hindisamay head


अ+ अ-

निबंध

ईश्वर से मुक्ति का उत्सव

महेश चंद्र द्विवेदी


(संदर्भ : मैं नास्तिक क्यों हूँ – भगत सिंह)

यदि मुझमें कुछ ऐसा है जिसे धार्मिक कहा जा सकता है, तो वह है संसार के ढाँचे की – जहाँ तक विज्ञान इसे खोल पाया है - अंतहीन प्रशंसा।                  

- अल्बर्ट आइंस्टीन

ईश्वर एवं उसके दूतों के अस्तित्व का विवाद शाश्वत है, क्योंकि आस्तिकता तर्करहित आस्था पर आधारित है - ईश्वर, देवता, भूत-प्रेत जैसी पारलौकिक शक्तियों तथा कर्मफल, भाग्य, स्वर्ग-नरक, जादू एवं आत्मा की निरंतरता जैसी इंद्रियभान से परे मान्यताओं पर अंध-आस्था एवं नास्तिकता विभिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार से कल्पित इन पारलौकिक शक्तियों को नकार कर मानव को मुक्त चिंतक मानकर उसके सोच के द्वार खोलने में विश्वास करती है। आस्तिकता मानव एवं उसके जीवन को ईश्वर की असीम शक्ति के समक्ष तुच्छ एवं सारहीन सिद्ध करती रहती है, जबकि नास्तिकता मानव एवं उसकी चिंतनशक्ति की स्वतंत्रता एवं महत्ता को स्थापित करती है।

आस्तिकता का उदय, निहित उद्देश्य एवं दुरुपयोग

आस्तिकता का उदय प्रकृति की असीम सृजन एवं प्रलयंकारी शक्ति के समक्ष आदिमानव की बेबसी और प्रकृति के विषय में अल्पज्ञान के कारण हुआ होगा - यथा, सूर्य और चंद्र, जिन्हें हम देवता मानते रहे हैं, के विषय में आज हम जानते हैं कि वे देवता न होकर निर्जीव, निष्प्राण पिंडमात्र हैं। मानव समाज की संरचना के प्रारंभिक काल में आस्तिकता का एक उद्देश्य ईश्वर एवं परलोक का भय दिखाकर मानव की हिंसात्मक स्वार्थी प्रकृति पर आत्मनियंत्रण करवाना भी रहा होगा, परंतु यह नि:संदेह सत्य है कि शनै:-शनै: समाज के शासकों और प्रभुत्वशाली व्यक्तियों ने आस्तिकता को अज्ञानियों एवं निर्बलों पर नियंत्रण एवं उनके शोषण का माध्यम बना लिया। स्वार्थ साधन के लिए उन्होंने आस्तिकता का सहारा लेकर जातिवाद, सांप्रदायिकता, जिहाद, इंक्वीज़ीशन, नस्लवाद, तंत्र-मंत्र जैसी मानव-विरोधी प्रथाओं को जन्म दिया, जिससे संपूर्ण मानवता त्रस्त है।

दार्शनिकों के मत

दार्शनिक पॉल कुर्ट्ज ने लिखा है, 'प्राचीन धर्मों का प्रादुर्भाव ऐसे असंस्कृत निर्धन समाजों में हुआ था जिनमें अधिकांश व्यक्तियों का जीवन दुखमय था। अत: धर्म प्रचारकों ने उन्हें अपनी इच्छाओं को दबाकर सुखों से वंचित रहने और सुखी परलोक की कल्पना करने की शिक्षा दी, जिसका मूल उद्देश्य प्राय: उन पर होने वाले अत्याचारों को उनके द्वारा चुपचाप सहते रहने को प्रेरित करना था।'

रॉबर्ट ग्रीन इंगरसॉल का मत है, 'मेरा विश्वास है कि तब तक इस पृथ्वी पर स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जब तक मनुष्य स्वर्ग में बैठे अत्याचारी शासक को पूजते रहेंगे।'

बीसवीं सदी के महानतम दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल का कथन है, 'एक उत्तम संसार के लिए ज्ञान, दयालुता एवं साहस की आवश्यकता होती है, इसके लिए अतीत के लिए अनावश्यक प्रलाप, अथवा बहुत पहले अल्पज्ञानी व्यक्तियों द्वारा कहे गए शब्दों में अपने सोच की स्वतंत्रता को बाँधे रखने की आवश्यकता नहीं है।'

दक्षिण भारत के समाज सुधारक गोरा ने अपने मत को और बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है, 'आस्तिकता की दासता में जकड़े मन सोचते हैं कि ईश्वर एकमात्र सत्य है और जगत मिथ्या एवं इस प्रकार सत्य और मिथ्या के यथार्थ को उलट देते हैं। चूँकि आस्तिकता का आधार ही असत्य है, अत: वह असत्यनिष्ठ व्यक्तित्व को जन्म देती है। ऐसे व्यक्ति बात तो समानता की करेंगे, परंतु यह बताकर असमानता को अपनाएँगे कि उसकी ईश्वरीय स्वीकृति है। वे स्वर्ग की बात करेंगे और जनसाधारण को गंदगी एवं निर्धनता में संतुष्ट रहकर जीने देंगे, वे वैश्विक भाईचारे की बात करेंगे परंतु ईश्वर के नाम पर नरसंहार करेंगे, तथा वे संसार को भ्रम बताएँगे परंतु उसके प्रति गहरी आसक्ति रखेंगे।'

भारतीय स्थिति के विषय में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में बड़ी सटीक टिप्पणी की है, 'भारतवर्ष में मुक्त चिंतन का मार्ग कई सौ वर्ष पहले ही अवरुद्ध हो चुका था। धर्म और समाज, दोनों में ही भारतवासी अपने शास्त्र को देखकर चलते थे। यूरोप की श्रेष्ठता का कारण केवल यही नहीं था कि उसके पास उन्नत शस्त्र थे, वरन यह भी था कि जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण प्रवृत्तिमार्गी था। वह जीवन से भागकर अपना सुख नहीं खोजता, प्रत्युत उसके भीतर पैठकर उसका रस पाता था।'

धार्मिक ग्रंथों में आस्तिकता की व्याख्या

गीता, कुरान और बाइबिल संसार के प्रमुख धर्मग्रंथ हैं। ये क्रमश: ईश्वर, अल्लाह और गॉड में विश्वास कर स्वर्ग अथवा मोक्ष में अपना स्थान सुरक्षित करने की शिक्षा देते हैं। सत्यान्वेषण के लिए इनके कतिपय उद्धरणों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करना आवश्यक है।

श्रीमद्भगवद्गीता

अहं सर्वस्य प्रभवोमत: सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजंते मा बुधा भावसमन्विता:।।

मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेष्टा करता है। इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।।

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात उसने निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान कुछ भी नहीं है।

कुरान

सूरा 39 - वे जो ईमान को नकारते हैं और मेरे द्वारा दिखाए जलवों में अविश्वास जताते हैं, आग में झोंके जाएँगे और वहीं रहेंगे।

सूरा 74 - वे सब अल्लाह के काम में लड़ें, जिन्होंने अपने परलोक के लिए अपना इहलोक बेच दिया है। वह जो अल्लाह के काम में लड़ेगा - चाहे वह विजेता हो या मारा जाए - उसे शीघ्र मैं बेशकीमती इनाम दूँगा।

सूरा 29 - उनसे लड़ो जो अल्लाह और कयामत में विश्वास नहीं करते हैं जब तक वे अपने को पराजित मानकर जज़िया का भुगतान न करने लगें।

बाइबिल

एफेज़ियन्स 3 - ईश्वर की दयास्वरूप प्राप्त ईसाइयत में विश्वास के कारण तुम बच गए हो, अपने कारण नहीं, यह तुम्हारे अपने कर्मों के कारण नहीं है वरन ईश्वर की कृपा है, क्योंकि हम सब ईश्वर के हस्तशिल्प हैं एवं उसके द्वारा पूर्वनिर्धारित सत्कर्मों को करने आए हैं।

ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में क्रिश्चियन थियोलॉजी में डाक्टरेट कर रहे एक महाशय ने जब मुझसे कहा कि आत्मा को हेल (नरक) से बचाने का एकमात्र उपाय क्राइस्ट की शरण में जाना है, तो मैंने उनसे कहा, 'फिर तो संसार में क्रिश्चियनिटी में आस्था न रखने वाले आधे से अधिक मनुष्यों की आत्मा तो हेल में ही जाती होगी,' तो उन्होनें हाँ में सिर हिलाया, और जब हमारे सामने से गुजरते हुए कुत्ते की ओर इशारा कर मैंने कहा कि यह कुत्ता और इस जैसे असंख्य जीव तो क्राइस्ट को समझ भी नहीं सकते हैं, बिचारे उसकी शरण में कैसे जाएँ, तो उन महाशय का आश्चर्यजनक उत्तर था, 'इनमें तो आत्मा है ही नहीं।'

अंध आस्था से मुक्त होकर सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन प्रश्नों पर अवश्य विचार करेगा :

1. क्या अतिशय दुराचारी व्यक्ति केवल इसलिए साधु मानने योग्य होना चाहिए कि वह वासुदेव कृष्ण का निश्चयी भक्त है?

2. यदि इस्लाम में ईमान और अल्लाह के जलवों में आस्था न रखने वाले सब लोगों को दोज़ख़ की आग में झोंकने का अल्लाह का निश्चय है तो इसका अर्थ हुआ कि अल्लाह ने जन्नत को संसार के थोड़े से भूभाग (अपवादों के छोड़कर) में रहने वाले मुस्लिमों के लिए आरक्षित कर दिया है। यह समझ में नहीं आता है कि जब सब उसी के बनाए हुए हैं और वह सर्वशक्तिमान और असीम दयालु है, तो पलमात्र में शेष सबको ईमान वाला क्यों नहीं बना देता है जिससे उनमें से कम से कम सत्कर्मी तो दोज़ख़ की आग में झोंके जाने से बच जाएँ।

3. क्या आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखने वाले धर्मविशेष के अनुयायियों का यह अनर्गल अहम नहीं है कि मनुष्य के अतिरिक्त किसी जीव में आत्मा नहीं है और आत्मा को नरक से बचाने का एकमात्र उपाय क्राइस्ट की शरण में जाना है?

जब कृष्ण, अल्लाह और गॉड - सब अपनी स्वयं की भक्ति को ही आत्मा के उद्धार का एकमात्र उपाय बताते हैं, तो यह कौन तय करेगा कि आत्मा को बचाने का वास्तविक नुस्खा कृष्ण के पास है, या अल्लाह के पास, अथवा गॉड के पास? स्पष्ट है कि विभिन्न धर्मप्रवर्तकों के विचार विरोधाभासी, अतार्किक एवं स्वयं की महत्ता का बखान करने वाले हैं। अपने असत्य को प्रकट होने से बचाने के लिए ये स्वनिर्धारित नियमों द्वारा मनुष्य को उन पर विचार करने की स्वतंत्रता पहले ही छीन लेते हैं।

नास्तिकता के संभावित दुष्परिणाम

इसमें कोई संदेह नहीं कि ईश्वर एवं नरक के भय से मुक्त नास्तिक व्यक्ति घोर मानववादी हो सकता है तो घोर स्वार्थी भी। नास्तिकता के खतरों के विषय मे डॉ. बिल कुक ने इस प्रकार ध्यानाकर्षण किया है - 'ईश्वर पर अनास्था के उपरांत नास्तिकों के पास शारीरिक सुख, आत्महीनता अथवा परार्थ के मार्गों में कोई भी मार्ग अपनाने की स्वतंत्रता हो जाती है।'

उपसंहार

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईश्वर एवं परलोक का भय दिखाकर (अथवा लालच देकर) मानवों के सोच को बेड़ियों में जकड़कर वैज्ञानिक प्रगति एवं मानव जीवन की गुणवत्ता बढ़ायी जा सकती है अथवा वर्तमान जीवन की महत्ता को स्वीकार कर सब में वैचारिक स्वतंत्रता, वैचारिक ईमानदारी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न कर। स्पष्टत: वैचारिक स्वतंत्रता एवं वैचारिक ईमानदारी का मार्ग अपनाकर मानवों में दूसरे मानवों के प्रति सहनशीलता, सहानुभूति एवं पारस्परिक प्रेम पैदा करना न केवल श्रेयस्कर होगा वरन अधिक स्थायी भी होगा। यह मार्ग समाज में थोड़े-से व्यक्तियों का प्रभुत्व स्थापित करने के बजाय समस्त मानव जाति के लिए कल्याणकारी होगा, क्योंकि नास्तिक समाज में जनतांत्रिक धारणा स्वत:स्फूर्त होती है जो शोषितों को अपनी आवाज उठाने का अवसर प्रदान करती है। यह भी प्रत्यक्ष तथ्य है कि संसार के तमाम नास्तिकों में जितने अधिक प्रतिशत में मानवतावादी मिलते हैं उतने आस्तिकों में नहीं। मानव कल्याण का मार्ग अंध-आस्था की दासता से मुक्त तथ्यपरक एवं वैज्ञानिक सोच ही है।

आइए, ईश्वर एवं उसके अवतारों तथा दूतों की अन्धभक्ति से मुक्ति एवं तार्किक मानवीयता के जन्म का उत्सव मनायें।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में महेश चंद्र द्विवेदी की रचनाएँ