मेरा नाम साथ दिया है। बाकी परिचय इतना है कि सआदत हसन मंटो से अपनी 'आसिकी' है। चूँकि मैं आशिक हुँ मेरा माशूक मुझे मुआफ करेगा।
मेरे प्यारे मंटो,
मैंने तुम्हें पहली बार तब पढ़ा जब मैं सातवीं कक्षा में थी। मैंने तब यह न जाना कि वह तुम थे जिसे मैंने पढ़ा। सातवीं कक्षा में ही एक रोज साईंस की टीचर ने ऐलान किया कि आज लेबोरेटरी में सिर्फ लड़कियों को फिल्म दिखाई जाएगी। इस बात से लड़के बहुत नाखुश हुए। उनके प्रतिवाद को अनसुना करते हुए टीचर साहिबा चली गईं। अंततः ठीक समय पर लड़कियाँ इठलाती हुईं लेबोरेटरी को चलीं। वहाँ जो उन्होंने देखा वह एक रंगीन रील थी जिसमें स्त्री के प्रजनन अंगों के स्थिर चित्र थे। गर्भाशय, फैलोपियन ट्यूब, आदि अवयव दर्शाए गए थे और एक मनहूस आवाज मासिक धर्म की प्रक्रिया बता रही थी। इतना ही नहीं स्तनों से दूध के स्राव की प्रक्रिया भी समझायी गई। हम सिर्फ लज्जित होते रहे, समझ कुछ भी न आया। क्योंकि प्रजनन की वास्तविक प्रक्रिया तो हमें समझाई ही न गई थी? हम से अधिक लज्जित हमारी टीचर रही होंगी चूँकि वे वहाँ मौजूद ही न थीं। - यह था स्कूल की तरफ से दिया गया हमें पहला सेक्स एजुकेशन। खैर! लड़कियाँ गुमसुम, सिर झुकाए, लाल मुँह लिए अपनी क्लास को लौटीं। वहाँ सदैव से पक्षपात के शिकार लड़के आक्रोश से भरे बैठे थे। लड़कियों के क्लास में घुसते ही लड़कों ने उन्हें घेर लिया और प्रश्नों की झड़ी लगा दी - "कौन सी फिल्म देखी तुमने?"; "नाम क्यों नहीं बतातीं?"; "कौन हीरो-हीरोईन थे?"; ...त्रस्त लड़कियाँ क्या बतातीं? वे पहले टाल गईं, झेंपीं फिर झुँझलाईं ...उत्तर न पा कर लड़के अलग बौखलाए। उनकी आपस में झड़प हो गई। इतना ही नहीं कई लड़कियों ने अपने बस्ते और बॉटल घुमा-घुमा कर कुछ लड़कों को पीट भी डाला। यह था पार्ट वन। पार्ट टू भी कम नहीं - रिसेस खत्म होते ही साईंस की टीचर फिर प्रकट हुईं। इस बार वह कह गईं कि लेबोरेटरी में लड़कों को फिल्म दिखाई जाएगी। लड़के मारे खुशी से "हो...हो..." का शोर करते हुए लेबोरेटरी की ओर दौड़े। सयानी लड़कियाँ क्लास में खामोश बैठी रहीं। पौन घंटे बाद लड़के लौटे। कुछ यूँ बने हुए थे मानो कुछ हुआ ही न हो, कई दूसरों को चोर निगाहों से देख कर अपनी हँसी दबा रहे थे। कई खुलेआम "खि-खि-खि..." कर रहे थे तो दो-चार ऐसे भी थे जो एक दूसरे को पुकार कर 'क्यू' देते और ठहाके मार कर हँसते। लड़कों ने क्या देखा यह उनका खुदा ही जानता है।
तो मैं यह कह रही थी कि जिस उम्र में सेक्स का ग्यान भेलपुरी भर होता है उस उम्र में मंटो मैंने तुम्हें पहली बार पढ़ा। मैंने तुम्हारी कहानी 'बू' पढ़ी थी। अब यह न कहना कि यह कहानी मुझे इत्ती सी उम्र में नहीं पढ़नी चाहिए थी। यदि तुमने ऐसा कहा तो मैं तुमसे पूछूँगी कि मुझे तुम्हारी कौन सी कहानी पढ़नी चाहिए थी और तुम चुप लगा जाओगे। 'बू' को तब मैं पूरी तरह नहीं समझ पाई परंतु हमें पूरी तरह न समझ पाने की मानो आदत थी। साहित्य खुदा था। खुदा की तरह ही वह ग्यान अपनी मुट्ठी में बंद रखता लेकिन हमें उसका भान जरूर दे देता। उस वक्त मैंने तुम्हारी कहानी बड़े गैर-यकीन के साथ पढ़ी थी। तुम और तुम्हारी कहानी का शीर्षक मेरे दिमाग से गुम हो गए, तब मेरे लिए तुम्हारी बिसात ही क्या थी! लेकिन तुम्हारी कहानी मेरे जीवन की पढ़ी सबसे अविस्मरणीय कहानी बन गई। वह कहानी मुझे बार-बार याद आती, बेनाम प्रेत की तरह वह मुझे गाहे-बगाहे 'हॉन्ट' किया करती। आखिर बरसों-बरस बाद वह कहानी मुझे किसी संकलन में दुबारा हाथ लगी। मैं चिल्लाई - "अरे वह खोई कहानी मिल गई! उसके लेखक का नाम सआदत हसन मंटो है!" मैं इस तरह खुश हुई मानो किसी भूले हुए पूर्वज का नाम मिल गया हो। मैंने उस कहानी का नाम रटा, "बू-बू-बू!" ताकि मैं फिर उसे कभी न भूलूँ।
बहुत भला किया मियाँ कि तुम सही वक्त पर इस धरा-धाम से कट लिए। मान भी लें कि तुम्हें अपनी अफसानानिगारी का गुरूर न था, सुरूर तो था ही। वह तो हम यूँ उतार देते। तुम्हें दुबारा चढ़ती भी न! इन दिनों यहाँ ठर्रा भी नहीं चढ़ा करता है। फिर तुम जी कर क्या करते? तुम पर छह मुकदमे अश्लीलता के चले, तुम शहीद बने। तुम को पागल करार कर के पागलखाने भेज दिया गया, तुम 'बड़का' वाले शहीद हुए। माय लव, अब अपनी तरफ शहादत इतनी सस्ती नहीं मिलती जितनी तुम्हारे जमाने में मिला करती थी। अब यहाँ कोर्ट में मुकदमें नहीं चला करते, मीडिया ट्रायल होता है। पागलखाने की जगह फेसबुक आबाद है। काश! तुम्हारे सीनियर, लॉर्ड बुद्ध इस जमाने में पैदा हुए होते तो 'बोधि' के लिए उन्हें एड़ियाँ न रगड़नी पड़तीं। वे फेसबुक पर खाता खोलते और दन्न से बुद्ध बन बैठते। लेकिन अपनी आसिकी तो तुम से है मंटो, बुद्ध से क्या लेना-देना। मैं तो तुम्हारी और अपनी बात करूँगी। जब समाज के ठेकेदार तुम्हारी कहानियों के लिए तुम्हें सलीब पर चढ़ा रहे थे तब तुमसे औरतें मुहब्बत कर रही थीं। तुम उनकी बात कह रहे थे। तुम जलालत की बात कर रहे थे। तुम जिस्म और जिन्स की बात करते थे। तुम जिस्मफरोशी की शिकार औरतों के महबूब लेखक थे, गलीच के मसीहा। लेकिन यह सब तुम्हारी कहानियों के भीतर था। कहानियों के बाहर क्या था मंटो? क्या तुम वैसे इनसान थे जैसे तुम लेखक थे - आँखें मिलाओ मंटो?
तुम एक 'सेक्सिस्ट' मर्द थे। मुझे नहीं पता तुम इस शब्द से परिचित हो या नहीं। माने तुम स्त्रियों के प्रति कुंठा रखने वाले पुरुष थे। तुमने कहानियों से इतर बहुत कुछ लिखा है जहाँ तुम अपनी यह असलियत हम पाठकों से न छुपा पाए। नूरजहाँ - वह तुम ही थे जिसने अपने दोस्त शौकत को नूरजहाँ से निकाह करने के लिए मना किया था। यह तुम्हारी सोच थी कि वह उसके साथ रह ही रही थी, दोस्त का काम चल ही रहा है, तब उससे शादी करने की क्या जरूरत है। यह बात बड़ी दिलचस्प रही कि तुम्हारे जिगरी दोस्त ने अपने घर जा कर निकाह के लिए अपने घरवालों तक को राजी कर लिया और उनके आशीर्वाद से अपनी प्रेमिका से शादी कर ली लेकिन तुम्हें यह बताना जरूरी भी नहीं समझा। यह कैसा विरोध था तुम्हारा? तुम ठहरे सत्यान्वेषी - प्रेम गफलत है और सेक्स हकीकत टाईप! प्रेम तुम्हारे साहित्य में शायद ही मिले चूँकि तुम हकीकत लिखते थे। लेकिन हकीकत यह भी है कि हर साल कई जोड़े प्रेम के वास्ते अपनी जान गँवाते हैं जबकि सेक्स तो उन्हें मिल ही जाता? यदि तुमने भी जरा सी 'गफलत' पाल ली होती तो यूँ बेजार न जीते। रशीद जहाँ - वे तुम्हारी समकालीन थीं। वे इस उपमहाद्वीप की पहली मुस्लिम महिला डॉक्टर थीं - गायनोकोलॉजिस्ट। यानी स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ। वे छोटे बाल रखतीं और पैंट-शर्ट भी पहना करतीं। उनके लेखन व विचार क्रांतिकारी रहे, वे मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर चोट किया करती थीं। स्त्री के सम्मान, अधिकार तथा स्वास्थ्य की बातें करती थीं। तुम और क्या कह सकते थे उनकी शान में सिवाय इसके - "रशीद जहाँ का फन आज कहाँ है? कुछ तो गेसुओं के साथ कट कर अलाहिदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठस हो कर रह गया। फ्रांसीसी में 'जार्जसाँ' से निस्वानियत का हसीन मलबूस उतार कर तसन्नों की जिंदगी इख्तियार की। पालिस्तानी मौसीकार शो पीस से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने लाल ओ गुहर जरूर पैदा कराए। लेकिन उसका अपना जौहर उसके वतन में दम घुट के रह गया।" तुम एक गंभीर प्रगतिशील क्रांतिकारी कम्युनिस्ट डॉक्टर लेखक के गेसुओं को नापते रहे, उनकी पतलून की जेब का अंदाजा लगाते रहे क्योंकि वे महिला थीं। तुम्हारे लिए यह ज्यादा जरूरी था कि वह अपना स्त्रीत्व पुरुषों को रिझाने में लगाए रहे या वह पुरुषों के पौरुष को तवज्जो नहीं देती थीं यह बात तुम्हें चुभ गई? जब भी इस देश में तीन तलाक का मुद्दा उठता है या मुस्लिम महिला अधिकारों की चर्चा होती है तो हिंदी-उर्दू के प्रखरतम बुद्धिजीवी और विद्वान नींद की गोली फाँक, पंखों में अपनी चोंच दबा कर सो जाते हैं। जब तक वे अपने बच्चों को विदेशों में तालीम दिला पा रहे हैं तथा उनकी बेटियाँ बिना बाँह के, टखनों तक के लिबास पहनने को आजाद हैं, क्या जरूरत है कि वे गरीब-कमनसीबों की बेहतरी के वास्ते फतवे मोल लें? यार मंटो, यह वतन आज भी रशीद जहाँ का इंतजार कर रहा है। उन से जौहर को मुहताज हैं हम। सितारा देवी - सितारा देवी पर तुमने जुल्म ही ढाया समझो। वह अपने जमाने की आला दर्जे की कत्थक नृत्यांगना थीं। वह छोटी अदाकारा थीं लेकिन नृत्य के फन में एक महान कलाकार। वे स्वतंत्र थीं। तुम भी तो कलाकार थे। लेकिन तुम से दूसरे कलाकार की इज्जत न की गई? तुमने अपनी कलम से उनकी तस्वीर का यूँ खाका खींचा है मानो वे कोई आदमखोर चुड़ैल हों। तुमने उनके फन, श्रम, संघर्ष पर एक शब्द न लिखा। तुमने पाठकों को गिनती गिनाई कि वे कितने मर्दों के साथ रहा करती थीं। कैसे वे उन्हें दूसरी औरतों के लिए नकारा बना देती थीं। तुम औरतों के बेडरूम की जासूसी किया करते थे क्या मंटो? तुम औरतों के पर्स-हैंडबैग के भीतर चुपके-चुपके झाँकते थे यह तो तुम खुद ही कुबूलते हो। तुम लिखते हो नजीर सितारा को मारा-पीटा भी करता था। "ऐसी औरतें जद-ओ-कूब से एक खास किस्म की जिन्सी लज्जत महसूस करती हैं मगर उनसे मुंसलिका मर्द कब तक हाथा-पाई करता रहे।" वाह! दुनिया में जो तमाम औरतें रोजाना पिटती हैं वह जिन्सी लज्जत पाने के वास्ते पिटती हैं और उन्हें पीटने वाले मर्द उनकी गुजारिश पर उन्हें पीटते हैं। ऐसे मेहरबान-दिल मर्दों को जेल की लज्जत दिलाने के लिए हिंदुस्तान में आजकल पूरे कानूनी इंतजामात हैं। सितारा देवी के प्रेमियों ने उन से प्रेम किया। लेकिन तुम थे कि अनुसंधान करते रहे! तुम अपने समय की इतनी बड़ी शास्त्रीय नर्तकी के रियाज के लिए कहते हो "यह भी हैरतनाक चीज थी कि सुबह उठते ही दो घंटे वहशियों के मानिंद नाचती रहे।" डार्लिंग मंटो तुमने जिस तरह खुद को शराब में गर्क किया उस से बड़ी हैरतनाक चीज कोई नहीं, विश्वास करो। सितारा देवी से तुम्हें क्या प्रॉब्लम थी? फिल्मों की तिजारती दुनिया में वह किसी मम्मी की बेबी नहीं थीं, उनका कोई दलाल नहीं था, वह अपनी मर्जी की मालिक थीं। क्या यह नागवार था तुम्हें? या तुम्हारी पितृसत्तात्मक सोच को यह मंजूर नहीं था कि कोई औरत अपनी मर्जी से सेक्स का लुत्फ उठाए, एक नहीं अनेक के साथ रहे? जब कि पुरुषों के लिए यह बातें आम हैं तथा वे इनकी डींगें भी मारते हैं। तुम खुद सघन से सघन पतित पुरुष मित्रों के प्रति अपने जीवन और लेखनी में बेहद उदार रहे हो। क्या मुश्किल तुम्हारे अहं की भी थी कि तुम जैसे अफसानानिगार को वह तवज्जो नहीं देती थीं और तुम्हें चाय नौकर के हाथों भिजवाती थीं? अंकल सैम - तुमने अंकल सैम (अमरीका) के नाम कई पत्र लिखे। उनमें से कुछ पत्रों में तुमने औरतों का घोर अपमान किया है, कि वे विदेशी औरतें हैं इस से तुम्हारा गुनाह कम नहीं होता। पॉलिटिकल कमेंट्री व तंज हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी गाली नहीं जो औरत के अंगों से रगड़ खाए बगैर मुकम्मल न हो। तुम पाकिस्तानियों को अमरीकी औरतें मुहैय्या करवाने की बात करते हो। तुम जादुई पाउडर खाने की बात करते हो जिससे महिलाओं के शरीर उनके कपड़ों से बाहर दिखाई देंगे, वगैरह-वगैरह। तुम्हारी इन बातों में जिन्हें हास्य या व्यंग्य का बोध हुआ, तुम्हारे साथ ही, मुझे उन पर भी तरस आता है। मालूम पड़ता है कि तुम्हें औरतें हीरा मंडी में ही सुहाती थीं। तुम्हारी संवेदना और सहानुभूति उनके लिए हैं जिन पर तुम मानवीयता का रोब गाँठ सकते हो। वे जो तुम्हारे सामने रोबीली हैं उनके वास्ते तुम्हारी कलम कुटनी बुढ़िया की तरह चलती है।
इस्मत चुगताई - ...और तुम्हारी दोस्त इस्मत? वे बाद में तुम्हारी दोस्त बनीं। पहली ही मुलाकात के पहले ही वाक्य में तुमने उनकी कहानी 'लिहाफ' के अंत की तफ्तीश करनी चाही थी। क्या सोचा था तुमने कि यह बड़ा खुल कर लिखती है, देखूँ किसी पुरुष से कितना खुल कर बात कर पाती है? उनके झेंपने पर तुमने बेगम से कहा था, "यह तो कमबख्त बिल्कुल औरत निकली। सारा मजा किरकिरा कर दिया।" तुमने बाद में वह वाक्या याद करते हुए इस्मत के लिए कहे अपने वे शब्द वापस लिए हैं। तुम्हारी कहानियों से इतर मैं तुम्हें जब भी पढ़ती हुँ कई बार दिल में आता है कि तुम्हें अपने सामने बिठाऊँ और तुमसे कहूँ - "तुम तो कमबख्त बिल्कुल मर्द निकले! सारा मजा ही किरकिरा कर दिया?" और स्वीटहार्ट, मैं ये शब्द कभी वापिस नहीं लूँगी। तुम बताते हो कि तुम जब भी कोर्ट केस में हाजिर होने के लिए लाहौर जाया करते, वहाँ के करनाल शू हाउस से कई जोड़े जूते खरीद लाते। वे जूते तुम्हें बहुत प्रिय थे। मेरे मंटो, तुम आज यहाँ होते तो तुम्हें यह जहमत नहीं उठानी पड़ती। तुम्हें वे जूतियाँ 'होम डिलीवर' की जातीं, बिल्कुल मुफ्त! कहा तो जानूँ, इधर इन दिनों हवा पलट गई है, अपनी पतंग बचा लो! उदाहरण और हैं किंतु जानेमन आखिर यह प्रेम-पत्र है, गजट तो नहीं?
"A writer picks up his pen when his sensibilities are hurt." - यह तुमने कोर्ट में जज से कहा था, अर्थात, एक लेखक अपनी कलम तब उठाता है जब उसकी संवेदनाएँ आहत होती हैं। मियाँ कम लिखा, ज्यादा समझना। मेरा यह लव लेटर सफिया बेगम को जरूर पढ़ाना। वे खुश होंगी। बेगम को मेरा सलाम कहना, बच्चों को प्यार। तुम्हें - उड़न बोसा!
तुम्हारी,
आशिक