साल के पुराने पेड़ों के लंबे तनों के आसपास फैली घनी छायाओं के बीच पत्तों से छन कर आती हुई धूप थी और उन्हीं के बीच कहीं झुरमुट में छूपे कोयल की तेज कूक... पृष्ठभूमि से आती रेल की सीटी की धीरे-धीरे बढ़ती हुई आवाज... सामने कुछ ही फर्लांग पर बहती हुई लगभग सूखी स्वर्णरेखा... चित्त उचाट हो गया है। मन में यही है कि, जबकि इस समय नदी को देखने में एक इंतहाई दर्द है, काश कि इस दर्द में साझीदार वे एक जोड़ी आँखें भी यहाँ होतीं...
और एक मजबूत आवाज बगल से सुनाई देने का भ्रम हुआ, 'बाबू, चलो... खाली इतने परेशान होने से क्या होगा कुछ? जो अच्छा नहीं लग रहा उसे, अच्छा लगने लायक में बदल दो!'
पिछले कुछ वक्त में जो कुछ हो गुजरा है, उसके ख्याल लावे की मानिंद जेहन में उतरने लगे हैं। नब्जों में खून गर्म हो उठता है, एक भटके हुए गुस्से को काबू में करने पर। मैं सर को झटका देकर आगे बढ़ आया हूँ... पाट के किनारे ऊँचाई पर यह नाम मात्र के अब बंजर खेत... बेढंगे से मेड... जहाँ बैठकर कहीं-कहीं सुबह लोगों ने पाखाना किया था, उसके सूखे हुए सबूत बिखरे पड़े हैं। ढलान की ऊँचाई, उसी ऊँचाई से नदी को देख रहा मैं, जाती हुई दोपहर के सूर्य की तीखी किरणें नदी के बचे हुए पानी पर तेज कौंध पैदा कर रही हैं...
इस नदी के किनारे निर्जनता में हवा के मर्मर को सुनते हुए, कभी उफनती नदी की लहरों का चिंघाड, कभी सरल-प्रवाहित की कल-कली सुनते हुए... मैंने दिन बिताए हैं। आदमी होने का सबक पाया है...!
मेरे पाँव नदी की कमजोर, सिमटी, उथली धारा को काट कर उस पार पहुँच गए हैं और मैं नहर के बगल की कच्ची सड़क पर टहलने लगा हूँ...
'आशा दी, नदी अब मेरे सारे राज जानने लगी है! वह सब भी जो मेरी माँ तक नहीं जानती...', पूरे उत्साह में कह दिया था उस दिन आशा दी को, यह उस दिन कुछ साल पहले की एक शाम थी, जब पहली बार आशा दी ने हँसते-हँसते मुझे कुरेदा था, कि मैं पिछले कई दिनों से हर शाम अकेले कहाँ गायब हो जाया करता हूँ? कभी उनसे बताया तो नहीं! स्थानीय तांबा-कंपनी का 'पोंगा' (सायरन) कामगारों को नियत समय पर गेट-प्रवेश, छुट्टी या पाली बदलने की सूचना देने के लिए बजता है। ठीक शाम साढ़े चार बजे वाले पोंगे के बाद, मैं साइकिल उठाए, तो कभी पैदल ही, भाग लेता कस्बे के पश्चिम की ओर...
आशा दी हँसी थी, जोर से... 'अच्छा बाबू, और क्या बातें करता है नदी से?'
'वो आपको कैसे बताऊँ, वह तो मेरे और नदी के बीच की आपसी बातें हैं!' मैं झूठमूठ की दिखावटी अकड़ दिखाते हुए बोला था। आशा दी उसी तरह हँसती रहीं...
आशा दी। उनका पूरा नाम हुआ, आशा रानी मंडल। पड़ोस के सोमेंदु मंडल, जिनके पास हम ट्युशन पढ़ने जाते थे, उनकी इकलौती अनाथ भतीजी थी वह। पश्चिम बंगाल के किसी छोटे से कस्बे से आई थी, वहीं स्कूल कर रही थी, उन्हीं दिनों दीघा यात्रा के दौरान एक सड़क दुर्घटना में माँ-बाबा और एक मात्र छोटे भाई की मृत्यु के बाद यहाँ सोमेंदु सर के घर रहने लगी। और कोई अभिभावक नहीं था। यहीं के सरकारी स्कूल में पहले मैट्रिक, फिर बारहवीं पास कर उन दिनों स्थानीय महाविद्यालय में समाज-विज्ञान में स्नातक, खंड एक की छात्रा थी। पढ़ाई कई बार खंडित होती रही। कुछ पारिवारिक कारणों से। दूसरे, प्राथमिक शिक्षा बंगला माध्यम में हुए रहने से, हिंदी में कुछ समय तक अबोधगम्यता के कारण। जिस पर उन्होंने जल्दी ही विजय पा लिया पर, परिस्थितियों पर उनका सहज बस नहीं था। सोमेंदु सर सरकारी विद्यालय के शिक्षक अवश्य थे, मगर अत्यधिक दब्बू होने की वजह से कुछ खास कर-जोड़ नहीं पाते थे, अपने बड़े परिवार के लिए, जिसमें दो बेटों, एक बेटी, पत्नी, विधवा बड़ी बहन, दो बेरोजगार छोटे भाई भी शामिल थे, यानी उन सबका पेट भी और मन भी... जो कभी भी पूरता नहीं था! और वहाँ भी वे सबसे दबते ही थे! वरना आशा दी उन दिनों स्नातकोत्तर कक्षा में होती...!
मगर उनमें पढ़ाई के लिए गजब का जज्बा था...। खाना पका रही हों या सफाई कर रही हों, अपने पाठ्यक्रम का कोई टॉपिक या बिंदु पर अपने आप से बड़बड़ाती हुई, कंठस्थ कर रही होतीं... हम तो सोमेंदु सर से बारहवीं तक पढ़े फिर, मैंने इग्नू में कला स्नातक में दाखिला ले लिया... दी की पढ़ाई भी कमोबेश जारी रही...
नदी में उस साल के ठीक पहले साल बाढ़ आई थी, स्वर्णरेखा में बाढ़ हमने कम ही देखा है... सिर्फ हरहराकर उफनती नदी देखी है, सावन-भादो-कार्तिक में। मगर उस साल आई थी बाढ़, किनारों पर पूरी उत्तेजना से धक्के मार कर हुंकारती हुई... स्वर्णरेखा का ऐसा रौद्र रूप देखने को कहाँ मिलता है...! मटमैले-गेरुए रंग के पानी में सफेद फेन और विविध वनस्पत्तियों, जलकुंभियों के अलावा चारपाई, कपड़े-हांड़ी, गथरी... कई तरह की घरेलू सामग्रियाँ... आदि भी डूबते-उतरते बहे चले जा रहे थे... किनारे पर बसे किसी गाँव को डुबो दिया था नदी ने... बाढ़ के रूप में नदी अपना शक्ति-प्रदर्शन करती है। यह उसके यौवन की उत्तेजना है... चिर-कुँवारी पुनः रजस्वला होती है। फिर सागर-पुरुष से मिलन के वास्ते...!
वह जुलाई-अगस्त का महीना था, उन्नीस सौ सत्तानब्बे! उसके बाद फिर ऐसा नहीं दिखा... और अब तो दस ही वर्षों बाद बारिश बिना सूख रही है यह...
नदी जब उफान पर होती थी, पुराना जर्जर पुल समूचा और वह विशालकाय 'हाथी-पत्थर' तक अधडूबा हो जाता था... खूब सारा फेनिल पानी किनारों पर थपेड़े खाता... जब बरसात के दिनों और बाद में भी, जब पानी से भरी-पूरी नदी मार किलकारी बहती... नए बने घाट की सीढ़ियों पर मैं खतरे की हद तक, सबसे निचली पायदान पर खड़ा, अपने पैरों पर नदी की लहरों की थापें महसूस करता... जबकि मुझे तैरना नहीं आता, सो वहाँ कदम फिसलने का मतलब तेज धार में गिरकर डूबना ही था! आशा दी यह सब नहीं जानती थीं, और तब तो वह यह भी नहीं जानती थीं कि, मेरे अंदर यह नदी कितनी है!
और मैं भी तो तब नहीं जानता था कि, दी, जो कि बाहर, दूसरे प्रांत से आई थी, के भीतर भी यह नदी कितनी है!
क्योंकि तब तक, आशा दी के साथ तभी नदी जाना हुआ था, जब कोई खास दिन हो या मौका। मसलन पिकनिक के लिए, छठ या मकर संक्रांति पर, या फिर सितंबर से दिसंबर-जनवरी के खुशगवार महीनों में, जब पश्चिम बंगाल के पर्यटकों की भरी-भरी बसें स्वर्णरेखा के पश्चिमी किनारे वाले पिकनिक स्पॉट पर आकर खड़ी होती थीं, मेरा और पड़ोसी सोमेंदु सर का परिवार साथ में कई बार गया था। बच्चों ने पानी, पत्थर और रेत में खूब धमा-चौकड़ी की थी। पश्चिम पार वाले छोर पर जंगली-पहाड़ी नाला जो झरने के रूप में नदी में आ समाता... वहाँ मस्ती करते। धीरे-धीरे इन्हीं दिनों में स्वर्णरेखा हम दोनों के ही रेशे-रेशे में समाती गई होगी। नदी पर मैं कुछ अनगढ़ सी भावुक कविताएँ भी लिख डाली थीं! जो दी को तब दिखाई थीं, जब एक राष्ट्रीय अखबार के स्थानीय संस्करण में छपी थीं। तब दीदी भी गुनगुनाने लगतीं, अपना बुना हुआ कोई गीत!
'भोरा नोदी, ऐई जोल... सारा जीवोन भेसे जाय रे... आमी देखी शुदु धार तोमारी, सोमोय कोथाय पेरिये जाय रे...' समय बीत जाता है, लगातार बहती धारा की तरह... आशा दी तन्मयता से गाती।
बाद में अपने-अपने परिवार के साथ जाने पर भी हम बाकियों से अलग चले आते और अंग्रेजों के जमाने के उस टूटे पुल पर बैठे हम साँझ को पार उतरते देखा करते। उसी भग्नावशेष पुल के करीब उगे एक छोटे से टीले पर चढ़ और वहाँ बैठ कर मैंने पिछली सहस्त्राब्दी के सूर्य को डूबते देखा था।
वही स्वर्णरेखा इस साल सूखी पडी है, तो मन में हूक उठाती है।
बंगाल से आया डॉक्टरों का दल... एक डॉ. पूछती है, 'स्वर्णरेखा में स्नान, कैसा विचार है!' आज भी पश्चिम बंगालवासियों के लिए घाटशिला और स्वर्णरेखा, पयार्य हैं... यह नदी उन्हें सदा से आकर्षित करती आई है... दूसरा डॉ. कहता है, स्वर्णरेखा सूखी है, जल नहीं... तब स्थानीय प्रतिनिधि कहता है, कहीं कहीं पर गहराई, वहाँ पानी है, नहाया जा सकता है! इस बीच कहा गया है कि, सूखी है तो क्या, इसकी रेत में सोना मिलता है!
पिछले बरस बारीश नहीं के बराबर हुई, तो यह वर्षा-नदी हत् श्री हो गई! पाटों के विस्तार के बीच उबड़-खाबड़ जमीन, पत्थरों, घास, जंगली झाड़ियों-वनस्पतियों, अनचीन्हें जलीय पौधों और शैवाल, रेत और कीचड़ से भरी हुई... यह तकलीफ देता नजारा था। एक कटु सांत्वना है कि, ठीक ही है कि दी अभी यह सब नहीं देख रही है। मगर मैं दी के बिना यह देख कर टूट रहा हूँ!
मेरे पाँव नदी-पार वाले उस धीवर बस्ती की तरफ बढ़ रहे हैं... जहाँ, राजू धीवर नामक नए खून का लड़का, मेरा दोस्त बना है, पिछले दिनों... वह मेरी बात पर कहता है, 'आप ठिक्क कहते हैं भैया... हमलोगों को ही ना करना है। जैसे 'रंग दे बसंती' में आमिर खान बोलता है कि, जिंदगी जीने के दो तरीके होते हैं... या तो जो हो रहा है उसे चुपचाप सहते जाओ या फिर जिम्मेदारी उठाओ और उसे बदल दो...! ऐसा ही बोलता हैं ना... सही है। जानते हैं, आप तो अभी हमको मिले हैं, और यह सब समझा रहे हैं। पहले यही फिल्म देखकर हम तो जोश से भर जाते थे। हमारा रोम-रोम जोश से खड़ा हो जाता भैया!' यह लड़का बहुत उत्साही है... हमें ऐसे ही लोगों की जरूरत है जो बिना किसी जोड़-घटाव, गुना-भाग के एकदम खालिस उत्साह से भरे हों...
प्रदेश की राजधानी राँची के पास पिस्का-नागरी नामक गाँव से निसृत यह नदी छोटानागपुर पठार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक के अपने सुदीर्घ विस्तार के बीच, आम जन, आदिवासियों की प्यास, उनके खेतों-मवेशियों की प्यास बुझाती, स्वर्णरेखा, यानी 'सोने की लकीर'! सचमुच सोना देती... आज भी घाटशिला से बहरागोड़ा तक इसके किनारे बसे धीवर-बस्तियों की महिलाएँ काफी मशक्कत और निपुणता के साथ इसके रेत से चुनती हैं, फिर चालाक दलालों के हाथों ठगी जाती हैं... जो यहाँ इनसे इनका सोना कच्चा सोना बताकर कौड़ी के दाम मोल ले जाते हैं। और ये लोग हमेशा से दरिद्र के दरिद्र और उस पर 'सोनाचोर' का लांछन खाकर रह जाते हैं! वहीं का लड़का राजू धीवर...
स्वर्णरेखा या सुवर्णरेखा... आह, कितना सुंदर नाम! किसने रखा होगा! प्रोद्योगिकी की भारी कीमत चुका रही है... देश की बाकी नदियों की तरह इसकी भी धार घोंटी जा रही है... तांबा कंपनी के नाले का मुँह नदी में गिरता है, वहाँ का लाल तरल जहर पानी में घुल-मिलने जाता है, और आगे पूरा लाल कीचड़...! ओह आदमी कितना मूर्ख, कितना एहसान-फरामोश, कितना क्रूर हो चुका है... दुख से मेरा जिस्म हरारत कर उठा। आशा दी की हर बात और उनकी फिक्र की गहराई मेरे भीतर अत्यंत पीड़ा लेकर पैवस्त हुई... फिर एक बार...
आशा दी की ज्ञान की भूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि, जब मैं सोमेंदु सर के पास कोई सबक कर रहा होता, तो वह दरवाजे की ओट से खड़ी सब सुन और कंठस्थ-मनस्थ कर रही होती! उनकी स्मरण और विश्लेषण की क्षमता गजब की थी, और मुझे उन पर सहज ही रश्क तो नहीं, पर खुद पर कोफ्त जरूर होती... उनके मुकाबले उन्नीस ठहरने पर। वह कई बार मुझसे किसी भी पढ़ाये गए पाठ या विषय पर तर्क करके बड़ी आसानी से पराजित कर सकती थी... इसलिए मैं अपना गृह कार्य करते हुए, कुछ भूल जाता तो उसी दम उनके पास भागता, मदद के लिए मुँह उठाए...
तो आशा दी के प्रति एक आदर का भाव दिनों-दिन बढ़ता ही गया था उन दिनों अनायास ही। कोई भी सवाल जो मुझसे हल नहीं हो, तो आशा दी का मुँह जोहने लगता था...
आशा दी ने मेरे लिए, यानी मेरे सवालों के सही-सटीक उत्तर देने के लिए ही कई सारी चीजें इधर-उधर से ढूँढ़ कर भी पढ़ी थीं... जैसे एक दिन मैंने गर्मियों के दिन सिमटी हुई नदी के बीच बड़े से पत्थर पर बैठकर उनसे पूछा था, 'आशा दी, यह नदी कहाँ से निकलती है?' आशा दी संजीदा हो गईं। उस समय बस इतना कहा, 'सोमेन, जानी ना... किंतु ठहरो। मैं बताऊँगी तुमको।'
फिर मुझे तो यह प्रश्न भूल गया, आशा दी नहीं भूलीं! और शायद माह-डेढ़ माह बाद फिर एक इसी तरह की शाम को नदी की रेत पर टहलते हुए, वह शायद किसी अप्रैल या मई का कोई पहला सप्ताह रहा होगा... हमलोग हमारे पालतू खरगोश के शावकों के लिए पाट की हरियाली में से दूब घास चुनने गए थे। तीखी धूप अब ढल चुकी थी, शामें खासी लंबी हो चुकी थीं... आशा दी ने बताया, 'इस नदी का नाम स्वर्णरेखा या सुवर्णरेखा क्यों है मालूम?' मैंने ना में मुंडी हिलाई तो दी बोली, 'इसलिए कि जहाँ से यह निकलती है, माने इसका उदगम है, राँची से कुछ दूर पंद्रह किलोमीटर दक्षिण की तरफ, पिस्का-नागरी नाम के गाँव से... जहाँ कभी सोना निकाला जाता था। तो इसी कारण से इसको नाम मिला, स्वर्णरेखा, क्योंकि इसकी धारा में महीन स्वर्ण-कण मिलते हैं। कोई कहता है कि दलमा पहाड़ी, सोनापेट जैसी जगहों से अपरदन के कारण सोने के कण आ मिलते हैं, तो भूगर्भ-विज्ञानियों का मानना है कि, तमाड के निचली धार में, पत्थरों से ये कण इसमें आ जाते हैं... आज भी यहाँ से बहरागोड़ा तक की धीवर औरतें काफी मशक्कत से ये कण चुनती हैं। शुद्ध-साफ करती हैं... यह भी इनकी एक कला समझो... बरसों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये लोग करती आई हैं... लेकिन उसका मोल नहीं पाईं।'
मैंने सामने देखा, जिधर सूर्य डूब रहा था, उसी तरफ आशा दी उँगली दिखा रही थी, 'वह है धीवर बस्ती, तुई जानिश कि ना रे! मर्द जाल फेंकते हैं, मछलियाँ पकड़ते हैं, नाव चलाते हैं, और उनकी औरतें, लड़कियाँ बाकि धंधों के साथ यह सोना चुनने का काम भी करती हैं...'
'दी, क्या सचमुच सोना मिलता है...?', मुझमें कौतुक जगा था। वह हँसी, 'नहीं रे बोका! उतना नहीं मिलता। कुछेक कण... सप्ताह-पखवाड़े भर की मेहनत के बाद। और फिर बिचौलियों के हाथों ठगी जाती हैं।'
मैं आश्चर्य से दी को देखा रहा था, 'आपको कहाँ से इतना मालूम हुआ दी?'
'अरे, तुमने पूछा नहीं था उस दिन...! तब मैं काकू से पूछी। उन्होंने बताया। फिर उनके साथ धीवर बस्ती भी गई, देखा सब।' दी की यही ईमानदारी ने मुझमें उनके लिए आदर की एक पौध रोप दी थी उसी दिन... दी अपनी बात कहते जा रही थी, 'सोत्ती बोलवो, बाबू! तोमार ऐई प्रोश्नो दारा बेसी भालो लागलो ऐई नोदीर विषये जाना...' (बाबू, तुम्हारे सवाल के जरिए मुझे इस नदी के बारे में जानना अच्छा लगा)!
आशा दी घर लौटकर भी उस शाम, जब हम गर्मी के दिनों में रात के खाने के बाद सोने से पहले घर के पास वाले पीपल के नीचे खटिया डालकर बैठते थे, मुझे देर तक स्वर्णरेखा की कहानी सुनाती रही, जाने कैसी पोटली से हासिल की थी उन्होंने यह सारी बातें...! मानों उन्होंने जो कुछ जाना था, उसे मुझ तक पहुँचाना उनका दायित्व हो... या फिर नदी के बारे में बात करना उन्हें भला लग रहा था... एक जूनून सा तारी था दी पर!
'जानते हो सोमेन, नदी को भी माँ कह सकते हैं... जैसे यह धरती को माँ और आकाश को हमारी संस्कृति में पिता कहा जाता है, वैसे ही...! स्वर्णरेखा बहुतों को पोसती है रे...!' यह नदी को लेकर मेरी और आशा दी की पहली संजीदा साझी बातें थी, इसका अगला सिरा दूर तक खींचते जाना था...
दी बता रही थीं, 'यह स्वर्णरेखा पिस्का-नागरी से निकलने के बाद राँची, सरायकेला-खरसावाँ और सिंहभूम जिलों से गुजरती है... तीन प्रांतों को अपनी धारा से बाँधने वाली हुई, झारखंड, बंगाल और उड़ीसा... हमारे झारखंड में ही यही सबसे लंबी है... पच्छिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में तिरासी किलोमीटर और उड़ीसा के बालासोर में उनासी किलोमीटर लंबी है यह। जानता है, उड़ीसा के ही तलसारी नामक जगह पर यह बंगसागर में जा मिलती है...'
'यानी दी, यह तो बहुत लंबी नदी है!'
'हाँ रे, इसकी लंबाई जानेगा? चार सौ सत्तर किलोमीटर होगी...! और बताऊँ, यह पहाड़ी-बरसाती स्वर्णरेखा ऐसी नदी है, जो किसी की सहायक नदी नहीं बनती, इसकी बहुत सी सहायक नदियाँ है, खरकाई, काँची ...'
दी ने नदी के बारे में मेरी साधारण सी जिज्ञासा को इतने विस्तार से सुलझाया था कि मैं स्वर्णरेखा के बारे में और जानने के लिए तैयार और उत्कंठित रहने लगा। जहाँ जिससे भी कोई बात हमें पता चलती, हम उसे कॉपी में लिख लेते और एक-दूसरे को बताते। उफ, इस नदी से हमें सामान रूप से प्यार होने लगा था, और यह दिनों-दिन समय और उम्र के साथ गहरा होता जा रहा था!
मैंने जाना था कि यह नदी वर्षा पर पूरी तरह निर्भर है। यानी जिस साल कम वर्षा होगी, नदी कृशकाय हो जाएगी। नदी का सूख जाना मेरे और दी के लिए अकल्पनीय था...! हम मनाते थे कि, हर साल खूब अच्छी बारीश हो! बारीश के दिनों में जब नदी का पाट चौड़ा हो जाता। हम नदी का पानी देखने जाते। और वह रौद्र रूप देखकर हुलसते... औरों की नहीं जानता, मगर उस भीड़ में मैं और दी, दो लोग तो अपनी खुशी बाँटते थे, आँखों और मुस्कराहट में!
'हर बीतता क्षण भी इसकी धाराओं की तरह बहता हुआ इतिहास के महासागर में लीन हो जाता है', दी किसी प्रौढा की तरह कह देतीं। नदी सुंदर थी... अक्टूबर से मई तक, और रौद्र होती सावन के महीने से दुर्गा पूजा के महीने तक! पुल पर से खड़े होकर देखो तो हर शाम इसके ऊपर आसमान का रंग बदला हुआ नजर आता है। दूर पहाड़ों के पीछे, चोटियों पर जहाँ प्राचीन सिद्धेश्वर शिव मंदिर है, के बगल में सूरज डूबता तो नजारा क्या खूब होता!
उन्हीं दिनों, नदी और पर्यावरण में जादूगोड़ा के यूरेनियम खदान के जरिए बढ़ते रेडियोधर्मी प्रदूषण पर एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई थी एक समाचार चैनल ने। यह भी देखा कि, जादूगोड़ा के यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड द्वारा यूरेनियम खदानों से निसृत खतरनाक रेडियोधर्मी रासायनिक कचरा को वहाँ की जमीन और अंततः भूगर्भ जल में रिस कर, नदी में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मिलकर पानी को विषाक्त बना रहा है।
जब ग्रेजुएशन कर चुकी आशा दी ने 'भारतीय मानवाधिकार संस्थान' में मानवाधिकार के पत्राचार पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया था, अपने बूते पर... सोमेंदु सर बढ़ती उम्र हो जाने के कारण ट्युशन पढ़ना छोड़ दिए थे उसी साल और उनके छात्रों को अब आशा दी पढ़ाने लगी थीं। अपनी पढ़ाई का खर्च स्वयं वहन करने की क्षमता अर्जित कर ली दी ने! तो उसी डॉक्यूमेंट्री की याद दिलाते हुए बोली, 'सोमेन... मुझे इसी पर काम करना है।'
याद आया, दी ने डॉक्यूमेंट्री देखकर मुझसे समझाने के लहजे में कहा था, 'बाबू, प्रोद्यौगिकी आगे विकास का द्वार तो पीछे विनाश का दरवाजा एक साथ खोलती है। यदि विवेक और जिम्मेदारी के साथ यह विकास करो तो ठीक, वर्ना यही विकास पलटवार करता है... हालाँकि यह एक धीमी प्रतिक्रिया है। पर दूरगामी परिणाम अवश्यंभावी होते हैं, इसे जान कर रखो।'
मुझे लगा अब दी अपनी उसी बात का छूटा सिरा वहीं से पकड़ रही थीं, 'इस नदी को बचाना चाहिए... आदमी थोड़े से स्वार्थ के लिए अंधा हो गया है। जानते हो यूरेनियम का यह कारखाना सरकारी उपक्रम है, इस धातु से आयुध तैयार होता है, देश की सुरक्षा के लिए एक बेहद जरूरी संसाधन! मगर सिर्फ ध्वंस करने के लिए क्यों? ...विज्ञान का उपयोग रचने के लिए होना चाहिए था, किंतु लोगों ने जो सुंदर, सजीव है, उसको मिटाने के लिए इसका उपयोग बेसी किया है!'
मुझे लगा दी भावुक हो गई थीं। लेकिन ठीक भी है! बिना भावुकता के जूनून आता नहीं... बिना भावुक हुए प्रतिबद्धता नहीं आती! फिर दी अपने कोर्स के परियोजना-कार्य के सिलसिले में जमशेदपुर में असित दा से मिली थीं, जो १९७५-७८ में स्वर्णरेखा पर चांडिल में बने डैम विरोधी आंदोलन में शामिल हुए थे...
मुझे याद है, असित दा, बहुत धीमे बोलते थे... और याद है, उन्होंने सबसे पहले ही यह उल्टा सवाल हम से ही किया था, 'पानी किसके लिए?'
वे बोलते गए, 'देखो, जो चीजें हैं, उनको थोड़ा समझने की जरूरत है। प्रकृति या प्राकृतिक संसाधन का दोहन करके ही तो हम जीते हैं... लेकिन हर चीज की एक सीमा है! एक श्लीलता है! चांडिल डैम का उद्देश्य...? यह आम आदमी के लिए नहीं हुआ है, जैसा कि कहा गया, असल बात, हुआ औद्योगिक जरूरतों की आपूर्ति के लिए! कौन किया? इस प्रदेश ही नहीं, देश का सबसे बड़ा औद्योगिक घराना! पानी उसे चाहिए, लाखों गैलन... अपने कारखाने की भट्टियों को ठंडा करने के लिए, अपने बोयलर में भाप पैदा करने के लिए! पानी का ऊपर कब्जा, संसाधन पर कब्जे... पूँजीपति वर्ग अपने लाभ के लिए हर उस चीज पर अपना कब्जा जमा लेता है, जिससे वह लाभ कमा सके, अपना हित साध सके। उत्पादन पर नियंत्रण तो हमेशा से उसी के पास रहा है, अब प्राकृतिक रूप से जो उपलब्ध होता है, उस पर भी मालिकाना हक़ कर लिया!'
मैंने देखा, दी उनकी बातें अपनी नोटबुक में टापती हुई, सिर हिलाए जा रही थी, बीच-बीच में सिर उठाकर असित दा के चेहरे को देखती। बाहर दोपहर की धूप थी... तभी असित दा का लड़का पसीना पोंछता हुआ, बाहर से बाल्टी में पानी ढोते हुए घर में घुसा, असित दा बोले, 'देख लो हमारी हालत... पीने के पानी के लिए...' आगे वह शायद बोल नहीं पाए, फिर बोले, 'बताओ पानी की कहाँ कमी है? थोड़ी दूर पर ही तो मुख्य शहर है, वहाँ ना तो बिजली, ना पानी का अकाल पड़ा है। जबकि विडंबना देखो, हम यहाँ अभी भी बिजली के मामले में सोलहवीं सदी में जी रहे हैं, और पानी के लिए शायद आज से पचास साल बाद का समय, जब पेयजल का अकाल हो जाएगा! पानी तो प्राकृतिक है, इतना है! फिर भी हमें नहीं मिल रहा... उस पर भी कॉर्पोरेट का कब्जा हो गया है! पानी भी आम आदमी की पहुँच से बाहर कर दिया गया है!'
स्वर्णरेखा पर शाम बदस्तूर ढल रही है... आसमान का रंग बदल रहा है... मैं धीवर बस्ती के करीब पहुँच गया हूँ...
दी फिर से अपने प्रोजेक्ट के काम से चांडिल डैम के विस्थापितों के बीच गई हुई थीं। वहाँ से उनका फोन आया था, 'सोमेन, मालूम है, मैं कल शिवराम महतो से मिली हूँ! बहुत कुछ उन्होंने बताया है, पूरी तस्वीर मेरी आँख के सामने घूम रही है, जानता है! आकर बताती हूँ।'
शिवराम जो इस डैम विस्थापितों के लिए लड़ी जाने वाली असरदार पैमाने की लड़ाई नायक रहे थे, और सत्ता और व्यवस्था की प्रताड़ना के चलते विक्षिप्त भी हुए थे..., दवा-दारू के बाद और दोस्तों की बदौलत अभी कुछ ठीक थे। और उसी पुराने आंदोलन की अपने साथियों द्वारा बचाई हुई लौ को फिर से थामने लायक हो सके थे। दी ने उनके जरिए जो तस्वीर देखी थी, वह उन्होंने आकर मुझे भी दिखा दी...
'पहाडू महतो उन चार मरने वालों में से एक था, जो उस जोयदा के जुलूस में शामिल थे, और जिनको 'गिराने' के लिए प्रशासन की ओर से पुख्ता इंतजाम किया गया था उस दिन... जब जुलूस थाने के करीब से गुजरी, एक आरक्षी अधिकारी का हाथ हवा में उठा था, और उँगलियों के इशारे से बताया गया - 'चार'... चार आदमियों को 'गिराना' तय था, ताकि सर उठाने वालों में भय का संचार कर उन्हें हतोत्साहित किया जाय...!
'जितने का इशारा हुआ था, 'गिरे' उतने ही! गोली पुलिस ने चलाई थी... और आंदोलन का अगुआ गुनाधर महतो कोलकाता फरार हो गया था...! जबकि इस समय आंदोलन को और तेज करने की जरूरत थी। क्योंकि भीतरघात किया था उसी ने... बुजुर्वाओं से जा मिला था, और आंदोलन टूट गया... डैम वहीं बना... हजारों लोग 'डूब' के विस्तार में अपना सत्तर-अस्सी बीघे पैतृक जमीन खोकर भटकने को मजबूर हो गए... सारे सही कागजातों के बावजूद! पहाडू महतो जैसों के आश्रितों का क्या हुआ, अंदाजा भर लगाया जा सकता है!' शिवराम महतो तिलमिला उठे थे, पुराने घाव को कुरेदने से, इसी का डर था दी को। मगर फिर संभले तो बोलने लगे, 'पानी तुमरे हमरे लिए नहीं है... पानी है टाटा कंपनी के लिए, पानी है जिंदल के प्लांट के लिए... पहाडू मरा, और तीन मरे, क्या हुआ...? बना लिया डैम, गरीब का खून और हड्डी सान के... साला हरामी गुनाधर, नेता बना था। उही ने तोड़ा आंदोलन को। गद्दार! चाँदी का थाली मिला तो उनका कुत्ता बन गया, खूब चाटने को मिला होगा!'
लड़ाई में अपने साथियों को खोने की पीड़ा डबडबा आई थी शिवराम की आँखों में। फिर बाद के दिनों में चांडिल चौक से डैम तक जब एक बड़ा विरोध जुलूस निकला था, कहीं उसकी खबर नहीं आई। मीडिया में उसे दबा दिया गया! प्रशासन ने मीडिया को खरीद लिया था। शिवराम महतो ने तर्जनी उठाकर कहा, 'लड़ाई में हमने कुर्बानी दी, हारे भी, मगर यह लड़ाई अभी भी खत्म नहीं हुई है, धीमी जरूर हुई, मगर अभी भी जारी है...'
'सोमेन, उस डूब वाले क्षेत्र में किसी को कुछ तो नहीं मिला। मगर वह जमीन इतनी उपजाऊ है, लेकिन वह सिंचाई के लिए, पानी के लिए कोई व्यवस्था नहीं, योजना नहीं... ना विधायक कोष से, ना सरकार की नजरों में... लोग इतने मेहनती हैं, मगर क्या करें? आम आदमी के लिए कुछ नहीं है।' आशा दी ने कमरे की बत्ती जला दी थी।
'इसका मतलब दी, यह डैम आम आदमी के लिए बना ही नहीं, यह उनकी अपनी योजना के मुताबिक बनाया गया, अपने हितों के लिए... आम आदमी के सरोकारों से उन्हें क्या मतलब होता! यही उनका असली मकसद था। नदी को नाथ दिया अपने फायदे के लिए!' मैं बेचैन हो उठा था, और मेरी जगह कोई भी होता, तो वह भी ऐसा ही महसूस करता।
आशा दी कलम से कागज पर यूँ ही डॉट्स बनाती रही, जैसे कुछ क्षण के लिए अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर रही हो। 'और जानता है, लौटते समय मैंने एक जगह क्या देखा? बालू के ठेकेदारों के छह-सात कोप्लिंग लगातार चौबीसों घंटे बालू उठा रहे हैं, पानी से छानकर भी! नदी की तलहटी तक कोंच कर! और ढुलाई वाले ट्रक आ-जा सकें, इसके लिए पत्थर बिछाकर रास्ता बना दिया गया है... नदी के बीच... नदी कहाँ है, मालूम नहीं पड़ता! ऐसा लगता है, सपाट पत्थरीली जमीन है कोई! नदी का दम घोंट दिया है...'
उस रात देर तक छत ताकता मैं लेटा रहा, नींद बहुत देर बाद आई थी। मुझे लगता है आशा दी भी ठीक से सो नहीं पाई होगीं उस रात।
और फिर एक दिन, हम अनायास एक दहला देने वाली सच्चाई से रू-ब-रू हो रहे थे, जिसके बारे में अब तक कुछ सिर्फ संचार माध्यमों में देखा-पढ़ा-सुना था। स्वर्णरेखा झारखंड के सर्वाधिक उन्नत अयस्क उत्पादन वाले भंडार-क्षेत्रों से होकर अपना रास्ता तय करती है। इनमें से एक है - जादूगोड़ा... जनवरी के उस दिन हम, दी के छात्रों का दल लेकर नरवा पहाड़ पिकनिक गए थे। रास्ते में भाटिन गाँव पड़ा। सोमेंदु सर का कोई पुराना छात्र वहीं का था, और दी को उससे एक किताब वापस लेनी थी सोमेंदु सर की। हम छात्रों को आगे बढ़ने को कह कर गाँव में घुसे।
...इस तरह के गाँव अब शायद कम ही रह गए हैं। किसी अवशेष की तरह। मिट्टी से लिपी-पुती स्वच्छ दीवारें, आँगन। चमकती कत्थई खपरैल और फूस की छतें, मड़ैया और दीवारों पर खूबसूरत रंगोलियाँ, भित्तिचित्र! पेड़ों के सूखे पत्ते बिखरे हुए... जिन्हें बुहार रही थी एक स्त्री। यहीं रजुआ मुंडा मिला, एक पैर से घिसट कर, लगभग रेंगते हुए चलता पास आया था। आँखें विकृत और होंठ चौड़े-मोटे, एक तरफ झुका हुआ सर। उसके बाबा ने, जो शायद हमें मीडियाकर्मी समझ रहे थे, बताया, 'हे बेटी, आमार घोरेर बाच्चा रा, आर ऐई ग्रामीण बा पासेर सोब ग्रामे, सोकोल जायगाए ऐई दोशा! आमदेर बाच्चा रा, युरेनियेम विष (रेडियोधर्मी जहर) खाए पोंगु होए गेछे! एदेर कौनो इलाज नेई... आर आमादेर खोमोता ओ नेय जे ऐरा के कोथाय निए जाय आरोग्य कोराबो।' (बेटी, हमारे परिवार के बच्चे, और इस गाँव और आसपास के गाँवों में, सब जगह यही स्थिति है। हमारे बच्चे यूरेनियम के जहर से विकलांग हो चुके हैं, इनका कोई इलाज नहीं, या हमारी इतनी शक्ति नहीं कि इनको कहीं बाहर ले जाकर स्वस्थ करा सकें।) उनका हाथ माथे पर अनायास ही नहीं जाता, 'आमरा त चाय जे एरा मोरे जाक... मोरे जाय तोबे मुक्ति पाबे...!' (हम तो चाहते हैं कि ये मर जाय... मर गए तो ही छुटकारा पाएँगे!' एक बाप अपने ही बच्चों के मरने की कामना कर रहा था, या एक लाचार मनुष्य कष्ट भोगते हुए अपने सहजीवियों की 'मुक्ति' के लिए इतना ही कर पा रहा था!
यूरेनियम कंपनी यूरेनियम संसाधित कर रेडियोधर्मी कचरा जिस लापरवाही से बहा रही थी, जमीन में गाड़ रही थी, वह विभिन्न स्रोतों या भूगर्भ जलस्तर में मिल कर आखिरकार स्वर्णरेखा में ही जा रहा था... नदी ही नहीं, यहाँ की हवा तक में जहर था। एक पूरी नदी जहरीली हो रही है। जमीन, जल और जमीन, सब कुछ रेडियोधर्मी जहर बुझा हो रहा था। तमाम विरोधों, डोक्युमेंट्री फिल्मों के बावजूद कंपनी प्रबंधन सिर्फ टालने और और खंडन करने को ही तैयार बैठा था। कंपनी तो स्थिति जानती है। मगर जो लोग तो यहीं के हैं कहाँ जाएँगे, क्या ऐसे परहेज कर सकेंगे, जैसे कंपनी के अधिकारी स्थानीय बाजार की सब्जियाँ और मछलियाँ नहीं खाते! जबकि आम कर्मचारियों भी रेडियोरेक्टीविटी से कैंसरग्रस्त हो रहे हैं। और मामले जब गंभीर हो जाते तो कंपनी उन्हें वेल्लोर भेजती... जबकि टाटा मेन हॉस्पिटल में कई सालों तक ऐसे मरीजों के मामले को सिर्फ 'टीबी की शिकायत है' दिखाया जाता रहा था... मगर रेफर किया जाता कैंसर अस्पताल! असलियत को दबाया गया। कंपनी मैनेजमेंट के साथ स्थानीय प्रशासन भी जान-बूझकर सच्चाई छुपाने और लोगों को गुमराह करने में शामिल रहा था... सैकड़ों-हजारों लोग कैंसर, टीबी, नपुंसकता, असाध्य विकलांगता, अवरुद्ध शारीरिक-मानसिक विकास, गर्भपात, भ्रूण-विकृतियों का शिकार... भाटिन, मेचुआ, नरवा-पहाड़, चाटीगोचा, केरुआडूंगरी... कई गाँव चपेट में...
आशा दी के चेहरे पर मैंने उस समय एक साथ ही बेचैनी, गुस्सा, आश्चर्य, निराशा और दृढ़ता के भाव देखे... वह क्या सोच रही थीं, यह पूछना सरासर अनैतिक होता! हम सोमेंदु सर के छात्र से किताब लेकर लौटे तो थे, पर पिकनिक की मनःस्थिति नहीं बन पाई फिर, दी और मेरी। बच्चे तो मस्ती करते रहे और दी पूरे समय नदी की ओर मुँह किए पता नहीं क्या-क्या सोचती रहीं...
यह अचानक हुआ कि, नदी जिंदा रूह बन गई थी, एक जीती-जगती औरत! और यह औरत हू-ब-हू एक माँ की तरह करुणा से भरपूर, मगर स्वयं कारुणिक नजर आ रही थी... मैं अवाक् था कि, ऐसा कैसे हो सकता है! मगर ऐसा ही था...
...इस सपने में मैं था, और आशा दी थीं। पता नहीं एक ही सपने में दो लोग कैसे एक ही तरह से शामिल थे! दी ने अगली सुबह बताया था कि, पिछली रात उन्होंने भी एकदम यही सपना देखा था!
तो सपने में नदी एक श्रीहीन मगर वात्सल्यमयी स्त्री की तरह से सामने खड़ी थी। उसके सफेद आँचल पर फेन और जलकुंभियाँ झूल रहीं थीं... उसके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था, ना वह मुस्कुरा रही थी, ना उदास थी! शायद इन दोनों के बीच का भाव वहाँ था। मैं दी का हाथ पकड़े विस्मय से उसे देख रहा था... लेकिन क्यों कि सारा पानी दूधिया... फिर मटमैला होते-होते, काला होता जा रहा था! कि उस स्त्री के होंठ हिल रहे थे, मगर हम उसके वे शब्द सुन नहीं पा रहे थे... मैं दी का मुँह देखता, दी मेरा... हम रोमांच से काँप रहे थे...
फिर उस स्त्री ने, जो नदी थी, जो इनसानी रूप में तब्दील होकर कुछ कहना चाह रही थी, जो इस साझे सपने में बिल्कुल सच्ची थी, जिसने श्रीविहीन सादे कपड़े पहन रखे थे, जिसकी कोई आवाज हमें साफ नहीं सुनाई पड रही थी, एकाएक चीखकर सिर्फ कराहा, 'आह...!' और यह कराह बहुत तीखी नोंक सी हमारे अंदर पैवस्त होती गई थी। हम सिहर से उठे थे!...
क्या नदी हमें शर्मिंदा नहीं कर रही थी! हम कायर बन रहे हैं... हम लापरवाह क्यों हैं... हमारी जाति इतनी बेशर्म और लालची ही है... हम सपने में भी एक सच के सामने खड़े थे, जो बेतरतीब, भीषण, कटु लेकिन फिर भी सच था...
दी मेरा हाथ पकड़े उसकी ओर बढ़ी थी, लेकिन वह स्त्री फिर से पिघलती हुई... पानी में बदलती जा रही थी... उसके पीछे सूर्य डूब रहा था, उसके बीचों-बीच की बड़ी सी वह चट्टान जोरों से हिलकोरे लेने लगी थी... सारे दृश्य व्यतिक्रम में एक दुसरे से गड्डमड्ड होने लगे थे। और वह पानी में बदल कर बह गई... पता नहीं उस कृशकाय को धरती ही सोख लेगी, क्या वह सागर तक पहुँच पाई पाएगी...?
लेकिन इस पानी का रंग पहचानना मुश्किल था! यह कैसा रंग था, ना मैं, ना दी इसके बारे में कुछ कह पा रहे थे। यह ना तो खून की तरह गाढ़ा लाल, ना गेरुए की तरह मटमैला, ना कत्थई काला! यह कोई अनचीन्हा रंग था... फिर धीरे-धीरे वह धारा सिकुड़ने लगी और इस सपने के भीतर स्वर्णरेखा पूरी तरह सुखकर लुप्त हो चुकी थी, हमारी आँखों के आगे! एक पूरी कि पूरी नदी देश के मानचित्र से गायब हो चुकी थी... अत्याधुनिक उपकरणों और उपग्रह से हासिल किए गए चित्रों से, भूगर्भ शास्त्रियों की तमाम मेहनत के बावजूद नदी का कोई चिन्ह नहीं मिल पा रहा था...
सपना यहीं खत्म हुआ था, यह इसलिए याद है कि तभी दी के यहाँ से सोमेंदु सर की छोटी बेटी तनु आकर कह रही थी, 'सोमेन दा, दीदी आपना के टाडा-ताडी डेकेच्छे, एक्खुनी...!' (दीदी ने आपको जल्दी बुलाया है, अभी!) फिर दी ने ठीक यही सपना बयान किया था!
...मैं सकते में था! और दी से कहा तो, वह चुपचाप सुन ली। उनके चेहरे में ऐसा कुछ नहीं उभरा कि मैं जान पाता कि उन्हें भी मेरी तरह कोई आश्चर्य हुआ है। फिर आशा दी कमरे में जाकर अपनी पढ़ाई वाली मेज पर बैठ गई और चुपचाप कुछ लिखने लगी। मैं वापस घर आकर नित्यकर्मों में व्यस्त हो गया। एक बुरे सपने का जैसा डर होता है, जो जागने के बाद भी पीछा करता है, कुछ देर... वैसा ही एक डर मेरे मन में बड़ी देर तक बना रहा और दिल धुक-धुक करता रहा...
स्वर्णरेखा के पुल से मैं नीचे देख रहा था, जनवरी की शाम थी। हवा खुश्क और ठंडी। नीचे कहीं-कहीं पानी था, बहने के बावजूद रुके रहने का भ्रम देता और छिटका-छिटका सा... बीच में सूखी रेत, कीचड़, पत्थर... तांबा कंपनी का बिखरा हुआ कचरा भी! और ऊपर आसमान में, आती हुई पूर्णिमा का पूरा होने जा रहा चाँद! ठहरे हुए पानी के किसी टुकड़े में चाँद का पूरा अक्स दिख रहा था... क्या इस खूबसूरती कि कोई दूसरी मिसाल है कहीं? जो स्वर्णरेखा पर यह नजरा नहीं देखा तो क्या देखा! पूछे कोई बंगाल के पर्यटकों से, कैसे चहक उठेंगे! कहेंगे, 'भालो, की दारूण छोबि!' पुराने पुल पर देखा था, कोलकाता से आया चित्रकारों का दल... ट्राइपोड लगाकर स्वर्णरेखा के पश्चिमांत खड़े पहाड़, नदी की छल-छल धारा, डूबते सूर्य की आभा... हर दृश्य को कूची से कैनवास पर उभार रहे थे वे! कितनी तल्लीनता, समर्पण से... हाँ पर उन कैनवासों से अधिक अमिट चित्र तो इस मन पर खुदे हैं! आज इन पर क्षोभ की उदासी की धूल जम गई है...
'प्रकृति की हर एक तंतु को सँभाल रखना क्या हमारा फर्ज़, हमारी जरूरत नहीं है, सोमेन? धरती पर अब तक के सर्वश्रेष्ठ मेधा वाले जीव होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी है।' दी कह रही थीं, 'नदी को बचाना होगा। यह हमें ही करना है, यदि हमने कुछ बिगाड़ा है तो, हमें ही उसे ठीक करना होगा...!'
इधर भी पिछले कुछ समय से रेत माफियाओं की गतिविधियाँ जोर पर थीं। अखबारों में आने के बाद से प्रशासन चौकस हुआ था जरूर, मगर साठ-गाँठ की परंपरा वाले इस देश में यह चौकसी कितने दिन चलती! लगातार दिन-रात, रेत उठाने वाले ट्रक, ट्रालियाँ... और ट्रेक्टर पर नदी से बालू उठाया जा रहा था। नदी में जगह-जगह रिसते घाव की तरह गंदले पानी के घेरे बनते जा रहे थे। गैर-कानूनी होने पर भी यह बदस्तूर जारी था... दी ने फैसला कर लिया था कि वह इस बार अपने प्रोजेक्ट कार्य के अलावा जमीनी तौर पर कुछ करेगी। दी ने प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के पर्यावरण मंत्री को लिखा था। सूचना के अधिकार के तहत पूछ लिया कि, 'स्वर्णरेखा के प्रदुषण के संबंध में क्या कोई सरकारी तौर पर कदम उठाया गया है? यदि हाँ तो कब? और उसका अब तक का ब्यौरा? रेत उठाने की परमिट कितनों को निर्गत हुई है, और इसकी सीमा क्या है...? नदी परियोजना से संबंधित दस्तावेजों और आँकड़ों की प्रतियाँ उपलब्ध कराने की अर्जी भी डे दी। और दी को कहते सुना, 'सोमेन, मेधा पाटकर कर सकती हैं, सुंदरलाल बहुगुणा कर सकते हैं, तो हम और तुम क्यों नहीं? अपने घर को बचना हो तो बाहर वाले का मुँह नहीं ताक सकते! इस धरती को बचाने के लिए किसी दूसरे ग्रह से तो कोई नहीं आएगा, करना हमें ही है बाबू...'
दी उस रात देर से घर लौटी थी और वहाँ से आ रही आवाजों से साफ हो रहा था कि सोमेंदु सर के परिवार को उनका यह बागियाना रुझान जरा भी नहीं सुहा रहा है। बीते कुछ दिनों से दी की बातों से भी लग रहा था, कि उन पर अब दवाब डाला जा रहा है कि 'शादी करो और हमें मुक्ति दो'... अगली सुबह दी ने बताया कि उन्होंने जो पत्र लिखे थे उसका त्वरित असर यह हुआ है कि, अब स्थानीय प्रशासन से यहाँ नदी के संबंध में सारी गतिविधियों की रिपोर्ट माँगी जा रही है। रेत माफियाओं ने प्रखंड विकास पदाधिकारी और दंडाधिकारी को जितने पर खरीदा है, उसका वफादारी तो वे लोग चुकाएँगे... पुलिस ने उन्हें यह पुछ्ताछ के लिए ओपी बुलाया था कि, उनका ऐसा पत्र लिखने का आशय क्या है! वह किस संगठन से जुड़ी हैं? क्या वह किसी राजनैतिक पार्टी से हैं, या विपक्षी पार्टी की हितैषी हैं, जो इस तरह का दुष्प्रचार कर प्रशासन और स्थानीय विधायक को बेइज्जत करना चाहती हैं...! दी के नक्सलवादी रुझान या उनके चरित्र एवं पृष्ठभूमि की बाबत उलटे-पुलटे सवाल किए गए। दी मूलतः पश्चिम बंगाल की हैं, यह जानकर, उन्होंने इस कोण से कुरेदा कि क्या कभी उनका या उनके किसी संबंधी का संबंध नक्सलवाडी या लालगढ़ से तो नहीं रहा है!
उन्हें थाने के बड़ा बाबू ने धमकी वाले पैंतरे से कहा था, 'ऐ लड़की, छिनाल लोग जैसा बाहरी-भीतरी नहिये कर, अभी नहीं बुझा रहा है तो बहुतो तरीके है। आगे से पेपरबाजी-फेफरबजी नयियो करेगी... नहीं तो...'
आशा दी ने जीवन में पहली बार ऐसे जलील माहौल में पूरे कपड़े होने के बाबजूद उन घूरती बारह-सोलह आँखों की बीच अपने को नंगा पाया था। ऐसा लोकतंत्र में होना स्वाभाविक ही था, कि जो सही बात करे उसे हर तरह से तोड़ कर अपनी लीक में ले आओ, नहीं आए तो, 'बहुतो तरीके है' इनके पास...! आशा दी के साथ मैं भी जान रहा था कि अब आगे कदम बढ़ाना चुनौती है। इन दिनों की अखवारों में रिपोर्ट ही ऐसी थी कि जिस प्रदेश का पुलिस कप्तान युवती की देह से बरसों खेलता रहा, उसने जब आवाज उठाई तो उसे ही माफिया डॉन बताकर गिरफ्तार कर लिया गया था, हाल ही में... बगल के प्रदेश में एक अधेड़ महिला ने राज्य के एक मंत्री को उसी के घर घुसकर दिन-दहाड़े मार डाला था, और उसका आरोप था कि यह मंत्री उसकी देह से खेल चुकने के बाद अब उसकी बेटी की देह पर आँख लगा रहा था...! यहाँ बड़े-बड़े देह-खोर भरे पड़े हैं... हर जगह... दी की चिंता होने लगी मुझे...
लेकिन पता नहीं क्या था, शायद नदी के प्रति मोह या सोमेंदु सर के परिवार के सदस्यों के ताने या पुलिस अधिकारी की चुनौती... दी ने अगले ही दिन अखवार के स्थानीय पत्रकार को बयान दिया और तब उनके चेहरे पर आत्मविश्वास की वही तेज कौंध फिर से उभरी थी, जो उस रात के पहले हमेशा थी वहाँ...
उन्होंने योजना बनानी शुरू की कि, किस तरह से लोगों में 'जल और नद्य संरक्षण' के बाबत जागरूकता लाएगी... मैं जान रहा था कि कागज पर योजना बनाने से कहीं ज्यादा कठिन है, जमीन पर लड़ाई लड़ना! धूल-मिट्टी में चमड़ी का छिलना, घाव बर्दास्त करना... धूप खाना... खासकर ओपी वाली घटना के बाद साफ था कि, उन लोगों का समूचा गठबंधन हमारे खिलाफ खड़ा हो जाएगा। मगर दी तो तय कर चुकी थीं! वह कहती थी, 'यदि गंगा को बचाने को संगठन है, तो हम क्यों नहीं ऐसा बना सकते?' इस तरह उसी रात जमशेदपुर के दोस्तों - कॉमरेड अविनाश कुमार, 'इप्टा' वाली असीमा, गुरमीत कौर और चांडिल में शिवराम आदि से उन्होंने बात की थी, 'स्वर्णरेखा संरक्षण समिति' नाम से एक गैर सरकारी संगठन बनाए का मसौदा तैयार किया गया। दी साइबर कैफे में जाकर 'ग्रीनपीस' वालों को एक ई-मेल कर आईं। एक जुलूस स्टेशन चौक से नदी तक निकालने की योजना बनाई गई। नदी किनारे, धीवर बस्ती में एक सभा होगी, इससे पहले घाटशिला के सड़क चौराहों - स्टेशन चौक, अम्बेडकर चौक, कंपनी गेट - पर नुक्कड़ नाटक खेले जाने थे। दी ने उत्साहित होकर बताया, 'सोमेन, मुझसे जितना हो सकेगा करूँगी। तुई सोंगे थाकबी त...?' मैं उत्साह के चरम पर था, 'जरूर दी, आप यह पूछ भी रही हैं!' दी ने परचा लिखकर मुझे उसकी छायाप्रतियाँ बनवाने दौड़ा दिया। पर्चे में इन कार्यक्रमों की सूचना थी, जिन्हें सार्वजनिक स्थानों पर चिपकाना और बाँटना था... मैं सड़क पर जेरोक्स की दुकान की तरफ निकला और पीछे दी वह गीत गुनगुना रही थी, 'गाँव छोड़ब नाहीं/जंगल छोड़ब नाहीं... जमुना सूखी, नर्मदा सूखी, सूखी सुवर्णरेखा/ गंगा बनी गंदी नाली, कृष्णा काली रेखा.../ माय माटी छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं...'
पिछली बीच दोपहर से ही तो टाउनशिप की हवा में कुछ सड़ांध सी फैलती महसूस होने लगी थी... यह अप्रत्याशित शायद नहीं ही था। आशा दी के यहाँ से तेज बकझक की आवाजें बाहर सड़क से होती हुई हमारे घर तक पहुँच रही थीं। दी ने फैसला कर लिया था, और उस फैसले का विरोध बहुत सारे आधार पर हो रहा था... 'तुझे इसलिए हम लाए थे राँड कि तू एक दिन हमीं लोगों का जीवोन खतरा में डाले! हैं? राँड, अपना घर का सबको खा गई, ऐहाँ सर्वनाश करने को तुली है...' बड़ी भाभी की जलती हुई आवाज भी थी, 'जोदी लीडरी कोरार आच्छे तोबे, घरे थिके बाईरे चोले जा। आमा देर के शांति दे माँ!'...
आशा दी गुस्से में शाम की लोकल से जमशेदपुर में अपनी सहपाठिन गुरमीत कौर के यहाँ चली गई। तनु से कहला भेजा था, 'सोमेन, आमी कालके एके बारे आस्बो। आमार थाकले एखाने एदेर ओसुबिधा होबे। कोथा बुझे राख... तुई एखाने हुशियार थाकवी। एरा किच्छुओ कोरते पारे... कारो बिश्सास नेई!' (मैं अब कल एक ही बार आऊँगी। मेरे यहाँ रहने से इन्हें असुविधा होती है। बात समझ लो। यहाँ सावधान रहना। ये लोग कुछ भी कर सकते हैं, किसी का भरोसा नहीं है।) यानी आशा दी को यह संकेत मिल गया था कि यहाँ उन्हें और मुझे 'कुछ कर-करा' दिया जा सकता था। मैं उनसे उस दोपहर जाकर मिल भी नहीं पाया था... चाहता बहुत था कि कम से कम सोमेंदु सर को तो समझा सकूँ... वे इतने समझदार हो कर भी चुप क्यों बैठे हैं...? दी क्या अपने लिए कुछ करने जा रही है? मगर चाहकर भी वहाँ नहीं जा सका। सुबह ही माँ बताई थी कि, पड़ोस में बहुत दिनों से हल्ला है कि, मैं आशा दी को सिर्फ मुँह से दीदी मानता हूँ, मन से 'कुछ और'! दोनों जने 'क्या-क्या' करते रहते हैं... इतने निर्लज्ज कि घर के बड़े-बूढ़ों का भान-मान भी नहीं रखते! अज्ञेय की 'शेखर एक जीवनी' पढ़ने के बाद मैं ऐसी बातों को तवज्जो नहीं दे पा रहा था! दी से कहा तो वह बोली थी, 'आमी बुझते पारी... किंतु सोमेन, यदि कुछ चीजों के बिना भी हमारा उद्देश्य अपने रास्ते चल सकता है, और कामयाब हो सकता है, तब हम दूसरों के मुँह भरने को बात क्यों दें?'
और मेरा मोबाइल जब छीन कर मुझे घर में कैद कर दिया गया, उससे कुछ ही मिनट पहले आशा दी का फोन आया था जमशेदपुर से कि, कॉमरेड अविनाश कुमार ने इप्टा वालों से बात करके सब अंतिम रूप दे दिया दिया है। बस कल सुबह वहाँ से सब चलेंगे घाटशिला... 'काल केर सोकाल होबे!' (कल की सुबह होगी!) बस यही दी से अंतिम बात थी। और इसके थोड़ी देर बाद छुपते हुए तनु आकर खिड़की से फुसफुसाते हुए गिडगिडाई थी, 'दादा, दी को कल यहाँ आने मत देना... सोमेन दा तुम्हीं रोक सकते हो उन्हें। 'तनु की बेचैनी मुझपर पर भी तारी हो गई थी, 'वे लोग घर आए थे, फोन भी आ रहे हैं... दादा-बऊदी (भैया-भावज) भी डर कर उन्हीं की तरफ हो गए हैं, और बाबा की बात भी कोई नहीं सुन रहा...' मगर इसी के बाद मैं घर में नजरबंद हो गया... मेरे घरवालों को मेरी फिक्र का दौरा पड़ गया था... मोबाइल भी ले लिया गया। मैं बंद खिड़की-दरवाजे के कमरे में कैद हो गया! रात बढ़ने के साथ मेरी हालत खराब हो रही थी, रुआँसा हो गया था मैं। आशा दी को रोकना चाहता था मैं, हर कीमत पर। जान रही तो लड़ाई लड़ेंगे! मगर मैं कमरे में बिलबिलाने, गुहारने और चीखने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाया... रात गुजर गई।
रात बीत गई थी, मगर मेरे लिए चार दिन बाद सूरज देखना हुआ!
साल भर से ऊपर होने को आया... यह शाम अकेले इस उजाड़ किनारे पर डूबते सूरज को यहाँ सिर्फ मैं देख रहा हूँ... हर तरफ डूबती साँझ का धुँधलका है। आशा दी ढाई महीने अस्पताल में और अब तक घर में अबस पड़ी हैं। ना कुछ बोल पाती हैं, ना लिख पाती हैं। बस सुनती हैं। और समझती भी हैं या नहीं, क्या जाने... कभी कभी सिर्फ मेरे साथ कमरे में अकेले रहने पर मेरी बात पर कभी कभी सिर हिला देती हैं, तो लगता है, वह सबकुछ सुन और समझ रही हैं! मगर फिर उनकी दशा देख लगता है, मुझे भ्रम ही हुआ। शायद वे पूरी तरह ठीक हो जाएँ, मगर इसके वास्ते महँगे ईलाज की और इच्छाशक्ति की दरकार है। पहली चीज, जानता हूँ, सोमेंदु सर का परिवार ना चाहेगा, ना करेगा! और दूसरी चीज खुद दी के ही हाथ में है। उन्हीं के पास, उन्हीं के भीतर ही तो है! एक 'शायद' उम्मीद को पुख्ता किए हुए है। मालूम है, दी अगर ठीक हो गई तो वह नदी के लिए अपनी लड़ाई को उसी टूटे उए सिरे से फिर से शुरू करेंगी।
सूरज जहाँ डूबता है, वहाँ पहाड़ के ऊपर का आसमान गहरे लाल रंग से पुत गया है! उस दिन क्या हुआ था, वह अखबार की रपटों के अलावे जो कॉमरेड अविनाश ने बयान किया था, यह था... 'सुबह की लोकल से आशा, मैं, नवनीत और हमरे साथी स्टेशन से उतरकर वहीं राजीव चौक पर 'ओ मेरी नदी' नुक्कड़ नाटक खेलने लगे थे... लोग जमा होने लगे थे। आशा खुद माइक पर हिंदी और बंगला में गा रही थी और लोगों से सीधे मुखातिब हो रही थी...
'बोलिए पानी किसका है?
नदी किसकी है...
जमीन किसका है?
इस पे हदबंदी किसकी है?
जो नदी को बाँधता है,
धारा को मैला करता है
अपनी हवस में
सारा पानी सोख लेता है
क्या उसका अंजाम होता है...?
... ... ...
उठाओ आवाज कि यह गलत है
गलत है... गलत है...
नदी सबकी है, पानी सबका है...
सबका इस पे हक है, हक है!...
आमादेर नोदी... आमादेर जोल...!'
लोग पहले तो सिर्फ तमाशाई मजमे की तरह जुटे रहे, फिर उनमें से कुछ लोग भी हमारे साथ गाने लगे... तालियाँ बजने लगे। आशा का जोश बढ़ गया था... वह नारे देने लगी... हमने स्थानीय प्रशासन को हमारे कार्यक्रमों खबर दे दी थी... लेकिन अनुमति की प्रतीक्षा नहीं की थी, ना वह मिलने वाली थी और ना ही उससे कोई फर्क पड़ने वाला था। आशा ने तय कर लिया था कि उसी दिन सारे तय कार्यक्रम होंगे।
थोड़ी देर में पुलिस की वैन आ गई थी, जो कुछ देर तो खामोश तमाशा देखती हुई लगी, मगर फिर भीड़ में एकाएक धक्का-मुक्की होने लगी और पुलिस की लाठियाँ चलने लगी। हमें नहीं मालूम की कहाँ से शुरुआत हुई, क्योंकि हमलोग सब अपने नाटक में लगे थे... लेकिन इतना मालूम है कि यह सब पूर्व नियोजित था। यह तुम भी समझते हो। जानबूझकर पब्लिक को पहले भड़काया-हड़काया गया, फिर लाठी चार्ज का ढोंग किया गया... मुझे याद है, एक ढेला या ऐसा कोई बड़ा सा पत्थर आशा के सिर में आ के लगा था और वह सिर पकड़ कर बैठ गई थी... मैंने देखा खून उसके माथे से होता हुआ नाक की बगल से बहने लगा था... लोग बदहवास भागने लगे... हमारी पूरी टीम भी उस भीड़ में कुचल गई गई थी। हम चिल्ला रहे थे, मगर कोई किसी की मदद नहीं कर पा रहा था...
जब दस-पंद्रह मिनट के बाद पुलिस ने तथाकथित रूप से हालत कंट्रोल कर लिया तो, आशा भीड़ के बीच बेहोश पड़ी हुई थी। माथे की चोट से खून बहुत बह चुका था तब तक, और बदन के बाकि हिस्सों से भी खून बह रहा था। कपड़े धूल और खून में सन कर गंदले हो चुके थे... उसके दुपट्टे पर सैकड़ों चप्पलों की छाप पड़ी थीं... वही तो 'टारगेट' थी...!'
मैं अब धीवर बस्ती में आ चुका हूँ... अब उस दोस्त का मकान ढूँढ़ना है! कॉमरेड अविनाश कहते हैं, 'लड़ने के लिए संगठन बनाना जरूरी है, संगठन के लिए आदमी के बीच जाना जरूरी है...' मैं आदमी के बीच जाना चाहता हूँ...
दी के सिरहाने बैठकर कल शाम को कॉमरेड अविनाश की यह बात सुनाई थी, कि लड़ाई को शुरू करना भी आसान नहीं होता, मगर लड़ाई को जारी रखना इससे भी मुश्किल होता है! 'असली लड़ाई का एक पहलू यह भी है दी...' मैंने कहकर उनकी ओर देखा था, दी की पलकें झपकी थीं, यानी दी अपने अंगों पर नियंत्रण फिर से पा रही है...! अरे, उनकी चेतना अभी मरी नहीं! मेरे होंठो पर भी हल्की सी मुस्कान उभर आई थी...
मेरा दोस्त अपने घर के बाहर ही एक पीपल के नीचे खड़ा है... मुझे देख उसके मुँह पर मुस्कान आ गई है... और मेरी जबाँ पर आ रहा है, 'साथी... हमारे कंधों पर एक विरासत को बचाने की बड़ी जिम्मेदारी है...!'