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कविता

मनहीं मन रीझति महतारी

सूरदास


मनहीं मन रीझति महतारी।
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहीं तौ मेरी है बारी।
झूठैं हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी।
रिस की बात सुता के मुख की, सुनति हँसति मनहीं मन भारी।
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावैं गारी।
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिस टारी।।


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