिया सी चलती थी रोशनी के साथ और अगर आप उसे रोक नहीं पाए और वह
आपके घर आ गई तो आपकी मृत्यु निश्चित थी।'
'बड़ी अजीब कहानी है।'
'सो ननसार वालों ने घात चलाई। तेरे नाना को तो कुछ मालूम भी नहीं था। घात के
पीछे उनके मामा का लड़का रघुवर हमारे घर आ गया। किसी शादी के बहाने से आया था।
शादी में खीर का दौना लाकर तेरे नाना को दिया। पहले तो उनने मना की। फिर बहुत
चिरौरी करने पर खा लिया। खाते ही मसूड़ों पर छाले आ गए थे। हमें बुलाकर कहा
लल्ली तू जाकर बड़ी चाची को बुला ला। जब वे आईं तो उन्हें दिखाकर कहा, देख तो
भौजाई, मसूड़े कैसे फूल से गए हैं। छाले से हो रहे हैं। जब से खीर खाकर आया
हूँ तकलीफ हो गई है। उन्होंने देखते ही कहा, लल्ला तोय काऊ ने जहर खबाय दियो
है। तू सहाबर से शौकतराय डॉक्टर को बुला। डॉक्टर आए तो बोले लंबरदार आपको किसी
ने पारा खिला दिया है। अब शहर जाओ तो शायद इलाज हो सके।'
'फिर?'
'तेरे नाना कानपुर गए अपनी बहन के घर। इलाज तो हुआ पर ठीक नहीं हुए। सारे शरीर
में छाले हो गए। बड़ी तकलीफ रही, तबियत ठीक न हो। तो बहन (हमारी बुआ) बोलीं कि
चल लल्ला तोय गोकुलिया वाले बाबा के यहाँ ले चलें। सब उन्हें बहुत मानते हैं।
शायद उनके दर्शन से तोय कछु फायदा होय। तेरे नाना ने कहा ठीक है जिया। वे
निकले। शकूराबाद तक आ पाए कि गाड़ी में ही नहीं रहे। वे कहते रहे कि जिया अब
मोय घर ले चल, मोय लल्ला की महतारी की बड़ी याद आए है। वो मोय आलू और पूड़ी
बना के खिलाएगी। (क्वार के पितर लगते थे। वे अनंत चौदस को नहीं रहे)। कल
श्राद्ध है, मैं घर जाके खाऊँगा तो तबियत ठीक हो जाएगी। पंद्रह दिन तक कहते
रहे पर बुआ उन्हें घर नहीं लाईं। वे कहें कि पहले गोकुलिया वाले बाबा के दर्शन
कर ले तब ले चलूँगी। सो ले गईं। वे रस्ते में ही नहीं रहे।'
'फिर?'
'जिया अपने देवर हरिशंकर को साथ ले गई थीं। छोटी लाईन की गाड़ी थी। शकूराबाद
के पास पुलिस वालों ने नीचे उतार दिया कि लाश लेकर नहीं चलेंगे।'
'अच्छी ज्यादती थी!'
'वहीं पास में नदी थी। जिया और हरिशंकर ने ही उनका सब काम किया। कोई गाड़ी
टैक्सी तो उस समय चलती नहीं थी। फिर शरीर भी शायद इस लायक न हो...'
अम्मा चुप हो गईं। नाना की मृत्यु के करीब साठ साल बाद भी उनकी आँखों में आँसू
छलछला आए। कार्तिक ने बात बदलने के लिए कहा,
'तुम तो खुशी के बारे में बता रही थीं...'
'खुशी और दुख साथ साथ चलते हैं बेटा। पिताजी की मौत के बाद हमारी अम्मा बेहाल
हो गईं। चौबीस पचीस साल की थीं जब विधवा हो गईं। और हम चार बच्चे थे उनके सिर
पर। हमारी सगाई उनके सामने ही हो गई थी पर शादी के करीब एक साल पहले उनकी भी
मौत हो गई। हमारे मामा लोग थे, वे कहती जाती थीं लल्ली को छोड़ कर जा रही हूँ।
मेरे प्राण भी ठीक से नहीं निकलेंगे...'
'फिर?'
'हमारे मामा लोगों ने खूब साथ दिया। हमारी शादी भी उन्होंने ही की। खूब अच्छी
तरह से। हजारी मामा, दम्मी मामा वगैरह बड़े आदमी थे। वकील लोग थे हरदा के। सब
सामान उन्होंने इकट्ठा किया और हमारी विदा की।'
'शादी होकर कहाँ आईं थीं?'
'शादी होकर हम आगरा आए थे। तेरे घर के हाल भी कोई बहुत अच्छे नहीं थे। बाबूजी
भी साल भर पहले जाते रहे थे और तेरे पिताजी पर ही सब भाई बहनों का भार था। वे
सबसे बड़े थे। मुझे उनसे पहली मुलाकात नहीं भूलती। छरहरे बदन के लड़के से थे
तेरे पिताजी। माथे पर तेरी तरह ही झूलती लट। बड़ी बड़ी आँखें। उन्होंने कहा था
- अभी मेरी नौकरी नहीं है, निभा लोगी न! और मैंने कहा था - आप साथ रहेंगे तो
निभा लूँगी। फिर उन्होंने कहा था - तुम्हारी तरह मेरे भी छोटे भाई बहन हैं।
उन्हें अपना ही मानना। उनकी बात सुनकर मेरी आँखें भर आई थीं।'
'पहली रात में ही इतनी भारी भारी बातें?'
'चल! अब तुझे खुशी की बात बताती हूँ। अगले दिन सुबह ही इनकी नौकरी की चिट्ठी आ
गई। घर भर में सब लोग खूब खुश हुए। आमदनी का एक जरिया खुल गया था। मैं भी खूब
प्रसन्न थी। मुझे शुभ-लक्ष्मी माना गया। तेरे पिता मुझे हर समय उठाए-उठाए
फिरते। धीरे धीरे मेरा मन लग गया। वे दो तीन साल मेरे खुशी के साल थे...'
अम्मा बोलते बोलते थक गईं थीं। कार्तिक ने उन्हें सहारा देकर तकिए पर लिटा
दिया।
कार्तिक को याद आया, जब उसकी नौकरी लगी थी तब वह भी खूब खुश हुआ था। अम्मा ने
खूब सारी मिठाई मँगवाई थी और सभी बहनों और पास पड़ोस वालों के यहाँ बँटवाई थी
ये कहकर कि कार्तिक की नौकरी लग गई है, बहुत अच्छी। फिर उसका बहुत जगह चयन
हुआ। प्रशासनिक सेवा परीक्षा भी उसने पास की। पर पहली नौकरी जैसी खुशी उसे बाद
में न मिल सकी थी। हाँ उसकी प्रतिभा को मान्यता मिल रही है ये जानकर गहरा
आत्मसंतोष अवश्य होता था।
फिर नीति आई थी। फूलों की खुशबू की तरह महकती। वे शुरुआती दिन, वे प्रारंभिक
स्पर्श जिनकी छुअन अब तक मन में बसी थी और वह हल्कापन जिसमें मोटरसाइकिल या
स्कूटर पर एक दूसरे से सटे वे पूरे शहर में घूमते फिरते थे, उस खुशी का ही
विस्तार थे। ठंड की दुपहरियों में दूर तक निकलना, पहाड़ी वाले रेस्त्राँ में
बैठकर कभी न खत्म होने वाली बातें करते रहना, थोड़ा सा भी धन इकट्ठा होते ही
रेल में बैठकर यात्रा पर निकल जाना, वह बेफिक्री वह उछाह, वह खिलखिलाती हँसी,
वह रौनक, वह धूप धीरे धीरे कम होती गई थी। उसकी जगह धीरे धीरे एक गहरी उदासी
ने ले ली थी और कार्तिक जो काम करता था उसने इस उदासी को कम करने के बदले और
बढ़ा दिया था।
अम्मा एक बार फिर जाग गईं।
उन्होंने कार्तिक की ओर देख कर कहा,
'तू अभी तक बैठा है?'
'हाँ, आज तुम्हारे पास बैठने का ही मन है।'
'अच्छा, तो मैं तुझे एक भजन सुनाती हूँ...।'
अम्मा की आवाज मीठी थी। बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के भी उनके पास रिद्म की
अच्छी समझ थी। और भजनों का अथाह खजाना था। कार्तिक को अपना बचपन याद था। ठंड
की ओस भरी सुबह में रजाई में लिपटे हुए, गर्मी की सुबह में सरसराती हवा के
बीच, बारिश में उमगते बादलों के साथ एक पवित्र विचार, सुरीले संगीत तथा अच्छाई
की परिकल्पना की तरह सुने अम्मा के भजन कार्तिक के मन में अब भी रचे बसे थे।
उसके मन में, पाँच से सात साल की उम्र के कार्तिक के मन में, एक बिल्कुल अलग
संसार उन भजनों ने बनाया था। मीठा, पवित्र, संगीतमय संसार।
अम्मा ने शुरू किया 'ऐसी विपत में सुमरौं मैं तुमको, मेरी सुधि लीजो प्रभु
राधा रमन।' कार्तिक ने सामने पड़े टेबल पर ठेका देना शुरू किया। अम्मा की आवाज
पहले कँपकँपाई, फिर सध गई। अब वे सप्तक में ऊपर और नीचे जा रही थीं। उन्होंने
पहला भजन खत्म किया, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा - वे गाती चली जा रही थीं। 'कोई
कहियो रे, प्रभु आवन की।' 'हरिनाम सुमर सुख धाम जगत में जीवन दो दिन का',
'धंधौ करत दिन जाय रे मेरो पापी जियरा -' जैसे भजनों की एक शृंखला सी उनके
दिमाग में खुलती चली जा रही थी। कार्तिक के मन में बचपन का वह पवित्र और
सुरीला संसार एक बार फिर जगमग हो उठा। वह ऑफिस, आंदोलन, पार्टी, दोस्तों को
एकबारगी भूल सा गया। वह सिर्फ अम्मा के साथ गा रहा था और सामने पड़े टेबल पर
ताल देता जा रहा था।
न जाने कब नीति पास आकर बैठ गई थी। अम्मा का गाना खत्म करने पर उसने पूछा था,
'अम्मा जी ये भजन अब सुनाई नहीं पड़ते। आपके पास ये कहाँ से आए?'
'हर भजन की अपनी एक कहानी है बेटा। ये जो 'ऐसी विपत में' है न ये कार्तिक की
दादी का है, वे सुबह उठकर उसे गुनगुनाया करती थीं। और ये धंधौ करत दिन जाय
हमारे कक्का का है। वे दालान में खड़े इसे गाया करते थे। और 'हरिनाम सुमिर' तो
मैंने काम वाली महरी से सीखा जो सुबह की कटकटाती ठंड में काम करते करते इसे
गाती थी। जब मैं ये भजन गाती हूँ तो मुझे इन सब लोगों की भी याद आती है।'
कार्तिक ने सोचा कि कितना आश्चर्य था कि हर भजन का एक व्यक्तित्व था। वे जो
समृद्ध घरों से आए थे खुशी और आनंद से भरे थे और जो निचले तबके से आए थे गहरी
करुणा और उदासी से भरे थे, अपने प्रतीकों में गतिमान वे निजी पीड़ा को एक साथ
गहराते और हल्का करते थे। हर भजन के साथ एक व्यक्तिगत याद जुड़ी थी। अगर अम्मा
के जीवन से भजन निकाल दिए जाएँ तो उनका व्यक्तित्व कितना गरीब हो जाएगा,
श्रीहीन हो जाएगा।
भारतीय परंपरा में ये जो गहरी आध्यात्मिक संवेदना थी क्या इसे पूरी तरह छोड़ा
जा सकता था? क्या इसके बिना वे करोड़ों करोड़ आदमी अपने आपको और गरीब तथा
श्रीहीन महसूस नहीं करेंगे? क्या सिर्फ विज्ञान या वैज्ञानिक चेतना के आधार
पर, जिसका कार्तिक अपने आपको पैरोकार मानता था, विश्व को समझा जा सकता था? और
जब डॉ. नारायणन विज्ञान के साथ साथ ज्ञान की बात करते थे तो क्या वे एक भारतीय
संत की तरह नजर नहीं आते थे?
कार्तिक विचारों के उस संसार से एक बार फिर अपने आसपास में वापस लौटा।
उसके आस पास भजनों के साथ क्या सलूक हो रहा था?
आकाश में तैरते शोर-भरे भजनों का महीना अभी अभी खत्म हुआ था। भजनों का सीजन,
नवरात्रि के कुछ दिनों पहले से ही, गणेश उत्सव के आगमन के साथ साथ शुरू हो
जाता था और उसी के साथ शहर के आकाश पर लाउडस्पीकरों का कब्जा हो जाता था।
धार्मिक श्रद्धा का ज्वार धरती पर स्थित सभी न्यायालयों को धता बताते हुए, ऊपर
की ओर उठने लगता था। हर मुहल्ले में भगवान गणेश या माँ दुर्गा की प्रतिमा
स्थापित होते ही मोहल्ला समिति को यह स्वतंत्रता मिल जाती थी कि वह जब चाहे,
जैसे चाहे, कर्कश और बेसुरे भजनों को उतने ही कर्कश लाउडस्पीकरों के माध्यम से
आप पर उँड़ेले। आप चूँ भी नहीं कर सकते थे।
सुबह पाँच बजे से चौराहे पर स्थित पूजा स्थल की ओर से लाउडस्पीकर पर कैसेट चला
दिया जाता था जो सुबह की शांति और अपनी ऊब भरी पुनरावृत्ति में उसे और ज्यादा
विचलित कर देता था। कई बार वह अपनी बालकनी में बैठकर, कुछ पढ़ते हुए या चाय
पीते हुए, सुबह की सुकून भरी शुरुआत करना चाहता था पर पूजा स्थल से आने वाले
किसी स्थानीय गायक की तीखी आवाज से बिंधे भजन उसे ऐसा नहीं करने देते थे।
फूहड़ फिल्मी गानों की पैरोडियाँ, बेतुके शिल्प में गुँथी कविताएँ, ईश्वर की
संवेदना पर भी आघात कर सकने वाले भजन उसके चारों ओर बिखरे हुए थे और कार्तिक
उनका कुछ नहीं कर सकता था।
कार्तिक ने सोचा, कैसा आश्चर्य था कि भजन जब तक एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव
का हिस्सा थे, उसे ताकत देते थे, एक सुखद संगीत की तरह मन में बसे रहते थे पर
जैसे ही वे एक सामाजिक शोर का हिस्सा बनते थे, उनसे वितृष्णा सी होने लगती थी।
उसे लगा भजनों के बारे में निष्कर्ष निकालना किन काम था। वैसे ही जैसे शिक्षा
के बारे में, सामाजिक कार्यवाही के बारे में, अच्छाई के बारे में, प्रेम के
बारे में...।
अम्मा एक बार फिर जाग गईं थीं।
उन्होंने कार्तिक का हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर धीरे से उसके सिर पर हाथ
फेरा। और बोलीं,
'फिर तू पैदा हुआ। जैसे हमारा घर खुशी से भर गया। तेरी चाची ने दौड़कर तेरी
बड़ी बहन की पी पर नारियल छुआकर, धरती पर तोड़ा था और घर भर में खुशी से नाचती
फिरी थीं। तेरे दादा को खबर भिजवाई गई और वे सीधे ऑफिस से घर आ गए थे। तुझे
हाथ में लेकर कहा था, क्यों जी, मेरी तरह ही दिखता है न! और मैंने हल्की सी
मुस्कुराहट चेहरे पर लाकर कहा था, तो और किसकी तरह दिखेगा।'
अम्मा अब उठकर बैठ गईं। ये प्रसंग उनके दिल के बहुत निकट था,
'तुम लोग तो आज के समय के लड़के हो न! तुम समझ नहीं सकते कि पाँच लड़कियों के
बाद तेरे पैदा होने का मतलब उस समय क्या था। इसके बावजूद तेरे दादा ने कभी
तेरी बहनों से दुभांत नहीं की। हर समय उन्हें आगे बढ़ाया, पढ़ने लिखने में
लगाया। कहते थे कोई बात नहीं अगर लड़का नहीं हुआ। इतनी अच्छी लड़कियाँ तो हैं।
पर घर भर के दूसरे लोग, बात बात में मुझे ताना देते रहते थे, तेरी बहनों के
साथ कुछ न कुछ अन्याय होता ही रहता था। कभी मैं लड़ लेती, कभी मन मारकर रह
जाती। तेरे पैदा होने के बाद मेरा भी मन खुशी से भर गया। अब कोई मुझे ताना
नहीं दे सकेगा। मैं तुझे बड़ा होते देख सकूँगी। तू स्कूल और कॉलेज जाएगा। फिर
तेरी नौकरी लगेगी। हम धूम धाम से तेरी शादी करेंगे। तू बुढ़ापे में अपने दादा
का हाथ बँटाएगा। पर मैं तुझे लड़कियों से ऊपर नहीं रखूँगी। उनके समान ही तुझे
पालूँगी। न ज्यादा, न कम...। मैंने कितनी कितनी बातें सोच ली थीं।'
कार्तिक अम्मा की एकदम भीतरी दुनिया में प्रवेश कर रहा था।
'तुझे बड़ा होते देखना हम दोनों के लिए बहुत ही सुख और संतोष की बात थी। तू था
भी सुंदर। गोल चेहरा, कृष्ण भगवान की तरह और घुँघराले बाल। मैं उन्हें कभी ऊपर
करके फूल बना देती कभी पीछे करके बाँध देती। तू घर भर में खेलता फिरता। तेरे
दादा घर आते तो एक बार जरूर तुझे गोद में लेकर ऊपर उछालते। फिर शाम को घुमाने
ले जाते। उनकी काम करने की क्षमता अचानक बढ़ गई थी। वे अब पहले की तरह थकते
नहीं थे। खुशी और उत्साह से भरे भरे रहते। तभी उन्हें अपने काम पर राष्ट्रपति
पुरस्कार भी मिला। शहर भर में उनका बड़ा नाम हो गया और प्रतिष्ठा बढ़ गई। शहर
में उनका जन सम्मान भी हुआ था। बेटा वो हम लोगों के अच्छे और खुशी भरे दिन
थे।'
अम्मा की आँखें अब कार्तिक के पार देखतीं छत पर जाकर टिक गईं।
'ये तुझे अक्सर लेकर पढ़ाने बैठा करते थे। कभी मुँह पर तेरी तारीफ नहीं की पर
मुझसे अक्सर कहते थे - हमारा कार्तिक बहुत बुद्धिमान है, देखना ये बड़े बड़ों
को पीछे छोड़ेगा। और तू वैसा निकला भी। पढ़ाई में भी आगे और खेलों में भी।
तेरी हर उपलब्धि पर ये बहुत खुश होते थे। एक या दो वाक्यों में तेरी तारीफ भी
कर देते - ये अपने से तीन चार क्लास आगे के बच्चों की किताबें पढ़ता है, इस
साल की छुट्टियों में ही इसने अगले साल का गणित निबटा लिया, भट्ट साहब बता रहे
थे कि इसका निबंध असाधारण था, सुनो - कार्तिक स्कूल की ओर से बैंगलोर जा रहा
है, सुना तुमने, कार्तिक स्कूल का सर्वश्रेष्ठ छात्र चुना गया, ये जो भी काम
करता है पूरे दिल से करता है, कॉलेज में भी इसे सबसे अच्छा छात्र चुना गया...
मैं तो बहुत जानती नहीं थी। पर इनकी बातें सुनकर मेरा मन खुशी से भर उठता।
तारीफ तेरी थी, पर लगता था हम लोगों की हो रही है। माँ बाप बच्चों में ही अपने
आपको पूरा कर पाते हैं...।'
कार्तिक को अपने पिता, जिन्हें प्यार से सब 'दादा' कहते थे की याद आई। कार्तिक
ने उन्हें हर समय पढ़ते लिखते ही देखा था और उनकी जो छवि उसके मन में थी वह भी
कुछ ऐसी ही थी। देर रात तक टेबल पर झुके पता नहीं क्या लिखते रहते। धोती कुरता
घर में और स्कूल जाते समय साफ, कड़क इस्त्री करी हुई पैंट और कमीज - अधिकतर
सफेद या हल्के रंग की - उनका लिबास था। गहरी आँखों पर चढ़ा भूरा चश्मा उन्हें
बौद्धिक पहचान देता था। वे अनुशासनप्रिय और नियमित व्यक्ति थे। पढ़ाई लिखाई
में रिगर पर जोर देने वाले। उनकी कोमलता उनकी आँखों में छुपी थी जो अक्सर तरल
रहतीं। उनके गुस्से के बीच भी उनकी आँखों की तरलता आश्वस्त सा करती।
वे लगभग अचानक ही गए। रिटायरमेंट के बाद वे और कड़ी मेहनत करने लगे थे।
कार्तिक की नौकरी अभी दूर थी। और बहनों की चिंता उनके मन में रही होगी जिसे
उन्होंने कभी प्रगट नहीं किया।
एक दिन सुबह अचानक सिर में भारीपन की शिकायत की थी। कार्तिक लटपटाते पैरों से
उन्हें अस्पताल ले गया था। डॉक्टरों ने ब्रेन हैमरेज घोषित कर दिया था। उनके
छात्र जो डॉक्टर बन चुके थे, उन्हें दो दिन तक घेरे रहे थे। फिर अचानक उनकी
साँस जोर-जोर से चलने लगी थी। किसी ने कहा था लगता है क्लॉट आ गया। ऑक्सीजन को
खोज मची थी, जो समय पर नहीं आ सकी थी। वहीं अम्मा के हाथों में उन्होंने दम
तोड़ दिया था।
कार्तिक तब बीस साल का था।
पहले पहल अचानक जैसे आसमान उसके सिर पर आ गिरा था, जिसे अब तक पिता ने रोक रखा
था। फिर धीरे धीरे उसने अपनी अंदरूनी शक्ति इकट्ठी की था, चीजों को देखना
समझना शुरू किया था और निर्णय लेने लगा था। अम्मा ने इसमें उसकी बड़ी मदद की
थी। कुछ ही दिनों में कार्तिक ने परिस्थितियों को सम्हाल लिया था। सब कहते थे,
कार्तिक बहुत समझदार लड़का है, उसने मन ही मन प्रण किया था, दादा की अपेक्षा
को पूरा करूँगा।
अम्मा ने जैसे उसके मन में चल रही कथा को पढ़ लिया। उन्होंने कहा,
'भगवान को जैसे हम लोगों की खुशी मंजूर नहीं थी। उन्होंने अचानक तेरे दादा को
उठा लिया। तू अचानक अकेला हो गया। और मैं भी। फिर मैंने सोचा मेरे पास तो तू
है। हम दोनों मिल कर अपना दुख बाँट लेंगे।'
कार्तिक ने विशेष योग्यता के साथ परीक्षा पास की थी और उसे एक नहीं चार
नौकरियाँ मिली थीं। फिर नीति से उसकी शादी हुई। अम्मा का घर फिर भरापूरा हो
गया था। वे उदास रहती थीं पर जीवन और आस एक बार फिर उनके भीतर जगमगाने लगे थे।
कार्तिक ये बात जानता था और इस रोशनी को हर समय जलाए रखने की कोशिश करता था।
लेकिन इस समय अम्मा की आँखों से झर झर आँसू बह रहे थे। रोते-रोते उन्होंने
कहा,
'मुझे एक ही अफसोस रहा। तेरे दादा कुछ दिन और जीवित रहते तो तेरी नौकरी, तेरा
परिवार, तेरा आगे बढ़ना देख पाते। आखिरी दिनों में इसी की तो आस थी उन्हें। तब
शायद ज्यादा संतोष से जाते...'
कार्तिक ने उन्हीं के पल्लू से उनके आँसू पोंछ दिए। कहा,
'वो जहाँ भी रहें उनका आशीर्वाद तो मेरे साथ है ही। उसी के बल पर तो मैं इतना
अच्छा कर पा रहा हूँ। फिर तुम तो साथ हो...'
'इसीलिए तो मैं खुश रहने की कोशिश करती हूँ। पर सच बताऊँ? कभी कभी तेरे दादा
की बहुत याद आती है। बहुत अकेला लगता है। फिर तुझे खुश देख कर मन भर लेती थी।
पर देखती हूँ आजकल तू भी प्रसन्न नहीं रहता। जाने कहाँ कहाँ भटकता फिरता है।
वार-त्यौहार की खुशी भी पहले जैसी नहीं रही। बहू भी खिली खिली नहीं रहती। तेरे
दादा होते तो तुझसे बात करते। तू मुझे बता, आखिर बात क्या है?'
'बात कुछ नहीं अम्मा! बस काम ज्यादा रहता है।'
कार्तिक ने अविश्वसनीय सा झूठ बोला।
उसके दुख का कारण सरल पारिवारिक शब्दावली में बयान नहीं किया जा सकता था। वह
पुरुष के मन की गहराई से उपजने वाली गहरी पुकार थी जिसके दर्द के पीछे छुपे
कारणों को वह कुछ पहचान पाया था, कुछ तलाश रहा था। अम्मा ने ठीक कहा था, अगर
दादा होते तो शायद उनसे बात हो पाती, अगर वे होते तब तो...
अम्मा से इस बातचीत के कुछ दिनों बाद ही कार्तिक दिल्ली गया था। कई अन्य कामों
के अलावा उसके पास एक व्यक्तिगत एजेंडा भी था।
वह रघु से मिलना चाहता था। केदार के दोस्त रघु से, जो अब एक पत्रिका निकालता
था और पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में थोड़ी बहुत जान पहचान रखता था। पार्टी
कॉमरेडों के रसीले किस्से हर समय उसकी जुबान पर रहते थे और वह उन्हें अपने
टिपिकल देहलवी-पंजाबी अंदाज में सुनाया करता था।
पर कार्तिक का मानना था कि रघु मूल रूप से बेहद संवेदनशील व्यक्ति है। इस बात
से दुखी भी, कि पार्टी हर समय इस या उस आंदोलन पर टिक कर अपना विस्तार क्यों
करना चाहती है, उसे हर समय अपनी 'शक्ति' प्रदर्शित करने के लिए किसी न किसी
'पहलवान' के सहारे की जरूरत क्यों पड़ती है? वह खुद अपना स्वतंत्र विस्तार
क्यों नहीं कर पाती? अक्सर वह पार्टी नेताओं से उलझते हुआ पाया जाता था।
कार्तिक से उसकी दोस्ती थी।
दिल्ली पहुँचकर कार्तिक ने उसे फोन किया, जवाब आया,
'ऐसी क्या बात है यार! आज शाम को ही बैठ लेते हैं।'
अशोका रोड के एक अच्छे से रेस्त्राँ में मिलने की बात हुई। एक कॉफी और शानदार
सैंडविचेज के बीच उन्होंने बहुत सारी बातें कीं। रघु ने उसे दिल्ली में चल रही
पॉलिटिक्स के बारे में बताया, कई साहित्यकारों के कच्चे चिट्ठे खोले और उसके
हालचाल पूछे। कार्तिक अभी भी गंभीर आंतरिक बहस में उलझा हुआ था। उसने अम्मा से
हुई बातचीत के बारे में उसे बताया और उसकी पृष्ठभूमि में पहली बार पार्टी में
चल रही बहसों के बारे में उसकी राय ली। उसने कहा,
'ये जो हिंदी राज्य हैं, इनकी यही प्रॉब्लम है, पास में कुछ है नहीं, और नया
कुछ करेंगे नहीं। हर समय ऊपर की ओर देखते रहते हैं। तुम्हारी स्टेट का इनचार्ज
कौन है।'
'टी.आर.सी.'
'तो चलो कल उनसे मिलते हैं।'
'ठीक है'
'सुबह दस बजे।'
'ओ.के.'
कार्तिक सुबह दस बजे पहुँचा तो रघु नीचे ही इंतजार कर रहा था।
'चल, मैंने टी.आर.सी. से बात कर ली है।'
एक छोटे से कमरे में फाइलों और कागजों से घिरे टी.आर.सी. बैठे थे। सुनते थे कि
उन्हें बहुत सी बीमारियों ने घेर रखा है। अक्सर वे इलाज में ही मुब्तिला रहते
थे। कभी पाषर्द तक का चुनाव नहीं लड़े थे पर पता नहीं कैसे ऊपर चढ़ते गए थे और
अब पार्टी की सर्वोच्च नीति नियामक संस्था में थे।
'दिज इज कार्तिक कॉमरेड। ही हैज अ फ्यू थिंग्स टू शेयर विथ यू।'
'ओ.के. कार्तिक, टेल मी।'
कॉमरेड टी.आर.सी. ने कहा। कार्तिक को समझ नहीं आया कि क्या कहे। उसे अजीब भी
लगा कि एक हिंदी राज्य के लिए पार्टी को एक हिंदी बोलने वाला व्यक्ति नहीं
मिलता, जो कि उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी जानता हो। वह उन्हें क्या और कैसे
बताता? फिर कुछ सोचकर उसने कहना शुरू किया,
'इट इज लाइक दिस कॉमरेड। आइ हैव बीन सजेस्टिंग ऑल दिज व्हाइल दैट द पार्टी...'
इस बीच कॉमरेड टी.आर.सी. ने उसे, रोकते हुए कहा,
'जस्ट अ मोमेंट कार्तिक।'
इस बीच कॉमरेड राम आकर उन्हें दो लिफाफे दे गए थे। उन्होंने भी कार्तिक को
देखा, 'हलो' कहा, और पुनः व्यस्त हो गए। कॉमरेड टी.आर.सी. ने उन्हीं लिफाफों
को खोलने के लिए कार्तिक को रोका था।
टी.आर.सी. ने पहले लिफाफे को खोला जिसमें फुलस्केप कागज की दो तीन शीट्स थीं।
उन्हें थोड़ा कम दिखाई देता था इसलिए वे चश्मे के पास लाकर उसे पढ़ने की कोशिश
करने लगे। अंतिम पृष्ठ पीछे टाइप्ड था और कार्तिक उसे पूरा पढ़ सकता था। उसकी
लाइनें कार्तिक को कुछ पहचानी सी लगीं।
'लीव असाइड ऑल रिलक्टेंस एंड क्लींस द लिटरेसी मूवमेंट ऑफ, फैक्शनलिस्ट लाइक
कार्तिक एंड सादिक अली,...'
'सेव द पार्टी फ्रॉम काउंटर रिवोल्यूशनरीज...'
कार्तिक समझ गया कि ये वही रिपोर्ट थी जो नताशा के माध्यम से उस तक पहुँची थी।
तो कॉमरेड मोहन इतना भी धैर्य न रख सके कि पार्टी समिति में बात कर लेते। या
एक बार कार्तिक को बुलाकर उससे बात कर लेते। सीधे टी.आर.सी. के पास भेजा कि
देखो, हम कितने क्रांतिकारी हैं और जागरूक भी। निश्चित ही इसमें राजपुर
क्राइसिस में खुद के रोल को वे छुपा गए होंगे।
टी.आर.सी. ने पन्ने पलटने के बाद कहा,
'यस कॉमरेड। नाउ टेल मी।'
कार्तिक ने अचानक उठते हुए कहा,
'थैंक्स कॉमरेड। नाउ देयर इज नो पॉइंट सेइंग एनी थिंग...।'
रघु ने कहा,
'क्यों अचानक क्या बात हो गई।'
'कुछ नहीं। चलो चलते हैं।'
वे बाहर निकल आए थे। टी.आर.सी. कुछ भी समझ नहीं पाए थे।
वे नीचे पार्टी कैंटीन में खाना खाने पहुँचे।
रघु ने बैठते हुए कहा,
'आखिर तेरी समस्या क्या है?'
'मेरी समस्या है कि मेरे विचारों को ठीक ठीक समझा जाए और अगर समझ लें तो उन पर
अमल किया जाए।'
'क्यों, मगर क्यों? अगर वे नहीं करना चाहते तो न करें, भाड़ में जाएँ।'
'रघु मैं ऐसा नहीं सोच सकता। या तो मैं हूँ, या नहीं हूँ। अगर हूँ तो पूरी
शिद्दत के साथ हूँ।'
अचानक रघु ने मुस्कराते हुए कहा,
'यू नो व्हाट इज युअर प्रॉब्लम?'
'आई थिंक आई डू'
'नो यू डोन्ट। युअर प्रॉब्लम इज रिकग्निशन। तुम अपने लिए, अपने विचारों के लिए
मान्यता चाहते हो।'
कार्तिक के दिल को गहरी ठेस पहुँची। वह एक मित्र के नाते रघु से अपनी
संगठनात्मक, भावनात्मक और रचनात्मक समस्याओं पर बात कर रहा था। वह पार्टी और
संगठन में अपने पक्ष को समझाने की गहरी लड़ाई लड़ रहा था। कार्तिक के लिए ये
जीवन मरण की लड़ाई थी पर रघु ने उसे इतनी हल्की तरह से लिया था। उसे ठीक से
समझने के बदले रघु ने फतवा दे दिया था - तेरी प्रॉब्लम है रिकग्निशन।
कार्तिक ने धीरे से सिर उठाया और कहा था,
'मुझे अफसोस है कि तुम इतना ही समझ पाए।'
फिर वह उठने को हुआ। रघु ने कहा,
'तो खाना तो खाते जाओ।'
'नहीं इस समय मन नहीं है।'
कार्तिक उस समय वहाँ से चला आया था। लौटने से पहले उसने रघु को एक पत्र लिखा।
प्रिय रघु,
मैं केदार के दोस्त के नाते इस बार तुमसे दिल्ली में मिलने आया था। अपनी गहरी
सैद्धांतिक लड़ाई में मुझे तुम्हारा भावनात्मक संबल मिलेगा या कम से कम
संवेदनापूर्ण समझ तो अवश्य ही मिलेगी ऐसी मुझे उम्मीद थी। पर तुम्हारी टिप्पणी
से, पहले तो मुझे तुम्हारी समझ पर आश्चर्य हुआ फिर गहरी चोट पहुँची है।
क्या मैं और तुम व्यक्तिगत मान्यता के लिए पार्टी में हैं? क्या बीस पच्चीस
वर्षों से, जिसमें हमारे जीवन का सबसे सक्रिय एवं युवा समय भी शामिल है, हम
इसीलिए पार्टी में हैं कि हमें मान्यता दी जाए? तुम्हारी गहरी असंवेदनशीलता,
नासमझी और चालाक किस्म की अपरिपक्वता से निकले हुए विश्लेषणों से मैं पहले भी
परेशान होता रहा हूँ। पर वर्तमान टिप्पणी शायद सबसे ज्यादा चोट पहुँचाने वाली
है।
मैं तुम्हारी टिप्पणी के बारे में सोचता हूँ और मुझे सॉमरसेट मॉम की लिखी 'मून
इन सिक्स पेंस' याद आती है जो गॉगाँ नामक पेंटर के जीवन पर थी। जब कथानायक, जो
पेंटिंग में नए प्रयोग कर रहा है, पेरिस के आलोचकों के बारे में कहता है,
'अब वे मुझे मान्यता देने और न देने का खेल रचेंगे और इस तरह मुझे झुकाने की
कोशिश करेंगे। इसके लिए वे नए नए विश्लेषण गढ़ेंगे और सिद्ध करने की कोशिश
करेंगे कि वे विषय के महाज्ञानी हैं। जबकि वे मेरी रचनात्मकता से पूरी तरह
अनभिज्ञ होंगे। फिर मैं उनकी चिंता क्यों करूँ...'
नहीं मित्र मेरी प्रॉब्लम रिकग्निशन नहीं है। वह मेरे पास काफी है। मेरी
प्रॉब्लम है आप जैसे लोग, जो संगठन के नाम पर रिकग्निशन देने या न देने का खेल
खेलते हैं और इसका इस्तेमाल लोगों को उठाने और गिराने में करते हैं। भले ही
खुद कोई आंदोलन खड़ा न कर पाए हों, कुछ भी नया नहीं कर पाए हों पर दुनिया की
उस महान विचारधारा के स्वघोषित संरक्षक के रूप में मान्यता देने का अधिकार
रखते हैं और इस तरह लोगों को उठाते गिराते तथा खुद की ताकत बढ़ाते हैं। अब तुम
देने वाले हो गए और मैं लेने वाला, क्यों? मैंने तो सोचा था कि हम दोस्त
हैं...
अपनी अहम्मन्यता में तुम देख नहीं पाते कि मेरी मूल बहस पार्टी में वैकल्पिक
विचारों और कार्यपद्धतियों को बचाने की है। हमने पारंपरिक रूप से सामंती और
जड़ प्रदेश में विज्ञान तथा साक्षरता आंदोलन के ऐसे स्फुरण उत्पन्न किए
जिन्हें व्यापक स्वीकृति मिली और अगर पार्टी ने तथा आप जैसे मित्रों ने
मान्यता देने लेने का खेल शुरू न किया होता, तो ये स्फुरण स्वस्थ प्रक्रियाओं
में बदल सकते थे।
जिन आंदोलनों में मैं हूँ वहाँ उनमें गहरे तक डूबा हुआ हूँ और शीर्ष तक जाना
जाता हूँ। अगर आप इसे नहीं देख पाते तो आपको चश्मे बदलने चाहिए। अगर आज केरल
और बंगाल के बाद हमारे आंदोलन में हमारे प्रदेश का नाम आता है तो मुझे इससे
बड़ी किसी मान्यता की जरूरत महसूस नहीं होती।
मैंने कभी तुमसे इसका जिक्र नहीं किया पर मेरी व्यक्तिगत उपलब्धियाँ भी किसी
से कम नहीं। देश की सर्वोच्च सेवाओं में चयन से लेकर सामाजिक विस्तार तक मुझे
व्यापक राष्ट्रीय मान्यता मिलती रही है। और शायद यही आपकी समस्या भी है। आपकी
बेरुखी, घटिया मेनिपुलेशन और मान्यता के खेल से आखिर ये आदमी झुक क्यों नहीं
रहा, टूट क्यों नहीं रहा, विचारहीन होकर आपकी शरण में क्यों नहीं आ रहा?
मैं इसे समझता हूँ और अपनी सादगी और सरलता से ही इसका जवाब देता रहा हूँ। मुझे
दुख होता है जब तुम मुझे इस खेल में शामिल दिखते हो। मुझे अनावश्यक रूप से
पेट्रनाइज करने की तुम्हारी इच्छा, तुम्हारी किसी भीतरी जरूरत की पूर्ति जरूर
कर ले पर तुम्हें ये देखने नहीं देती कि संगठन निर्माण और जनांदोलन के क्षेत्र
में मैं एक लंबी दूरी तय कर चुका हूँ, वहाँ तक जहाँ तक तुम्हारी दृष्टि ही
नहीं जाती।
तो मान्यता का खेल तुम्हें मुबारक मित्र। जिसे चाहे उसे दो। जैसा कि गॉगाँ ने
कहा था, मुझे नहीं लगता कि मुझे इसकी चिंता है।
तुम्हारा
कार्तिक।
फिर कार्तिक दिल्ली से लौट आया।
अगली रात कार्तिक अपने बिस्तर पर लेटा था और नीति खिड़की के पास खड़ी थी।
उसकी पीठ कार्तिक की ओर थी। उसने खिड़की से पर्दा खींच दिया था जिससे चाँदनी
अपनी पूरी प्रखरता के साथ कमरे को रोशन करने लगी थी। खिड़की के रास्ते आम की
पतली पतली टहनियाँ और कुछ पत्तियाँ भीतर चली आईं थीं। नीति ने अनायास ही एक
पतली सी टहनी को अपनी मुट्ठी में दबाया और कार्तिक से पूछा,
'कार्तिक, क्या तुम अब भी मुझसे प्यार करते हो?'
कार्तिक के सीने में यह सवाल एक तीर की तरह लगा। क्या वह वाकई नीति से प्यार
करता था? क्या उसने इस बारे में सोचा भी था? क्या उनके संबंध उतने ही मीठे रह
गए थे जैसे शादी के बाद स्कूटर और मोटर साईकिल पर चिपक कर बैठने वाले दिनों
में थे? या उन दिनों में, जब वे एक खुमार में, पूरे शहर में, बगीचों में,
ऐतिहासिक स्थलों पर घूमते फिरते थे? क्या मिठास का कम होना समय के साथ लाजमी
था और क्या उसे बचाया जा सकता था?
रात में कई बार जब उसकी नींद खुलती तो वह शांति के साथ सोई नीति की ओर देखकर
सोचता था - क्या इसके बिना मेरा जीवन संभव है? क्या होगा अगर अचानक वह उसके
जीवन में न रहे? और अचानक एक भयावह उजाड़ सा उसके चारों ओर पसर जाता था। एक
घबराहट सी उसके मन में फैल जाती थी। वह नीति के बिना अपने जीवन की कल्पना ही
नहीं कर पाता था।
अकेलेपन की इस अनुभूति को दूर करने के लिए अक्सर कार्तिक उसके माथे पर हल्के
से चुंबन लेता, उसे बाँहों में भर लेता। उसे ठीक से अपने पास महसूस किए बिना
उसे नींद नहीं आती थी। उन क्षणों में वह नीति से कहना चाहता था - हाँ मैं
तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।
पर क्या ये सादा और सरल उत्तर नहीं होगा? क्या ये पूरा पूरा सच था? क्या अन्य
दायित्वों और कामों ने, अन्य रुचियों और झुकावों ने उसके मन में इतनी जगह नहीं
बना ली थी कि नीति को अपना स्थान कम होता लगे? और तब क्या उसका ये सवाल जायज
नहीं था?
क्या मीटिंगों, दौरों और बहसों ने उसे इतना यांत्रिक नहीं बना दिया था कि
अनुभूत करने की उसकी क्षमता ही कम हो जाए? असल में होना तो इसका उलटा था।
कार्तिक अब स्थानीय नेता नहीं रह गया था। जाने कब पार्टी की राष्ट्रीय
समितियों में रहते हुए वह राष्ट्रीय हो गया था। महीने में पंद्रह दिन उसे बाहर
रहना पड़ता और जब घर लौटता तो काम का अंबार लगा होता। वह उसे निबटाने में लग
जाता। इस बीच उसके और नीति के बीच का दायरा न जाने कब सिकुड़ने लगा था। उसके
मानवीय गुण, उसकी ऊष्मा, अपार काम के पीछे छुप सी गई थी, धीरे धीरे छीजने लगी
थी...।
कार्तिक ने अपने गुजरे हुए दिन पर एक नजर डाली। जैसे एक फिल्म सी उसके आँखों
के सामने घूम गई।
अभी वह सोकर भी नहीं उठ पाया था कि नीति की आवाज उसके कानों में पड़ी थी,
'त्रिवेंद्रम से फोन है।'
कार्तिक को वह आवाज कहीं दूर से आती जान पड़ी थी। कल रात भी वह दो बजे सो पाया
था। शाम पाँच बजे वह अपनी मेज पर बैठ गया था और लगातार आठ-नौ घंटे तक,
कॉन्फ्रेंस के लिए रिपोर्ट तैयार करता रहा था रात दो बजे जब अक्षर और विचार
गड्ड मड्ड होने लगे और कंधों में अपार दर्द होने लगा तो उसने सो जाना ही बेहतर
समझा था। सोचा था बाकी काम सुबह पूरा कर लेगा। नींद और थकान से उस समय उसका
शरीर बोझिल हो रहा था। उसने नीति की आवाज अनसुनी कर दी। करवट बदली और फिर
आँखें बंद कर लीं।
नीति ने फिर पूछा था,
'क्या कहूँ?'
कार्तिक ने पैरों से चादर एक ओर ठेलते हुए कहा था,
'कहो आ रहे हैं।'
उसके सिर में हल्का सा दर्द था। शरीर टूट रहा था और आँखें जल सी रही थीं। बदन
में हरारत थी, लगा बुखार आएगा। बेमन से फोन उठाते हुए उसने कहा था,
'कार्तिक।'
'......'
'हाँ, कॉन्फ्रेंस की मुझे सूचना है।'
'......'
'हाँ, हाँ मैं कल सुबह निकल रहा हूँ।'
'......'
'नहीं रिपोर्ट अभी पूरी तरह तैयार नहीं है। आज हो जाएगी। आई एम सॉरी, आई कुड
नॉट सेंड इट अर्लियर। आज मेल कर दूँगा। यू स्टिल हैव टू डेज टू रिव्यू इट। मैं
कुछ कॉपियाँ भी लेता आऊँगा'
'.....'
'ठीक है, फिर मिलते हैं।'
उसने कहा और फोन रख दिया था।
अब बैठने का वक्त नहीं था।
वह उठा और वॉश बेसिन के सामने जाकर खड़ा हो गया। जैसे किसी रोबोट की तरह उसने
पेस्ट उठाया, ब्रश में लगाया और दाँत माँजना शुरू कर दिया।
उसकी आँखें अब तक पूरी तरह खुली नहीं थीं। वह जल्दी जल्दी ब्रश कर रहा था और
आज के कामों के बारे में सोचता जा रहा था। सुबह दस बजे से मीटिंग थी। नई
आर्थिक नीतियों पर बात होनी थी और आंदोलन की कार्यवाही भी तय की जानी थी। रात
वाली रिपोर्ट अभी पूरी नहीं हुई थी। करीब दो घंटे उसमें भी लगने वाले थे। फिर
जिलों से लोग आने वाले थे। उनकी भी अपनी समस्याएँ होंगी। आज लौटने में रात
होना निश्चित था।
अचानक दाहिनी दाढ़ में पेस्ट लगा और एक टीस सी उठी। दाँत में कीड़ा लग गया था।
वह बहुत दिनों से डॉक्टर के पास जाने की सोच रहा था, पर वक्त ही नहीं मिल पाता
था। रोज सुबह उसे दाँत में तकलीफ होती थी और रोज, वह मुँह धोने के बाद, उसे
भूल जाता था।
अभी मुँह पोंछ ही रहा था कि कॉल बेल बजी।
उसने हड़बड़ी में तौलिया कंधे पर डालते हुए नीति से कहा,
'देखो तो कौन है?'
नीति ने लौटकर कहा,
'सिराज भाई हैं। ऑफिस चलने को कह रहे हैं।'
अब तक कार्तिक के पेट में दबाव बनने लगा था। उसने हल्की सी चिड़चिड़ाहट के साथ
कहा था,
'उनसे बैठने को कहो, अभी नहाकर चलता हूँ।'
फिर कुछ रुककर बोला।
'अच्छा उनसे कहो कि ऑफिस ही चलें। मैं पहुँचता हूँ।'
उसकी आवाज में चिड़चिड़ाहट बढ़ गई थी, जिसका तात्कालिक कारण तो पेट में बनता
दबाव हो सकता था, पर उसका एक गैर तात्कालिक कारण भी था।
पिछले कुछ दिनों से उसमें एक अजीब परिवर्तन आया था। उसे अपने समय और अपनी
प्रायवेसी की चिंता सताने लगी थी। वह अब तक इस तरह दोस्तों और जनता का आदमी
होकर रहता आया था कि उसका अपना कोई वक्त ही नहीं रह गया था। उसे अपनी किताबों,
अपने कैसेट्स और अपने संगीत की याद बेतरह सताने लगी थी। उसे लगता था कि उसके
विचार बिखर से गए हैं और उन्हें दुबारा व्यवस्थित करने की जरूरत है। पर यहीं
उसके पुराने संपर्क, लोगों के लिए कुछ कर गुजरने का उसका जज्बा और सामाजिक
द्वंद्व में अपना पक्ष निभाने की उसकी भावना आड़े आ जाते थे। वह इतना सरल
व्यक्ति था कि लोगों से मुँह खोलकर कुछ कह नहीं पाता था और इतना कठिन भी कि
अपनी संवेदनाओं को जरा भी ठेस पहुँचते देख नाराज हो जाता था। अंतर और बाह्य का
ये संघर्ष ही उसकी चिड़चिड़ाहट का मूल कारण था। वह सोचता था लोग अपने आप में
इतने मशगूल क्यों हैं?
इसी हल्की सी नाराजी और तनाव में मुब्तिला वह निबटकर आया और दाढ़ी बनाने के
लिए शीशे के सामने खड़ा हो गया।
ब्लेड पुराना था, पहली बार घुमाने पर ही काटने लगा। उसने ब्लेड का पैकेट देखा।
खाली था। झुँझला कर नीति से कहा,
'भाई, मेरा ब्लेड तो...।'
फिर चुप हो गया। इस वक्त बात बढ़ाने का कोई मतलब नहीं था। शाम को ब्लेड लाना
याद रखना होगा।
इस वक्त उसने पुराने ब्लेड से ही काम चलाया। शीशा देखा। गर्दन पर बाल छूट गए
थे। उसने सोचा कल देखा जाएगा और बाथरूम में घुस गया।
वातावरण में ठंडक थी। ठंडे पानी से नहा लेने पर उसके शरीर में खुजली सी होती
थी और लाल चकत्ते उभर आते थे, पर लगभग रोज ही उसे ठंडे पानी से नहाना पड़ता
था, क्योंकि पानी गर्म कर सकने का भी वक्त नहीं होता था। वह जल्दी जल्दी नहाकर
बाहर आया, उतनी ही जल्दी से कपड़े पहने और नाश्ते की टेबल के सामने जाकर खड़ा
हो गया।
दो पराँठे और एक गिलास दूध वहाँ पहले से ही रखे थे। उसने पराँठे को गोल किया
और जल्दी जल्दी खाने लगा। खाने के साथ साथ वह चहलकदमी भी करता जा रहा था। इससे
उसे सोचने में मदद मिलती थी और शरीर में कुछ गर्मी लाने में भी। सोचते सोचते
ही उसने दूध का गिलास उठाया, एक घूँट लिया और तेजी से नीचे रख दिया। दूध बहुत
गर्म था, पर उसने ध्यान नहीं दिया था। जीभ बुरी तरह जल गई। उसने नाश्ता अधूरा
ही छोड़ दिया।
नीति ने कहा,
'ये पराँठा तो खा लो।'
'बस हो गया।'
'जब तक तुम नाश्ता करते, हम तुम्हारी पैंट प्रेस कर देते...।'
'ठीक तो है।'
'अच्छा आज शाम घर का सामान लेने...'
'तुम ले आना।'
'अम्मा की शुगर टेस्ट करा लो। दो दिन से चक्कर चक्कर कर रही हैं।'
'लौट कर देखूँगा।'
'कब तक आओगे?'
'रात तक।'
'कल सुबह जाना है?'
'हाँ।'
अब बात करने का भी वक्त नहीं था। उसने चप्पल डाली और चल पड़ा। जैसे ही स्कूटर
स्टार्ट की, चप्पल टूट गई। वह टूटी चप्पल पहने ही निकल पड़ा।
जैसे जैसे वह अपने ऑफिस की ओर बढ़ा, उसका मूड बदलने लगा। दूर दूर से आने वाले
अपने साथियों के चेहरे उसकी नजरों के सामने आने लगे। उन लोगों ने नई आर्थिक
नीतियों को किस तरह लिया होगा ये जानने की उत्सुकता उसे सताने लगी। आज इसी
विषय पर बात होनी थी। वह अपने विचारों को व्यवस्थित करने लगा।
जिलों से आए उसके साथी कार्यालय में पहुँच चुके थे। सिराज बैठक व्यवस्था में
लगा था। कार्तिक के पहुँचते ही उसे तरह तरह की जिज्ञासाओं ने घेर लिया,
'कार्तिक भाई, नमस्ते।'
'नमस्कार। और क्या हाल हैं?'
'बढ़िया। और आपके?'
'बस ठीक हूँ।'
'इस बार आप हमारे शहर के बहुत पास से निकल आए?'
'क्या बताएँ, लौटने की जल्दी थी।'
'पत्रों का जवाब भी नहीं मिल रहा?'
'दूँगा यार, देख ही नहीं पाया।'
'दिल्ली की क्या खबर है?'
'अच्छी हलचल है। पर ज्यादा जरूरी है आपके शहर की खबर।'
'हम लोग भी माहौल बना तो रहे हैं। बस एक बार आपको आना है।'
'जरूर, जरूर।'
कार्तिक ने सबसे बात की। सबको सही जवाब देने की कोशिश की। वह किसी का दिल
दुखाना नहीं चाहता था।
साथियों के बीच आकर उसने अपने आपको बहुत ताकतवर महसूस किया। उसकी चिंता का
दायरा अचानक बहुत बड़ा हो गया। वह परिवर्तन के लिए जारी एक बड़े संघर्ष से
अपने आपको जुड़ा महसूस करने लगा।
उसने कहा,
'आइए मीटिंग शुरू करते हैं।'
मीटिंग शुरू होते ही वह दूसरी तरह का आदमी हो गया। उसने बहुत मजबूती के साथ नई
आर्थिक नीतियों के पीछे छुपे अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र को खोलकर बताया। उसने
देश की आत्मनिर्भरता और उससे जुड़ी आम भारतीय की अस्मिता का प्रश्न बहुत
भावुकता के साथ उठाया। उसने देश में जारी लूट के खिलाफ आह्वान किया। वातावरण
काफी हाई वोल्टेज पर चार्ज हो गया। एक गरमागरम बहस छिड़ गई जो अंत में जाकर आम
सहमति पर समाप्त हुई। अगले महीने के लिए आंदोलनात्मक कार्रवाई का प्लान बनाया
गया और सबने पूरी ताकत लगाने का आश्वासन दिया।
कार्तिक ने संतोष की साँस ली। उसका काम हो चुका था। उसने सिर उठाया। देखा दो
बज रहे थे। उसे अपनी कल की बची हुई रिपोर्ट भी पूरी करनी थी। खाना खाने का
वक्त नहीं था। उसने संजय से कहा,
'चलो संजय, बहुत काम है।'
वह जाकर अपनी सीट पर बैठ गया। उसने बोलना और संजय ने लिखना शुरू कर दिया।
'विकसित देश दुनिया को आज ऐसे दो भागों में विभाजित कर देना चाहते हैं जिनमें
से एक, दुनिया के सभी संसाधनों का, उसके ज्ञान विज्ञान का, व्यापार का मालिक
हो और दूसरा मजबूरी में अपने संसाधनों का दोहन करवाता रहे...।'
'कार्तिक टेलीफोन'
'......'
'हाँ संजय आगे चलो, प्रतिद्वंदिता विहीन विश्व में अमेरिकी दादागिरी का स्वरूप
भी बहुत भोंडा होता चला जा रहा है। अमेरिका विश्व के तमाम बाजारों पर कब्जा कर
लेना चाहता है जिससे अपनी डूबती अर्थव्यवस्था को बचा सके...'
'कार्तिक वो भिंड वाले साथी तुमसे मिलना चाहते हैं।'
'चलो बात कर लेते हैं, संजय तुम यहीं रुकना...'
'......'
'चलो शुरू करो संजय। विश्व बैंक के दबाव के आगे...'
'कार्तिक दस अगस्त को आपको हमारे जिले में आना है।'
'कार्तिक, अगली मीटिंग आठ की है।'
'कार्तिक, ग्यारह को दिल्ली पहुँचना है।'
'कार्तिक, वो पुस्तिका कब निकल रही है?'
'कार्तिक, हम खर्चे का हिसाब देना चाहते हैं।'
'कार्तिक ...'
'कार्तिक ...'
'कार्तिक ...'
कार्तिक ने सबको धैर्यपूर्वक निबटाया। बीच बीच में थोड़ा झुँझलाया पर रिपोर्ट
लिखवाना जारी रखा। उसने दिन में खाना नहीं खाया था। शाम के छह बजने वाले थे और
उसे कस कर भूख लग आई थी। वह रिपोर्ट के अंतिम हिस्से पर पहुँचा।
'हम सबका ये कर्तव्य बनता है कि...।'
फिर संजय से कहा,
'चलो भई संजय, अब खत्म करो। टाइप करके एक कॉपी त्रिवेंद्रम मेल कर देना। एक
कॉपी घर पहुँचा देना।'
वह सीट से उठ ही रहा था कि नरेंद्र ने कहा,
'कार्तिक सात बजे पर्यावरण संगोष्ठी में जाना है। उनका दो बार फोन आ चुका है।'
कार्तिक बुरी तरह थक गया था। पर पर्यावरण बचाओ आंदोलन एक मित्र आंदोलन था।
उन्होंने अगर बुलाया था तो जाना जरूरी था। उसने कहा,
'कहीं कुछ खा लें। फिर चलते हैं।'
फिर बाहर निकल आया।
कार्तिक ठीक सात बजे संगोष्ठी स्थल पर पहुँच गया।
करीब तीस चालीस लोग वहाँ पहुँच चुके थे और अलग अलग समूहों में खड़े बतिया रहे
थे। कुछ लोग सिगरेट फूँक रहे थे या चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। बीच बीच में
किसी के मजाक पर जोर का ठहाका पड़ता था। फिर बात सम पर आ जाती थी।
ये वही लोग थे जो कार्तिक को हर गोष्ठी में दिखाई पड़ते थे। उसे ऊब सी लगने
लगी। उसने संयोजक को ढूँढ़ा और कहा,
'भई शुरू करवाइए।'
'बस भाई साहब, एक दो मिनिट और देख लें।'
फिर वे अंदर जाकर बैनर बाँधने लगे। करीब दस मिनिट बाद बाहर आकर उन्होंने एक
नजर मारी। कोई दो चार लोग ही और बढ़े थे। वे अब अलग अलग लोगों से
आत्मीयतापूर्वक मिलने का अभिनय करने लगे। इस बीच एक जूनियर से लड़के ने उनके
कान में आकर कुछ कहा। वे थोड़ा सा चौंके फिर पास के कमरे में फोन करने चले गए,
बाहर आए तो उनके माथे पर चिंता की सलवटें थीं। उन्होंने कार्तिक के पास आकर
कहा,
'कार्तिक भाई आपसे एक रिक्वेस्ट है, सिंह साहब को प्रमुख वक्ता के रूप में
बुलाया था। अभी अभी खबर मिली है कि वे कहीं फँस गए हैं। नहीं आ सकेंगे। अब आप
ही विषय प्रवर्तन कर दें।'
कार्तिक ने झुँझलाते हुए कहा,
'यार मैं बहुत थका हुआ हूँ और इस विषय पर मेरी तैयारी भी नहीं है।'
संयोजक ने कहा,
'कार्तिक जी, आपको तैयारी की क्या जरूरत। आप तो आज के हालात से पूरी तरह
परिचित ही हैं। और आपका हर विषय में अध्ययन है, आप बड़ी आसानी से बोल सकते
हैं...।'
'ठीक है। शुरू करवाइए। मैं देखता हूँ।'
कार्तिक जाकर हॉल में बै गया। उसने जेब में से एक कागज निकाला और उस पर कुछ
लिखने लगा। गोष्ठी शुरू हुई।
- अब संस्था के सचिव ने अतिथियों को मंच पर बुलाया।
- अब संस्था की संयुक्त सचिव ने अतिथियों का परिचय कराया।
- अब संस्था की प्रमुख महिला कार्यकर्ता नंबर एक ने अतिथि नंबर एक को फूल भेंट
किए।
- अब संस्था की प्रमुख महिला कार्यकर्ता नंबर दो ने अतिथि नंबर दो को गुलदस्ता
भेंट किया।
- अब संस्था के कुछ छूट गए व्यक्तियों ने, जो अन्यथा शायद बुरा मानते,
अतिथियों का स्वागत किया।
- अब संस्था के नवयुवकों ने एक गीत गाया, जो भजन की तरह था।
संयोजक ने फिर बोलना शुरू किया,
'हमारे बीच प्रदेश के प्रमुख बुद्धिजीवी और जुझारू कार्यकर्ता कार्तिक मौजूद
हैं। पर्यावरण की लड़ाई में उनका बड़ा योगदान रहा है। आज वे हमारे सामने...।'
कार्तिक इस तरह के परिचय सैकड़ों बार सुन चुका था। उसे इनसे बड़ी कोफ्त होती
थी। वह चाहता था कि लोग गंभीरता से विषय के बारे में सोचें, कुछ पूर्व तैयारी
के साथ आएँ और बहस को अगली बौद्धिक सीढ़ी पर ले जाने में मदद करें, पर वह ये
भी जानता था कि लोग विषय से पूरी तरह अनभिज्ञ होंगे, कि उसे मूलभूत बातों से
शुरुआत करनी होगी और फिर मूलभूत प्रश्नों के उत्तर देने होंगे।
उसने अपना कागज सामने रखा और विकसित तथा विकासशील देशों के बीच अंतर्विरोध
वाली अपनी लाइन पकड़ी।
'जैव विविधता के मसले को हमें विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ते
अंतर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में
उन्होंने अपने जैविक संसाधन नष्ट कर लिए हैं और करते जा रहे हैं, अब वे चाहते
हैं कि विकासशील देशों के पास जो जैविक संसाधन रह गए हैं उन पर कब्जा कर लिया
जाए। पर उन्होंने खुद जो जैव तकनीकें विकसित की हैं उनका बँटवारा नहीं चाहते।
असमानता की इस शर्त को कतई नहीं माना जाना चाहिए...।'
संयोजक ने एक नजर श्रोताओं पर डाली, वे कार्तिक से एक चुंबक की तरह चिपक गए
थे, कार्तिक ने विषय को अपने पूरे कंट्रोल में ले लिया था। अब वह उसे सही
मुकाम पर ले जाकर ही छोड़ेगा ये सोचकर संयोजक ने गोष्ठी की चिंता छोड़ी और चाय
वगैरह की चिंता में लगे।
कार्तिक विषय को बिल्कुल सही मुकाम पर ले गया। उसने ठीक ठीक बहस कराई और फिर
जैव विविधता संधि के खिलाफ मीटिंग में प्रस्ताव पास कराके ही उसे समाप्त किया।
वह हॉल के बाहर निकल आया। अब वह सीधे घर जाना चाहता था, पर लोगों ने प्रश्न
पूछना नहीं छोड़ा था, उसने सबसे बात की। कोशिश की कि हर सवाल का जवाब दे सके।
तभी संयोजक ने पास आते हुए कहा,
'मैं न कहता था कि आप से अच्छा वक्ता हमें मिल नहीं सकता था। आपने बढ़िया विषय
प्रवर्तन किया, बधाई। बस एक छोटा सा काम और आपके जिम्मे है।'
'बताएँ।'
'आप घर ही जा रहे हैं न?'
'जी, जी हाँ।'
'तो जरा डॉ. श्रीवास्तव को घर तक छोड़ दीजिएगा। ये आपके रास्ते में ही रहते
हैं। और हाँ, बहुत बहुत धन्यवाद।'
'आइए श्रीवास्तव जी।'
कार्तिक ने कहा और अपने घर का रास्ता लिया।
जब कार्तिक घर पहुँचा तो रात के ग्यारह बज रहे थे।
वह बेहद थका हुआ था और तय नहीं कर पा रहा था कि इस भरे पूरे दिन को, जो अभी
अभी गुजरा था, संतोषप्रद माने या नहीं। वह लगभग बिस्तर पर गिर पड़ने की हालत
में घर पहुँचा।
नीति खाना लिए बैठी थी। उसने कहा,
'खाना खाओगे?'
'हाँ।'
फिर उसने बिना बातचीत किए दो रोटी खाईं।
सोने से पहले कहा,
'कल सुबह जाना है।'
'मालूम है।'
'कपड़े वगैरह...'
'रख दिए हैं।'
उसने बत्ती बुझाई और सो गया।
रात करीब दो बजे उसकी नींद अचानक ही खुल गई।
आजकल अक्सर ऐसा होता था कि बीच रात में उसकी नींद खुल जाया करती थी और फिर
शुरू होता था खुद से बातचीत का एक लंबा सिलसिला।
कमरे में रात की बेसुधी छाई हुई थी। पूर्णिमा थी और खिड़की के शीशे से छनकर
चाँदनी कमरे के भीतर चली आ रही थी। नीति का चेहरा ऐसी ही किरणों के प्रकाश से
दमक रहा था।
अचानक कार्तिक को लगा, जाने कितने दिन हुए उसने अपनी पत्नी को छुआ तक नहीं था।
उसने नीति का चेहरा अपने हाथों में ले लिया और उससे धीरे धीरे प्यार करने लगा।
सब कुछ जल्दी ही खत्म हो गया।
नीति ने करवट ले ली। अब उसकी पीठ कार्तिक की ओर थी।
कार्तिक ने आदतन उसे अपने बाँहों के घेरे में लेकर कहा,
'क्यों कैसा रहा?'
नीति ने कोई जवाब नहीं दिया।
अब कार्तिक ने आजिजी से उसका हाथ पकड़कर पूछा,
'तुमने बताया नहीं?'
नीति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई।
उसकी पीठ कार्तिक की ओर थी। उसने खिड़की से परदा खींच दिया था जिससे चाँदनी और
प्रखरता के साथ कमरे को रोशन कर रही थी। खिड़की के रास्ते आम की कुछ पतली पतली
टहनियाँ भीतर चली आ रही थीं। नीति ने अनायास ही उनमें से एक टहनी को मुट्ठी
में ले लिया था और कार्तिक से पूछ रही थी,
'कार्तिक क्या तुम अब भी मुझसे प्यार करते हो?'
ये सवाल कार्तिक के सीने में तीर की तरह लगा था।
अचानक उससे कोई जवाब देते नहीं बना।
उसने कहा,
'ये कैसा किन सवाल तुमने पूछ लिया?'
'कठिन है तो कुछ सोचकर जवाब दो।'
कार्तिक अभी अभी दिन भर के घटनाक्रम के बारे में सोच चुका था। पिछले साल भर से
वह जिस वेदना से गुजर रहा था उसके आधारों में ये सवाल भी शामिल था, हर बार
तमाम सवालों और उनके जवाबों में से जो लघुत्तम समापवर्त्य वह निकाल कर लाता था
वह था, 'हाँ करता हूँ'। उसने कुछ सोचकर कहा,
'हाँ, करता हूँ।'
'बहुत सोच कर उत्तर दिया?'
'सवाल भी तो तुमने कठिन पूछा था।'
'सवाल कठिन नहीं है। जवाब देना कठिन है। और ये कठिनाई भी आज है। आज से पंद्रह
साल पहले नहीं थी। जब तुम मेरी सुगंध में गिरफ्तार, झील के किनारे घंटों बैठे
रहते थे, या मैं तुमसे लिपटकर लंबी दूरी तक घूमने जा सकती थी या बिना बात के
भी हम दिन भर बैठे बातें बना सकते थे...'
'शायद तुम ठीक कह रही हो पर समय बदलता भी तो है...'
'हाँ बदलता है, पर दोनों के लिए बदलता है। कार्तिक तुमने सोचा है कि तुम अपने
स्वप्न का पीछा करते करते मुझसे कितनी दूर निकल गए हो? अब तो शायद तुम्हें ये
याद भी न हो कि मेरा स्वप्न क्या था। मैंने एक इंजीनियर से विवाह किया था और
किसी भी सामान्य लड़की की तरह एक छोटा सा घर और सुख शांतिपूर्ण जीवन मेरा पहला
स्वप्न था। पर तुम लंबी उड़ान पर निकल चुके थे। तुम एक सामान्य इंजीनियर नहीं
थे। तुम्हें साहित्य और संगीत से प्रेम था। तुम नए नए विषय पढ़ना चाहते थे,
पढ़ रहे थे। तुम जिज्ञासु आदमी थे और खोज पर निकलना तुम्हारी प्रवृत्ति थी।
छोटे से घर की शांतिपूर्ण जिंदगी तुम्हारे लिए नहीं थी। ये मुझे जल्दी ही समझ
आ गया था। तुम्हारी यही असामान्यता मुझे तुम्हारे प्रति और भी आकर्षित करती
थी...'
कार्तिक तकिए से टिक गया था और नीति की बात सुन रहा था। बहुत दिनों के बाद उसे
नीति के दिल में झाँकने का अवसर मिला था। नीति कह रही थी,
'मैं तुम्हें हर कठिनाई से बचा लेना चाहती थी जिससे तुम जो चाहते थे वह कर
सको। उसके लिए समय निकाल सको। मैं तुम्हारे जीवन को प्रेम से भर देना चाहती
थी, जिससे तुम्हारा मन आनंद और उत्साह से हल्का हो सके और हमारे प्यार से
सुगंधित रह सके। मैंने सारे अप्रिय काम अपने ऊपर ले लिए। राशन की लाइन, बिजली
का बिल और गैस कनेक्शन मेरे जिम्मे था। हाट बाजार और महीने का सामान तुमने
बरसों से नहीं किया होगा। सब्जियाँ और घर का रुटीन भी मेरे ऊपर था। अम्मा के
सारे त्यौहार तुम्हें अच्छे लगते हैं पर उनके पीछे मेहनत, कम से कम आधी मेहनत,
मेरी भी होती थी। मुझे भी पढ़ना लिखना अच्छा लगता है। मेरी भी अपनी तरह की
बौद्धिक भूख है। पर मैंने तुम्हारे काम को तरजीह दी। धीरे धीरे हमारे बीच काम
का बँटवारा हो गया। सारा बौद्धिक काम तुम कर रहे थे, सारा घर का काम मैं कर
रही थी। पहले खुशी से, तुम्हारी खातिर और बाद में - क्योंकि ऐसा अलिखित नियम
बन गया था।'
कार्तिक ने प्रतिरोध करते हुए कहा,
'तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ तुम थोड़ा अन्याय कर रही हो? क्या अपने संगीत,
साहित्य और नाटक में मैंने तुम्हें शामिल नहीं किया? क्या तुम्हारी स्वतंत्रता
का मैंने कभी असम्मान किया? क्या शुरू में हाट बाजार और घर के काम में मैं भी
शामिल नहीं था? और क्या सिर्फ व्यस्तता ने ही मुझे इनसे दूर नहीं किया।'
नीति ने खिड़की से टिके हुए ही जवाब दिया,
'मुझे यही तो शिकायत है तुमसे। अगर मैं किसी सामान्य आदमी के साथ ब्याह कर आती
तो शायद वह मुझे उस नई दुनिया में नहीं ले जाता जहाँ तुम मुझे ले गए। पर एक
बार जब वहाँ ले गए तो मेरा भी वहाँ बने रहने का मन करता है। लगता है मेरा भी
कुछ समय हो। मैं भी नई नई बातें जान सकूँ, पढ़ सकूँ। पर मेरा काम बढ़ता ही
जाता है और तुम्हारा संबल नहीं मिलता। तुम्हारे जाने अनजाने में तुम्हारा
सहारा मुझसे छूटता जाता है, ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।'
कार्तिक को लगा वह सच कह रही थी। नीति ने आगे कहा,
'मेरे स्वप्न में तुम अभी भी शामिल हो। शुरुआती दिनों का तुम्हारा अद्भुत
प्यार अब भी मेरे मन में बसा है। तुम्हारा वह ऊर्जावान, हँसमुख चेहरा अब भी
मुझे याद आता है। इसीलिए तुम्हारा दूर होना या थकना मैं देख पाती हूँ।
तुम्हारे सफेद होते बाल, झुकते कंधे और लंबी चुप्पी, मुझे गहरे तक दुखी कर
जाते हैं। पार्टी के बारे में तुम मुझसे बात नहीं करते और उसके अलावा तुम्हारी
कोई चिंता मुझे समझ में नहीं आती। लिखना पढ़ना तुम्हारा कम होता जा रहा है।
मैं देख रही हूँ कि मेरा प्यारा कार्तिक धीरे-धीरे नष्ट होता जा रहा है...'
कार्तिक ने जवाब दिया,
'आदमी कई बातें कह नहीं पाता। वह भीतर से बदलता भी रहता है। पर तुम्हारे प्रति
प्रेम? वह मेरे मन में कम नहीं हुआ है, बल्कि उम्र के साथ साथ बढ़ा ही है...'
नीति ने पलटकर खिड़की से अपनी पीठ टिका ली। अब उसका चेहरा कार्तिक की ओर था।
'तुम क्या समझते हो कि पहले नताशा और फिर उमा की तरफ तुम्हारे झुकाव के बारे
में मैं नहीं जानती? या मैं इसे बिल्कुल नहीं समझती? कार्तिक स्त्री की एक छठी
इंद्रिय होती है। वह प्यार के कम और ज्यादा होने को भाँप लेती है।'
कार्तिक ने उत्तर देने की कोशिश की जो बहुत कन्विसिंग नहीं था।
'वह झुकाव सिर्फ बौद्धिक या कि प्लेटॉनिक ही है...।'
'डरो नहीं। मैं तुम्हें कोई दोष नहीं दे रही। हालाँकि मैं ये भी जानती हूँ कि
कब प्लेटॉनिक लव की सीमाएँ टूट जाती हैं और वह शारीरिकता की सीमा में प्रवेश
कर जाता है। तुम्हारा झुकाव प्लेटॉनिक है या शारीरिक ये तुम ही बेहतर जानते
हो। पर मैं इतना जरूर जानती हूँ कि तुम्हारे चुंबन में अब वह गहरा आवेश नहीं
रहा जो मैं पहले महसूस कर पाती थी। कार्तिक मैं जानती नहीं पर महसूस कर पाती
हूँ कि तुम एकदम वही व्यक्ति नहीं रहे जो पहले थे। तुम शायद नहीं देख पाते कि
तुम्हारा प्यारा और आकर्षक व्यक्तित्व उतना प्रिय नहीं जैसा कि वह पहले था,
तुम्हारी बुद्धि और चेतना उतनी सुंदर और पवित्र नहीं जैसी कि वह पहले थी, तुम
एक दिशा भ्रम से घिर गए हो जिससे तुम्हारे काम में भी वह आनंद और उत्साह नहीं
रहा और प्यार भी इस तरह से करने लगे हो जैसा कोई भूला हुआ मगर जरूरी काम करना
हो, जिसमें कोई आनंद या उत्साह न हो...।'
नीति अचानक चुप हो गई।
कार्तिक उठा और बाहर बालकनी में निकल आया।
बाहर चाँदनी वैसी ही बिखरी हुई थी, हालाँकि रात के ढलने के साथ साथ उसकी
प्रखरता थोड़ी कम हुई थी। कार्तिक के घर के सामने अशोक के पेड़ वैसे ही हल्की
हवा में थरथरा रहे थे और आम के पत्तों से वैसी ही रहस्यमय सरहराहट फुसफुसा कर
कुछ कहना चाह रही थी। दूर तक सड़क पर रात का सन्नाटा बिछा हुआ था।
कार्तिक ने अचानक अपने आप को बहुत अकेला महसूस किया। एक दिशाहीन और अकेला
आदमी, जो किसी व्यावसायिक संस्थान में सफल इंजीनियर हो सकता था मगर नहीं हुआ,
भारतीय प्रशासनिक सेवा में सफल प्रशासक हो सकता था पर नहीं हो पाया, एक सफल और
खुशनुमा पति तथा प्रेमी हो सकता था लेकिन कहाँ बन पाया, एक सफल क्रांतिकारी हो
सकता था मगर... तो फिर वह क्या था? अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद वह सफल था
या असफल? क्या उसकी पहचान पूरी तरह धुँधला नहीं गई थी? अम्मा चाहती थीं कि वह
फिर से खुश हो सके, नताशा और उमा उसे सिर्फ अपने प्रभाव में देखना चाहती थीं,
नीति उसके टूटने से चिंतित थी, रघु मानता था कि उसे मान्यता की जरूरत थी, और
कॉमरेड मोहन? वे उसे प्रतिक्रांतिकारी घोषित कर पार्टी से बाहर निकाल देना
चाहते थे। पर क्या इनमें से कोई भी उसे ठीक ठीक समझता था? समझना चाहता था?
अचानक उसने देखा कि वह रो रहा है। अनायास ही उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे
झर झर - झर झर। पेट के कहीं गहरे से हूक सी उठी थी और उसकी हिचकियाँ बँध गई
थीं। वह बाल्कनी के खंभे से टिका खड़ा था और अकेले रो रहा था। सुबह की उस
नीरवता में उसकी हिचकियाँ एक उदास गीत की तरह सुनी जा सकती थीं।
वह कुछ देर इसी तरह खड़ा रहा होगा कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।
नीति थी।
उसने दोनों बाँहों में कार्तिक को समेटा और कहा,
'चलो, भीतर चलो।'
कार्तिक ने देखा उसकी आँखों से भी आँसू धाराप्रवाह बह रहे थे। वह धीरे धीरे
उसे समेट कर भीतर लाई और माथे पर एक चुंबन लिया फिर होंठों पर, चेहरे पर उसके
सीने पर... उसने कार्तिक को अपने चुंबनों से सराबोर कर दिया।
फिर दोनों ने प्रेम किया।
वैसा प्रेम उन्होंने बरसों से नहीं किया था।
सुबह जब कार्तिक की नींद खुली तो नौ बज चुके थे।
नीति उसके सिरहाने खड़ी थी और चिंता से कह रही थी,
'उठो, तुम्हारी त्रिवेंद्रम वाली ट्रेन चली गई।'
कार्तिक ने अधलेटे, तकिए पर टिके हुए कहा था,
'जाने दो, मैं त्रिवेंद्रम नहीं जा रहा हूँ।'