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कविता

सुनो! लड़कियों...

संदीप तिवारी


रात में घूमें दिन में घूमें
दुपहरिया या शाम को घूमें
किसी जरूरी काम से घूमें
बिना वजह आराम से घूमें
आप कौन हो? रोकने वाले
अपनी मर्जी ठोकने वाले
सुनो! लड़कियों...
लड़ते जाओ बढ़ते जाओ
तुम सड़कों पर चढ़ते जाओ
अब चुप रहना ठीक नहीं है
नए तराने गढ़ते जाओ
घर के अंदर लड़ते जाओ
घर के बाहर लड़ते जाओ
तोड़-ताड़ के सारे पिंजरे
आसमान में उड़ो लड़कियों
सुनो! लड़कियों...

सुनो! लड़कियों...
कुलपति जी तो गोबर निकले सानी निकले
महामूर्ख अज्ञानी निकले
शासन के हितकारी निकले
बहुत चतुर व्यापारी निकले
कटहर की तरकारी निकले
पंडित बड़े शिकारी निकले
झूठ फरेबी में माहिर हैं
और भ्रष्ट अधिकारी निकले
इसकी शक्लें जब-जब देखूँ
हमरे मुँह से गारी निकले
सुनो! लड़कियों...
मिलकर इनको धुनों लड़कियों


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