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कविता

समय का मारा

संदीप तिवारी


बुरे समय में रोये कोयल
कौवा छेड़े तान
बुरे समय में बोए गेहूँ
निकले बढ़िया धान
बुरे समय में छोड़ दिए हैं आना-जाना
उसके सब मेहमान
बुरे समय में क्यों लगता है, बुरा ही बुरा
उसको सकल जहान
बुरे समय में खो जाती है
रात-रात की नींद
औ बुरे समय में बच जाती है
थोड़ी सी उम्मीद
उम्मीदों की पूँछ पकड़कर 'समय का मारा'
चलता जाए
उम्मीदों को गले लगाकर
लड़ता जाए बढ़ता जाए
बुरे समय में बहुत कुछ नया
गढ़ता जाए,
उम्मीदों का दिया जलाए
पर्वत चोटी व पहाड़ पर चढ़ता जाए...


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