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आलोचना

बांग्ला कथा साहित्य की सांस्कृतिक संवेदना और प्रमुख प्रवृत्तियाँ

कृपाशंकर चौबे


बांग्ला कथा साहित्य की यात्रा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास 'दुर्गेशनंदिनी' से आरंभ हुई। तब से लेकर आज तक बांग्लाभाषी समाज को जितने संकटों से जूझना पड़ा, मसलन - ब्रिटिश साम्राज्यवाद की गुलामी, बंगभंग, अकाल से लेकर नक्सलबाड़ी और सिंगुर-नंदीग्राम तक में सरकारी दमन, इन सबकी अभिव्यक्ति बांग्ला के उपन्यासों और कहानियों में हुई। संकट चाहे जितने भी जटिल व कठिन क्यों न रहे हों, उसमें भी अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति बांग्लाभाषी समाज के प्रेम में रत्तीभर भी कमी नहीं आई। बांग्लाभाषी समाज चाहे वह बंगाल का हो, त्रिपुरा का हो, बांग्लादेश का हो या कहीं बाहर जाकर बस गया हो, वह अपनी भाषा और संस्कृति से दीवानगी की हद तक प्रेम क्यों करता है, इससे जानने के लिए भी हमें बांग्ला के दो उपन्यास पढ़ने होंगे। पहले उपन्यास का नाम है - 'आरेक फाल्गुन' और दूसरे का 'आर्तनाद'। 'आरेक फाल्गुन' के लेखक हैं जहीर रायहान और 'आर्तनाद' के लेखक हैं सैकत उस्मान। ये दोनों उपन्यास यह प्रतीति कराते हैं कि बांग्ला सिर्फ बंगाल और त्रिपुरा की ही भाषा नहीं है, बांग्लादेश की भी है। रवींद्रनाथ ठाकुर और नजरुल इस्लाम इस पार और उस पार बांग्लादेश में एक जैसे लोकप्रिय हैं। बंकिम, शरत, मानिक, ताराशंकर, विभूतिभूषण, आशापूर्णा, अख्तरुज्जमान इलियास, महाश्वेता, तसलीमा, सुनील गंगोपाध्याय और शंकर दोनों ओर के बंगाल में समान रूप से लोकप्रिय हैं। तथ्य है कि बंगाल के बुद्धिजीवियों ने राजनीतिक विभाजन तो स्वीकार कर लिया किंतु बांग्लादेश के साथ सांस्कृतिक विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। एपार बांग्ला और ओपार बांग्ला के बीच जो भावनात्मक तथा सांस्कृतिक एकता है, उसके मूल में बांग्ला भाषा ही है। बांग्ला भाषा के इतिहास में 21 फरवरी 1952 का दिन अविस्मरणीय है। उस दिन बांग्ला भाषा के लिए शहादत देने की घटना पर ही केंद्रित हैं दोनों उपन्यास - 'आरेक फाल्गुन' और 'आर्तनाद'।

पाकिस्तान बनने के पहले ही यह बहस छिड़ गई थी कि वहाँ की राष्ट्रभाषा क्या होगी? उस बहस की परवाह किए बगैर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1948 में घोषणा कर दी कि देश की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। इस घोषणा की पूर्वी पाकिस्तान में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई। उस प्रतिक्रिया का आँखों देखा हाल 'आरेक फाल्गुन' में उपन्यासकार बताता है। पूर्वी बंगाल में बांग्ला को राजभाषा बनाने की माँग को लेकर आंदोलन छिड़ गया जिसे चलाने के लिए ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने राष्ट्रभाषा संग्राम परिषद का गठन कर 11 मार्च को बांग्ला राष्ट्रभाषा दिवस मनाने का ऐलान कर दिया। उस ऐलान के अनुरूप सड़क पर उतरे आंदोलनकारियों पर लाठी चार्ज हुआ और आँसू गैस के गोले छोड़े गए। इससे भाषा आंदोलन दबने के बजाय और तेज हुआ और तीन वर्ष बीतते न बीतते छात्रों का वह संघर्ष वृहद राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया। 21 फरवरी 1952 को ढाका में कानून सभा की बैठक होनी थी। उस सभा में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को ज्ञापन देने का फैसला भाषा आंदोलनकारियों ने किया। धारा-144 लागू कर दी गई। तब भाषा आंदोलनकारियों ने दस-दस के समूह में कानून सभा की बैठक के स्थल पर जाने का फैसला किया।

आंदोलनकारियों ने जैसे ही ढाका विश्वविद्यालय से निकलकर राजपथ पर आना प्रारंभ किया, सशस्त्र पुलिस वाहिनी ने बल प्रयोग करना शुरू कर दिया। फिर भी भाषा आंदोलनकारी आगे बढ़ते रहे। पुलिस ने भी बल प्रयोग जारी रखा। ढाका विश्वविद्यालय मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों का प्रांगण लड़ाई के मैदान में बदल गया। जनता आंदोलनकारियों के साथ तनकर खड़ी हो गई। पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू की। अधिकृत तौर पर कहा गया कि चार लोग मारे गए किंतु कहते हैं किंतु सही तथ्य आज भी अनजाना है क्योंकि कई शव गायब कर दिए गए थे। घायलों की संख्या तो इतनी थी कि मेडिकल कालेज का इमर्जेंसी वार्ड छोटा पड़ गया था।

बांग्लादेश के लेखक महबूब उल आलम चौधरी ने उस घटना पर कविता लिखी - 'रोने नहीं आया हूँ, फाँसी की माँग लेकर आया हूँ।' हसन हफीजुर्रहमान की कविता का शीर्षक ही है - 'अमर इक्कीस।' अब्दुल गफ्फार चौधरी का गीत है - 'मेरे भाइयों के रक्त में रँगी इक्कीस फरवरी।' फयरिंग की घटना से कानून सभा की बैठक से कई सदस्य उठकर चले गए। अंततः बैठक स्थगित करनी पड़ी। विरोधी कांग्रेस सदस्य ही नहीं, मुसलिम लीग के सदस्य भी उस घटना की निंदा के लिए विवश हुए।

ढाका मेडिकल कालेज के उस प्रांगण में लोगों का ताँता लग गया, जहाँ लोग भाषा शहीद हुए थे। शहादत स्थल पर जमा लोगों ने रातोंरात एक शहीद मीनार बनाई। 'आर्तनाद' उपन्यास बताता है कि भारी संख्या में हर भाषा, संप्रदाय, धर्म के लोगों के जुटने से एक शक्ति बन गई। शोक ने बांग्ला भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए शक्ति जुटाने का काम किया। 21 फरवरी हर बांग्ला भाषी के जीवन संग्राम की प्रेरणा का प्रतीक बन गया और स्रोत भी। भाषा से संस्कृति, संस्कृति से स्वायत्तता और स्वायत्तता से स्वाधीनता की माँग उठी। इस तरह पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आंदोलन ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का रूप लिया और एक नए देश का जन्म हुआ।

अपनी मातृभाषा बांग्ला के लिए शीश चढ़ाने की पहली घटना ढाका में 21 फरवरी 1952 को हुई थी और दूसरी घटना 19 मई 1961 को सिलचर रेलवे स्टेशन पर घटी थी। असम सरकार ने जब असमिया को राज्य की एकमात्र राजभाषा बनाने की घोषणा की तो बराक घाटी में बांग्लाभाषियों ने भाषा आंदोलन शुरू कर दिया। असम पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई जिसमें 11 लोग मारे गए। इतिहास में देश के लिए और प्रेम के लिए शीश चढ़ाने के कई उदाहरण मिलते हैं किंतु अपनी भाषा के लिए शीश चढ़ाने की विरल घटनाएँ सिर्फ बांग्ला भाषा में मिलती हैं। बांग्लाभाषी समाज के लिए उनकी भाषा और संस्कृति आक्सीजन हैं। उनके बगैर वे साँस नहीं ले सकते। बांग्ला का शिक्षित समाज ही अपनी भाषा से प्रेम नहीं करता, अपितु जो अनपढ़ हैं, उन लोगों में भी कला-संस्कृति का संस्कार बचा हुआ है। वे अनपढ़ लोग लोकगीत गाते हैं, लोक नृत्य करते हैं, जात्रा (नाटक) खेलते हैं। ग्रामीण बंगाल ने लोक संस्कृति को बचाए रखा है और लोक संस्कृति ने ग्रामीण बंगाल को।

ताराशंकर बंद्योपाध्याय के 'गणदेवता' उपन्यास को याद कीजिए। गाँव में तनाव है, शोषण है, मयूराक्षी नदी की बाढ़ की दहाड़ है किंतु उसी के समानांतर हर फसल पर कोई उत्सव, हर महीने कोई त्योहार होता रहता है। वह जन संस्कृति ही ग्रामीण बंगाल को एक सूत्र में बाँधे रखने में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भूमिका निभाती है। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के 'पथेर पांचाली' उपन्यास को भी याद कर सकते हैं। उसमें भी ग्रामीण बंगाल का जटिल जीवन संग्राम है। तमाम दुख और दरिद्रता के बावजूद पीशी बाउल गीत गाती है -

निए चोलो आमाय नदी ओपारे। उस गीत का हिंदी अनुवाद होगा : हे स्वामी दिनांत की बेला है, शाम घिर आई है/ अपनी नाव से ले चलो मुझे/ नदी के उस पार उस तट पर/ हे मेरे माझी, दिन बीत गया है/ शाम घिर आई है/ ले चलो मुझे नदी के पार।

इसी तरह 'तितास एकटि नदीर नाम' उपन्यास को हम याद कर सकते हैं। उस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भी गाँव है किंतु गाँव के निचले वर्ग के लोगों का जीवन संग्राम है। बांग्ला उपन्यास की यात्रा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आरंभ हुई। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने उपन्यास विधा को जीवन दिया। किंतु उन बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों की सीमा यह थी कि उसके पात्र ऊँचे वर्ग के थे। बाद में शरतचंद्र के उपन्यासों में निचले वर्ग की महिलाओं के जीवन का थोड़ा भाष्य जरूर मिलता है। शैलजानंद मुखोपाध्याय, प्रबोध कुमार सान्याल, नरेशचंद्र सेनगुप्त और जगदीशचंद्र के उपन्यासों में भी दलित पात्र उपस्थित हुए हैं। मानिक बंद्योपाध्याय, ताराशंकर बंद्योपाध्याय और विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यासों में भी दलित पात्र आए हैं किंतु दलितों की वह खंडित उपस्थिति है। दलित जीवन की समग्र उपस्थिति तो बांग्ला उपन्यास में पहली बार 'तितास एकटि नदीर नाम' में ही दर्ज हुई। इसीलिए 'तितास एकटि नदीर नाम' को बांग्ला के पहले दलित उपन्यास का दर्जा हासिल है। इसके लेखक अद्वैतमल बर्मन खुद दलित मालो समुदाय से थे। 1956 में जब यह उपन्यास छपा था, तब तक अद्वैत मल्लबर्मन की मात्र सैंतीस साल की उम्र में अकाल मौत हो चुकी थी। तात्पर्यपूर्ण यह है कि अद्वैतमल बर्मन ने 'तितास एकटि नदीर नाम' में ग्रामीण बंगाल के दलित जीवन की वेदना को लोक संस्कृति की संवेदना का सहारा दिया है। तितास एकटि नदीर नाम में कभी जाल पर नजरें टिकाए मालोपाड़ा का युवक तान छेड़ता है तो कभी तो औरतें गाती हैं तो कभी तिलक गाता है। उपन्यास में किशोर तो दिल खोलकर गाता है - नदीर किनार दिया गेलो बांशि बाजाइया/ परात पिरीत मधु लागे कुखेने बाड़ाइलाम पा/ खेयाघाटे नाइरे ना खेयानीरे खाइलो लंकार बाघ। उसका हिंदी अनुवाद होगा : 'नदी किनारे जा बाँसुरी बजाई/ प्रेम के मधु से मन मीठा हो गया/ यह किस कुजगह पाँव पड़ गया/ यह तो खेया घाट नहीं है/ नाविक को तो लंका का बाघ खा गया।'

तितास एकटि नदीर नाम से बांग्ला कथा साहित्य में दलित जीवन को देखने की एक नई प्रवृत्ति का जन्म हुआ। वह प्रवृत्ति 'पितृगण' (समरेंद्र वैद्य), 'कलार मंदास' (ब्रजेन मल्लिक) और 'मानुषेर रंग' (ज्योतिप्रकाश चट्टोपाध्याय)। 'उजानतलीर उप कथा' (कपिलकृष्ण ठाकुर), 'बसत हारिए जाए' (श्यामल कुमार प्रामाणिक), 'खोमा नेई' (नकुल मल्लिक), 'माटी एक माया जाने' (महीतोष विश्वास) और 'मुकुलेर गंध' (अनिल घड़ाई) उपन्यासों में भी हम देख सकते हैं। ये दलित उपन्यास भी बताते हैं कि तमाम दुख और गरीबी और दरिद्रता के बावजूद वे अपने गीत-संगीत को और अपनी संस्कृति को नहीं बिसारते। बंगाल में अपनी भाषा और संस्कृति से प्रेम की एक बानगी यह है कि वहाँ जितने साहित्य के पाठक हैं, उतने शायद और कहीं नहीं। पिछले साल कोलकाता पुस्तक मेले में आठ करोड़ रुपए की किताबें बिकी थीं। बांग्ला में हर साल जो पूजा विशेषांक निकलते हैं, वे भी माह बीतते न बीतते बिक जाते हैं। बांग्ला में दुर्गापूजा के अवसर पर सिर्फ मुख्यधारा के अखबार ही शारदीया विशेषांक नहीं निकालते, मुख्यधारा की पत्रिकाएँ भी विशेषांक निकालती हैं। और तो और, लघु पत्रिकाएँ भी शारदीया विशेषांक निकालती हैं। 'कल्लोल', 'परिचय', 'कृतिवास' जैसी दर्जनों लघु पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिनकी प्रतिष्ठा मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं से कहीं ज्यादा रही है। इस वर्ष लघु पत्रिकाओं को भी मिला दें तो बांग्ला में कुल करीब अस्सी शारदीया विशेषांक अक्टूबर के शुरू में प्रकाशित हुए थे और महीना बीतते न बीतते, उनमें से अधिकांश की अधिकतर प्रतियाँ बिक भी गई हैं। बांग्ला के शारदीया विशेषांक अमूनन पाँच सौ पृष्ठों के होते हैं। कीमत तीस रुपए से लेकर सौ रुपए तक होती है। एक महीने के भीतर शारदीया विशेषांकों की दस-दस हजार प्रतियों का बिक जाना यह साबित करता है कि शब्द सारथियों की यात्रा से बांग्ला पाठकों का जुड़ाव बहुत ही गहरा है। बांग्ला में जिस भी श्रेणी की पत्र-पत्रिका हो, उसके शारदीया विशेषांक में सर्जनात्मक साहित्य ही प्रकाशित होता है। यहाँ तक कि फिल्मी पत्रिकाएँ भी अपना शारदीया विशेषांक साहित्य विशेषांक के रूप में ही निकालती हैं। बांग्ला के कई लेखकों की रचनाएँ शारदीया विशेषांकों में छपकर ही प्रसिद्ध हुई थीं। आशापूर्णा देवी की कहानी 'पत्नी ओ प्रेयसी' 1937 के 'आनंदबाजार पत्रिका' के शारदीया विशेषांक में छपकर ही चर्चा में आई थी और देखते-ही देखते आशापूर्णा देवी कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। सुनील गंगोपाध्याय का पहला उपन्यास 'आत्मप्रकाश' 1965 में 'देश' के शारदीया विशेषांक में छपा और वे उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। महाश्वेता देवी का उपन्यास 'हजार चौरासीर माँ' 1973 के 'प्रसाद' के शारदीया विशेषांक में छपा और पूरे बांग्ला जगत में हलचल मच गई। नवारुण भट्टाचार्य का उपन्यास 'हरबर्ट' दो दशक पहले 'प्रमा' के शारदीया विशेषांक में छपकर ही चर्चा में आया था। उसके पहले वे कवि के रूप में ही विख्यात थे। बंगाल में शारदीया विशेषांकों की परंपरा 1928 में आनंदबाजार ने शुरू की जो आज विराट रूप ले चुकी है। आधी सदी पहले बांग्ला के इन शारदीया विशेषांकों में सिर्फ उपन्यास होते थे किंतु परवर्ती काल में दूसरी विधाएँ भी उनमें छपने लगीं। किसी खास समय (शरद-उत्सव) पर विशेषांकों के जरिए इतने विपुल साहित्य का प्रकाशन दुनिया में और कहीं नहीं होता। 1922 में प्रफुल्ल सरकार ने 'आनंद बाजार पत्रिका' का प्रकाशन प्रारंभ किया। तब से वह दैनिक निरंतर निकल रहा है। 1933 में आनंद बाजार समूह से 'देश' पत्रिका निकली। बंकिमचंद सेन, अशोक कुमार, सागरमय घोष, सुनील गंगोपाध्याय, नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती, शीर्षेंदु मुखोपाध्याय और जय गोस्वामी कभी न कभी 'देश' की संपादकीय टीम के सदस्य रहे। इस समय इसका संपादन हर्ष दत्त कर रहे हैं। प्रकाशन के पचास वर्ष पूरे होने पर 'देश' ने 1883 में 'देश स्वर्ण जयंती गल्प संकलन' निकाला था। उस संकलन से पता चलता है कि बांग्ला कथाकारों की चिंता के वृत्त में क्या-क्या है?

बांग्ला उपन्यास जिस तरह ग्रामीण बंगाल के समाज का चित्र खींचते हैं या कस्बे में दलित जीवन का चित्र खींचते हैं, उसी तरह बंगाल के शहर जीवन को जानने की कुंजी भी हमें थमा देते हैं। यदि कलकत्ता जो जानना है तो विमल मित्र गाइड बनकर सामने आते हैं। विमल मित्र ने कलकत्ता पर पाँच उपन्यास लिखे हैं। 'बेगम मेरी विश्वास', 'साहेब बीबी गुलाम', 'कड़ि दिए किनलाम', 'एकक दशक शतक', 'चलो कलकत्ता'। वह भी कलकत्ता ही है कि 'कड़ि दिए किनलाम' में 1930-40 के दशक में पुत्रवधु को सिर पर जूते रखकर कड़ी धूप में बाहर खड़े रहने को बाध्य किया जाता है। एक तरफ स्त्री के साथ वह व्यवहार तो दूसरी तरफ शरतचंद्र के स्त्री पात्रों को हम याद कर सकते हैं। नारी जाति की मर्यादा के लिए शरतचंद्र अपने समूचे साहित्य में रचनात्मक संघर्ष करते दिखते हैं। ध्यान देनेयोग्य यह है कि शरत रूप-मोह में नहीं फँसते। उनका प्रेम देहातीत है। 'देवदास' में चंद्रमुखी से वे कहलवाते हैं, "रूप का मोह तुम लोगों की अपेक्षा हम लोगों में बहुत कम होता है। इसलिए तुम लोगों की तरह हम लोग उन्मत्त नहीं हो जाते।" देवदास के प्रेम में पड़ी चंद्रमुखी के देह व्यवसाय छोड़कर प्रायः योगिनी जैसी होने का चित्रण भी इसका सबूत है कि शरतचंद्र स्त्री को देवी मानते थे। शरत के संपूर्ण रचना संसार में स्त्री की अभिशाप-मुक्ति की कामना ही मुखर है। बांग्ला का उच्च वर्ग और मध्य वर्ग हमेशा जमींदार व कुलीन वर्ग से आनेवाले साहित्यकारों जैसे रवींद्रनाथ, बंकिमचंद को बहुमान देता रहा और शरतचंद्र की उपेक्षा करता रहा। इसके बावजूद बांग्ला और हिंदी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के पाठकों के बीच शरतचंद्र की जनप्रियता असंदिग्ध है। तथ्य है कि वे बंकिम और रवींद्र से भी अधिक जनप्रिय हैं।

दलित संवेदना के बाद बांग्ला के कथा साहित्य की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति स्त्री संवेदना है। शरत के बाद स्त्री तन और स्त्री मन के दो जरूरी ध्रुवांतों के बीच उठनेवाले प्रश्नों को आशापूर्णा देवी ने पूरी ताकत से उठाया। उन्हें यह सवाल विचलित कर देता था कि समाज पुराणों के अनुचित कृत्यों को बर्दाश्त कर लेता है किंतु स्त्रियों को मामूली सी भूल के लिए भी कठोर दंड क्यों दिया जाता है? जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री को अधिकारों से क्यों वंचित रखा गया है? आशापूर्णा देवी को रूढ़िग्रस्त परिवार में जीवन बिताना पड़ा था, इसलिए उन्होंने स्त्री की असह्य अवस्था को, पीड़ा को शिद्दत से महसूस किया और विचलित मन से उसे अभिव्यक्त किया। उन्होंने हर बड़े सवाल को सड़क-चौराहे पर खड़े होकर नहीं, घर की चारदीवारी में बैठकर देखा और हर बड़ी समस्या को चारदीवारी के अंदर रखकर उसका समाधान प्रस्तुत किया। स्त्री के साथ इस पितृ सत्तात्मक समाज में विभेद होने के सवाल ने आशापूर्णा देवी के भीतर प्रतिवाद का पहाड़ खड़ा किया था। उसी पहाड़ की झलक 'प्रथम प्रतिश्रुति' उपन्यास की नायिका 'सत्यवती' में देखी जा सकती है। दरअसल 'सत्यवती' को आशापूर्णा देवी के मन के मौन प्रतिवादों का प्रतीक मानना ही उचित है। 'प्रथम प्रतिश्रुति' आशापूर्णा देवी की कथा त्रयी की पहली कड़ी है। उसके बाद की दो कड़ियों - 'सुवर्णलला' और 'वकुलकथा' एक-दूसरे की पूरक हैं और इन तीनों औपन्यासिक कृतियों के जरिए आशापूर्णा देवी ने विगत, मध्य व वर्तमान काल की तीन पीढ़ियों के सामाजिक इतिहास के चरणों को उद्घाटित किया। 'गाछेर पाता नीत' की सुनंदा और मीनाक्षी की लड़ाई में आशापूर्णा देवी की भी लड़ाई शामिल है। अपनी या समस्त नारी जाति की हार या कुंठा को कबूल करने के बजाय आशापूर्णा देवी बताती हैं कि स्त्री पराजय स्वीकार नहीं करती, अपना पथ स्वयं निर्मित करती है। आशापूर्णा विद्रोहिणी थीं। उनका विद्रोह रुढ़ि, बंधनों, जर्जर पूर्वग्रहों, वर्जनाओं, समाज की अर्थहीन परंपराओं और उन अवमाननाओं से था, जो नारी पर पुरुष वर्ग, स्वयं नारियों और समाज व्यवस्था द्वारा लादी गई थीं। उनकी उपन्यास-त्रयी - प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुलकथा की रचना ही पितृसत्तात्मकता के प्रतिरोध के लिए और पितृसत्ता के उनके सघन विद्रोह भाव को मूर्त और मुखरित करने के लिए हुई।

उसी प्रतिरोध की अगली कड़ी नवनीता देवसेन की कथाकृतियों से जुड़ती है। उनके उपन्यास 'सीता से शुरू' देखें तो वह विविध कथाओं का कोलाज है। उसका एक छोर पौराणिक काल से बँधा है तो दूसरा मातृसत्तात्मक परिवार से और आखिरी छोर वर्तमान समय के आधुनिक मूल्यबोध से जुड़ा है। नवनीता ने अखंड काल क्रम में साँस लेती स्त्री के अनंत दुख, शाश्वत शख्सियत और समकालीन जटिलताओं की राह पर उसकी अभियान कथा को वाणी दी है। सीता से शुरू की गई यात्रा, वर्तमान युग में आधुनिक स्त्री को अपने ही कठघरे में ला खड़ी करती है। यह कथाकृति स्त्री के अंतर्मन और जीवन का बयान है। 'काछेर मानुष' और 'काँचेर देवाल' जैसे उपन्यासों की लेखिका सुचित्रा भट्टाचार्य ने सामाजिक व आर्थिक पहचान के लिए लड़ती मध्य वर्ग की लड़ाई को अभिव्यक्त किया तो 'वसुधारा' और 'एकतारा' की लेखिका तिलोत्तमा मजुमदार ने संघर्षशील स्त्री की महिमा व गरिमा को उभारा। स्त्री बंगाल के गाँव की हो या शहर की। घर में हो या घर के बाहर उसे नित्य जंग करनी पड़ती है।

थोड़ी देर पहले जिस शहरी बंगाल का मैं उल्लेख कर रहा था तो जिस तरह शहरी बंगाल को जानने के लिए कलकत्ता को जानने के लिए हमें विमल मित्र को पढ़ना पड़ेगा, चलो कोलकाता में झारग्राम का जनजातीय परिवार जब कलकत्ता आता है तो कालीघाट माँ का दर्शन करने जाता है। मंदिर में उन्हें पंडे घेरते हैं। कलकत्ता आकर वह परिवार ठगा रह जाता है। गाँव में उसने परिवहन के साधनों के नाम पर बैलगाड़ी देखी थी, साइकिल देखी थी। कलकत्ता में तो मोटरगाड़ी, बसें सनसनाती हुई आती हैं। गाड़ियों से बचने के लिए पूरे परिवार ने एक-दूसरे को कपड़े से बाँध लिया। गाड़ी आती है तो कपड़े से बँधे होने के कारण वे भाग नहीं पाते। सब गिर जाते हैं। मर जाते हैं। वह भी एक कलकत्ता है। दूसरी तरफ सुभाष मुखोपाध्याय के उपन्यासों - 'अंतरीप बा हुयाँगसेनेर असुख', 'हुंगरुज', 'इयासिनेर कोलकाता' और 'के काथाय जाई' में दूसरा कलकत्ता है। शंकर के उपन्यास 'चौरंगी' में एक अलग कलकत्ता है। 'चौरंगी' उपन्यास में शंकर जिस तरह पाठकों को शाहजहाँ होटल के भीतरी संसार में ले जाते हैं, वह एक विचित्र और रहस्यमय संसार है। वे चरित्र और वह संसार आज भी आप कोलकाता में देख सकते हैं। उपन्यास से हम यह भी पता कर सकते हैं कि एंग्लो समुदाय के प्रति बंगाल का क्या रुख रहा है। कलकत्ता की केंद्रीय चिंता को हम चौरंगी में बायरन साहब के संवाद में देख सकते हैं। बायरन साहब कहते हैं - "जीवन ऐसा ही है। अपने दुख के धुएँ से उबकर बाहर आओ तो और ज्यादा बुरी हालत पाओगे। हमारे अपने दुख को दबाकर औरों का दुख और भी तकलीफ देने लगेगा।" इसी तरह कई अन्य संवाद भी अविस्मरणीय हैं - सृष्टि में जितना आनंद था, जितना सौंदर्य था, सारा कुछ पृथ्वी के अविचारी मनुष्यों ने समाप्त कर दिया है। बच गया है केवल दुख। किसी के लिए भी, कहीं भी सुख का एक कण नहीं है। या फिर यह संवाद-लिख-पढ़कर इस अंधी-गूँगी व्यावसायिक सभ्यता को बदला नहीं जा सकता, हिलाया नहीं जा सकता। ...माइक पर चीखो-चिल्लाओ, महाभारत जैसी दस पौंड वजन की किताब लिख मारो, हजार-हजार पावर की बत्ती से इस सभ्यता के जख्मों पर रोशनी डालो, फिर भी कुछ नहीं, कुछ नहीं होगा! या फिर यह संवाद - हे परमपिता, तुम्हारा अभिशाप इस ऐश्वर्य और साथ ही कुत्सित, वीभत्स सभ्यता पर वज्र बनकर गिरे!" 'चौरंगी' उपन्यास की आखिरी पंक्ति के ठीक पहले की पंक्ति है : शाहजहाँ की क्लांतिहीन लाल रोशनी अब भी जल रही है, बुझ रही है। इसका आशय पूछने पर शंकर ने कहा, "इसका अर्थ है कि जीवन यहीं खत्म नहीं हुआ। जीवन ही तो एक चौरंगी है। उसके अलावा जीवन और क्या है? जो जितने अधिक दिन बचा रहेगा, उसे उतने ही अधिक बिल का भुगतान करना होगा।"

'चौरंगी' तो शहर केंद्रित उपन्यास है किंतु उसमें भी कथा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए कविता का सहारा लिया गया है। नायक कहता है : कोलाहल तो बारन होलो/ एबार कथा काने-काने/ एखन होबे प्रानेर आलाप/ केवल मात्र गाने-गाने। इसका हिंदी अनुवाद होगा : सारा कोलाहल हो गया शेष/ केवल हो अब अस्फुट स्वर संधान/ उभरेगा अब केवल प्राणों का आलाप/ मंद-मधुर गाएँगे हम गान। इसके ठीक बाद प्रभातचंद्र वायलिन उठाते हैं और बजाना शुरू करते हैं। उस संगीत स्वर से नायक परिचित था : शुधू तोमार बानी नय गो/ हे बंधु हे प्रिय/ माझे-माझे प्राने तोमार/ परशखानि दियो। इसका हिंदी अनुवाद होगा : केवल तुम्हारी वाणी नहीं है/ हे बंधु हे प्रिय/ नहीं केवल स्वर के उत्कर्ष/ कभी-कभी तो दो संगीत सुरों को/ अपने प्राणों का भी स्पर्श। कहने का आशय यह है कि हर परिस्थिति में बांग्लाभाषी समाज के प्राणों को बांग्ला कविता, गीत-संगीत के स्पर्श की कामना रहती रही है।

बांग्ला कथा साहित्य में बांग्ला जातीयता की प्रवृत्ति का संधान भी किया जा सकता है। बांग्ला के कथा साहित्य में एक तरफ बांग्ला जातीयता जैसी बात है तो भारत का समेकित रूप भी है जो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को जोड़ कर बनता है। बांग्ला के कथा साहित्य में एक मूल आंतरिक भारतीयता भी है जो अभिव्यक्त होती है। सुजलाम सुफलाम भी तो बंगाल में ही रच गया था और वहीं रवींद्र भी थे जिन्होंने भारत को व्यापक रूप में जिया। बंकिम चंद्र के आनंदमठ में राष्ट्रवाद का एक छोर है तो रवींद्र का गोरा राष्ट्रवाद का दूसरा छोर है। बंग-भंग और बांग्ला राष्ट्रवाद के स्वरूप का अवलोकन सखाराम गणेश देउस्कर के देशेर कथा के आईने में भी किया जा सकता है। मैकाले के प्रभाव और बंगाल के नवजागरण के साथ ऐसे आख्यान भी सामने आए जिनमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और केशवचंद्र सेन की राष्ट्रीय चेतना को अलग-अलग कोणों से देखा गया है। ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने अपने उपन्यास योगभ्रष्ट में एक पात्र से कहलवाया है - गांधीवाद या साम्यवाद में अथवा मानववाद में नहीं, बल्कि अध्यात्मवाद में ही मनुष्य अपने को सबसे अधिक सुरक्षित पा सकता है। यह अध्यात्मवाद अपनी रक्षा नहीं, दूसरे के सम्मान की रक्षा से जुड़ा है। सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास 'प्रथम आलो' में रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और रवींद्रनाथ को पात्र बनाया गया है। सुनील दा के लिए बांग्ला जातीयता का जो आशय है वही उनके समकालीन अन्नदाशंकर राय के लिए नहीं है। अन्नदाशंकर राय के उपन्यास 'सत्यासत्य' (छह खंडों में) और 'क्रांतिदर्शी' (चार खंडों में) में बांग्ला जातीयता का भिन्न स्वर है। अब्दुल रउफ चौधरी के उपन्यास 'नतून दिगंत' बांग्ला जातीयता का प्रमुख उपन्यास बन गया है। वह उपन्यास तीन खंडों में है। अख्तरुज्जमान इलियास के उपन्यास 'ख्वाबनामा', सैयद समसुल हक के उपन्यास दुरत्व, सैकत अली के उपन्यास 'प्रदोशे प्रकृतजन', महमुदुल हक के उपन्यास 'खेलाघर', कालो बरफ, मोहम्मद सोफा के उपन्यास 'अर्धेक नारी अर्धेक ईश्वर', अनवर पाशा के उपन्यास 'राइफल रोटी औरत', सौकत उस्मान के उपन्यास 'जहन्नम होइते बिदाई', हारुन हबीब के उपन्यास 'प्रिय योद्धा प्रियतम', सेलिना हुसैन के उपन्यास 'हंगर नदी ग्रेनेड' (बांग्लादेश मुक्ति संग्राम पर), हुमायूँ अहमद के उपन्यास 'नंदितो नरक', अब्दुल मन्नान सइद के उपन्यास 'परिपेक्षदेर दासदासी' में अलग बांग्ला जातीयता है। नवारुण भट्टाचार्य के उपन्यास 'हरबर्ट' और 'कांगाल माँसाट' में राष्ट्रवाद की एक छवि है तो उससे विपरीत दृष्टिकोण 'घुनपोका', 'पारापार', 'जागो पाखी', 'उजान', 'दूरबीन', 'मानवजमीर' जैसी प्रसिद्ध कृतियों के रचयिता शीर्षेंदु मुखोपाध्याय की है। शीर्षेदु जिस दृष्टि से बांग्ला जातीयता को देखते हैं उससे भिन्न दृष्टि है 'तीस्तापारेर वृत्तांत', 'मानुष खून करे केनो', 'मफस्सली वृतांत', 'समय असमयेर वृतांत', 'लगन गांधार' जैसे उपन्यासों के लेखक देवेश राय की। रामकुमार मुखोपाध्याय के उपन्यास भांगा नीड़ेर डांगा (बांग्ला से हिंदी में इसका अनुवाद मुनमुन सरकार ने टूटे घोंसले के पंख शीर्षक से किया था) का एक बड़ा पात्र पेरुमल दक्षिण भारत का रहने वाला है। पूरे देश के पैमाने पर सोचने का यह एक दृष्टांत है। इसी तरह धनपति सिंघल यात्रा नामक उपन्यास में रामकुमार मुखोपाध्याय उड़ीसा से लेकर आंध्र प्रदेश तक पाठकों की सैर कराते हैं। बांग्ला जातीयता को बाद में कैसे हिंदू बनाम मुस्लिम बना दिया, इस पर भी बांग्ला कथाकारों ने विचार किया है। हिंदू बनाम मुस्लिम के उस स्पष्ट विभाजन को आज भी हम लज्जा उपन्यास से लेकर भांगा मठ में देख सकते हैं। 'शर्मनाक, 'टूटा मठ' जैसे उपन्यासों के लेखक सलाम आजाद ने लिखा है कि बांग्लादेश के हिंदुओं के पास तीन ही रास्ते हैं : या तो वे आत्महत्या कर लें या धर्मांतरण कर मुसलमान बन जाएँ या पलायन कर जाएँ। तीसरा विकल्प सहूलियत वाला है। कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के अत्याचार से तंग आकर 1974 से 1991 के बीच रोज औसतन 475 लोग यानी हर साल एक लाख 73 हजार 375 हिंदू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ने को बाध्य हुए। यदि उनका पलायन नहीं हुआ होता तो आज बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी सवा तीन करोड़ होती। बांग्ला कथा साहित्य में व्यापक से स्थानीय तक की यात्रा, यहाँ तक कि अरण्य की पीड़ा का विस्तार संस्कृति की यात्रा में शामिल है।

बांग्ला कथा साहित्य की चौथी प्रमुख प्रवृत्ति आदिवासी संवेदना है। महाश्वेता देवी के अधिकतर उपन्यासों और कहानियों में आदिवासियों की चिंता कदाचित पहली बार बेचैनी के साथ प्रकट हुई। आदिवासियों को नायक बनाकर महाश्वेता हिंदी में प्रेमचंद तो बांग्ला में ताराशंकर बंद्योपाध्याय और मानिक बंद्योपाध्याय से भी आगे निकल गईं। प्रेमचंद और ताराशंकर किसान को नायक बना चुके थे और मानिक मछुआरों को। उससे काफी आगे जाकर महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के विद्रोही नायकों को अपनी कथाकृतियों का नायक बनाया। उनका उपन्यास 'जंगल के दावेदार' बताता है कि किसी भी व्यक्ति के चार मौलिक अधिकार होते हैं - रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा। इन मौलिक अधिकारों को हासिल करने की आकांक्षा जगाते हुए अपने समुदाय के पिछड़े एवं अचेतन लोगों को संगठित करके जंगल पर अधिकार पाने की लड़ाई से जोड़कर बिरसा ने एक वृहद आंदोलन की शुरुआत की थी। भारत के इतिहास की पटभूमि पर यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। बिरसा ने अपने समय से काफी आगे निकल कर एक ऐसे आंदोलन की शुरुआत की थी, जिसमें एक सौ सत्रह साल बाद आज भी समूची दुनिया के प्रायः सभी देशों के लोगों को किसी न किसी रूप में शरीक होना पड़ रहा है। बिरसा ने जल-जंगल-जमीन के अधिकार को लेकर उलगुलान किया था। आज जल-जंगल-जमीन का सवाल भारत में सबसे सुलगता सवाल है। कहा जा रहा है कि अगला विश्वयुद्ध जल के लिए लड़ा जाएगा।

महाश्वेता ने बिरसा के महासंग्राम के बाद तिलका माझी के संग्राम पर 'शालगिरह की पुकार पर' नामक उपन्यास लिखा। गोरों ने जंगल-उत्पादों, धान-चावल की खरीद शुरू की। गोरों ने बाजार को हथियार बनाया। संथाल भड़क उठे और विद्रोह की कमान सँभाली संथाल परगना के आदि विद्रोही तिक्का माँझी ने। संथाल जीवन और गोरों के विरुद्ध उनके ऐतिहासिक संग्राम की गाथा 'शाल-गिरह की पुकार' में कही गई है। यह न केवल इतिहास है बल्कि हर भारतीय के लिए गौरव-स्मृति भी है। महाश्वेता के भीतर की वेदना को 'टेरोडेक्टिल' उपन्यास की चंद पंक्तियों में देखा जा सकता है जब एक पात्र कहता है, 'आदिवासी कल्याण के मद में प्राप्त रुपयों से इन राजपथों, सड़कों का निर्माण हुआ है, ताकि मालिक, महाजन, दलाल और अय्याश लोग आदिवासियों द्वारा बनाई शराब और आदिवासी युवतियों के इच्छुक लफंगे, अहंकारी युवक सीधे आदिवासियों की बस्तियों तक पहुँच सकें। ...ये आदिवासी जब इन रास्तों पर चलते हैं तो वे उनकी शिक्षा व्यवस्था, सिंचाई के पानी, पीने के पानी और स्वास्थ्य केंद्रों की समाधि के ऊपर पाँव रखकर चलते हैं। ...उनका प्राप्य क्या है? भारत की कुल आबादी के सात दशमलव सात छह प्रतिशत जो लोग हैं, उन पाँच करोड़, छियानबे लाख, अठाइस हजार छह सौ अड़सठ लोगों का प्राप्य क्या है, यह अब भी उन्हें नहीं बताया गया है... न दूरदर्शन बताता है न रेडियो न अखबार न एमएलए, एमपी के प्रत्याशी, न पंच न पंचायत, न राज्य सरकारें न आदिवासी सलाहकार...। न बतलाने की इस नीति का अनुसरण करने के लिए कितना विपुल श्रम और अर्थ व्यय होता है। कितने ही दिग्गज बुद्धिजीवी इसमें लगे हैं। कितने ही राजनैतिक दाँव-पेंच इसे लेकर चले जाते हैं। उनका प्राप्य क्या था, इसे जाने बिना ही आदिवासी अपनी प्रेत छाया से ढकी जिंदगियाँ लेकर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर जाएँगे।' ये एक-एक शब्द महाश्वेता के भीतर खौल रहे हैं। महाश्वेता की बेचैनी उनकी दूसरी कृतियों में भी देखी जा सकती है। 'टेरोडेक्टिल' पूँजीवादी प्रगति और आदिम संस्कृति के दो जीवन मूल्यों के संघात का चित्रण करता है तो 'चोट्टि मुंडा और उसका तीर' शोषण के खिलाफ चोट्टि मुंडा के वीरतापूर्वक संघर्ष की महागाथा है। 'चोट्टि मुंडा और उसका तीर' में महाश्वेता देवी पूछती हैं - आदिवासियों के हित में कानून बने पर लागू कितने हुए? क्या बंधुआ आदिवासी मुक्त हो गए? बेगी प्रथा समाप्त हुई? हवाई योजनाविदों का विश्वास है कि इन इलाकों में 'कुष्ट ग्राम' है जहाँ सबके सब कुष्ठ रोगी हैं। पर ऐसा गाँव नहीं मिलता। कागजी विकास योजनाओं के पीछे दृष्टि है कि आदिवासी मनुष्य नहीं, तमाशे के खिलौने हैं। जब आदिवासी समाज में हिंसा का ज्वार उभरता है तब दिल्ली हतप्रभ रह जाती है। आदिवासियों के बारे में दिल्ली की समझ अँग्रेजों जैसी है। 'अक्लांत कौरव' में महाश्वेता देवी बताती हैं - जनपक्षीय राजनीति की चुनावों में भी विजय होती है। वे सत्ता में भी आते हैं। ऐसे में वंचितों-शोषितों की आकांक्षा जोर मारती है कि अब दिन फिरेंगे। लेकिन सत्तासीन वामपंथी कार्यकर्ताओं के लिए क्रांति, परिवर्तन का अर्थ बदल जाता है। जनकांक्षाएँ धूल खाती हैं और जन-जन में असली परिवर्तनकामी कार्यकर्ताओं की पहचान की प्रक्रिया शुरू होती है। अक्लांत कौरव की कथा छोटी है। लेकिन अपने गर्भ में विस्फोटक तथ्य छिपाए है। वाम राजनीति के दक्षिणी छोर वाले द्वैपायन सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा बटाईदारों के हित में चलाए गए 'आपरेशन बर्गा' के दरम्यान जागुला गाँव आते हैं। वे सब्जबाग दिखलाकर आदिवासियों की एकता तोड़ना चाहते हैं, वहीं ईमानदार इंद्र प्रमाणिक गाँव में काम करने आता है तो स्थानीय कार्यकर्ता उसे नक्सली सिद्ध करते हैं। फिर भी आदिवासी असली हितैषी को पहचान लेते हैं।

'अग्निगर्भ' में महाश्वेता देवी पूछती हैं - जब बटाईदारी-अधिया जैसी घृणित प्रथा में किसान पिस रहे हों, खेतिहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न मिले, बीज-खाद-पानी-बिजली के लाले पड़ें तो उनका अस्तित्व दाँव पर होता है, ऐसे में वह सामंती हिंसा के विरुद्ध हिंसा को चुन ले तो क्या आश्यर्य? अग्निगर्भ का संथाल किसान बसाई टुडू किसान-संघर्ष में मरता है। लाश जलने के बावजूद उसके फिर सक्रिय होने की खबर आती है। बसाई फिर मारा जाता है। वह अग्निबीज है और अग्निगर्भ है सामंती कृषि-व्यवस्था। 'अग्निगर्भ' उपन्यास में महाश्वेता देवी मानती हैं कि इस धधकते वर्ग-संघर्ष को अनदेखा करना और इतिहास के इस संधिकाल में शोषितों का पक्ष न लेने वाले लेखकों को इतिहास माफ नहीं करेगा। असंवेदनशील व्यवस्था के विरुद्ध शुद्ध, सूर्य के समान क्रोध ही उनकी प्रेरणा है। अपनी अनेक कहानियों में भी महाश्वेता देवी जनजातियों और आदिवासियों के संग्राम को वाणी देने के लिए संघर्षशील नायकों का संधान करती हैं। इन संघर्षशील आदिवासी नायकों का संधान महाश्वेता की कहानी 'बाढ़' में बागदी के रूप में, 'बांयेन' में डोम, 'शाम-सवेरे की माँ' में पाखमारा, 'शिकार में ओरांव, 'बीज' में गंजू, 'मूल अधिकार और भिखाली दुसाध' में दुसाध, 'बेहुला' में माल और 'द्रौपदी' में संथाल के रूप में सहज ही हो जाता है। महाश्वेता देवी की कृतियाँ आदिवासी जीवन के प्रति मुख्यधारा और शासन की असहिष्णुता के प्रतिरोध में लिखी गई हैं।

बांग्ला कथा साहित्य की पाँचवीं प्रमुख प्रवृत्ति प्रतिरोध की संस्कृति है। बंगाल में प्रतिरोध की संस्कृति की लंबी परंपरा रही है। रवींद्रनाथ ठाकुर, काजी नजरुल इसलाम, ऋत्विक घटक से लेकर सलिल चौधरी तक इस परंपरा से जुड़ते हैं। बंगभंग होने पर तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन की अनीति के प्रतिवाद में कलकत्ता में निकले स्वदेशी आंदोलन के जुलूस का नेतृत्व गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया था। बाद के दिनों में कोलकाता की सड़कों पर निकलने वालों जुलूसों में कंधे पर झोला लटकाए सुभाष मुखोपाध्याय से लेकर बादल सरकार तक दिख जाते थे। प्रतिरोध की वही परंपरा निकट अतीत में सिंगुर-नंदीग्राम में दिखी थी जब महाश्वेता देवी, जय गोस्वामी, अपर्णा सेन, शुभ प्रसन्न, जोगेन चौधरी, साँवली मित्र, गौतम घोष जैसे बुद्धिजीवियों ने बार-बार सड़क पर उतरकर जुलूस निकाले, सभाएँ कीं। बंगाल के बुद्धिजीवियों के समर्थन से ही बंगाल में सत्ता का परिवर्तन हुआ। सत्ता परिवर्तन के लिए मौजूदा सरकार ने जो नारा दिया था - माँ, माटी मानुष, वह भी एक सांस्कृतिक नारा है। नंदीग्राम नरसंहार पर मानिक मंडल का उपन्यास 'चोखेर पानी' पाँच साल पहले 2012 में आया था। सिंगुर-नंदीग्राम की घटनाओं पर शंकुदेव पांडा ने एक कहानी लिखी : कामरेड। उस पर इसी साल इसी नाम से फिल्म भी बनी है। बांग्ला उपन्यासों का एक सबल पक्ष यह रहा है कि वह प्रतिरोध का भी साहित्य रहा है। प्रतिरोध का वह साहित्य महाश्वेता देवी के 'हजार चौरासीवें की माँ' से लेकर नवारुण भट्टाचार्य के 'हरबर्ट' और 'कांगाल माँसाट' में मुखर रूप में दिखा तो उसी की कड़ी मानिक मंडल के उपन्यास 'चोखेर पानी' और शंकुदेव पांडा की कहानी कामरेड से जुड़ती है। प्रतिरोध के साहित्य की वह धारावाहिकता उपन्यास विधा में कायम है, यह भी बांग्ला कथा साहित्य का एक सबल पक्ष है।

जहाँ तक विषय वस्तु की बात है तो स्वातंत्र्योत्तर कालखंड के जीवन और बांग्ला समाज को हेमेंद्र कुमार राय, नरेंद्रनाथ देव, परिमल गोस्वामी, रमापद मुखोपाध्याय, शरशिंदु बंद्योपाध्याय, वनफुल, अचिंत्य कुमार सेनगुप्त, ज्योतिरिंद्र नंदी, विमल कर, समरेश बसु, प्रेमेंद्र मित्र सैयद मुस्तफा सिराज, मती नंदी, श्यामल गंगोपाध्याय, अतीन बंद्योपाध्याय, नीहाररंजन गुप्त, सुमतनाथ घोष, नरेंद्रनाथ मित्र, नारायण गंगोपाध्याय, आशुतोष मुखोपाध्याय, सचींद्रनाथ बंद्योपाध्याय, रमापद चौधरी, संजीव चट्टोपाध्याय, वाणी बसु, अबुल बशार, दिव्येंदु पालित और कृष्णा बसु से लेकर मंदाक्रांता सेन की कथाकृतियों के आईने में हम देख सकते हैं। उसी तरह उदारीकरण के बाद की सांघातिक परिस्थितियों को हम कावेरी चक्रवर्ती के उपन्यास द्वीपवासिनी, नवारुण भट्टाचार्य के उपन्यास कांगाल माँसाट, प्रफुल्ल राय के उपन्यास 'उत्ताल समयेर इतिकथा', समरेश मजुमदार के दो उपन्यास 'आदिम अंधकारे अर्जुन' और 'बुनोहाँस', जय गोस्वामी के उपन्यास 'टाका', रंजन बंद्योपाध्याय के उपन्यास 'आदरेर दाग रानूर रवि', रविशंकर बल के उपन्यास 'से काव्य अनेक', अमर मित्र के उपन्यास 'मालती माधरेर काहिनी', देवर्षि सारगी के उपन्यास 'चारपाशेर मानुष', सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास 'एक-एक टा दिन अन्यरकम', शेखर मुखोपाध्याय के उपन्यास 'मयदान', कमल कृष्ण मल्लिक के उपन्यास 'खोला हावा', सुकांत गंगोपाध्याय के उपन्यास 'सोनाली आर्किड', सिराज बागची के उपन्यास 'घरे फेरा', प्रांतिक चक्रवर्ती के उपन्यास 'परिशोध', प्रचेत गुप्त के उपन्यास 'आपरेशन सिंहदुआर', विभास राय चौधुरी के उपन्यास 'भालोबासार माटी', विपुल दास के उपन्यास 'रक्तरंगन' में देख सकते हैं। देश-दुनिया को बाजार में तब्दील करने की अकुलाहट, हिंसा, उन्माद, विद्वेष, दलितों व अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न, हाशिए पर ढेकाला गया अंतिम मनुष्य, युद्ध की छाया, क्षेत्रीयता, धर्म, नस्ल व रंग के आधार पर विभाजन, सत्ता का फासीवादी चरित्र, आधुनिक जीवन की जटिलता सांप्रतिक बांग्ला कथा साहित्य के दृश्य में है। आज का बांग्ला कथा साहित्य फासीवाद-साम्राज्यवाद-बाजारवाद यानी मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध खड़ा है। अपने मजबूत पाँवों पर।

संदर्भ-ग्रंथ

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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ