'सर, मुझे एक कंपनी अच्छा पैकेज दे रही है। मैं वहाँ ज्वाइन करना चाहता हूँ।'
	'कैसी बातें कर रहे हैं, मिस्टर पंकज। आप की बदौलत हमारी कंपनी का कारोबार
	बढ़ा है। आप हमारे लिए एस्सेट हैं। हम आपको कैसे छोड़ सकते हैं?'
	'सर, वह तो ठीक है। मगर सैलरी... वो जस्ट डबल दे रहे हैं। मुझे जाने या न जाने
	का निर्णय भी एक महीने में ही लेना होगा। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।'
	'मिस्टर पंकज आप चिंता न करें। मैं शीघ्र ही आपकी सैलरी के विषय में
	मैंनेजमेंट से बात करता हूँ।'
	पंकज आश्वस्त था।
	महीने से ऊपर समय बीत गया। कोई जवाब या शुभ संकेत नहीं मिला। पंकज ने एक दिन
	चलाकर पूछ लिया -
	'सर, क्या सोचा?'
	'किस बारे में?'
	'मेरी सैलेरी, सर?'
	'अरे हाँ, मैंने हायर अथॉरिटी से बात की। पर बात बनी नहीं। आप दूसरी जगह
	ज्वाइन कर सकते हैं। सॉरी मिस्टर पंकज।'
	'पर सर, अब वहाँ जाने का समय तो निकल चुका है। बहुत देर हो गई।'
	'मिस्टर पंकज, कंपनी को व्यक्ति की नहीं, व्यक्ति को कंपनी की जरूरत होती है।
	यह बात सदा के लिए गाँठ बाँध लेना।'
	'सर, कल तक तो मैं एस्सेट था।' कहते हुए पंकज की आँखों में आँसू आ गए।
	तभी उसकी पीठ पर सांत्वना का हाथ रखते हुए उसके सहकर्मी ने कहा - 'दोस्त,
	भावुक होने से कुछ नहीं होगा। दीवारों के सिवाय कोई नहीं यहाँ तुम्हें सुनने
	वाला। अब तुम एस्सेट नहीं लायबिलिटी हो। तुम्हारी जगह किसी और को रखना तय हो
	चुका है।'
	'क्या?'
	'हाँ, मैंनेजमेंट का यह उसूल होता है कि जब व्यक्ति कंपनी से ऊपर निकलने लगे
	तो उसके पाँव काट दो। वह भी इस तरह धीरे-धीरे कि खुद उसको भी पता न चले। जिससे
	अपने पाँवों पर चलकर वह कहीं, किसी और जगह न तो जा सके और न ही ठीक से अपनी
	जमीन-जगह पर बिना किसी सहारे के खड़ा रह सके।'
	पंकज, अवाक उसे देखता रहा।