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कहानी

चोरी

हरि भटनागर


आफ़ाक़ अली की आँखों में कल सुबह की घटना ताजा हो आई। आज सुबह वॉक पर निकलने के लिए यदि वे शाल न उठाते तो शायद कल की घटना याद न आती। कल सुबह वॉक से लौटते ही अपनी बेगम से उन्होंने उस घटना के बारे में बताया था। बेगम आँखें बंद किए उस वक्त तस्बीह घुमा रही थीं, बात सुनते ही उनके मुख से 'या अल्लाह रहम कर' निकला और तस्बीह को माथे से लगा वे रुआँसी हो आईं।

आफ़ाक़ अली जीनों से चढ़ते हुए धूप लेने के लिए छत पर आ बैठे थे। बेगम साहिबा ने नातिन के हाथों एक गिलास चाय भिजवा दी थी और सुबह का अखबार। आफ़ाक़ अली चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अखबार उलटने-पलटने लगे थे। दिमाग में थोड़ी देर पहले घटी घटना थी जो रह-रह उन्हें परेशान कर रही थी। फिर पता नहीं क्या हुआ कि मंज़ूर के यहाँ रवाना हो गए थे। दिन भर वे बातों-गप्पों में खोए रहे थे और देर रात घर लौटे थे...

लेकिन आज सुबह वॉक पर जाने को हुए, शाल उठाया तो कल की घटना आँखों में तैर गई...

बात यों है कि आफ़ाक़ अली रोजाना सुबह के वॉक पर जाते हैं। पुराने शहर के घर में याने बड़े लड़के, हैदर के पास जब वे होते हैं तो कमला पार्क की तरफ जाते या बड़े तालाब की तरफ। कोलार रोड पर अपने छोटे लड़के, हबीब के यहाँ होते तो फारेस्ट विभाग के बगीचे में जाते। इन दिनों वे कोलार रोड पर हैं। फारेस्ट विभाग का बगीचा काफी खूबसूरत है। आफ़ाक़ अली टहलते क्या पेड़-पौधों को निहारते रहते और खुदा की नेमत का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करते।

सुबह जब वे उठे तो बेगम साहिबा ने कहा, मियाँ सर्दी है, कहाँ भटकने जा रहे हो, सो रहो, कहीं गिर-गिरा पड़ोगे तो आफत हो जाएगी।

उन्होंने बेगम को कोई जवाब न दिया, मन ही मन बोलते रहे, तू पड़ी रह, अपन तो टहलेंगे और रोज की बनिस्बत कुछ ज्यादा ही।

और वे छड़ी खटखटाते कोलार के पुल पर आ खड़े हुए। यहाँ आकर उन्हें अच्छा लगता। मन को सुकून मिलता। कह सकते हैं कि यहाँ आकर उन्हें कमला पार्क के पुल की याद ताजा हो आती और वे अपने दोस्त-अहबाबों की याद में खो जाते। उन्हें थोड़ी देर के लिए लगता, फ़ज़ल के साथ खड़े हैं, जो काँधे पर गरम शाल डाले उनसे गप्प-गोई कर रहे हैं। सत्येन की याद आती जो घूमने के लिए ईदगाह से यहाँ आता था। वे सत्येन से शिकायत करते कि खाँ, तुहारे प्रेस में इतने बड़े मच्छर हैं कि कसम खुदा की कि देख के डर लगता है। फ़ज़ल हँस के कहते - खाँ, तुहारे जिस्म में खून नहीं शराब है! मच्छर तुम्हें नहीं काटेंगे, निशाखातिर रहो...

आफ़ाक़ अली को फज़ल-सत्येन की आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी और वे उसी में खोए थे कि किसी दूसरे की आवाज उसमें खलल बनी।

आँखें खोलीं तो देखा, हबीब का पड़ोसी देशमुख था जो कह रहा था, मियाँ आधे घंटे से यहीं खड़े हो, क्या टहलोगे नहीं?

आफ़ाक़ अली झूठ बोल गए - नईं खाँ, टहल आया! फारेस्ट वालों का भला हो जिन्होंने हम जईफों के लिए खूबसूरत जगह बना दी।

और वे बेवजह ठठाकर हँस पड़े।

आज पता नहीं क्यों वे फारेस्ट के बगीचे में टहलने नहीं गए। यहीं पुल पर खड़े रहे। जब देशमुख ने टोका तो वे कॉलोनी के पीछे की तरफ निकल गए।

आफ़ाक़ अली जहाँ खड़े हैं, वह कलियासोत नदी का किनारा है। कहने को वह कलियासोत नदी है लेकिन पानी कहीं-कहीं पत्थरों के बीच गढ़े में दीखता है जो कपड़े धोने या शौच आदि के काम आता है।

नदी के किनारे सौ-डेढ़ सौ घरों की बस्ती है जिसे गंदी बस्ती के नाम से पुकारा जाता है। घास-फूस, टीन-पन्नियों से ढँकी-मुँदी झुग्गियाँ। झुग्गियों के सामने हैंड पंप लगा है जिसके गिर्द असंख्य डिब्बे-बर्तन रखे हैं लाईन से। पास ही लोग बैठे हैं पानी के चलने के इंतजार में। पानी भरने का समय निर्धारित है। इसके पहले कोई पानी नहीं चला सकता।

नल के सामने जहाँ गढ़े में गंदा पानी बदबू मारने लगा है, और एक-दो सूअर आराम से आधे डूबे बैठे हैं, उसी से लगी एक किराने की दुकान है। इस वक्त यहाँ लोगों की भीड़ है जो तेल-आटा-नमक-रोज की जरूरत के सामान चीख-चिल्लाहट के साथ खरीद रही है। नत्थू नाम का नाटा-सा, ऐंचा, थुलथुल दुकानदार भी चीखते चिल्लाते हुए सबको सामान दे रहा है।

आफ़ाक़ अली छड़ी खटखटाते दुकान के पास से निकलते हुए नदी के मुहाने की तरफ आ गए जहाँ दो चार झुग्गियाँ थीं।

आफ़ाक़ अली एक पत्थर पर बैठना चाहते थे ताकि वे यहाँ से नदी का विस्तार और झुग्गियों की हलचल को देख सकें।

वे पत्थर पर बैठे ही थे कि सामने की झुग्गी से डेढ़-एक साल का बच्चा घुटनुओं चलता उन तक आ गया।

बच्चा बनियान भर पहने था और कुछ नहीं। कड़ाके की सर्दी में यह बात परेशान करने वाली थी। आफ़ाक़ अली सोचने लगे कि कैसे नालायक हैं उसके माँ-बाप कि कुछ पहना के नहीं रखा। कहीं सर्दी लग जाए तो...

बच्चा गोल मटोल और निहायत ही सुंदर था कि गोद में उठाकर खिलाने का जी करता था। आफ़ाक़ अली अपने को सँभाल न सके। उन्होंने छड़ी जमीन पर पटकी और बच्चे को गोद में लेने के लिए हाथ बढ़ाए कि झुग्गी से एक जवान औरत बच्चे का नाम 'कुन्नू' पुकारती दौड़ी आई। यह बच्चे की माँ थी।

यह औरत बड़े घेर का घाघरा पहने थी और उसके ऊपर ब्लाउज जो दूध से गीला दिख रहा था। बाल उसके बेतरह उलझे थे जिन्हें वह हाथों से ऐंचकर पीछे डोरी के सहारे बाँधी थी। वह जवान थी, बदन गदराया था। लेकिन चेहरे पर एक भय दीखता था जैसे किसी ने सताया हो।

आफ़ाक़ अली के बढ़े हाथ वहीं के वहीं रुक गए। छड़ी उठाकर वे खड़े हुए तब तक औरत बच्चे को कोरा में ले चुकी थी और बहुत ही मातृत्य-स्नेह से भरकर उसके गाल में अपना मुँह फिराने लगी थी।

आफ़ाक़ अली ने कहा - इतनी सर्दी है, बच्चे को कपड़े तो पहनाओ, कहीं सर्दी लग गई तो...

उनके कहने पर औरत ने उनकी ओर सूनी आँखों से देखा जैसे कहना चाह रही हो कि कपड़े होते तो क्या मैं पहनाती नहीं!!!

यकायक आफ़ाक़ अली को अपने कहे पर शर्म लगी लेकिन दूसरे ही क्षण उन्होंने होंठों में कुछ बुदबुदाते हुए जैसे शर्म से उबर गए हों - अपना शाल उतारा और उस औरत की तरफ बढ़ाया और बहुत ही स्नेह से भरकर बोले, बाई, लो, इसे रख लो! बच्चे को उढ़ा दो!

बाई ने नया, चमकता, एकदम उज्जर, गरम शाल देखा तो सहम गई। कहीं पिछली बार की तरह घर में पुलिस न घुस आए और डंडे चमकाए कि ये कहाँ से चुरा लाई। पिछली दफा घर में बीसों पुलिसवाले घुस आए थे पता नहीं क्या खोजते और नई खरीदी कमीज के लिए आदमी को बीसों लट्ठ मारे थे कि तू इसे कहीं से पार करके लाया है... और थाने तक घसीट ले गए थे... फिर कहीं दुबारा ऐसी मुसीबत सिर पर न आ जाए...

आफ़ाक़ अली ने इसरार किया - ले लो बेटा, रख लो, तुम्हें नहीं, बच्चे को दे रहा हूँ, मुझे इसका दादा समझो! पोता है यह मेरा!

बेटा ने नजरें नीची कर लीं। रोनी शक्ल बनाते हुए गीली आवाज में कहा - नईं साब, मैं नईं लूँगी। नईं लूँगी।

- क्यों, आखिर क्यों?? आफ़ाक़ अली अवाक् थे।

- साब! चोरी लग जाएगी। बहुत ही मद्धम आवाज में वह बोली।

- चोरी क्यों लग जाएगी? मैं दे रहा हूँ आफ़ाक़ अली एडवोकेट? इसमें चोरी कैसी?

- नईं साब! चोरी लग जाएगी। भय से काँपती वह तेज कदमों से चलती अपनी झुग्गी में घुस गई।

आफ़ाक़ अली को काटो तो खून न था!!!


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