पत्नी बेचैन हैं।
बेचैनी की वजह है सब्जीवाला जो तकरीबन एक महीने से नहीं आ रहा है। लापता है,
गायब या कुछ हो-हवा गया है। पत्नी को यही लगता है कि उसके साथ कुछ घपला हो गया
है; नहीं इतने दिन फिरने में नहीं लगते! घर में वह बैठ ही नहीं सकता, ऐसा आदमी
है मेहनत-मशक्कतवाला, रोज कमा के खाने वाला।
सब्जीवाला यही कोई पैंतालिस साल का होगा। छह फुटा, लबा, थोड़ा-सा आगे को झुका।
सिर के बाल खिचड़ी और बेतरतीब फैले हुए जिन्हें वह कभी हाथ नहीं लगाता। नहाते
वक्त भी पानी नहीं पोंछता होगा। लटों की शक्ल में वे चेहरे पर लटकते रहते।
मूँछें भी ऐसी ही बढ़ी हुई थीं। दाढ़ी पूरे चेहरे पर नहीं थी। बकरे जैसे ही थी
ठोढ़ी पर। रह-रह वह उस पर हाथ फेरता रहता। बदन पर उसके बिना बटनों का मैला-सा
कुर्ता होता जो छाती पर चौपट खुला रहता। नीचे ढीला-ढाला पायजामा। पाँयचे उसके
ऐसे कटे-फटे होते लगता कैंची से कतर दिए गए हों। बड़े पट्टे की हवाई चप्पलें
वह डाटे रहता। चप्पलें उँगलियों और एड़ियों के दबाव से घिसी होतीं। लगता
उँगलियाँ और एड़ियों ने अपनी जगहें मुकमल कर ली हैं जहाँ से उन्हें हिलाया तक
नहीं जा सकता।
जिस तरह वह बेतरतीब दिखता, उसका ठेला उतना ही तरतीब से जमा होता। हर सब्जी
करीने से रखी होती। और सब्जियाँ भी वह ताजा ही रखता कि देखके खरीदने का मन हो
जाए। चाहे फूलगोभी हो, बैगन, भिंडी या पालक या मूली-शलजम या बथुआ- लगता परिंदे
आ बैठे हों जिन्हें वह अपने प्यार-दुलार भरे अंदाज से पुकार-पुकार के कहता -
क्या बथुआ है, पूरा फाख्ता! क्या शलजम है पूरा कबूतर! परिंदों को उठा लाया हूँ
मालिक! देखो तो कैसे चहचहा रहे हैं! उसकी पुकार का अंदाज इतना नफीस-प्यारा था
कि कॉलोनी में घुसते ही लोग घरों से निकल पड़ते। लंबी डोरी का तराजू था जिसकी
दाँड़ी स्टील की तरह चमकती। तराजू के दोनों पलड़े अल्युमीनियम के थे और खूब
साफ। लगता रगड़ के माँजे गए हों। बटखरे भी काले और चमकते दीखते जैसे अभी-अभी
खरीद के लाए गए हों।
सब्जी तौलते वक्त वह गहकियों से कहता - मालिक, एक तो सब्जी अव्वल दर्जे की
मिलेगी, दूसरे कम तौल की नहीं होगी। कोई शिकायत हो तो इत्तला भर कर दें, पैसे
पूरे वापिस। और आप सब्जी कूड़े में डाल दें।
हम इस कॉलोनी में नए-नए आए थे। नुक्कड़ के हीरालाल के मकान में पहली मंजिल पर
रहते थे। आठ-नौ बजे सुबह पत्नी को ठेलेवाला दूर से आता दीख जाता। मानों वह
उसका बेसब्री से इंतजार कर रही हों, इसलिए उसके नीचे आते ही धड़-धड़ लोहे की
सीढ़ियाँ फलाँगती उस तक जा पहुँचतीं।
पत्नी को देखते ही वह कहता - मैडम, कौन-सा पंछी चाहिए?
पत्नी मुस्कुरातीं, कहती कुछ नहीं।
एक दिन उन्होंने कहा - आप सब्जीवाले कम शायर ज्यादा लगते हो!
इस पर वह शरमा गया, हल्का मुस्कुराया, दाढ़ी पर हाथ फेरा, बोला - मैं
शायर-वायर कुछ नहीं। हाँ, अपने धंधे को शायरी की तरह लेता हूँ और इसी तरंग में
पूरा दिन काट देता हूँ। अगर ये शायरी न हो तो मैं कब्रिस्तान में जा लगूँगा।
यकायक वह झुककर एड़ी खुजलाने लगा और तिरछी नजरों से देखता आगे बोला - हर इनसान
को शायर होना चाहिए।
पत्नी ने कहा - बथुआ कैसे दिया?
वह बोला - फाख्ता?
पत्नी ने मुस्कुराकर कहा - नहीं बथुआ!
वह बोला - नहीं फाख्ता। वह हँसा - एक दूँ, दो या तीन?
उसने तीन फाख्ते थैली में डाले। पत्नी ने दस का नोट दिया। उसने लकड़ी के
छोटे-से बक्से से एक का सिक्का निकाला और पत्नी की तरफ बढ़ाया।
- न-न - नहीं चाहिए - पत्नी ने गर्दन हिलाते हुए कहा - पूरे तो हो गए भाई जान!
- नहीं मैडम, अपन न एक पैसा ज्यादा लें और न ज्यादा दें। जो वाजिब है वही
लूँगा - कहकर उसने पैसा वापस कर दिया।
उसके इस साफ-सुथरेपन की वजह थी कि कोई उससे मोल-भाव नहीं करता था। सब उससे
आदर-लिहाज से बात करते और वह इससे कहीं ज्यादा आदर-लिहाज में रहता। अदब उसमें
जैसे कूट-कूट के भरा गया हो।
उसके इस गुन के कारण पत्नी अक्सर उसकी प्रशंसा करती रहतीं। मुझे उसकी एक-एक
बात बतातीं। मैं बोलता कुछ नहीं, मुस्कुराता रहता।
फरवरी का कोई दिन रहा होगा जब वह नीम के नीचे आ खड़ा हुआ। पत्नी सब्जियों का
मुआयना-सा कर रही थीं कि कौन-सी सब्जी ली जाए।
वह उदास-सा दीख रहा था। उसने आज नहीं पूछा कि कौन-सा परिंदा दूँ, मैडम?
पत्नी को उसकी उदासी टीस गई, अपने को रोक नहीं पाईं, पूछ बैठीं - आज आप पंछी
नहीं बेच रहे हो? लगता है कुछ गड़बड़ हुई है आपके साथ?
उसने गहरी साँस ली जैसे भारी तखलीफ में हो और उसी के दबाव में रह-रह सिर झटकता
जाता था।
- क्या बात है भाई जान? मुझे नहीं बताएँगे?
पत्नी के इस अपनापे पर उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह पड़े। फड़कते होंठों से
बोला - मैं... मैं कहीं और चला जाऊँगा। क्या करूँ! - लाचारगी के भाव में उसने
कंधे ढीले छोड़ दिए।
- क्यों, क्या हुआ ऐसा? - पत्नी का सवाल था आहत-सा।
उसने कुर्ते से नाक पोंछी, फिर गहरी साँसें भरने लगा।
पत्नी के दुबारा आग्रह पर वह बोला - धंधा करना मुश्किल हो रहा है मैडम! आप
जानती हैं, घोड़ा नक्कास में जहाँ रहता हूँ, वहीं पास की कॉलोनी का एक बदमाश
है और वो अच्छे बड़े घर का है, जीना मुहाल किए है।
- अरे! - पत्नी गहरे अफसोस में डूब गईं, फिर बोलीं - क्या कह रहा है वो?
- यही कि दस हजार रुपये, एक बोरी प्याज, दो बोरी आलू और एक बोरी लहसन घर
पहुँचाओ, नहीं बो गत बनाऊँगा कि रोते नहीं बनेगा - वह क्षण भर को रुका, खाँसने
लगा, फिर आसमान की ओर ताकता, दोनों हाथ ऊपर की तरफ उठाता बोला - अल्लाताला
गवाह है जो मैं तनिक भी झूठ बोलूँ। किसी तरह रोटी चल रही है। गिनी बोटियाँ नपा
शोरबा मेरे सीगे में आता है। न किसी के लेने में, न देने में - किसी के आड़े
गलती से भी नहीं आता। बावजूद इसके वो बदमाश धमकियाँ दे रहा है... परसों बोला
था कि पहुँचा दे सामान, मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो कल सुबह झोपड़े में आ
पहुँचा। कहने लगा - मैंने कुछ कहा था... मैंने उसका कोई जवाब नहीं दिया तो
बोला, ढेरों पान की गंदी पीक दरवाजे पर उगलता - ये तेरे दो छोकरे जो सो रहे
हैं, अगर मेरे घर सामान नहीं पहुँचाया तो ये सोते रह जाएँगे! जान ले। मैंने
कहा - आखिर, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैं गरीब-गुरबा, कहाँ से इत्ता सामान और
रुपये लाऊँ मालिक! कोई उठाईगीरा तो हूँ नहीं!!! तो वह बोला- हरामजादे, तुझसे
जो कहा जा रहा है, कर, नहीं, जिबह कार डालूँगा सबको... साला लाखों कमा रहा है,
मुफत की झोपड़ी में रह रहा है, पानी लैट फ्री, सब कुछ फ्री... कहते कहते वह पल
भर को रुका, फिर बोला - सच कहूँ मैडम, यकायक मुझे गुस्सा आ गया, तराजू पटकते
हुए मैंने तनकर छाती पर मुक्के मारते हुए कहा - तुहारा कोई धरम है या नहीं, इस
पर उसने मेरी दाढ़ी पकड़ ली। जोरों से हिलाता, बोला - यही धरम है मेरा! जो कहा
जा रहा है कर, नहीं धरम को चाटता फिर... वह धारदार आँसुओं के बीच रो पड़ा।
पत्नी का गला रुँध गया था। कुछ बोलें कि वह आगे बोला - जिसने धमकियाँ दी थीं
कल शाम को चुपके से मैं उसके दरवाजे जा पहुँचा। बाप से बात की। सोचा कि बाप
शायद मामला निपटवा दे, लेकिन बाप तो खुद लड़के से परेशान है। मेरी पीठ पर हाथ
धरता बोला, मियाँ, इत्ता कमीन लड़का भगवान किसी को न दे। घर में कोई कमी नहीं
है लेकिन वह इत्ता गंदा ऐय्याश हत्यारा निकल गया है कि कुछ कह नहीं सकता। सब
बरबाद कर डाल रहा है। मेरा जीना दूभर किए है, रोज दस-बीस हजार उसे चाहिए, रोज
दारू मुर्गा। काम-दंद कुछ नहीं, बस जान पर तुला रहता है - मैं उसके सामने नहीं
आता, भगवान की कृपा से उसके आसरैत नहीं। नहीं तो क्या करता - कह नहीं सकता। बस
अब यही है कि किसी तरह जान बचा रहा हूँ। आप जानते हो वह आए दिन मुझे माँ-बहन
की गालियाँ देता है। मादर... चूतिया चूतिया क्या नहीं कहता, पता नहीं किस संगत
में, बदमाशों के साथ है, किसी की नई गाड़ी मार लाया है, उस पर चलता है, पचासों
लोगों को सता रहा है। उससे पैसा मार, इससे पैसा मार, उसको धोखा, उसको अड़ी।
देर रात आता है चीख-गुहार, हे भगवान...
पत्नी बोलीं - तुम पुलिस में खबर करो, ऐसा थोड़ै है कि कोई कुछ भी करे... उसका
राज है क्या?
गहरी साँस छोड़ता यकायक वह कहीं खो-सा गया फिर जैसे अपने को सँभाल लिया हो,
हल्का मुस्कुराया, हाथ जोड़ता बोला - मैडम, आपको जबरन दिक में डाल दिया मैंने।
आप निशाखातिर रहें। मैं उस बदमाश से डरने वाला नहीं, जान चली जाए लेकिन
झुकूँगा नहीं उसके आगे...
सब्जी लेने वालों की आमद बढ़ गई थी, इसलिए बात यहीं खत्म हो गई। पत्नी रंज में
डूबी सीढ़ियाँ चढ़ती ऊपर आ गईं। सारी बात मुझे कह सुनाई। मैं भी गम में डूब
गया।
थोड़ी देर तक उसके तराजू बटखरे की आवाज आती रही, फिर सब शांत। मैंने नीचे
देखा, नीम के नीचे यादव जी का नीले रंग का स्कूटर खड़ा था।
दूसरे दिन सुबह पत्नी उसका बेसब्री से इंतजार करती रहीं। वह दूर से आता दिखा
तो उनमें जान-सी आई। झटपट सीढ़ियाँ उतरती उस तक पहुँचीं। वह बुझा-बुझा-सा था,
चमकती आँखें भय से सिकुड़ी, मुर्दार लग रही थीं, पनियाई-पनियाई।
पत्नी ने पूछा - खैरियत तो है भाई जान?
वह बोला - क्या खैरियत है, आपने कहा था, पुलिस से मिलो, टी.आई. घुरैया से मिला
तो वह बोला, मुझे मुश्किल में मत डालो, वो साला तो मुझ पर अड़ी डाले रहता है।
एक दिन तो उसने मेरी गर्दन ऐसे पकड़ ली मानों तोड़ डालेगा...
पत्नी अफसोस में सिर झटक रही थीं कि वह बोला - एक अरदास है आपसे मैडम, आप कर
दें तो ताजिंदगी शुक्रगुज़ार रहूँगा...
पत्नी ने कहा- अरदास नहीं, जो कर सकती हूँ, करूँगी, आप तो बोलें, मैं जो होगा
करूँगी। नहीं तो इनसे कहूँगी। पानी ने मेरी ओर संकेत किया था।
वह बोला - मेरी घरैतिन तो परसाल गुजर गई थी। दो बच्चे हैं। एक पाँच साल का, एक
तीन का। मुझे उनकी फिकर है, उनका क्या करूँ? आप अपने गेराज में रख लें कुछ
दिनों के लिए, मैं इधर-उधर हो जाता हूँ, फिर देखता हूँ क्या होता है, जो
खर्चा-पानी होगा, मैं दूँगा, आप इसकी चिंता न करें। बच्चे गऊ से भी सीधे,
मेमने हैं, कुछ दे दो तो खा लेंगे नहीं खेलते रहेंगे... चुप सो जाएँगे... -
हट्ट! - पता नहीं कहाँ से अचानक ठेले के पास बकरी आ गई थी जो मेथी पर मुँह
मारने ही वाली थी कि तभी उसने उसे देख लिया। वह सपाटे से चीखता हुआ उसकी ओर
लपका हाथ फटकारता - इन बकरियों के मारे तो और आफत है, - फिर पत्नी की ओर
देखते, अपने ट्रैक पर आते बोला - असल में उस हत्यारे के आगे मेरे साथ कोई है
नहीं, सब कन्नी काट रहे हैं, नहीं बताता, एक लपाटे में जमीन चटा दूँ, लेकिन
माजूर हूँ...
पत्नी ने कहा - बच्चों को छोड़ जाओ, खर्चे-पानी की कोई बात नहीं, भगवान का
दिया बहुत है - लेकिन मैं सोचती हूँ आप फिक्र न करें, कुछ नहीं होगा, बो ऐसई
धमकी दे रहा है, कुछ कर नहीं सकता...
वह बोला - मैडम, आपको नहीं पता है, घुरैया ने तो ऐसी ऐसी बातें बताई हैं कि
क्या कहूँ, लेकिन फिर भी देता हूँ साले को - मैं डर जरूर रहा हूँ लेकिन झुक
नहीं रहा...
थोड़ी देर तक वह लोगों को सब्जियाँ देता रहा। पत्नी वहीं खड़ी रहीं। जाते-जाते
उसने पत्नी की ओर कातर-दृष्टि से देखा जैसे बच्चों के बारे में फिर से कुछ
कहना चाह रहा हो; लेकिन बोला कुछ नहीं। ठेला धकाता आगे बढ़ गया था।
पत्नी मुरझाई शक्ल लिए धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ती ऊपर आईं। जब वे उसकी बातें बता
रही थीं, उनकी आँखें गीली, गला रुँध-रुँध रहा था।
सब्जीवाले को गए एक माह से ऊपर हो गया है, वह लौटा नहीं। पत्नी रोजाना सुबह
छज्जे पर खड़े होकर उसका इंतजार करतीं। आखिर में निराश हो जातीं, कहतीं - सुनो
जी, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गया भाई जान के साथ! बदमाश उन्हें धमकियाँ दे
रहा था, जरूर कुछ अनर्थ हो गया, नहीं इत्ते दिनों में कभी तो दिखते...
मैं पत्नी को दिलासा देता लेकिन इसका उन पर कोई असर न होता।
लेकिन इधर पाँच-छह दिन से तो वे ज्यादा हैरान-परेशान हैं, कहा जाए कि बेचैन
हैं। किसी ने, शायद यादव जी के किसी पट्टीदार ने उन्हें यह खबर दी कि भाई जान
और उनके दोनों बच्चे झोपड़े में मरे मिले, पता नहीं किसने उनकी जानें ले
लीं... इस खबर से पत्नी का सुख-चैन उड़-सा गया है। जैसे सगे की मौत हो गई हो।
हजारों बार भाई जान की बातें करके रो चुकी हैं। ऐसे हालात में उनसे घर का काम
भी नहीं हो पा रहा है। दाल बनाती हैं तो नमक डालना भूल जाती हैं। ऑफिस का लंच
बाक्स लगाती हैं तो पराठा तो रख देती हैं सब्जी अचार रखना भूल जाती हैं। खुद
भी ठीक से खा-पी नहीं रही हैं। ढंग से नहाना-धोना नहीं हो रहा है - घर की भी
हालत बदतर होती जा रहा है। मेरे कहे का उन पर कोई असर नहीं।
कुछ दिन तो ऐसई चलता रहा; लेकिन अब मैं परेशान हो उठा हूँ। बर्दाश्त के बाहर
हो रहा है सब! मुझे चिढ़-सी उठ रही है। अब आप यह देखिए, यादव जी के साथ
घोड़ानक्कास गई हैं, भाई जान की खबर लेने। पता लगाने कि बात सच है या किसी ने
उड़ा तो नहीं दी! अभी तक लौटी नहीं हैं। मुझे ऑफिस जाना है। साढ़े ग्यारह हो
रहे हैं। कई दिनों से क्रास लग रही है, उसके पैसे कटेंगे और पत्नी का हाल ये
है कि इसकी जरा भी चिंता नहीं। कब आएँगी, कब खाना बनेगा, कब खाऊँगा, कब ऑफिस
जाऊँगा। पास में तो है नहीं, दस किलोमीटर जाना होगा। वह भी भारी ट्रैफिक के
बीच! जाम लग गया तो गए काम से। क्या करूँ, हे भगवान...
मैं कमरे से अंदर-बाहर हो रहा हूँ। सड़क की तरफ ताक-ताक के झल्ला उठा हूँ।
नीचे भी हो आया। माईं से पूछा तो बोलीं, काहे परेशान होते हो, आ जाएँगी,
इन्हें भी तो ऑफिस जाना है... ये तो एक बजे से पहले निकलते ही नहीं और तीन बजे
फिर घर...
अब मैं क्या जवाब देता। माईं हैं कि कुर्सी डाल देती हैं - लाला जी, बैठो तो
सई, मगोड़े बनाएँ हैं खा के तो देखो, तुहारे यादव जी तो आज रोटी नहीं खाएँगे,
बस मगोड़े ही खाएँगे।
मैं बिना जवाब दिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगता हूँ - भयंकर गुस्सा सवार है सिर पर।
एक घंटा और बीत गया। ऑफिस से चार-पाँच फोन भी आ गए कि साहब याद कर रहे हैं,
जरूरी फाइल उन्हें चाहिए, मंत्रालय लेके जाना है...
गाड़ी की चाबी लेके ऑफिस निकल जाने के लिए मन बना ही रहा था कि सीढ़ियाँ बजीं।
जाहिर था कि पत्नी आ गईं।
मैं भयंकर झल्लाया हुआ था। पत्नी की आँखें गीली, चेहरा उतरा हुआ था। लगता था
जैसे रास्ते भर रोते हुए आई हों।
मैंने चीख के कहा - मैं ऑफिस निकल रहा हूँ, तुम मातम मनाओ...
पत्नी बोलीं - जालिमों ने भाई जान और उनके बच्चों को मार डाला, कित्ते गंदे
लोग हैं - कहते हुए वे रो पड़ी थीं।
अब मुझसे रहा न गया, अलफ होकर चीख पड़ा - तू तो ऐसे रो रही है जैसे तेरा ख़सम
मर गया हो... कमीन कहीं की नीच...
पत्नी को भरोसा न था - मैं इस हद तक जाऊँगा और ऐसा अश्लील व्यवहार करूँगा।
मेरे व्यवहार ने उन्हें हिलाकर रख दिया। पहले वह सिर थामे बैठी रहीं जैसे
बेपनाह दर्द उठा हो, फिर यकायक मेरे सामने आ खड़ी हुईं मानो मुझे फाड़
डालेंगी। मेरे मुँह के आगे दोनों हाथ चमकाती बोलीं - हाँ, मेरा ख़सम मर गया है।
ख़सम!!!
मैं स्वयं कल्पना नहीं सकता था कि ऐसा व्यवहार करूँगा। मैं बहुत-बहुत लज्जित
था, अपनी ही नजरों से गिरा हुआ...