लोक अउर साहित्य दूनो एक दूसरे क पूरक हौ बिना लोक क साहित्य कइसन अउर बिना साहित्य क लोक कइसन। जवने साहित्य में लोक नाहीं होत ऊ कग्गर लग जाला। जेकरे लोक क समझ बा अउर जे लोक से जुड़ल बा उहै सच्चा साहित्य रच पावै ला। नाहीं त गाल बजावै के सिवा कुछो नाहीं कर पावत। जवने के लोक स्वीकार कर लेहलेस उहै कविता हौ, लोक अउर शास्त्र में समन्वय करै वाले भाषा के लोकभाषा, जनभाषा आदि नाम से जानल जाला। एही के मातृभाषा भी कह लन जवने के हम सभे अपने माई के मुँह से पहिली बार सुनले रहली। हमार मातृभाषा भोजपुरी हौ। भाषा क विद्वान सब भोजपुरी के बोली कह लन बाकी उहै इहो कह लन कि भाषा अभिव्यक्ति क माध्यम हौ। भोजपुरिया क्षेत्र क लोग भोजपुरी में आपन अभिव्यक्ति कर लन त ए लिहाज से हमार भाषा भोजपुरी भइल। भोजपुरी भाषा हौ कि नाहीं ए झगड़ा में हम न पड़ब। हम जवन बतावत हइ, ऊ ई कि भोजपुरी भाषा क जवन लोक बा, ऊ बड़ा सम्पन्न बा, बहुत भरल पुरल बा भोजपुरिया समाज। भोजपुरी जनमानस के द्वारा जवन अभिव्यक्ति भइल बा ओकर विविध रंग बा। जवन लोक के भीतर एक अउर लोक रचै ला। लोक क परिभाषा बहुत व्यापक हौ। लोक कहले से हम तीनों लोक से जुड़ जाइला। पर हम जवने लोक क बात करत हई ऊ लोक के भीतर एक अउर लोक हौ। कहल जाला कि -
'कोस-कोस पर पानी बदलै, तीन कोस पर बानी।'
ई भोजपुरी भाषी क्षेत्र पर सटीक बइठै ला। अइसे त भोजपुरी भाषा क क्षेत्र बहुत व्यापक हौ। पर एकर आपन स्थानीय रंग भी हौ। अइसनै एक रंग देखावै बदे, हम चलत हई अपने गाँव धनपालपुर जहाँ कि हम अपने अल्हड़ बचपना के छोड़ समय के भँवर में गोता लगावत आगे बढ़ गइली। धनपालपुर नाम से अइसन लगै ला, जइसे ई कुबेर क राजधानी हौ। पर हौ ई एक साधारण गाँव। जवन कि बनारस शहर के दक्खिन-पश्चिम के कोने में काशी के सीमा में पंचकोशी परिक्रमा मार्ग के भीतर बसल हौ। जेतना साधारण गाँव ओतनै सहज इहाँ क लोग। जवन मिलल ओतनै में खुश न केहू से शिकवा न शिकायत। कहल भी गयल हौ कि -
गो धन, गज धन, बाजि धन, और रतन धन खान।
जब आवा संतोष धन सब धन धूरि समान।।
इहाँ क लोग एके चरितार्थ करलन। जेतना रहै ओतनै में संतोष करलें। गाँव में कुल मिला के चालीस-पचास परिवार रहल। अब त बड़ा घाँच-पाँच हो गयल बा। घरे में घर अउर चूल्हा में चूल्हा होत चलल जात बा। हम बात करत हई अस्सी के दशक क जब हम दस-बारह बरिस क रहल होब। ओ समय गाँव क स्वरूप कुछ अइसन रहल। गाँव के पूरब, बंशु क कुटी रहल, ओ से सटल चउरा माई अउर सुक्खन डीह गाँव क रखवारी करत रहलन। थोड़ा आगे बढ़ले पर गोसाईं क बारी रहल जहाँ बेर डुबले पर केहू न जाय। चकरा पर अउर तलियवा पर दुई ठे तलखर रहल जहाँ अगल बगल गाँव क कुल मछरमरवा जुटै, गाँव के पश्चिम चनउआ एक मात्र अइसन पोखर रहल जहाँ गाँव भर क अदमी चउआ सब जल-बिहार करैं। अउर देवारी के समय एही पोखर के मट्टी से अगल-बगल सब गाँव में सबके बखरी क पोताई होय। ओ समय क चूना डिस्टेम्पर इहै रहल। गाँव के उत्तर हरिहरपुर नाम क लम्बी पोखर रहल अउर दक्खिन में बिचले पर, नवका पर, पाड़े-पड़ाईन, गड़गड़दास, अहिरा बीर अउर चउदहा पर कुल मिला के गाँव के चारों ओर चउदह जगह अइसन रहल जवने के विषय में कउनो न कउनो किंवदंती जरूर हौ। जवन कि लोक के भीतर लोक के अवधारणा के पूरा करै ला। एकरे अलावा बाहा-बोदर, बारी-बसबारी से भरल पुरल ए गाँव में जहाँ सुरम्य प्रकृति सुमधुर गीत गावत रहल, ओहि गाँव के सरल सहृदय लोगन के रोआँ-रोआँ से साहित्य क धारा फूटत रहल। जवने के हम अपने स्मृति में सजों लेहली। हमरे स्मृति के केन्द्र में हौ गाँव के मध्य क ऊ विशालकाय पीपर जवने के नीचे गोधुलि बेला में गाँव के कुल लड़िकन क टोली जुटैं अउर ऊपर सब चिरइन क सम्मेलन होय। लड़िका जब गाँव गली में उधम मचावै शुरू करैं त ओहि समय चिरई सब चाँव-चाँव चर्चा करै लगैं। रहल-सहल कसर कुल कुक्कुर अपने झाँव-झाँव से पूरा कर दें। ई सब तब शान्त होय जब सिवाने में सब सियारन क हुआँ-हुआँ क हुँकार शुरू हो जाय। ई हुँकार सुनत-सुनत न जाने कब नींद आ जाय ई नींद टुटै भोरहरी में घरर-घरर के साथ जब माई जाँता पर दुई जुन के रोटी के जुगाड़ करै बइठैं। ओ समय जाँत में जवन घरघराहट होय। ओकर मधुर आवाज आज भी हमरे स्मृति में बा। अउर कुछ पहर बितले पर अड़ोस-पड़ोस के घरन से बर्तन क भड़र-भुड़ुर सुनाये लगै। इहै जिनगी क सुर ताल रहल अउर एही में रमत रहल लोक, लोक क भाषा अउर परिभाषा इहै रहल। अउर एही में से फुटल कुछ काव्य जवने के हम गाँव में गोरू चरावत, गुल्ली-डण्डा खेलत, बड़-बुजुर्गन से बतियावत, बाबू के दुलरावत, माई के लोरी सुनावत, कब, कहाँ, केसे, सुनली केसे सीखली ई हमैं याद नाहीं हौ। पर ए काव्य में ओ समय के लोक जीवन क विविध रंग-ढंग, हास-परिहास, रहन-सहन, रीति-रिवाज ओइसहीं सजोंवल हौ, जइसे माई अपने जीवन क अनमोल थाती कथरी में सी के रख देहले होंय। इहै कारण हौ कि ई कविता हमसे बिसरत नाहीं। एम्मे छुपल हौ हमरे माटी क सोंधी महक अउर बचपन क फाँका-मस्ती ओ समय सबके घरे में सलाई क एक ठो काँटी भी न रहै। लोग उपरी-इहन लहा के बड़ेरी क धुआँ निहारैं जेकरे बड़ेरी पर धुआँ देखाय ओही के घरे से सब आग मँगावै, हमार माई जब पहली बार हमसे आग मँगऊलेस त आग माँगैं क जवन कविता बतउलेस ऊ पहिला लोक कविता हौ। जवन हमरे काने में परल। ऊ अइसे हौ कि-
गुड़गुड़-गुड़गुड़ हुक्का बोलै, न बोलै चिलमियाँ।
तनी भउजी आग दे द, हम बाई पुरनियाँ।।
लोगन के फाँका मस्ती क इ करारा व्यंग्य देखैं -
पाड़े गइलन डाँड़े-डाँड़े उठा लिअइलन मेझकी।
ल पड़ाईन जुस बनावा हम तु गटकीं।।
इहाँ लोक कविता के रचना-प्रक्रिया से जुड़ल कुछ रोचक खिस्सा बतावत हई। गाँव में लोगन के पास धन के नाम पर खटिया-बिस्तर, चउका-बर्तन इहै रहल। हमरे गाँव के बगल गाँव से एक फेरीवाला आवै ऊ सब लड़िकन के पट्टी दे के सिखावै कि जा फुटल बर्तन लिआवा त ढेर क देब, पट्टी के लालच में लड़िका जवन काँसा-पीतल क बर्तन मिलै ओहि के बेच दें फिर जब ऊ बर्तन घर में खोजाए लगै त खूब हाय तौबा मचै ओ घरे के कुल लड़िकन क दैहिक-समीक्षा होय, धीरे-धीरे कुल लड़िका ओकर चाल समझ गइलैं कि-
आयल करियवा ले गयल थरियवा।
लोटवा पे झाँक-झुँक लगउले बा।।
अइसहीं जोन्हरी के खेत में कउआ उड़ावै के बहाने कइसे नवाबन क भी मजाक उड़ा दिहल गयल देखैं -
कड़े-कड़े कउआ
नवाब क बेटउआ
नवाब गइलैं दिल्ली
उठा लिअइलैं बिल्ली
ऊ बिल्लिया कानी
सबकर लगै नानी
हमार भरै पानी।।
केहू-केहू के घर आवै क न्यौता दिहलेस त ओकर घर आवै क शर्त सुनैं -
तीत रहै, तात रहै, दिन नाहीं रात रहै।
रोटी से बोटी औ रसा से भात रहै।।
ई सब लोक कविता के रचना-प्रक्रिया के एक हिस्सा हौ। लोक भाषा में कविता क कउनो ओर छोर नाहीं हौ। लोक जनमानस क कवित्व शक्ति अप्रतिम हौ। जवने जनमानस के हम सब पढ़ा-लिखा लोग गँवार समझिला अउर जानिला कि बहुत बड़े जनमानस क साहित्य से सरोकार नाहीं हौ, शायद ओकरे विस्तृत लोक-साहित्य क सही मूल्यांकन हम सभे नाहीं कर पउले हई। लोक भाषा में कविता क विविध रंग हौ। जवने क हम मात्र कुछ बानगी भर प्रस्तुत करत हई। एकर छन्द-बन्द, लय-ताल, अनुतान-वितान, भाषा-शैली सब अपने आप में अनूठा हौ। इहाँ हम कुछ अइसन कविता प्रस्तुत करत हई जवने क रचना या त लड़िका खेलावै बदे भयल हौ, या खेलावत क भयल हौ। एक कविता देखैं, जवने में बेटवा के लिआयल एक मुट्ठी धान से मतारी के आत्म-संतुष्टि क बड़ा सुन्दर चित्र बा -
अलर-बलर दुल पाकै दे
चिलरू खोंइछा नाचै दे
चिलरू गइलन खेत-खलिहा
लिअइलन एक मुठिया धान
ओ धनवा क बनल बखीर
हम खाए बच्ची खइलन
हमरे क्षेत्र क पुरातन परम्परा हौ कि बिआहे-गौने के बाद ससुरारी नाहीं जायल जाला। इहाँ मतारी द्वारा बड़े सरस तरीके से बेटवा के मन में ससुरारी के प्रति विरक्ति पैदा करै क कोशिश हौ -
लाल मोर लाल मोर फूल क कली
जइहैं ससुररिया निहरिहैं गली
सास सरहजिया दुअरवाँ खड़ी
बच्ची क मेहरिया ओसरवा खड़ी
ले ले मोंगरवा धोंगारअ लगी।
जहाँ ए कविता में मेहरारू के अभिधा प्रेम से लड़िका के सजग कयल गयल हौ ओहि ए कविता में माई के प्रति भक्ति भावना भरै क प्रयास हौ -
लाल मोर, लाल मोर कहवाँ गइलन
मछरी मरन लाल गड़ही गइलन
आपन माई आनै गइलन
धनियाँ के देस निकालै गइलन
लड़िका बड़ा होलन, शादी-बिआह होला, घर गृहस्थी में फँसले के बाद ओनकर का हाल होला ए कविता में एकर केतना सुन्दर चित्रण हौ। देखैं -
भइया हो भटकइया हो
बेलवा तर जिन जाय हो
बेलवा गिरि कपरवा फुटी
रेवड़ी बिन-बिन खाय हो
मेहर माँगी टिकुली
बनारस दउड़ल जाय हो
रामनगर क सोटा बइठी
गली-गली लोकाय हो
ए कविता से ई बात समझ में आवै ला कि ओ समय बनारस में राजशाही रहल अउर सारा राजकाज रामनगर से संचालित होत रहल, जवने से स्थान-विशेष अउर काल-विशेष दूनो क बोध होला। सदियन से राजा-रानी लड़िकन के आकर्षण क केन्द्र रहल हउअन, ओनके ले के तमाम खिस्सा-कहानी सुनै के मिलै ला। ई कविता देखैं, जवने में राजा के माध्यम से सब फलन क राजा आम के विकास के विभिन्न अवस्था क चित्रण बा-
एक्खे रहलन राजा
खइलन खाजा
हगलन बतासा
चढ़ गइलन बड़ेरी
बड़ेरी लागल धुआँ
कुद गइलन कुआँ
कुआँ में क मेघा
धइलेस घेघा
राजा लगलन दउड़ै
आम लगल बउरै
राजा भइलन खड़ा
आम भयल बड़ा
राजा लगलन ताकै
आम लगल पाकै
राजा लगलन मुअै
आम लगल चुअै
ए समय पर्यावरण के ले के पूरी दुनिया में हो हल्ला मचल हौ। पर हमरे इहाँ लोक में पर्यावरण संरक्षण क ध्यान पहिले से रक्खल जाला। ए कविता में राजा-रानी के द्वारा पर्यावरण संरक्षण क बात कहल गयल हौ। ए कविता में गजब क ध्वन्यात्मकता हौ। ए कविता के कइसे एक साँस में पूरा कयल जा सकै ला। देखैं -
राजा-रानी आवत होईहैं
पोखरा खनावत होईहैं
पोखरा के आरी-आरी
इमली लगावत होईहैं
इमली के खोतड़ा में सौ-सौ अण्डा
रामचरन फटकारै डण्डा
डण्डा गयल बेग में
मछरी के पेट में
कउआ कहै काँव-काँव
बिलार कहै झपटा
मँगरू के टाँग धके
रहरी में सटका
नाटकीय तत्व भी लोक में पर्याप्त मात्रा में मिलै ला। लोक में कउआ, बिलार दुनो के चलाकी क चर्चा होला। अइसहीं एक बिलार खेतिहर से कोंहड़ा मँगलेस, खेतिहर अउर बिलार क सुन्दर संवाद योजना देखैं-
कइसे ले जइबु ढंगिलावत-ढंगिलावत
कइसे कटबु फकर-फकर
कइसे पकइबु छनन-मनन
कइसे खइबु नामु-नामु
कहाँ सुतबु चुल्ही में
का ओढ़बु तावा
हई देखा बिलरिया क दावा
अइसहीं पशु-पंछीन के स्वभाव के ले के लोक में तमाम कविता-कहानी रचल गयल हौ। ई छुट्टा बिरहा देखैं, जवने में सउरी, टेंगरा अउर बकुला के स्वभाव क केतना सुन्दर चित्रण हौ-
सउरी कहेला हमैं मुनरी गढ़ाई द
टेंगरा कहेला तलवार
बकुला कहेला जामा जोड़वा सियाई द
उड़ि के करब ससुरार।।
कचहरी, थाना भइले के बाद अच्छे-अच्छे लोगन क सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाला, पर बनारस क मस्ती पूरे दुनियाँ में मशहूर हौ। बनारस क लोग हर हाल में मस्त रहलन। बनारस मस्ती क शहर कहल जाला। त बनारस क लोक भी कम मस्त नाहीं हौ। ई छुट्टा बिरहा देखैं, जवन बनारसी लोक के मस्ती क बहुत बढ़ियाँ उदाहरण हौ-
एक दिन गइली गोरू चरावै
चरा लिअइली मनवा
देखलेस खेतिहरवा
पकल्लेस दुनो कनवा
बाते-चिते सरबर भइली
हो गइली घमसनवा
हाथे में हथकड़ी लगउलेस
गोड़े में पयजबवा
कोदई क चउकी
रोहनिया क थनवा
हाली-हाली चल नाहीं
हो जाइ जुरमनवा
पाँच बीड़ा पान खइली
पाँचै ठे रुपइया
खड़ै जमुना कूद गइलैं
किसन कन्हईया
सोनवाँ के चउकी पर
बइठैं दुर्गा मईया
कि बेनियाँ डोलावैं हनुमान...।
रोहनिया थाने में ही हमार गाँव धनपालपुर पड़ै ला। रोहनिया थाने क स्थापना अंग्रेजी राज में भयल रहल। शायद कोदई चउकी क निर्माण ओही समय भयल रहल होइ। जवन कि बनारस शहर के बीचो-बीच गोदौलिया चौराहे के उत्तर में पड़ै ला। ए से ई मालूम होला कि गाँव अउर शहर क जुड़ाव हमेशा से बनल रहल हौ। ए कविता से भी स्थान विशेष अउर काल-विशेष क बोध होला, जवने से ई बात पुष्ट होला कि लोक क आपन स्थानीय रंग भी हौ। लोक में कर्म के अनुसार जाति क बँटवारा भयल हौ। लोहार, कोहार, नाऊ, धोबी सबकर आपन-आपन कर्म हौ। ई हास्य कविता देखैं, जवने में केकर कवन कर्म हौ एकर सुन्दर चित्रण हौ-
साँय-साँय सकुली
राजा के दुई बकुली
खाय पियैं बेल तर
सुतै बबुल तर
अँखिया टप्पा गरे झझीर
हम होब राजा अमीर
राजा के घरवा काटब पान
सब चिरइया काटब कान
एक चिरइया एटी बेटी
पनिया पियै बकुलवै खेती
तितिल भइया तोर मन सइयाँ
अस्सी कोस मारै घुसकुरिया
होते-होते हो गयल बेवाय
तब जनमलन दुक्खु लोहार
दुक्खु लोहार जब गइलन डाँड़े
तब जनमलन भोजा पाड़े
भोजा पाड़े जब उड़उलन कउआ
तब जनमलन नीला नउआ
नीला नउआ जब चिरलेस कपार
तब जनमलन टीम्मल कोहार
टीम्मल कोहार जब देहलन परई
तब जनमलन कतवारू बरई
कतवारू बरई जब देहलन पान
तब जनमलन बन्हन जवान
बन्हन जवान करईत क पोवा
सब बतिया एहि मनवैं खोवा
लोक के बहुत विद्वता से का मतलब हौ। पर लोक के जेतना जानै के चाही ओतना ऊ जानै ला। एक मुसहर अपने मेहरारू से कहलेस कि फलाने गाँव में फलाने पंडित किहाँ रामायण बइठल हौ। चल सुनिआवल जायँ त मेहररूआ अईंठ के कहलेस कि उहाँ का सुनै जइबै हमै सब मालूम हौ कि रामायण में का हौ। सुना-
राम-रवन्ना दुई जन्ना
एक ठाकुर एक बाभन्ना
एक ने एक कि नार चुराई
एक ने एक को मार गिराई
इसी बात का बतन्ना
तुलसीदास ने लिखा पोथन्ना
अइसैं साधारण बतकही में भी लोक में ज्ञान क बड़ी-बड़ी बात होला। ई कविता देखैं, जवने में दिन के छोटा अउर बड़ा होए क केतना बढ़िया चित्रण हौ-
कुआर चुल्ही क दुआर
कातिक बात कहातिक
अगहन हाड़ी अदहन
पुस काना टुस
माघ तिलातिल बाढ़ै
फागुन गोड़ा काढ़ै
चइत लबेदा लेय
लोक क आपन पैमाना हौ। जवने से ऊ सबके नापै ला लोक में सिद्धान्त कम व्यवहार ज्यादा चलै ला। जवन लोक व्यवहार में हौ, उहै सिद्धान्त में भी हौ। दुनिया क बड़े-बड़े विद्वान सब बाल-मानोविज्ञान पर शोध कइले हउअन। ऊ शोध बाद में कइलन हमरे इहाँ लोक में ई पहिले से हौ। ई पंक्ति देखैं, जवने में बाल मनोव्यवहार के क्रमशः विकास क चित्रण हौ-
माय मासे, बाप छमासे।
कक्का पित्ती बारह मासे।।
लड़िका जब पैदा होला त मतारी के एक महिना में बाप के छः महिना में अउर पूरे परिवार के साल भर में चिन्हैं लगै ला। लोक में सामाजिक विषयन पर खूब चर्चा होला। लोक अपने पास-पड़ोस पर खूब ध्यान रखै ला। कहाँ क का विशेषता हौ अउर कहाँ क का कमी। हमरे गाँव से चार-छः कोस पश्चिम में कछवाँ, मझवाँ, प्रेम क पुरा, अउर बरैनी गाँव पडै़ ला। ई कविता देखैं, जवने में ई चर्चा हौ कि कवने गाँव क लोग अपने अतिथि क सत्कार कइसे कर लन -
कछवाँ कछरी
मझवाँ मछरी
प्रेम क पुरा
मारै हुरा
जाय बरैनी
टेवैं छुरा
लोक अपने आन के ले के बहुत सजग रहै ला। मान प्रतिष्ठा खातिर ऊ केहू से समझौता नाहीं करै ला। चाहे ओकर सब कुछ छिन लिहल जाय। पर प्रतिष्ठा से खेलवाड़ नाहीं करत। लोक में अइसन किंवदंती हौ कि काशी नरेश भूमिहार के लड़िका के गोद लिहलन, जब ऊ भूमिहार क लड़िका राजा भयल त कवनो परोजन में बनारस के कुल भूमिहारन के भात खाए क न्यौता दिहलेस, अउर साथ में ई परवाना कि जे भात न खाई ओकर जमींदारी छिन लिहल जाई, त जे भात खइलेस ओ के कोट दिहल गयल अउर जे नाहीं खइलेस ओ से जमींदारी छिन लिहल गइल। ई कविता देखैं जवने से ए बात क पुष्टि होला -
अमर सिंह कमर कसैं
निशान सिंह नाहीं
जाके कह द झुरू सिंह से
लड़िहन कि नाहीं
लड़ब न का करब जग के हँसाइब
आम महुआ बेच के पिआदन के खिआइब
तेगवा संग जुझ जाब भात नाहीं खाइब
ई इतिहास में हौ कि नाहीं। ई इतिहासकार जानै पर लोक व्याप्ति इहै हौ। माधोपुर कोट, नरसड़ा कोट, जक्खिनी कोट, मोती कोट, ई सब गाँव ए बात के बल देलन कि अइसन कवनो घटना जरूर घटल होई। एक ऊ समय रहल कि आन मान के खातिर आपन सब कुछ लुटा दें, अउर एक समय ई हौ कि पुरा देस खाके भी ए समय के जिम्मेदारन क पेट नाहीं भरत हौ। ए भ्रष्टाचार क अंदेशा लोक में पहिले से हो गयल रहल। लोक में प्रचलित ई व्यंग्य देखैं, जवन कि भ्रष्टाचारिन पर करारा व्यंग्य करै ला-
सौ मन खइली खीरा ककरी
दस मन बतिया तोर
यह पेट हमारा खाली है
हुरपेट हमारा खाली है।
केतनो खाय एनकर पेट नाहीं भरै वाला हौ। ई पेट क भूख नाहीं, खोपड़ी क हवस हौ जवन कभी नाहीं भरत। आगे देखैं -
अटर मटर क अउद चउद
नौ गोजई क अस्सी
तू बेलत चला हम खात चली
जब बेलना टुटी तब छुटी
जब चउका फुटी तब छुटी
जब तावा फुटी तब छुटी
जब चुल्हा फुटी तब छुटी
जब आग बुझाई तब छुटी
बेलवइया मर जाई तब छुटी
सेकवइया मर जाई तब छुटी
या राम छोड़इहैं तब छुटी
यह पेट हमारा खाली है
हुर पेट हमार खाली है।
अउर ई पेट नाहीं भरल ई असंतोष बढ़लै जात हौ। अइसन लगै ला जइसे ई पूरे सृष्टि के खा के छोड़ी। सारा व्यवस्था बस खाए बदे बनावल जात हौ। लोक में जब से तन्त्र घुसल हौ, तब से लोगन के खाए क मन्त्र मिल गयल हौ। 'कुछ तुहऊँ ल कुछ तुहऊँ ल' ए अंदाज में नेता सब देश के बाँट रहल हउअन। जाति के नाम पर, धरम के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, भाषा के नाम पर, ई विकास अब विनाश क परिभाषा बन गयल हौ। लोक अउर प्रकृति के साथ विकास के नाम पर खूब खेलवाड़ होत हौ। हमैं याद हौ कि आज से तीस बरिस पहिले हमरे गाँव में चकबंदी आयल, जवन गाँव क स्वरूप नष्ट कर दिहलेस। गाँव के लोगन क सुख चैन-छिन लिहलेस। लोग खेती-बारी छोड़ के कचहरी दउड़ै लगलन। एनकर-ओनके में ओनकर-एनके में सबकर सबके में कुछ न कुछ निकलै लगल। अउर ई आज तक नाहीं फरिआयल। इहाँ तक कि गाँव क लोक मान्य देवता पाड़े-पड़ाईन के भी ई चकबंदी डाँड़े पर विस्थापित कर दिहलेस। बाहा-बोदर, अगडण्डी-पगडण्डी, चन्नी-चन्ना, सब समाप्त हो गयल। विकास के नाम पर ई विनाशलीला अब भी चल रहल हौ। जब से गाँव से ग्रांट ट्रक रोड क बाईपास गुजरल हौ। तब से शांति छिन गयल हौ। गाँव में भेड़िया सब भेष बदल के दउड़ रहल हउअन। भू माफियन क बोल-बाला बढ़ गयल हौ। अउर ओनके महत्वकांक्षा के पूरा करै में गाँव के हिंसक बेरोजगारन क पूरा योग हौ। खेत-खलिहान, बारी-बसवारी, अगवार-पिछवार, घर-दुआर, ओरी-बड़ेरी, दरज्जा-कोठा, अंगना-ओसार, सगरों ए अजगर क नजर हौ। अइसन लगै ला, ई सब कुछ लील जाई। एनहन के न लोक क डर हौ न लाज, कहल गयल हौ कि 'लाजै से डर होला, डरै से लाज।' ई सब लाज डर घोर के पी गयल हउअन। अइसैं रही त न लोक बची न लोक-विधा। ई खिस्सा खाली धनपालपुर क नाहीं हौ। हर गाँव, हर देश क हौ। सबकर आपन-आपन लोक होला। लोक क बड़ा महत्व हौ। कहल गयल हौ कि -
'यद्यपि शुद्धम् लोक विरुद्धम्
मा करणीयम् मा करणीयम्।।