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उपन्यास

लौट आओ दीपशिखा

संतोष श्रीवास्तव


गुलमोहर के साये में स्थित वह खूबसूरत बंगला जो 'गौतम शिखा कुटीर' के नाम से मशहूर था और जो कभी रौनक से लबरेज हुआ करता था आज सन्नाटे की गिरफ्त में है और उसके भीतरी दरवाजे और काले स्टील के कंगूरेदार गेट पर सरकारी ताले लटक रहे हैं। शेफाली कितनी बार इस गेट से पार हुई है। बंगले का कोना-कोना उसका परिचित है और उसकी मालकिन मशहूर चित्रकार उसकी बचपन की दोस्त दीपशिखा... उसकी हर अदा, हर खासोआम बात की राजदार है वह। जिंदगी का ये हश्र होगा सोचा न था। ये सरकारी ताले उसके दिमाग में अंधड़ मचा रहे हैं। वह तहस-नहस हो जाती है। उसकी नींदें दूर छिटक जाती हैं और चैन हवा हो जाता है। क्या इनसान इतना बेबस-लाचार है? क्या वो सबके होते हुए भी लावारिस और तनहा है?

कितनी दर्दनाक थी वह सुबह जब अलार्म की जगह फोन की घंटी बजी थी... इतनी सुबह! घड़ी पर नजर गई। आठ बज रहे थे यानी शेफाली ही ज्यादा सो ली। लौटी भी तो थी हफ्ते भर के टूर से। शौक ही ऐसा पाला है उसने। चित्रों की प्रदर्शनी के लिए अब बुलावे आने लगे हैं। पाँच साल के आर्यन और तीन साल की प्राजक्ता को घर की देखभाल करने वाली काकी के भरोसे छोड़ वह नौकरी और अपने टूर में व्यस्त रहती है। बीस दिन घर में तो दस दिन बाहर। तुषार को भी बड़े-बड़े केसेज के इलाज के लिए देश-विदेश बुलाया जाता है। बूढ़े सास-ससुर की घर में मौजूदगी ही शेफाली की निश्चिंतता के लिए काफी है। फोन बजकर शांत हो गया था। शेफाली ने एक लंबी अँगड़ाई लेते हुए हमेशा की तरह आवाज दी - "काकी, चाय।" काकी पाँच मिनिट में चाय बना लाई।

"आर्यन, प्राजक्ता सो रहे हैं क्या?"

"जी भाभी... दो बार गौतम सर का फोन आ चुका है।"

"अरे, ऐसी क्या बात हो गई, देना मेरा मोबाइल।" मोबाइल मुश्किल से लगा - "क्या हुआ गौतम? दीपू ठीक तो है?"

"सब कुछ खतम हो गया शेफाली... मेरी शिखा हमेशा के लिए चली गई।" उसकी आवाज पथराई हुई थी।

"क्याऽऽऽ कब, कैसे? अभी बुध की सुबह ही तो हैदराबाद से फोन पर बात हुई थी उससे। मैं आ रही हूँ... गौतम कंट्रोल योरसेल्फ।"

गौतम शिखा कुटीर का नजारा ही कुछ और था। गेट के बाहर पुलिस की जीप और अंदर लंबे चौड़े कंपाउंड में लोग ही लोग। बीच में स्ट्रेचर पर सफेद कपड़े से ढकी दीपशिखा की लाश। खंभे से लगा खड़ा गौतम... बस, और सब अड़ोसी, पड़ोसी, पुलिस के आदमी। वह खामोशी से गौतम की पीठ सहलाने लगी। कुछ सूझ नहीं रहा था क्या करें? चकित, व्याकुल और अविश्वसनीय सी मन की हालत हो रही थी। यह आखिर हुआ क्या? तभी पुलिस इंस्पेक्टर उसके पास आया - "मैडम, आप इनकी रिश्तेदार हैं?"

"नहीं, मैं इनकी सहेली हूँ।" मुश्किल से कह पाई वह।

"ओ.के., आप इनके संबंधियों को खबर कर दें। हम लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले जा रहे हैं। बॉडी शाम तक ही मिल पाएगी क्योंकि सभी कानूनी औपचारिकताएँ करनी पड़ेंगी।"

"आप बंगला क्यों सील कर रहे हैं?" शेफाली ने हिम्मत कर पूछा।

"इनके रिश्तेदारों के आने के बाद हम बंगला खोल देंगे।"

लाश एंबुलेंस में रख दी गई थी। दरवाजा धड़ाक से बंद हुआ जैसे सीने पर किसी ने जोर का घूँसा मारा हो... तीन दिन पहले तक जीती जागती, फोन पर उससे बतियाती दीपशिखा आज निश्चल बेजान बंगले से ऐसे जा रही है जैसे कोई फालतू सामान, जिसकी अब जरूरत नहीं रही। वह भी लगभग सड़ चुकी हालत में। लाश की बदबू कंपाउंड से हवा आहिस्ता-आहिस्ता उड़ा ले चली जितने आहिस्ता इस कंपाउंड के बगीचे में लगे फूल महकते हैं। मह-मह... और हवा को रूमानी बना देते हैं। रात को बंगले की सड़क से गुजरने वाला हर मुसाफिर पल भर रुक कर रातरानी की सुगंध जरूर अपनी साँसों में भर लेता है और सुबह की सैर पर निकले लोग पारिजात की खुशबू को। आज वहाँ सड़ चुके बदन की बदबू है... उन हाथों की जिन्होंने इन फूलों के पौधों को रोपा था।

"वह अगले महीने की बीस तारीख को लंदन के डॉक्टर के पास उसे लेकर जाने वाला था। तुषार ने ही अपॉइंटमेंट दिलाया था। मैं ऑफिस के कामों में ऐसा उलझा रहा कि जिस वक्त उसे मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी मैं उससे दूर रहा। मेरे ही साथ क्यों होना था ये सब?"

गौतम की वीरान आँखों में एक रेगिस्तान सा नजर आ रहा था... जहाँ सिर्फ रेतीले ढूह होते हैं, जीवन नहीं होता। शेफाली गीता के कर्मयोग की हामी... लेकिन इस वक्त वह भी हिल गई थी अंतरमन के कोने टूटी काँच से झनझना उठे थे। बाजू में खड़ी गजाला रो रो कर हलकान हुई जा रही थी। "तुम कहाँ थीं तीन दिन से?" शेफाली ने उसके कंधे झँझोड़ डाले थे। वह रोते-रोते बताने लगी - "मालकिन ने मुझे सर के दिल्ली जाते ही बाहर निकालकर यह कहते हुए दरवाजा बंद कर लिया कि फौरन घर जाओ... सुनामी आने वाला है। अमेरिका से मेरे पास फोन आया है कि घर से मत निकलना... तुम भी मत निकलना जब तक मैं फोन न करूँ।"

"और तुम उसके फोन का इंतजार करती रहीं... बेवकूफ जानती नहीं थी क्या कि उसका अकेले रहना कितना खतरनाक है?"

फिर बरामदे के छोर पर खड़े लॉन की सफाई करने वाले लड़के और वॉचमैन दोनों पर बरस पड़ी शेफाली। लड़का थर थर काँपते हुए बोला - मुझे दो दिन से बुखार आ रहा था। आज सुबह ही सफाई के लिए आया तो देखा दरवाजे के बाहर दूध के पैकेट और अखबार ज्यों के त्यों पड़े हैं... घंटी बजाई... देर तक बजाता रहा। दरवाजा नहीं खुला तो मैं वॉचमैन के बूथ की ओर दौड़ा। ये नहीं था वहाँ।"

"अरे थे कैसे नहीं... अब बाथरूम-आथरूम के लिए आदमी नहीं जाता क्या? जब तक लौटे यहाँ तो हंगामा मचा था।"

"झूठ बोलता है ये... ये कहीं नहीं था। मैं ही पड़ोसियों को बुला लाया, पुलिस को खबर की गई। दरवाजा तोड़ा गया।"

अकेली मौत से जूझती रही दीपशिखा? इतने नौकर चाकर, गौतम, शेफाली सब के होते हुए भी वह अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव में नितांत अकेली पड़ गई। क्या पता पानी के लिए तड़पी हो... क्या पता गौतम को पुकारा हो। गौतम और शेफाली टूटी शाखों की तरह वहीं कुर्सियों पर गिर पड़े। गजाला जल्दी-जल्दी फोन पर सबको खबर दे रही थी। मारे पछतावे के उसके आँसू थम नहीं रहे थे। मन कर रहा था अपना सिर दीवाल पर दे मारे। इतने सालों से उसने तन-मन से मालकिन की सेवा की। वह उनका मानसिक रोग भी जानती थी फिर भी उनकी बातों में आ गई? सारे किए धरे पर पानी फिर गया। उसने गौतम सर का भरोसा तोड़ा है... अब इस दाग को जिंदगी भर ढोना है।

बरामदे के खूबसूरत खंभे पर जूही की बेल माशूका सी लिपटी थी और फुनगियों पर फूल महक रहे थे। गौतम ने खंभे पर अपना सिर टिका दिया। उस पर जैसे जुनून सा चढ़ गया था - "मेरी शिखा फरिश्ता थी। उसने उस वक्त मुझे सम्हाला जब मैं अपने अवसाद में गहरे पैबिस्त था। उसने मुझे अपने प्रेम और विश्वास के पंख दिए ताकि मैं अपनी जिंदगी में फिनिक्स पक्षी की तरह आसमान में उड़ सकूँ। अपनी मानसिक बीमारी के चलते, बल्कि पूरी तरह बरबाद हो चुकी खुद की जिंदगी के चलते उसने मेरी जिंदगी को मकसद दिया, जीने का हौसला दिया। आज वह रेशा-रेशा बिखर गई और मैं कुछ नहीं कर पाया।"

शेफाली ने उसकी बाँह पर अपना हाथ रखा। पल भर खामोशी रही - "चलो घर चलते हैं, अब यहाँ पुलिस का पहरा है, रुक कर करेंगे भी क्या?"

"मुझे यहीं रहने दो... काश, मैं भी उसके साथ चला जाता इस दुनिया से।"

"चलो, उठो... अब हमारे पास इंतजार के सिवा कोई चारा नहीं है।" शेफाली ने उसे सहारा देकर उठाया। गजालाने सवालिया नजरों से शेफाली की ओर देखा। उसकी आँखों में गहरा पछतावा था।

"तुम सुबह शाम बंगले का चक्कर लगा लिया करो। जब देखो ताला खुला है आ जाना।"

वह तुषार के फोन का भी इंतजार कर रही थी। घर पहुँचते पहुँचते फोन आ गया- "चार बजे तक पहुँच जाऊँगा।" तसल्ली हुई। काकी चाय ले आई। गौतम ने खाने से मना कर दिया।

"दो बिस्किट खाकर चाय पी लो गौतम... यही ईश्वर की मर्जी थी... इतना ही जीना था दीपू को... हम कर भी सकते हैं। यहीं आकर सब कुछ फेल हो जाता है और जिंदगी से विरक्ति हो जाती है। फिर भी अंतिम साँस तक तो जीना पड़ेगा न गौतम।"

और गौतम के सब्र का बाँध टूट गया। सुबह से जब्त किए था जिस बाढ़ को वह आँसू बन बह चली। शेफाली ने रो लेने दिया। जरूरी था रोना वरना ये बोझ हमेशा के लिए कुंठा में तब्दील हो जाता।

तुषार के आते ही तीनों मुर्दाघर की ओर रवाना हुए। लेकिन लाश मिलने के आसार कम ही नजर आ रहे थे। पुलिस उनके इस तर्क से सहमत नहीं थी कि दीपशिखा का कोई रिश्तेदार नहीं है हालाँकि अभी तक किसी ने बॉडी क्लेम नहीं की थी। कितनी अजीब बात है कि जो गौतम दीपशिखा के लिए सब कुछ था आज उसी को दीपशिखा की लाश सौंपने में पुलिस आनाकानी कर रही है क्योंकि कोई सामाजिक या धार्मिक रिश्ते की मोहर उनके संबंधों में नहीं लगी थी। उन्होंने बिना शादी किए जीवन को स्वच्छंद भाव से जिया था। दोनों बरसों से साथ रह रहे थे। हर पीड़ा, हर खुशी दोनों ने साथ-साथ जी थी। दीपशिखा की मानसिक बीमारी को लेकर भी गौतम कहाँ-कहाँ नहीं दौड़ा था। देश-विदेश के हर उस डॉक्टर को दिखाया था जहाँ से थोड़ी सी भी संभावना नजर आती थी। मगर आज दीपशिखा और गौतम ने पश्चिमी जीवन मूल्यों वाले उस लिव इन रिलेशन की कीमत चुकाई है जिसकी ओर हमारा समाज ललचाई नजरों से देखता है लेकिन वास्तविक जीवन में कभी स्वीकार नहीं करता। यह कैसी विडंबना है कि सच्चे साथी के बावजूद मृत्यु के समय दीपशिखा के न तो कोई सिरहाने था न पायताने और अब उसके दाह संस्कार के लिए भी सवाल उठ खड़े हुए थे। तो क्या जिसका कोई नहीं होता उसका कोई सामाजिक महत्व नहीं जबकि रिश्तों की आँच में धीमे-धीमे न जाने कितनी जिंदगियाँ सुलगती हैं उम्र भर।

उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा था। शाम को बंगले के लॉन पर शेफाली ने कुर्सियाँ लगवा दी थीं और चाय पानी का इंतजाम भी करवा दिया था। सना फ्लाइट से दो घंटे पहले ही आई थी। अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट्स के सभी सदस्य अपनी-अपनी जिंदगियों में इधर-उधर थे। लेकिन कला क्षेत्र के सभी चित्रकार, बॉस सहित गौतम का पूरा स्टाफ इकट्ठा हो चुका था जिनके बीच दीपशिखा की अजीबोगरीब जिंदगी, उसकी मानसिक बीमारी और पागलपन का दबा-दबा जिक्र था। जिक्र भले ही सब तरह का हो रहा था पर सभी के दिल में दीपशिखा को लेकर सहानुभूति थी।

"सोचना ये है कि बॉडी मिले कैसे?" शेफाली के चेहरे पर इस बात को लेकर काफी तनाव था। जवाब तुषार ने दिया - "मैं वकील से कान्टेक्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ। वैसे भी पुलिस दो तीन दिन तो इंतजार करेगी। अगर फिर भी रिश्तेदार क्लेम नहीं करेंगे तब हमें बॉडी मिल जाएगी।"

कितनी बड़ी त्रासदी थी कि दीपशिखा को अपने घर का एक कोना भी न मिला जहाँ उसकी तस्वीर पर फूलमाला चढ़ाई जाती, दीपक जलाया जाता, अगरबत्ती की पवित्र सुगंध होती। बंगला अँधेरे की गिरफ्त में था अँधेरे से टूटा अँधेरे का एक टुकड़ा। एक झिलमिलाती लौ तक करीब न थी जिसके। दीपशिखा हमेशा चर्चा का विषय रही लेकिन उसकी मौत इतनी खामोशी से होगी कि तीन दिनों तक किसी को पता ही न चले कि एक चर्चित शख्सियत किसी धूमकेतु की तरह तेज रोशनी के साथ आसमान में तो दिखाई देती है लेकिन फिर अंधकार के गर्त में कहाँ विलीन हो जाती है पता नहीं चलता। दीपशिखा मुफलिसी से नहीं निकली थी बल्कि नवाबी खानदान से ताल्लुक था उसका। विशाल, समृद्ध कोठी के कीमती खजाने की एकमात्र वारिस थी वह। जो पूरे गुजरात में पीपल वाली कोठी के नाम से जानी जाती थी। इसका एक महत्वपूर्ण कारण और भी था। दीपशिखा के पिता यूसुफ खान जूनागढ़ के नवाब के यहाँ कानून मंत्री थे और माँ सुलोचना अहमदाबाद के करोड़पति व्यापारी की बेटी थीं। दोनों का प्रेम विवाह था जो माँ-बाप की मर्जी के बिना हुआ था और जो हिंदू और मुस्लिम धर्म के कट्टरपंथियों के लिए चुनौती था। शादी के बाद यूसुफ खान को पैतृक संपत्ति से बेदखल कर दिया गया था। सुलोचना को कई बरसों तक मायके की चौखट नसीब नहीं हुई थी। लेकिन फिर धीरे-धीरे सुलोचना की कोशिशों से उनके माता-पिता ने उन्हें माफ कर दिया। वक्त सबसे बड़ा मलहम होता है।

एक-एक कर बरस बीतते गए पर यूसुफ खान के घर औलाद के दर्शन नहीं हुए। सुलोचना ने न जाने कितनी मन्नतें कीं, कितने मंदिरों में माथा टेका... यूसुफ के साथ पीर औलिया, मजार, दरगाह... कहाँ नहीं गईं। गंडा ताबीज से बाँहें भरी रहतीं... कि एक दिन सब्र का अंत हुआ और चौदह बरस बाद सुलोचना गर्भवती हुईं। यूसुफ ने हिफाजत बरतने के खयाल से उन्हें बुजुर्गवार फातिमा बेगम और दाई की निगरानी में रखा। जिस दिन से बाहर निकलकर दाई ने सूचना दी - "बेटी हुई है।" यूसुफ खान के घर में मानो जन्नत उतर आई। पीपलवाली कोठी खुशियों से लबरेज हो गई। शहनाइयाँ बजीं, मिठाइयाँ बँटी। पीपलवाली कोठी हिंदू-मुस्लिम तहजीब का मिला जुला संगम थी। जहाँ होली, दीपावली, दशहरा आदि त्योहार भी उतनी ही धूमधाम से मनाए जाते थे जितनी कि ईद, बकरीद आदि। यूसुफ खान यूँ तो प्रगतिशील विचारों के थे पर अपनी बेटी को लेकर बेहद अंतर्मुखी थे। उन्हें लगता था दीपशिखा के रूप में उनके वैवाहिक जीवन के चौदह बरसों के औलाद हीन वनवास का जो खात्मा हुआ है उसमें खुदा की मर्जी और उनकी मन्नतें, दुआएँ हैं लेकिन वक्त इतना अधिक निकल चुका था कि वे एक एक कदम फूँक-फूँक कर रखते थे। दीपशिखा नाज नखरों में पाली जाने लगी। फिर भी सुलोचना सतर्क रहतीं, कहीं इतनी नाजुक न हो जाए कि जिंदगी के धूप पाले में कुम्हला जाए। लिहाजा उसके लिए तैराकी, नृत्य, घुड़सवारी और योगा के विशेषज्ञ नियुक्त किए गए। दीपशिखा सीख तो रही थी पर उसका मन चित्रकला में रमता था। छोटी सी उम्र में ही वह पेंसिल स्केच में माहिर हो गई।

"तुम्हारी बेटी तो चित्रकार है यूसुफ और चित्रकार है तो भावुक भी होगी जो औरत के लिए बड़ा नुकसानदेह है।"

"क्यों... यह तो अच्छी बात है। दूसरों के दुख दर्द समझेगी।"

"और फिर उस दुख-दर्द को अपने मन पर लेगी, जराजरा सी बात में हर्ट होगी... अभी से ये सारे लक्षण दिखाई दे रहे हैं... छोटी-छोटी बातों को दिल पे लेना इनसान को कुंठित कर देता है।"

यूसुफ खान हँस पड़े। अपनी खूबसूरत पत्नी की नाक दबा कर बोले - "जैसी तुम, वैसी तुम्हारी बेटी।"

पीपलवाली कोठी की दिनचर्या आम जिंदगियों जैसी नहीं थी। वहाँ सूरज उगता अपनी मर्जी से था लेकिन ढलता हुआ मानो थम सा जाता था क्योंकि शाम यूसुफ खान और सुलोचना के लिए बारह बजे रात तक रुकी रहती थी। दोनों ही शेरो शायरी के शौकीन थे। यूसुफ खान खुद बेहतरीन गजलें लिखते और जब महफिलों में उन्हें पढ़ते तो वाह-वाह-मुकर्रर की दाद मिलती। चाय कॉफी के दौर चलते। सुलोचना उनके शौक में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। दीपशिखा की आँखों से भी नींद उड़ी रहती। वह यूसुफ खान की सिंहासन जैसी कुर्सी के इर्द गिर्द मँडराती रहती। इतनी छोटी सी उम्र खिलौनों की जगह गजलें?

"यूसुफ... बेटी की फरमाइश सुनी तुमने? दूध के दाँत तक तो टूटे नहीं अभी तक और..."

"तुम्हारी तिलस्मी कहानियों से तो बेहतर है कि एक राजकुमारी थी जो उस राजकुमार का इंतजार करती थी जो सफेद घोड़े पर बैठकर एक दिन आएगा और राजकुमारी को विदा कराके ले जाएगा... बस एक ही मकसद जिंदगी का शादी... और पति से तमाम इच्छाओं की पूर्ति... बाप तो नाकारा है, कुछ कर ही नहीं सकता।"

"यूसुफ, मैंने ऐसा कब कहा?"

यूसुफ ने दीपशिखा को बाँहों में भर लिया - "हमारी दीपू लाखों में एक है।"

दीपशिखा सचमुच बेमिसाल थी। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और संवेदनशीलता वस्तुओं की सूक्ष्म पकड़ ने उसे कैनवास थामने पर मजबूर कर दिया। ब्रश, रंग, थामते ही अनोखे दृश्य बिंबों की रचना ने पीपलवाली कोठी में उसके नाम को लेकर खलबली मचा दी। एक दिन माली काका ने क्यारियाँ साफ करते हुए बताया था - "पहले इस जगह पीपल ही पीपल के झाड़ थे। ऊँचे-ऊँचे घने झाड़ों वाले जंगल में शाम और रात की तो छोड़ो दिन में भी यहाँ से गुजरने में लोग डरते थे।"

"क्यों? इसमें डरने की क्या बात है?" दीपशिखा ने चकित होकर पूछा।

"पीपल के झाड़ में भूतों का वास होता है, ब्रह्मराक्षस रहता है उस पे।"

"ब्रह्मराक्षस? वो क्या होता है?"

"रहने दो बिटिया, रात में डरोगी नाहक।"

"नहीं डरूँगी, बताओ न काका।"

क्यारियों में कचरा इकट्ठा हो गया था, उसे डलिया में भरकर माली गेट के बाहर रख आया। दीपशिखा ने जिद पकड़ ली "बताओ न माली काका।"

माली ने तंबाखू हथेली में मलकर फाँकी और बड़ी कैंची से क्रोटन को शेप देने लगा - "जिन लोगों की पुराण, शास्त्र पढ़ने की इच्छा होती है और बिना पढ़े ही अकाल मर जाते हैं वो ब्रह्मराक्षस बनकर पीपल में वास करते हैं। किसी को डराते थोड़ी हैं, पैर ही नहीं होते उनके। वो तो अपना ही नर्क भोगते पड़े रहते हैं। ये जगह ही ऐसी है। हर साल एक न एक की बलि लेती है। पिछले साल भटनागर का लड़का स्कूटर एक्सीडेंट में मर गया। वो तो हमारे साहब का जिगरा है जो यहाँ रहते हैं। तमाम झाड़ कटवा के कोठी बनवाई। इसीलिए तो इसका नाम रखा पीपलवाली कोठी। बड़ा भारी यज्ञ कराके बनी है ये कोठी। सब भूतों का उद्धार हो गया।"

दीपशिखा को बाकी कुछ समझ में न आया हो पर भूतों के बारे में अच्छे से समझ में आ गया। कई बार दाई माँ भी भूत प्रेतों की कहानी उसे सुनाती है। उसने अपने कमरे की दीवारों पर सुंदर-सुंदर चित्र उकेरे हैं, लेकिन आज वह पीपल के पेड़ों पर भूतों के चित्र बनाएगी।

सुबह सुलोचना जब दीपशिखा को उठाने उसके कमरे में आईं तो देखा कोने की दीवार पर पीपल के पेड़ों की डालियों पर बिना पैरों वाले इनसानों की आकृतियाँ... अस्पष्ट सी... जैसे ढलते सूरज के उजाले में परछाइयाँ लंबी-लंबी दिखती हैं... कुछ वैसी सी। दीपशिखा जाग चुकी थी। उसके रेशमी मुलायम बालों को उसके चेहरे पर से हटाते हुए सुलोचना ने उसे चूम लिया - "गुडमॉर्निंग माँ।"

"गुडमॉर्निंग... दीपू... ये दीवार पर तूने क्या चित्रकारी की है?"

"माँ... वो भूत हैं... ब्रह्मराक्षस।"

सुलोचना ने चौंककर ध्यान से चित्रों को देखा और दीपशिखा का चेहरा अपने सीने में दबोच लिया - "मेरी नन्ही प्रिंसेज भूत कुछ नहीं होता। भूत यानी गुजर चुका कल... और जो गुजर चुका उसके लिए क्यों सोचा जाए?"

लेकिन छोटे से मन में डर का बीजारोपण हो चुका था।

ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुलते ही दीपशिखा की क्लास में एक नया चेहरा था। भोला-भाला, बड़ी बड़ी हिरनी सी चंचल आँखों वाला - "मेरा नाम शेफाली है, क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी।"

"दोस्त बनाए नहीं जाते हो जाते हैं। हम भी अच्छे दोस्त हो सकते हैं।" दीपशिखा ने कहा।

कद की ऊँचाई के हिसाब से क्लास टीचर ने दोनों को साथ-साथ एक ही बैंच पर बैठाया था। धीरे-धीरे दोनों में आत्मीयता बढ़ती गई। ड्रॉइंग का पीरियड होते ही दोनों चहक पड़तीं। दोनों ही चित्रकला की शौकीन... उनके चित्रों की जब तारीफ होती और एक्सीलेंट का रिमार्क मिलता तो स्कूल की छुट्टी होते ही दोनों चिड़िया सी उड़ने लगतीं। दीपशिखा की गाड़ी गेट के बाहर उसका इंतजार करती और वह डूबते सूरज का पीछा करती... कभी पेड़ बीच में आ जाते या बादल का टुकड़ा सूरज को अपने दामन में छिपा लेता तो वे वहीं रुक जातीं... "देखो, सूरज हार गया। हमसे डर कर छिप गया।" दीपशिखा शेफाली का हाथ थाम लेती... वे लौट पड़तीं और शाम होते होते ड्राइवर पहले शेफाली को उसके घर छोड़ता फिर दीपशिखा को।

दीपशिखा पढ़ाई में शेफाली से तेज थी। लेकिन विज्ञान और गणित में शेफाली। दीपशिखा की रुचि साहित्य, नृत्य, नाटक, चित्रकला में बहुत अधिक थी। स्कूल की पढ़ाई में उसने शहर के सभी स्कूलों के छात्रों में टॉप किया था और कॉलेज में भी वह हर परीक्षा में अव्वल रहती थी। शेफाली को घर का माहौल आगे बढ़ने से रोक देता। उसके पिता एक दुर्घटना में चल बसे थे और माँ का पूरा बायाँ अंग लकवाग्रस्त था। घर बड़े भाई के कंधों पर था। शेफाली, उसकी बड़ी बहन और माँ... खरामा-खरामा उसके भाई का स्वभाव रूखा और चिड़चिड़ा सा हो गया था। इन सब बातों को दीपशिखा गहरे महसूस करती। वह अधिक से अधिक शेफाली को खुश रखने की कोशिश करती... ऐसे ही एक खुशहाल दिन दीपशिखा ने पार्क में टहलते हुए कहा - "मैं चित्रकला में सिद्धहस्त होना चाहती हूँ। मुंबई के जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट्स से चित्रकला में डिप्लोमा लेना चाहती हूँ।"

दोनों पार्क की बैंच पर बैठ गईं। लॉन में कुछ बच्चे बड़ी सी गेंद से खेल रहे थे और उनकी माँओं के आस-पास गुब्बारे वाले मँडरा रहे थे।

"यानी बी.ए. के बाद पढ़ाई बंद।"

"नहीं, प्राइवेट एम.ए. करूँगी।"

"दीदी भी मुंबई में नौकरी के लिए ट्राई कर रही है। अगर दीदी की नौकरी लग गई तो मैं भी मुंबई आकर चित्रकला का डिप्लोमा लूँगी।"

सुनकर दीपशिखा खिल पड़ी - "तू आएगी तो क्या कहने? वैसे आँख मूँदकर हम डिग्रियाँ हासिल करते रहें उससे बेहतर है अपना लक्ष्य पहले से निर्धारित कर लें। कामयाबी तभी मिलती है। मैं आज ही माँ से बात करूँगी।"

लेकिन यह बात इतनी आसान नहीं थी। मुंबई में सुलोचना के रिश्तेदार तो थे पर उनकी अंतर धर्म शादी से वे नाराज थे और नाता तोड़ चुके थे। यूसुफ खान तनावग्रस्त हो गए - "अकेली कहाँ रहेगी वह? इकलौती संतान... कारोबार ऐसा कि खुद मुंबई जाकर नहीं बसा जा सकता।" सुलोचना भी सोच में पड़ गईं। दीपशिखा को इनकार किया जा सकता था पर इससे उसके अंदर पनप रहा कला का अंकुर खत्म हो जाएगा... हो सकता है यह बात वह अपने मन पर ले ले... तब? रात भर दोनों के बीच विचार विमर्श चलता रहा। माँ-बाप के नजरिए से उसका साथ देना जरूरी था। तय हुआ पहले प्रवेश परीक्षा दे दी जाए फिर आगे की योजना पर विचार हो।

दीपशिखा को जे.जे. स्कूल में प्रवेश मिल गया। इस बीच यूसुफ खान ने देखभाल कर बेहतरीन सोसाइटी में फ्लैट खरीद लिया। कुछ महीने सुलोचना वहाँ रहकर सब व्यवस्थित कर दें फिर दाई माँ और उनके पति महेशचंद्र को उसके संग रखा जाए। इतनी सुंदर व्यवस्था के बारे में सुनते ही शेफाली उछल पड़ी थी - "तब तो मेरा मुंबई आना पक्का। दीदी की नौकरी नहीं भी लगी तो मैं तेरे साथ रह लूँगी।"

सुलोचना के साथ दीपशिखा मुंबई आ गई। जुहू में समंदर की ओर खुलती खिड़कियों और बालकनी वाला पाँचवी मंजिल पर स्थित उसका फ्लैट खूब खुला और हवादार था। तीन बेडरूम, बड़ा सा हॉल, किचन, बालकनियाँ... और बिल्डिंग के कंपाउंड में नारियल, बादाम और अशोक के दरख्तों की गझिन हरियाली। गेट पर बोगनविला की सघन लतर हमेशा सफेद, मजंटा रंग के फूलों से लदी रहती थी। बहुत खुश थी दीपशिखा इस माहौल में और उसकी खुशी पे निहाल थीं सुलोचना। क्लासेज से लौटकर दीपशिखा बालकनी में ईजी चेयर पर बैठकर समंदर की लहरों को गिना करती और फिर शेफाली को फोन पर दिन भर का समाचार देती। धीरे-धीरे रात की चहल-पहल के संग समंदर का काला जल अद्भुत सम्मोहन पैदा करता था। जैसे वह किसी तिलिस्म से गुजर रही हो। जब कभी समंदर शांत दिखता था तो मानो चाँद-सितारे उसकी सतह पर चहलकदमी करते नजर आते। डूबते उतराते चाँद के कई चित्र उसने बना डाले थे। वह अपने में खोई-खोई पूरे ब्रह्मांड की सैर कर लेती थी। उसे लगता आसमान कैनवास होता तो भी छोटा था जितने कि चित्र उसके जेहन में उभरते थे। जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स तो कला को मंजिल तक पहुँचाने का एक बहाना था... एक दिशा जो सीधी उस राह की ओर खुलती थी जिसके लिए दीपशिखा इस दुनिया में आई थी। उसे अपने चेहरे की आकृति से मोह हो गया था और अब पीपलवाली कोठी में बीजारोपण हुए डर के साथ-साथ वह आत्ममोहग्रस्त भी हो गई थी। जैसे नार्सिसस... नार्सिसस को अपने रूप रंग से प्यार हो गया था। वह आत्ममोहग्रस्त हो भयानक अवसाद में चला गया था और अंत में उसने आत्महत्या कर ली। कहते हैं नार्सिसस ने ही नरगिस के फूल के रूप में जन्म लिया। पीपलवाली कोठी से अपनी जीवन यात्रा आरंभ करने वाली बेहद स्वाभिमानी, मोहक व्यक्तित्व की अत्यंत संवेदनशील दीपशिखा के अंदर भी नरगिस का फूल अँगड़ाई ले रहा था और वह आईने के सामने घंटे भर बैठकर अपने प्रतिबिंब का पोर्टेट बना लेती थी और नीचे दो पंक्तियाँ भी लिखी थीं उसने - इस दिलकश हुस्न को थामे रखना, कहीं ये छूट न जाए तुम्हारी जद से। ज्यादातर पंक्तियाँ यूसुफ खान की लिखी होतीं जिन्हें हर वक्त गुनगुनाते रहना उसका शगल था।

कला शिक्षा के दौरान ही दीपशिखा ने भूलाभाई इंस्टिट्यूट भी ज्वाइन कर लिया जो एक तरह से कला और संस्कृति का तीर्थस्थल था। वहाँ चित्रकारों के अपने-अपने स्टूडियों थे जहाँ वे दिन रात रंगों और ब्रश की दुनिया में डूबे रहते। उनकी आँखों में बस एक ही सपना था... किसी तरह फ्रांस जाना और पेरिस में प्रदर्शनी लगाना। दीपशिखा को यहाँ का माहौल ज्यादा पसंद आया... वह उसकी आँखों में पल रहे सपने में खुद भी शामिल हो गई। उसी रात उसने यूसुफ खान को फोन किया - "पापा, मुझे एक स्टूडियो खरीदना है।"

"स्टूडियो।" उधर से आवाज चौंकी थी।

"जी पापा, यहाँ इंस्टिट्यूट में सबके अपने स्टूडियो हैं जहाँ उनके रंग, ब्रश बिखरे रहते हैं। उन्हें घर लौटने से पहले सब कुछ समेटना नहीं पड़ता। रंग सूखे या न सूखें... घर लौटने का मन हो तो बसता लगाओ और चल दो।"

दीपशिखा की बात को यूसुफ खान कैसे टाल सकते थे जबकि वह उनसे बात करने के दौरान तीन बार दाई माँ को टाल चुकी थी जो सूप का कटोरा लिए कब से उसके पास खड़ी इस रार कर रही थीं - "गरम है... पहले पी लो न।"

"ठीक है बेटा... मैं कल सुबह की फ्लाइट से मुंबई पहुँच रहा हूँ।"

रिसीवर रखते ही उसने दाई माँ के गले में बाँहें डाल उनके गाल चूम लिए। मानो इतनी देर खड़े रहने की तपस्या खत्म हुई उनकी। वे खुश होकर उसे अपने हाथों से सूप पिलाने लगीं। दीपशिखा तो दूसरी ही दुनिया में खोई थी। एक ऐसी दुनिया जिसमें संपूर्ण प्रकृति ही कैनवास थी और उस कैनवास में अगर रेगिस्तान का विस्तार था तो बर्फ लदी वादियाँ भी थीं... रंगों का ऐसा बरीक जाल कि जिसमें भँवरे, तितली, चिड़ियाँ, मोर सब एकम-एक थे। कल ही तो मुकेश ने कहा था कि - "मैं चित्रों के साथ-साथ छाया चित्र भी तैयार कर रहा हूँ और इसके लिए मैं राजस्थान के बीहड़ों में जाने का प्लान कर रहा हूँ। उसके बाद रुद्रप्रयाग जो हिमालय की गोद में है।"

"यानी कि तुम फोटोग्राफी और पेंटिंग्स दोनों का एग्जीबिशन प्लान कर रहे हो?"

"तभी तो सबसे आखिरी में मेरा स्टूडियो बंद होता है। समझीं राजकुमारी दीपशिखा।"

दोनों भूलाभाई देसाई रोड से चहलकदमी करते हुए हाजीअली तक आए। बावजूद रात अधिक होने के सड़कें चहल पहल से भरी थीं। खाने-पीने के स्टॉल पर ठहाकों का सैलाब था। "चाट खाओगी?" मुकेश के गले में कैमरा था और पीठ पर बैग... शायद वजनी... शायद नहीं भी।

"चलो खाते हैं।" दीपशिखा ने समंदर के काले जल में पड़ती रोशनी की शहतीरों पर नजरें टिका दीं... शहतीरों के बीच हाजी अली दरगाह सफेद नगीने सी जड़ी थी। मुकेश ने कैमरा बैग में डाल लिया और दोनों 'हीरा पन्ना' से लगे फुटपाथ पर की दुकानों में चाट के लिए बढ़िया स्टॉल तलाशने लगे। एक स्टॉल पर पानीपूरी और तवे पर सिंकती आलू टिक्की देख वे रुक गए।

"मेरे में तीखा कम।"

मुकेश ने मुस्कुराकर दीपशिखा की ओर देखा और आलू टिक्की चम्मच से काटकर चम्मच उसकी ओर बढ़ाई एक बाइट।"

"खाओ न।" कहते कहते चम्मच मुँह के अंदर। दीपशिखा ने होठों पर हथेली दबा ली। मुकेश उसे शरारत से देखे जा रहा था। समुद्री हवा के झोंके रह-रह कर दीपशिखा के बालों से खेल रहे थे। कभी बाल चेहरे पर छा जाते, कभी पीछे की ओर उड़ जाते।

"प्लेट पकड़ो और ऐसी ही खड़ी रहना।" कहते हुए मुकेश ने कैमरा निकाला और चार पाँच तस्वीरें खींच डालीं।

घर लौटते हुए मुकेश संग-संग गेट तक आया था और चांदनी रात में दीपशिखा को गेट पर लगा बोगनविला का पेड़ रुपहला नजर आया था और जब मुकेश सड़क के मोड़ से दिखना बंद हो गया था तो उसे लगा था कि सपनों की गली खुली और उसके संग ही चली गई। रात दस बजे उसने शेफाली को फोन किया - "शेफाली, मुझे प्यार हो गया है।"

शेफाली ने शरारत की - "तुझे और प्यार... ये मेरी चित्रकार हसीना... बता किससे, कब, कहाँ?"

"अभी-अभी... अभी वो मुझसे जुदा हुआ है... यानी तीन घंटे पहले मुझे गेट पर छोड़कर... और उसके जाते ही मुझे लगा जैसे मैं सितारों की ओर उड़ी चली जा रही हूँ। बार-बार मुट्ठी खोलती, बंद करती कि जैसे उनकी झिलमिलाहट को कैद कर लेने को आतुर... और यूँ लगा जैसे अभी-अभी किसी कली ने मेरे मन को छुआ है और मैं खिल पड़ी हूँ।" दीपशिखा की आवाज मानो साज पर छेड़ा गया कोई सुर हो।

"मेरे पास भी एक खुशखबरी है।"

"तुझे भी प्यार हो गया क्या?"

"नहीं... मैं अगले महीने की 15 तारीख को मुंबई आ रही हूँ। दीदी का जॉब लग गया है। फिलहाल हम दोनों वर्किंग वुमेंस हॉस्टल में रहेंगे फिर घर तलाशेंगे। तू भी घर के लिए कोशिश कर।"

"अरे वाह, ये तो ट्रीट लेने वाली खुशखबरी है। दीदी को मेरी ओर से बधाई देना। और आने से पहले माँ से जरूर मिलकर आना।"

"ओ.के. डियर... रखती हूँ, गुडनाइट।"

सुबह यूसुफ खान के आते ही दाई माँ, महेश काका बड़े व्यस्त नजर आने लगे। दीपशिखा तो उनके इंतजार में सुबह से तैयार होकर बैठी थी।

"तुम वहीं क्यों स्टूडियो लेना चाहती हो?" यूसुफ खान ने दीपशिखा के इरादे को भाँपते हुए कहा।

"पापा, वहाँ सभी चित्रकारों के अपने स्टूडियो हैं। सभी मिलजुलकर कला को परख कर काम करते हैं। अपनेपन का माहौल है। स्पर्धा नहीं है बस काम करने की लगन है जो एक-दूसरे को प्रेरित करती है... इसीलिए पापा।"

"ठीक है, शेफाली भी अगले महीने आ जाएगी तब तुम शायद होमसिक नहीं होगी। सुलोचना टेंशन में आ जाती हैं - तुम्हारे अकेलेपन को सोचकर।"

दाई माँ ने नाश्ता मेज पर लगा दिया था - "पापा... माँ की लाड़ली बिटिया हूँ न... इसीलिए। वैसे यहाँ मेरे सभी दोस्त बहुत मददगार हैं... मुकेश तो घर तक छोड़ने आता है।"

कह तो दिया था उसने फिर सकपका गई। यूसुफ खान के भी कान खड़े हुए - "ये मुकेश कौन है?"

"मेरा दोस्त पापा... चित्रकार है, फोटोग्राफी भी करता है। बहुत अच्छा कलाकार है। मिलवाऊँगी आप से।" भोलेपन से दीपशिखा बोली।

लेकिन यूसुफ खान ने इस बात को भोलेपन से नहीं लिया। उन्होंने बाल्कनी में जाकर सुलोचना को फोन लगाया - "तुम्हारी बेटी के दोस्तों में लड़के भी हैं। ऐसे में कुछ ऊँच-नीच न हो जाए। तुम कुछ दिनों के लिए यहाँ आकर रहो। माहौल देखो, दीपू को समझो... ये जरूरी है।"

सुलोचना ने खामोशी से सुना। यूसुफ खान के शक्की स्वभाव से वे परिचित थीं। कोई सुलोचना की तारीफ कर दे या बार-बार उससे मिलने आए तो उन्हें शक हो जाता था। फिर ये तो बेटी का मामला है। बेटी में आए बदलावों को सुलोचना समझाना चाहती थीं। तय हुआ कि यूसुफ खान के लौटते ही वे मुंबई जाएँगी। दाई माँ को ताकीद की गई कि दीपशिखा के आने, जाने मिलने-जुलने वाले लोगों पर नजर रखें और पल-पल की खबर उन तक पहुँचाएँ।

लेकिन दीपशिखा के कदमों को अब कोई रोक नहीं सकता था। भले ही पंख न हों पर हौसले हैं और यही हौसले तो परवाज हैं जो आकाश को चूमेंगे।

"क्या रखा है आकाश में दीप..."

दीपशिखा के स्टूडियो में एक ढलती शाम मुकेश ने खूब मीठी कड़क चाय पीते हुए कहा - "वहाँ न घर बना सकते, न फूल खिला सकते, न ही छै ऋतुओं का आनंद ले सकते। बड़ी शून्य सी कल्पना है आकाश को चूमने की।"

दीपशिखा कैनवास पर रंगों के कोलाज में डूबी थी। चौंक पड़ी... "क्या कहा तुमने? शून्य कल्पना! हुजूर, शून्य ही तो सबको विस्तार देता है।"

"मेरे कैमरे को नहीं... मेरे कैमरे में शून्य समा ही नहीं सकता।"

"फोटोग्राफर महाशय जी... आप चाहें तो क्या-क्या बना दें शून्य को... साधारण औरत को अप्सरा बना दें..."

"भला ऐसा क्यों? जबकि मेरे पास अप्सरा है।"

"सुनूँ तो... कौन है वह?"

मुकेश ने कैमरा दीपशिखा के चेहरे पर लाकर क्लिक किया और स्क्रीन पर दिखाया - "ये।"

दीपशिखा का चेहरा आरक्त हो उठा। उसे लगा जैसे उसका दिल धक से हुआ है और जिसकी आवाज अब भी उसे सुनाई दे रही है। शाम का जादुई तिलिस्म धीरे-धीरे स्टूडियो में भी उतर आया। न जाने कैसे... बस इसी एक लम्हे में मुकेश ने झुककर आहिस्ता से दीपशिखा के होठ चूम लिए। पहले प्यार का पहला स्पर्श... जैसे बाहर लगे बाँस के झुरमुट में हवा के चंचल झोंके की बीन बज उठी हो।

सुलोचना का आना दीपशिखा को चकित कर गया। न कोई सूचना, न तयशुदा कार्यक्रम, न यूसुफ खान ने ही इसके संकेत दिए। शाम के झुटपुटे में जब वह मुकेश से बिदा ले घर आई तो दरवाजा खुलते ही सुलोचना को सोफे पर बैठे पाया - "माँऽऽ... तुम?"

वह दौड़कर उनके गले लग गई - "अचानक कैसे? कहीं सपना तो नहीं?"

सुलोचना ने दीपशिखा को बाँहों में भरकर उसके गाल, माथा चूम लिए - "माँ तो हकीकत होती है दीपू, सपना नहीं। लेकिन तुम जरूर सपनों की उम्र से गुजर रही हो।"

दीपशिखा सोफे पर माँ के बाजू में बैठ गई - "देखो माँ, तुम्हारी बेटी कितना काम करती है। सुबह की निकली हूँ।"

"तो फिर लंच वगैरह?"

"अरे माँ... दाई माँ ब्रेकफास्ट के नाम पर ब्रंच करा देती हैं और काम के जूनून में भूख किसे लगती है?"

कहते हुए दीपशिखा कपड़े चेंज करने के लिए उठी। दाई माँ ने नजदीक आकर कहा - "जल्दी फ्रेश हो जाओ बिटिया। मूँग की दाल में मेथी के पत्ते डालकर मुंगौड़ियाँ बनाई हैं। साथ में अदरक वाली चाय भी न? फटाफट ले आती हूँ।"

जींस, टी-शर्ट उतारकर वह बाथ टब में जा घुसी। कुनकुने पानी में सारी थकान पिघलने लगी। चेहरा धोते हुए ऊँगलियाँ होठों पर आकर टिक गईं... वो प्रथम चुंबन! उसके अंदर जैसे कुछ पिघलने सा लगा, नसों में तीव्र गति से दौड़ने लगा। क्या था वह... प्यार... प्यार का जमा हिमखंड जो मुकेश के होठों की आँच से पिघलने लगा था, पिघल कर नसों में दौड़ रहा था और वह समूची खिंची जा रही थी मुकेश की ओर... नहाने के दौरान ही उसने मुकेश को एस.एम.एस किया - "मैंने ये दावा कब किया कि तुम मेरे हो। तुम्हारी आँखों ने खुद ही बता दिया।"

जवाब आया - "मेरी आँखें अब वो नींद न लें जिसके सपनों में तुम मौजूद न हो।"

"मुझे सपना नहीं हकीकत बनाओ मुकेश।"

"मेरी दीप... तुम मुझमें हो और मैं तुममें हूँ, तो ये हकीकत ही तो है।"

धीरे से दरवाजा खटका - "दीपू, कितना नहाओगी?"

"आई माँऽऽ..." और आज का आखिरी एस.एम.एस...

"मेरे होठों पर तुम्हारे होठों की छुअन... एक जिंदा एहसास कि तुम मेरे करीब हो। गुड नाइट।"

सोने से पहले सुलोचना दीपशिखा के सिरहाने आकर बैठ गईं - "दीपू अब तो तुम बड़ी चित्रकार हो गई हो। देखी मैंने तुम्हारी पेंटिंग्स... मुझे तुम पर गर्व है।"

दीपशिखा ने सुलोचना के सीने में अपना चेहरा छुपा लिया। "ओह माँ, रीयली! मैं अमृता शेरगिल जैसी तो नहीं पर उनकी चित्रकारी मुझे अपील करती है। माँ... एक बात बताओ... कलाकार छोटी उम्र क्यों लेकर आते हैं दुनिया में? जैसे अमृता शेरगिल, जैसे पाश, सुकांत भट्टाचार्य, हेमंत। हेमंत भी चित्रकार और कवि दोनों था न माँ... पर ये कलाकार कवि बाईस, तेईस साल ही जिए। माँ, मैं मरना नहीं चाहती।"

"पगली।" सुलोचना ने उसकी पीठ थपथपाई - "यह सब हमें नहीं सोचना है, हर एक का मरण का दिन तय है... हमें सिर्फ जीने और कुछ कर गुजरने की बात सोचनी चाहिए।"

"हाँ माँ, मैं पेरिस में एग्जीबिशन लगाना चाहती हूँ। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने चित्र प्रदर्शित करना चाहती हूँ पर पहले मुंबई, दिल्ली और भोपाल में... है न माँ।"

सुलोचना दीपशिखा की आँखों में आकांक्षाओं का समंदर ठाठें मारते देखती रहीं। वे सहम गईं। बचपन से ही दीपशिखा में असाधारण बातें उन्होंने देखीं। छोटी सी उम्र से चित्रकारी, गजल, कविता की समझ... लेकिन दोनों ही कलाओं में कहीं बचपना नहीं दिखा। प्रौढ़ता दिखी, गंभीरता दिखी। मुंबई में पढ़ने, अकेले रहने के उसके फैसले के आगे जो वे झुकी थीं उसकी वजह जहाँ एक ओर उनकी अपनी सोच थी कि वे भी तो ऐसा ही जोश भरा खून अपनी नसों में दौड़ता महसूस करती थीं और इसी कारण वे अपने माता-पिता की मर्जी के बिना मुसलमान लड़के से शादी करने की हिम्मत जुटा पाईं थीं, वहीं दूसरी ओर उसकी प्रौढ़ता और गंभीरता भी थी। लेकिन आकांक्षाएँ यदि पूरी न हों तो सर्वनाश कर डालती हैं इनसान का। उन्होंने दीपशिखा में जो आकांक्षाओं का अथाह समंदर देखा... उन्हें लगा कहीं कुछ गलत हो रहा है... कहीं कुछ ऐसा जिसे होने देने से रोकना है लेकिन जिसकी अनिवार्यता की जड़ें भी गहरी-गहरी हैं। उन्होंने ऊँघती दीपशिखा का सिर तकिए पर रखा - "अब सो जाओ, गुडनाइट।"

"गुडनाइट माँ।"

दीपशिखा के कमरे की दूधिया चाँदनी सी रोशनी से बाहर निकलते ही सुलोचना को तेज बल्बों की चकाचौंध ने दबोच लिया। वे घबराई हुई तो थीं ही... उत्तेजित भी हो गईं... "महेश, लाइट क्यों जल रही है अब तक?" एक खामोश आहट... कमरा अँधेरे में कैद हो गया और उससे भी गहन अँधेरे में सुलोचना... क्या होगा दीपू का? आकांक्षाओं का भँवर जाल न ले डूबे कहीं? देर रात तक सुलोचना अपने बिस्तर पर करवटें बदलती रहीं। तीन बजे के करीब नींद आई होगी और सुबह छै बजे खटपट से नींद खुल भी गई। देखा, बाल्कनी में दीपशिखा प्राणायाम कर रही थी और दाई माँ जूसर में से लौकी का जूस निकाल रही थी। महेश दीपशिखा के कपड़ों में आयरन कर रहा था। सब कुछ व्यवस्थित... दीपशिखा भी सधी-सधी सी, प्राणायाम के बाद वह वॉकर पर आ गई।

"हाय माँ... गुडमॉर्निंग, नींद अच्छी आई? इधर आइए बाल्कनी में। समंदर की ताजी हवा के संग उड़ते परिंदों को देखिए... वाओ... ब्यूटीफुल... अब बताइए, पीपलवाली कोठी से दिखता है ऐसा नजारा?"

पसीने से लथपथ वह फर्श पर ही बैठ गई... नेपकिन से पसीना सुखाते हुए बोली - "माँ... देखो ये चार लाइनें कविता की सुबह-सुबह लिखीं। दाई माँ, जूसऽऽऽ"

सुलोचना अब तक एक शब्द भी नहीं बोली थीं। दीपशिखा के रूटीन वर्क को मुग्ध हो निहार रही थीं। बदलाव तो आया है बेटी में। पर इतना और इस तेजी से आएगा, उन्होंने सोचा न था।

अगली सुबह शेफाली ने सरप्राइज दिया - "हम आ गए हैं मुंबई।"

"अरे वाह, अच्छा सरप्राइज दिया। इसीलिए दो दिन से चुप थी तू।"

"तूने कौन सा फोन किया? तू भी तो..."

"अरे यार, माँ आई हैं।"

"पता है मुझे... आ रही हूँ बारह बजे तक। तू अपना पता एस.एम.एस कर। दीदी ने आज से नौकरी ज्वाइन कर ली। अभी हम वर्किंग वुमन हॉस्टल में हैं।" शेफाली ने पूरा समाचार एक ही साँस में कह डाला। दीपशिखा ने फोन रखते ही माँ से कहा - "माँ, शेफाली और दीदी आ गई हैं। दाई माँ... आज बैंगन का भरता जरूर बनाना, शेफाली को बहुत पसंद है।"

अपनी प्राणों से भी प्यारी सखी के स्वागत में वह और भी कुछ सोचती कि सुलोचना ने कहा - "अच्छा हुआ शेफाली आ गई... मैं भी कल लौट रही हूँ। अब निश्चिंतता रहेगी।"

निश्चिंतता रहेगी!! दीपशिखा के मन में कुछ खटका... तो क्या माँ उसके इस महानगर में अकेले रहने की वजह से चिंतित हैं? मगर क्यों?

बारह बजे उसने शेफाली को अटैंड किया... दिन भर गपशप, खाना-पीना। शाम को स्टूडियो भी ले जाकर दिखाया। मुकेश से भी मिलवाया लेकिन वह 'क्यों' उसके जेहन में दिन भर अटका रहा। अगर वह माँ की जगह होती तो वह भी शायद ऐसा ही सोचती लेकिन माँ के लहजे में 'कुछ और' की बू भी थी जिसके लिए वह खुद को मना नहीं पा रही थी। उसके हर कदम का माँ ने, पापा ने साथ दिया... फिर? सुलोचना के जाने के बाद भी कई दिनों तक वह बेचैन रही... टुकड़ों-टुकड़ों में बँटकर उसने रूटीन तो निभाए पर हर बार वह उन मौकों पर मन से गैर मौजूद रही।

अद्भुत दुनिया से परिचित हो रही थी दीपशिखा। चित्रकला, रॉकपेंटिंग, फोटोग्राफी। फोटोग्राफी में भी छायाचित्रों को मिला-जुलाकर अनोखे दृश्य प्रस्तुत करना। मुकेश को इसमें कमाल हासिल था। रॉकपेंटिंग में शेफाली बेजोड़ थी। शेफाली दीपशिखा के साथ उसके स्टूडियो में चार-पाँच घंटे काम कर लेती थी। जास्मिन, सना, एंथनी, शादाब, आफताब सब अच्छे दोस्त बन गए थे। सबका मकसद एक था, लगन एक थी... हौसले एक थे पर चुनौतियों को झेलने की ताकत अलग-अलग थी। दीपशिखा को बहुत आनंद मिलता था, इन सबों के बीच। शेफाली का मानना था - "रॉक पेंटिंग प्रकृति से सीधा साक्षात्कार कराती है। अजंता की गुफाओं पर की कला आदिम युग में मानव की मूर्तिकला की सबसे पहली साक्षी कही जा सकती हैं। ऊर्जा का स्रोत जो प्रागैतिहासिक युग के रहस्यों को अपने में छुपाए है।" दीपशिखा कैनवास पर गढ़े चित्रों को रहस्यमय समझती थी जिसकी एक-एक रेखा न जाने कितने रहस्यों से भरी है।

सभी चित्रकार हुसैन से मिलने के इच्छुक थे। जहाँ एक ओर वे किंवदंती बन चुके हैं वहीं दूसरी ओर अपनी सनक और जूनून के लिए भी मशहूर हैं। शेफाली को 'हुसैन दोशी गुफा' देखने की तमन्ना है जो अजंता की गुफा के तर्ज पर बनी है और जिसमें हुसैन की पेंटिंग लगी हुई है।

"चलो हम देखकर आते हैं' हुसैनी गुफा'।"

सना के प्रस्ताव पर शादाब चहककर बोली - "तुम लोगों ने अभी तक हुसेनी गुफा नहीं देखी... माशा अल्लाह मिरेकिल है, थोड़ी जमीन के नीचे है तो थोड़ी ऊपर... मानो एक ऐसा कैपसूल जो एयर स्पेस में बस छूटना ही चाहता हो। वहाँ उनके काले कटआउट कुछ इस तरह बिखरे हैं जैसे खामोश, गुमनाम परछाइयाँ चल रही हों... सन्नाटा इतना कि खामोशी तक सुनाई न दे।"

"क्या बात है शादाब... तुम तो शायरा हो सकती हो।" सना मंत्र मुग्ध हो बोली। एंथनी ने जोरदार ठहाका लगाया - "ये और शायरा... इसे तो उर्दू तक ठीक से नहीं आती... और है मुसलमान।"

शादाब तुनक गई - "एंथनी, तुम मेरा मजाक मत उड़ाया करो।"

"अरे, बुरा मान गईं?" एंथनी के लहजे में माफीनामा था।

"बुरा न मानने के लिए दिल को मनाना पड़ रहा है, वह कह रहा है सबको चाय समोसे खिलाओ।"

ताबड़तोड़ ऑर्डर दिया गया।

"एक ट्रीट जास्मिन की बाकी है। उसकी पेंटिंग्स काफी अच्छे दामों में बिकी हैं एग्जीबिशन में।"

"हाँ तो एक ही दिन इतना नहीं खाना है और जास्मिन की ट्रीट तो शानदार होगी। चाय समोसे से काम नहीं चलेगा। समोसे गर्मागर्म थे... सभी के बीच बहस के मुद्दे भी गर्मागर्म थे। माहौल खुशनुमा था। और खुशनुमा क्यों न होगा मशहूर हस्तियों की कला ने भी इसी इंस्टिट्यूट ने निखार पाया है। शादाब जिनकी फैन है वे हुसैन भी यहाँ चित्रकारी करते थे। इस इंस्टिट्यूट की बरसों से देखभाल करते उम्रदराज सैयद साहब जिन्हें सब चचा कहते हैं बताते हैं कि "हुसैन का कहना ही क्या था... लाजवाब चित्रकार। उन दिनों उन्होंने एक फिल्म बनाई थी 'थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर' जिसकी शूटिंग राजस्थान के जैसलमेर और रेगिस्तानी इलाकों में हुई थी। मैं भी उनके साथ था। कई दिन हम वहाँ रहे और हुसैन ने एहसास नहीं होने दिया कि हम अपने घर से इतनी दूर हैं।"

सैयद चचा जब भी फुर्सत में होते चित्रकारों के किस्से सुनाते। दीपशिखा ने जाना कि चित्रकला एक तपस्या है जिसमें शुरुआती मेहनत और कष्ट के बाद का हासिल रोमांचक है। वह उस हासिल में दिलोजान से जुट गई।

"क्यों न हम सब एकजुट होकर एक प्रदर्शनी लगाएँ जिसमें सभी के चित्रों की मिली-जुली प्रस्तुति हो।" आफताब के इस सुझाव पर सभी के चेहरे खिल उठे।

"अभिनव प्रयोग रहेगा यह। जहाँगीर आर्ट गैलरी में तारीखें देख लेते हैं कि कब वहाँ जगह उपलब्ध है और काम में जुट जाते हैं।" सना जोश में थी।

"मेरा भी एक सुझाव है।" मुकेश ने कहा।

"हाँ, बोलो न।"

हम आठों मिलकर एक आर्ट ग्रुप स्थापित करते हैं और उसी के तहत प्रदर्शनी लगाएँगे।"

मुकेश के सुझाव पर सभी उछल पड़े - "अरे वाह यार... क्या आइडिया है कसम से... जहाँ को लूट लेंगे हम।"

एंथनी ने एक फ्लाइंग किस मुकेश की तरफ उड़ाया।

"हाँ... तो पहले कॉफी... कॉफी के साथ ग्रुप का नामकरण होगा।"

फोन पर कॉफी का ऑर्डर दिया गया। थोड़ी देर बाद सबके हाथों में कॉफी के मग थे और स्टूडियो में खामोशी। दीपशिखा ने पर्ची पर लिखा अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट'। सैयद चचा को बुलाया गया। नाम की पर्ची उन्हीं से निकलवाई गई और इत्तफाक कि दीपशिखा की पर्ची ही सैयद चचा ने निकाली। नामकरण के साथ ही सैयद चचा नारियल और बेसन के लड्डू खरीद लाए। मुकेश ने नारियल फोड़कर सभी के स्टूडियो में उसका पानी छिड़का और अगरबत्तियाँ लगाई गईं। यह एक ऐसी पहल थी जिसने सभी को जोश और उत्साह से भर दिया था। दूसरे दिन शादाब और एंथनी जहाँगीर आर्ट गैलरी जाकर प्रदर्शनी की तारीख पक्की कर आए और गैलरी बुक करा आए। सारा खर्च दीपशिखा ने दिया। सबसे पहले निमंत्रण पत्र बना।

"अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट की प्रस्तुति... चित्रकला रॉकपेंटिंग और छायाचित्रों (ट्रांसपेरेंसियाँ) का अनूठा संगम। प्रायोजक - दीपशिखा।"

"नहीं, मेरा नाम नहीं आना चाहिए।" दीपशिखा ने विरोध किया।

"क्यों खर्च तो तुम्हीं कर रही हो।"

"तो क्या हुआ, हम सब अंकुर के ही तो सदस्य हैं।"

"ओ.के... ओ.के..." मुकेश ने सबको शांत किया।

"ऐसा करते हैं जब हमारे चित्र बिकेंगे तो हम उसमें लागत शामिल करके शेयर कर लेंगे इसलिए प्रायोजक का नाम मत दो... क्यों दीपशिखा, ठीक है न।"

फिर भी दीपशिखा भुनभुनाती रही। स्टूडियो से निकलकर सब अपनी-अपनी राह हो लिए थे। मुकेश, दीपशिखा प्रियदर्शिनी पार्क की ओर चले आए। नारियल के पेड़ों के इर्द-गिर्द की चट्टानों पर बैठते हुए दीपशिखा ने सामने फैले समंदर की ओर देखा... लहरें शांत थीं - "दीप, क्यों हर बात मन पर ले लेती हो?" मुकेश ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।

"मैं ऐसी ही हूँ।"

दीपशिखा के बालों का क्लिप मुकेश ने शरारती अंदाज में निकाल लिया। रेशमी सुनहले बालों के संग हवाएँ सरगोशियाँ करने लगीं - "और मैं ऐसा हूँ।"

"वो तो मैं जानती हूँ।" दीपशिखा ने उसके कंधे पर अपना सिर टिका दिया - "तुम्हें जाना तभी तो तुम मेरा हाथ अपने हाथों में लेने का साहस कर पाए।"

"मैं खुशनसीब हूँ, मुझको किसी का प्यार मिला।"

"हूँऽऽ आज तुम मस्ती के मूड में हो... जाओ... पॉपकॉर्न लेकर आओ... आज मैं तुम्हें अपनी कविता सुनाऊँगी।"

"माय गॉड... पॉपकॉर्न खाते हुए कविता पाठ??"

"जाओ न यार... भूख लगी है।"

रात दबे पाँव शमा के करीब आ चुकी थी। समुद्री हवाओं में खुनकी घुलने लगी थी।

"मेरे लिए सूरज का डूबना सच है क्योंकि मैं सूरज का उगना देख ही नहीं पाता।" मुकेश ने पॉपकॉर्न चबाते हुए कहा।

"क्यों? मैं तो हर सुबह सूरज को उगता देखती हूँ... मासूम सा... गोल... नारंगी... बिना किरनों वाला लेकिन झिलमिलाता।"

"फीमेल की यही तो फितरत है... जो चमकदार है उसका साथ देती हैं।"

"ऐसा तुम सोचते हो। तुम मर्दों की सोच ही संकीर्ण है।"

"शुक्रिया... शुक्रिया जानेमन... हाँ तो मैं कह रहा था कि मेरे लिए सूरज का डूबना सच है। मैं जो देखता हूँ वही मेरे लिए सच है। सूर्योदय के समय मैं सोता रहता हूँ। सूरज को अगर समंदर में डूबते हुए देखो तो लगता है जैसे समंदर के हर कतरे ने बड़ी शिद्दत से उसे अपने में समेट लिया है।" और कैमरे की स्क्रीन पर वह डूबते सूरज की तस्वीरें दिखाने लगा - "मैं जो प्रदर्शनी के लिए चित्र बनाऊँगा न, उसकी थीम ही रहेगी डूबता सूरज।"

"मेरी थीम आदिवासी। मैं आदिवासियों पर पहले से ही काम कर रही हूँ।"

"तुम थीम का नाम देना प्रकृति पुत्र।"

गहराती रात में दीपशिखा और मुकेश चट्टान से उठकर तट पर टहलने लगे। सैलानियों की भीड़ के बावजूद दोनों एक-दूसरे में डूबे थे। मुकेश ने दीपशिखा को बाँहों में भरकर चूम लिया। समंदर का कतरा-कतरा पुकार उठा... मरहबा... मरहबा... दोनों के दरम्यान वक्त मानो थम सा गया। लहरें किनारों तक आकर लौटना भूल गईं, रेत में समाने लगीं। समंदर से बर्दाश्त नहीं हुआ, उसने रेत के संग ही लहरों को वापिस खींच लिया।

और दिनों की बनिस्बत आज दीपशिखा को घर लौटने में देर हो गई थी। दाई माँ पाँच-छै बार फोन कर चुकी थीं और हर बार दीपशिखा का जवाब होता... काम में बिजी हूँ, लौटने में देर होगी।"

"इतनी देर कहाँ लगा दी बिटिया... मारे घबराहट के हम तो..." दीपशिखा ने झट दाई माँ के गाल चूम लिए - "क्या दाई माँ... अब मैं बड़ी हो गई हूँ। पर तुम मुझे अभी भी तोतली गुड़िया ही समझती हो... छोती छी... पाली... पाली..."

उसने तुतलाकर अपनी ही नकल उतारी। दाई माँ लाड़ से उसे देखती रहीं। दीपशिखा को दाई माँ लगती भी बहुत सुंदर हैं। गोरा-गोरा मुखड़ा... काली भँवरे सी आँखें और पतले-पतले गुलाबी होठ...

जब सुलोचना की शादी हुई थी तो उनके साथ मायके से दहेज के रूप में दाई माँ ही आई थीं - चूँकि अंतर्जातीय विवाह था बल्कि अंतरधार्मिक भी इसलिए कहीं ससुराल में सुलोचना अकेली न पड़ जाएँ तो संग कर दी गई थीं दाई माँ जो सुलोचना की ही उम्र की थी। वो भी तब जब सुलोचना के लिए मायके का दरवाजा खुल गया था। शुरू-शुरू में तो वे हर दो महीने बाद छुट्टी लेकर अपने पति महेशचंद्र के पास चली जातीं पर फिर यूसुफ खान ने महेशचंद्र को अपने कारोबार में नौकरी पर लगा दिया। पीपल वाली कोठी के सर्वेंट क्वार्टर में दोनों की गृहस्थी बस गई। दो लड़कियाँ हैं उनकी। अब तो घर द्वारवाली हो गईं। दोनों की पढ़ाई-लिखाई, शादी ब्याह का खर्च यूसुफ खान ने ही उठाया। बहुत सारे एहसानों का बोझ लिए दोनों मियाँ बीवी पीपलवाली कोठी के लिए समर्पित रहे। सुलोचना को और यूसुफ खान को उन दोनों पर इतना विश्वास है कि वे दीपशिखा की ओर से एकदम निश्चिंत हैं। दाई माँ को तो लगता ही नहीं कि दीपशिखा उनकी बेटी नहीं है।

टेबिल पर खाना लगाकर दाई माँ फुलके सेंकने लगीं। दो फुलके खाती है दीपशिखा जो दाई माँ हमेशा गर्मा गर्म ही परोसती है उसे। खाना खाते हुए सारे दिन की घटनाओं का बयान सुने बिना दाई माँ उसे सोने नहीं देती। लेकिन दीपशिखा सावधान है। वह भूल से भी मुकेश का जिक्र नहीं छेड़ती। अगर बात खुल गई तो हो सकता है पाबंदियाँ शुरू हो जाएँ क्योंकि पल-पल की खबर दाई माँ के जरिए यूसुफ खान और सुलोचना तक पहुँच जाती है। पीपलवाली कोठी में दिन की और रात की शुरुआत दाई माँ के फोन से ही होती है। दीपशिखा के जन्म के पहले सुलोचना को विशाल कोठी मानो काटने को दौड़ती थी लेकिन अब... कोठी के हर कोने, हर वस्तु में दीपशिखा की मौजूदगी का एहसास है। एक शाम कोठी के लॉन में चाय पीते हुए यूसुफ खान ने कहा भी - "तुम हर महीने एक चक्कर मुंबई का लगा लिया करो।"

"कहो तो दीपू की शादी होने तक वहीं रह जाऊँ?"

"शादी? ये अचानक तुम्हें क्या सूझी? इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया।" यूसुफ खान के चेहरे पर चिंता झलक रही थी।

"दीपू अब छब्बीस की हो गई। तुम क्या उसे बच्ची ही समझ रहे हो? सवाल ये उठता है कि लड़का किस कौम में तलाशा जाए।"

सुलोचना की आँखों की दुविधा यूसुफ खान तुरंत समझ गए। थोड़ा सम्हले - "लड़का मुस्लिम ही होगा।"

"जरूरी तो नहीं, हिंदू भी हो सकता है। यह तो दीपू की पसंद पर निर्भर करता है।"

"यानी कि अब अपना भला बुरा वह सोचेगी? वह तय करेगी कि हिंदू में शादी हो कि मुस्लिम में... है उसे इतनी समझ?"

सुलोचना के चेहरे पर मुस्कुराहट देख वे परेशान हो उठे - "तुम मेरी बात को तवज्जो नहीं दे रही हो।"

"मैं सोच रही हूँ कि आखिर है तो वो हमारी ही बेटी। जब हमने अपनी शादी का फैसला खुद किया तो वह क्यों नहीं कर सकती?"

सुलोचना के याद दिलाने पे उन्हें अपनी शादी याद आ गई। कैसे चार दोस्तों की उपस्थिति में उनका सुलोचना से निकाह हो गया था। निकाह के समय उनका नाम बदलकर निकहत रखा गया था और सभी दंग रह गए थे जब सुलोचना ने निकाहनामे पर उर्दू लिपि में हस्ताक्षर किए थे। फिर सुलोचना की मर्जी के अनुसार यूसुफ खान ने हिंदू रीति से भी शादी की थी। उनका नाम भी बदलकर 'अजय' रखा गया था। तभी दोनों ने तय कर लिया था कि दोनों अपने-अपने ढंग से अपनी जिंदगी जिएँगे। वहाँ उनका कोई दखल नहीं होगा। सुलोचना माँग में सिंदूर भी लगाती हैं, माथे पर बिंदी, मंगलसूत्र... करवाचौथ का व्रत भी रखती हैं। इस सबको लेकर कभी उन दोनों में मतभेद नहीं हुआ। लेकिन युसूफ खान के परिवार वालों को यह बात बड़ी नागवार लगती थी और वे धीरे-धीरे यूसुफ खान को उनके हर हक से बेदखल करते गए। यूसुफ खान ने इस बात की परवाह नहीं की। सुलोचना उनके प्रति बेहद समर्पित और ईमानदार है। वे सुलोचना की मौजूदगी से भरी साँसों को बड़े एहतियात से लेते हैं... लेकिन बेटी के मामले में विचलित हो उठे हैं।

"लगाओ दीपू को फोन... शादी के मामले में उसकी मर्जी पता करो।"

"यूसुफ महाशय... शादी के मामले कहीं फोन पर पूछे जाते हैं। वह दशहरे में आएगी ही। बीस ही दिन तो बचे हैं। तभी बातें करना सही होगा।" कहते हुए सुलोचना ने चाय की आखिरी घूँट भरी और फूलों की क्यारियों की ओर चल पड़ीं... माली को कुछ जरूरी निर्देश देने थे।

दीपशिखा और शेफाली आज जल्दी पहुँच गई थीं स्टूडियो। दीपशिखा आदिवासियों की पेंटिंग्स के साथ-साथ इब्न-ब-तूता पे भी काम करना चाहती थी। जब वह पीपलवाली कोठी में थी, मुंबई नहीं आई थी तब उसने इब्न-ब-तूता पर एक रेखाचित्र बनाया था। इस सैलानी व्यक्तित्व के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान और पास में खड़ा उसका गधा और बच्चों की उसकी कहानियाँ सुन-सुन कर विस्फारित आँखों को उसने रेखाचित्र में उकेरा था। अब वह इस चित्र में इब्न-ब-तूता की लंबी दाढ़ी और उस दाढ़ी में चिड़ियों के घोंसले भी बनाएगी। यही घोंसले तो बच्चों को उसकी ओर आकर्षित करेंगे।

"बहुत मुश्किल है शेफाली उस रहस्यमयी मुस्कान को इब्न-ब-तूता के चेहरे पर चित्रित करना जो सदियों तक शहर-दर-शहर गाँव-दर-गाँव भटकने और सैंकड़ों सालों तक बच्चों को कहानियाँ सुनाने के बाद चेहरे पर उभरती है लेकिन नामुमकिन नहीं।"

"तुम ऐसा कर लोगी दीपशिखा... मुझे पता है।"

"तुम लोगों का भरोसा नर्व्हस भी करता है और उत्साहित भी।"

इतने में मुकेश आ गया... उसके चेहरे पर ताजी खिली मुस्कान थी।

"लो तुम्हारा इब्न-ब-तूता आ गया।" दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

"क्या बात है, मैं चाँदनी में नहा रहा हूँ।" मुकेश ने रोमांटिक होते हुए कहा।

"देख दीपू... मुकेश कवि होने की जद में प्रवेश कर रहा है।" दीपशिखा ने बेहद प्यार भरी नजरों से मुकेश की ओर देखा और अपने काम में लग गई। हालाँकि उसके सभी दोस्तों को उनके प्रेम के बाबत पता है लेकिन दोनों सबके सामने प्रगट नहीं करते। एक स्वस्थ दोस्ती का रिश्ता कायम है सब के बीच। हँसना, खिलखिलाना, एक-दूसरे को छेड़ना, खानापीना और काम में जुटे रहना... दिन मानो पंख लगाए उड़े चले जा रहे थे। लेकिन एक रूटीन दीपशिखा और मुकेश के बीच बिना चूके चलता रहा। स्टूडियो के बाद कभी प्रियदर्शिनी पार्क, कभी गिरगाँव चौपाटी, कभी मरीन ड्राइव के समुद्री तट पर तीन-चार घंटे गुजारना और दीपशिखा को घर के गेट तक पहुँचाना। जुहू तट पर वे कभी नहीं जाते थे क्योंकि वह दीपशिखा के घर के एकदम नजदीक था। दीपशिखा अब मुकेश की जरूरत थी और मुकेश दीपशिखा की। इस जरूरत ने दोनों को ऐसे तारों से जोड़ दिया है जिसे तोड़ना आसान नहीं। एक-दूसरे के अंदर से गुजरते हुए जैसे दोनों बारीक तार हो गए हैं और उनका वजूद बारीक तारों से बुना जाल बन गया है। इस गहराते प्रेम जाल में दोनों कोमलता से समा गए थे। जाल से आजाद होना अब उनके वश में न था। दीपशिखा हवा में डोलती पंखुड़ी सी मुकेश के दिल में समा गई थी और मुकेश के जिस्म का कोना-कोना महक उठा था। हवा ने उन्हें शरारत से देखा और पंखुड़ियाँ छितरा कर हँस दी। कोयल एन कानों के पास झुककर कुहुक उठी... जाने कहाँ से आवाज आई... दीप... दीप... दीप... मुकेश... मुकेश... मुकेश की दोनों के दिल की पहाड़ियों ने दूधिया झरने छलका दिए।

दशहरे पे दीपशिखा दाई माँ के संग पीपलवाली कोठी आई। महेश काका फ्लैट की देखभाल के लिए मुंबई में ही रुक गए। दाई माँ की बड़ी बेटी की जचकी होने वाली थी सो आते ही वे उसके पास गाँव चली गईं। सुलोचना को दीपशिखा कुछ बदली-बदली सी नजर आई। खूबसूरत तो वह बला की थी तिस पर मुकेश के प्रेम ने उसके चेहरे को गुलाब सा खिला दिया था। वह बेहद खुश रहने लगी थी। संगीत, चित्रकला से उसे हद्द दर्जे का लगाव था... सुलोचना ने एक और रूप देखा उसका... सुबह उठकर योगासन, प्राणायाम के बाद वह अपने मोबाइल में फीड गाने लगाती और नाचती... नाच भी गजब के! बिल्कुल फिल्मी स्टाइल वाले। वे चकित थीं कि उनकी धीर, गंभीर बेटी में आकांक्षाओं के साथ-साथ यह चंचलता, यह जीवंतता कैसे, कहाँ से आ गई? फिर उन्हें याद आया कि नृत्य, संगीत और शेरो शायरी के शौकीन तो यूसुफ खान भी हैं। दीपशिखा जब दस वर्ष की थी तो उनकी कोठी में बनारस घराने के कत्थक नर्तक गोपीनाथ आए थे। उनके नृत्य का आयोजन इसलिए भी और किया गया क्योंकि उस दिन सुलोचना और यूसुफ खान की शादी की सालगिरह थी। कई लोगों को आमंत्रित किया गया था। नृत्य तो रात भर चलता रहा लेकिन हैरत की बात यह थी कि दीपशिखा भी मध्यरात्रि तक जागकर नृत्य देखती रही थी। नृत्य के गीत के बोल थे - "बलमवा मोहे... लालचुनरिया मँगा दे।"

गोपीनाथ जी ने लाल रंग की अनेकों मुद्राएँ प्रस्तुत कीं... खिले हुए पुष्प, सिंदूर से भरी माँग, बिंदी, उगता सूरज, पान का बीड़ा लेकिन बलमवा तब भी नहीं समझे कि चुनरिया का रंग उनकी सजनी को कैसा चाहिए। अंत में यशोदा मैया की गोद में उनके लाल कन्हैया को बताकर नृत्य की समाप्ति हुई। सुबह दीपशिखा ने सुलोचना से पूछा - "माँ, लाल रंग की ही चुनरी लानी है ये कैसे समझाया उन्होंने?" सुलोचना की आँखें रात्रि जागरण से बोझिल हो रही थीं। चाहती थीं थोड़ी देर सो ले पर बेटी की जिज्ञासा को वे टाल नहीं सकती थीं - "दीपू... कोई भी कला हो... एक तपस्या होती है। तुम्हें चित्रकारी का शौक है तो तुम चित्रकारी से अपने मन के भाव प्रगट करती हो वही काम नर्तक अपनी भावमुद्राओं से करता है। गहरे डूबना ही कला का उद्गम है।"

शायद दीपशिखा में चित्रकारी के साथ नृत्य का बीज भी उसी दिन पड़ा हो। उनके प्रश्न का समाधान हो गया था। उन्होंने दीपशिखा को एकांत में बुलाया - "बैठो दीपू।" दीपशिखा समझ गई... माँ किसी मसले पर चर्चा करना चाहती हैं और निश्चय ही यह मसला उससे जुड़ा ही होगा। उसने अपने मन को तैयार किया।

"पहले ममा... मेरी नई लिखी कविता सुनो...

दीपशिखा टकटकी बाँधे सुलोचना को देखे जा रही थी। उसे लग रहा था जैसे मुकेश के साथ चलने का रास्ता अब सुगम होता जा रहा है।

"तो तलाशूँ कोई जीवनसाथी तुम्हारे लिए?"

"इस बार वह चौंकी - "क्या माँ?"

सुलोचना ने अपनी बात दोहराई। इस बीच दीपशिखा को जवाब ढूँढ़ने का मौका मिल गया - "नहीं माँ, मैं शादी के बंधन में नहीं बँधना चाहती हूँ।"

"क्यों? कोई खास वजह?"

दीपशिखा खामोश रही... वह कह भी सकती थी कि उसे मुकेश से प्यार है और वह उसी के साथ जीवन गुजारना चाहती है और अगर यह हो जाता है तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन वह अपेक्षाओं के घेरे में नहीं आना चाहती। शादी और कुछ नहीं बस एक-दूसरे से अपेक्षाओं का लंबा सफर है।

"जवाब दो दीपू, तुम कौन से दिली मंथन से गुजर रही हो?" दीपशिखा सावधानी से बात को खत्म करना चाहती थी कि माँ को शक भी न हो, दुख भी न हो और बेटी पर से उनका विश्वास डगमगाए भी नहीं।

माँ, मैं विश्वविख्यात चित्रकार, कवयित्री होने का सपना पाले हूँ। शादी इस सपने की कतई इजाजत नहीं देती। और माँ शादी तो एक आम बात है, हर व्यक्ति शादी करता है, परिवार बनाता है और एक दिन दुनिया से चल देता है। माँ, क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारी बेटी साधारण जीवन जिए?"

सुलोचना उसके सुलझाव भरे वाक्यों में डूब गईं। उन्हें लगा जो वे नहीं कर पाईं वह दीपू कर रही है। जो वे नहीं सोच पाईं... वह दीपू सोच रही है। असाधारण होकर वे भी जीना चाहती थीं पर समाज और परिवार के विद्रोही तेवरों को नकारते हुए सिर्फ प्रेम विवाह कर पाईं वे और फिर यूसुफ के कदमों तले जन्नत की कामना में समर्पित होती गईं और रह गईं बस एक साधारण औरत बनकर जो मोम सी पिघलती है पर अपने पिघलने का सबब नहीं जानती बस इतना जानती है कि उसका पिघलना दूसरों को उजाला दे रहा है जब कि वह अपने अंदर की उस आँच से पिघलती है जो औरत का रूप बख्शते वक्त विधाता ने उसके सीने में उतार दी थी। सुलोचना ने दीपशिखा कोगले से लगा लिया, सीने में ऐसे दुबका लिया जैसे अपने पंखों के नीचे गौरैया अपने चूजों को दुबकाती है।

"मुझे तुम पर भरोसा है दीपू... तुम जो करोगी ठीक ही करोगी।"

"शुक्रिया माँ... माँ, मैं आम जिंदगी के लायक नहीं। मुझे ऐसे ही अच्छा लगता है। धरती पर रहकर आसमान को देखना। उन आकाशगंगाओं को जिनमें करोड़ों सूरज और चाँद हैं। हम सुई की नोक बराबर भी तो नहीं हैं माँ।"

सुलोचना ने उसकी पीठ थपथपाई और अंदर रसोई घर में चली गईं। यूसुफ खान का प्रश्न अनुत्तरित ही रहा। हालाँकि रात की तनहाई में, अँधेरे में हाथ बढ़ाकर यूसुफ खान ने सुलोचना की हथेली छुई थी।

"क्या कहा दीपू ने?"

सुलोचना ने सारी बातें बताते हुए कहा - "हमें वक्त का इंतजार करना होगा।"

"कब तक?"

"बता नहीं सकती। पर इसके अलावा दूसरा विकल्प भी तो नहीं है हमारे पास।"

यूसुफ खान ने लंबी साँस हरी और अँधेरे में धीरे-धीरे उभरते छत के दूधिया झाड़ फानूस पर नजरें टिका दीं।

मुंबई वापिसी की दीपशिखा की फ्लाइट सुबह 3.30 की थी। रात को दाई माँ अपनी बेटी की जचकी करा के लौटी थीं और बहुत खुश थीं। लड़का जो पैदा हुआ था। रात को ही सुलोचना ने बूँदी के लड्डू मँगवाए थे। दाई माँ के लिए साड़ी और चूड़ियाँ... ढेर सारे मेवे मिठाई, कपड़े, जेवर जच्चा-बच्चा दोनों के लिए दौलत सिंह के हाथ वे कल भिजवाएँगी ऐसा उन्होंने दाई माँ को बताया। दाई माँ की खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी। वे ढोलक लेकर बैठ गईं और लगीं सोहरें गाने। पीपलवाली कोठी गीतों से गुलजार थी। कल सब कुछ शांत हो जाएगा सोचकर सुलोचना उदास हो गईं। सबसे छुपाकर उन्होंने अपनी छलक आई आँखें रूमाल में दबा लीं। इस बार दीपशिखा की बिदाई बोझिल हो रही थी। यूसुफ खान के लिए सुलोचना के लिए और खुद दीपशिखा के लिए भी... जिन माँ पापा ने उसे चौदह बरस बाद पाया था उनकी अपेक्षाओं में खरी कहाँ उतर पा रही थी दीपशिखा? तो क्या वह स्वार्थी है, सिर्फ अपने ही बारे में सोचती है? सहसा वह सुलोचना से लिपटकर सुबक पड़ी - "माँ... मुझे लेकर दुखी मत रहना... मैंने अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया है। माँ, मैं खुद की रही कहाँ?" "ईश्वर तुम्हें सही राह दिखाए दीपू।" कहकर सुलोचना ने अपनी बिटिया को कलेजे से ऐसे भींचा मानो ईश्वर के दिए इस तोहफे को नजर न लगे किसी की।

मुंबई लौटकर जिंदगी को ढरल्ले पर आ जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं। कुछ दिन अवसाद में बीते सखी सहेलियों के साथ के बावजूद... सुलोचना का चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता। बार-बार वह अपराधबोध से ग्रसित हो जाती, कई सवाल दिमाग में मँडराते, क्यों वह उन्हें खुश नहीं रख पा रही हैं क्या कर डाले ऐसा कि माँ के खामोश होठ मुस्कुराने लगें?

"स्टूडियो क्यों नहीं आ रही हो? सब काम रुका पड़ा है।" फोन शादाब का था जबकि शेफाली और मुकेश को वह तबीयत खराब होने के बहाने से टाल चुकी थी। शेफाली तो क्या टलती... आ धमकी घर - "यह क्या चेहरा बना लिया है, हुआ क्या है तुझे?"

उसने सब कुछ बयान कर दिया... शेफाली हँस पड़ी - "इतनी सी बात? एक बार मुकेश से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा, बेचारा मजनू बना तेरे घर और स्टूडियो की सड़कें नाप रहा है।"

तैयार होकर दोनों स्टूडियो पहुँची... फिर ढेरों सवाल... कहाँ थी? क्या हो गया था? प्रदर्शनी के दिन नजदीक आ रहे हैं और आप जनाब...

मुकेश दूर खड़ा बेहद उदास नजर आ रहा था।

"अब आ गई हूँ न! काम पे लग जाती हूँ। तुम सब भी तो कलाकार हो, जानते नहीं कलाकार अपने मूड से ही काम कर पाते हैं।"

"ओऽऽऽ" दोस्तों के समवेत स्वर ने दीपशिखा के चेहरे पर मुस्कान ला दी। मुकेश को मानो जिंदगी मिल गई। वह दीपशिखा के नजदीक स्टूल पर बैठ गया। कैनवास पर इब्न-ब-तूता था।

"यार... ये इब्न-ब-तूता तुम्हारी थीम में फिट नहीं बैठ रहा... इसे बनाकर अलग रख दो और थीम को कंसंट्रेट करो।" मुकेश के कहने पर शेफाली ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई...

"ओ.के. बाबा... लो इब्न-ब-तूता ये गया कोने में, बस।" दीपशिखा ने अधूरी पेंटिंग सचमुच कैनवास से उतार कर कोने में टिका दी। उसकी इस हरकत पर सब खुशी से चीख सा पड़े - "ये हुई न बात।"

"ओ.के. नो बहस... अब हम काम पर लगें?" और दीपशिखा ने ब्रश उठाया।

बाकी लोग अपने-अपने स्टूडियो में चले गए। मुकेश तल्लीनता से दीपशिखा को देखे जा रहा था। शेफाली को लगा इस वक्त उसका यहाँ मौजूद रहना ठीक नहीं - "चलो, मैं चलती हूँ। दीदी को आज शॉपिंग करनी है। रूठ गईं तो मनाना मुश्किल हो जाएगा।"

दीपशिखा समझ गई... उसकी सखी में गजब की समझ है। वह उसके चेहरे के भाव पढ़ लेती है और कभी उसे निराश नहीं करती। उसके जाते ही दीपशिखा मुकेश से अपनी थीम पर चर्चा करने लगी।

"मैं चाहती हूँ मुकेश कि चित्र ऐसे बनाऊँ जो केवल आँखों से ही दिखाई न दें बल्कि भावों के द्वारा महसूस भी किए जा सकें।"

"मसलन?"

"मसलन कि मैं उन रंगों को बिखेरूँ जो अभिव्यक्ति से गूँथे हों... काला रंग महज काला न दिखे... एक भरी पूरी चंद्रविहीन रात दिखे... रात का सन्नाटा दिखे... दृश्य की बेचैनी दिखे... सुनहले रुपहले रंग... महज सुहावनापन न दें बल्कि एहसास कराएँ दिन की समाप्ति का, सूरज के डूबने का, पंछियों के घोंसलों में लौटने का... मुकेश में रंगों के साथ-साथ भावों को भी उतारना चाहती हूँ।"

"तुम कर पाओगी ऐसा... क्योंकि तुम एक कवयित्री हो... तुम बिंदु से रंगों को निकालकर अभिव्यक्ति दोगी... दीप, करो ऐसा, तुममें वो जज्बा है।"

जाने क्या हुआ... कौन सा बोध... कौन से अनागत का संकेत कि दीपशिखा सिहर उठी। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। ब्रश हाथ से छूट गया और वह मुकेश की बाँहों में समा गई। वह कहना चाहती थी कि हाँ, मैं कर पाऊँगी ऐसा... वह कहना चाहती थी कि कर पाने में उसे उसका साथ देना होगा... पर इस साथ की चाहत में दीपशिखा के आगे एक शून्य खुलता गया और उसने घबराकर आँखें मींच लीं।

अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट की प्रदर्शनी मुंबई में चर्चा का विषय बन गई। प्रतिदिन अखबारों में छपने लगा... संभ्रांत घरों के और कला के पारखियों की शामें प्रदर्शनी मन रखे चित्रों की चर्चा में गुजरती रहीं। कुछ चित्रों को छोड़कर लगभग सभी चित्र बिक गए। दीपशिखा का बीस एक चित्र नहीं बिका जो उसने आर्ट गैलरी को उपहार में दे दिया। सभी बेहद खुश थे। शुक्रवार की रात प्रदर्शनी खत्म हुई और शनिवार इतवार मनाने को कोई माथेरान गया तो कोई खंडाला... मुकेश और दीपशिखा महाबलेश्वर चले गए। दाई माँ को समझाकर कि "चिंता मत करना, सोम की सुबह मैं लौट आऊँगी।"

"पीपलवाली कोठी से फोन आया तो?" दाई माँ को जवाब चाहिए था।

"हाँ, तो कह देना, अब इतने दिन लगकर काम किया है तो दो दिन दोस्तों के साथ वीक एंड मनाएँगे और क्या?"

दाई माँ के पल्ले बात पड़ी नहीं... अमीरों की अपनी जीवन पद्धति... इतने साल पीपलवाली कोठी में गुजारकर न वे समझ पाई हैं और न समझना चाहतीं हैं। वैसे भी वे इन दिनों नाती के खयालों में मगन रहती हैं। महेशचंद्र से कहकर ऊन मँगवाया है और छोटे-छोटे मोजे, टोपे, स्वेटर बुनने में लगी रहती हैं। अब उधर ठंड भी तो कितनी पड़ती है।

महाबलेश्वर के वो दो दिन... वक्त मानो ठहर सा गया था दीपशिखा और मुकेश के दरम्यान - "यू नो दीप जिंदगी कितनी पेचीदा है?"

दीपशिखा के हाथों में मुकेश का एक हाथ था और दूसरे हाथ से वह उसके बालों से खेल रहा था। नाव झील की सतह पर आहिस्ता-आहिस्ता डोल रही थी। मल्लाह की मौजूदगी कोई महत्व नहीं रखती। उसे पता है इस रोमेंटिक जगह में प्रेमी या नए शादीशुदा जोड़े ही अधिक आते हैं। पतवार की छप... छप में मल्लाह के गीत की लय अजब समाँ बाँध रही थी। दीपशिखा ने उसके होठों पर हथेली रख दी - "नहीं, कुछ मत कहो... वक्त को यूँ ही बहने दो।"

मुकेश देर तक दीपशिखा की सपनीली आँखों में देखता रहा... देखता रहा कि सपनों का हुजूम वहाँ करवटें बदल रहा है कि उन आँखों में ऐसा कुछ है जो और कहीं नहीं दिखता जबकि वह कहना चाहता था कि जिंदगी उन्हें खूबसूरत लगती है जो उसे तर्क की नजर से देखते हैं और उन्हें भयानक जो उसकी आलोचना करते हैं।

"दीप... जिंदगी के मायने बताओगी?"

"मुझे नहीं पता मुकेश... मेरे लिए जिंदगी ईश्वर का दिया वो कालखंड है जिसमें मुझे आसमान छूना है और पाताल की गहराइयाँ तलाशनी हैं।"

नाव किनारे लग चुकी थी। मुकेश ने मल्लाह को रुपये दिए तो उसने झुककर सलाम ठोंका। पास ही स्ट्रॉबेरी का स्टॉल था। लाल-लाल स्ट्रॉबेरी मानो आमंत्रण दे रही थी। मुकेश स्ट्रॉबेरी खरीद लाया जिसे खाते हुए दोनों होटल की ओर लौटने लगे।

होटल का एक ही कमरा, एक ही बिस्तर... एक-दूसरे पर कुर्बान दीपशिखा और मुकेश... खिड़की पर लगे सुनहले और कत्थई परदों की धीमे धीमे हिलती झालर साक्षी थी दोनों के मिलाप की, हवाओं की चंचल तरंग साक्षी थी दोनों के समर्पण की जो बार-बार उन परदों को छेड़ रही थी। दो रातें... हसीन, नशीली और बहकती दो रातें संग-संग गुजार कर जब दोनों मुंबई लौटे तो दीपशिखा का निखरा-निखरा खूबसूरत चेहरा देख दाई माँ आश्वस्त हुईं - जब गई थी बिटिया रानी तो थकी-थकी लगती थी, अब थकान का कहीं नामोनिशान न था। वह दीपशिखा की लाई पत्तेदार गाजरें, स्ट्रॉबेरी जैम और स्ट्रॉबेरी से भरा पैकेट थाम किचन की ओर मुड़ी - "चाय बनाएँ बिटिया?"

"नहीं कॉफी... कुछ खाने को भी दो, बड़ी भूख लगी है।"

जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली। छै महीने गुजरते देर न लगी। मुकेश भारी उधेड़-बुन में था। पापा का हुक्म था फौरन घर आ जाओ, ममा ने उड़ती-उड़ती खबर दी थी उसे कि कोई लड़की पसंद की है उन्होंने... वह पसंद कर ले, हामी भर दे तो शादी की तारीख पक्की कर ली जाए। मुकेश का काम में मन नहीं लग रहा था... क्या करे? दीपशिखा के संग संबंध बन चुके हैं... एक तरफ यथार्थ है दूसरी तरफ यूटोपिया। एक ओर सच्चाई है तो दूसरी ओर स्वप्न... वह किस सिरे को पकड़े... दोनों में से एक सिरा तो छूटेगा ही जबकि उसके लिए दोनों सिरे महत्वपूर्ण हैं। पापा-ममा को ही समझाना पड़ेगा। सुबह उसने दीपशिखा को फोन किया - "कुछ दिनों के लिए घर जा रहा हूँ। इस बीच तुम अधिक से अधिक पेंटिंग बना लो ताकि लौटकर भोपाल में प्रदर्शनी प्लान कर सकें।"

"अरे... अचानक। और ज्यादा पेंटिंग मतलब तुम देर से लौटोगे?" दीपशिखा उदास हो गई।

"नहीं दीप... जल्दी लौटूँगा... तुम्हारे बिना क्या रह पाऊँगा मैं... अब तुम्हारी आदत हो गई है मुझे।"

"सिर्फ आदत... प्रेम नहीं?"

"तुम भी न... प्रेम से ही तो जरूरत उपजती है। आदत उपजती है।"

"बातें बनाना खूब आता है तुम्हें? जाओ, जल्दी लौटना। मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी।"

स्टूडियो सूना-सूना लग रहा था। हालाँकि सभी संगी-साथी थे। बातें भी अमूमन वैसी ही पर मुकेश की कमी के शून्य ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। दिल में प्यार और बदन में उसके बदन का, छुअन का एहसास... एक नए दौर से गुजर रही थी दीपशिखा। उसकी नजरों में कैद थे महाबलेश्वर के हरे भरे जंगल, बलखाते ऊँचे-नीचे रास्ते, रास्तों पर पसरा सन्नाटा... सन्नाटे में उसकी और मुकेश की हलचल... शांत मंथर झील... झील पर तैरती नावें और मल्लाह के गीत... वह कैनवास में खुद को पिरोने लगी। पहले लहरें उभरीं जो गति की प्रतीक हैं। जीवन गति ही तो है... जैसे लहरें अपने साथ बहुत कुछ लाती भी हैं और ले भी जाती हैं। लहरों को उसने कितने कोणों से उकेरा और हर चित्र में लहरों का सौंदर्य नए-नए रूपों में नजर आने लगा। ओह, कितना रोमांचक है... एक लहर शरीर में भी समा गई है, मुकेश की छुअन की लहर जो माथे से पैर के अँगूठों तक दौड़ गई थी जब मुकेश के होठ उस पर फिसले थे।

"तुम्हारा बदन जैसे साँचे में ढला हो... पत्थर की शिला को तराशकर जैसे मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है।" वह रोमांचित हो उठी थी। अपने इस रोमांच को वह चित्र में ढालने लगी। एक युवती गुफा के मुहाने पर ठिठकी खड़ी है। युवती पत्थर की मूर्ति है मगर चेहरे झोंकों जिंदगी को पा लेने की आतुरता है। आँखों में इंतजार... जिंदगी का... उसने शीर्षक दिया 'आतुरता' ...उसे लगा मानो उसकी आतुरता मुकेश तक पहुँची है। वह समंदर के ज्वार सा उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। पीछे-पीछे फेनों की माला लिए लहरें और रेत में धँस-धँस जाते मुकेश के कदम... वह मुड़कर समंदर के बीचों-बीच लाइट हाउस को देख रहा है जो तेज ऊँची-ऊँची लहरों पर डोलते जहाजों के नाविक को राह दिखाता है।

फिर दौड़ा है मुकेश... अब की बार उसका लंबा कुरता, बाल हवा के तेज झोंकों में उड़ रहे हैं और वह किसी रोमन सा नजर आ रहा है... फिर खुद को उकेरा दीपशिखा ने... दीपशिखा मुकेश की बाँहों में झूल गई है और ज्वार से भरी ऊँची-ऊँची लहरों ने उन्हें भिगो दिया है और समंदर के अंतिम छोर से चाँद झाँका, हँसा और बादलों में समा गया मगर रुपहली चाँदनी फिर भी फूटी पड़ रही है बादलों से... समंदर रजत हो उठा है।

दीपशिखा ने पूरे हफ्ते चित्र बनाए। वॉटर कलर्स के साथ-साथ उसने ग्रेफाइट, क्रेयोंस और ऑइल कलर्स का भी इस्तेमाल किया। हल्के-हल्के रंगों की छटा ने उसके चित्र जीवंत कर दिए... जास्मिन, सना, शादाब, आफताब, एंथनी अवाक थे।

"दीपशिखा... यार, गजब के जीवंत चित्र बनाए हैं। कमाल हो गया... हम भोपाल की आर्ट गैलरी बुक करवा ही लेते हैं। दिसंबर में जब मौसम खुशनुमा होगा और बाजार क्रिसमस के उपहारों से लदा होगा।"

"मगर एंथनी?"

"तो क्या? 25 दिसंबर क्रिसमस के लिए हमेशा से तय तारीख है। हम दिसंबर का पहला हफ्ता बुक कराते हैं। अभी तो दो महीने बाकी हैं।"

दीपशिखा मुकेश को फोन लगा-लगा कर थक गई पर नॉट रीचेबल... पहुँच के बाहर।

"मुकेश का घर कहाँ है आफताब?" दीपशिखा बेचैन थी।

"यू.पी. में है... सुल्तानपुर है शायद।"

"बताता कहाँ है कुछ अपने बारे में।"

सूरज ढलते ही परिंदे घोंसलों की ओर लौटने लगे। स्टूडियो बंद कर दीपशिखा अनमनी सी घर लौटी। दाई माँ की जिद के कारण उसे दो निवाले हलक के नीचे उतारने पड़े। बिस्तर पर लेटी तो लगा सेज काँटों की है, मुकेश खामोश क्यों है? फोन क्यों नहीं करता? बताता क्यों नहीं कि वहाँ कौन सी उलझन में है... कहीं वह धोखा तो नहीं दे रहा? उसे पा लेने की तड़प में वह इतने लंबे अरसे तक उसके आगे पीछे घूमता रहा और अब... जब दोनों एक हो गए... संग-संग जीने मरने की कसमें खा लीं तो वो कौन सा राज है जिसे मुकेश उससे छिपा रहा है... नहीं... नहीं... वह दीपशिखा को धोखा नहीं दे सकता। जरूर किसी मुश्किल से गुजर रहा होगा। वह सोते-सोते चौंककर उठ बैठती। एस.एम.एस. करती तो फेल हो जाता। ट्राई अगेन... ट्राई अगेन... कॉल करती तो नॉट रीचेबल... आखिर हुआ क्या है?

कई हफ्ते बीत गए। भोपाल की प्रदर्शनी के दिन नजदीक आ गए। दीपशिखा ने अपने चित्रों में प्रेम का संसार रच दिया था। पहले वह गुनगुनाते हुए चित्र बनाती थी इसलिए आस-पास की आवाजें सुनाई नहीं देती थीं। अब खामोशी मुकेश की गैर मौजूदगी को बढ़ा देती है। उसके ब्रश में से प्रेम के सातों रंग उभर आते हैं - प्रेम, विश्वास, आतुरता, जुनून, घृणा, तिरस्कार, धोखा... और उसका ब्रश जुनून से छलाँग मारकर सीधा धोखे पर आ जाता है। आफताब सना के कान के पास फुसफुसा रहा था - "खबर पक्की है, मुकेश ने शादी कर ली है।"

जैसे दिल में घूँसा सा लगा हो। कानों में पहुँची इस फुसफुसाहट से पूरे बदन में सनसनी तारी हो गई... वह नहीं ऽऽ की चीत्कार के संग बिखरे रंगों पर ढेर हो गई।

"दीपू... सँभालों खुद को। यह तुम्हें क्या हुआ?" शेफाली भी चीखी। पल भर को वक्त स्तब्ध रह गया।

बंद आँखों में भी मानो हर दृश्य उभर रहा था। पापा आए हैं। वह हवाई जहाज से पीपलवाली कोठी लाई गई है। उसका अपना कमरा... सामने बालकनी की ग्रिल पर चमेली की उलझी-उलझी सी लतर पर खिले फूलों की खुशबू नथुनों में समा गई। माली काका गुलाब की छँटाई कर रहे थे। उसकी ऐसी हालत देख कैंची उनके हाथ में धरी की धरी रह गई... माँ सिरहाने खड़ी डॉक्टर के हर सवाल का जवाब देतीं। डॉक्टर के जाने के बाद लगभग दो घंटे बेहोशी की नींद सोती रही दीपशिखा। उठी तो चिंतातुर माँ को सामने पाया - "मुझे क्या हुआ था माँ?" पूछना चाहा पर तभी सुलोचना बोल पड़ीं - "अब कैसी हो दीपू?"

वह हथेली की टेक लेकर उठी। सुलोचना ने तकियों के सहारे उसे बैठा दिया... उसने पूछना चाहा क्योंकि अब कोई शंका शेष नहीं थी इसलिए कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ माँ?

"तुम्हारे सारे चित्र बिक गए दीपू... शेफाली का फोन था कि प्रदर्शनी बहुत सफल रही।"

"सचऽऽऽ... माँ..." खुशी की लहर ने उसके चेहरे को खिला दिया।

"तुमने मेहनत भी तो बहुत की थी। तुम्हारे पापा बता रहे थे कि चित्र बेहद कलात्मक थे। वे तो मोहित हैं तुम्हारी चित्रकारी से।"

भर आई आँखों के बावजूद वह मुस्कुरा पड़ी।

"माँ, मैं कुछ दिन बिल्कुल अकेले रहना चाहती हूँ। खुद का मंथन करना चाहती हूँ, पहचानना चाहती हूँ।"

"हाँ... तो रहो न इधर।"

"इधर...? इधर तनहाई कहाँ है, मैं लद्दाख जाना चाहती हूँ। बस आठ दस दिन के लिए।"

"पहले पूरी तरह स्वस्थ हो जाओ फिर चली जाना। वहाँ का इंतजाम दौलत सिंह से करवा देंगे।"

दरवाजे के परदे पर टँगी घंटियाँ टुनटुनाईं - "कैसी है मेरी शहजादी? ये देखो, पेपर में तुम्हारी तस्वीर।"

"मेरी तस्वीर?"

"तुम्हारे सारे चित्र फिल्म डायरेक्टर नीलकांत ने खरीद लिए हैं। इसलिए खबर ने भी तीसरे पन्ने पर जगह पाई, तुम्हारे चित्र की और तुम्हारी फोटो के साथ नीलकांत की फोटो... रातों-रात तुम भी स्टार बन गईं दीपू..."

दीपशिखा ने पापा के हाथ से पेपर लेकर पलंग पर फैला लिया। ओह सेलिब्रिटी पेज पर उसकी तस्वीर उसकी पेंटिंग, उसका नाम... आँखें उमड़ आईं... सच है इनसान का जब दिल टूटता है ईश्वर मलहम साथ-साथ भेज देता है। उसे लगा वह पहाड़ से गिरी जरूर पर फूलों की घाटी ने उसे लपक कर कोमल बिछावन दे दी।

इतने दिनों बाद दीपशिखा ने सबके साथ भरपेट डिनर लिया और गहरी नींद सोई।

सुबह वह तरोताजा थी। उसने शेफाली को फोन लगाया। वह चहकी - "अरे छा गई तू तो यार... बंबई, भोपाल के सारे अखबारों में तू छपी है... नीलकांत काफी बड़ी हस्ती हैं। तू जब बंबई लौटेगी तो मिलने चलेंगे उनसे..."

"शेफाली... अरे, मेरा हाल तो पूछ।"

"पूछना क्या... तू अच्छी है... तुझे और कुछ नहीं सोचना है। भूल जा उस धोखेबाज को... उसने तुझे दिया ही क्या? बस... लिया ही लिया है... ऐसे लोग बरबाद हो जाते हैं। अब तुझे केवल और बस केवल ही... अपने पेंटिंग पर ध्यान देना है। तू मशहूर हो गई है। लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं तुझसे।"

हाँ सच... आसमाँ पर बिठा दिया है उसे उसके फैंस ने... और उसे उस जगह को बरकरार रखना है। सहसा वह ऊर्जा से भर उठी। उसे लगा जैसे आसमान उसे आमंत्रण दे रहा हो।

"माँ, कब की टिकट है लद्दाख की?"

"दो तारीख की फ्लाइट है दीपू... तुम्हारा सारा लगेज कैनवास, ब्रश, कलर्स, पेपर्स सब कुछ दौलत सिंह लेह में होटल का कमरा बुक करा के रख आया है। एक जीप का भी इंतजाम हो गया है। पहाड़ी इलाका है, जीप ठीक रहेगी।"

सुलोचना बताती जा रही थीं और दीपशिखा की अटैची तैयार करती जा रही थीं।

एयरपोर्ट में अंदर जाते-जाते सुलोचना और यूसुफ खान के चीयर्स करते हाथ उनके जाने के बाद भी आँखों में कैद रहे। जाँच पड़ताल के बाद वह कुर्सी पर बैठी फ्लाइट अनाउंस होने का इंतजार करती रही। मन नहीं माना तो मुकेश का नंबर डायल किया - "नॉट रीचेबल... पहुँच से बाहर... सच है मुकेश अब पहुँच से बाहर ही हो गया है। उसने बिना आगा-पीछा सोचे मुकेश के साथ इतना बड़ा कदम उठा लिया, अपने भोले-भाले स्वभाव के कारण उस पर भरोसा किया। रिश्तों का मतलब ढूँढ़ने निकली थी पर जहाँ मतलब होता है वहाँ रिश्ते नहीं होते। वह जिंदगी के मेले में ठगी गई... उसका गुनाह था प्यार करना और अगर वो गुनाह था तो वह उस गुनाह को बार-बार करना चाहेगी। फिर क्यों पीड़ा दे रहे हैं वे दिन? क्या खुद पर से भरोसा उठ गया है... भरोसा तो मुकेश ने तोड़ा है... और जिंदगी भरके लिए एक पथराया मौन दिल की तहों में ज्वाला की तरह सुलग रहा है। जो हुआ उसके लिए रोए या क्यों हुआ इस सवाल से जूझे... वह मुकेश को क्यों दोष दे? उसने भी तो यही सब चाहा था। चाहा था मुकेश के शरीर के तेज में खुद को सूरजमुखी की तरह खिला देना... चाहा था उसकी आँखों की झील में डूब जाना... नशीले स्वाद में... बनैले आगोश में... पर अधबीच में सफर से किनारा कर लेना... कैसे सहे दीपशिखा? उसकी आस्था, विश्वास मुकेश की क्षणवादिता के आगे चूर-चूर हो गया है... अब याद आ रहा है उस रात के मंजर का असली रूप... जब मुकेश ने उसे बाँहों में भरकर करीब लिया था और वह कसमसाई थी... मुकेश... ये सब बिना किसी बंधन के?"

"लेट्स एन्जॉय दीप... ये खूबसूरत लम्हे क्या दोबारा आएँगे? इस पल में जियो... देह को मर्यादा से मुक्त करो, देखो जिंदगी कितनी खूबसूरत है।"

वह उलझी लता सी थरथराई थी - "मुझे अपना बना लो मुकेश, वादा करो... कहो तुम मेरे हो।"

"मैं तुम्हारा हूँ... यह वक्त कह रहा है, तभी तो हम साथ हैं, तभी तो मिलन के ये लम्हे नसीब हुए हैं। कुछ मत सोचो दीप... अपनी नसों में आग सुलगा लो और खुद को मुझमें बह जाने दो... ये लम्हा ही सच है जैसे भीतर ली साँस सच है... जैसे दिल की ये धड़कनें सच हैं।" बौनी पड़ गई थी दीपशिखा मुकेश के तर्कों के आगे... उसका सनातन सच, शाश्वत आस्थाएँ और अनवरत भावनाएँ लघु हो गई थीं।

लगातार छै महीनों तक दोनों के बीच बस देह रही। वह शीशम के दरख्त सा मजबूत यौवन और जीवन की अनंत संभावनाओं से लबरेज... हर पल चिटख जाने को आतुर... हर पल मधुदंश देने को बेकरार और वह बूँद-बूँद खुद को लुटाती, रिसती... उसके जीवन का गुलाब तो काँटा ही काँटा रह गया।

लेह पहुँचकर वह अवाक थी। पहाड़ों के इतने रंग। इतनी खूबसूरती!! ईश्वर भी काबिले तारीफ चित्रकार है। एयरपोर्ट से बाहर उसके नाम की तख्ती लिए जीप खड़ी थी। ड्राइवर ने सलाम किया और उसके हाथ से अटैची ले ली। होटल तक का रास्ता बर्फीली हवाओं के कारण खासा लंबा लग रहा था।

"ड्राइवर जी... आपका नाम बताएँगे?"

"जी... नीमा।"

शक्ल सूरत से लद्दाखी लगता था नीमा। लद्दाखी ही तो है। छोटी-छोटी आँखें, चपटी नाक। दीपशिखा के हर एक सवाल का जवाब वह मुस्कुरा कर देता तो चेहरे पर आँखें काली पतली लकीर सी दिखतीं। होटल आ चुका था। कमरे में सामान होटल के कर्मचारी ने पहुँचा दिया और इंटरकॉम पर आधे घंटे बाद डिनर के लिए बुलावा भी आ गया।

"शुबै कितना बजे आऊँ?" नीमा ने अदब से पूछा।

"ब्रेकफास्ट के बाद चलेंगे साढ़े दस तक।"

"ओ.खे." फिर सलाम।

उसके जाते ही वह पलंग पर गिर पड़ी। ओ गॉड, इतनी ठंड! चलो दीपशिखा जी पहले फ्रेश हो लेते हैं। छोड़ो यार, फ्रेश तो हैं ही... चेंज कर लेते हैं और माँ को पहुँचने की खबरकर देते हैं। खुद से बात करते हुए उसने चेंज के लिए अटैची खोली ही थी कि पीली पोशाक पर पहली नजर... मुकेश को ये रंग कितना पसंद था। महाबलेश्वर के एकाकी कमरे में उसने खुद ये पोशाक उसे पहनाई थी और उसके बालों को सँवार कर तस्वीरें खींची थीं - "दीप... पीला रंग जैसे उगता सूरज... पीला रंग जैसे पीली उजास में बुना गया स्वप्न जाल और इस रंग में तुम मेरे दिल की मलिका... ईश्वर ने तुम्हें अपने हाथों से गढ़ा है।"

वह लम्हा आज तक रुका है दीपशिखा के सामने। फिर जाने क्या हुआ... पीली पोशाक उसने अटैची में सबसे नीचे डाल दी...

"फोन बजा।"

"पहुँच गई दीपू?"

ओह, चूक हो गई उससे। आते ही साथ पहले माँ को फोन करना था।

"माँ, इतना खूबसूरत है लेह। अभी तो एयरपोर्ट से होटल तक के रास्ते से ही गुजरी हूँ। और माँ, बहुत कड़ाके की ठंड है... पता है, मैंने तो कनटोपा भी पहना है। पहाड़ी भालू लग रही हूँ मैं।"

"सुलोचना हँसती रहीं। दीपशिखा सराबोर होती रही।

डिनर के बाद गर्म पानी की थैलियाँ बिस्तर में रखकर और गुडनाइट कहकर कर्मचारी चला गया। वह लिहाफ ओढ़कर सुकून भरी गरमाहट में नींद का इंतजार करने लगी।

नीमा काफी अच्छी हिंदी बोल रहा था। बताने लगा - मैमशाब, आपको पता है लद्दाख जम्मू कश्मीर का ही एक हिस्सा है। उधर तो बहुत आतंकवादी हैं... पर लद्दाख में हम सुरक्षित हैं क्योंकि हमें फौज से बहुत हेल्प मिलती है। फौज हमसे खुश है क्योंकि जब भी सरहद पार से खतरा आता है हम सब लद्दाखी फौज की मदद के लिए आगे आ जाते हैं।" दीपशिखा को नीमा की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो प्राकृतिक दृश्यों में खोई हुई थी। खूबानियों से लदे पेड़ और खेतों में लहलहाती गेहूँ की फसल देख न जाने कितने चित्र वह मन के कैनवास पर उकेरने लगी। तीखी तेज धूप में पहाड़ शीशे से चमक रहे थे। रास्ते के दोनों ओर सुनहले पत्तों से भरे यूलक के पेड़ बेहद खूबसूरत लग रहे थे।

लेह के सबसे बड़े बौद्ध मठ हेमिस में दीपशिखा की मुलाकात बौद्ध लामाओं से हुई। बच्चों से लेकर बड़ों तक जितने भी लामा थे सबके सिर घुटे हुए... शरीर पर एक भी गरम कपड़ा नहीं... गले से पैर तक कत्थई परिधान में उनके गोरे चमकते चेहरे दीपशिखा देर तक देखती रही। लामा बाल्यावस्था में ही बौद्ध धर्म में दीक्षित हो जाते हैं, शादी ब्याह का तो सोचते तक नहीं, घर-घर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने और गरीबों की मदद करने का ये संकल्प लेते हैं।

उसने सीढ़ियों पर बैठकर मठ का और लामाओं का स्कैच बनाया।

नीमा ने सूर्यास्त तक दीपशिखा को ठिक्से मठ, शांति स्तूप आदि दर्शनीय स्थल घुमा दिए। जिन जिन रास्तों से जीप गुजरी सड़क के संग संग सिंधु नदी उसकी हमसफर बनी रही... स्वच्छ पारदर्शी पानी में से तलहटी के गोल-गोल सफेद पत्थर दीपशिखा के मन में नए-नए चित्र रचते गए। कविता इस बार सूझ नहीं रही थी। दो चार लाइनें दिमाग में आती भी तो उनमें मुकेश होता... तो क्या उसकी काव्य प्रतिभा मुकेश के समान ही पहुँच के बाहर हो गई? मुकेश फिर मन में फाँस सा रड़कने लगा। वह होली फिश पांड के किनारे खड़ी सुनहले धाननुमा पौधों के बीच काली सफेद बत्तखों को निहार रही थी। क्वैं-क्वैं की आवाज करती वे उसके नजदीक आ गई थीं। मुकेश ने उसका वहाँ खड़ा रहना दूभर कर दिया... वह तेजी से आकर जीप में बैठ गई - "होटल चलो नीमा।"

नीमा ने मैमशाब का मुरझाया चेहरा देखा और उन्हें खुश करने के लिहाज से डंडीदार सुगंधित सफेद फूल उसकी ओर बढ़ाया - "आपके लिए।"

दीपशिखा ने पलभर नीमा की ओर देखा... फिर फूल लेकर गाल से सटाया और आँखें मूँद लीं।

जीप शाम के सुरमई रास्तों पर चल पड़ी। रात भर बर्फीली हवाएँ चलती रहीं। कमरा हीटर और बिस्तर की गर्म पानी की थैलियों से एकदम नॉर्मल टेंपरेचर पे था फिर भी टूटे दिल की चिनगारियाँ दीपशिखा को होठों के ऊपर और माथे पर पसीने की बूँदों से बेचैन किए थीं। मुकेश की स्मृतियों के हमले से वह लड़खड़ा उठी थी... दर्द की लहर उसकी पसलियों को चीरते हुए माथे के पठार पर रुकी फिर पाँवों के समंदर में छलाँग लगाकर तैरने लगी।

"यह दर्द तुमने खुद चुना है दीपशिखा... अब शिकायत करोगी भी तो किससे?"

शायद रात के तीन बजे नींद आई हो, सुबह जब नींद खुली तो आठ बज चुके थे। धूप खिड़की के बाहर चमक रही थी। उसने खिड़की तक पहुँच कर परदा खींचने को ज्यों ही हाथ बढ़ाया नजरें होटल के लॉन पर जमे बर्फ के ढेर पर गईं। तुरंत खिड़की से इधर-उधर झाँका... बर्फ ही बर्फ... तो रात को बर्फबारी हुई है। उसने इंटरकॉम पर चाय का ऑर्डर दिया और फ्रेश होकर सोफे पर बैठ गई। चाय लाने वाले लड़के से पूछा - "क्या बहुत बर्फ गिरी है?"

"नहीं मैम, थोड़ी सी ही है। अभी पिघल जाएगी।"

"फिर तो रास्ते में कीचड़ मिलेगी।"

"नहीं मैम... धूप तीखी तेज होती है न, घंटे दो घंटे में रास्ता सुखा देगी।"

अरे कमाल है, ठंड इतनी और धूप ऐसी?"

"हाँ मैम, साल के तीन सौ दिन धूप ऐसी ही तीखी तेज होती है और रात को बर्फीली हवाएँ चलती हैं।"

"अनोखा प्रदेश है लद्दाख।"

लड़का मुस्कुराता हुआ चला गया।

जीप में कैनवास और चित्रकारी का सामान लादा गया। पानी की बोतलें... कॉफी से भरा थर्मस और बिस्किट। आज चित्रकारी का पूरा मूड था दीपशिखा का। आज नीमा उसे सिंधु दर्शन के लिए ले जा रहा है। दीपशिखा ने काला लांग स्कर्ट, मरून टॉप और मरून स्वेटर पहना है। ऊँची एड़ी की सैंडिल पहनने का मन था लेकिन घूमने में कठिनाई होगी इसलिए जूते ही पहने। वह सिंधु नदी देखने के लिए उतावली हो रही थी। पहले सिंधु दर्शन के लिए पाकिस्तान जाना पड़ता था। सिंधु नदी हिमालय से निकलकर लद्दाख से बहती हुई पाकिस्तान जाती है और वहाँ से फिर भारत लौटती है। जब लोगों को यह भूगोल समझ में आया तो लेह में सिंधु दर्शन की परंपरा चल पड़ी। अब तो बड़े जोर शोर से सिंधु महोत्सव होता है।

"अरे... यहाँ तो बड़ी भीड़ है, क्या आज ही सिंधु महोत्सव है?"

"नहीं... मैमशाब... फिल्म का शूटिंग चल रहा है। आज सिंधु दर्शन नहीं हो सकता... नो एंट्री है।"

दीपशिखा ने देखा खूब लंबे चौड़े पक्के चबूतरे पर कैमरे ही कैमरे... दौड़ते-भागते लोग... एक आदमी फिल्म डायरेक्टर के सिर पर धूप से बचने के लिए छतरी ताने खड़ा था... वह जीप से बाहर निकली... शूटिंग देखने के बहाने चबूतरे पर सीमेंट से बनी गेरू रंग की छतरी के नीचे जाकर खड़ी हो गई। हीरोइन ने सिंधु जल अंजलि में भरकर होठों से लगाया और पास खड़े दस ग्यारह बरस के लड़के से कहा - "आओ बेटा... आचमन कर लो।"

कैमरे चमके और शॉट ओ.के. ...पैक अपकी घोषणा, फिल्म डायरेक्टर गदबदे बदन का चालीस पैंतालीस बरस का होगा। वह सिंधु नदी का जल स्पर्श करने के लिए सीढ़ियाँ उतर ही रही थी कि कानों में सुनाई दिया - "दीपशिखाऽऽऽ"

वह पलटी... सामने फिल्म डायरेक्टर - "आप चित्रकार दीपशिखा ही हैं न?"

"जी... आप मुझे कैसे जा..."

"हम तो आपके मुरीद हो गए हैं। भोपाल में लगी एग्जीबिशन से आपके सारे चित्र खरीदे हमने। वाह, आपके हाथों में जादू है।"

"आप नीलकांत ठक्कर!!" वह अवाक थी। शूटिंग देखने आई भीड़ अब नीलकांत के साथ-साथ दीपशिखा के भी ऑटोग्राफ लेने लगी।

"आप कहाँ रुकी हैं?"

होटल का नाम बताने पर अब चौंकने की बारी नीलकांत की थी - "हम भी तो उसी होटल में अपनी टीम सहित रुके हैं। क्या इत्तिफाक है।" दोनों मुस्कुराए।

"अगर कोई और प्रोग्राम न हो तो हम साथ में डिनर लें?"

दीपशिखा के पास इनकार करने की कोई वजह नहीं थी। उसका कद्रदान कोई मामूली इनसान तो न था। इतना बड़ा फिल्म डायरेक्टर... हिट फिल्मों का नामवर आदमी...

"आई डोंट माइंड।"

नीलकांत के ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोला। इस बीच नीमा को दीपशिखा ने वापिस लौट जाने को कह दिया। कार में वह नीलकांत के बाजू में बैठी। तेज परफ्यूम की खुशबू कार में समाई थी। नीलकांत की उँगलियों में हीरा, नीलम, पन्ना चमक रहा था। सूरज ढल चुका था। सुरमई अँधेरा पहाड़ों को क्षितिज के कैनवास पर चित्रित कर रखा था। नीलकांत ने सनग्लासेज उतार दिए। उसकी आँखें नीली थीं जो उसके गोरे चेहरे पर खूब फब रही थीं।

"मैं आपको थीम दूँगा, क्या आप उस पर पेंटिंग बनाएँगी।" नीलकांत ने खामोशी तोड़ी।

"फिलहाल तो मैं फ्रांस में अपने चित्रों की एग्जीबिशन प्लान कर रही हूँ।"

"ओ ग्रेट... और कहाँ-कहाँ लग चुकी है आपके चित्रों की प्रदर्शनी?"

रेस्तराँ आने तक दीपशिखा ने नीलकांत के सारे सवालों के जवाब दे दिए। रेस्तराँ के केबिन में दोनों बैठे तो ऐसा एकांत दीपशिखा को असहज कर गया। वह संकोच से भर उठी। न जाने क्या सूझी कि एक अजनबी के साथ यूँ डिनर पर चली आई। वो भी फिल्मी आदमी। इन पर भरोसा भी तो नहीं किया जा सकता? तो क्या मुकेश भरोसेमंद साबित हुआ? नहीं... नहीं, सारे मर्द एक जैसे नहीं होते।

"क्या लेंगी... ठंड बहुत ज्यादा है थोड़ी ब्रांडी और स्टार्टर में चिकन लॉलीपॉप।"

ब्रांडी की एक छोटी बॉटल तो सुलोचना ने भी उसके बैग में रखी थी कि ठंड ज्यादा हो तो थोड़ी सी पी लेना, गर्मी रहेगी।

"क्या सोच रही हैं? कम ऑन... यहाँ का वैदर रात को बर्फीला हो जाता है। खुद की सुरक्षा के लिए ब्रांडी दवा जैसी है।"

तब तक बैरा ऑर्डर की गई सामग्री रख गया था। नीलकांत के आत्मीय व्यवहार से दीपशिखा खुलती गई। इस बेहतरीन वक्त के लिए वह किसे शुक्रिया कहे? ईश्वर को या नीलकांत को?

होटल लौटते हुए उसे बदन में गरमाहट महसूस हो रही थी। ब्रांडी वाकई अच्छी थी। नीलकांत उसे कमरे तक छोड़ने आया... "कल पैंगोग लेक के किनारे कुछ शॉट्स लेने हैं... "आप चलेंगी तो मुझे खुशी होगी।"

"सुबह बताऊँगी।"

"मैं इंतजार करूँगा, गुडनाइट।"

नीलकांत के विदा होते ही उसने दरवाजे को अच्छी तरह बंद किया और चेंज करके गर्म बिस्तर में घुस गई। सोचा था तुरंत सो जाएगी पर मुकेश उसे हांट करता रहा। सोचते-सोचते आधी रात हो गई तब कहीं जाकर नींद आई।

लॉन के फूलों भरे पौधे धूप में नहा रहे थे। इंटरकॉम पर नीलकांत था - "गुडमॉर्निंग... चल रही हैं?"

"ओ.के. ...कितनी देर में निकलेंगे। अभी तो मैं सोकर उठी हूँ।"

"एक घंटे बाद?" नीलकांत की आवाज की मिश्री कानों से होठों तक लरज गई।

"ओ.के." रिसीवर रखते ही कदमों में फुर्ती आ गई। ब्रश करते करते उसने चाय का ऑर्डर दिया। आज वह पीली ड्रेस पहनेगी। देखती है इन हसीन वादियों में वह पीले रंग के साथ कितना कंप्रोमाइज कर पाती है। आज का पूरा दिन नीलकांत के साथ गुजरेगा। क्या वे लम्हे उसे कचोटेंगे जो पीले रंग के साथ अनायास जुड़े हैं? क्या धोखे की यादों से ठसाठस भरे दिल को पैंगोंग झील के किनारे उलीच पाएगी? शायद हाँ... हाँ, वह कोशिश करेगी।

इत्तिफाक। नीलकांत ने भी नीली जींस पर पीली टी शर्ट पहनी थी। उसे देखते ही मुस्कुराया - "व्हाट ए कोइंसिडेंट।"

अब उसे पीले रंग के साथ संघर्ष करना है। यानि कि जो सामने मौजूद है... सहज है... उसके लिए संघर्ष। आज वह कैनवास भी नहीं लाई। स्केच बुक और पेंसिल लाई है... आज उसे खुद को सीप में पिरोना है तभी तो मुक्ता रूप पकेगा।

मनाली चायना बॉर्डर रोड पर नीलकांत की टीम का काफिला चल पड़ा।

"नामग्याल जी... थोड़ा बताते चलिए, हमारे लिए तो यह जगह अननोन है।"

आशुतोष ने ड्राइवर से कहा तो वह अपने पीले दाँतों को निपोर कर मुस्कुराया - "जी शाब।"

"आपको पता है दीपशिखा जी, आज हम समुद्र सतह से 17586 फीट की ऊँचाई तय करने वाले हैं। वहाँ से 13900 फीट पर है पैंगोग झील।"

"जी... और वह 134 कि.मी. एरिया में फैली है। 100 कि.मी. चायना में और 34 कि.मी. भारत में।"

"अरेवाह! यानी कि आप सही मायने में टूरिस्ट हैं।" वह मुस्कुराई... नीलकांत भी।

"शाबजी, आज ड्राई डे है।" नामग्याल ने जानकारी दी।

"यानी कि आज लेह वासी शराब नहीं पिएँगे? मगर क्यों?"

"नहीं शाब जी... वो वाला ड्राई डे नहीं। आज के दिन यानी हर सोमवार कोबी आर ओ के आदमी पत्थरों को डायनामाइट लगाकर तोड़ते हैं इसलिए गाड़ियों की आवाजाही रोक दी जाती हैं।"

"यार तुम हिंदी अच्छी बोल लेते हो।"

नामग्याल गद्गद हो गया।

चाँगथाँग वैली में झील के ऊपर कुछ काली पूँछ वाले परिंदे उड़ रहे थे। काली गर्दन वाले सारस भी थे। लद्दाख में इन्हें समृद्धि का प्रतीक माना जाता है और इसीलिए बौद्ध मठों की दीवारों पर इन्हें उकेरा जाता है। दीपशिखा ने चलती कार में ही इस दृश्य का स्केच बना लिया। नीलकांत उसे मुग्ध आँखों से निहारता रहा। चढ़ाई पर हवा का दबाव काफी कम था। बर्फीली विरल हवा में साँस भरना मुश्किल हो गया। सुलोचना ने कपूर उसके पर्स में रखते हुए कहा था - "चढ़ाई पर इसकी जरूरत पड़ेगी। सूँघती रहना। यह एक अच्छा ऑक्सीजन वाहक है।"

उसने पर्स में से कपूर की एक टिकिया नीलकांत को दी, दूसरी खुद सूँघने लगी। साँसें नॉर्मल हो गईं।

"कपूर मेरे पास भी है। हमें तो रात दिन की भागदौड़ यह सब सिखा देती है पर आप?"

"कुछ खबरें तो हम भी रखते हैं।" दीपशिखा अब नीलकांत के संग सहज हो रही थी।

लंबे रोमांचक सफर के बाद पैंगोग झील सामने थी। मोरपंखी रंगों वाली झील... दीपशिखा ने कार से उतरते ही दूरबीन आँखों से सटा ली। नीला, हरा, बैंगनी, पीला, गाढ़ा नीला... इतने रंगों का पानी... आश्चर्य? पीछे पर्वतों का सौंदर्य अद्भुत था। दो-तीन रंग के पर्वत झील को अपनी गोद में समेटे थे। दूर चुशूल था... वह लैंड जिसके इस पार भारत और उस पार चीन है। सर्दियों में झील जम जाती है। पाँच फीट तक की गहराई में पानी ठोस बर्फ बन जाता है। तब उस पर फौजी गाड़ियाँ चलती हैं जो सीमा पर सैनिक शिविर में सामान पहुँचाती हैं। इतने ठंडे, सुनसान इलाके में सैनिक देश की रक्षा के लिए डटे रहते हैं।"

फिल्म के शॉट्स रेडी थे। धूप में चौकोर बोर्ड सरीखे कैमरे चौंधियाई रोशनी में पलकें बंद कर लेने को मजबूर कर रहे थे। हीरो हीरोइन पर एक गाना फिल्माया गया। गाने के तीन अंतरे में से एक ही अंतरा शूट हो पाया कि लंच टाइम हो गया। सबके लिए पैक्ड लंच था। वह नीलकांत और हीरो हीरोइन के साथ बैठकर लंच लेने लगी। सैनिकों ने उनके लिए टैंट की व्यवस्था कर दी थी और पूरी टीम के लिए फौज की तरफ से कॉफी बन रही थी।

"बोर तो नहीं हो रही हैं दीपशिखा जी?" नीलकांत के सवाल पर दीपशिखा ने चौंकते हुए कहा - "क्याऽऽ इतने खूबसूरत इलाके में कोई बोर हो सकता है भला।"

"नहीं, मैं शूटिंग में बिजी हूँ और आप अकेली, इसलिए पूछा।"

"चित्रकार को अकेलापन वरदान लगता है। काश मैं कैनवास ले आती तो बात ही और थी।"

"अरे, ले आतीं न।"

वह कॉफी की चुस्कियाँ भरती रही।

आधे घंटे बाद शूटिंग फिर शुरू हो गई। वह अपनी स्केच बुक को लेकर रंग बिरंगे पर्वतों और झील के सौंदर्य में डूब गई।

सूर्यास्त के पहले नीचे उतर जाना है। नामग्याल जल्दी मचा रहा था। बहरहाल पैकअप करते करते धूप ढलने लगी थी।

डिनर के लिए फिर नीलकांत का ऑफर... दीपशिखा क्यों इतनी मजबूर थी उसके सामने कि उसके हर प्रस्ताव पर रजामंदी की मोहर लगा देती। कहीं उसके चोट खाए दिल पर नीलकांत मलहम बनकर तो नहीं आ गया था?

हफ्ते भर के लिए आई थी दीपशिखा लेकिन नीलकांत के साथ दस दिन कहाँ चले गए पता ही नहीं चला। हर बार शूटिंग में दीपशिखा नीलकांत के संग होती, जब लौटती तो स्केच बुक चित्रों से भरी होती। प्रकृति को उसने बहुत नजदीक से महसूस किया यहाँ। रंग-बिरंगे पर्वतों के ईश्वर द्वारा बनाए लैंडस्केप को उतनी ही खूबसूरती से उतारना... बर्फ की कठोरता के संग कोमलता भी महसूस करना... अद्भुत दरख्तों से बतियाना... बौद्ध मठों में लामाओं का कठोर जीवन... बौद्ध धर्मावलंबियों की बौद्ध धर्म में इतनी आस्था है कि वे दस वर्ष की उम्र में ही अपने पुत्र को मठ को सौंप देते हैं। उन्हें पता है कि उसका बचपन छिन रहा है और वह सांसारिक सुखों से वंचित किया जा रहा है। अब उसे सारा जीवन वरिष्ठ लामा की देखभाल में बिताना है और बौद्ध भिक्षु बनना है जिसमें कहीं भी उसकी मर्जी को स्थान नहीं है। बौद्ध धर्मावलंबी निर्वाण धम्मचक्र घुमाते हैं और यह मान लेते हैं कि उन्हें जीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल गई। अगर सभी ऐसा मान लें तो एक दिन तो यह संसार मनुष्य विहीन हो जाएगा। तब क्या होगा? घबरा गई दीपशिखा।

एयरपोर्ट पर नीलकांत की टीम का वह भी एक हिस्सा बनकर जब हवाई जहाज में बैठी तो अपने बाजू वाली सीट पर नीलकांत को ही पाया। नीलकांत अपना कार्ड उसे दे रहा था - "पहुँचकर शायद वक्त न मिले। हमें कार्गोबेल्ट में सामान के लिए काफी देर रुकना पड़ता है। बांबे पहुँचकर संपर्क में जरूर रहना। मेरे लिए ये दस दिन बहुत कीमती थे।"

"जी..."

"ऑफकोर्स... फिल्म की शूटिंग पूरी हो जाना एक वजह थी और एक वजह आप। इस चंद्र प्रदेश में मैं ऐसे चाँद की उम्मीद से तो नहीं आया था न।"

कहते हुए उसने लाड़ से देखा उसे। वह भीतर ही भीतर पिघलने लगी।

पीपलवाली कोठी के अपने कमरे में जब वह तरोताजा होकर सुलोचना के हाथ के बने गर्मा-गर्म भजिए खा रही थी तो सुलोचना ने उसके चहरे को गौर से देखा, अब वहाँ पहले वाली उदासी-अवसाद न था बल्कि एक चमक थी जो अक्सर पतझड़ के बाद बहार आने पर पेड़ों के पत्तों में होती है। नई कोंपलों पर जब धूप की किरनें पड़ती हैं तो पूरा जंगल चमक उठता है। सुलोचना जाने को मुड़ीं... कहीं उनकी ही नजर न लग जाए उनकी बिटिया पर -

"बैठो न माँ... इतने दिनों बाद लौटी हूँ मैं। वहाँ की बातें तो रात को सोते समय बताऊँगी। अभी चित्र तो देख लो। फ्रांस में एग्जीबिशन की पूरी तैयारी कर ली है मैंने।"

सुलोचना दीपशिखा के पंखों का वजन तौलने लगीं। सोचने लगीं जब ये पेट में थी तो वे किन खयालों में डूबी रहती थीं... चित्रकार के तो नहीं ही।

नीलकांत मुंबई पहुँच चुका था क्योंकि सुबह-सुबह उसी का फोन था - "कैसी हैं दीपशिखा जी?"

"जी, आप कैसे हैं?"

"एकदम रिलैक्स मूड में। अगले महीने शूटिंग के लिए पेरिस जाना है। वहीं के लिए ऊर्जा जुटा रहा हूँ।"

"क्याऽऽ पेरिस!! आप पेरिस जा रहे हैं?"

"हाँऽऽ... उसमें इतना आश्चर्य क्यों? फिल्म के अंतिम शॉट्स वहीं के तो लेने हैं।"

"ओह... अगले महीने शायद मैं भी पेरिस..."

"क्याऽऽ फिर वही इत्तिफाक... भई वाह, कमाल हो गया।"

"जी हाँ नीलकांत जी। हमारा ग्रुप तो कब से पेरिस में एग्जीबिशन प्लान किए हुए है। मैं कल ही मुंबई लौट कर इसे अंतिम रूप दूँगी और वीजा के लिए अप्लाई करूँगी।"

"इस जद्दोजहद में मत पड़िए। आपकी पूरी टीम को वीजा दिलाने का जिम्मा मेरा। आप मुंबई आइए फिर मिलते हैं।"

एक सनसनी सी फैल गई दीपशिखा के तनबदन में। उसका ख्वाब इतनी जल्दी साकार होगा सोचा न था उसने। वह खुशी में भरकर सुलोचना से लिपट गई - "माँ, फ्रांस में एग्जीबिशन का पक्का हो गया। मुझे कल ही मुंबई लौटना होगा।"

सुलोचना के चेहरे पर बनावटी गुस्सा था - "यह क्या दीपू, अभी आईं, अभी चल दीं।"

"माँ, इस वक्त मत रोको मुझे... अगर मौका हाथ से गया तो क्या पता दोबारा चांस न मिले। माँ प्लीज।"

जो सपना उसकी आँखों में पल रहा था उसके रेशमी सिरों ने पूरा आसमान थाम रखा था। मानो आसमान नहीं कैनवास हो। फ्रांस के चित्रकारों की नकल की एक प्रदर्शनी उसने मुंबई में फ्रेंच दूतावास में देखी थी। उन्हें देखकर मूल चित्रों को देखने की मन में जो लालसा जागी तभी से उसका पूरा ग्रुप फ्रांस जाने और अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाने की धुन में लगा है। 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' बड़ी सक्रियता से काम कर रहा है।

मुंबई इस बार वह अकेली ही आई। सुलोचना और यूसुफ खान ने मान लिया था कि दीपशिखा अपने तरीके से अपनी जिंदगी जीना चाहती है और अगर ज्यादा दखलंदाजी की तो हो सकता है वे बेटी से ही हाथ धो बैठें।

आते ही उसने सारे मित्रों को फोन लगाए, नीलकांत को भी - "आ गई हूँ।"

"वेलकम दीपशिखा, इस वक्त मीटिंग में हूँ। शाम को बात करेंगे।"

शाम को सारे मित्र घर आ गए। दाई माँ और महेश काका जुटे थे रसोईघर में, पावभाजी और गुलाब जामुन की खास फरमाइश थी।

"बड़ी खुशबू आ रही है। क्या कुछ खास बनाया जा रहा है?" शेफाली ने दीपशिखा को बाँहों में भर लिया।

"क्यों नहीं... मेरे दोस्त भी तो खास हैं।"

मुकेश को छोड़कर कहना चाहा शेफाली ने पर वह दीपशिखा के चेहरे की खुशी को उदासी में नहीं बदलना चाहती थी। हो जाता है ऐसा जिंदगी में... जिंदगी के सफर में कई बार अजनबी मिल जाते हैं और सफर अधूरा छोड़कर बिछुड़ जाते हैं। जरूरी तो नहीं कि अंत तक साथ दिया जाए। जितना साथ दिया, उतना कीमती लम्हों के कोष में समा जाता है। जब कभी फुर्सत होगी कोष खोला जाएगा।

शेफाली रसोई घर में गई और गरम-गरम गुलाब जामुन मुँह में भर लिया। दाई माँ हँसने लगीं। वह हँसी तो चाशनी होठों के इर्द गिर्द बह आई।

सभी आ चुके थे, भूखे प्यासे... सबसे पहले खाने पर टूट पड़े फिर इत्मीनान से पेरिस में लगाई जाने वाली प्रदर्शनी पर एकाग्र हुए।

"मेरी थीम तो लगभग पूरी हो चुकी है। महीने भर बाद हमें कूच करना है।" दीपशिखा उत्साह से भरी पूरी थी।

"कला के मैदान के लिए।" सना खिलखिलाई।

"बिना हार जीत की परवाह किए।" एंथनी भी मूड में आ गया। देर रात तक सबने प्रदर्शनी की फाइल फाइनल कर ली। तय हुआ कि कल स्टूडियो में सब अपने-अपने पासपोर्ट और रुपये दीपशिखा के पास जमा कर देंगे। सब चले गए शेफाली को छोड़कर।

"सच बता दीपशिखा, कोई मिल गया क्या? तेरा चेहरा एक किताब है, जिसे मैं पढ़ सकती हूँ।"

जाने क्यों दीपशिखा का मन लड़खड़ा गया। उसका ध्यान शेफाली के इस सवाल पर नीलकांत की ओर क्यों गया?

"नहीं जानती शेफाली पर तेरे सवाल के साथ ही नीलकांत क्यों याद आया समझ नहीं पा रही हूँ।" और उसने लद्दाख में नीलकांत के साथ बिताए दिनों को शेफाली के सामने ब्यौरेवार रख दिया। उसे लगा जैसे वह पंख सी हलकी हो आसमान में तैर रही है। एक बिजली सी जरूर कौंधी मुकेश की यादों की पर बिजली की तरह ही उसके धोखे के काले बादलों में समा भी गई।

"मैं मिलना चाहूँगी नीलकांत से... बस देखा भर है भोपाल के एग्जीबिशन में जब वे तेरे सारे चित्रों को खरीद रहा था। मुझे वह कला का पारखी लगा था।"

लेकिन शेफाली इसलिए भी मिलना चाहती थी कि कहीं उसकी भोली भाली सखी दोबारा न छली जाए।

"मिला दूँगी... कलाकार तो है ही वह... फिल्मों का निर्देशक जो ठहरा।"

शेफाली दीपशिखा के गले लग दरवाजे की ओर बढ़ी - चलती हूँ, अपना ध्यान रखना।"

शेफाली के जाते ही नीलकांत का फोन... मानो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि कब दीपशिखा अकेली हो।

"क्या कर रही हो?"

"कुछ नहीं... अभी-अभी दोस्त विदा हुए हैं। प्रदर्शनी प्लान कर ली है। कल सब अपना पासपोर्ट ले आएँगे। मैं परसों आपको वीजा के लिए दे दूँगी।"

"लेकिन उससे पहले मिलोगी नहीं?"

"कब?"

"कल शाम हम गेटवे ऑफ इंडिया चलेंगे। थोड़ी देर बोटिंग फिर ताज में डिनर।"

वह सकुचा गई। दिल के हर कोने में द्वंद्व मचने लगा। वह दिल की सुने या दिमाग से काम ले।

"चुप क्यों हो दीपशिखा... इतना सोचती क्यों हो? जिंदगी जीने के लिए है और अच्छे, सच्चे दोस्त मुश्किल से मिलते हैं।"

उसके टूटे दिल पर इन शब्दों ने मलहम का काम किया।

"मैं आऊँगी नीलकांत।"

उसने हिम्मत बटोरकर उसका नाम लिया। नीलकांत की आवाज भी लरज गई - "थैंक्यू... डियर, मिलते हैं फिर।"

स्टूडियो में नशा तारी था। यह नशा दीपशिखा सहित सभी चित्रकारों ने विगत दो वर्षों के साथ से अर्जित किया था। मुकेश की कमी अब खलती नहीं थी। वैसे भी कलाकार भावुक होते हैं। सोच लिया कि रही होगी कोई मजबूरी मुकेश की वरना कौन अपने उभरते करियर को ठोकर मारता है। दोपहर को एंथनी ने बीयर मँगाई थी - "आज हम एक-एक जाम मुकेश को अलविदा कहने का लेंगे और फिर काम में तल्लीनता से जुट जाएँगे।" "हाँ, मेरी स्केच बुक और दिमाग में फीड लद्दाख की प्रकृति... बस मुझे उसके साथ खुद को जोड़ देना है। वहाँ के रंग बिरंगे पर्वत, सुनहले पत्तों वाले पेड़, मोरपंखी झील, काली पूँछ वाले सारस सब उड़ते, फिसलते, लुढ़कते... नदी, झील, पहाड़, मैदान, समंदर लाँघते मेरे चित्रों में आ बसें... मेरे कैनवास पर फैलकर अपनी मंजिल पा लें... यूँ लगे जैसे वे अपनी लंबी यात्रा की थकान उतार रहे हों, सुस्ता रहे हों..."

"ए दीपशिखा मोहतरमा... अब चित्र बनाते-बनाते कविता न करने लगना वरना सारे सपने यहीं के यहीं धरे रह जाएँगे।"

"सना बेगम... क्या तुम्हें नहीं पता कि दीपशिखा के चित्र उसके नीचे लिखी कविता की दो पंक्तियों से ही जाने जाते हैं?"

"हाँ, उसी पर तो मर मिटा वोनीऽऽऽऽ"

"शेफालीऽऽऽ" दीपशिखा ने आँखें तरेरीं।

सब उत्सुकता से दीपशिखा को छेड़ने लगे... "कौन... कौन बता न... ये नी कौन है।"

दीपशिखा के चेहरे पर बनावटी रोष था - "इसी से पूछो... ईडियट..."

शेफाली ने अपने कान पकड़कर तौबा की... फिर सब हँसते खिलखिलाते बीयर की मदहोशी में डूब गए।

शाम लौटते परिंदों की चहचहाहट लिए हाजी अली के समंदर को सिंदूरी कर रही थी। कुछ परिंदे लहरों पर छोटी-छोटी कागज की नावों सरी खेडोल रहे थे। जैसी वह बचपन में बनाती थी। वह और शेफाली... और बरसते पानी के जमाव पर तैराती थीं।

"तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा..." दोनों भीग-भीग कर नाचतीं, कपड़े तरबतर और माली काका की प्यार भरी डाँट... "चलो बच्चियों... क्या बीमार पड़ना है।"

दीपशिखा मुस्कुराई।

"क्या हुआ?" शेफाली ने उसकी ओर गौर से देखा - "ये तेरा बेमतलब मुस्कुराना... कहीं..."

"फिर वही... मैं तो तेरे साथ बिताए बचपन के दिन याद कर रही थी। कितना कुछ बदल गया। तब हम कागज की नावें बनाते थे। पानी पर हमारे जहाज चलते थे, बचपन कितना मालामाल था।"

"और आज रंगों से खेल रहे हैं। खेल तब भी था, आज भी है। फर्क बस हमारी उम्र और नजरिए का है।" जाने कहाँ से हवा में तैरता भूखा पत्ता आया और दीपशिखा की सैंडिल में उलझ गया। वह उसे निकालने को झुकी ही थी कि कार के ब्रेक ने उसे चौंका दिया। सामने नीलकांत अपनी लंबी खूबसूरत गाड़ी में था। काले काँच की खिड़की से भी वह उसे देख पा रही थी। दरवाजा खुला। नीलकांत ने सिर बाहर निकाला।

"हाऽऽय... कम इन।"

"मेरी सखी से मिलिए... शेफाली... ग्रेट पेंटर।"

नीलकांत कार से बाहर आया। शेफाली ने नमस्कार करते हुए कहा - "नीलकांत जी?"

"ओ... आप मुझे जानती हैं?"

"आप भूल गए। हम भोपाल में आर्ट गैलरी में मिले थे जहाँ आपने दीपशिखा के सारे चित्र खरीदे थे।"

"ओ.के. ...याद आया। अच्छा लगा आपसे मिलकर और यह जानकर कि आप दीपशिखा की बेस्ट फ्रेंड हैं। चलिए एक-एक कप कॉफी।"

शेफाली का मन तो था पर वह दीपशिखा को नीलकांत के साथ का मौका देना चाहती थी। अपनी टूटे दिल की सखी को जीने का हौसला देना चाहती थी। चाहती थी उसे कोई ऐसा साथी मिल जाए जिससे वह अपने जज्बातों को, एहसासों को शेयर कर सके।

"थैंक्स... पर मैं घर जाऊँगी। इस वक्त मुझे पेरिस को फोकस करना है। मैंने कठिन थीम चुनी है।"

दीपशिखा समझ गई। बेहद लाड़ से उसने शेफाली की ओर देखा और कार में नीलकांत की बगल वाली सीट पर बैठ गई।

"अच्छी है तुम्हारी सखी... अल्हड़ सी, मासूम।"

"कहीं आप उसे लेकर फिल्म इल्म बनाने का तो नहीं सोच रहे हैं?"

"क्यों? बुरा क्या है? हम फिल्म वाले अब इतने भी बेकार नहीं होते।"

"नहीं, मेरा मतलब वो नहीं था। वह चित्रकार है न..."

"तुम भी तो चित्रकार हो... पर मेरे दिल की स्टोरी में हीरोइन के लिए मैंने तुम्हें साइन कर लिया है।"

दीपशिखा अव्वल तो समझी नहीं... जब समझी तो उसके गाल दहक उठे... वह नजरें घुमाकर सड़क की ओर देखने लगी। नीलकांत मुस्कुराता रहा, गुनगुनाता रहा। गेटवे ऑफ इंडिया में... समंदर अब काला दिख रहा था। लहरें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं...रेलिंग पर भीड़ ही भीड़...

"देर कर दी हमने, बोटिंग का वक्त तो अब नहीं रहा। चलो ताज चलते हैं।"

मुगलई सजावट वाले केबिन में बैठते हुए नीलकांत एकदम फ्री अंदाज में उतर आया - "हाँ तो मोहतरमा, साइनिंग अमाउंट दूँ क्या?"

दीपशिखा भोली भाली, एकदम मासूम सी, मोहक अंदाज में मुस्कुराई - "हमें मंजूर नहीं। पहले हम फिल्म की कहानी सुनेंगे।"

"अच्छाऽऽ..." वेटर को कॉफी, नाश्ते का ऑर्डर देकर उसने सामने रखे गुलदान में से गुलाब की एक पँखुड़ी तोड़ कर उसकी ओर बढ़ाई... "तो शुरुआत करें? यह कहानी शुरू होती है लद्दाख की इठलाती, बलखाती नदी सिंधु के तट से... कैमरा जूम... फोकस... हीरोइन नदी के पानी में पाँव डुबोए छप-छप कर रही है। पानी की छप-छप में उसके पैरों में पहनी पाजेब की छुन-छुन भी शामिल है।"

"कट्" दीपशिखा ने कहा और हथेली में दबी पंखुड़ी गालों से सहलाई - "हीरो कहाँ है?"

"उसका अक्स तुम्हारी आँखों में है... मुझे साफ दिख रहा है।"

दीपशिखा की काली आँखों में नीलकांत का चेहरा था।

"चलिए... फिल्म पक्की... साइनिंग अमाउंट तो आप ऑर्डर कर ही चुके हैं। नाश्ता और कॉफी।"

"बऽऽस... इतना ही, हम तो सॉलिड अमाउंट देंगे।" कहते हुए नीलकांत ने उसकी हथेली चूम ली जिसमें अभी-अभी उसकी दी गुलाब की पँखुड़ी दबी थी और जिसकी खुशबू दोनों के दिलों में महक रही थी।

कॉफी पीते हुए दीपशिखा ने पूछा - "घर में अकेले हैं आप?"

"नहीं" नीलकांत गंभीर हो गया।

"बीवी थी... लेकिन हमारे बीच अंडरस्टैंडिंग निल... अब वह अलग रहती है। दो बेटियाँ हैं जिन्हें मैं शनिवार, इतवार को घर ले आता हूँ। कोर्ट ने बस इतनी ही परमीशन दी है। माँ हैं और छोटी बहन... वह फैशन डिजाइनर का कोर्स कर रही है।"

"उसे फिल्मों में नहीं आना है क्या?"

"नहीं... उसे फिल्मी दुनिया से एलर्जी है। बेटियाँ रिया और दिया एक्टिंग की दीवानी हैं। अभी तो पाँच और सात साल की हैं।"

दीपशिखा को नीलकांत की कुछ इसी तरह की जिंदगी का भास सा हो गया था इसलिए वह नॉर्मल बनी रही। ताज से निकलकर नीलकांत ने उसे घर तक छोड़ा, कल मिलने के वादे पर... "कल सबके पासपोर्ट चाहिए होंगे... वीजा के लिए अप्लाई कर देना है... टिकटें तो बुक करा ही लेते हैं... नहीं तो मुश्किल हो जाएगी।"

"हाँ ठीक है... कल उसी जगह पर पासपोर्ट सहित मैं मिलूँगी।"

"ओ.के. गुडनाइट... शब-ब-खैर डियर।"

वह मीठी-मीठी गुनगुनाहट लिए लिफ्ट में आ गई।

सप्ताह बीतते-बीतते जहाँ दीपशिखा के दिल की ओर नीलकांत ने तेजी से कदम बढ़ाए थे वहीं सबको वीजा भी मिल गया, टिकटें भी आ गईं अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट्स अपने लक्ष्य को पाने में कमर कस कर जुट गया। उनके लिए दीपशिखा मेन पॉवर थी। मुंबई, भोपाल और अब पेरिस में प्रदर्शनी उसी की वजह से हो पा रही थी हालाँकि सबका यह भी मानना था कि दीपशिखा को फूल की तरह इसलिए सहेज कर रखना है क्योंकि वह मुकेश को लेकर एक बड़े छल से गुजरी थी। वह कोमल हृदय की छुई-मुई सी दीपशिखा भीतर ही भीतर कोई रोग न पाल ले इस बात को लेकर सब सतर्क थे। शायद दीपशिखा भी, वह नीलकांत के हर उठे कदम पर ब्रेक लगा देती।

"क्यों? दीप... क्यों?"

"तुम मुझे दीप कहते हो नील तो मैं डर जाती हूँ... इस दीप के अक्षरों ने मुझे खुरच-खुरच कर मिटाया है। लगता है जैसे बहुत करीब होना खो देना है, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती।"

नीलकांत ने गौर से दीपशिखा को देखा था... उन आँखों की झील में उसे कुछ कमल खिले तो कुछ मुरझाए नजर आए थे। वह मुरझाए कमलों को खिला देगा, वह दीपशिखा का होकर रहेगा।

दो महीने तक की किसी भी तारीख पर पेरिस में आर्ट गैलरी उपलब्ध नहीं थी। लेकिन नीलकांत की शूटिंग पोस्टपोन नहीं हो सकती थी। करोड़ों दाँव पर लगे थे। तय हुआ बाकी चित्रकार सोलह जुलाई की फ्लाइट लेंगे और दीपशिखा नीलकांत के साथ ही फ्रांस जाएगी ताकि वहाँ का इंतजाम अपनी नजरों के सामने कर पाए।

प्रदर्शनी की तैयारी की वजह से वह पीपल वाली कोठी भी नहीं जा पाई। सुलोचना और यूसुफ खान को ही उसे सी ऑफ करने मुंबई आना पड़ा। जाने से दो दिन पहले वह शेफाली को लेकर नीलकांत के संग हीरा पन्ना में शॉपिंग करती रही। सुलोचना और यूसुफ खान भी एक बड़ा सूटकेस भर कर कपड़े ले आए।

"उधर जरूरत पड़ेगी। महीने भर रुकोगी न तुम?"

"वो तो ठीक है माँ पर शॉपिंग तो मैंने भी कर ली है।"

"तो क्या हुआ, सिलेक्ट कर लेते हैं।"

सुलोचना ने दाई माँ को आवाज दी - "दोनों सूटकेस के कपड़े पलंग पर निकाल कर रखो और इस बड़े वाले सूटकेस पर यह स्लिप चिपका दो।"

दीपशिखा के नाम वाली स्लिप सूटकेस पर चिपकाई गई। कपड़े सुलोचना ने ही सिलेक्ट किए। दीपशिखा देखती रही... 'बेशक, माँ की पसंद लाजवाब है, हर एक ड्रेस के साथ मैचिंग जूलरी, वो भी सिंपल मगर रिच लुक वाली...' गरम कपड़ों का अलग सूटकेस तैयार हुआ। बेटी पहली बार विदेश जा रही है, वो भी अकेले। रात दो बजे तक समझाती रहीं... हिदायतों की लिस्ट लंबी थी। दीपशिखा ऊँघती रही।

मध्यरात्रि तीन बजे की फ्लाइट थी।

"गाड़ी भेजूँ?" नीलकांत ने पूछा।

"नही, माँ, पापा पूरा फ्रेंड सर्किल सी ऑफ करने आ रहा है एयरपोर्ट।"

"ग्यारह, साढ़े ग्यारह तक हर हाल में पहुँच जाना। हमें कस्टम में ज्यादा समय लगेगा... लगेज तुम्हारा भी बहुत होगा।"

"हाँ... पेंटिंग का सारा सामान भी तो है।"

उसके दोस्तों के हाथों में पीले फूलों से भरी डँडियाँ थीं। ये पीला रंग उसका पीछा क्यों नहीं छोड़ता? क्यों जिंदगी के हर खूबसूरत मोड़ पर धमक आता है और वह बिखर जाती है। वह जो स्वयं को नकारते हुए बस वही नहीं रह जाती है जो वह है। वह अतीत को दफन कर देना चाहती है... अतीत सब कुछ भरा होने के बावजूद उसे खाली कर देता है अक्सर।

"क्या शेफाली... और किसी रंग के फूल नहीं थे फ्लोरिस्ट के पास?"

"इस रंग से लड़ना सीखो दीपशिखा, इसे भुलाने की कोशिश बेकार की कोशिश है। सामना करो इसका।"

दीपशिखा की आँखों में पानी तैर आया - "सामना ही तो कर रही हूँ शेफाली..."

सुलोचना और यूसुफ खान को लगा बेटी बिदाई के गम में भावुक हो रही है। सुलोचना ने उसे गले से लगा लिया - "गॉड ब्लेस यू... मेरी गुड़िया।"

ट्रॉली खींचती वह अकेली एयरपोर्ट के अंदर चली गई। अकेला, लंबा सफर जैसे दूर-दूर तक कहीं कोई नहीं, बस है तो वह... उसके कदमों के निशान पीछे छूटते गए... अदृश्य। नीलकांत ने उसे बाँहों में भरकर माथे पर चूम लिया - "अच्छी लग रही हो।"

पेरिस! दीपशिखा के सपनों का पेरिस। उसकी बलवती इच्छा को राह दी नीलकांत ने वरना यह क्या इतना सहज था? एयरपोर्ट के बाहर फिल्म की पूरी यूनिट तीन कोच में समा गई। नीलकांत के लिए कार थी। महँगे पाँच सितारा होटल में उनके कमरे पहले से बुक थे। एयरपोर्ट से होटल तक का रास्ता, वह खिड़की के बाहर देख जरूर रही थी लेकिन जैसे स्वप्नदृश्य में खोई थी। पिकासो, से जाँ... आधुनिक चित्रकार के तीर्थ पेरिस को वह नजरों में भरे ले रही थी। स्वप्न गलियों से गुजरती गलियाँ पक्की, घुमावदार, दोनों किनारों पर लगे बैंगनी और सफेद फूलों से लदे दरख्त।

"मैंने प्लान कर लिया है मैं यहाँ क्या-क्या देखूँगी।" उसने नीलकांत से कहा जो बड़ी देर से फोन पर बिजी था। ठंड बेतहाशा थी, कार अपेक्षाकृत गर्म थी फिर भी ठंड महसूस हो रही थी। होटल पहुँचने में काफी वक्त लग रहा था।

"होटल पहुँचकर तो मैं पहले तुम्हें देखूँगा।" नीलकांत ने शरारत से कहा।

"मुझे?" उसने अपनी मासूम निगाहें नीलकांत पर टिका दीं, वह खिलखिलाकर हँसा।

"हाँऽऽऽ तुम्हें ही तो... अभी देखा कहाँ है?"

वह कुम्हला गई, नीलकांत भी क्या मुकेश की तरह बस जिस्म ही चाहता है उसका?

"क्या यार, मजाक कर रहा था, सीरियसली... जोकिंग। हाँ बताओ, क्या-क्या देखोगी?"

"यहाँ के म्यूजियम, कला के स्कूल, गैलरियाँ, कला स्टूडियो और पोंपेदू सेंटर।" उसने उत्साहित होकर कहा।

"पोंपेदू सेंटर? यह क्या बला है?"

"नील, बला नहीं यह बीसवीं शताब्दी का संग्रहालय है। जिसे फ्रांस के राष्ट्रपति जॉर्ज पोंपेदू ने बनवाया था इसलिए इसका नाम पोंपेदू सेंटर के रूप में फेमस हुआ।"

"चलिए मैम... फिलहाल तो होटल आबाद करिए।" कार खूबसूरत बगीचे वाले लॉन के एक ओर पार्किंग प्लेस पर रुकी। ऊँची-ऊँची चॉकलेटी बुर्जियों वाला गिरजाघर जैसा दिखता होटल। बेहद भव्य रिसेप्शन... उतना ही भव्य उनका स्वागत। कोच पहले ही पहुँच चुकी थीं और पूरी यूनिट बाकायदा अपने-अपने कमरों में बंद हो चुकी थीं। नीलकांत के और दीपशिखा के सुइट की चाबियाँ लेकर होटल बॉय पहुँच चुका था। सुइट आजू-बाजू ही थे।

"तुम फ्रेश हो लो... कॉफी ऑर्डर करते हैं।" वह अपने कमरे में आ चुकी थी। उसने दरवाजा अंदर से लॉक किया और पर्स टेबिल पर रखते हुए फिरकी सी घूमी... 'एन ईवनिंग इन पेरिस... नाउ, आय एम इन पेरिस।'

गुनगुनाते हुए उसने टब बाथलिया। कॉफी बनाकर पी और सुलोचना को फोन लगाने लगी - "माँ, तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं, पेरिस कितना खूबसूरत है।" फिर शेफाली से बात की - "जल्दी आजा शेफाली... यार, रहने लायक जगह है। कुछ दिन बिना किसी तनाव के आई मीन चित्रकारी के बिताएँगे।"

तभी इंटरकॉम बजा - "कॉफी आ गई है। मैं बालकनी में इंतजार कर रहा हूँ।"

वह पतंग में लगी डोर सी खिंचती चली आई नीलकांत के पास। इस बार उसने पहल की। लपककर उसके गले में बाहें डाल दीं - "आई लव यू नील।"

नीलकांत की बाहों में मानो आसमान से चाँद उतर आया, खलबली मच गई, जिस्म के सितारे कानाफूसी करने लगे। नीलकांत ने हौले-हौले उसके चेहरे के हर पोर को चुंबनों से नहला दिया फिर आहिस्ते से उसे सोफे पर बैठाकर केतली से कॉफी निकालने लगा।

"तुम्हारी स्वीकृति भरी मोहर ने मुझे जिंदगी जीने की वजह दी... बड़ी बेवजह जिंदगी जा रही थी।"

"मेरी नहीं नील... मेरी जिंदगी में अगर प्यार नहीं था तो चित्रकारी थी।"

नीलकांत ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा - "झूठी प्यार करता हूँ तुम्हें, इतना भी नहीं समझूँगा।"

उसने शरमाकर पलकें झुका लीं।

हलकी-हलकी बूँदाबाँदी हो रही थी। कोई जिद्दी बादल था जिसने आधा किलोमीटर तक दीपशिखा और नीलकांत की कार का अपनी नन्ही-नन्ही बूँदों से पीछा किया और कार जब सेन नदी के पार्किंग प्लेस पर रुकी तो अच्छी खासी धूप छिटक आई थी। दोनों सेन नदी के सफर के लिए क्रूज पर आ बैठे, नीलकांत उसका हाथ पकड़कर टैरेस पर ले आया। हवा हलकी, खुशबूदार थी। परफ्यूम का शहर जो ठहरा। फ्रांस में चारों ओर फूल ही फूल... वादियों में खिले फूलों का अंबार। यहाँ की मुख्य खेती फूल ही हैं। बहारों के गुजर जाने पर सारे फूल तोड़कर कांसग्रेम में परफ्यूम फैक्टरी में भेज दिए जाते हैं। नदी की शांत लहरों पर क्रूज का चलना पता ही नहीं चल रहा था। फ्रेंच और अँग्रेजी भाषा में कमेंट्री का कैसेट बज रहा था जिसमें बताया जा रहा था कि दाहिने और बाएँ कौन-कौन सी इमारतें हैं। आईफिल टॉवर, ढेर सारे पुल, पुलों के खंभों पर राजा महाराजाओं की मूर्तियाँ जड़ी थीं सफेद पत्थर से बनी। पत्थर के पक्के सीढ़ीदार तट पर कई जोड़े मस्ती कर रहे थे। आज पेरिस में छुट्टी का दिन है। सेन के किनारे कुछ युवा समूह बनाकर नृत्य कर रहे थे। संगीत और ऑर्केस्ट्रा बज रहा था। एक अकेला आदमी सुनसान किनारे पर खड़ा वायलिन बजाता अपने आप में खोया था। दीपशिखा ने उस ओर इशारा किया - "नील, देखो कितनी तल्लीनता से अकेलेपन को एन्जॉय कर रहा है।"

"मैं तो हवा में सिंफनी सुन रहा हूँ।"

"और मैं रोमा रोलाँ को याद कर रही हूँ जिसकी कलम से शब्दों के फूल खिलते थे।"

"तुम कवयित्री हो न... मैं फिल्मकार, सोच रहा हूँ फ्रांस पर एक फिल्म बनाऊँ, यहाँ के फूलों पे।"

"दीपशिखा हँसने लगी - "चलेगी नहीं क्योंकि फूलों पर फिल्म नहीं चित्र बनते हैं हुजूर।"

"नहीं, सच कह रहा हूँ... फूलों पे फिल्म बन सकती है बल्कि परफ्यूम पे।"

"परफ्यूम पे तो बन चुकी है फिल्म 'परफ्यूम द स्टोरी ऑफ ए मर्डरर' जिसमें नायक एक के बाद एक सुंदरियों का अपहरण कर उनके साथ हमबिस्तर होता था और उस दौरान निकले पसीने को इकट्ठा कर उससे परफ्यूम बनाता था। ये परफ्यूम लोग एक्साइटमेंट के लिए लगाते थे।"

नीलकांत ने दीपशिखा के चेहरे को गौर से देखा और उसकी नाक दबा कर बोला - "माई इंटेलिजेंट फ्रेंड, इसीलिए तो मैं फूलों की बात कर रहा था। जानती हो मध्यकालीन फ्रांस में खूब सजी, रंगीन पोशाकें पहनी जाती थीं मानो हर कोई राजघराने का हो। हर जगह बनाव श्रृंगार और मेकअप के किस्से थे लेकिन वे एक-एक पोशाक कई-कई दिन बिना नहाए पहने रहते थे। अपना मेकअप तक नहीं उतारते थे, उसी पर और पोत लेते थे। कई स्त्रियाँ तो अपनी सारी उम्र बिना नहाए ही गुजार देती थीं।"

"ओ माय गॉड... ऐसा सोचना भी दूभर है।" दीपशिखा ने हैरत से कहा।

"स्त्रियाँ ही क्यों, कई पुरुष जीवन में पहली और आखिरी बार तब नहाते थे जब वे सेना में भरती होते थे क्योंकि उस समय उनकी पूरी देह बिना कपड़ों के ही पानी में डुबोकर परीक्षण से गुजरती थी।"

नीलकांत बताना चाहता था कि अमीर घरानों के फ्रांसीसी भी घरमें बड़े-बड़े गमले रखते थे और उसी में लघुशंका, दीर्घशंका कर लेते थे। उस पर मिट्टी ढँककर उसे खाद बनने को छोड़ देते थे। यानी गांधीजी वाला टॉयलेट हर घर में मौजूद था। सामान्य घराने के लोग यह क्रिया घाट मैदान में निपटाते थे। घरों में बाथरूम, टॉयलेट होते ही नहीं थे। पर ये बात वह दीपशिखा से सहज होकर नहीं कह सकता था।

"मुझे लगता है नहाने का चलन न होने के कारण ही परफ्यूम का जन्म हुआ... शरीर को सुगंधित बनाए रखने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है जबकि फूल भी यहाँ बहुतायत से होते हैं।" दीपशिखा ने कहा।

नीलकांत ने घड़ी देखी - "चलिए मदाम, डिनर का वक्त हो गया। क्रूज भी किनारे पर आ गया है।"

कार एक महँगे रेस्तराँ के सामने रुकी। इस भव्य रेस्तराँ में नीलकांत ने पहले से टेबिल बुक करा लिया था। खाना भारतीय था जिसकी खुशबू उन्हें भारतीय होने के गर्व से भर रही थी।

"तुमने ज्याँ पाल सार्त्र का नाम सुना होगा?" नीलकांत ने सूप पीते हुए पूछा।

"हाँ अस्तित्ववाद का मसीहा था वो, दार्शनिक भी और धारा के विरुद्ध चलने वाली लेखिका सीमोन द बोउवार का प्रेमी था।"

"उनका प्रेम दुनिया जानती है।"

"जैसे अमृता प्रीतम और इमरोज।" वह मुस्कुराई।

"और अब हमारा जानेगी दुनिया, नीलकांत और दीपशिखा का।"

दीपशिखा सपनों में खो गई। उसने नीलकांत की हथेली में अपना हाथ दे दिया - "हम भी घर नहीं बसाएँगे, होटल में रहेंगे और रेस्तराँ में भोजन करेंगे जैसे सीमोन और सार्त्र करते थे। हम भी कहवाघरों में घंटों कला पर बहस करेंगे। सारी रात सड़कों पर इस तरह हाथ पकड़े चहलकदमी करेंगे।"

"नहीं, हम यह सब कुछ भी नहीं करेंगे। हमारे पास कला है, हम अपने प्रेम को कला के लिए समर्पित कर देंगे। खुद को बंधनों में नहीं बाँधेंगे लेकिन रहेंगे साथ। मैं भारत लौटते ही जुहू पर एक बंगला खरीदूँगा जिसमें हम रहेंगे और उस बंगले का नाम होगा..."

"बस... बस, पहले बंगला तो खरीदिए... नामकरण भी हो जाएगा।"

"बंगला तो खरीद लिया समझो।" कहते हुए नीलकांत ने प्लेट से टमाटर की स्लाइस उठा उसके मुँह की ओर बढ़ाई... "और यह भी अच्छे से समझ लो दीप, तुमसे रिलेशन बनाने के पहले मैं ईश्वर को साक्षी मानकर तुम्हारी माँग में सिंदूर भरूँगा और तुम्हें वेडिंग रिंग पहनाऊँगा।"

"कुबूल है... तो अब चलें।"

दूसरे दिन से नीलकांत शूटिंग में व्यस्त हो गया और दीपशिखा घूमने में। आर्ट गैलरी बुक हो जाने की खबर उसने भारत में सभी दोस्तों को दे दी थी। सभी की तैयारी समाप्ति की ओर थी और वे भरपूर जोश में थे। उसने शेफाली को फोन पर बताया - "आज मैंने 'मेजोंद ला पाँसे फ्रांसेज' में हेनरी मातीस के कोलाज देखे... जीवंत कोलाज। मूजेद आर मोदर्न भी गई मैं। वहाँ मैंने रुओ, ब्राक, मातीस, शगाल आदि आधुनिक चित्रकारों के मूल चित्र देखे।"

"जब मैं आऊँगी तो दोबारा चलना इन जगहों पर। अभी तक तो इन चित्रकारों के बारे में पढ़ा ही है और उनके चित्रों की अनुकृतियाँ ही देखी हैं।"

"मैं तो मूल चित्रों को देखकर रोमांच से भर उठी हूँ... तुम्हारा इंतजार है।"

दीपशिखा कला में आकंठ डूबी थी और नीलकांत फिल्म की थका देने वाली शूटिंग में... कभी-कभी तो डिनर भी आउट डोर लोकेशन में ही हो जाता। दीपशिखा तब अकेली होती। रात के उन खास लम्हों में वह नीलकांत की गैरमौजूदगी में भी उसे अपने पास ही महसूस करती। कुछ जुड़ सा गया था उससे... 'दिल के बारीक तारों का गुंथन नीलकांत के दिल से। कितना अंतर है मुकेश और नीलकांत में। मुकेश उसके जिस्म को पाना चाहता था पा लिया और छोड़कर चला गया। वह उसे अपने मासूम, अल्हड़ प्यार में अपनी जिंदगी का हिस्सा मानती थी लेकिन नीलकांत उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं बल्कि उसकी जिंदगी है जिसके आते ही उसके एहसासों के पर्वतों पे जाने कितने आबशार गुनगुनाने लगे थे।'

सुबह नाश्ते के बाद वह गाड़ी लेकर निकल पड़ी पेरिस की सड़कों पर। सबसे पहले लूव्र संग्रहालय... विश्वविख्यात सुंदरी मोनालिसा की पेंटिंग के सामने वह बुत की तरह खड़ी रही। कितना दर्द है मोनालिसा के चेहरे पर लेकिन आँखों में हँसी, जैसे कहना चाह रही हो कि दुख से भरी जिंदगी में हँसते रहना एक ईमानदार कोशिश है। संसार की मरीचिका का एहसास दिलाती है यह पेंटिंग। मूजे दल' म... मनुष्य का संग्रहालय जिसमें मानव सभ्यता के गुहाकाल से अब तक के दृश्य हैं। कुछ दुर्लभ चीजें, कुछ तस्वीरें। इंप्रेशनिस्ट... प्रभाववादी चित्रकला का संग्रहालय जहाँ वैनगॉग का स्वनिर्मित आत्मचित्र और विश्वप्रसिद्ध चित्र 'सूरजमुखी' और उनका कमरा है। सेजाँ के चित्र भी जिनके कंस्ट्रक्शन का हवाला ऑरो कार्तीए ब्रेसों ने दिया था। दीपशिखा मानो बिना पंख आसमान में उड़ रही थी। जितने दिन शूटिंग चली वह बार-बार इन संग्रहालयों में जाती। उन चित्रों की बारीकियाँ समझने की कोशिश करती, गैलरियों में चित्रों की प्रदर्शनी देखती... रोदाँ की बनाई विशाल मूर्ति देखती जो फ्रांसीसी लेखक बालजाक की थी। कितना सुंदर है पेरिस... पूरा का पूरा कला संग्रहालय और अपार खिले फूलों से भरा। कहाँ निकल गए इतने सारे दिन?

"ए मेरी पागल चित्रकार... कहाँ हो? मैं कब से होटल में तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।"

"बस, पाँच मिनट में पहुँच रही हूँ। गेट पर ही हूँ।"

नीलकांत होटल के कमरे के सामने गैलरी में चहलकदमी कर रहा था। लिफ्ट से बाहर निकलती दीपशिखा को उसने आलिंगन में भर लिया। नीलकांत के कमरे में वह सोफे पर आराम से बैठ गई।

"डिनर लिया?" नीलकांत ने उसके लिए जूस गिलास में निकाला।

"नहीं जूस नहीं पिऊँगी। कॉफी ऑर्डर करो। मैं स्वादिष्ट चीज पीजा खाकर आ रही हूँ। मैंने पीजा को भट्टी में बनते हुए देखा।"

नीलकांत गौर से दीपशिखा के चेहरे को देखने लगा जिस पर नूर ही नूर था।

"ऐसे क्या देख रहे हो नील... इसलिए कि मुझे पेरिस से प्यार हो गया है? यहाँ की फूलों भरी वादियों से, आर्ट गैलरियों से, संग्रहालयों से? तुम जानते हो नील जब तक तुम शूटिंग में बिजी रहे मैंने पेरिस की तमाम सड़कों को, गलियों को देखा। लेटिन क्वार्टर की सँकरी गलियों में मैं पैदल चली। सदियों की संस्कृति और इतिहास को जैसे संवाद सहित सुनाती हैं यहाँ के बेशकीमती चित्रों से भरे संग्रहालय... आई लव पेरिस..." कॉफी आ चुकी थी। नीलकांत ने उसकी ओर प्याला बढ़ाया "मुझे तो रश्क हो रहा है पेरिस से। एक बार इस नाचीज के लिए भी ऐसा ही कह दो जो तुम पर मर मिटा है।"

दीपशिखा मुस्कुराई - "दिन भर से बाहर थी... बाथ लेकर आती हूँ।"

"छोड़ो बाथ वाथ... फ्रांसीसी नहाते कहाँ थे?" कहते हुए नीलकांत ने उसे गोद में उठाया और बड़ी कोमलता से पलंग पर लेटा दिया। फिर उसके सैंडिल उतारने लगा। दीपशिखा अपने इस पागल प्रेमी के लिए कुर्बान हुई जा रही थी... एक नशा सा तारी था - "आई लव यू नील, हाँ, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूँ, तुम्हारा होना चाहती हूँ।" न जाने पेरिस के रोमांटिक माहौल का असर था या फिजाओं में हर वक्त श्रृंगार के मौसम बसंत के पहरे का या... टूटे दिल की तड़प वह नीलकांत की ओर ऐसी उमड़ी जैसे नदी समंदर की ओर। नीलकांत भी अपनी इस पागल प्रेमिका के संग-संग पागल हो उठा। उसने दीपशिखा के बालों से क्लिप निकालकर उसकी नोक अपने अँगूठे के सिर पर चुभो ली। खून की बूँद छलकी जिसे उसने दीपशिखा की माँग में मोती सा सजा दिया। अब वह उसकी दुल्हन थी। उस रात पेरिस के उस आलीशान होटल के शानदार कमरे में नीलकांत और दीपशिखा एक हो गए। अब उनके बीच ऐसा कुछ न था जो उन्हें दो में बाँट सके।

अलस्सुबह दीपशिखा की नींद टूटी, ठीक उसी वक्त नीलकांत की - "कैसी है मेरी दुल्हन, नींद अच्छे से आई?"

दीपशिखा मुस्कुराने लगी। नीलकांत समझ गया - "क्या फर्क पड़ता है जानूँ, और वैसे शादी के लिए दो लोगों की जरूरत पड़ती है और हम तो एक हैं।"

"टालो मत नील, मेरी मुँह दिखाई दो।" दीपशिखा की आँखों में नशा था।

"क्या लोगी?"

"पूछकर दोगे?"

"आज हम शॉपिंग के लिए चलेंगे... जानूँ के लिए मुँह दिखाई के ढेर सारे तोहफे जो खरीदने हैं। कल तुम्हारे दोस्त मुंबई से आ रहे हैं, फिर अकेले शॉपिंग का वक्त कहाँ मिलेगा?"

दीपशिखा अपने कमरे में आकर तरोताजा होकर नीली पोशाक में नील पारी सी दिख रही थी। उसकी आँखों में गुलाबी नशा तैर रहा था। उसने खुद को आईने में देखा। नीलकांत के खून की बूँद उसकी माँग में बीर बहू टीसी सजी थी। उसने आहिस्ते से उसे छुआ। उतनी ही बड़ी लाल बिंदी लगाई। बाएँ गाल का काला तिल डिठौना बना उसकी खूबसूरती को किसी की नजर न लगे वाले अधिकार से और अधिक काला दिख रहा था। इंटरकॉम पर नीलकांत... ओफ्फो... "कितना बेताब है नील?" वह सोच ही रही थी कि डोर बेल भी बज उठी और पलभर में नीलकांत अंदर - "मैंने चीज ऑमलेट और एस्प्रेसो कॉफी ऑर्डर की है तुम्हारे ही रूम में।" फिर ऊपर से नीचे तक दीपशिखा को देखा - "माशाअल्लाह... जान ही निकाल ली तुमने तो..."

और उसके माथे की बिंदी को चूम लिया - "मुझ डिप्रेस्ड व्यक्ति को तुमने जिंदगी दे दी जानूँ।"

"मुझे सम्हालना, अक्खड़ हूँ मैं।" दीपशिखा ने शरारत से कहा।

"आज हमारा हनीमून डे है। शॉपिंग के बाद हम चेंज के लिए होटल आएँगे और फिर 'एन ईवनिंग इन पेरिस' यानी कि पारादीलातेन शो देखने जाएँगे।"

"ये क्या बला है नील?"

"पता चल जाएगा... सरप्राइज है ये।"

दोनों पेरिस के महँगे शॉपिंग मॉल में शॉपिंग करते रहे और भूख लगने पर तरीके से लंच लेने के बजाय फ्रांसीसी नाश्ते चखते रहे। शाम को होटल लौटकर दीपशिखा के लिए हुक्म था - सबसे बढ़िया ड्रेस और जूलरी पहनना... जूलरी मुँह दिखाई वाली।" हँसते हुए नीलकांत ने कहा और तैयार होने के लिए अपने कमरे में आ गया। शो के टिकट होटल के रिसेप्शन में उपलब्ध थे।

1889 में बना पारादीलातेन पेरिस का सबसे रोमांचक और हसीन कैबरे शो है। जहाँ शादीशुदा जोड़े शादी की ही ड्रेस में सजधजकर जाते हैं। शो के दौरान शैंपेन और लजीज डिनर परोसा जाता है। दीपशिखा ने पहली बार शैंपेन पी थी और वह हलकी खुमारी में थी। कैबरे शो... यानी जवान लड़कियों के गदराए जिस्म की थिरकती, मचलती नुमाइश... दीपशिखा सहज महसूस नहीं कर रही थी क्योंकि तमाम टेबिलों को घेरे बैठे मर्द अपनी औरतों की उपस्थिति के बावजूद नाचती लड़कियों को वल्गर इशारे कर रहे थे... "चलें?" नीलकांत ने शो की समाप्ति तक इंतजार नहीं किया। पेरिस की तीखी चुभती ठंड में वह दीपशिखा को अपने से लिपटाए होटल लौट रहा था।

सुबह नौ बजे दीपशिखा के सभी दोस्त होटल पहुँच गए। सभी के नाम पहले से ही होटल के कमरे आरक्षित थे। सामान रिसेप्शन से कमरों में पहुँच चुका था और दोस्त दीपशिखा के कमरे में। सबको एक साथ देख दीपशिखा चहक उठी... "ओ माय गॉड... आय'म..."

"ए चुप यार... जबकि पता था फिर भी तू रिसेप्शन में नदारद थी।" कहते हुए शेफाली ने दीपशिखा को गले से लगा लिया। दीपशिखा अन्य दोस्तों से भी गले मिली। सना मोबाइल में बिजी थी। उसे गले लगाते हुए दीपशिखा ने कहा - "बंद करो न मोबाइल, इंडिया बाद में फोन लगाना पहले भेंट तो कर लो।"

सना ने कान से मोबाइल सटाए हुए ही जवाब दिया - "लोकल लगा रही हूँ यार। मेरा कजिन है यहाँ तुषार... हाँ तुषार हम यहाँ होटल... कौन सा होटल है दीपशिखा?"

सना की हड़बड़ी से सभी खिलखिलाने लगे। दीपशिखा ने होटल का कार्ड आगे बढ़ा दिया - "सना जी, आप विदेश में अपने देश से आई हैं... इतनी दूर... और आपको अपने होटल का नाम तक नहीं मालूम?"

कॉफी आ गई थी। सना ने भी मोबाइल ऑफ कर दिया था - "तुम लोग भी न... उसी समय सब चाँव-चाँव करने लगे। अरे मेरा कजन था तुषार... न्यूयॉर्क से हमारे एग्जीबिशन के लिए ही आया है यहाँ।"

"ओ ऽऽऽऽ" कहते हुए सब कॉफी खत्म कर अपने-अपने कमरों में चले गए। शेफाली नहीं गई। उसने दीपशिखा के चेहरे की कैफियत पढ़ ली थी - "मैं बेताब हूँ... जल्दी बता अपनी प्रेम कहानी।"

दीपशिखा ने शरमाकर पलकें झुका लीं। शेफाली ने समझ लिया कि उसकी सखी को साथी मिल गया है। पर वह उसी के मुँह से सुनना चाहती थी।

"आओ, लिहाफ ओढ़कर बैठते हैं। मुझे तो बहुत ठंड लग रही है।"

दोनों पलंग पर लिहाफ में घुसकर बैठ गईं। दीपशिखा सिलसिलेवार सब कुछ बताने लगी। उसकी बात की समाप्ति पर शेफाली ने मुस्कुराते हुए कहा - "जिंदादिल है नीलकांत। तुझे खुश रख पाएगा। मैं सचमुच तुझे लेकर रिलैक्स महसूस कर रही हूँ।"

समय काफी हो चुका था। आज का डिनर नीलकांत की ओर से था। कल से वह फिर शूटिंग में व्यस्त हो जाएगा और दीपशिखा अपनी टीम के साथ चित्र प्रदर्शनी में।

डिनर भारतीय रेस्तराँ में था। नीलकांत ने दीपशिखा को लेकर उसके दोस्तों के सामने काफी एहतियात बरती ताकि किसी को भी उनके संबंध पर शक न हो। डिनर के दौरान उसने सभी से चित्र प्रदर्शनी पर जम कर चर्चा की। सभी को नीलकांत का दोस्ताना अंदाज बहुत पसंद आया। तुषार भी आ गया था। सना जैसा ही खूबसूरत, लंबा, हँसमुख... वह न्यूयॉर्क में अपनी मेडिकल की पढ़ाई समाप्त कर सना की चित्र प्रदर्शनी और फ्रांस घूमने के उद्देश्य से पेरिस आया था। सना ने सबसे उसका परिचय कराया। नीलकांत ने हाथ मिलाते हुए कहा - "यहीं बस जाने का इरादा है या भारत लौटेंगे?"

"एक्चुअली पेरिस मेरे लिए बहुत फ्रूटफुल रहा। हफ्ते भर से यहाँ हूँ और यहाँ के मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट से काफी शोधपूर्ण जानकारी मिल रही है मुझे। मेरे कॅरिअर में वह बड़ी सहायक होगी। भारत लौटकर अपना क्लीनिक खोलने का इरादा है।"

"किस विषय में आप स्पेशलिस्ट हैं?"

"मेरे भैया मनोरोग के विशेषज्ञ हैं और उसे फोकस करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।" सना ने लाड़ से तुषार की ओर देखते हुए कहा।

"हाँ, यही मेहनत मेरा रास्ता मंजिल तक पहुँचाएगी। फिलहाल तो मैं बिदा चाहता हूँ। आप सबसे मिलने आया था। बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर। आपकी फिल्म के लिए मेरी शुभकामनाएँ नीलकांत जी।"

नीलकांत ने अपनी गाड़ी से तुषार को छोड़ने की इच्छा जाहिर की - "थैंक्स... मेरा दोस्त आने ही वाला है मुझे लेने। तो चलें सना... शेफाली जी, कल मिलते हैं।"

हाथ मिलाते हुए शेफाली को अपने हाथ में दबाव सा महसूस हुआ जिसे उसने देर तक महसूस किया। तुषार की आँखों में कुछ तो था... भले ही शेफाली उस वक्त नहीं समझ पाई लेकिन जिसे शेफाली और दीपशिखा दोनों ने महसूस किया।

पेरिस में प्रदर्शनी लगाना हर एक चित्रकार का सपना होता है और जब ये सपना समूह में हो तो सपनों के झरोखे अपने आप खुलते जाते हैं। पेरिस का कलावर्ग कलाकारों की बहुत कद्र करता है यह बात कला गैलरी में प्रवेश करते ही 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' के चित्रकारों को बखूबी समझ में आ गई थी। प्रदर्शनी पूरे हफ्ते चली, तुषार बिला नागा आर्ट गैलरी में आता रहा। रात को गैलरी से वे सीधे सेन नदी के किनारे आ जाते और जमकर बहस करते।

"यहाँ सारे विश्व से कलाकार आते हैं और अपनी जगह और मार्केट बनाना चाहते हैं।"

एंथनी के तर्क पर सबने रजामंदी की मोहर लगाई।

"बहुत कंपटीशन है और हमें अपनी ऊँचाइयों तक पहुँचना है।" शेफाली सेन पर चलते क्रूज को एकटक निहार रही थी और तुषार उसे। जब भी दोनों की आँखें मिलतीं शेफाली नजरें झुका लेती।

"ऊँचाई पर तो पहुँचना है पर सबसे अलग दिखना भी है।"

"सना, कहीं तुम निराश तो नहीं हो।"

"नहीं दीपशिखा, निराशा तो मेरे अंदर के चित्रकार को मार देगी। शायद तुम मेरी उदासी को निराशा कह रही हो। तुमने देखा जब आर्ट गैलरी में पेरिस में हनीमून मनाने आए केनेडियन कपल ने मेरे चित्र के बिंबों को रीझती नजरों से देखा था। पल भर को मैं खुद को संपूर्ण चित्रकार मानने लगी थी।"

"तो क्या हुआ सना, इसमें उदासी की क्या बात है?"

"यही संपूर्णता की सोच ही तो कला को खत्म कर देती है दीपशिखा।"

"मैं इस बात से इत्तिफाक रखता हूँ। तुम ने देखा या शायद मुझे लगा कि मैं तुम सबकी कला के बीच आधा अधूरा हूँ।"

"नहीं आफताब, तुम्हारे बनाए मेंटल लैंडस्केप चर्चा का विषय थे। तुमने सचमुच मेहनत की है। रंगों का इस्तेमाल बल्कि रंगों की सिंफनी कह सकते हैं क्योंकि इसमें लयात्मकता, स्पेस, संरचना... तमाम तत्व मौजूद हैं। तुम्हारी भावनाएँ अमूर्तता के बावजूद समझी जा सकती हैं।"

"एक बात तुम सबने नोट की?" दीपशिखा के सवाल पर सबकी नजरें उसके चेहरे पर टिक गईं - "हम पेरिस आकर चिंतक भी हो गए हैं।"

"कहीं दार्शनिक न हो जाएँ, नहीं तो बेड़ा गर्क।"

"मेरा तो फायदा हो जाएगा। मेंटल क्लीनिक चल पड़ेगा।" तुषार के कहने पर सबने एक साथ "यू ऽऽऽ" कहा और माहौल खुशगवार हो गया।

हलकी-हलकी बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। सड़कें ठंडी और सुनसान थीं। पेरिस का जनसमुदाय दिन भर के काम की थकान अधिकतर सेन नदी के किनारे ही मिटाता था। अब भीड़ बढ़ रही थी इसलिए सभी होटल की ओर चल पड़े।

"जितनी दूर तक पैदल चल सकते हैं चलेंगे।" कहते हुए शेफाली ने अपनी जैकेट पहन ली।

"चलना ही पड़ेगा। मजबूरी है, यहाँ गाड़ियाँ तयशुदा जगह पर ही पार्क की जाती हैं और हम पार्किंग प्लेस से दूर हैं अभी।" तुषार साथ-साथ चल रहा था... शायद उसके दोस्त की बाइक भी पार्किंग प्लेस पर मिलेगी।

"तुषार... कहाँ तुम हम कलाकारों के बीच फँस गए।"

"अरे... सना, क्या तुमने बताया नहीं कि मैं रेखाचित्र बनाता हूँ। यह बात दीगर है कि मैंने उसे पेशा नहीं बनाया। मुझे दूसरों के मन को खँगालने की कला भी तो सीखनी थी न।" हँसते हुए उसने शेफाली की ओर देखा, शेफाली ने भी ऐन उसी वक्त तुषार की ओर देखा और इस लम्हे में सिमट आई दोनों की बेचैनियाँ।

"रेखाचित्र में माहिर है तुषार, पोर्ट्रेट तक बना लेता है। तुषार लक्झरी लाइफ जीना चाहता है और सब कुछ अपने बल पर।"

"तो हम्म भी इस बात पर क्यों न सोचें कि कला को कमाई का जरिया कैसे बनाया जाए?" आफताब की इस बात पर सभी पल भर को चौंके। एंथनी ने कहा - "हाँ, आखिर हम कर क्या रहे हैं? हम जीवन जिएँगे कैसे?"

"बहुत से जरिए हैं कमाई के।"

"चित्रों से संबंधित न!"

"ऑफकोर्स एंथनी... कैलेंडर, पुस्तकों के कवर, दवा कंपनियाँ।"

"क्यों इस समय हम इस टॉपिक पर बहस करें? इस समय जबकि हमारी आँखें पेरिस में अपने चित्रों की प्रदर्शनी के सपनों को साकार होते देख रही हैं।"

"ठीक ही तो कह रही है सना।" दीपशिखा ने पार्किंग प्लेस में प्रवेश करते हुए कहा जहाँ नीलकांत ने उनके लिए गाड़ी भेजी थी।

"कितना एक्साइटमेंट है। सोच को जैसे पंख लग गए हैं, लगता है जैसे सारा आकाश हमारा है।"

"सही फरमाया मदाम... पर ड्राइवर कहाँ है?" दीपशिखा ने ड्राइवर को फोन किया। वह आस-पास ही कहीं था। पलक झपकते ही आ गया। बड़ी सी गाड़ी में आठों कहाँ समा गए पता ही नहीं चला। तुषार को दीपशिखा जिद करके बैठने पर मजबूर कर रही थी - "अब तुम्हारा दोस्त नहीं आ रहा तो क्या यहीं खड़े रहोगे?"

"हम भी तो दोस्त हैं आपके।" शेफाली ने अपनी बड़ी-बड़ी शरारती आँखें उस पर टिका दीं। वह कच्चे धागे में बँध चुका था... प्रेम के कच्चे धागे में जिसे तोड़ना आसान है पर निभाना कठिन। गाड़ी के शीशे बता रहे थे कि बूँदाबाँदी रुक चुकी है और अब ठंडी तेज हवाओं का शोर है। फूलों से लदे दरख्तों वाली पेरिस की सड़क पर गाड़ी तैरती सी लग रही थी।

होटल के आते ही सब अपने-अपने कमरों में दुबकने के बजाय ब्रासरी (बार) में आ गए... एंथनी वाइन पीना चाहता था। ब्रासरी में धीमी उत्तेजक रोशनी के दायरे मेजों के आस-पास तिलिस्म रच रहे थे। एंथनी ने सबसे पूछकर वाइन ऑर्डर की हालाँकि दीपशिखा सहित सभी लड़कियों ने मना किया था पर माहौल ऐसा था कि...

"ये हुई न बात कलाकारों वाली।" कहते हुए एंथनी ने आठ गिलासों में वाइन उँडेली। अभी शेफाली ने गिलास होठों से लगाया ही था कि उसका मोबाइल बज उठा -

"एक मिनट, दीपशिखा तुम्हारे लिए फोन।"

"मेरे लिए?" फोन पर नीलकांत था - "फोन क्यों नहीं उठा रही हो, कब से ट्राई कर रहा हूँ।"

उसने तुरंत बैग में से मोबाइल निकाला, नीलकांत के चार मिस कॉल थे - "सॉरी नील, मोबाइल बैग में था।"

"हो कहाँ तुम?"

"होटल में। तुम कहाँ हो?"

"आउट ऑफ सिटी... लोकेशन की तलाश में जहाँ आया हूँ वह जगह बेमिसाल है। इतनी खूबसूरत और रेयर जगह पर शूट करना अपने आप में एक अनुभव है, काश... तुम साथ होतीं।"

दीपशिखा वाइन के सुरूर में थी - "अब पेंटिंग छोड़कर तुम्हारी फिल्म की हीरोइन बन जाती हूँ। बाइ द वे... हम लोग तो परसों फ्री हो जाएँगे और आप जनाब?"

"हमें तो दस दिन और लगेंगे लेकिन मैं परसों की शूटिंग कैंसिल करके तुम्हारे पास आ रहा हूँ।"

"ओ.के. ... रखूँ?"

वाइन खत्म हो चुकी थी ब्रासरी से उठकर वे डाइनिंग हॉल में आगए। ज्यादा कुछ खाने का मूड न था। हलका डिनर ले सब अपने-अपने कमरों में रात की बाँहों में समा गए।

प्रदर्शनी के समाप्त होते ही 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' के सभी चित्रकार नीस के खूबसूरत समुद्र तट पर एक रात गुजारने नीले समंदर की आभा में खो गए थे। नीस का समुद्र तट कहीं-कहीं चट्टानों से भरा है। छोटी छोटी फैली चट्टानें जिन पर रेतीले तट से सीधे दौड़ा जा सकता है। यूँ लगता है जैसे बड़ी-बड़ी चट्टानें तट में समा गई हैं। बस उनके उभार रह गए हैं जो उनकी मौजूदगी का बयान करते हैं। शेफाली तो रॉक पेंटिंग में ही माहिर थी हालाँकि वह मेक्सिको की बहुचर्चित चित्रकार फ्रेडा केड्लो से बहुत प्रभावित रही। आत्मचित्रों के लिए प्रसिद्ध फ्रेडा अमेरिका की सबसे प्रसिद्ध सेल्फ पोर्ट्रेट चित्रकार रही है। भारत में आत्मचित्रों की परंपरा अमृता शेरगिल से आरंभ हुई थी। पेरिस में शेफाली ने आत्मचित्रों को ही अपनी पेंटिंग के रूप में प्रस्तुत किया था और फ्रेडा और अमृता शेरगिल के साथ स्वयं को उपस्थित किया था जो अपने आप में एक अभिनव प्रयोग था। तुषार के शेफाली की तरफ आकर्षित होने की एक वजह उसके बनाए आत्मचित्र भी थे जिनके भावों और मोहक रंगों ने तुषार को गहरे छू लिया था।

दूर-दूर तक फैले समुद्रतट पर चहलकदमी करते हुए उसने शेफाली से पूछा - "क्या आप फ्लोरेंस, वेनिस देखे बिना भारत लौट जाएँगी? फ्रांस और इटली की दूरियाँ पर्यटक महसूस नहीं करते इतने करीब हैं दोनों देश।"

"आप चलेंगे?" शेफली ने सहज हो पूछा।

"और आपकी सखी?"

"दीपशिखा? शायद... पूछ लेती हूँ सबसे आज डिनर के वक्त।"

लेकिन शेफाली के इस प्रस्ताव पर सना को छोड़कर बाकी के लोग तैयार नहीं थे। एक तो खर्च की समस्या, दूसरे भारत लौटने की जल्दी। इस प्रदर्शनी के बाद सभी को अच्छा काम मिलने की उम्मीद थी। नीस के होटल के कमरे के एकांत में दीपशिखा ने शेफाली का मन टटोलने की गरज से पूछा - "शेफाली... एक बात पूछूँ? तुषार के बारे में तू क्या सोचती है? आई थिंक..."

शेफाली ने गहरी साँस ली - "कुछ नहीं छिपाऊँगी तुमसे। मैं भी उसे लेकर डिस्टर्ब हूँ... जैसे सहज बहते जीवन को छेड़ दिया गया हो। शाम को जब हम नीस के समुद्र तट पर टहल रहे थे... धीरे-धीरे रात गहराने लगी थी और सितारे टिमटिमाने लगे थे... उस वक्त सफेद बालू तट पर उभरी चट्टानों में दो चेहरे नजर आ रहे थे... मानो वक्त ने भी हमें स्वीकार कर लिया हो..."

"तेरे आत्मचित्रों का कमाल था जो..."

"नहीं, तुषार से मिलना नियति ने इसी तरह तय कर रखा था शायद। मैं उसे महसूस करने लगी हूँ, वह मेरे दिल में गहरे उतर गया है।"

शेफाली ने आँखें बंद कर लीं। वह एक-दूसरी ही दुनिया थी जहाँ बस धड़कनें थीं और एहसास थे... प्रेम की आँच में धीरे-धीरे गर्म होता ठंडा निस्सार जीवन था। दस्तकें शेफाली के दिल के दरवाजे ढूँढ़ रही थी।

सब भारत लौट गए। दीपशिखा नीलकांत के पास पेरिस चली गई और तुषार, शेफाली और सना फ्लोरेंस रवाना हो गए।

तुषार की विश्वास भरी आँखें दृढ़ व्यक्तित्व के साथ संकोची किंतु प्लावित कर देने वाली कोमलता ने शेफाली के चारों ओर अदृश्य जाल बुन दिया और वह उसमें सिमटती चली गई। तुषार कोमल, भावुक न होता तो कला के प्रति उसका रुझान नहीं होता। कलाकार और कला के शौकीन ऐसे ही होते हैं।

फ्लोरेंस में तीनों जिस बाग में घूम रहे थे वह हरा-भरा, रंग-बिरंगे फूलों और इंद्रधनुषी फव्वारे वाला था। लेकिन उसकी खासियत थी कि चिड़ियों के लिए दाने खरीदकर जब अपनी हथेलियों पर फैलाओ तो चिड़ियाँ टहनियों से उतर आती थीं और हथेली पर बैठकर दाना चुगने लगती थीं। इस खेल में जो रोमांच था वो कैमरों में कैद नहीं किया जा सकता था। रात को जब सना फ्रेश होने के लिए बाथरूम गई शेफाली ने दीपशिखा को फोन लगाया - "कैसी है तू?"

"तू बता... कैसा लग रहा है फ्लोरेंस में तुषार का साथ।"

"दोनों ही बहुत उम्दा लग रहे हैं। दो दिन यहाँ रुककर वेनिस जाएँगे।"

"पानी पे बसा शहर? नहरों की सड़ाँध के लिए मन को तैयार कर लेना। और याद रखना हम शनिवार को मुंबई लौट रहे हैं। तेरी और सना की टिकट मेरे साथ ही है। टाइम पर पहुँच जाना। तुषार कब लौटेगा?"

"हमारे साथ ही, उसी दिन... शायद फ्लाइट दूसरी हो। मुझे ठीक से पता नहीं है।"

"तो पता कर न... प्रपोज क्यों नहीं कर डालती, मनचाहा साथी मुश्किल से मिलता है।"

शेफाली की आँखों में सितारे झिलमिलाने लगे... शायद मन ही मन वह भी ऐसा ही चाह रही थी पर अपनी तरफ से कहे कैसे? यह उतना आसान नहीं है।

वेनिस में रुकना सचमुच कठिन था... घूमते हुए तमाम इमारतें, दर्शनीय स्थल देखे तो पर दीपशिखा की कही बात बार-बार नहरों के ठहरे हुए पानी की ओर ही ध्यान खींच लेती थी। हवाओं में एक तरह की बिसांध थीजो अक्सर रुके हुए पानी से आती है। लेकिन इसी जल नगर में सेंट मार्क्स स्क्वायर में ढेरों कबूतरों के बीच खड़ी सना से नजरें बचाकर तुषार ने आखिर हिम्मत कर ही ली - "शेफाली, क्या हम अपनी जिंदगी साथ-साथ गुजार सकते हैं? मेरे पेरेंट्स पिछले तीन साल से इस कोशिश में हैं कि मैं शादी करलूँ पर कोई जँचता ही नहीं।"

शेफाली को उम्मीद से बढ़कर लगा सब कुछ... लेकिन तुरंत हाँ भी कैसे करे, पता नहीं तुषार उसके बारे में क्या राय कायम कर ले।

"मुझे थोड़ा वक्त दो तुषार।"

उसने अपनी झपकती पलकें तुषार के चेहरे पर एक पल को यूँ झपकाईं जैसे वहाँ कुछ ऐसा है जिसे वह समेट लेनाचाहती है... संपूर्ण हो जाना चाहती है।

तुषार का चेहरा कुम्हला गया। उसने गहरी साँस भरी - "ओ.के. टेक योर ओन टाइम... और किसी भी तरह का प्रेशर भी नहीं समझना इसे। आज हम पेरिस के लिए रवाना हो जाएँगे। पेरिस में मुझे अपने रिसर्च पेपर्स और जनरल्स कलेक्ट करना है। हम सीधे एयरपोर्ट पर ही मिलेंगे।"

उसने सना को आवाज दी - "चलो सना, अभी हमें मुरानो ग्लास फैक्टरी भी जाना है।"

सना दौड़ती हुई आई - "तुषार, मुझे कॉफी पीनी है।"

कॉफी शॉप सामने ही थी। सत्रहवीं सदी में जब नेपोलियन वेनिस आया था तो यहाँ एक भी कॉफी शॉप नहीं थी। ये कॉफी शॉप उसी ने बनवाई थी। कॉफी पीकर तीनों मुरानो ग्लास फैक्टरी आए जहाँ बड़ी सी दहकती भट्टी में शीशा पिघलाकर उसे आटे की तरह मुलायम कर लिया जाता है। एक कारीगर शीशे के लौंदे से घोड़ा बनाने में तल्लीन था। फैक्टरी में ही शो रूम है। शेफाली ने दीपशिखा और अपनी दीदी के लिए खरीदारी की।

पेरिस पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। तुषार रास्ते में उतर गया। उसका चेहरा अभी भी उदास दिख रहा था। कहीं उसने तुषार का दिल तो नहीं दुखा दिया? कहीं उसकी मायूसी इनकारी की वजह न बन जाए। कई सवालों को लिए वह दीपशिखा के सामने थी।

"बेवकूफ है तू... टाइम चाहिए... प्यार करने की उम्र में प्यार किया नहीं और अब टाइम चाहिए।"

"तो क्या करती? उतावली दिखाकर हमेशा के लिए उसकी नजरों से खुद को गिरा देती?"

"तो क्या तू उसे पसंद नहीं करने लगी है?"

"करती हूँ पसंद... पर।"

"अभी फोन लगा। वरना तेरी बेरुखी में बेचारा जरूरी पेपर्स ले जाना न भूल जाए। दिल का अच्छा है तुषार। जिसके साथ बैठकर खुशी महसूस हो, पॉजिटिवसोच हो जाए, पूरी कायनात बगैर बुराइयों के नजर आने लगे तो मिल गए न मन के तार। हवाएँ तक तो पहुँचा देती हैं मन की बातें अपने चाहने वाले तक वरना कोई किसी को ऐसे ही नहीं पसंद करने लगता।"

"मदाम... लेक्चरर कब से हो गई?"

"तू तो होने वाली है न। चित्रकला को स्कूलों में सिखाने का तेरा सपना... ऐसा ही कुछ सोचा है न तूने।"

शेफाली कंबल में दुबक गई - "सपना तो है पर हर सपना हकीकत बने ये मुमकिन नहीं है।"

भारत लौटने के बाद सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए। एक बड़ा मिशन पूरा होने की खुशी वे फोन पर एक-दूसरे से बातें करते हुए, स्टूडियो में गाहे-बगाहे मिलते हुए बाँटते रहे। शेफाली भी स्कूल कॉलेज में नौकरी की अर्जियाँ देने के काम में जुट गई। अब उसे अपनी कला को भी विद्यार्थियों तक पहुँचाना है, उन्हें पारंगत करना है। वह सना को भी यही सलाह देने लगी जबकि सना की अध्यापिका बनने में जरा भी रुचि नहीं थी लेकिन तुषार तक पहुँचने के लिए उसे अच्छी तरह समझने के लिए सना के नजदीक आना जरूरी था। दीपशिखा पूरे आराम के मूड में थी। वह कुछ दिनों के लिए पीपलवाली कोठी चली गई। नीलकांत अपनी फिल्म को प्रमोट करने की कोशिश में जुट गया। जितना तनाव शूटिंग के दौरान उसे रहता है उससे भी ज्यादा फिल्म को बॉक्स ऑफिस में सफलता दिलाने का रहता है। क्या-क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं। टी.वी. के रियल्टी शोज में, सीरियल्स में, महा एपिसोड फिल्म की पब्लिसिटी करना जरूरत बन गई है। नीलकांत को दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती। रिया, दिया की भी वीकेंड की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाता। एक बार फिल्म परदे पर चल पड़े तो तसल्ली मिले।

"तुम तो फोन तक नहीं करते नील।" दीपशिखा ने फोन पर शिकायत की।

"बस, करने ही वाला था कि तुम्हारा फोन आ गया। कैसी हो दीप?"

"मोटी हो रही हूँ... माँ लाड़ में खूब तली भुनी चीजें खिला रही हैं। दिन भर पढ़ती हूँ और थोड़ा बहुत बगीचे में काम। न वॉक, न एक्सरसाइज।"

"अरे... तब तो वजन बढ़ेगा ही। मैं तो उलटे वजन घटाने की बात करने वाला था। अगली फिल्म में तुम्हें लीड रोल दे रहा हूँ।"

"हमसे पूछे बिना ही तय कर लिया... दिज इज नॉट फेयर नील। बहरहाल तो फिल्मों में जाने का इरादा नहीं है और अगर गई तो बेहतरीन स्टोरी पहली शर्त होगी।"

"ओ.के.... कुबूल है। आजकल तुम्हारी शेफाली और तुषार अक्सर जुहू बीच पर या इनॉरबिट में पाए जाते हैं।"

"तुम उधर क्या करने जाते हो?"

नीलकांत हँसा - "दो-दो गर्लफ्रेंड हैं मेरी तुम्हारे अलावा। उनकी फरमाइशें पूरी करनी होती हैं।"

"अच्छा ऽऽ... आती हूँ, बताती हूँ।"

नीलकांत फिर हँसने लगा - "अरे यार... निकलीं न बाबा आदम के जमाने की सोच वाली! रिलैक्स... मैं रिया दिया की बात कर रहा था।

"मुझे पता है। अच्छा फोन रखो, किसी का फोन आ रहा है।"

नीलकांत का नंबर कट होते ही शेफाली बरस पड़ी - "कितना बिजी रखती हो फोन..."

"नीलकांत था... हाँ बता, क्यों परेशान है?"

"दीपू, तू कब तक लौटेगी। इधर तुषार शादी की हड़बड़ी में है। कहता है मम्मी, पापा की ओर से प्रेशर है। उसकी दादी अपने पोते की बहू देखना चाहती हैं। वे कई महीनों से बीमार हैं लेकिन मैं खुद को अभी तैयार नहीं पा रही हूँ। तुषार बेहद अच्छा है पर शुरू में तो सभी अच्छे होते हैं।"

"तू इतना शक करेगी तो जीना दूभर हो जाएगा। ऐसा मान के क्यों नहीं चलती कि सब कुछ पहले से तय रहता है... हम चाहकर भी वो नही पा सकते जो किस्मत में नहीं है। मेरे खयाल से तुम्हें मान जाना चाहिए।"

दोनों देर तक इस विषय पर बात करती रहीं। माली काका दीपशिखा की फरमाइश पर पीले गुलाब की कलमें ले आए थे जिन्हें वह अपने हाथों से लॉन के बीचोंबीच क्यारी में रोपने वाली थी, सुलोचना खमण ढोकला लिए नाश्ते की टेबिल पर उसका इंतजार कर रही थीं। दोनों ही इंतजार करते-करते थक गए पर बात खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अंत में दीपशिखा ने शेफाली को मना ही लिया। अब उसे जल्दी लौटना होगा क्योंकि इस वक्त शेफाली को उसकी जरूरत है। शेफाली ने खुद को रिजर्व रखा था। कभी किसी को नजदीक नहीं आने दिया। अब उसके जीवन में प्यार ने अँगड़ाई ली है। अब उन रुकी हुई बहारों को वह शेफाली के जीवन में प्रवेश करते देखना चाहती है। सहसा वह हड़बड़ा गई - "माँ, मुझे जाना होगा, कल ही मुंबई।"

"अरे, अचानक क्या हुआ?"

"बस यूँ समझो... बेहद-बेहद जरूरत है मेरी शेफाली को।"

सुलोचना दीपशिखा के ऐसे चौंकाने वाले अंदाज से परिचित थीं। वे जानती हैं उनकी बेटी असाधारण है। आम लोगों जैसे व्यवहार की उम्मीद वे करें भी तो कैसे? दीपशिखा का मुंबई से पीपलवाली कोठी आना और लौटना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है। वे अभ्यस्त हो गई हैं। उन्होंने दीपशिखा के सिर पर हाथ फेरा और अपने कमरे में चली गईं।

मुंबई में सना के घर पर मिलना तय हुआ। तुषार के माँ-बाप यानी सना के मामा मामी... पहली ही नजर में दीपशिखा मामा के रूआबदार व्यक्तित्व और नवाबी शानबान को ताड़ गई थी। बातें होंगी वजनदार, उन्हें सतर्क रहना है। शेफाली की तरफ से दीदी और दीपशिखा। पहली बात तो यही उठी कि दीदी ने शादी क्यों नहीं की?

"इस निजी सवाल को रिश्ते के बीच में लाया ही क्यों जाए आप शेफाली और तुषार के बारे में ही बात करें तो बेहतर है।" दीदी के दो टूक जवाब ने उन पर असर किया। तुरंत पहलू बदलकर बोले - देखिए, यह रिश्ता आनन-फानन में तय करना पड़ रहा है। असल में हमारी अम्मा की बहुत इच्छा है अपने पोते की दुल्हन देखने की। आप तो जानते हैं, खानदानी मसला है। अम्मा जमींदारों के घराने से इकलौती बेटी हैं और हमारा तुषार... जुनूनी है... अब क्या बताएँ आपको।"

बिल्कुल नवाबी अंदाज में तुषार के पिता कह रहे थे। शेफाली और दीदी दोनों समझ रही थीं कि मसला जमीन जायदाद को लेकर है पर जहाँ तक शेफाली तुषार को समझ पाई थी तुषार अपनी मेहनत की कमाई ही चाहता है। उसे अधिकार की, हक की लड़ाई बिल्कुल पसंद नहीं।

"भैया, शेफाली की तरफ से तो हाँ है। इसकी मैं गारंटी देती हूँ।" सना की मम्मी ने चाय नाश्ते की ट्रे टेबिल पर रखते हुए कहा। दीदी और दीपशिखा ने भी उनका साथ दिया क्योंकि न की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। बहरहाल चाय नाश्ते के पहले शगुन हुआ। दीदी ने तुषार का तिलक किया और तुषार की माँ ने शेफाली की गोद मेवों और रुपियों से भरी। सभी ने तुषार और शेफाली को बधाई दी।

"कल ही पंडित को बुलाकर सगाई और शादी की तारीखें निकलवाती हूँ।" तुषार की माँ ने कहा और शेफाली को गले से लगा लिया।

गाड़ी में बैठते ही दीदी ने शेफाली का माथा चूम लिया - "बधाई शेफाली, आज मैं बेहद खुश हूँ मैं इस खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हूँ। चलो मूवी चलते हैं।"

"हाँ शेफाली, आज का दिन बेहद खुशी का है। सब कुछ जल्दबाजी में हुआ पर निभाने वाले जल्दी और देर में यकीन नहीं करते। मूवी के बाद डिनर मेरी ओर से।"

"दीपू और दीदी... ये डबल दी... मुझे खुश होने, सोचने का मौका ही नहीं देना चाहतीं। चल भाई शेफाली... जिंदगी के धूपछाँही रास्तों से होकर गुजर जा। इस अहम फैसले के लिए देखा जाए तो तेरा कोई रोल ही नहीं था। सब कुछ पहले से फिक्स्ड था।"

"शेफाली ऽऽऽ" दीदी ने आँखें तरेरीं और तीनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। हँसी के इन फूलों ने थियेटर तक उनका पीछा किया। मूवी शुरू हो चुकी थी। तीनों अँधेरे में टटोलते हुए अपनी सीटों पर आकर बैठ गए।

दीपशिखा घर लौटी तो देखा दाई माँ बाल्कनी में दरी बिछाए लेटी हैं और काका उनका माथा सहला रहे हैं - "क्या हुआ काका?"

"कुछ नहीं बिटिया, गैस चढ़ रही है इन्हें।"

"हाँ तो पुदीन हरा पिला दो न। आप भी काका, सब मालूम है, न जाने क्यों भूल जाते हो?"

वह अपने कमरे में आकर सोफे पर बैठी ही थी कि मोबाइल पर नीलकांत कॉलिंग... उसने खुश होकर बताया - "आज शेफाली और तुषार का शगुन हो गया। मैं बहुत खुश हूँ नील,"

"तो एक खुशखबरी मेरी ओर से भी। अक्टूबर दस तारीख से यानी चार माह बाद तुम्हारी फिल्म की शूटिंग शुरू हो जाएगी। सिलीगुड़ी के जंगलों में शुरुआत के दृश्य फिल्माएँ जाएँगे।"

"तो तुम मुझे अभिनेत्री बनाकर ही छोड़ोगे। लोग क्या कहेंगे रंग ब्रश की दुनिया से सीधे कैमरे का सामना?"

"यह भी तो कला है। तुम ब्रश और रंगों से भावों को चित्रित करती हो। अभिनय भी तो भावों को ही चित्रित करने, जताने का एक जरिया है।"

दीपशिखा इस तर्क पे लाजवाब थी। लेकिन यह खबर सुनकर शेफाली विचलित हो गई - "नहीं दीपू, ये दुनिया हमारी नहीं है... भोले-भाले भावुक लोगों के लिए तो फिल्मी दुनिया कतई नहीं है। जब से हम फ्रांस से लौटे हैं कितना समय दिया तुम्हें नीलकांत ने? अपनी ही फिल्म के जगह-जगह प्रदर्शन में जुटा रहा। फर्स्ट वीकेंड में ही करोड़ों कमा लिए और चार महीने नहीं बीते कि दूसरी फिल्म? इस बीच तूने क्या किया... बता, कितने चित्र बनाए?"

"तेरे लफड़े से फुर्सत मिले तो बनाऊँ। इसी महीने तेरी शादी है। सारी तैयारी करनी है।"

"बस... बस दादी अम्मा... बात को टाल मत। मेरी राय में तुझे फिल्म नहीं लेनी चाहिए। फ्लॉप हो गई तो बदनामी अलग।"

शेफाली की बात ने दीपशिखा को सोचने पर मजबूर कर दिया। सच तो है, उसे हो क्या गया है? पेरिस में प्रदर्शनी के बाद क्या उसकी कला चुक गई है? बचपन से रंग, ब्रश, रेखाएँ और कैनवास में रमने वाला मन भटक क्यों रहा है? क्यों वह नीलकांत के कहने पर फिल्म साइन कर रही है? वह तो आजाद विचारों की है। किसी के बताए रास्ते पर चलना उसे पसंद नहीं। उसकी दुनिया तो पर्वत, जंगल, धरती, आसमान को गहराई से देखने, समझने और चित्रित करने में ही है। उसके रंगों के चुनाव अक्सर दर्शकों को चौंका देते हैं। सीधी और घुमावदार रेखाओं के बीच ऐसी जुगलबंदी चलती है कि उसके चित्रों में सुर भी रेखाओं में बदलते जाते हैं। उसके चित्रों की सबसे बड़ी खूबी उसकी गहराई ही तो है। वह बैंगनी और सिलेटी रंगों से बाजीगर की तरह खेलती है। वह हफ्तों से बंद पड़े रंगों को खोलने लगी। अचानक उसने ब्रश थामा और देखते ही एखते कैनवास पर एक पराऐतिहासिक स्त्री का चेहरा उभर आया। क्या यह चेहरा उसका है? वह आग जो उसमें अनवरत सुलगती रहती है और जिसे आज ही शेफाली ने हवा दी है... वह आग जो जंगल के जंगल फैलकर उससे चित्र बनवाती है... वह सृजन की आग... कहाँ हो इसमें नील तुम? तुम जो शोमैन हो, सपनों के सौदागर... और मैं पराऐतिहासिक सब कुछ सहकर, उस आँच में पककर, सिंक कर, कभी न टूटने वाली मिट्टी से बनी मूरत...

नीलकांत ने फोन पर सूचना दी - "गाड़ी भेज रहा हूँ। बांद्रा के मेरे स्टूडियो में तुम्हें गौतम राजहंस मिलेगा... तुम्हारी फिल्म का कहानी लेखक। कहानी सुन लेना उससे, मैं थोड़ा बिजी हूँ।"

"नील तुम..." पर फोन कट गया था। वह फिर से उसका नंबर मिलाने लगी पर हाथ रुक गए। कहानी सुनने में क्या बुराई है।

"दाई माँ, एक कप कॉफी मिलेगी?" उसने तैयार होते हुए कहा।

"कहीं जा रही हो बिटिया?"

"हाँ... जल्दी लौट आऊँगी। पालक की खिचड़ी बना लेना और कुछ खाने का मूड नहीं है।"

गाड़ी आ गई थी। साथ ही नीलकांत का फोन भी - "गाड़ी पहुँची कि नहीं?"

"पहुँच गई बाबा, कितना टेंशन लेते हो नील।"

गौतम राजहंस दीपशिखा से निश्चय ही तीन-चार साल छोटा ही रहा होगा। काम के प्रति जूनून था उसमें। सपनीली आँखों में बहुत कुछ ऐसा बयाँ था जो दीपशिखा को चकित किए था। दोनों के बीच कॉफी के प्याले थे, बर्फीली ठंडक वाले नीम अँधेरे स्टूडियो में दरवाजे खिड़कियों पर लगे नीले रेशमी परदे सम्मोहित कर रहे थे।

"वाह, बहुत अच्छा लिखा है आपने। फिल्मी नब्ज आपने पकड़ ली है।" दीपशिखा ने कहानी सुनकर अपनी राय दी।

"इसके पहले भी मैं नीलकांत सर की दो फिल्मों पे काम कर चुका हूँ। एक फिल्म खूब पसंद की दर्शकों ने, फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला उसे..."

"और दूसरी?"

"डिब्बे में बंद है।"

"क्यों? एनी रीजन?"

"तब सर बहुत डिस्टर्ब थे, तलाक हो चुका था उनका।"

"ओह... आय'म सॉरी।"

दीपशिखा ने ऐसा जताया मानो वह कुछ जानती ही नहीं और ऐसा करना जरूरी भी था। वॉचमेन ने गौतम और दीपशिखा के बाहर निकलते ही स्टूडियो बंद कर दिया और नीलकांत को फोन पर इत्तिला दे दी।

"तो मैं चलूँ दीपशिखा जी?"

"क्यों? मेरे साथ नहीं चलेंगे? मेरा घर देख लीजिए। रास्ते में बातें भी हो जाएँगी।"

गौतम इनकार नहीं कर सका। गाड़ी गेट के बाहर जब निकली, सूरज डूब चुका था और उसकी लालिमा के संग अँधेरे का कंट्रास्ट बेहद खूबसूरत नजर आ रहा था। गौतम बहुत शालीन लगा दीपशिखा को। उसका व्यक्तित्व भी रोमन मूर्तियों जैसा था। एक-एक अंग साँचे में ढला... कद्दावर, मनमोहक।

"आपने फिल्मी लेखन को प्रोफेशन के रूप में क्यों अपनाया?" दीपशिखा ने जानना चाहा।

"नहीं जानता क्यों? शायद मेरी अंतरात्मा की आवाज हो जिसकी बिना पर हर कलाकार अपनी विधा चुन लेता है। अब आप भी तो चित्रकला से अभिनय कला की ओर मुड़ी हैं। क्या ये आपकी अंतरात्मा की आवाज नहीं है?"

"नहीं।"

सुनकर चौंक पड़ा गौतम - "फिर?"

"ये प्रेम की दीवानगी है जहाँ इनसान सोचना समझना बंद कर देता है।"

गौतम एकटक दीपशिखा को देखता ही रह गया। घर के गेट पर गाड़ी रुक चुकी थी - "अंदर नहीं आएँगे।"

गौतम मुस्कुराया - "फिल्मी हूँ, मुहूरत निकालकर आऊँगा।"

दीपशिखा भी मुस्कुराई - "हम इंतजार करेंगे।"

गाड़ी के ओझल होते तक वह गौतम को हाथ हिलाती रही।

शेफाली की माँ तुषार को देखना चाहती थीं लेकिन शेफाली तुषार के अकेले उनके पास जाने से हिचकिचा रही थी। पता नहीं भैया भाभी का क्या रवैय्या रहे उसके साथ, वैसे भी वे दोनों बहनों से कोई मतलब नहीं रखना चाहते थे। क्या पता शादी में आएँगे भी या नहीं। वे माँ की जिम्मेवारी निभाते हुए जैसे दोनों बहनों पर कर्ज सा लाद रहे थे। जब से दीदी और शेफाली मलाड में फ्लैट लेकर शिफ्ट हुई हैं तब से वे यही चाह रहे हैं कि माँ को मुंबई भेज दें। दीदी थोड़ा और सैटिल होते ही माँ को ले आएँगी ये तय है।

तुषार का परिवार शादी मुंबई से ही करना चाहता है यह शेफाली के लिए अच्छी खबर है। उसने दीदी को तुषार के साथ माँ के पास जाने के लिए यह कहकर मना लिया कि वह शादी से पहले जहाँगीर आर्ट गैलरी में होने वाली विभिन्न प्रांतों से आए चित्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनी 'द फैंटेसी वर्ल्ड' में हिस्सा ले रही है साथ ही तुषार को सरप्राइज भी देना चाहती थी।

"तुषार को सरप्राइज चित्रों को बनाकर भला कैसे? बताएगी तू?" दीपशिखा ने पूछा।

"बताती हूँ... दीदी और तुषार को एयरपोर्ट पहुँचाकर सीधे तेरे घर आई हूँ... तो चाय... अरे दाई माँ चाय भी बना ली?"

"नहीं, तेरे ऑर्डर का इंतजार कर रहे थे।"

शेफाली ने दाई माँ के हाथ से प्याला लेकर घूँट भरी - "तुझे तो पता है तुषार मनोचिकित्सक है। तो मैं भी 'माइंडस्केप' नाम से एक चित्र श्रृंखला बना रही हूँ। पहले चित्र में अरब सागर के किनारे का एक ऐसा दृश्य है जो सागर की तरंगों की तरह ब्रेन में उठने वाली तरंगों का आभास कराता है। दूसरे चित्र में इन तरंगों की कई कई परतें हैं। अनेक स्तरों पर इनका अस्तित्व मन के अलग-अलग भावों का प्रतीक है। 'माइंडस्केप' की यह श्रृंखला यथार्थ को ऐब्स्ट्रैक्ट और फिर ऐब्स्ट्रैक्ट को यथार्थ में ले जाने वाली है। एैक्रेलिक रंगों से बने इन चित्रों में स्थूल लैंडस्केप और सूक्ष्म भाव पिरोए हैं मैंने।

"वाह... कमाल का सरप्राइज है तेरा... अब तू पिया के रंग में रँग गई। मैं तो ठहरी पड़ी हूँ।"

"तू पहले ही रंग चुकी है नीलकांत से गंधर्व विवाह करके।"

"तेरी बात में वजन तो है।"

"चल फिर... कल शॉपिंग निपटा लेते हैं।"

"यही ठीक रहेगा... दीदी सोमवार को लौटेंगी न? और दस तारीख को मेहँदी और फिर तुषार की माँ का आदेश है कि मेहँदी के बाद नो शॉपिंग।"

दीपशिखा ने बड़ी बूढ़ियों के अंदाज में कहा और दोनों ही खिलखिला पड़ीं। समंदर की ओर खुलने वाली खिड़की से हवा के संग कुछ बूँदें भी कमरे में दाखिल हो गईं।

"लगता है बारिश हो रही है। चलो, गर्मी कुछ कम होगी। इस साल मौसम विभाग की सूचना है कि मॉनसून जल्दी आएगा।"

"सो तो आ गया... हम तो सराबोर हैं।"

शेफाली की शरारत पर देर तक हँसी के ठहाके गूँजते रहे।

शेफाली के जाने के बाद दीपशिखा उसकी 'माइंडस्केप' श्रृंखला के बारे में सोचती रही। उसे पिकासो याद आए जिन्होंने कहा है कि ऐब्स्ट्रैक्ट जैसी कोई चीज नहीं होती, किसी न किसी यथार्थ से ही शुरुआत करनी होती है। उसी को रचते-रचते रचना में से असली यथार्थ को हटाकर उसमें कुछ कल्पना को मिला देना ही कला है।

फिर यथार्थ क्या है? सोचती रही दीपशिखा। उसके आगे खुले इन नए-नए रास्तों में से न जाने कौन सा रास्ता उसे मंजिल तक ले जाएगा। बड़ी अनिश्चय की स्थिति है... क्या गौतम से सलाह ले जो अब उसका करीबी दोस्त बन गया है। नीलकांत तो उसे ग्लैमर की दुनिया में घसीट रहा है जो उसकी दुनिया है ही नहीं।

बहुत सादगी से भरी शैड के बाद अब शेफाली तुषार के माता-पिता के नेपियन सी रोड वाले विशाल बंगले में आ गई है। दीपशिखा संतुष्ट है कि शेफाली को उस की मंजिल मिल गई। तुषार का भी भूलाभाई देसाई रोड पर क्लीनिक खुल गया है जहाँ वह चार डॉक्टर्स की टीम के साथ काम कर रहा है। खुश है शेफाली - "तुषार इज परफेक्ट लाइफ पार्टनर... जैसा मैं चाहती थी बिल्कुल वैसा ही" दीपशिखा को ये बताते हुए शेफाली की सवालिया नजरें उसकी ओर उठी थीं। दीपशिखा ताड़ गई थी कि शेफाली क्या पूछना चाह रही है - "प्लीज शेफाली... अभी मेरे पास तेरे सवाल का जवाब नहीं है।" वैसे भी जवाब नहीं था उसके पास। नीलकांत की जिद पर मुंबई के स्टूडियो मने फिल्म का मुहूर्त तो हुआ पर न वह शूटिंग के लिए सिलीगुड़ी गई और न ही इस बार नीलकांत ने जिद की।

"तुम जो बेहतर समझती हो करो। तुम फिल्म करो वो मेरी बात थी... गोली मारो मेरी बात को।" कहते हुए नीलकांत ने जो लगभग दो घंटे से बैठा शराब पी रहा था उसे आलिंगन में भरकर लाड़ से दुलारा - "अब तो खुश हो।"

"हाँ, इस वक्त मैं खुश हूँ क्योंकि फैसला तुमने मेरे ऊपर छोड़ दिया है। हो सकता है सुबह तक मैं तुम्हें फोन पर फिल्म के लिए हाँ कह दूँ और सिलीगुड़ी चलूँ तुम्हारे साथ।"

नीलकांत ने फीकी हँसी-हँसते हुए कहा - "चलो, तुम्हें ड्रॉप करते हुए मैं घर चला जाऊँगा।"

लेकिन सुबह दीपशिखा ने गौतम को फोन लगाया - "बताओ गौतम मैं क्या करूँ?"

"अंतरात्मा की आवाज सुनो दीपशिखा। वही सच है।"

"अगर अंतरात्मा कहे कि गौतम को प्यार करो तो क्या मान जाऊँ ये बात?"

"हाँ... क्यों नहीं? हम अंतरात्मा की आवाज को नकार नहीं सकते। मेरी अंतरात्मा ने तुम्हें प्यार करने की इजाजत दे दी है।"

दीपशिखा चौंक पड़ी - "क्या कहा तुमने? गौतम तुम होश में तो हो?"

उसने फोन पटक दिया - "ईडियट कहीं का? मेरे और नील के रिश्ते को जानता है फिर भी।"

आज रात की फ्लाइट है नीलकांत की। पहले दिल्ली, फिर दिल्ली से सिलीगुड़ी। तैयार होकर वह नीलकांत के स्टूडियो आ गई। दिन भर व्यस्तता... काम... तैयारी... दीपशिखा हाथ बँटाती रही। जैसे तैसे फुर्सत होकर शाम को दोनों वहीं बांद्रा वाले स्टूडियो में चले गए।

"नहीं मना पाई न खुद को दीप?" नीलकांत ने दीपशिखा के बालों को सहलाते हुए कहा - "नाहक ही तुम्हारे सामने प्रपोजल रखा। तुम चित्रकार, ब्रश और हाथों की सधी दुनिया है तुम्हारी। हम लोग तो कैमरा, एक्शन, टेक, रीटेक, कट, ओ.के. में ही उम्र तबाह कर लेते हैं और फिर दुनिया से पैकअप हो जाता है हमारा।"

"ऐसा क्यों कह रहे हो नील?" दीपशिखा ने उसके होठों पर हथेली रख दी फिर उसके सीने में चेहरा छुपाते हुए वह लरज गई - "कलाकार ऐसे ही होते हैं नील, हम भी तो ऐसे ही हैं। लंबे समय के लिए जा रहे हो... उस बीच मैं एक प्रदर्शनी लायक चित्र तो बना ही लूँगी।"

तभी नीलकांत के सेक्रेटरी ने बेल बजाई - "सर, एयरपोर्ट के लिए निकलने का वक्त हो गया। हम जाएँ?"

"हाँ, ठीक है... कहीं कोई डाउट हो तो फोन कर लेना।"

सेक्रेटरी के जाते ही दीपशिखा ने पूछा - "और तुम?"

"मेरी फ्लाइट तीन घंटे बाद की है। पहले तुम्हें ड्रॉप करूँगा फिर सीधे एयरपोर्ट चला जाऊँगा।"

इतने दिनों की दूरियों को सोच दोनों बहुत भावुक हो रहे थे। पर समय का तकाजा था। कई बातों को लेकर समझौता करना पड़ता है। नीलकांत के विदा होते ही बेचैन हो गई दीपशिखा... रात ठीक से नींद भी नहीं आई। सुबह-सुबह झपकी लगी तो दस बजे तक सोती रही। न जाने क्यों बेचैनी दिन भर रही। शाम चार बजे के करीब वह अकेली ही अपने स्टूडियो आई। तुषार का क्लीनिक नजदीक ही था लेकिन इन दिनों बंद था। तुषार और शेफाली हनीमून के लिए डलहौजी गए थे।

इतने दिनों से बंद पड़े स्टूडियो को खोलते हुए सैयद चचा निहाल थे - "अब रौनक लौटेगी यहाँ। इतने महीनों से ऐसा लगता था जैसे खंडहरों में भटक रहे हैं हम।"

सैयद चचा भावुक हो उठे थे।

"अरे चचा... कलाकार तो मूडी होते ही हैं। कल से सब आने लगेंगे, आपके सामने ही सबको फोन लगाती हूँ।"

"चाय लाऊँ?" सैयद चचा की बाँछें खिली पड़ रही थीं।

"हाँ चचा... लेकिन पहले स्टूडियो साफ कर दो, इतने दिन से बंद रहा।"

"एक नजर देख तो लो, फिर कहना।" हथेली पर हथेली मार कर हँसे चचा - "रोज सफाई करता हूँ। हर चीज साफ सुथरी, ज्यों की त्यों रखता हूँ।"

सचमुच स्टूडियो खूब साफ सुथरा था। करीने से हर चीज लगी - "वाह चचा, अब चाय तो पिलाओ।" कहते हुए दीपशिखा ने सभी दोस्तों को फोन लगाया। अपने स्टूडियो में लौट आने और काम पे लग जाने की बात बताई। फिर जाने क्यों गौतम को भी लगा दिया - "सॉरी गौतम, बुरा लगा होगा न तुम्हें। कल सुबह मैंने बीच में ही फोन काट दिया था।"

"नहीं दीपशिखा... मैं इन सब चीजों से परे हूँ... और फिर हर एक व्यक्ति प्यार और नफरत करने के लिए आजाद है। टेक इट ईजी... माई डियर।"

"आ सकते हो?"

"कहाँ?"

"मेरे स्टूडियो, एड्रेस एसएमएस कर रही हूँ।"

"ओ.के."

कितना सहज सरल है गौतम। कभी किसी बात का बुरा नहीं मानता। डायरेक्टर्स की जैसी डिमांड वैसी कहानी लिखकर फुर्सत। सोचते हुए दीपशिखा कैनवास पर रेखाएँ खींचने लगी। आज उसे चटख रंग और तीखी आकृतियों का चित्र बनाना है। मन को मथ डालना है और निकले हुए सार तत्व को पकड़ लेना है। लद्दाख में जो प्राकृतिक दृश्य विधाता ने रचे हैं उन्हें वैसे ही चित्रित करना होता था, स्टूडियो में कल्पना से खेलने का ज्यादा मौका मिलता है। सबसे ज्यादा मजा तो तब आता है जब देखे हुए दृश्यों को कल्पना में खींचकर चित्रित करना होता है। तब चित्रकार और दर्शक के बीच एक भावनात्मक रिश्ता बनने लगता है। नीलकांत से रिश्ते की वजह भी तो उसके बनाए चित्र ही थे।

सैयद चचा तश्तरी में डालकर चाय सुड़क रहे थे तभी गौतम के कदमों की आहट ने दस्तक दी।

"आओ गौतम, देखो मेरी दुनिया, मिलो सैयद चचा से।"

सैयद चचा ने खींसे निपोरीं और दौड़े चाय लेने। गौतम अभिभूत था। दीफिखा बेहतरीन चित्रकार है इसकी गवाही उसके चित्र दे रहे थे।

"तुम सचमुच महान चित्रकार हो।"

दीपशिखा ने झुककर सलाम किया।

"कल से मेरे साथी चित्रकार भी आने लगेंगे और हम नई योजना पर विचार करेंगे। कला जुनून होती है न गौतम?"

"अब तक नई हीरोइन को साइन करके नीलकांत सिलीगुड़ी पहुँच गए होंगे, ये जुनून ही तो है।"

"शूटिंग पंद्रह दिन बाद शुरू होगी। यूनिट तो जा चुकी है लोकेशन वगैरह के लिए लेकिन नीलकांत सर अभी पनवेल में हैं।" कहते हुए गौतम दीवारों पर लगे चित्रों को बारीकी से देखने लगा।

"पनवेल, क्यों?"

गौतम ने मुड़कर दीपशिखा की ओर देखा और मुस्कुरा दिया। खामोशी रहस्य बुनने लगी।

"बताओ गौतम... छोड़ो, मैं ही फोन करके पूछ लेती हूँ। अभी कल शाम तक तो मेरे साथ थे। कल रात की उनकी फ्लाइट थी। हद है... पनवेल में हैं और बताया तक नहीं।"

वह जल्दी-जल्दी फोन मिलाने लगी।

"नहीं, फोन मत करो दीपशिखा... चलो प्रियदर्शिनी पार्क चलते हैं। अभी और कुछ मत पूछना प्लीज।" गौतम के लहजे में गहरा दर्द था।

पार्क में अँधेरा उतर आया था और समंदर की लहरें बेताबी से किनारों को छूतीं फिर लौट जातीं। कितना साम्य लगता है कभी-कभी प्रकृति और मन के भावों में? गौतम ने मूँगफलियाँ खरीदीं और दोनों टहलते हुए खाने लगे। जाने कहाँ से ढेर सारे सफेद पंखों वाले परिंदे सागर पर मँडराने लगे। वे जल की सतह को पंजों से छूते और पंख फड़फड़ाने लगते।

"सह पाओगी?" गौतम ने अचानक कहा।

"कहो न... मेरे लिए कुछ भी सह लेना कठिन नहीं है।" दीपशिखा ने बहुत विश्वास से कहा लेकिन सारा विश्वास तब भरभरा कर ढह गया जब गौतम ने बताया - "पनवेल में नीलकांत की रखैल मंदाकिनी रहती है, उसी के पास गए हैं सर।"

हाथ से छूटकर मूँगफली की पुड़िया रेत पर बिखर गई औरकिर्च-किर्च बिखर गई दीपशिखा। उसकी आँखें गुस्से, नफरत और आँसू की परत से लाल हो गई थीं। हवाएँ उसके रेशमी बालों को उड़ाकर चेहरे पर बार-बार बिखरा देतीं।

"धोखा... इतना बड़ा धोखा... आई विल किल हिम... मार डालूँगी..."

गौतम वहीं दीपशिखा के सामने बैठकर उसके हाथों को थाम कर जैसे पुचकारने सा लगा।

"हौसला रखो दीपशिखा! फिल्मी हस्तियाँ ऐसी ही होती हैं। उनकी कामयाबी, प्रसिद्धि उन्हें खुली छूट देती है यह सब करने की। लेकिन वे यह नहीं जानते कि हर चढ़ाई उतराई की ओर जाती है।"

दीपशिखा को इस वक्त उपदेश की नहीं सहानुभूति की जरूरत थी।

"गौतम तुम सच कह रहे हो?"

"पनवेल, चलकर देखना चाहती हो? आज की पूरी रात सर मंदाकिनी के साथ हैं। उनकी फ्लाइट कल की है।"

"अच्छा, इसलिए कल उसका सेक्रेटरी अकेले ही एयरपोर्ट गया था।"

गौतम की बातों में सच्चाई झलक रही थी। लेकिन एक बार वह सब कुछ अपनी आँखों से देखना चाहती थी। आखिर विश्वास करे भी तो कैसे? इतना प्यार करने वाला नीलकांत ऐसा कैसे हो सकता है?"

"अगर हम अभी चल दें तो लौटने में कितना वक्त लग जाएगा?"

"रात के दो तो बजेंगे।"

"चलेगा। गाड़ी तो मैंने वापिस भेज दी है। ड्राइवर भी घर चला गया होगा। टैक्सी ही लेनी पड़ेगी। मैं दाई माँ को फोन करके बता देती हूँ कि लौटने में देर होगी। तुम्हें घर तो पता होगा।"

"हाँ... कितनी बार तो सर ने मुझे वहाँ बुलाकर कहानी लिखवाई है।"

टैक्सी में बैठते ही दीपशिखा का रहा सहा धैर्य खतम हो गया। वह हाथों में चेहरा छुपाकर रो पड़ी। उसके होठ कुछ कहने को उतावले थे पर गौतम ने उसका सिर सहलाते हुए तसल्ली दी - "नहीं, कुछ मत कहो।"

टैक्सी ड्राइवर ने गाने लगा दिए थे और रास्ता बड़े आराम से कट जाना चाहिए था पर टूट चुके दिल की चुभन तकलीफ दे रही थी। दीपशिखा काफी सम्हल चुकी थी।

डोरबेल बजाते हुए गौतम आगे आ गया। दीपशिखा थोड़ा हटकर खड़ी हो गई ताकि दरवाजा खोलने वाले को तुरंत दिखाई न दे। दरवाजा नौकर ने खोला - "अरे, गौतम भैया... आइए, आइए।"

गौतम के पीछे-पीछे दीपशिखा भी हॉल में आ गई। थोड़ी देर में नीलकांत मंदाकिनी के साथ बाहर आया - "कहो गौतम, अचानक क्या काम ऽऽऽ"

लेकिन उसका वाक्य अधूरा रह गया। उसके काटो तो खून नहीं... सामने दीपशिखा... ये क्या कर डाला गौतम ने?

"दीपशिखा... तुम! इस वक्त यहाँ ऽऽ!!"

"यही तो मैं पूछना चाहती हूँ मिस्टर नीलकांत... जहाँ तक मुझे जानकारी है इस वक्त आपको सिलीगुड़ी में होना चाहिए था।"

दीपशिखा को गौतम ने घंटों पहले ये हकीकत बताकर मजबूत कर दिया था। उसका एक-एक शब्द नीलकांत को भारी पड़ रहा था। वह उसके नजदीक आकर बाँह पकड़ने लगा - "बैठो तो।"

"डोंट टच मी... तुम इस लायक नहीं। यू आर अ बिग चीटर... धोखेबाज... लायर... और आप..." दीपशिखा ने उसके नजदीक ही खड़ी मंदाकिनी से कहा - "आप जिस व्यक्ति पर भरोसा कर रही हैं ये मुझे प्यार करने का दावा करता रहा। मुझे भ्रम में रखकर मेरे साथ दगाबाजी की। आप भी सम्हल जाइए। चलो गौतम।"

नौकर चाय की ट्रे लिए हक्का-बक्का खड़ा था। मंदाकिनी सिर पकड़कर सोफे पर बैठ गई लेकिन नीलकांत को होश कहाँ था? एक साथ सब कुछ हाथ से फिसलता नजर आ रहा था। उसने दीपशिखा को रोकना चाहा - "दीपशिखा, प्लीज इस तरह मत जाओ।"

दीपशिखा ने उसके सामने ही गौतम का हाथ पकड़ा और दरवाजे से बाहर निकल गई।

टैक्सी में दोनों बैठे ही थे कि गौतम के मोबाइल पर नीलकांत की किचकिचाती आवाज थी, इतनी तेज कि दीपशिखा साफ सुन पा रही थी - "तुमने दीपशिखा को यहाँ लाकर ठीक नहीं किया गौतम... आज से तुम नीलकांत प्रोडक्शन से बर्खास्त किए जाते हो। आउट... कभी मुँह मत दिखाना मुझे।"

गौतम ने बिना जवाब दिए फोन काट दिया। वह जानता था यही होगा। लेकिन इस वक्त उसे दीपशिखा को सम्हालना था। पूरे रास्ते दोनों में कोई बात नहीं हुई। अचानक हुई घटनाओं ने दोनों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। दीपशिखा का घर आया तो गौतम ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर थपथपाया - "कुछ भी मत सोचना। एक बुरा सपना था और तुम जाग गई हो। लो... आज अभी रात के ढाई बजे मैं तुम्हें साक्षी मान संकल्प लेता हूँ कि फिल्मी दुनिया से अलविदा। हम इस चकाचौंध भरी दुनिया के लायक नहीं।"

"गलत... वो दुनिया हमारे लायक नहीं है। हमारे अंदर के भरोसे और काबलियत को वह सम्हाल नहीं पाई।" दीपशिखा खुद पर काबू पा चुकी थी। गौतम ने आश्वस्त हो विदा ली।

अपनी टूटन को समेटने की कोशिश में दीपशिखा कई बार बिखर-बिखर गई। ऐसा उसके साथ ही क्यों हुआ? पहले मुकेश, फिर नीलकांत... और क्यों हर बार एक द्वार बंद होता है तो दूसरा खुलता नजर आता है। ये सिलसिला कब तक चलेगा? कब तक वह अनिश्चित को निश्चित मान जीती रहेगी। जानती है इस वक्त इस शहर में वह बिल्कुल तनहा है। उसकी प्यारी सखी शेफाली उससे सैकड़ों मील दूर है और उसके दोनों प्रेमी... प्रेमी! या उसका इस्तेमाल करने वाले का पुरुष? ...शायद यही नियति है उसकी और जो नियति है उसे स्वीकारते जाने में ही बुद्धिमानी है। नियति के विरुद्ध लड़ते रहना और नाकामयाबी हासिल करना ही दुख का कारण है। जो कुछ पहले से तय है वह तो हमारे लाख न चाहने पर भी घटित होगा ही।

बिस्तर पर पहुँचते ही वह ढह गई। अंदर से एक उबाल सा उछला। जैसे-तैसे वह बाथरूम तक पहुँची। भरभराकर उबाल बाहर निकला... वह पसीने से लथपथ हो गई। उल्टी के बाद थोड़ी राहत तो महसूस हो रही थी पर तेज सिर दर्द होने लगा - "दाई माँ ऽऽऽ" उसने पुकारा।

दाई माँ दौड़ी आईं - "क्या हुआ बिटिया?"

"उल्टी हुई... सिर फटा जा रहा है दर्द से।" दाई माँ ने घड़ी देखी। सुबह चार बजे थे। इस वक्त डॉक्टर मिलना मुश्किल है। उसने सिर दर्द की दवा दी और नीबू पानी बना लाई। नीबू पानी पिलाकर वह देर तक दीपशिखा का सिर दबाती रही। धीरे-धीरे दीपशिखा नींद के आगोश में चली गई। सुबह देर तक सोती रही। जागी तो देखा मोबाइल पर नीलकांत का मिस कॉल था। उसने गौतम को फोन लगाकर अपनी तबीयत खराब होने की सूचना दी।

"आधे घंटे में पहुँच रहा हूँ।"

"नहीं, घर नहीं स्टूडियो आना... शाम चार बजे।"

"और दिन भर तुम उस दगाबाज की याद में बिसूरोगी।"

दीपशिखा झल्ला पड़ी - "नाम मत लो उसका... रात को अपने दिलो दिमाग से खुरच-खुरच कर मैंने उसे निकाल बाहर किया। उसे फ्लश कर दिया मैंने, एक ही उल्टी के साथ... बह चला वह गंदी नाली में... और भी गंदगी की ओर।" भर्रा गई थी दीपशिखा की आवाज... "रिलैक्स... जो होता है अच्छे के लिए होता है। शायद मुझे तुमसे इसीलिए मिलवाया भाग्य ने... वरना... खैर छोड़ो, मिलते हैं शाम को।"

उधर दाई माँ ने दीपशिखा की तबीयत की सूचना सुलोचना को दे दी थी। गौतम का फोन रखते ही सुलोचना का फोन - "क्या हुआ दीपू?"

"जरा सा स्ट्रेन हो गया था... अब ठीक हूँ।"

"क्यों इतना काम करती हो कि स्ट्रेन पड़े। कल की फ्लाइट लेकर इधर आ जाओ। कुछ दिन आराम करोगी तो सब ठीक हो जाएगा।"

प्रस्ताव अच्छा था। उसे आराम की जरूरत थी लेकिन आराम से बढ़कर गौतम की जो इन मुश्किल दिनों में उसका साथ दे रहा है। उसने सुलोचना को टाल सा दिया - "बताती हूँ माँ... वैसे मैं ठीक हूँ। तुम परेशान मत हो। कोशिश करूँगी आने की।"

शाम चार बजे वह स्टूडियो पहुँची। सैयद चचा उसका कुम्हला या चेहरा देख ताड़ गए - "क्या हुआ बेटी, तबीयत तो ठीक है?"

असल बात वह छुपा गई - "हाँ चचा, तबीयत नासाजहै। क्या करूँ... कुछ दिनों के लिए पीपलवाली कोठी हो आऊँ?"

तब तक सना, एंथनी, जास्मिन, आफताब, शादाब भी आ गए। सबके स्टूडियो खुले, चाय के प्याले खनके, रौनक लौट आई। सपनीली आँखों ने फिर सपने देखने शुरू किए। नई प्रदर्शनी को लेकर, नई थीम को लेकर... और इन सबके बीच नया गौतम... दीपशिखा ने सबसे परिचय कराया - "ये हैं गौतम राजहंस, फिल्मी राइटर।"

"राइटर था, अब नहीं। मैं अपना प्रोफेशन बदलरहा हूँ।"

"हमारे जैसे चित्रकार हो जाओ।" एंथनी ने कहा तो मजाक में था पर गौतम ने इसे सीरियसली माना - "नहीं, चित्रकार जन्मजात होते हैं। चित्रकला ही क्यों हर कला जन्मजात होती है। यह बात दीगर है कि उसे इंस्टिट्यूट या कला केंद्रों में निखारा जाता है। मैं मीडिया में जाऊँगा। पहले भी न्यूज चैनल में ही था फिर विदेशी कंपनी के लिए काम किया। न जाने क्या फितूर चढ़ा कि नीलकांत प्रोडक्शन के लिए काम करने लगा। मुझे तो इस बात पर ताज्जुब है कि मुझे इतनी आसानी से काम कैसे मिल गया?"

बातों ही बातों में पूरी शाम निकल गई। दीपशिखा की पीपलवाली कोठी जाने की बात सुन सब ताज्जुब से भर उठे - ये अचानक कैसे जाने का प्लान कर लिया? आज ही तो हम मिले हैं।"

दीपशिखा ने अलसाई सी अँगड़ाई ली - "माँ की याद सता रही है, कुछ दिन आराम भी करना चाहती हूँ।"

"झूठ... मन तो शेफाली भाभी के बिना नहीं लग रहा है। हम तो कुछ हैं ही नहीं आपके।" सना ने नाराजी से कहा।

"जाने भी दो सना... हम इनके हैं कौन?" शादाब ने भी नाराजगी प्रगट की।

दीपशिखा का इरादा पिघलने लगा। सभी का आग्रह उसके दुखी मन पर मलहम की तरह लग रहा था। वह हँसकर बोली - "सुबह तक का टाइम तो दो सोचने के लिए।"

"चलो दिया।"

"ऐसे नहीं... इनकी सोच का मुँह पानीपूरी से भरना होगा।" सब हँसते, मुस्कुराते बाहर निकले। एक डेढ़ घंटा दोस्तों के साथ गुजारकर दीपशिखा काफी हलकापन महसूस कर रही थीं। गौतम उसे पहुँचाने घर तक आया - "अगर जाने का मन बना ही लिया है तो... अपना खयाल रखना दीपशिखा। लौटोगी तो मुझे अपने इंतजार में पाओगी। जानता हूँ यह मौका नहीं है कुछ कहने का, पर मैं हमेशा मन की सुनता हूँ।"

दीपशिखा उसे निहारती ही रह गई। उसके आँखों से ओझल होते ही उसे लगा जैसे अपना कुछ छूटा जा रहा हो... अरसा लगा था मुकेश से खुद को अलग करने में... जीवन का पहला प्यार फूल में बसी खुशबू जैसा होता है। फूल सूख जाता है पर खुशबू नहीं जाती। नीलकांत ने उसे खुशबू को अपनी धड़कनों में बसा लेने का नाटक किया। टूटी थी दीपशिखा, ...सहारा पाकर जुड़ने लगी थी लेकिन इस बार की टूटन? सब कुछ होते हुए भी दीपशिखा लुटा हुआ सा खुद को पा रही है। सुलोचना और यूसुफ खान की बेशुमार दौलत की अकेली हकदार... पीपलवाली कोठी की राजकुमारी, अत्यंत रूपमती... दीपशिखा... कला के लिए धड़कता मासूम दिल... क्यों टूटा बार-बार और क्यों भीड़ में अकेली रह गई दीपशिखा।

"कल सुबह दस बजे की फ्लाइट की टिकट आ गई है बिटिया रानी... मैं भी चल रही हूँ साथ में।" कहते हुए दाई माँ जल्दी-जल्दी अपना और दीपशिखा का सूटकेस तैयार कर रही थीं। महेश काका बाजार गए थे... सुलोचना ने कुछ चीजें मँगवाई थीं, उसी की खरीद फरोख्त करने। दीपशिखा टब बाथ ले रही थी। फोन की घंटी बजी तो दाई माँ ने दरवाजा खटखटाया - "फोन है शेफाली बिटिया का।"

जरा सा दरवाजा खोलकर दीपशिखा ने फोन लिया - "क्या कर रही है, इतनी देर क्यों लगी फोन उठाने में।"

हमेशा की तरह शेफाली की चुलबुली आवाज सुन दीपशिखा भी मुस्कुराई - "नहा रही हूँ जानेमन, हनीमून के बिजी शेड्यूल में मुझ नाचीज को कैसे याद किया?"

"आ जो रही हूँ... दिल्ली एयरपोर्ट पे हूँ... दोपहर तीन बजे तक पहुँच जाऊँगी।"

"क्यों भई, दो दिन पहले ही पैकअप कर लिया?"

"करना पड़ा, तुषार से मिलने कुछ सीनियर डॉक्टर्स जापान से मुंबई आ रहे हैं... बहुत जरूरी है पहुँचना। अच्छा, रखती हूँ। फ्लाइट अनाउंस हो गई। शाम को घर आती हूँ।"

दीपशिखा जल्दी-जल्दी नहाकर बाहर आई - "दाई माँ, पैकिंग खोल दो... हम नहीं जा रहे हैं।"

दाई माँ ठोड़ी पर हाथ रख अवाक मुद्रा में खड़ी रह गईं।

जुहू किनारे दीपशिखा का हाथ पकड़े शेफाली समंदर में डूबते सूरज को देख रही थी। दूर कहीं बारात के बाजे बज रहे थे। हवा में उमस थी - "मुझे नीलकांत पे शक तो था पर मैं उसे अपना फितूर समझ चुप थी। भूल जाओ दीपू सब कुछ, जानती हूँ यह कह देना आसान है पर..."

"भूलने की कोशिश मैं भी करूँगी लेकिन शेफाली, मेरे ही साथ ऐसा क्यों होता है? क्यों बार-बार मैं छली जाती हूँ?"

"तुम बहुत भोली हो दीपू... किसी पर भी सहज विश्वास कर लेती हो। तुम्हारा दिल प्रेम से पगा है, छल कपट नहीं जानता लेकिन दुनिया में कामयाबी हासिल करने के लिए थोड़ी होशियारी भी तो होनी चाहिए न दीपू।"

"शेफाली, क्या हालात बदलते ही हमारे भीतर का भी सब कुछ बदल जाता है या अलग कलेवर में सभी कुछ बार-बार वापिस आता है।"

शेफाली खामोश रही। काश... ऐसा हो कि उसकी सखी को भी अलग कलेवर में सब कुछ वापिस मिल जाए। वे लम्हे जिनमें वह प्यार के लिए उमड़ी थी। वो उमड़न उसे वापिस मिल जाए।

धीरे-धीरे जिंदगी वापिस अपने ढरल्ले पर आ गई। हर आड़े-दूसरे स्टूडियो में दोस्तों के साथ बैठक होने लगी। नए-नए प्लान बनने लगे। शेफाली नौकरी के लिए अप्लाई करने लगी... जहाँ भी देखती आर्ट टीचर की डिमांड है अपने हाथ से एप्लीकेशन दे आती। गौतम और दीपशिखा की मुलाकातें बढ़ने लगीं। जख्म भी भरने लगे... लेकिन नहीं... जख्म भरने के जिस भ्रम में वह थी उसकी ऊपरी पपड़ी अचानक उखड़ गई और ताजे खून की बूँद छलक आई। वह गौतम के साथ मरीन ड्राइव के समंदर के किनारे खरामा-खरामा चल रही थी कि नीलकांत की गाड़ी उसके करीब आकर रुकी, दरवाजा खुला और किसी के मजबूत हाथों ने अंदर घसीट लिया और गौतम जब तक कुछ देखता समझता गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। दीपशिखा नीलकांत के मुस्कुराते चेहरे को देखकर तिलमिला गई - "यह क्या बदतमीजी है। धोखेबाज तो तुम हो ही अब किडनैपर भी हो गए?"

"किडनैपर नहीं... आशिक... तुम्हारा पृथ्वीराज चौहान दीप।"

"क्या चाहते हो? मुझे इस तरह किडनैप करके कहाँ ले जा रहे हो?"

गाड़ी ताज होटल के सामने आकर रुकी। नीलकांत उसका हाथ पकड़े होटल के एक कमरे में जो उसने पहले से बुक किया था ले आया... वह तड़प उठी।

"मैं एक पल भी तुम्हारे साथ गुजारना नहीं चाहती, नफरत करती हूँ तुमसे... मुझे तुम्हारी शक्ल देखना भी मंजूर नहीं मिस्टर नीलकांत।"

नीलकांत ने उसे बाँहों में भरकर उसके होठों पर अपने होठ टिका दिए। अब उसकी मुट्ठियों में दीपशिखा के बाल थे जिन्हें सख्त पकड़कर उसने उसका चेहरा उठा सा दिया तकलीफ से दीपशिखा के माथे पर लकीरें उभर आईं।

"बताओ... कब से गौतम के संग तुम्हारे रिलेशन हैं। मुझे उल्लू बनाती रहीं और मेरी आड़ में इश्क उससे करती रहीं... धोखेबाज तुम हो।"

दीपशिखा दंग रह गई। इस उलटवार की उसे उम्मीद न थी।

"बताओ तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?"

उसने नीलकांत को धक्का देकर खुद को छुड़ाया और तेजी से दरवाजे की ओर मुड़ी।

"मेरी बात का जवाब दिए बिना तुम नहीं जा सकतीं।" नीलकांत ने जोर से उसकी बाँह पकड़ी। नरम मांस पर उसकी उँगलियों के निशान उभर आए।

"क्या कर लोगे? मेरा मर्डर? और तुम कर भी क्या सकते हो? अपनी गलती मुझ पर थोपकर तुम भले ही अपनी सफाई में कुछ भी करो पर अब चैन तुम्हें जिंदगी भर नहीं मिलेगा।" दीपशिखा उत्तेजित थी। उसे पसीने का अटैक सा आया। मुँह में पानी सा भरने लगा। देखते ही देखते उस दिन जैसा उबाल उसके पेट से सीने की ओर उछला। वह भागकर बाथरूम में गई और उल्टी करने लगी। पीछे-पीछे नीलकांत आया। उसकी पीठ सहलाने लगा। दीपशिखा ने उसके हाथ झटक दिए। वह थोड़ी देर दीवार से लगकर खड़ी रही।

"लेट जाओ, दवा मँगवाता हूँ।"

दीपशिखा ने आँखें तरेरकर नीलकांत की ओर देखा और दरवाजा खोल बाहर निकल गई। नीलकांत ने उसे नहीं रोका।

टैक्सी लेकर दीपशिखा सीधी शेफाली के घर गई। शेफाली डिनर तैयार कर रही थी। उसे देखकर खुशी से भर उठी - "अच्छे वक्त पर आई तू, मैं तेरा मनपसंद गुच्छी पुलाव बना रही हूँ।"

दीपशिखा उससे लिपटकर रो पड़ी। रोते-रोते ताज होटल में घटी सारी घटना उसे सुनाई। उल्टी की बात सुन शेफाली ने पूछा - "नीलकांत को गोली मार... ये बता तुझे बार-बार उल्टियाँ क्यों आ रही हैं? कहीं तू प्रेग्नेंट तो नहीं?"

दीपशिखा के पैरों तले से जमीन खिसक गई - "हो सकता है। मुझे पीरियड्स भी तो नहीं आ रहे हैं। मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया। अब क्या होगा?"

"इसका मतलब है कि तुझे पूरी तरह से नीलकांत से छुटकारा नहीं मिला है। एबॉर्शन कराना पड़ेगा।"

दीपशिखा चकरा गई - "कैसे? दाई माँ अनुभवी हैं, पल पल की खबर रखती हैं।"

शेफाली थोड़ी देर सोचती रही। एकाएक उसका ध्यान दीपशिखा की बाँह की ओर गया। नीलकांत की उँगलियों के निशान लाल लाल उभरे हुए थे - "बाप रे... रीयली राक्षस ही है नीलकांत। एक दिन जरूर मेरे हाथों से पिटेगा।"

और दौड़कर क्रीम उठा लाई। दीपशिखा की दुर्गति से उसकी आँखों में भी पानी तैर आया। तभी उसके सास ससुर घूम कर लौटे। दीपशिखा को देखकर दोनों खुश हो गए -"बहुत दिनों बाद आईं आप?"

"जी, थोड़ा बिजी थी।"

"चाय नाश्ता लिया?" सास उसके बाजू में ही बैठ गईं।

"जी" दीपशिखा समझ गई अब शेफाली से बात होनी मुश्किल है।

"तो मैं चलूँ?"

शेफाली ने भी यही ठीक समझा। उसने ड्राइवर से दीपशिखा को उसके घर छोड़ आने के लिए कहा। गाड़ी में बैठाकर शेफाली ने उसे तसल्ली दी - "कल तक कुछ प्लान करते हैं।"

दीपशिखा ने आँखें झपकाईं।

जैसे ही गेट के सामने गाड़ी रुकी उसने गौतम को खड़े पाया - "अरे... तुम अभी आए?"

"नहीं... फोन लगा-लगा कर थक गया। तुम्हारे घर जाना मैंने उचित नहीं समझा। तब से यहीं खड़ा हूँ।"

जाने क्या हुआ... किस लम्हे ने कहाँ छुआ उसे कि वह बेकरार हो गौतम से लिपट गई। दोनों की खामोशी सूनी सड़क पर बहुत कुछ कहती हुई फूलों की खुशबू और हवाओं के संग बहती हुई बार-बार दोनों से लिपटती रही... रात ढलती रही।

तय हुआ कि शेफाली उसे लेकर पूना जाएगी और वहीं एबॉर्शन होगा।

"दाई माँ को क्या बताना है और गौतम जो हर पल मेरे साथ रहता है। पता है कल वह मेरे घर के सामने तब तक खड़ा रहा जब तक मैं लौट नहीं आई।"

"लगता है तेरी भटकन अब समाप्त हुई और तुझे सच्चा जीवन साथी मिल गया। उसे सच बता दे। वह तुझे प्यार करता है। अगर उसे कहीं और से पता चला तो वह टूट जाएगा। दाई माँ को प्रदर्शनी का बताओ।"

दीपशिखा खुद को तैयार करने लगी। गौतम को सच बताना जरूरी है। धीरे-धीरे उम्र की परिपक्वता से दीपशिखा ने महसूस कर लिया था कि गौतम अंत तक उसका साथ देगा। मुकेश उसे प्यार नहीं करता था बल्कि वह कच्ची उम्र का जुनून था। जो चढ़ा और उतर गया। नीलकांत के प्यार में वासना थी। वासना ही प्यार में प्रतिशोध पैदा करती है। नीलकांत का ताज होटल में जो आक्रामक रवैया था वह दीपशिखा के द्वारा ठुकराए जाने और हताशा की वजह से था जिसने नीलकांत को जानवर बना दिया था। शायद इतनी प्रख्यात कुशल चित्रकार को अपने प्रेम के जाल में फँसाकर उसे एक वस्तु की तरह इस्तेमाल करने में नीलकांत का कुंठित मन संतुष्ट हुआ हो। यह बात पहले क्यों नहीं समझ पाई दीपशिखा। नीलकांत के बरक्स गौतम ने उसकी हर चोट को सहलाया है... दीपशिखा की तरफ से उसके प्रति उचाट, ठंडा व्यवहार भी गौतम को डिगा नहीं सका। अभी भी नहीं डिगेगा गौतम... जानती है वह।

उसने गौतम को फोन लगाया - "तबीयत ठीक नहीं है गौतम।"

"घर पे हो न... आता हूँ।"

आधे घंटे में पहुँच गया वह - "तो तुम्हारे घर आने का आज मुहूरत निकला?" वह हँसते हुए बैठ गया - "कैसी हो, क्या हुआ?"

दाई माँ की वजह से बताना मुमकिन नहीं था - "वो तो तुम्हें बुलाने का बहाना था। एक खुशखबरी सुनानी थी। मेरे और शेफाली के चित्रों की प्रदर्शनी पूना में लग रही है। तुम चलोगे?"

"क्यों नहीं? तैयारी हो गई?"

"आज सुबह ही फोन आया कि दो दिन बाद पहुँचना है। चित्र तो तैयार हैं... बस, रीटच देना होगा। आज घर पर ही आराम करूँगी। कल स्टूडियो जाऊँगी।" और अपने इस झूठ पर वह ग्लानि से भर उठी। गौतम ने इस सवाल को अंदर ही दबोच लिया कि... 'तुम जो कह रही हो... वजह वो नहीं लग रही है मुझे।' दीपशिखा उठकर देख आई... दाई माँ रसोई में सब्जी काट रही थीं - "गौतम के लिए भी खाना बनेगा दाई माँ।"

और वह गौतम को लेकर बाल्कनी में आ गई। बादलों की वजह से धूप नहीं थी, मौसम सुहावना लग रहा था। समुद्र में दूर एक जहाज की चिमनी धुआँ उगल रही थी। उसने धीरे-धीरे सब कुछ बताया, बता कर रिएक्शन देखने के लिए उसने गौतम की ओर देखा... एक देवत्व नजर आया वहाँ। एक ऐसी गहराई जहाँ खुद को खँगाल सकती है वह... सिर्फ आज ही नहीं, बल्कि हमेशा।

पूना में एक दिन पहले जाकर गौतम ने डॉक्टर से अपॉइंटमेंट और होटल बुक किया। दाई माँ को बताना पड़ा कि सामान ज्यादा होने के कारण बड़ी गाड़ी किराए से ली है। वैसे भी दाई माँ ज्यादा दखलंदाजी नहीं करतीं लेकिन अपने मन में अपराध बोध होने के कारण दीपशिखा सतर्क थी। जब वह शेफाली के साथ पूना पहुँची तो गौतम एक जिम्मेवार युवक सा होटल के रिसेप्शन में उनका इंतजार कर रहा था। बारह बजे का अपॉइंटमेंट था। फ्रेश होकर दीपशिखा को छोड़कर दोनों ने नाश्ता किया। दीपशिखा को नाश्ता नहीं करना है डॉक्टर की हिदायत थी। एनस्थीशिया के लिए कुछ भी न खाना बेहतर है वरना उल्टियाँ होने लगती हैं। जब वे मेटरनिटी होम पहुँचे, डॉ. उन्हीं का इंतजार कर रही थीं। दो बजे तक सब कुछ सहूलियत से निपट गया था। ऑपरेशन रूम से जब नर्स दीपशिखा को लेकर बाहर आई तो वह बहुत कुम्हलाई और बीमार नजर आ रही थी। दवाइयाँ, प्रीकॉशन समझाते हुए डॉक्टर ने गौतम से कहा - "आपकी वाइफ बहुत वीक हैं। इन्हें खास देखभाल की जरूरत है। टेंशन से इन्हें दूर रखें वरना डिप्रेशन भी हो सकता है। ओ.के.।"

डॉक्टर के वाइफ कहने पर दीपशिखा चौंकी थी पर शेफाली ने उसका कंधा दबाया। बाहर निकलते हुए आहिस्ते से कहा - "और क्या कहता गौतम कि तुम कुँवारी हो?"

हलका फुलका खाकर दीपशिखा सोना चाहती थी। शेफाली और गौतम ने उसे आराम करने दिया और खुद कमरे से बाहर चले गए।

"दीपशिखा बहुत बीमार दिख रही है। दाई माँ से क्या कहेंगे? कहीं शक न हो जाए।"

शेफाली की चिंता सही थी लेकिन गौतम सहज था - "हमारे मन में दुविधा है इसलिए हम ऐसा सोचते हैं... कहीं जाकर क्या कोई बीमार नहीं पड़ता?"

शेफाली को गौतम बेहद सुलझा हुआ लगा।

"दीपू ने बहुत सहा है गौतम। अगर तुम उसके साथी बन जाओ तो वह जी उठेगी।"

"साथी हूँ न, अभी तक तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं उसे प्यार करता हूँ, उसकी केयर करता हूँ, उसके लिए हमेशा हाजिर हूँ।"

शेफाली आश्वस्त हुई। रात दबे पाँव आ चुकी थी।

"एक बात मानोगे गौतम? मैं चाहती हूँ तुम दीपू के कमरे में ही रुको, मैं तुम्हारे कमरे में सोऊँगी। अभी तुषार का फोन आ जाएगा, नाहक डिस्टर्ब होगी दीपू।"

गौतम ने कमरे की चाबी उसकी ओर बढ़ा दी। दीपशिखा के कमरे में रखा शेफाली का बैग भी वहाँ पहुँचा दिया।

करीब एक बजे दीपशिखा ने कराहते हुए करवट ली। गौतम ने लाइट जलाई। उसके पास जाकर पूछा - "क्या हुआ दीपशिखा, कुछ चाहिए?"

वह उठने की कोशिश करने लगी पर उठा नहीं गया। ब्लीडिंग बहुत अधिक हो रही थी - "शेफाली?"

"वो मेरे कमरे में सो रही है, कुछ चाहिए?"

उसने बाथरूम जाना चाहा। गौतम उसे बाथरूम तक पहुँचा आया। उसका गाउन खून से खराब हो चुका था। गाउन बदल कर वह पलंग तक आई। गौतम ने सहारा दिया। पानी पिलाया। घंटे भर बाद फिर वही हाल। अब की बार गौतम ने उसे उठने नहीं दिया। उसी ने नर्स बनकर सब कुछ चेंज किया। रात भर जागता रहा। सुबह तक दीपशिखा की तबीयत में सुधार था।

"मैं सोचता हूँ कल सुबह हम लोग मुंबई लौटें। दीपशिखा के लिए ये सही होगा।" गौतम ने रात की बात शेफाली को नहीं बताई लेकिन दीपशिखा और शेफाली का रिश्ता पारदर्शी था। गौतम जब नहाने गया उसने सब कुछ बता दिया।

"ग्रेट... मैं कहती थी न दीपू कि तुझे अब सच्चा जीवन साथी मिल गया है।"

"रात भर उसने मेरे पैड बदले, मेरा नरक ढोया।"

"अब नरक खत्म। अब धरती पर ही स्वर्ग के दरवाजे खुल गए हैं तेरे लिए।"

दीपशिखा शेफाली के कंधे पर सिर रखकर रो पड़ी। शेफाली ने उसे रो लेने दिया। वह अपनी सखी को बेइंतिहा प्यार करती है और जानती है कि दीपशिखा अब और भी अधिक मजबूत हो गई है। मुश्किलें इनसान को मजबूत बना देती हैं फिर इससे क्या कि वह पराए बदन से गुजरकर मजबूत बनी है। अब तो उसे अपना साथी मिल ही गया है।

पूना से लौटकर दीपशिखा ज्यादातर समय स्टूडियो में गुजारने लगी। वह काम के प्रति बेहद गंभीर होती जा रही थी। इस साल बैंगलोर, कोलकाता और मॉरीशस में प्रदर्शनी आयोजित करने का बुलावा विभिन्न संस्थाओं द्वारा आया था जिसे अपनी कला की सफलता मान दीपशिखा की टीम कमर कस कर जुट गई थी। शेफाली उतना समय तो नहीं दे पाती थी लेकिन इन प्रदर्शनियों में उसकी भी पेंटिंग्स होंगी यह तय था। शामें गौतम के साथ गुजारकर दीपशिखा ऊर्जा से भर उठती थी... दीपशिखा के साथ गौतम भी जो नौकरी की तलाश में दिन भर भागदौड़ में रहता था।

जाड़े के शुरुआती दिनों में दो खुशखबरियों ने दीपशिखा के दरवाजे पर दस्तक दी। पहली तो ये कि बैंगलोर और कोलकाता की चित्र प्रदर्शनियों की सफलता से जहाँ एक ओर 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' ने यश और धन एक साथ प्राप्त किया था वहीं मॉरीशस के साथ-साथ उन्हें फीजी में भी आमंत्रित किया गया था। दीपशिखा रातोंरात सेलेब्रिटी हो गई थी क्योंकि उसके चित्र ही सबसे ज्यादा बिके थे और दूसरी खुशखबरी थी गौतम की विदेशी कंपनी में पी.आर.ओ की नौकरी पाने की। अब दोनों इतने अधिक व्यस्त हो गए थे कि एक-दूसरे के लिए समय कम ही निकाल पाते। गौतम सुबह से रात तक व्यस्त रहता। रात ग्यारह बजे ही फोन पर बात हो पाती। हालाँकि इस बात से दीपशिखा डिस्टर्ब नहीं थी लेकिन गौतम था। वह अब दीपशिखा के साथ ही रहना चाहता था। ओशीवारा में गौतम के बड़े भाई का बंगला था जो बंद पड़ा था। वे दुबई में सैटिल हो गए थे और गौतम से उनका आग्रह था कि वह बंगला या तो खुद खरीद ले या बिकवा दे। खुद खरीदना चाहता है तो बस जमीन की कीमत दे दे। बाजार भाव से उन्हें कुछ लेना देना नहीं था। काफी सोच विचार के बाद गौतम और दीपशिखा ने मिलकर बंगला मुनासिब दाम में खरीद लिया। तय हुआ कि वे बंगले में दीपशिखा की विदेश यात्रा के बाद ही शिफ्ट होंगे वरना दीपशिखा डिस्टर्ब हो जाएगी। वैसे भी इस बार उसने काफी कठिन थीम चुनी है। वह कालिदास के संपूर्ण लेखन की सीरीज चित्रित कर रही है जो अपने आप में अनोखा और अद्भुत काम है। इन चित्रों में वह तमाम चटख रंगों का इस्तेमाल कर रही है और हर चित्र के नीचे कालिदास रचित काव्य की दो पंक्तियाँ चमकीले रंगों से उकेर रही है। शेफाली ग्रीक मिथक कथाओं की श्रृंखला बना रही है बल्कि 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' के सभी चित्रकार इस बार मिथकों और पुरा कथाओं पर ही काम कर रहे हैं।

विदेश यात्रा पर जाने से पहले दीपशिखा पीपलवाली कोठी केवल दो दिनों के लिए गई। सुलोचना ने बताया था कि यूसुफ खान एंजाइना की बीमारी से पीड़ित हैं।

"ये क्या रोग पाल लिया आपने पापा। मैं मॉरीशस और फीजी से लौटते हुए आपको मुंबई बुला लूँगी। वहाँ बेहतर इलाज की संभावना है... और अब तो रहने के लिए शानदार बंगला भी है।"

"बंगला... किसका?" सुलोचना ने आश्चर्य से पूछा।

"हमारा... मैंने जुहू वाला फ्लैट भी बेच दिया है। विदेश से लौटते ही हम ओशीवारा शिफ्ट हो जाएँगे।"

"हम कौन?" पापा की त्यौरियाँ चढ़ चुकी थीं।

खामोश रही दीपशिखा। यह मौका गौतम के बारेमें कुछ कहने का नहीं है। पापा का तनाव बढ़ सकता है जो एनजाइना की बीमारी में खतरनाक है। लेकिन बात तो दाई माँ ने उन तक पहुँचा दी थी।

"तुम क्या गौतम की बात कर रही थीं? आजकल उसी से तुम्हारी दोस्ती चल रही है न?" सुलोचना ने दीपशिखा का मन टटोलना चाहा।

"हाँ... तो क्या हुआ... हम सब कलाकार हैं। प्रोफेशन ही ऐसा है कि दोस्त बन जाते हैं। माँ... पापा की रिपोर्ट्स मुझे दे दो। मैं तुषार को दे दूँगी ताकि वह डॉक्टरों से कंसल्ट कर सके।"

फिर देर तक दीपशिखा प्रदर्शनियों के किस्से सुनाकर दोनों का दिल बहलाती रही। मुंबई वापिसी के दौरान दोनों को ही उतना खुश नहीं देखा दीपशिखा ने जितना यूरोप जाते समय देखा था। वह दाई माँ को लेकर भी उलझन में पड़ गई थी।

एक महीने मॉरीशस और फीजी में चर्चा का विषय बना 'अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट' जब भारत लौटा तो अखबारों के सेलेब्रिटी पेज में खासकर दीपशिखा और शेफाली रंगीन चित्रों सहित छपी थीं। कई चैनलों ने उनके साक्षात्कार भी लिए थे। आते ही तुषार ने शेफाली को पब्लिक स्कूल में आर्ट टीचर की उसकी नियुक्ति का पत्र उसे थमाया तो खुशी से चहक उठी शेफाली। उसने तुरंत दीपशिखा को खुशखबरी सुनाई - "आज का दिन तो सेलिब्रेट करने का है।"

"बुध को गृहप्रवेश का मुहूर्त निकला है। क्यों न हम अपने बंगले में ही इसे सेलिब्रेट करें। तू अभी आजा। बंगला देखने चलते हैं।" दीपशिखा ने बेहद खुशी से भरकर कहा।

"आती हूँ चार बजे शाम को।" फोन रखते ही सुलोचना का फोन - "कैसा रहा सफर?"

"शानदार... माँ अब आपकी बेटी प्रतिष्ठित चित्रकारों की श्रेणी में आ गई है। और बंगले में गृहप्रवेश का मुहूर्त भी बुधवार का निकला है। क्या आप आ सकेंगी?"

तभी गौतम ने पीछे से आकर उसके गले में बाँहें डाल दीं। उसकी आवाज पल भर को लड़खड़ाई फिर सहज हो गई।

"नहीं दीपू... तुम्हारे पापा के लिए सफर करना ठीक नहीं है और मैं नौकरों के भरोसे उन्हें नहीं छोड़ सकती।"

"माँ... मैं दाई माँ और महेश काका को वापिस भेज रही हूँ। मैं अधिकतर टूर पे रहती हूँ, या स्टूडियो में। खाना पीना भी घर पे नहीं के बराबर होता है। वहाँ रहकर वो दोनों पापा की देखभाल करें ये बात इंपॉर्टेंट है।" सुलोचना समझ गईं... दीपशिखा अब अपनी जिंदगी में किसी की दखलंदाजी नहीं चाहती। वे जानते हैं गौतम और दीपशिखा ने मिलकर बंगला खरीदा है और वे दोनों अब साथ रहेंगे।

बंगला बेहद शानदार था। गुलमोहर के पेड़ों से घिरा, बड़े बड़े कमरों वाला। खूबसूरत बगीचा, लंबा चौड़ा लॉन... गृहप्रवेश के दिन दीपशिखा ने कड़ी मेहनत से बंगला दुल्हन की तरह सजाया था। शेफाली का परिवार, सभी चित्रकार दोस्त और चार पाँच गौतम के दोस्त... कुल मिलाकर बीस लोगों के लिए दाई माँ ने लजीज भोजन बनाया था। हवन के सुगंधित धुएँ ने बंगले को मानो आध्यात्मिक स्थल सा बना दिया था। पंडित जी को जिमाकर, दक्षिणा आदि देकर बिदा कर दिया गया था और सभी मिलकर अब पार्टी का लुफ्त उठा रहे थे। सना, शादाब झूम झूम कर नाच रही थीं, एंथनी ने शराब का इंतजाम भी किया था और दाई माँ अवाक खड़ी सारा नजारा देख रही थीं। दीपशिखा को लेकर ऐसी जिंदगी की कल्पना भी उनके लिए दूभर थी।

दूसरे दिन सुबह दीपशिखा ने एक अटैची भर साड़ियाँ, ब्लाउज, चादरें वगैरह दाई माँ और महेश काका को थमाते हुए दो एयर टिकटें भी दीं।

"तैयारी कर लो दाई माँ... अब तुम दोनों की मुझे नहीं बल्कि माँ पापा को जरूरत है। पापा बीमार हैं। वहाँ पहुँचकर पल पल की खबर मुझे देना। अब तुम लोग एयरपोर्ट के लिए रवाना हो जाओ।"

और वह दाई माँ से लिपटकर रो पड़ी। दाई माँ और महेश काका भी रोने लगे। गौतम उन्हें एयरपोर्ट पर छोड़ते हुए ऑफिस चला जाएगा। वह जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा था। कार में बैठने से पहले दाई माँ ने धीरे से कहा - "बिटिया रानी, ऐसा कुछ मत करना जिससे पीपलवाली कोठी बदनाम हो।"

दीपशिखा पर इस बात का कोई असर नहीं हुआ बल्कि अब वह इंतजार कर रही थी कि कब दाई माँ पहुँचे और कब विस्फोट हो।

और हुआ भी यही। फोन पर सुलोचना की आवाज विचलित कर देने वाली थी।

"दाई माँ से सारी बातों की जानकारी मिली। गौतम से बात कराओ मेरी।"

दीपशिखा घबराई जरूर लेकिन तुरंत ही उसने खुद पर काबू पा लिया। गौतम ने लाउडस्पीकर ऑन कर लिया - "जी माँ..."

"माँ कहा है तो बस इतना करो। मंदिर जाकर शादी कर लो। कम से कम समाज थूकेगा तो नहीं हम पे... यही कहेगा कि बेटी ने बिना बताए शादी कर ली।"

गौतम और दीपशिखा चुप थे।

"क्यों... चुप क्यों हो? क्या इतना ही हौसला रखते हो? डरते हो बंधन से? आजादी चाहिए न?"

दीपशिखा ने फोन अपनी तरफ किया - "हाँ माँ, आजादी चाहिए। मैं बंधन में नहीं बँधना चाहती। माँ, मुझे माफ करो।"

उसने फोन काट दिया और खामोशी से उठकर लॉन की ओर चली गई। माली ने अभी-अभी लॉन की दूब सींची थी। भीगी दूब पर वह नंगे पाँव चलने लगी। पैरों के संग-संग आँखें भी भीगने लगीं।

वह रात भर माँ के बारे में ही सोचती रही। सच है, उसे लेकर उनके भी कई ख्वाब होंगे। शादी, मंडप, दामाद, बिदाई, जैसे हर माँ का बेटी के लिए सपना होता है उनका भी तो होगा। पर उसने उन्हें सिवा रुसवाई के दिया क्या? पापा से शादी भी उनके लिए एक चुनौती थी और अब वह भी उनके लिए चुनौती बन गई है।

दीपशिखा के बंगले में शिफ्ट होने के साल भर के अंदर घटनाओं ने तेजी से करवट बदली। सना शादी के बाद रायपुर चली गई और शादाब जबलपुर। जास्मिन ने अचानक चित्रकारी छोड़कर मॉडलिंग का क्षेत्र चुन लिया। आफताब ने फोर्ट में अपना बहुत बड़ा स्टूडियो खोलकर अखबारों, पत्रिकाओं में कार्टून बनाने का काम शुरू कर दिया। एंथनी अब भी दीपशिखा और शेफाली के साथ था लेकिन वह भी अब स्थायी नौकरी की तलाश में था। अखबारों में दक्षिण भारत में प्रति दो वर्ष में आयोजित होने वाले 'कलाकुंभ' की खबरें पढ़कर और उससे भी अधिक इस कलाकुंभ में सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर दीपशिखा और शेफाली खुशी से नाच उठीं। यह एक ऐसा अवसर था जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार शामिल होते थे। इस बार प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध केरल में यह आयोजित हो रहा था। तीन महीने तक चलने वाला इस आयोजन में पूरे विश्व से कई प्रमुख चित्रकार हिस्सा लेंगे। दीपशिखा को अपना बेस्ट साबित करना था। वह पूरी एकाग्रता से कला कुंभ की तैयारी में जुट जाना चाहती थी। बहुत बड़ी चुनौती है उसके सामने। अपनी खुशियों को शेफाली के संग बाँटते हुए वह जॉगिंग गार्डन में गौतम का इंतजारकर रही थी। गौतम के साथ आज की शाम वे तीनों नाटक देखेंगे और चायनीज डिनर के बाद घर लौटेंगे।

"थीम क्या सोची है तुमने दीपू?"

"सोच ली है... मैं 'नृत्य उत्सव' पर पेंटिंग्स तैयार करूँगी। सेमीरियलिस्टिक स्टाइल में नृत्य का एक संसार ही मैं अपने चित्रों में उतारूँगी। जिसमें अजंता एलोरा के भित्ति चित्रों के लुक में मानव आकृतियाँ नृत्य का उत्सव मनाती नजर आएँगी, ये परंपरागत नृत्य से अलग हटकर होगा। मैं इनके जरिए संगीत के मार्ग से होकर ईश्वर से साक्षात्कार का मिथक तैयार करूँगी।"

"अच्छी थीम है। मैं 'अपराजिता' चित्र श्रृंखला तैयार करूँगी। मेरे चित्र औरत की तमाम क्षेत्रों में सफलताओं के प्रतीक होंगे जिनमें छिपे होंगे वे बिंब जो औरत को सिर्फ भोग की वस्तु समझते हैं।" शेफाली की आँखों में अतीत के कई पन्ने फड़फड़ाए जिसमें दीपशिखा का अतीत भी पलभर को झाँका। गौतम के गेट से अंदर आते देख दोनों उठकर उसके पास आ गईं - "ठीक वक्त पर आए।"

"मैं टिकट्स भी ले आया हूँ। अभी प्ले शुरू होने में आधा घंटा है। चलो कॉफी पीते हैं और समोसे खाते हैं।"

"समोसे के साथ कॉफी?"

"तू चाय पी लेना शेफाली।" दीपशिखा ने हँसते हुए कहा।

नाटक बहुत अच्छे से मंचित होने के कारण तीनों ही इस शाम को सार्थक महसूस कर रहे थे। शाम तो वैसे भी सार्थक थी। कला कुंभ के लिए थीम भी तय हो गई थी और कई महीनों बाद गौतम और शेफाली के साथ कुछ घंटे फुर्सत से बिताने का मौका मिला था। यह भी तय हुआ था कि अगले दो महीने केवल जुटकर काम ही होगा। स्टूडियो में दीपशिखा तो लंच के बाद पहुँच जाएगी, शेफाली डेढ़ बजे स्कूल से सीढ़ी स्टूडियो पहुँचेगी और दोनों रात के आठ बजे तक काम करेंगी। शेफाली और दीपशिखा अब रोज आएँगी यह जानकर सैयद चचा की बाँछें खिल गई थीं। वैसे भी वे दिन भर स्टूल पर बैठे-बैठे तंबाखू फाँकते थे और ऊँघते थे। अब रौनक रहेगी।

दो महीने देखते ही देखते बीत गए। कला कुंभ का दिन भी नजदीक आ गया। केरल जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। शेफाली ने बताया था - "मालूम है दीपू... केरल में बहुत लार्ज स्केल में कला कुंभ का आयोजन हो रहा है। सात जगहों पर प्रदर्शनी का इंतजाम है। कुछ चित्रों को पब्लिक प्लेसेज में भी रखा जाएगा ताकि आम आदमी भी चित्रकारों से रूबरू हो सके।"

"पता है, मेरे पास भी सना का फोन आया था। ये तो लक की बात है कि हमारा एक शुभचिंतक वहाँ मौजूद है तो सारी खबरें पता हो रही हैं। सना का हनीमून पैकेज कितने दिन का है।"

"पूरा केरल घूमेंगे वो लोग, एक हफ्ते में लौटेंगे।" कहते हुए शेफाली अपने चित्रों को फाइनल टच देने लगी। सना फिर फोन पर थी - "काम करने दोगी कि नहीं?"

"मैं तो चकरा गई हूँ भाभी। अपने पर कोफ्त हो रही है। काश मैं भी भाग ले पाती। एक से बढ़कर एक नामी कलाकार आ रहे हैं। कोच्चि के किले के परेड ग्राउंड में इंस्टॉलेशन का काम पूरा हो चुका है।"

"ओ.के.... मियाँ के साथ नहीं है क्या?"

"वो बाथ ले रहा है। तुम मेरी एक्साइटमेंट नहीं समझ सकतीं। मुजीरिस समुद्र के किनारे पुराने बंदरगाह में जो प्राचीन किला है न, उसके दरबार हॉल का रीकंस्ट्रक्शन किया गया है इसी कला कुंभ के लिए। पेपर हाउस, पुराना डच स्टाइल का बड़ा बंगला और सोलह हजार वर्ग फीट का उसका कोर्टयार्ड आर्टिस्टों के स्टूडियो तथा रहने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। तुम्हारा और दीपशिखा का वहीं इंतजाम है रुकने का।"

"सना... तुम्हारा मियाँ नहा चुका होगा। उसके लिए कबाब ऑर्डर करो।"

"क्यों छेड़ रही है बेचारी सना को, ला फोन मुझे दे।"

दीपशिखा देर तक सना से वहाँ के हालचाल पता करती रही। फिर शेफाली से बोली - "दो दिन बाद हमारी फ्लाइट है। कल पूरा दिन हम आराम करेंगे और परसों पैकिंग।"

"हाँ यार, एक बड़ा बॉक्स तो मेरे चित्रों का ही होगा। तीन महीने रुकना है। विदेशी चित्रकारों के बीच चर्चाएँ, वार्ताएँ, सेमिनार, प्रेजेंटेशन और लाइव परफॉरमेंस... ड्रेसेस भी अच्छी रखनी पड़ेंगी।"

"थोड़ी शॉपिंग भी जरूरी है... कल शाम मिलते हैं हम। सैय्यद चचा... तीन महीने के लिए बिदा। कल ड्राइवर आएगा। आप हमारे ये बॉक्स गाड़ी में रखवा देना।"

"अच्छा बिटिया... बेस्ट ऑफ लक।" सैय्यद चचा सेल्यूट की मुद्रा में खड़े हो गए।

रात को दीपशिखा ने सुलोचना को फोन लगाया। वे बार-बार नाराजीवश काटती रहीं लेकिन अंत में माँ का दिल... हाँ, बता दीपू, क्यों परेशान कर रही है?"

दीपशिखा ने कलाकुंभ की एक-एक बात विस्तार से बताई। दीपशिखा की इस सफलता से सुलोचना ने आवाज दी - "यूसुफ... सुना तुमने हमारी बेटी चोटी की चित्रकार हो गई है..." फिर जाने क्या हुआ वे फोन पर ही रो पड़ीं और यह बात गौतम को बताते हुए दीपशिखा भी रोती रही। गौतम उसके बाल सहलाता रहा, आँसू पोंछता रहा - "बस करो शिखा (वह उसे अब इसी नाम से संबोधित करता था) तुम्हें एक बड़े मिशन को सफल बनाना है। सोने की कोशिश करो वरना तबीयत बिगड़ जाएगी।"

गौतम के प्यार ने उसे ऊर्जा से भर दिया था और इसी ऊर्जा के सहारे तीन महीने कला कुंभ में भागीदारी करके जब वह शेफाली के साथ मुंबई लौटी तो खिले पुष्प सी ताजगी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी गौतम को।

दीपशिखा का घर द्वार सम्हालने वाली गजाला ने फोन की लंबी लिस्ट लाकर दी - "आपकी गैर हाजिरी में जो फोन आए थे... आपका इंटरव्यू लेने के लिए ये दिवाकर जी कल का ही अपॉइंटमेंट माँग रहे थे।"

"ठीक है... तुम जाओ... मैं देख लेती हूँ।"

आलस्य के मूड में थी दीपशिखा। गौतम की इच्छा ऑफिस जाने की बिल्कुल नहीं थी पर अभी ही उसे खपोली के लिए निकलना है - "कोशिश करूँगा जल्दी आने की।"

गौतम के जाते ही दीपशिखा बिस्तर पर लेट गई। देर तक सोती रही। शाम को नहाकर उसने पीली एंब्रॉयडरी वाली काले रंग की अनारकली ड्रेस पहनी... बाल खुले छोड़ दिए और लॉन में आते हुए गजाला को चाय का ऑर्डर दे दिया। गौतम तयशुदा समय से पहले ही आ गया। दोनों लॉन में बैठकर चाय पीने लगे।

"क्या बात है प्रिंसेज... आज तो मुगल शहजादी लग रही हो।"

"शहजादी तो मैं हूँ, अपने पापा यूसुफ खान की..."

जैसे मन से आवाज निकली हो... उसके दिल की धड़कनों ने पापा पुकारा हो... इस वक्त? क्यों... क्यों उन तक पहुँचने के लिए वह तड़प उठी।

"क्या हुआ... कुछ गलत कह गया मैं?"

"नहीं गौतम... अचानक पापा याद आ गए। जब मुझे कुछ हासिल होता है तो मैं बड़ी शिद्दत से उसे माँ पापा के संग शेयर करना चाहती हूँ... उनकी शाबाशी चाहती हूँ पर..."

दो दिन बाद सूचना मिली यूसुफ खान को दिल का दौरा पड़ा है और वे सीरियस हैं। गौतम के साथ बिना शादी किए रहने के कारण लगभग डेढ़ साल से दीपशिखा उनकी नाराजी झेल रही थी और इसी नाराजी के कारण वह पीपलवाली कोठी नहीं जा पाई थी। लेकिन यूसुफ खान की बीमारी का सुन वह अपने को रोक नहीं पाई "मैंने कहा था न गौतम... पापा मुझे शिद्दत से याद आ रहे थे दो दिन से।"

गौतम ने उसे तसल्ली दी - "कुछ नहीं होगा। पहुँचते ही सारे हालचाल तुरंत बताना।"

सुलोचना उससे लिपट कर रो पड़ीं - "यह क्या कर डाला तूने? हम क्या शादी के लिए मना करते? मैंने तो खुद गौतम से कहा था। तभी से तेरे पापा गुमसुम रहने लगे थे।

"माँ... मुझे माफ कर दो। मैं ऐसी ही हूँ माँ।" दीपशिखा भी रोने लगी। रोते-रोते ही 'आई सी यू' में पापा को देखने गई। नालियों से पटा पड़ा शरीर। नाक पर ऑक्सीजन मास्क। दीपशिखा ने हाथ जोड़े - "पापा... मुझे माफ कर दीजिए।"

दीपशिखा को लगा पापा ने पलकें झपकाई हैं। लेकिन वह जीवन की अंतिम हरकत थी। वे काँपे और फिर स्थिर हो गए।

पीपलवाली कोठी सदमे में डूब गई। दीपशिखा सुलोचना को अपने साथ मुंबई लाना चाहती थी लेकिन सुलोचना ने इनकार कर दिया। वे दीपशिखा से अब नाराज नहीं थीं। कई बार उन्होंने उसकी जिद के आगे घुटने टेके हैं लेकिन इस वक्त वे यूसुफ के बिना जिस पीड़ा से गुजर रही थीं उसमें कोठी में रहना वे उचित समझती थीं।

"माँ... अकेलेपन में तुम पापा को बहुत अधिक मिस करोगी।"

"नहीं दीपू... वो तो मुझसे दूर गए ही नहीं। शरीर से वे मेरे साथ नहीं हैं... दीपू, आँसू मेरी आँखों में थम गए हैं पर मैं तरबतर हूँ उन आँसुओं से। मुझे सब कुछ महसूस करने दो।"

दीपशिखा ने जिस प्यार को पाने के लिए तीन बार तकदीर के दरवाजे खटखटाए, उस प्यार को माँ ने एक ही बार में पा लिया। उसने माँ की गोद में सर रख दिया - "माँ, काश मैं गौतम से शादी कर पाती। लेकिन माँ... जब तक इनसान और दूसरे बंधनों में है... आजाद नहीं है... तो वह कैसे एक और बंधन में बँधे। माँ... मैं चित्रकला के बंधन में जकड़ी हूँ, आजाद कहाँ हूँ?"

सुलोचना उसके बालों में उँगलियाँ फेरती रही - "तुम्हारे पापा भी लेखक थे। हाँ, मैं जानती हूँ वे वैवाहिक जिम्मेवारियाँ पूरी तरह नहीं उठा सके लेकिन फिर भी हम खुश थे।"

"लेकिन माँ वे पुरुष थे, मैं स्त्री... क्या ये अंतर हमारी स्थितियाँ स्पष्ट नहीं करता?"

सुलोचना को हथियार डालने पड़े। दीपशिखा के तर्क अकाट्य थे।

कर्मकांड की तमाम विधियाँ संपन्न होने के बाद मजबूरी में दीपशिखा को सुलोचना को अकेला छोड़कर मुंबई लौटना पड़ा - "माँ... डर रही हूँ यहाँ से जाते हुए... माँ, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। वादा करो, मेरे लिए खुद को सम्हालोगी।"

सुलोचना ने उसे कलेजे में भींच सा लिया। पीपलवाली कोठी दीपशिखा के जाते ही सन्नाटे में डूब गई।

यूसुफ खान की मृत्यु ने दीपशिखा के मन में गहरी उदासी भर दी थी। जिंदगी की तमाम बातों को वह पूरा जरूर कर रही थी पर मन में जैसे एक खेद सा बना हुआ था। लगता था इतनी उपलब्धियों के बावजूद वह जहाँ की तहाँ हैं क्योंकि उसके पापा उसके साथ नहीं हैं। वह जिनकी वजह से इस दुनिया में आई जब वे ही नहीं रहे तो किस काम की जिंदगी। अब डर सुलोचना को लेकर भी था। छै महीने गुजर गए यूसुफ खान को गए लेकिन सुलोचना की तबीयत सुधरने के बजाय दिन पर दिन गिरती जा रही है। कहीं वे भी... वह घबरा गई। गौतम कंपनी के काम से बैंगलोर गया था... दिन ज्यादा लग सकते थे इसलिए उसने दीपशिखा को पीपलवाली कोठी चली जाने की राय दी। दीपशिखा भी यही चाहती थी।

पीपलवाली कोठी का सन्नाटा देख दीपशिखा का मन रो पड़ा। हर वक्त गुलजार रहने वाली कोठी यूसुफखान के वियोग में सहमी सी नजर आ रही थी। सुलोचना बहुत दुबली लग रही थीं - "ये क्या हाल बना रखा है माँ? क्या मुझे भी मरा मान लिया।"

सुलोचना ने उसके होठों पर अपनी हथेली रख दी। कहा कुछ नहीं बस रोती रहीं। थोड़ी देर बाद दीपशिखा ने टी.वी. ऑन कर दिया - "माँ, टी.वी. ऑन रखा करो। अकेलापन महसूस नहीं होता... मैं तुम्हारे मनपसंद गानों की सी.डी. तैयार करवा के लाई हूँ, कुछ अच्छी फिल्मों की सी.डी. भी लाई हूँ। तुम्हें पसंद आएँगी।"

उसने सुलोचना के बालों में तेल लगाते हुए कहा।

"टी.वी. में कितने बोर प्रोग्राम आते हैं... देखने का मन भी नहीं करता।"

"देखने को कौन कह रहा है, बस चलने दिया करो। आवाजें सुनाई देती हैं तो घर भरा-भरा सा लगता है।"

सुलोचना के चेहरे पर अरसे बाद हँसी भोर में चिटखी कली सी तैर गई। अब उनकी बेटी बहुत गहरी बातें करने लगी है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है बुजुर्ग बच्चे हो जाते हैं और बच्चे बुजुर्ग।

"माँ जो छूट जाता है उसके लिए समझ लेना चाहिए कि बस इतना ही साथ लिखा था नियति ने। हमें उतने साथ का शुक्रिया अदा करना चाहिए उस अदृश्य शक्ति के प्रति जो एक दरवाजा बंद करती है तो दूसरा खोल भी देती है।" हँसने लगी दीपशिखा... "अब देखो न दाई माँ और महेश काका चले गए तो हंसा बेन और रतीलाल जैसे सेवक मिल गए न।"

सुलोचना भी हँसने लगी - "हंसाबेन के हाथ की मसाला चाय पी लो, बहुत अच्छी बनाती हैं।"

"नहीं माँ... मन नहीं है... तुम पियोगी?"

"जब तुम पियोगी दीपू।" कहते हुए वे तिरछी होकर सोफे पे पाँव फैलाकर बैठ गईं।

"माँ, गौतम ने मुझे गहरे अवसाद से निकाला है वरना मैं अपने अँधेरों में डूब ही चुकी थी। छूट चुके लोगों से जुड़ी यादें... पापा को लेकर मन की गाँठ... उफ, जैसे काले गहरे समुद्र पर छायी काली घनघोर घटाएँ।"

दीपशिखा की आँखों में नमी छलक आई थी। अचानक रतीलाल दौड़ा आया - "मालकिन, दंगे छिड़ गए हैं। खूब मारा मारी चल रही है। सुना है रामभक्तों को ट्रेन के डिब्बे में बंद कर जिंदा जला दिए जाने की घटना घटी थी बस वही गुस्सा दंगे के रूप में भड़का है।"

दीपशिखा ने तुरंत टी.वी. पर समाचार चैनल लगाया। खबरें आ रही थीं - "अयोध्या में राम नाम का पत्थर राममंदिर में चुनकर आए रामभक्तों की ट्रेन जलाने का मुद्दा ही सांप्रदायिक दंगों के भड़कने की वजह बन गया है।" क्लिपिंग में धुआँ, जले हुए प्लास्टिक, कपड़े, रस्सी, कागज के उसी आकार में जले हुए दृश्य... मस्जिद के गुंबदों पर केसरिया पताकाएँ लहरा रही थीं।

गौतम ने फोन किया - "क्या हाल हैं वहाँ के? इस कदर तेजी से गुजरात के हालात बदले हैं कि समझ में नहीं आ रहा क्या होगा? दीपशिखा, पुलिस सुरक्षा माँगो। तुम्हारी कोठी निशाने पर न आ जाए कहीं।"

हिल उठी दीपशिखा। मुस्लिम पुरुष से हिंदू स्त्री के विवाह के कारण वैसे भी विवादों में घिरी रही कोठी... उस पर दीपशिखा का विवादास्पद जीवन।

"हाँ... मैं बात करती हूँ पुलिस थाने से। तुम फोन रखो गौतम।"

गौतम के फोन रखते ही शेफाली का फोन - "दीपू, तू पारिख अंकल से बात कर, सुरक्षा माँग..."

शेफालीने इस वक्त पारिख अंकल का नाम सुझा कर दीपशिखा को बहुत बड़ा संबल दे दिया मानो। वे तो पापा के दोस्त हैं। उनके मातहत पूरा पुलिस महकमा है।

दीपशिखा ने पारिख अंकल को फोन लगाया। इंगेज... इंगेज... कभी नेटवर्क नहीं पकड़ रहा तो कभी सीमा क्षेत्र से बाहर। जैसे तैसे फोन लगा - "हाँ, कहिए भाभीजी।"

"अंकल, मैं दीपशिखा... आप तो जानते हैं पापा के जाने के बाद हम बिल्कुल बेसहारा हो गए हैं। अंकल, हालात को देखते हुए प्लीज हमें पुलिस सुरक्षा दीजिए।"

पारिख अंकल सोच में पड़ गए। कहाँ से दें सुरक्षा? पूरी पुलिस फोर्स तो शहर के हालात काबू करने में लगी है। उन्होंने धीरज बँधाया - "घबराओ नहीं दीपशिखा। किसी भी बात का अंदेशा हो तो मेरे प्राइवेट मोबाइल पर कॉल करना या एसएमएस करना... नंबर लिख लो।"

दीपशिखा ने दौलत सिंह, हंसाबेन और रतीलाल को नौकरों के क्वॉर्टर में नहीं बल्कि हॉल में सोने को आदेश दिया। कोठी का हर एक दरवाजा अंदर से लॉक किया गया और सुरक्षा के लिए डंडे, पत्थर, चाकू, मिर्च पावडर भी हॉल में इकट्ठा किया गया। दौलत सिंह आधी रात तक पहरा देगा उसके बाद रतीलाल। दीपशिखा सुलोचना के कमरे में ही रही। गौतम का हर घंटे फोन आ जाता। लगभग दो बजे रात को पारिख अंकल ने भी फोन करके हालात पूछ लिए।

सुबह तक पूरा गुजरात बुरी तरह दंगे की चपेट में था। कई जगह दरगाहें तोड़कर वहाँ हनुमान और शिवलिंग के नाम से पत्थर रख, सिंदूर और चंदन की रेखाओं से पोतकर फूल चढ़ा दिए गए थे। बदले में कुछ ने उन दुकानों को कैरोसिन से नहलाकर जला दिया था जिसमें गणपति पूजा और मकर संक्रांति के समय बिकने वाला पूजा का सामान, पतंगें रखी थीं। गुनाहगार कौन है। मरने वाले मुसलमानों के खिलाफ दंगाइयों का ऐलाने जंग या कार सेवकों को जिंदा जला दिए जाने के खिलाफ छिड़ा धर्मयुद्ध?

एक-एक कर दिन सरक रहे थे... जैसे न जाने कितनी सदियों की थकान से भरे हों और गुजर जाना मुश्किल लग रहा है। अखबारों की सुर्खियाँ दीपशिखा को भयभीत किए थीं। दुधमुँहे बच्चों पर कहर... सांप्रदायिकता की आग ने इन्हें भी नहीं बख्शा। चहल-पहल से भरे घर के दरवाजे बंद कर पानी भरदिया तमाम घरों में और उसमें बिजली काकरेंट दौड़ा दिया। एक ही झटके में बीस लोग मर गए, सब एक ही परिवार के... दीपशिखा पत्ते सी काँप उठी। ऐसा जघन्य कृत्य करने वाले क्या उसके जैसे ही इनसान थे या इनसान के वेश में नरपिशाच? औरतों के कटे हुए स्तनों से भरे पैकेट... नन्हें बच्चे की आँखों के सामने चाकू भोंक-भोंक कर मारे गए उसके माँ-बाप, भाई-बहन... जिंदा जलाए जाते मर्द। एक औरत देह को चीथते दस-दस आदमजात भेड़िये और शर्त बदते लोग - "आज मुसलमान ज्यादा मारे जाएँगे। नहीं, हिंदू मारे जाएँगे... लगी शर्त पचास हजार की।" और शर्त लगाते लोगों द्वारा ही छेड़े गए दंगे... मुँह पुलिस का भी रुपियों से ठूँसा गया... तभी तो वह निठल्ली खड़ी देखती रही।

नहीं... कुछ नहीं करेंगे पारिख अंकल। इस कोठी की और माँ की हिफाजत मुझे ही करनी होगी... अगर पारिख अंकल की पुलिस फोर्स कुछ कर पाती तो इतनी बर्बरता क्यों होती? समाज सेवी, दंगा पीड़ित इसे आतंकवादी कार्रवाई कह रहे हैं। यह कट्टरपंथियों का ऐसा वहशी गिरोह था जिसने धार्मिक चश्मे पहन बर्बरता का विभाजन की त्रासदी से भी भीषण कीर्तिमान स्थापित किया था। यह मानो एक सधे हुए गिरोह का योजनाबद्ध काम था। ट्रकों में भरकर दंगाई आते... उनके हाथों में हथियारों के साथ मोबाइल फोन भी होते जिससे वे पल-पल की खबर अपने बॉस को देते, बॉस जैसा निर्देश देते वे वैसा ही कर गुजरते।

सुलोचना की तबीयत कल रात से ज्यादा खराब हो गई थी। तेज बुखार और हाई शुगर लेवल के कारण मानो मूर्छा में थीं वे। डॉक्टर को बुलाया जाए भी तो कैसे? कर्फ्यू और भड़के हुए दंगे। दीपशिखा पुरानी लिखी दवाइयों के सहारे ही उन्हें ठीक करने की कोशिश कर रही थी। हंसा बेन परहेज का खाना लगभग सभी के लिए बना लेतीं। इस वक्त इन सब कामों में ध्यान देने से बेहतर है सुरक्षा के उपाय सोचे जाएँ। सूरज ढलते ही दौलत सिंह और रतीलाल कोठी के आस-पास का मुआयना कर लेते। गझिन हरियाली में डंडा ठोंक-ठोंक कर पड़ताल करते। कोठी तीन ओर से सात फुट ऊँची दीवारों से घिरी थी। दीवार की मुँडेरों पर काँच के नुकीले टुकड़े थे। लोहे का भारी-भरकम गेट जिसे दो आदमी ढकेलकर बंद कर पाते। जामुन, कटहल, मौलश्री, नीम के दरख्तों की छतनारी डालियाँ जो पहले खूबसूरत लगती थीं अब भयावह लगने लगी थीं। क्या पता उनमें ही दंगाई छुपे बैठे हों। कोठी के बगल में ही नई इमारत बन रही थी। नींव ही खुदी थी कि दंगे भड़क गए। हर तरफ सन्नाटा तारी था। देश की आजादी के संग हिंदू-मुसलमानों के बीच हिंदुस्तान, पाकिस्तान खड़ा कर अँग्रेज जाते-जाते भी अपनी जात दिखा गए जबकि अपने देश को आजाद करने में दोनों का खून बहा था। और विभाजन की उस त्रासदी से भी बढ़-चढ़कर है गोधरा कांड... सामूहिक कत्लेआम, लूटपाट... जो नादिरशाह, तैमूर, अहमदशाह अब्दाली की क्रूरता से भी दस कदम आगे है। वे तो पराए देश से इस देश को लूटने आए थे। धन बटोरने और खूबसूरत भारतीय स्त्रियों से अपना हरम सजाने... लेकिन ये... अपने ही देश को लूटते, अपने ही लोगों को कत्ल करते, अपनी ही माँ बहनों से बलात्कार करते... कौन हैं ये? किस देश के नागरिक? किस धर्म के पालक? दीपशिखा करवटें बदलती रही। हर बार औरत ही सजा भुगतती है हर अत्याचार की, हर दंगे की, हर लड़ाई, हर उत्पीड़न की? अपनी कोख में पल रहे बच्चे के लिए दंगाइयों के सामने दया की भीख माँगती गर्भवती औरत। ओह, दंगाइयों में से एक ने अपनी तलवार उस औरत के पेट में घुसा कर उसकी कोख फाड़ डाली और उसका आठ महीने का शिशु हवा में उछाल कर तलवार की नोक पर लोक लिया। नर्म मांस का... हिलता डुलता शिशु तलवार की धार में धँसता चला गया।

"गौतम, मैं पागल हो जाऊँगी। ये सब क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है?" दीपशिखा की आवाज काँप रही थी जबकि गौतम उसे खुशखबरी सुना रहा था - "मत सोचो जिस पर हमारा वश नहीं उसे मत सोचो। हम कुछ नहीं कर सकते। सुनो... मेरी अमृता शेरगिल... कोलकाता के एक लेखक तुम्हारा इंटरव्यू लेने वाले हैं। वे चुनिंदा चित्रकारों के इंटरव्यू की एक किताब संपादित कर रहे हैं। जैसे ही हालात नॉर्मल हों तुरंत लौटना है तुम्हें।"

हालात बेहतर होते तो दीपशिखा के लिए ये खबर वाकई खुशखबरी होती... पर। सुलोचना शायद पानी के लिए कुनमुनाईं थीं। दीपशिखा ने फोन कट किया और पानी देने को ग्लास की ओर बढ़ाया ही था कि कुछ फुसफुसाहटें सुनाई दीं। हंसाबेन दबे पाँव उसके पास आई और कान में धीरे से कहा - "बाहर किसी के चलने की आवाजें हैं... होशियार रहिए।"

दीपशिखा सन्न रह गई। हाथ से गिलास छूटते-छूटते बचा। दौलतसिंह की ओर से खबर थी कि कुछ लोग दीवार फाँद कर घुस आए हैं... दंगाई ही हैं। अब क्या होगा?

फुसफुसाहटें तेज हो गईं - "निकालो दोनों को बाहर... हमारे इस्लाम के नाम पर धब्बा हैं ये। यूसुफ खान को जिंदगी भर चूसा है इस हिंदू कुतिया ने।"

थर-थर काँप रही थी दीपशिखा। सुलोचना फटी-फटी आँखों से दरवाजे को ताक रही थीं। कोठी को मजबूत दरवाजे, खिड़कियाँ और हॉल में रखा सुरक्षा का सामान... दरवाजा जोर-जोर से पीटे जाने पर भी खुल नहीं रहा था। दीपशिखा ने डरते-काँपते पारिख अंकल को फोन पर स्थिति की भयावहता बताई। एक मुसलमान के हिंदू दोस्त ने उनका परिवार बचाने के लिए दस मिनट में ही पुलिस फोर्स भेज दी। आधे घंटे बाद खुद आए -

"वो आए कहाँ से दीपशिखा जबकि तुम्हारे सेवकों ने कोठी की सुरक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।"

"साऽब... बगल में खुदी पड़ी नींव में वे दिन में ही छिप गए थे। बस, नींवें ही हम नहीं देख पाए थे।" दौलत सिंह का संदेह एकदम सही था। रात के दो बजे थे और अब कोठी पूरी तरह सुरक्षित थी। पारिख अंकल ने राय दी - "भाभीजी, आप और दीपशिखा ये जगह छोड़ दीजिए, कभी भी कुछ भी हो सकता है। सब कुछ शांत हो जाने पर लौट आइएगा। मैं आपको पुलिस सुरक्षा में एयरपोर्ट पहुँचा देता हूँ। आप मुंबई चले जाइए।"

सुलोचना रो पड़ीं - "पारिख भाई... हमने किया क्या है? ये किस बात की सजा हमें मिल रही है?"

पारिख अंकल तसल्ली बँधाते रहे - "ये वक्त ही बेरहम है भाभी... खुद को मत कोसिए।"

हंसा बेन चाय बना लाई थी। दीपशिखा ने कहा - "अदरक डाली है चाय में? अंकल को अदरक वाली चाय पसंद है।" सब हँस पड़े। सदमे में गुजर रही कोठी पर भी मानो मुस्कुराहट तैर गई।

दूसरे दिन रात की फ्लाइट से दीपशिखा और सुलोचना मुंबई आ गईं। पीपलवाली कोठी नौकरों के भरोसे थी और नौकर खुद को कोठी की मजबूत घेराबंदी में कैद कर भगवान भरोसे थे।

दीपशिखा गौतम से लिपट फूट-फूट कर रो पड़ी। दंगों की हैवानियत का असर उसके दिमाग पर बुरी तरह था। तेजी से घटी घटनाओं ने उसे मथ डाला था। अचानक यूसुफ खान का जाना, सुलोचना की बीमारी ने उन्हें लगभग बिस्तर पर ही डाल दिया था। दंगे... दंगों की जद में पीपलवाली कोठी का भी शुमार होना।

"गौतम, तुम तो मुझे छोड़कर नहीं जाओगे न?" वह कातर हो गौतम की बाँहों में झूल गई।

"ए पगली... गौतम दुनिया छोड़ देगा पर तुम्हें नहीं। हम देर से जरूर मिले पर मिले यही क्या कम है?"

थोड़ी देर में डॉक्टर आ गया। सुलोचना का चेकअप कर दवाइयाँ लिख दीं - "डायबिटीज बहुत ज्यादा है। बहुत अधिक परहेज से रहना होगा वरना पैरालाइज्ड..."

"नहीं ऽऽऽ" चीख पड़ी दीपशिखा। गौतम उसे दूसरे कमरे में बैठा आया। गजाला को दवा लाने भेजकर गौतम ऑफिस के लिए तैयार होने लगा। जाते जाते सख्त हिदायत देता गया - "दीपशिखा, तुम टी.वी. तो हरगिज नहीं देखोगी, न्यूज चैनल तो बिल्कुल नहीं। आराम करो, गजलें सुनो और माँ से बातें... मैं जल्दी लौट आऊँगा।"

दीपशिखा ने नन्ही बच्ची की तरह सिर हिलाया पर पीपलवाली कोठी में घुस आए दंगाइयों की दरवाजे पर की गई ठक-ठक उसके दिमाग में घुस चुकी थी। गजाला ने खाना टेबिल पर लगा दिया। सुलोचना दवाई के सुरूर में नीम बेहोश सी थीं। नहीं खाया गया दीपशिखा से। दोपहर को किन्ही रघुवीर सहाय का फोन था इंटरव्यू के सिलसिले में...

"हाँ, बताया था गौतम ने। दो दिन बाद का रखते हैं। अभी तो मैं गोधरा कांड की विभीषिका से उबरने की कोशिश में लगी हूँ।"

फिर देर तक गोधरा कांड पर ही चर्चा करते रहे। इस बातचीत ने दीपशिखा को काफी राहत दी। लगा कि दिल का बोझ थोड़ा हलका हुआ है।

रघुवीर सहाय काफी गंभीर, सुलझा हुआ व्यक्ति था। उसने दीपशिखा से इंटरव्यू के दौरान उसकी निजी जिंदगी पर एक भी सवाल नहीं किया। वह सारी बातें रिकॉर्ड कर रहा था। गौतम पास ही बैठा था। दीपशिखा ने बताया कि पहले वो रोमन, ग्रीक और ब्रिटिश चित्रकला को ही वरीयता देती थी लेकिन ज्यों ही हुसैन के चित्रों में बोल्ड और सघन रेखाओं से वह परिचित हुई वह उनकी मुरीद बन गई। मोहन सामंत के ऐब्स्ट्रैक्ट चित्रों का ट्रीटमेंट भी बहुत असरदार लगता है लेकिन अब पूर्णतया अमृता शेरगिल को ही अपना आदर्श बना लिया है। उनके चित्रों में भारतीय देहातों की जीवंतता और प्रकृति से उनकी जुगलबंदी काबिले तारीफ है।

"और आपके चित्र? आपकी प्रदर्शनियाँ?"

"पेरिस में मेरे चित्रों का सफलतम आयोजन हुआ। मैंने बहुत कुछ सीखा वहाँ। गिरजाघरों के स्टेन ग्लास के रंगों और वर्जिन मेरी या बाल ईशु को स्तनपान कराती मेडोना के चित्रों को जेहन में बसाया और जब भारत लौटी तो मेरे चित्रों में बहुत अधिक प्रौढ़ता दर्शकों ने महसूस की।"

गजाला गर्मागर्म आलू पोहे, पनीर पकौड़े और चाय लाकर रख गई।

"अरे गजाला, रघुवीर जी को अंजीर रोल भी खिलाओ। आज आपकी मैडम का इंटरव्यू लिया है इन्होंने, कुछ मीठा तो बनता है न?"

गौतम के कहने पर रघुवीर सहाय ने टेप रिकॉर्डर स्विच ऑफ करते हुए कहा - "इतना बेहतरीन इंटरव्यू अभी तक तो किसी चित्रकार का लिया नहीं मैंने जबकि दीपशिखा जी हमारी किताब की अंतिम चित्रकार हैं।"

धीरे-धीरे गुजरात के दंगे शांत होने लगे। लेकिन दीपशिखा का मन अब उतना ही अशांत रहने लगा था। दंगों से वह उबर नहीं पा रही थी। हर वक्त खौफ बना रहता कि कोई उसे मारने आ रहा है। रात को चौंक-चौंक जाती। गौतम उसका सिर अपने सीने से लगाकर थपकियाँ देता। एक अनाम लेकिन मजबूत बंधन था दोनों के बीच जिसके सिरे दोनों के दिल से बँधे थे। दीपशिखा ने गौतम का कॅरियर बनाने में जी जान एक कर दी थी। वह इस बात के लिए खुद को दोषी मानती थी कि गौतम का फिल्मी कॅरियर उसी की वजह से खतम हुआ है। गौतम को बेतहाशा प्यार करना, उसे सँवारना दीपशिखा की दिनचर्या थी उन दिनों। मानो वह छोटा बच्चा हो जिसकी जवाबदारी दीपशिखा की थी। लेकिन पीपलवाली कोठी में घटे हादसे से अब दीपशिखा ही नन्ही बच्ची हो गई थी। भयभीत, डरपोक और शक के दायरे में कैद। पिछली रात सुलोचना को पानी देने गजाला जब उनके कमरे में गई तो लॉबी से गुजरते हुए उसकी लंबी छाया दीवार पर देख दीपशिखा डर गई थी। उसने बगल में सोये गौतम को झँझोड़ा - "गौतम... नीलकांत मुझे मारने आया है। वह मुझे मार डालेगा एक दिन।"

गौतम उसकी बड़ी-बड़ी सफेद पड़ चुकी आँखों को एकटक निहारता ही रह गया। क्या हो गया है दीपशिखा को? किससे सलाह ले? तुषार भी लंदन में है छै महीनों से। शेफाली भी उसके साथ गई है। तुषार अपने विषय का विशेषज्ञ होने के लिए वहाँ रहकर गहन शोध कार्य कर रहा था। उसी से सलाह लेना ठीक है। उसने फोन पर तुषार को दीपशिखा के डर और भय की बात विस्तार से बताई। सुनकर तुषार चिंतित हो बोला - माई गॉड... ये तो पेरोनाइड सिजोफ्रिनिया के सिम्टम हैं जिसमें ऐसा लगता है कि कोई मारने आ रहा है। बड़ा घातक है ये रोग... तुम चिंता मत करो... मैं एक हफ्ते बाद लौट रहा हूँ। तुम्हें दीपशिखा को पुराने माहौल से निकालना होगा। विश्वास, प्यार और आबोहवा बदलने से इस रोग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।"

गौतम के माथे पर पसीने की बूँदें झलक आईं। घबराहट में वह दो तीन गिलास पानी पी गया - "ये क्या हो गया शिखा तुम्हें... इतने कमजोर दिल की तुम कैसे हो गईं मेरी बहादुर शिखा... लेकिन दीपशिखा गहरी नींद में सोई थी। गौतम रात भर करवटें बदलता रहा। बाथरूम जाता बार बार और उतनी ही बार ठंडा पानी हलक से नीचे उतारता। उसे लग रहा था जैसे वह सहरा से गुजर रहा है जहाँ धूप की चिलचिलाहट और गरम रेत के सिवा कुछ नहीं।

शेफाली लंदन के आस-पास के गाँवों में चित्रकला के विषय तलाशने की मुहिम में तब तक जुटी रही जब तक तुषार अपने शोध में व्यस्त रहा। लौटी तो ढेर सारे चित्र साथ लेकर लौटी। उसने दीपशिखा को फोन किया - "आंटी जी कैसी हैं? क्या तू लंदन में बनाए मेरे चित्रों को देखने मेरे घर आ सकती है?"

इतने महीनों बाद शेफाली से मिलने को खुद को रोक नहीं पाई दीपशिखा... वैसे भी सुलोचना की तीमारदारी गजाला बहुत अच्छे से कर रही थी।

गाड़ी खुद ड्राइव करके आई थी दीपशिखा। शेफाली ने उसे गले से लगा लिया - "कैसी है मेरी सखी?"

"तू बता? लंदन से मोटी होकर आई है। तुषार ने अच्छी खासी केयर की है तेरी।"

"जी नहीं... उल्टे उसे पैंपरिंग करना पड़ता है। माई चाइल्ड हस्बैंड।"

शेफाली ने दीपशिखा के आने के पहले ही सारे चित्र दीवार पर सजा दिए थे। दीपशिखा घूम-घूम कर चित्रों को देखते हुए बेहद खुश हो रही थी - "तेरा वहाँ रहना तो बड़ा कामयाब रहा। मैं तो दंगे और माँ की बीमारी से ही जूझती रही। रंग और ब्रश अलमारी में रखे मुँह बिसूर रहे हैं।" शेफाली ने उबली हुई मूँगफली को मसाले आदि डालकर खूब चटपटा बनाया था जिसे खाते हुए लंदन की ढेरों बातें उसने दीपशिखा को बताईं... कि तुषार बहुत अच्छा इनसान है और उससे भी बड़ी बात ये है कि वह मुझे बेहद प्यार करता है।"

दीपशिखा शेफाली को लेकर बहुत अधिक आश्वस्त हुई। उसकी प्यारी सखी सुख से है और उसे क्या चाहिए लेकिन गोधरा कांड की चर्चा छिड़ते ही दीपशिखा का चेहरा बुझने लगा।

"वो हमें जान से मारने आए थे।"

"है हिम्मत किसी में? शेफाली ने बात बदली। तुषार और गौतम के बीच दीपशिखा को लेकर जो बातें होती थीं उनसे शेफाली परिचित थी बल्कि तुषार और शेफाली भी दीपशिखा को लेकर चिंतित थे।

धीरे-धीरे सुलोचना की बीमारी और दीपशिखा का मनोरोग बढ़ता गया... तीन साल तक बिस्तर भोग कर सुलोचना एक रात जो सोईं तो सुबह उठी ही नहीं। उनकी नींद में ही मृत्यु हो चुकी थी। महँगे इलाज और विशेष सावधानी के बावजूद भी सुलोचना की हालत देख सभी ये प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें जल्दी ही इस पीड़ा से मुक्ति मिले। दिन भर धैर्य से काम लेते हुए रात को गौतम के कंधे पर सिर रख रो पड़ी दीपशिखा... मन की कचोट आँसुओं संग बह चली - "ईश्वर सच में दयालु है। जो काम दवा नहीं कर सकी वह ईश्वर ने कर दिखाया। माँ को उनकी तकलीफों से छुटकारा दिला दिया।"

सुलोचना की मृत्यु के साथ एक युग का अंत हो गया। अभी तेरहवीं का हवन होकर ही चुका था कि पीपलवाली कोठी के कई दावेदार खड़े हो गए। यूसुफ खान के चचाजात भाइयों ने दीपशिखा से बँटवारा चाहा। एक हिंदू लड़की से शादी करने के गुनाह में यूसुफ खान ताउम्र अपने परिवार वालों से 'बिरादरी बाहर' जैसी पीड़ा सहते रहे थे लेकिन अब वही परिवार वाले उनकी जायदाद पर अपना हक जता रहे हैं?

"किसी को फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।" दीपशिखा ने बेबाकी से ऐलान किया - "गौतम, तुम जानते हो, इन्होंने मेरी माँ को कितना सताया है। चैन से जीने नहीं दिया उन्हें। मैं इन्हें देने से अच्छा दरिया में बहाना पसंद करूँगी उस जायदाद को।"

"रिलैक्स... तुम जो चाहोगी वही करेंगे। हम कल वकील से परामर्श करके सारे जेवरात, शेयर्स आदि बेचकर तय कर लेंगे क्या करना है?"

वकील ने भी सब कुछ बेचकर वसीयतनामा तैयार करने की सलाह दी। सौ करोड़ की संपत्ति आँकी गई। जिस दिन गौतम और दीपशिखा पीपलवाली कोठी बेचने के लिए गुजरात जाने की तैयारी कर रहे थे दीपशिखा ने शंका जताई - "पापा के चचेरे भाई कहीं मुझे मार न डालें... उन्हें कुछ देना ठीक रहेगा क्या?"

"अंतरात्मा जैसा कहे वैसा करो, किसी से सलाह मत लो।"

वीरान कोठी में कदम रखते ही दीपशिखा का कलेजा काँप गया। अब वहाँ एक भी नौकर नहीं बचा था। सब अपने-अपने गाँव चले गए थे। फुलवारी सूख गई थी। सारे कमरे जालों से अँटे पड़े थे। रसोई जो कभी पकवानों से महकती थी आज भुतहा दिखाई दे रही थी। दीपशिखा माथा पकड़कर बैठ गई। गौतम अफसोस कर रहा था - "नहीं लाना था दीपशिखा को, वह तनावग्रस्त हो गई है।"

कोठी की नीलामी लगी और सौदा तय होते तक दीपशिखा ने यूसुफ खान के तीनों चचेरे भाइयों को भी कुल संपत्ति का चालीस प्रतिशत देकर मुक्ति की साँस ली - "कब क्या कर बैठें कोई भरोसा?"

गुजरात से सदा केलिए नाता टूट चुका था। इस तरह अंत होता है एक भरे पूरे परिवार का, परिवार से जुड़ी जिंदगियों का। दीपशिखा आहत मन से मुंबई लौटी। गौतम और शेफाली के साथ के बावजूद एक उदासी उसे घेरे रहती। उसने सुलोचना की तस्वीर सामने रख एक औरत का आदमकद चित्र बनाया जो काफी हद तक सुलोचना से मिलता जुलता था। औरत के चेहरे पर एक रहस्यमय उदासी थी। काली गहरी आँखों में सूनापन था। औरत की साड़ी को लाल रंग से रँगते हुए दीपशिखा डर गई थी... खून... ऐसा ही खून बहा था दंगों के दौरान... ऐसा ही खून बहाने कोठी में घुसे थे दंगाई... उसने आँखें बंद कर लीं जो भय से सफेद हो चुकी थीं। दीपशिखा नहीं जानती थी कि यह उसकी जिंदगी का आखिरी चित्र है और लाल रंग उसे हमेशा डरावना लगेगा... वह यह भी नहीं जानती थी कि मशहूर चित्रकार की हैसियत से वह अपने प्रशंसकों को ऑटोग्राफ देने वाली एक दिन आड़ी तिरछी रेखाएँ भी नहीं खींच पाएगी। ...सांप्रदायिक दंगों से लगी नफरत की आग ने, प्रतिहिंसा की लपटों ने मातम में बदल दिए हैं दिल... यहाँ भी... वहाँ भी।

"गौतम... दीपशिखा को चेंज की जरूरत है। तुम्हें उसे समय देना होगा।" तुषार ने जो क्लीनिक से सीधा दीपशिखा के पास उसके चेकअप के लिए आया था बेहद फिक्रमंद होकर कहा।

साथ में शेफाली भी आई थी। उए तीन महीने का गर्भ था। सुनकर उछल पड़ी दीपशिखा - "वाह... इस खुशखबरी पर तो जश्न मनाना चाहिए आज।"

"नहीं दीपू... बहुत नाजुक जान पलती है कोख में... जन्म के बाद ही हम जश्न मनाएँगे।" शेफाली ने दीपशिखा के गाल थपथपाए।

"हाँ, माँ कहती थीं कि बच्चे का नाम सुनते ही नजर लगनी शुरू हो जाती है। मेरे जन्म के बाद मुझे जो पहला झबला पहनाया गया वह नया नहीं था, माँ की पुरानी साड़ी से बनाया गया था।"

तुषार और गौतम की धीमी आवाज दोनों सखियों तक नहीं पहुँच पा रही थी। गौतम ने आहिस्ता से कहा - "ऊटी प्लान कर लेता हूँ। वह जगह दीपशिखा को बहुत पसंद है।"

हफ्ते भर बाद गौतम को ऑफिस से जाने की परमीशन मिली थी। काम ही ऐसा है जल्दी छुट्टियाँ सैंग्शन नहीं होतीं। दीपशिखा खुश थी कि कुछ दिन गौतम के साथ फुर्सत में गुजरेंगे। ऊटी के जिस होटल में वे रुके थे उसी होटल में गौतम का मित्र भी रुका था जो एक इत्तफाक था। होटल के डाइनिंग हॉल में ब्रेकफास्ट के दौरान दोनों की मुलाकात हुई।

"ओ... व्हाट अ सरप्राइज, कैसे हो यार?"

"यह तो वाकई इत्तफाक है।" फिर सामने बैठी दीपशिखा से परिचय कराया - "शिखा मेरा दोस्त दिवाकर और दिवाकर मेरी लाइफ पार्टनर दीपशिखा।"

दिवाकर ने दीपशिखा को गौर से देखा - "डबल सरप्राइज दोस्त, तुम छुपे रुस्तम हो। शादी कर ली बताया तक नहीं।"

"हम लिव इन रिलेशन में हैं दिवाकर..."

दिवाकर आश्चर्य से दोनों को देखने लगा। वह ज्योतिष विद्या का जानकार था और दीपशिखा के माथे की लकीरें उसके मन में कई प्रश्न खड़े कर रही थीं लेकिन वह खामोश रहा। दोनों मित्र पुराने दिनों को याद करते रहे।

"अभी तुम लोग झील की सैर कर लो। शाम को हम चाय बागान साथ में चलेंगे। बस, आज की शाम ही है मेरे पास गौतम तुम्हारे साथ बिताने की। कल वापिसी... चलो मैं चलता हूँ। दस बजे से मीटिंग है।"

झील के किनारे नीलगिरी के ऊँचे-ऊँचे दरख्तों के नीचे छाया का मानो स्थायी बसेरा था। हवा में जब शाखें डोलतीं तो छाया भी डोलने लगती।

"देखा तुमने गौतम?" दीपशिखा ठिठककर खड़ी हो गई।

"डालियों की छाया हवा के डर से इधर-उधर छिपने की कोशिश कर रही है।"

डर... डर... हर वक्त असुरक्षा का एहसास ओह... मेरी संगिनी के साथ ही यह होना था? मुट्ठी भर खुशी भी ईश्वर को बर्दाश्त नहीं। प्रगट में वह दीपशिखा को मुगलिया स्टाइल में सलाम करते हुए बोला - "बेगम, यह तो आपके आने की खुशी में शाखाएँ कालीन बिछा रही हैं।" दीपशिखा ने हँसते हुए नीलगिरी के पेड़ के तने में उगी कोंपल को तोड़कर हथेली पर रगड़ा और हथेली गौतम की नाक के पास ले गई - "सूँघो।"

एक तुर्श गंध उसकी साँस के साथ भीतर कलेजे तक पहुँच गई।

"एक बात पूछूँ गौतम? मुझे लेकर तुम क्या सोचते हो?"

"मतलब?" दीपशिखा के अजीब से सवाल से चौंक पड़ा था गौतम...

"मैं जानती हूँ, पुरुष हमेशा औरत का पहला प्यार बनना चाहता है और मैं तो..."

"तुम ऐसा कब से सोचने लगीं? तुम तो उन्मुक्त विचारों की हो। अपनी जिंदगी अपनी पसंद से चुनी तुमने, क्या मैं तुम्हारी पहली पसंद नहीं हूँ?"

"...लेकिन एक अजीबोगरीब चाहत ने जन्म लिया है मेरे दिल में कि मैं तुम्हारी अंतिम चाहत रहूँ सदा।"

गौतम ने हथेली फैलाई - "वादा रहा।"

"सोच लो।"

"सोच लिया... तुम्हें पाकर जिंदगी में अब और कोई या किसी और की चाहत नहीं रही। मैं तुममें संपूर्ण हो गया।" दीपशिखा हुलसकर लिपट गई गौतम से। तभी शाखों पर बैठी चिड़ियों का झुँड चहचहाकर उड़ा, मानो दोनों के मिलन से वो अपनी खुशी प्रगट कर रहा हो।

शाम को दिवाकर के साथ उन्होंने चाय बागानों की सैर की। झुटपुटा होते ही वे होटल लौट आए। ठंड बढ़ गई थी और हल की बारिश के कारण सड़कों पर सन्नाटा था। दिवाकर वोद्का लेकर आया था। गौतम के कमरे में ही महफिल जमी। एक पैग पीने के बाद दूसरा बनाते हुए दिवाकर ने कहा - "दीपशिखा जी, बहुत यश है आपके नसीब में, आपकी माथे की रेखाएँ बता रही हैं।"

"यानी कि ये शौक तुम अब भी पाले हो।"

"शौक भी है और गौतम, अब मैं इसे प्रोफेशन भी बनाने जा रहा हूँ। विदेश में बहुत माँग है इसकी।"

"आप हाथ भी देखते हैं? लीजिए... देखिए न मेरा हाथ।" दीपशिखा नजदीक सरक आई।

दिवाकर उसका हाथ टेबिल पर रखकर देर तक देखता रहा। फिर उसके माथे पर बल पड़ गए - "अरे, आपकी जीवन रेखा तो खंडित है।"

दीपशिखा ने चौंककर दिवाकर की ओर देखा। भय से वह काँप उठी। चेहरा उतर गया - "यानी लाइफ खतम।" "क्या बकवास कर रहे हो दिवाकर... मैं इन सब चीजों पर यकीन नहीं करता। छोड़ो ये सब, तुम दीपशिखा की कविता सुनो।"

दिवाकर जोर-जोर से हँसने लगा - "बन गए न दोनों उल्लू... आय'म सॉरी... एक्चुअली उल्लू तो मैं गौतम को कह रहा हूँ दीपशिखा जी... मुझे लगा था आप मजाक समझती हैं। बात को आई गई हो जाना था पर दीपशिखा का मन आंदोलित था। वह आधी रात को जाग पड़ी और अपनी हथेलियों को ताकने लगी। दिवाकर का कथन काली छाया सा उसके आस-पास मँडरा रहा था। सुबह ऊटी जाने से पहले दिवाकर ने कहा - "प्लीज, दीपशिखा जी... उसे सीरियसली मत लीजिए, वह महज एक मजाक था।"

लेकिन सीजोफ्रेनिया की रोगी दीपशिखा के दिल में वह मजाक गहरे असर कर गया। जिस दिन वे मुंबई लौटने वाले थे दीपशिखा को पागलपन का पहला दौरा पड़ा। मानो भूचाल आ गया हो जो उसके शरीर के 'जीन' से पैदा हुआ था और जो उसकी दुनिया के अंत की शुरुआत थी। वह जोरों से चीखती हुई दरवाजे पर पड़े परदों में खुद को छिपाने लगी - "गौतम, वे मुझे मार डालेंगे।"

गौतम ने उसे जोरों से सीने में दबोच लिया। वह पंख फड़ाफड़ाती कबूतरी सी काँपने लगी - "मैंने देखा, वो काली छाया हाथ में चाकू लिए इसी ओर बढ़ रही थी।"

"रिलैक्स... रिलैक्स शिखा, मैं हूँ न। भला किसकी हिम्मत है तुम्हारे नजदीक आने की। मेरे सुरक्षा कवच में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।"

गौतम ने दीपशिखा को पलंग पर लेटाकर कंबल उढ़ाकर थपकियाँ दीं... धीरे-धीरे बोझिल तंद्रा में डूब गई दीपशिखा।

ऊटी से बैंग्लोर तक कार से आना था। मुंबई के लिए बैंग्लोर से ही फ्लाइट लेनी थी। दीपशिखा की ऐसी हालत... और रात का सफर क्योंकि फ्लाइट सुबह आठ बजे की थी। फोन पर तुषार था - मैं एक टेबलेट का नाम एसएमएस कर रहा हूँ... अगर ऐसा लगे कि अटैक आने वाला है, खिला देना गर्म दूध के साथ। एयरपोर्ट से सीधे क्लीनिक आ जाना।"

"नहीं तुषार, तुम्हें ही मेरे घर आना पड़ेगा। मैं हिम्मत करके दीपशिखा को मुंबई ला रहा हूँ... मेरे लिए यह बहुत जोखिम भरा है।"

बहुत ही आरामदायक गाड़ी से गौतम दीपशिखा को बैंग्लोर लाया। एहतियात के तौर पर उसने दवा भी खरीद ली थी और गर्म दूध थर्मस में भरवा लिया था। बैंग्लोर एयरपोर्ट पर शेफाली को देखकर वह ताज्जुब से भर उठा - "तुम कब आईं?"

"तुम्हारी बातें फोन पर सुन ली थीं मैंने। मैं तुषार की क्लीनिक में ही थी। तुषार ने रात की फ्लाइट की टिकट अरेंज कर दी। दो बजे से एयरपोर्ट पर तुम दोनों के इंतजार में हूँ। कैसी हो दीपू?"

दीपशिखा शेफाली को देख खिल पड़ी। गले में बाँहें डालते हुए बोली - "अच्छी हूँ... तू बता... मेरा शरारती कैसा है?" वह शेफाली के पेट पर हाथ फेरने लगी।

"पहले चाय पिएँगे। कुम्हला गई हूँ तेरे इंतजार में। फिर चीज ऑमलेट खाएँगे।"

"मेरा फेवरेट।"

वे ठिठके से लम्हे नॉर्मल लगे गौतम को। शेफाली को देखते ही दीपशिखा खिल पड़ती है। बचपन की दोस्ती ऐसी ही होती है। गौतम राहत की साँस लेते हुए कुर्सी पर आ बैठा। दोनों सहेलियाँ अकेली ही चाय पीने चली गईं। कुदरत भी क्या रंग दिखाती है। जिस विषय में तुषार ने अपना मेडिकल शोध किया। विशेषज्ञ होकर मुंबई में नामी डॉक्टर हुआ उसी रोग ने दीपशिखा को आ दबोचा। तभी तो इस रोग की पीड़ा से पूरी तरह वाकिफ है शेफाली और अपनी नौकरी में से समय निकाल वह उसकी छाया बनी रहती है।

मुंबई में गौतम की गाड़ी बाद में पहुँची तुषार पहले पहुँच गया। दीपशिखा ताज्जुब से भर उठी।

"तुम हमारे बिना यहाँ बोर नहीं हो रहे? गजाला, दरवाजा बंद करो पहले... 'सीआइए' हम लोगों के पीछे लगी है। कभी भी मार सकती है वह हमें।"

दीपशिखा फिर बहकने लगी। शेफाली उसकी कमर में बाँहें डाल उसे सोफे तक ले आई - "तो क्यों इतनी खूबसूरत हो कि दुनिया का हर शख्स तुम्हें न पाने के गुस्से में मार डालना चाहता है।"

शेफाली ने कुछ इस लहजे में कहा कि सभी हँस पड़े।

"थकी हो दीपशिखा... इस इंजेक्शन से तुम्हें नींद आ जाएगी।" कहते-कहते इंजेक्शन बाँह में चुभ चुका था। थोड़ी ही देर में उसकी पलकें झपकने लगीं।

"मुश्किल समय है गौतम। दीपशिखा को अटैक आने शुरू हो गए हैं... ऐसी स्थिति में पागलपन के चांसेज भी बढ़ जाते हैं।"

"तुम तो कह रहे थे कि चेंज से फर्क पड़ेगा? यहाँ तो उल्टा ही हुआ। पहले कभी अटैक नहीं आया था।"

तुषार सोच में पड़ गया। ऐसा होना तो नहीं चाहिए। लेकिन जब दिवाकर की ज्योतिष संबंधी बात पता चली तो उसने माथा ठोंक लिया - "दिखाया क्यों उसे हाथ? ऐसी बातों से इसे दूर रखना है। मामला बहुत नाजुक है। किसी भी तरह की उल्टी सीधी बातें दिमाग पर भारी प्रेशर डाल सकती हैं।"

गौतम अफसोस से भर उठा - आय'म सॉरी यार, बड़ी गलती हो गई मुझसे।"

दीपशिखा गहरी नींद में थी। शेफाली और तुषार के जाने के बाद वह उसे गोद में उठाकर बेडरूम में ले आया। बिस्तर पर लेटाकर चादर उढ़ा दिया। उसके नजदीक ही बैठ गया। कैसे ठीक होगी दीपशिखा? अब क्या पूरी जिंदगी ऐसे ही जीनी पड़ेगी? वह धैर्य खो चुका था। उसके आँसू टप टप तकिया भिगोने लगे।

समय गुजर तो अपनी रफ्तार से रहा था लेकिन गौतम को लग रहा था जैसे वह धीरे-धीरे, रुक-रुक कर गुजर नहीं रहा बल्कि सरक रहा है। दिन बोझिल हो चुके थे। दीपशिखा ने पेंटिंग करना छोड़ दिया था... वह तो लाल रंग देखकर ही डर जाती। घर से लाल रंग की हर वस्तु हटा दी गई। गजाला को सख्त हिदायत थी कि वह कभी लाल रंग की पोशाक पहनकर घर न आए। कोई भी कुरियर वगैरह भी खुद ही साइन करके ले लिया करे क्योंकि दीपशिखा शक करने लगती कि उसके हस्ताक्षर पहचानने के लिए तो कहीं इस कुरियर वाले को किसी ने रिश्वत देकर भेजा है। घर में कोई भी उससे मिलने आता तो वह संदेह भरी नजरों से उसे देखने लगती। थोड़ी देर बाद उदास सी धुन में बोले जाती - "कितनी जानें गईं, कितने घर बरबाद हुए। इस सबके पीछे किसी बड़ी साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता।"

दीपशिखा की मानसिक बीमारी की खबर न जाने कैसे मीडिया तक पहुँची और अखबार की सुर्खियाँ बन गई। लोगों ने फोन पर उसके हाल चाल जानना शुरू कर दिया जिन्हें ज्यादातर गजाला ही अटैंड करती। दीपशिखा के मोबाइल का सिम तुषार ने बदल देने की सलाह दी थी ताकि कोई भी उसे परेशान न करे। वह शेफाली के नवजात शिशु के नामकरण के दिन अंकुर ग्रुप ऑफ आर्ट्स के कुछ सदस्यों से मिली थी। सैयद चचा भी आए थे। वे दीपशिखा की बीमारी से गमगीन नजर आ रहे थे। बाद में वे स्टूडियो का काम छोड़कर गाँव चले गए थे। लेकिन हमेशा के लिए अपनी याद 'आर्यन' के रूप में छोड़ गए थे। शेफाली के बेटे का नाम 'आर्यन' उन्होंने ही रखा था।

शेफाली के बेटे के लिए एक पार्टी दीपशिखा ने भी अपने घर रखी थी। एक अच्छे से 'गेट टुगेदर' का इंतजाम टेरेस पर किया गया था। दीपशिखा ने पर्शियन व्यंजन की किताब से पढ़कर अपने हाथों से ठंडा पेय बनाया था और वेलकम ड्रिंक के रूप में गुलाब की पंखुड़ियों से सजाकर मेहमानों को पेश किया था। पर कड़वे स्वाद के कारण सबने एक-एक घूँट पीकर गिलास रख दिया। दीपशिखा ने अपनी समझ से तो ठीक बनाया था... जरूर गजाला ने ही उसमें कोई कड़वी चीज मिला दी थी। सबके जाने के बाद वह गजाला पर बरस पड़ी - "हमें मार डालना चाहती हो तुम? आज कड़वी चीज मिलाई है, कल जहर मिला दोगी तो हम क्या करेंगे? तुम अब किचन में नहीं जाओगी। खाना मैं खुद बनाऊँगी।" गजाला सफाई देना चाहती थी पर गौतम ने उसे इशारे से मना किया। बाद में अलग ले जाकर समझाया - "बीमार इनसान की बात का बुरा क्यों मानती हो? तुम तो समझदार हो?"

"लेकिन मेमसाब ने मुझ पर शक क्यों किया?"

"यही तो बीमारी है उनकी। हमें खुद ही समझकर रहना होगा।" दीपशिखा ढेर सारी व्यंजन की किताबें खरीद लाई कभी पकाया तो कुछ था नहीं, आता ही नहीं था पकाना। जो भी उल्टा सीधा, कच्चा पक्का बनाती गौतम खा लेता। तारीफ भी कर देता।

"बहलाते हो मुझे। ये पुलाव बना है? जले हुए चावलों का बकबका स्वाद और तुम तारीफ किए जा रहे हो?" दीपशिखा रुआँसी हो जाती।

"अरे जानेमन, अब हम तुम्हें देखें कि पुलाव को? हमें और कुछ सूझता ही नहीं तुम्हारे सिवा।" दीपशिखा पहले तुनक जाती फिर मुस्कुराती और फिर सहम जाती।

दिन पीछे की ओर क्यों नहीं लौटते? क्यों नहीं वे खुशनुमा बातें, मुलाकातें, प्यार के हसीन लम्हे... वे आवारा उड़ानें वापिस लौट आतीं जिनमें दीपशिखा थी और गौतम... दीपशिखा ने अपनी मंजिल हासिल कर ली थी और जद्दोजहद गौतम को धरातल देने की थी। दीपशिखा ने क्या कुछ नहीं किया उसके लिए पर आज वह असहाय है। कुछ कर नहीं पा रहा है दीपशिखा के लिए। वह उसकी आँखों के सामने घुल रही है और वह लाचार... उफ।

दीपशिखा की खूबसूरत शख्सियत... ब्रश और रंगों का कैनवास पर कमाल... वो मोहक, उद्वेलित करती उसकी चित्र श्रृंखलाएँ... कहाँ थम गया वो सिलसिला?

"गौतम तुम्हें पीपलवाली कोठी की याद है? कोठी के वो फूलों भरे बगीचे जहाँ छुटपन में मैं शेफाली के साथ तितलियाँ पकड़ती थी?"

गौतम व्याकुल हो गया, उसके बाल सहलाते हुए बोला - "याद है न... लेकिन अब वो हमारा नहीं रहा और जो हमारा नहीं रहा उसे याद करने से क्या फायदा?"

"तुम तो बड़े मतलबी निकले? क्यों न याद करूँ? मुझे तो वो बरगद का दरख्त भी याद है जो कोठी के कोने में लगा था। वो पहले बोनसाई था। माँ ने उसे एकदम छोटे से चौकोर गमले में लगाकर उसकी जड़ों को लोहे के तारों से बाँध दिया था। वे उसे सजाने के लिए संगमरमर के सफेद पत्थर भी खरीद लाई थीं। मुझे तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था कि एक कद्दावर प्रजाति के दरख्त को छोटे से गमले में बाँध बूँधकर काट-छाँट करके लगा दो। मैंने तो माली काका से जिद करके उसे कोठी के कोने में लगवा दिया था। हमें क्या हक है पेड़ों को बौना करने का।"

दीपशिखा बोलते-बोलते खुद भी थक गई थी और गौतम को भी थका डाला था। वैसे वह कमजोर भी बहुत हो गई है। गौतम ने ठंडे पानी में ग्लूकोज घोलकर पिलाया। धीरे-धीरे दीपशिखा की आँखें मुँदने लगीं।

गौतम एकटक उसे देखता रहा... दीपशिखा तुमने मुझे जिंदगी और प्यार की तीव्र उत्तेजनाओं का एहसास कराया, अनुभव कराया। आज तुम दिमागी असंतुलन के दलदल में फँसी हो। क्या करूँ मैं... आह।

पहले दीपशिखा को जिंदा लोगों को लेकर डर था, अब अदृश्य साये और भूत प्रेत के खयाली दृश्य भी उसे डराने लगे थे। सपने में उसे पीपल वाली कोठी की जगह पीपल के विशालकाय दरख्त और उन पर उल्टे लटके प्रेत दिखाई देने लगे। वह चौंककर जाग जाती और गौतम से बेतहाशा लिपट जाती। कुछ न पूछता गौतम। जानता है पूछेगा तो न जाने क्या क्या बताने लगेगी दीपशिखा। कैसे जिए गौतम? जैसे कई-कई रातें एक साथ इकट्ठी होकर अँधेरे को बहुत अधिक पुख्ता कर गई हों उसके जीवन में और उजाले की एक किरन की भी उम्मीद शेष न बची हो। भयानक, तेज आँधियाँ उसे कँपा रही हैं और वह डाल से टूटे पत्ते सा कभी इधर तो कभी उधर डोल रहा है। न ठीक से जी पा रहा है और न...

पर जिंदगी के अपने तकाजे हैं... तकाजे न हों तो जिंदगी कैसी? मुंबई से बाहर ऑफिस के टूर में उसे जाना पड़ता है। दीपशिखा के पास चौबीसों घंटे किसी का रहना जरूरी है, पर वह गौतम के सिवा किसी को टिकने नहीं देती। एक शेफाली है जिसे दीपशिखा हर वक्त अपने साथ चाहती है। पर उसकी भी घर गृहस्थी... आर्यन और प्राजक्ता की देखभाल... नौकरी सभी में व्यस्तता है। फिर भी वह आड़े दूसरे समय निकाल कर आ ही जाती है।

पेंटिंग बनाना तो पहले ही बंद हो चुका था। अब दीपशिखा किताबें पढ़ने में खुद को व्यस्त रखने लगी है। न जाने कहाँ से किप्लिंग की 'फेंटम रिक्शा' उसके हाथ लग गई। जैकब और एग्निस की प्रेम कहानी। जैकब को एग्निस बहुत ज्यादा प्यार करती थी लेकिन जैकब बेवफा निकला। उसने एग्निस को अपने प्यार के जाल में फँसाकर बाद में धोखा दे दिया। उसकी बेवफाई के गम में एग्निस मर गई, मर कर भूत बन गई। जब भी जैकब छोटा शिमला रोड से गुजरता वो एक रिक्शे में एग्निस को बैठी पाता। रिक्शे से एग्निस उसे झाँककर देखती नजर आती। कहानी दीपशिखा के दिल को छू गई। अगर गौतम उसकी जिंदगी में नहीं आता तो वह भी एग्निस की तरह नीलकांत की बेवफाई के गम में मरकर भूत बन जाती। दीपशिखा घबराकर लॉन में निकल आई। एग्निस उसका पीछा करती रही। उसे लगा सामने सड़क पर भूत रिक्शा जा रहा है और उसमें से एग्निस झाँक रही है। डर के मारे आँखें मूँदकर वह लॉन पर रखी कुर्सी पर बैठ गई। फूलों की खुशबू हवा में समाई थी।

गौतम चार दिन के टूर पर दिल्ली गया था और शेफाली भी हैदराबाद में अपने चित्रों की प्रदर्शनी के लिए गई थी। दोनों की याद में दीपशिखा बेचैन थी। एकाएक हवाएँ तेज चलने लगीं। दीपशिखा घबरा गई ऐसी हवाएँ तो सुनामी के वक्त चलती हैं... कहीं सुनामी तो नहीं आने वाला है। गजाला ने पास आकर कहा - "मालकिन, खाना खा लो फिर दवा का वक्त हो जाएगा।"

अचानक वह तमककर उठी - "दवा खिला-खिलाकर मुझे मार डालना चाहती है? सब मेरी जान के दुश्मन हो गए हैं। कोई भी मेरा अपना नहीं है।"

गजाला डर गई। मालकिन को फिर पागलपन का अटैक आने वाला है सोचकर वह गर्म दूध और दवा लाने किचन की ओर तेजी से मुड़ी।

तभी तेज अंधड़ में चंपा के पेड़ की डाल टूटकर गिरी... "आ गया सुनामी... घर जा अपने... तेरा घर समंदर के किनारे है। खूब अच्छे से दरवाजा बंद कर लेना और तब तक घर से बाहर मत निकलना जब तक मैं फोन न करूँ।"

उसकी आँखें और चेहरा हमेशा की तरह सफेद पड़ गया था।

"और आप?"

"मुझे क्या होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति ने मुझे पहले ही फोन करके आगाह कर दिया है कि घर से न निकलूँ। तू भी मत निकलना।"

डर गई गजाला... इस समय तो गौतम भी नहीं है, इस समय यहाँ से चले जाने में ही भलाई है। उसके जाते ही दीपशिखा ने बंगले के सारे दरवाजे बंद कर लिए। हवाएँ साँय-साँय चलती रहीं। वह बिना खाए-पिए मुँह तक कंबल ओढ़े लेती रही। उसकी धड़कनें उसे साफ सुनाई दे रही थीं। गला सूख रहा थापर हिम्मत नहीं थी कि पानी लेकर पिए। मोबाइल की आवाज ने उसे चौंका दिया। थरथराते हाथों से उसने मोबाइल थामा - "शिखा, खाना खाया?"

गौतम की आवाज से वह आश्वस्त हुई... "नहीं, तुम जल्दी आ जाओ।"

"रिलैक्स प्रिंसेज... खाना खाकर आराम से सो जाओ। मैं आ रहा हूँ न जल्दी।"

"तुम भी खा लो, मुझे पता है तुमने नहीं खाया है।"

और वह मोबाइल को चूमने लगी - "आई लव यू गौतम, नहीं रह सकती तुम्हारे बिना। कल सुबह तक नहीं आए तो जान दे दूँगी अपनी।"

"वो तो तुम कब से दे चुकीं। मेरी बेगम की जान मुझ नाचीज के दिल में समा चुकी है।"

दीपशिखा की हँसी में खनक थी। पर यह हँसी हमेशा वाली हँसी नहीं लगी गौतम को। उसे लगा जैसे कुछ छूट रहा है कुछ अपना बहुत अजीज... घबरा गया वह... ये क्या सोचने लगा? क्यों सोचने लगा? कहीं ये नियति का संकेत तो नहीं? सारी रात वह करवटें बदलता रहा लेकिन चाहकर भी वह तीन दिन से पहले नहीं पहुँच पाएगा मुंबई।

गौतम के फोन रखते ही दीपशिखा पलंग से उठकर टहलने लगी थी। उसे लगा जैसे एग्निस की रूह की तरह वह हलकी होकर हवा में तैर रही है। रूह के कातिल कई सारे चाकू, खंजर उसकी ओर बढ़ रहे हैं... कभी वह माँ की गोद में सर छुपा लेती है, कभी गौतम के सीने में। दंगाई उसे चारों ओर से घेर चुके हैं, उनके हाथों में जलती मशालें हैं। अचानक दंगाइयों के चेहरे नीलकांत के चेहरे में परिवर्तित होने लगे। दीपशिखा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने पलंग पर लेट कर अपना चेहरा तकिए में छिपा लिया... अंतिम सहारे के लिए।

आखिर 'गौतम शिखा' कुटीर से सरकारी ताला हटा लिया गया। तीन दिन तक लावारिस पड़े बंगले में जब दीपशिखा का अंतिम संस्कार करके गौतम ने शेफाली और तुषार के साथ कदम रखा तो एक मनहूस सन्नाटा बंगले को अपनी गिरफ्त में लिए था। गौतम का बंगले के फर्श पर पड़ता हरकदम आँसू बनकर उमड़ रहा था उसकी आँखों में। बयालीस साल की छोटी सी उम्र और मात्र दस वर्षों का साथ। दीपशिखा सचमुच दीप की शिखा के समान उसके अँधेरों को उजाला सौंप विलीन हो गई।

दीपशिखा की बड़ी सी तस्वीर के सामने जलता दीपक और लाल कपड़े से बँधा अस्थि कलश... इतनी सी जिंदगी के इतने बीहड़ रास्ते... इतनी उठा-पटक... इतनी नफरत, दुश्मनी... गौतम दीवान पर बुत बना बैठा था। गजाला ने पूरा बंगला धोया था और अब सबके लिए चाय बना रही थी। दीपशिखा और गौतम के दोस्त एक-एक कर आना शुरू हो गए थे। बारह बजे अस्थि विसर्जन होगा। शेफाली वाल्केश्वर में बाणगंगा के तालाब में अस्थि पुष्प विसर्जित करना चाहती थी लेकिन गौतम ने वर्सोवा जाना तय किया - "दीपशिखा ये सब कर्मकांड नहीं मानती थी। वह कहती थी समुद्र से अधिक पावन पवित्र तो कहीं का जल हो ही नहीं सकता। सारी नदियाँ समुद्र में ही तो आकर मिलती हैं।"

तुषार वर्सोवा जाकर पहले से एक नाव तय कर आया था। अस्थिकलश लेकर जब सब वर्सोवा पहुँचे, आसमान पर बादल घिर आए थे और समुद्र की लहरें काफी तेज उछल रही थीं जैसे तूफान आने वाला हो। नाव मछुआरों वाली थी। एक नाव में छै से ज्यादा लोग बैठ ही नहीं सकते थे। गौतम बैठा नहीं बल्कि कलश लिए खड़ा रहा। नाव हिचकोले खाती समुद्र पर तैर रही थी। शेफाली को डर था कहीं गौतम गिर न जाए लेकिन उसने अपने को डाँवाँडोल हालत में भी खूब साध कर रखा। तीन किमी तकनाव खेने के बाद केवट ने चप्पू चलाने बंद कर दिए। कलश गौतम, तुषार, शेफाली और सना ने पकड़ कर लहरों में छोड़ दिया। कलश ने डगमग डोलकर एक गोल परिक्रमा की और धीरे-धीरे जल में समाता चला गया। गौतम ने अंजलि में जल लेकर डबडबाई आँखों से छुआया और तुषार के कंधे पर अपना सिर टिका दिया - "मैं बिल्कुल अकेला रह गया तुषार।"

तुषार और शेफाली उसकी पीठ थपथपाते रहे। नाव दीपशिखा के बिना तट की ओर लौटने लगी। अचानक काले सफेद पर वाले परिंदे क्वें-क्वें की तीव्र आवाज करते लहरों पर मँडराने लगे। उनमें से एक की चोंच में वह लाल कपड़ा था जो कलश के मुँह पर बाँधा गया था। लहरें उसे किनारे की ओर ले आई थीं और अब वह परिंदे की चोंच में दबा था।

"दीपशिखा लाल रंग से डरती थी। अपने अंतिम सफर में भी वह लाल रंग संग नहीं ले गई।"

गौतम देर तक तट पर खड़ा रहा। जैसे मेला खतम हो जाने के बाद मेले में लुट चुका मुसाफिर हो।


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हिंदी समय में संतोष श्रीवास्तव की रचनाएँ