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शोध

भूमंडलीकरण की चिंता और समकालीन गीत

अंजना दुबे


बीसवी सदी के आधुनिक भारत का इतिहास जब लिखा जाएगा तो दो तारीखें महत्वपूर्ण मानी जाएँगी। पहली 15 अगस्त 1947 जब देश लंबे संघर्ष के बाद अँग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था, दूसरी मई 1991, जब आजाद भारत की सरकार ने उदारीकरण के नाम पर देश को पुनः आर्थिक रूप से गुलाम एवं परावलंबी बनाने की नीतियों को अपनाना शुरू किया। राजनीतिक रूप से तो देश आजाद रहा किंतु उसकी नीतियाँ योजनाएँ और कार्यक्रम विदेशी निर्देशों पर विदेशी हितों के लिए संचालित होने लगे। बहुत तेजी से भारत की नीतियों, आर्थिक-प्रशाशनिक ढाँचों और नियम कानूनों में बदलाव होने लगे। इस नीति को वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्तबाजार, आर्थिक सुधार, नव-उदारवाद आदि लुभावने नामों का झुनझुना थमा विकासशील देशों में पूँजीवादी साम्राज्य स्थापित करने का षड्यंत्र कुछ दबंग विकसित देशों ने रचा। वास्तव में यह वैश्विक पूँजीवाद का एक नया, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा विध्वंशकारी दौर है जिसका मकसद संपूर्ण विश्व को बाजार में बदलकर आर्थिक शोषण करना है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण या वैश्वीकरण कुछ भी कहें है यह पूँजीवाद ही जो अपने मोहक आर्थिक साम्राज्यवाद के द्वारा दूसरी व तीसरी दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्थाओं तथा संस्कृतियों को खोखला करती जा रही है। यह एक प्रकार का पूँजीवादी साम्राज्यवाद है जिसका सूत्रपात 1993-94 में 'गेट-डंकन' समझौते के द्वारा हुआ जिसमें विकसित देशों के प्रमुखों ने यह निर्णय लिया कि साम्राज्यवादी आर्थिक पूँजीवाद, अंतर्राष्ट्रीय बाजार को उदारीकरण के नाम पर खोला जाए। इसके लिए उन्होनें तर्क दिया कि अविकसित देशों की अर्थव्यवस्था इसलिए संकटग्रस्त है कि क्योंकि वे संरक्षणवादी नीतियों से प्रतिबंधित हैं अतः उक्त देशों को औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की विभिन्न गतिविधियों से संबंधित नियमों में ढील देकर विदेशी कंपनियों को घरेलु क्षेत्र में व्यापारिक एवं उत्पादन इकाइयाँ लगाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। विदेशी दवाब के चलते तत्कालीन भारत सरकार के प्रतिनिधि ने 1994 में डंकन मसौदे पर दस्तखत कर दिए। देश की अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने वाले इस मसौदे पर हस्ताक्षर करने से पहले संसद की मंजूरी लेना भी उचित नहीं समझा और एक तरह से यह मसौदा जबरन भारत पर थोप दिया गया। परिणामतः शुरू हुआ विनियंत्रण, निजीकरण, उदारीकरण का दौर जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को पूर्णतः विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के हाथों की कठपुतली बना कर छोड़ा। यह एक ऐसा आघात था जिसने न केवल हमारी अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न किया वरन जिसके घातक परिणाम दो दशकों बाद हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक क्षेत्रों में भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहे हैं। जिसके प्रति समाज का बुद्धिजीवी वर्ग, साहित्यकार चिंतित दिखाई देता है। गीतकारों ने अपने गीतों में देश के वर्तमान आर्थिक परिदृश्य एवं उससे उपजी विडंबनाओं को अपने गीतों में मार्मिकता से उकेरा है।

कमजोर पिछड़े देशों का आर्थिक शोषण पहले ये पूँजीवादी शक्तियाँ उन्हें अपना गुलाम बनाकर करती थीं, अपने असली चेहरों के साथ, अब उनका तौर-तरीका बदल गया है। विकास, जनकल्याण, जनतंत्र की रक्षा जैसी बातों के लुभावने मुखौटे एवं वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण जैसे मोहक नामों का झुनझुना थमा बिना राजनीतिक गुलाम बनाए उनका आर्थिक शोषण कर रहीं हैं। यह नया शिगूफा है। कवि के अनुसार यह बदलता मौसम है जिसकी पहचान इसलिए मुश्किल है क्योंकि वह ग्लैमर के रूप में हमारा शोषण कर रहा है। यह एक प्रकार का छलावा है -

"नए छलावों के जल से
हमको नहलाया गया
गेट और डंकन का हमें,
लेमनचूस खिलाया गया
हमें नए छलावों से
बस यही हुआ हासिल है
रंग बदलते मौसम की
पहचान बहुत ही मुश्किल है।"1

पूँजीवादी देशों के षड्यंत्रों को जानते हुए भी स्वार्थी नेताओं ने जिस तरह गेट व्यवस्था पर हस्ताक्षर कर, अनपढ़ देशवासियों के साथ जो धोखा किया है उसकी कीमत आर्थिक, मानसिक गुलाम बनकर हम सभी चुका रहे हैं। तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो लालीपाप पकड़ाया था उसका फल यह हुआ कि मुक्त बाजार व्यवस्था के नाम पर विदेशी पूँजी का साम्राज्यवाद हमारी अर्थव्यवस्था को समरूपता के नाम पर अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तथा उपभोक्तावाद इस नए आर्थिक साम्राज्यवाद को गति दे रहे हैं। परतंत्र भारत में तो सिर्फ ईस्ट इंडिया कंपनी थी, पर स्वतंत्रता के बाद आज अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यहाँ कब्जा जमा बैठी हैं जो अपनी पूँजी द्वारा यहाँ के कुटीर उद्योगों को नष्ट करते जा रही हैं। देश के बाजार चीन, ताईवान, कोरिया के सामानों से भरे पड़े हैं तो हमारे लघु एवं कुटीर उद्योगों पर ताले पड़ते जा रहे हैं। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' कहावत इस भूमंडलीकरण के चरित्र पर बिल्कुल ठीक बैठती है। बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ के आगे बेचारे देशी कुटीर/लघु उद्योग कब तक टिकते? गुड्डे-गुड़ियों, कठपुतलियों को 'टेडी बियर' ने निर्वासन दे दिया तो आलू के पराठे, मुरब्बे-चटनी, छाछ का स्थान पीजा-बर्गर, सॉस-जैम, कोल्डड्रिंक ने ले लिया। मिट्टी के गुड्डे-गुड़िया-खिलौने बेचने वाले, कठपुतली का खेल दिखाने वाले, मदारी, नट सब बेरोजगार हो भूखों मरने की कगार पर आ गए। इस पीड़ा को गीतकार ने इस तरह व्यक्त किया है -

"दो रुपये की कठपुतली है
टेडी बियर हजार का
कसने लगा गले में फंदा
है ग्लोबल व्यापार का
आलू भरे पराठे भूले
नेनू डाला छाछ
पिज्जा-बर्गर अच्छे लगते
कोल्डड्रिंक के साथ

***

चटनी और मुरब्बे फीके
सॉस जैम की धूम"2

भूमंडलीकरण की आड़ में पूँजीवादी देश कमजोर, पिछड़े देशों को कर्ज देकर उसका दोहरा शोषण करते हैं। एक तो कर्ज के दवाब में अपरोक्ष रूप से वहाँ की सरकार पर दबदबा कायम कर लेते हैं, दूसरा उसकी आर्थिक स्वायत्तता पर कब्जा कर उन्हें पूरी तरह से बाजार में बदलकर अपने उत्पादों से भर देते हैं। इनका शिकार वह नवधनाड्य वर्ग होता है जो पहली बार पैसे का स्वाद चख रहा होता है। उस वर्ग के लिए ये बाजार में भौतिक सुख-सुविधाओं का ऐसा मायाजाल फैलाते हैं कि वह बेशर्म ही कहलाए जो उसमें न फँसे। इसके मकड़जाल में वे इस तरह फँस जाते हैं कि उनकी आकांक्षाएँ आसमान छूने लगती हैं। नतीजतन वे सिर्फ उपभोक्ता बनकर रह जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ के पहनाए हरे चश्मे से उसे सावन के अंधे की भाँति हर तरफ हरियाली ही हरियाली नजर आती है, इस हरेपन में उसे फिर भूत-भविष्य कुछ नजर नहीं आता। वह संवेदनशून्य कठपुतली सा इनके इशारों पर नाचता रहता है। स्वयं को ग्लोबल कल्चर का हिस्सा समझ उसका अहम तुष्ट होता है। पर गीतकार की यहाँ यह चिंता है कि यह कल्चर अर्थ प्रधान है। इस संस्कृति ने यही सिखाया है कि पैसा ही माँ, बाप, भैया सब कुछ है -

"ग्लोबल कल्चर का युग आया
हरा लेंस पहने
मुखिया बनकर अर्थ लगा
है घर घर में रहने
उनके बंद मिले दरवाजे
जिन तक गीत गए।"3

बाजारवाद के इस संवेदन शून्य वातावरण में गीतों में ही वह शक्ति है जो संवेदनशील बनाकर मनुष्य को यंत्र बनने से रोक सकती है। यहाँ गीतकार यही संकेत कर रहे हैं। गीतों में वह संवेदना है जो समाज को बाजार में तब्दील होने से बचा सकती है। यही कारण है कि बाजार उन लोगों पर असर नहीं कर सका जिनके भीतर गीत सी संवेदना बची है।

कल तक बाजार की एक सीमा थी, उसके नियम-कायदे थे, उसका एक शास्त्र था, उद्देश्य था। लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य था। विक्रेता और क्रेता में मधुर संबंध बन जाते थे। लेकिन आज बाजार में बाजारूपन उतर आया है। अब उनके बीच केवल ग्राहक और बेचक के संबंध बचे हैं, दोनों ही एक दूसरे को लूटने की फिराक में रहते हैं। आज बाजार आवश्यकता की पूर्ति नहीं करते वरन अपने रूप की चमक दमक से व्यक्ति को सम्मोहित कर लेते हैं। आकर्षण में जकड़ लेते हैं। फिर बाजार में रखी हर वस्तु उसे अपनी आवश्यकता की जान पड़ती है। न खरीद पाने की स्थिति में उसके मन में रिक्तता बोध पैदा कर असंतोष, ईर्ष्या, घृणा आदि भाव पैदा कर देते है। बाजारवाद के झंझावात ने हमारी संस्कृति के त्याग, संतोष, परोपकार, सामाजिक सरोकार जैसे महान मूल्यों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। आज हम अति आत्मकेंद्रित, अति स्वार्थी हो गए हैं। पहले बाजार और घर में अंतर होता था, आज वह अंतर समाप्त हो गया है। आज बाजार हमारे गाँव, गली-मुहल्ले यहाँ तक कि घर में भी घुस आया है। गीतकार को चिंता है कि कहीं बाजार का बाजारूपन घर के भीतर न आ जाए। इसलिए वह चेताता है -

"चूल्हे तक बाजार
आ गया, अम्मा, घर सँभाल कर रखना
कल भी था बाजार यहाँ पर किंतु नहीं था निर्मम इतना,
खड़े बीच बाजार - कबीरों का न डिगा था संयम इतना
सब की खैर माँगते सब थे, बैर-दिसती के उसूल थे,
जेब नहीं काटी जाती थी;
कारोबारी थी 'रसूल'थे।"4

भूमंडलीकरण के इस दौर में गाँव और देश का स्वावलंबन तेजी से खत्म हुआ है। अर्थव्यवस्था यहाँ तक कि जीवन के हर क्षेत्र में विदेशी कंपनियाँ की घुसपैठ हुई है जिसमें उन्होंने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। विदेशी कर्ज के एवज में भारत सरकार को अपने कई नियम जैसे पेटेंट कानून, विदेशी मुद्रा विनिमय कानून आदि बदलने पड़े हैं। विनियंत्रण, निजीकरण एवं विदेशी निवेश के चलते कई चीजों से सरकार का नियंत्रण खत्म हो बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, निजी कंपनियाँ का नियंत्रण हो गया है। दैनिक उपयोग की कई वस्तुओं पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म हो गई है, पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ का नियंत्रण है, उन्हें मुनाफा और लूट की खुली छूट दे दी गई है। सरकार मौन-लाचार तमाशा देख रही है। किसान, लघु उद्यमी, छोटे व्यापारी, दुकानदार कंगाल हो रहे हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ के सेठ हमारे देश का माल उड़ा रहे हैं और उस पर प्रचार यह कि हम विकास कर रहे हैं। जो किराएदार बनकर आए थे वे ही घर के मालिक बन बैठे हैं।

"अपने दरवाजे पर
जबसे लगा विश्व बाजार
चकाचौंध में हम
खोए हैं खोई हैं सरकार
विश्वग्राम की नई चल से
वे धन रहे बटोर
दीवाली में हुआ दीवाला
पर विकास का शोर
अनुदानों पर गृहण
लगा है लोकतंत्र बीमार

***

ग्लोबल गणित हुआ हावी है
गिरवी पूरा देश
घर के मालिक बन बैठे हैं नए किरायेदार।"5

भारत सरकार एक तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ की बंधक बन गई है। विदेशी प्रभावों एवं दवाबों के चलते इस विशाल लोकतंत्र की जनता की आवाज गौण होती जा रही है। कंपनियाँ को रिझाने और मनाने में लगी सरकार ने जनता की तरफ से आँख मूँद ली है। इस तरह भूमंडलीकरण के कारण लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आधुनिक गुरु हैं जो अनुबंध कराकर हमारे अँगूठे काट देती हैं -

"बन पेटेंट बिक गई तुलसी
यों ग्लोबल बाजार छा गया;
अनुबंधों में कटे अँगूठे,
हुआ शहर में खास वाकया
कल परिवेश
दवाबों की फसल उगलेगा
संसद में समझौते बोए हैं,"6

अमेरिका ने हमारे नीम, तुलसी, बासमती चावल का पेटेंट करा लिया है जो वहाँ पैदा ही नहीं होते। आर्थिक उपनिवेशवाद की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारे श्रम पर उनका अधिकार हो गया है। गीतकार इसे एक गहरे संकट की तरह देखता ही नहीं बल्कि भविष्य के लिए सचेत भी करता है -

"माथे पर चू रहे पसीने पर
रहन की मुहर पड़ी है
नीम, आँवला, हल्दी, तुलसी पर
पेटेंट की नजर पड़ी है
खड़ा सामने संकट बनकर
खतरा है नव उपनिवेश का।"7

उदारीकरण/भूमंडलीकरण के पीछे यह तर्क दिया जाता रहा है कि विदेशी पूँजी आने से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, गरीबी दूर होगी, जबकि वास्तविकता यह है कि पिछले दो दशकों में भारत भयानक गरीबी और बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा है। वर्गों के बीच की दूरी और बढ़ गई है। समृद्धि कुछ लोगों के हिस्से ही आई है। अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं और गरीबों की हालत बद से बदतर हो रही है। अमीर-गरीब, गाँव व शहर के बीच की खाई चौड़ी होते जा रही है। गीतकार इसी उपेक्षित वर्ग की आवाज बनता है। उसे इस भूमंडलीकरण से कोई आशा नहीं है, वह इसकी असलियत पहचानता है तभी तो कहता है -

"यह भूमंडलीकरण मेरी खातिर
क्या कर पाएगा?
राजा को राजा; रंकों को
रंक बनाएगा।
यही हिसाब किताब बना है
भटकन हम में ही।"8

इस वैश्वीकरण और विनिवेशीकरण का यह प्रभाव पड़ा कि अपना स्वत्व, अपनापन ही भूल गए। इस प्रभाव ने न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को वरन हमारे सांस्कृतिक परिवेश को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है -

"जाने हमने अपनेपन का
क्यों विनिवेश किया?

***

जब से हमने किसी और की उँगली है पकड़ी
तब से अपनी गर्दन ही है
और गई जकड़ी
अंधकार में किसी गंध के
पीछे क्यों दौड़े,
यानि अपना स्वत्व न जाने कब विनिवेश किया?"9

ऊपर से तुर्रा यह कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है। खुशहाली के रोज नए आँकड़े, नए सर्वेक्षण जारी करके सरकार खुद अपनी पीठ ठोंक रही है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, सेंसेक्स उफान पर है, मंदी के दिन खत्म हो गए हैं। हकीकत यह है कि यह खुशहाली मुट्ठी भर लोगों के हाथ ही लगी है। देश के करोड़ों लोगों को आज भी दो जून की नून-रोटी के लाले पड़े हैं। पहले गरीब वर्ग दाल, प्याज, मिर्च से ही अपना खाना बड़े मजे में खा लेता था उसे चिकन, पुलाव, बिरयानी, पिज्जा, बर्गर का लालच नहीं था लेकिन आज गरीब की थाली से दाल तो क्या प्याज भी गायब हो गया है, यह है हमारी आर्थिक समृद्धि! दालों का भाव आसमान छू रहा है तो प्याज अलग रुला रहा है। कार्पोरेट घरानों के लिए ये दिन भले ही दीवाली के हों गरीब वर्ग तो बारहों महीने मुहर्रम ही मनाता है। आम जन के छोटे-छोटे सपने भी इस बाजारी चुहिया ने कुतर लिए हैं। गीतकार इस विडंबना पर कटाक्ष करते हुए कहता है -

"अर्थव्यवस्था
सुधर रही है
चावल दाल उछाल खा रहे
चमक रहा है चाँदी-सोना
मिर्च मसालों में तेजी है
चलता मोल भाव का टोना
सेंसेक्स का ग्राफ चढ़ रहा
मंदी के दिन बीत रहे हैं
शेयर की हालत अच्छी है
पैसे वाले जीत रहे हैं।
बाजारी चुहिया गरीब के,
सारे सपने कुतर रही है।
औसत आय बढ़ी जनता की
कहते हैं सर्वेक्षण सारे
पेट्रोल में आग लगी है
कैसे हों खुश लोग बेचारे
इधर मुहर्रम है बस्ती में
भले दीवाली उधर रही है।"10

सरकार कितना भी दावा कर ले गरीबी खत्म होने का हकीकत तो यही है कि आज भी देश में हजारों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। नेता वैज्ञानिक तरक्की का कितना ही दंभ भरे, तकनीकी विकास का दावा करे मिसाइल, अत्याधुनिक युद्धपोत, युद्धविमान, सुपरफास्ट ट्रेन जैसे बड़े-बड़े नामों से जनता को भरमाएँ सच्चाई यही है कि आज भी एक वर्ग मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित है। सुपर फास्ट ट्रेनों की गति और सुखोई विमान की ऊँचाई भूखी जनता की खिल्ली उड़ाते दीखते हैं। गीतकार देश की गरीब जनता की इस विडंबना और सरकार के थोथे दंभ पर कटाक्ष करता हुआ कहता है -

"सारे भाँडे ताक-झाँक के
दुबकी बिल्ली सोई
टिमटिम करता दिया
और खदबद करती बटलोई

***

खाली पेट खँगाने घूमे
कौरे के फरियादी
सीटी देकर दिल्ली वाली
ट्रेन गई ज्यों आँधी
गुजर गया आकाश कँपाता
युद्ध विमान सुखोई।"11

यह उदारीकरण, निजीकरण या भूमंडलीकरण पूँजीवाद का ही दूसरा रूप है; यह नव-उपनिवेशवाद, आर्थिक उपनिवेशवाद है जो परजीवी की भाँति श्रमिकों के श्रमजल पर फलता-फूलता है। यह एक ऐसा अपरोक्ष शोषण तंत्र है जो देखने में तो शोषण नहीं लगता पर है शोषण ही जो जोंक की तरह हमारे श्रम, हमारे संसाधनों का रस चूस कर स्वयं तो समृद्ध होता चला जाता है और इसके शिकार बने तीसरी दुनिया के देश गुलाम बने रह जाते हैं। गरीबी खत्म करने के नाम पर थोपी गई इस निजीकरण की नीति ने गरीबी तो खत्म नहीं की उल्टा अमीरों को और अमीर बनाने का कम जरूर किया है। सरकार भी कमीशन, दलाली, रिश्वत के लालच में बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है। हर वर्ष बजट घाटे का रोना रोकर वह अनिवार्य वस्तुओं की कीमत बढ़ा देती है वहीं दूसरी ओर बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों का मुनाफा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है। निजीकरण का यही पुरस्कार भारत की गरीब जनता को मिला है -

"टुकड़े जिन पर नए बजट का
घाटा लिखा गया
मगर मुनाफा में हैं
बिड़ला-टाटा लिखा गया!
श्रमजीवी के गालों पर तो
चाँटे गए जड़े

***

टुकड़े जिन पर निजीकरण की
लिखी इबारत है
चमक रही नव उपनिवेश की
खड़ी इमारत है।
मगर न इस उर्जा से
पंख गरीबी के उखड़े।"12

उदारीकरण के नाम पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ने हमारे प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन किया है। सरकार भी इनके दवाब में आकर विकास के नाम पर हमारे जंगल, जल, जमीन, खनिज संपदा इन कंपनियाँ को सस्ते दामों में बेच रही है। निर्यात के जोर के कारण देशी संसाधनों का उपयोग देश की साधारण गरीब जनता के लिए न करके विदेशों के अमीरों की सेवा में कर रहे हैं। हमारा प्राकृतिक संसाधनों का अकूत खजाना हमारी आँखों के सामने लुट रहा है, हमारे धन से विदेशी कंपनियाँ अपने खजाने भर रही हैं। कठपुतली सरकार उनका साथ दे रही है -

"औरों की भर रहे तिजोरी
अपने घर के लोग

***

घर का सारा माल खजाना
बाहर चला गया
बहता हुआ पसीना
फिर इत्रों से छला गया।"13

इस निजीकरण, विनियंत्रण का एक और खतरनाक पहलू है वह है - भ्रष्टाचार। निजीकरण और विनियंत्रण के पक्षधरों का यह कहना था कि अर्थव्यवस्था में सरकार का अत्यधिक हस्तक्षेप, नियंत्रण और परमिट-लाइसेंस नीति ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है। सरकार का नियंत्रण हटते ही भ्रष्टाचार कम हो जाएगा। किंतु दो दशकों बाद आज हालात यह है कि भ्रष्टाचार कम होने की बजाए अधिक बढ़ गया है। बोफोर्स घोटाला से लेकर कोयला घोटाला तक इन दो दशकों में सौ से भी ज्यादा घोटाले प्रकाश में आए हैं। यानी हमने घोटालों में कितनी जबर्दस्त प्रगति की है। दरअसल विनिवेश, निजीकरण और विनियंत्रण ने भ्रष्टाचार के नए रास्ते खोले हैं। पहले जिस सरकारी उद्यम की खरीदी और आपूर्ति में कमीशनखोरी होती थी, उस पूरे उद्यम को बेचने में एकमुश्त बड़ी दलाली और कमीशनखोरी होने लगी है। अपना घर भरकर नेता जनता को रामराज्य का सपना दिखा रहे हैं -

"लोभी कुर्सी, भ्रष्ट व्यवस्था
राजनीति दलबदलू
ठेका, टेंडर और कमीशन
सिक्के के दो पहलू
बंदरबाँट, आँकड़े फर्जी
बिकते जनपद थाने,
सुविधा शुल्क, बढ़ी महँगाई,
रामराज्य के सपने
निभा रहे दो मुँही भूमिका
जो कल तक थे अपने
आसमान छूने की बातें
खाली पड़े खजाने।"14

भ्रष्टाचार खत्म करने के सभी दावे खोखले सिद्ध हुए। आज तो सत्ता भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाँट ने देश में बड़े-बड़े घोटालों को जन्म दिया है। अखबारों के पन्ने रोज नेताओं को घोटालों की खबरों से भरे रहते हैं, हर दिन एक नया घोटाला। इन्हें घोटाले वैसे ही प्रिय हैं जैसे गणेश को मोदक -

"जैसे प्रिय मोदक गणेश को
घोटाले वैसे उनको
आड़ व्यवस्था की लेकर के
चूस रहा है जन-गण को।"15

इस प्रकार समकालीन गीतों में वर्तमान आर्थिक परिदृश्य के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गई है। भूमंडलीकरण से गीतकार का विरोध इसलिए है कि इस एक समस्या ने रक्तबीज की भाँति अनेकानेक समस्याओं को जन्म दिया है, जैसे - भ्रष्टाचार, गरीबी, महँगाई, बेरोजगारी, सांस्कृतिक प्रदूषण, प्रदर्शनवाद, पर्यावरण का ह्रास, स्वार्थ, लालच, असंतोष, घृणा, ईर्ष्या, आत्मकेंद्रिकता आदि। इस भूमंडलीकरण ने लोकजीवन पर भी बड़ा आघात किया है, पूरा संसार एक बाजार में बदल गया है। हमारी संस्कृति के महान मंत्र वसुधैव कुटुंबकम को भूल 'यूज एंड थ्रो' का मंत्र लोगों ने अपना लिया है। ऐसी स्थिति में कोई भी रचनाकार आँख मूँदकर कैसे बैठ सकता है? समाज का सजग प्रहरी एवं शुभचिंतक होने के नाते गीतकार की चिंता स्वाभाविक है। वह सिर्फ चिंता व्यक्त करके ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं कर लेता वरन साथ-साथ अपनी समृद्ध-गौरवशाली संस्कृति, महान परंपराओं का स्मरण भी करता चलता है। अस्तु हम कह सकते हैं कि समकालीन गीतकरों को युग के आर्थिक परिदृश्य की गंभीर जानकारी है।

संदर्भ

1. नचिकेता, समकालीन गीत : अंतःअनुशासनिक विवेचन, डॉ. वीरेंद्र सिंह, रचना प्रकाशन, जयपुर, 2009, पृ.53

2. गायब हुए गुलाब : शैलेंद्र शर्मा, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.539

3. लौट अतीत गए : मुकुट सक्सेना, गीत नवांतर 3-मधुकर गौड़ (सं.). सार्थक प्रकाशन, मुंबई, 2005, पृ.13

4. चूल्हे तक बाजार आ गया, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, नवगीत के नए प्रतिमान - राधेश्याम बंधु. (सं.). कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.309

5. लोकतंत्र बीमार, देवेंद्र सफल, उपरोक्त, पृ.453

6. गीत पांच, डॉ.राधेश्याम शुक्ल, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.463

7. नचिकेता, समकालीन गीत : अंतःअनुशासनिक विवेचन, डॉ.वीरेंद्र सिंह, रचना प्रकाशन, जयपुर, 2009, पृ.54

8. भटकन हम में ही : रमाकांत, नवगीत के नए प्रतिमान - राधेश्याम बंधु.(सं.). कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.458

9. जाने क्यों : मुकुट सक्सेना, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.209

10. अर्थव्यवस्था : डॉ.रामवल्लभ आचार्य, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.629

11. राम रसोई : गुलाब सिंह, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.1८6

12. चौमासे में आटा गीला : कुँवर किशोर टंडन, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.319

13. समीकरण चूल्हे चक्की का : अशोक शर्मा, शब्दायन - निर्मल शुक्ल (सं.). उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, 2012, पृ.473

14. धान रोपते हाथ : राधेश्याम बंधु, नवगीत और उसका युगबोध - राधेश्याम बंधु (सं). समग्र चेतना प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृ.196

15. उपनिवेश की इमारत : नचिकेता, नवगीत और उसका युगबोध - राधेश्याम बंधु (सं). समग्र चेतना प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृ.182


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