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लघुकथाएँ

टेक केयर माँ

पद्मजा शर्मा


होस्टल से बेटी का फोन आया - 'माँ, हम फ्रेंड्स दमन-दीव घूमने जा रहे हैं'।

'कब?'

'कल।'

'माने?'

'माने कि घूमने जा रहे हैं।'

'कौन-कौन?'

'मैं, स्वाति और दीप्ति।'

'तय हो गया?'

'क्या?'

'प्रोग्राम?'

'हाँ।'

'बिना हमसे पूछे, बात किए?'

'की थी, एक दिन जब मेरा थर्ड सैम का रिजल्ट आया था।'

'कब आया था?'

'दो महीने पहले।'

'किससे हुई थी बात?'

'पापा से।'

'पापा तो कभी अलाओ नहीं कर सकते तुम्हें।'

'उन्होंने कहा था कि तब की तब देखेंगे। तो मैंने कहा था कि मेरे मार्क्स अच्छे आए हैं और मैं जाऊँगी। अब तो सिर्फ उन्हें बताना है। और हाँ आपको भी बताने के लिए ही फोन किया है।'

'अगर मैं कहूँ कि मत जाओ, तो?'

'तो क्या, जाना तय है। टिकेट्स आ गई हैं। यह जीवन मेरा है माँ, मुझे अपने हिसाब से जीवन को जीवन की तरह जीना है। मुझे कोई आदर्श स्थापित करने का चाव नहीं है, आपकी तरह। घुटते-पिसते-रोते हुए जीवन जीना और उफ न करना। मैं यह कतई नहीं चाहती कि लोग कहें कि देखो कितनी सीधी है। कितनी विनम्र है फलाँ जी की लड़की।'

'मगर नहीं घूमने गए तो जीवन-जीवन नहीं रह जाएगा क्या?'

'इतना डीप में जाकर हम नहीं सोचते। जाने का मन है, मतलब जाना है।'

'चलो ठीक है, पर लड़कियाँ ही हों, लड़के तो नहीं हैं ना?'

'माँ, और लड़कियों के घरवाले पूछते हैं कि साथ में लड़के हैं ना? तुम अकेली लड़कियाँ इतनी दूर मत जाना। और आप पूछती हैं कि लड़के नहीं हैं ना? कैसी माँ हैं आप? माँ को दोस्त होना चाहिए कि संतान का दुश्मन?'

'यह बात यहीं समाप्त करते हैं। तू अपना पूरा कार्यक्रम मेल जरूर कर देना ताकि कल को कोई ऊँच-नीच, घटना-दुर्घटना घटे तो हमें पता रहे कि तू कहाँ, कब तक, किसके साथ, कितने दिन तक है?'

'बता दिया न?'

'लिख भी देना।'

'समय मिला तो...। टेक केयर माँ।'


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