'जेबी कफन' है। बीच में 'सी' सीकर इसे 'जेसीबी कफन' कृपया न समझें? कि
कस्बे-कस्बे गाँव गाँव इस मशीन के कारण हताश परेशान मजदूरों ने इसे जलाकर
सुर्पदे खाक कर दिया। मार्क्स के समय यदि इस मशीन का अविष्कार हो गया होता तो
इसका हर जगह यही हश्र होता! नहीं मैं तो एक कहानी सुना रहा हूँ, कफन बेचकर
रातोंरात अरबपति बनने वाले एक गंगू नाम के व्यापारी की। यह एक छोटा व्यापारी
था, छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पालता था और मन ही मन सालता रहता था कि उसके
अच्छे दिन आखिर कब आएँगे? वह क्यों नहीं, कार व इक बंगला न्यारा का मालिक हो,
हवाई जहाज में विदेश की सैर करे! लेकिन उसके दिन नहीं फिरते थे। अच्छे दिनों
के आने की उम्मीद तो वह कई सालों से बाँधे हुए था।
यह गंगू नाम का व्यापारी अपनी दुकान में खाली समय में किताबें, अखबार पढ़ता
रहता था। आजकल अखबारों में पाजीटिव समाचार भी आने लगे है! और इनमें ज्यादातर
ऐसे रहते कि कैसे किसी गरीब अभावग्रस्त व्यक्ति ने नाम मात्र की पूँजी से शुरू
अपने धंधे से करोड़ों अरबो की संपत्ति बना ली या कोई-कोई एप बना कर अरबपति बन
गया था, आदि। खाकपति से अरबपति बनने की कहानियाँ पढ़-पढ़कर उसके मन में भी ऐसे
ही किसी एक आइडिया के बलबूते अपनी किस्मत चमकाने की इच्छा बलवती होने लगी।
लेकिन कुछ खास क्रेक हो नहीं पा रहा था। सोते-जागते, वह यही सोचता कि किसी दिन
उसके भी दिन बदलेंगे? और शायद वह अभी तक अड़ी-घड़ी जल्दी ही आने वाली थी!
अवसर तो किसी को यदि कफन ओढ़ाया जा रहा हो तो भी मौजूद रहता है नहीं तो 'जलती
चिता में रोटी सेंकने' की कहावत कहाँ से प्रचलन में आई होती। उसके पड़ोस में
रहने वाले लालाराम सेठ के प्राण पखेरू दिल के दौरे से पचास की पकी उम्र में ही
उड़ गए। बेशुमार दौलत थी उसके पास, कहते हैं कि रोज रात नोट गिनते ही उसे सुबह
के चार बज जाते थे! गंगू ने लालाराम से कई बार उधार लिया था। वैसे अब वह खुश
था कि लालाराम गयाराम हो गया है तो उससे तकाजा करने कोई नहीं आएगा, लेकिन
दूसरे ही पल सोचता कि नहीं किसी का पैसा खाना हराम है! यह सोचते-सोचते वह इस
सेठ के द्वारे आ पहुँचा, आखिर वह इस सूदखोर का देनदार तो था ही। सेठ को कफन
ओढ़ाया जा रहा था। सेठानी पछाड़ें ले लेकर रो रही थी। और गंगू को इसी समय एक
आइडिया क्लिक कर गया कि इतनी बेशुमार दौलत का मालिक साथ में कुछ भी नहीं लेकर
जा रहा है! वैसे किसी की शव यात्रा में शामिल होने पर सबसे पहले तो गीता की
पंक्तियाँ याद आती है कि तू क्या लाया था, जो लिया यहीं से लिया, क्या ले जा
रहा है कुछ नहीं आदि। कारण पीछे केवल एक ही है कि कोई भी कफन जेबयुक्त नहीं
होता! नहीं तो कहो वह सब साथ में इस आस में ले जाता कि परलोक में भी ऐशो-आराम
में कोई कमी न होने पाए? और शायद इसी कारण मिस्र में राजा महाराजाओं की ममी के
साथ उनके दास-दासियाँ, धन-दौलत, भी दफना दिए जाते थे।
गंगू लालाराम की शव यात्रा के बाद घर आकर अपने इस धाँसू आइडिया को अमलीजामा
पहनाने में लग गया। उसने चार दिन बाद ही अपनी किराने की दुकान बंद कर नए मिले
आइडिया से उत्साहित होकर एक कफन बेचने की दुकान शुरू कर दी।
कफन की दुकान चल निकली इतनी कि अब उसके पास किताब व अखबार पढ़ने का भी समय नहीं
था। उसके कफन में क्या खास बात थी? कफन तो बस एक सफेद कपड़े के टुकड़े के अलावा
क्या है? उसने 'जेबी कफन' के नाम से अपने उत्पाद का पेटेंट करा लिया था। उसके
पास ऐसे-ऐसे डिजाइन के कफन थे, कि मरने वाला या मरने जा रहा शख्स खुश हो जाए
जेब देखकर!, दो जेब वाला, चार जेब वाला, खुफिया जेब वाला, आगे जेब वाला, पीछे
जेब वाला। जिप के जेब वाला, बटन के जेब वाला, लंबी जेब वाला, छोटे जेब वाला
साथ में बटुआ लटका हुआ वाला। उसकी दुकान में दिन भर तिल रखने को भी जगह नहीं
रहती! एक कफन तो ऐसा था कि उसमें हर स्थान पर जेब ही जेब थे। अब वह लाखों कमा
रहा था। उसके जेबी कफन पास के देशों में एक्सपोर्ट भी होना शुरू हो गए थे! वह
कुछ ही दिनों में शहर का सबसे बड़ा 'कफन एक्सपोर्टर' बन गया था। आखिर जेबी कफन
चलते क्यों नहीं देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही थी। लोगों में काले धन
के कारण संचय की प्रवृत्ति नई ऊँचाई पर थी।
उसने अब जेबी के साथ ही 'डिजायनर कफन' का भी स्टार्ट अप शुरू कर दिया था।
चूँकि लोग अब मौत की रस्मों को भी डिजायनर तरीके से पूरी करना चाहते थे! वह
पाँच सालों में ही शहर का एक करोड़पति व्यापारी हो गया था। उसके 'जेबी कफन' की
चहुँ ओर माँग थीं।
लेकिन कभी-कभी उसके मन में एक विचार आता था कि उसे अपने अंतिम समय के लिए जेबी
कफन रखना चाहिए कि नहीं। वह उहापोह में था, निर्णय नहीं कर पा रहा था।
लेकिन जब भी वह ऐसा सोचता, तो उसे गीता की वो पंक्तियाँ याद आ जातीं फिर वह
सोचता कि भले ही वह सबके लिए जेबी कफन बनाता हो लेकिन खुद बिना जेब वाला ही
ओढ़ेगा।