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कविता

अँखियाँ हरि-दरसन की प्यासी

सूरदास


अँखियाँ हरि-दरसन की प्यासी।
देख्यौ चाहति कमलनैन कौं¸ निसि-दिन रहतिं उदासी।
आए ऊधौ फिरि गए आँगन¸ डारि गए गर फाँसी।
केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृंदावन के बासी।
काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगनि के मन हाँसी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।।


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