खंडेलवाल ने दरवाजा खोला तो सामने दीना जमादार था। देखते ही वह समझ गया कि फिर
कुछ गड़बड़ है, तभी आया है...
अभी तीन दिन पहले दीना आया था, तब खंडेलवाल किसी से फोन पर बात करने में
व्यस्त था। बाहर अशोक के पेड़ की छाँह में एक अद्धे पर बैठा दीना उसके बाहर
निकलने के इंतजार में कसमसा रहा था। वह दुबला पतला हड़ीला था। चेहरा काला था,
चुचका हुआ लेकिन आँखें चमकदार और बाहर को निकली पड़ती लगती थीं। वह दरवाजे की
तरफ रह-रह देखता और बुदबुदाता जाता... मालक कुछ रहम हो जाए, बच्चे की जान का
मामला है...
जब खंडेलवाल बाहर निकला, अद्धा छोड़ता वह उसकी ओर सपाटे से लपका और रोते हुए
उसने उसके पाँव पकड़ लिए। उसने कहा कि उसका बारह साल का बेटा, मुकेश, बीमार
है, दिक में है, मलेरिया हो गया है। डॉक्टर ने पर्ची लिखी है। अगर वह जरा भी
लापरवाह होगा, बच्चा हाथ से जा सकता है...
दीना खंडेलवाल का पाँव पकड़े था और सिसकते हुए यह सब बके जा रहा था। खंडेलवाल
उसे अपने से दूर करना चाह रहा था, लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा था क्योंकि ऐसा
करने पर दीना को उसे छूना पड़ेगा और वह उसे छूना नहीं चाह रहा था। दरअसल दीना
काफी गंदा था। कई दिनों की खिचड़ी दाढ़ी थी जो उसके काले झुर्रीदार चेहरे पर
फैली हुई थी। मूँछें औसत से ज्यादा बेतरतीब बढ़ी हुई थीं। सिर के बाल उलझे,
अस्त-व्यस्त थे जो लटिया गए थे। एक गंदी-सी बिना बटन की ढीली-ढाली कमीज पहने
था जिसकी जेब में गंदा हो चला कागज ठुँसा था। शायद यह डॉक्टर का पर्चा था।
नीचे पायजामा था जिस पर पान और तेल के धबे थे। पैरों में प्लास्टिक के काले
जूते थे जो एड़ियों पर दुचे हुए थे। कुल मिलाकर वह एक गंदे कुत्ते की तरह लग
रहा था जो दूर से बू छोड़ रहा था।
यकायक दीना गर्दन झुकाकर खड़ा हो गया। खंडेलवाल ने चैन की साँस ली और दीना को
देखने लगा जो छाती पर दोनों हाथ बाँधे था। चेहरे पर रिरियाहट थी जो मदद की
गुहार-सी लगा रही थी।
खंडेलवाल ने पलटकर पत्नी की तरफ देखा जो खिड़की से चेहरा टिकाए खड़ी थी। पत्नी
का चेहरा एकदम सूखा और चुचका हुआ था। आँखें अंदर को धँसीं। वह बहुत ही गुस्सैल
औरत थी। बेवजह किसी से उलझ पड़ने में उसे महारत थी। दीना को देखते ही वह समझ
गई थी कि यह दुष्ट पैसे के लिए ही आया है। आँखें तरेरती जिसका मतलब था, मत दो
कुछ हरामखोर को! झूठे बहाने कर रहा है हरामी! यकायक वह सुअरिया की तरह चीख के
बोली - पैसे के लिए झूठ क्यों बोलता है रे! वह भी बच्चे के लिए!!!
दीना आसमान की तरफ हाथ उठाता, जोड़ता हुआ बोला - झूठ नहीं बोल रहा हूँ दीदी!
बच्चा दिक में है, कई दिनों से पानी तक नहीं पिया, विश्वास न हो तो चल के देख
लें ...
- कौन जाएगा तेरे घर - वह दीवार पर जोरों से थूकते हुए हिकारत से बोली - भगवान
न करे, कभी ऐसा दिन आए कि तेरे घर जाना पड़े!!!
खंडेलवाल मोटे-मोटे होंठों में बुदबुदा रहा था कि क्या करे, पैसे दे या नहीं?
दे भी तो कितने? क्योंकि इस पाजी से वापस मिलने की उम्मीद नहीं। फिर हो सकता
है झूठ बोल कर पैसा ऐंठना चाहता हो, ताड़ी पिए और बच्चे की दवा न लाए...
खंडेलवाल ने सोचा-भाड़ में जाए, जो भी करे पैसे का, अभी तो पिंड छुड़ाना ही है
किसी तरह, नहीं साला घंटों रे-रे करेगा... यह सोचते हुए उसने पत्नी की टोह ली
कि वह देख तो नहीं रही है, जब वह नहीं दिखी तो पीठ करके पहले उसने सौ का नोट
निकला, फिर सोचा कि नहीं, पचास देना चाहिए, सो पचास का नोट निकाला लेकिन
तत्काल दिमाग में आया कि मरने दो साले को, सौ दे दो, पचास देना ठीक नहीं
होगा...
खंडेलवाल ने पत्नी से बचाकर चुपचाप दीना की तरफ नोट बढ़ाया तो उसने चील-सा
झपट्टा मारा और नोट को माथे पर लगाते हुए कृतज्ञता ज्ञापित करता पलभर खड़ा रहा
हाथ जोड़े फिर तेजी से चलता गली में खो गया था।
इस वक्त दीना को देखते ही खंडेलवाल यकायक ग़ुस्से में आ गया। लेकिन जब दीना
उसके पैरों पर लोट गया और जोरों से रो पड़ा तो उसका गुस्सा काफूर था।
दीना कह रहा था कि बेटे की हालत बहुत खराब है, गिरह में एक पैसा नहीं, आप के
सिवा किसका पाँव पकडूँ, दवा न मिलने पर बेटे की जान जा सकती है...
यकायक उसकी पत्नी पास आ खड़ी हुई जो तीखी आवाज में बोले जा रही थी कि इसे अब
एक धेला न देना, हो गई, दानगीरी! ये भिखमंगा तो रोज सिर पर चढ़ा रहेगा।
खंडेलवाल ने पहले पत्नी को प्यार से समझाया कि देख ऐसा न बोल, जब वह नहीं मानी
तो उसने पत्नी को बुरी तरह झिड़क दिया जिससे वह नाराज होकर अंदर चली गई।
खंडेलवाल की आँखें यकायक दीना से टकराईं जो रिरियाहट में खड़ा था। उसे गुस्सा
आया, मन ही मन गंदी गाली देते हुए उसने पूछा - तू इत्ते घरों में काम करता है,
मैं ही अकेला हूँ जो मेरे दरवज्जे आया! औरों से भी तो माँग!
चेहरे पर दीनता प्रकट करता दीना बोला - हुजूर, आपमें और दूसरों में फरक है!
- क्या फरक है? - खंडेलवाल तिड़का।
वह बोला - हुजूर, जिस कुएँ में पानी होगा, आदमी वहीं जाएगा, सूखे में कोई भला
क्यों जाने चला।
- कैसे मान लिया कि दूसरे कुएँ सूखे हैं।
बहुत ही सरलता से वह बोला - हुजूर, यह भी कोई बताने की बात है, सब घरों से
पचास रुपये महीना बँधा है, लेकिन हुजूर, किसी घर से कभी पचास नहीं मिले, कभी
दस, कभी पंद्रह, वह भी रो-झींख कर, कभी किसी ने एक कौर न दिया। ऊपर से ऐसे में
हुजूर, क्या उम्मीद करें कि लोग मदद को खड़े होंगे।
- अच्छा, सच-सच बतलाना - खंडेलवाल ने पूछा - तेरा बेटा बीमार है? कहीं ऐसा तो
नहीं तू मुझे झूठै गच्चा दे रहा हो...
दीना जमीन छूता बोला - हुजूर, धरती मैया की कसम खाता हूँ जो तनक भी झूठ बोलूँ,
बेटा बीमार है। डॉगदर कहता है, मलेरिया लीवर में चला गया है, दवा न ली तो
दिमाग में चला जाएगा फिर किसी कीमत में जान बचने वाली नहीं...
गुस्से के बावजूद खंडेलवाल ने पत्नी की आहट लेकर चुप्पे से पचास का नोट निकाला
और उसकी ओर फेंककर मुँह फेर लिया।
लेकिन दीना था कि हाथ जोड़ता, सिर नवाता खंडेलवाल की सलामती की दुआ भगवान से
माँग रहा था।
तीन-चार दिन ही बीते होंगे, एक दिन सुबह-सुबह दीना फिर खंडेलवाल के दरवाजे पर
खड़ा दिखा। इस बार उसके पीछे उसकी घरवाली थी जो पेट से थी। दिन चढ़े होने की
वजह से वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। डुगरती चली आ रही थी। लगता है, इस बार
दीना उसे साथ इसलिए लाया ताकि खंडेलवाल पैसे देने से इनकार न कर सके।
दीना की घरवाली दीना के पीछे आ खड़ी हुई। वह नीचे जमीन की तरफ देख रही थी
जिससे लगता था, कुछ बोलना चाहती हो लेकिन कहने से हिचक रही हो। दीना आँखें
तरेर रहा था जैसे कह रहा हो तुझे हँकाकर इसलिए लाया कि तू साहब के पैरों पर
गिरे और पैसे माँगे लेकिन तू है कुत्ती मुझे उल्टे फँसा रही है। पैरों पर गिर
नहीं, बो लात मारूँगा, झुग्गी में गिरेगी सीधे।
खंडेलवाल की पत्नी यकायक झाड़ू पर कूड़ा रखे निकली। अंदर से ही उसने मामला ताड़
लिया था और दाँत पीस रही थी, इसीलिए कूड़ा फेंकने का नाटक किया। सामने दोनों
को देखा तो आग हो गई। जानती थी घरवाला उसकी सुनने वाला नहीं इसलिए तमकती हुई
गली में कूड़ा फेंककर जोर से दरवाजा ठेलती अंदर चली गई बड़बड़ाती हुई - लुटा
दे घर मुझे क्या? तू जान और तेरा काम!
खंडेलवाल को पत्नी का यह रवैया खराब लगा। गहरी साँस छोड़कर उसने बात को टालते
हुए दीना से सहजता से पूछा - कैसी तबियत है बेटे की?
दीना की आँखों में आँसू तैरते दिखे। रोने-रोने को हो आया। बोल नहीं फूटे। हाथ
छाती पर जुड़े हुए थे।
यकायक गीली आवाज में उसकी घरवाली बोली - हुजूर, तबियत तो फिसलती दीखती है।
जित्ते पैसे आपसे मिले उत्ते की दवा दे दी, अब दो दिन से दवा नहीं दी है, पैसे
ही नहीं हैं! डागदर ने बोला था दवा में चूक न करना। हुजूर, बताओ क्या करें? वह
रोने लगी।
खंडेलवाल ने चौखट पर बैठते हुए पूछा - डॉक्टर के पास कब गई थी?
- मालिक, डागदर तो सीधे मूँ बात नहीं कर रहा है। उसने डॉक्टर को गंदी सी गाली
दी - भाडू को पहले पैसे चहिए कफन के, फिर बात करेगा।
खंडेलवाल बुरी तरह सिर खुजलाता जैसे किसी तरह उनसे बचना चाह रहा हो, बोला -
भई, तुम्हें कित्ती बार पैसे दे चुके, अब मेरा पिंड छोड़ो, मेरे पास गिनी
बोटियाँ, नपा शोरबा है, इत्ता थोड़े हैं कि खैरात बाँटते फिरें!!!
- मालक, इस बार दे दें, आगे से मूँ नहीं दिखाएँगे- दीना उसके पाँव पर सिर
टिकाता बोला।
खंडेलवाल को रहम आ गया, उसने जेब में हाथ डाला कि पत्नी चीखी - मैं कहती हूँ
पैसे न दे, मुझसे छिपाकर तुम पहले दे चुके हो। तुम मानते क्यों नहीं, ये
हरामखोर, नीच लोग हैं, रोज ऐसे आ खड़े होंगे।
खंडेलवाल ने माथा सिकोड़ा - ये राँड़ तो और बंबू किए है - जोरों से तिड़क कर
बोला - तुझसे कौन पूछता है, तू चुप रह, नहीं लातें लगाऊँगा।
- लगा लात, देखूँ तो तेरी लात! औरत चीखी।
खंडेलवाल की आँखों में आग थी - तू चुप क्यों नहीं लगाती, काहे बीच में झूमती
है कमीन!
- बीच में क्यों न झूमूँ, घर-गृहस्थी तो हमें झीख-झीख के चलानी पड़ती है!
- तू ऐसे नहीं मानेगी - खंडेलवाल गुस्से में उठ खड़ा हुआ तो औरत रसोईघर में
घुस गई यह कहते - सही बात कहो तो मारने की धमकी देता है, नीच, कमीन, मुँहजला,
हरामी...
खंडेलवाल भी गालियाँ देने लगा औरत को। इसी रौ में उसने जेब में हाथ डाला,
दस-बीस के जितने भी नोट हाथ लगे दीना की तरफ जमीन पर फेंकता बोला - मुझे जो
करना है करूँगा, तू बकबका राँड़ कहीं की... सहसा वह दीना से फाड़खाऊ अंदाज में
जोरों से चीखकर बोला - ले भाग, आगे से दिखा तो खैर नहीं...
जमीन पर नोट हवा के बहाव से उड़ने को हुए कि दीना की घरवाली ने किसी तरह झुककर
काँखते हुए नोट उठाए और खंडेलवाल की तरफ कृतज्ञता से हाथ जोड़े।
पत्नी की बात से आहत दोनों हाथों से सिर थामे खंडेलवाल आँखें मूँदे था, थोड़ी
देर बाद जब उसने खोलीं, दोनों कूड़े का बदबूदार ढेर पार करते पहाड़िया पर चढ़
रहे थे जहाँ उनका झोपड़ा था।
तीन-चार दिन ही गुजरे होंगे, खंडेलवाल रात को खाना खाकर बाहर टहल रहा था, उसकी
घरवाली ड्योढ़ी पर बैठी पंखा झल रही थी और गरमी को बेतरह कोस रही थी कि
पहाड़िया की तरफ जोरों का शोर उठा जैसे कोई हादसा हो गया हो। जोर-जोर से रोने
की आवाजें आ रही थीं।
खंडेलवाल के प्राण नहों में समा गए। जिस बात का भय था, वह अनहोनी हो गई लगती
थी। थोड़ी देर तक वह सूने रास्ते को देखता खड़ा रहा। दीना और उसकी घरवाली के
लाचार चेहरे उसकी आँखों के आगे तैर गए।
विलाप का स्वर जब और तेज हो गया, तो खंडेलवाल पत्नी के लाख विरोध के बाद भी
अपने को रोक नहीं पाया। सूने अँधेरे रास्ते पर विलाप की आवाज को पकड़ता वह
पहाड़िया की ओर बढ़ा।
पहाड़िया पर बीसेक झुग्गियाँ थीं जो एक-दूसरे के कंधों से कसी अर्धवृत्ताकार
रूप में खड़ी थीं। जैसी जर्जर हालत झुग्गियों की थी, वैसी उनके रहवासियों की
भी थी। सभी के तन पर फटे चीथड़े थे। झुग्गियों की तकरीबन ऐसी ही हालत थी।
काली-नीली पन्नियाँ किसी तरह झुग्गियों को धूप-बारिश से बचाए हुए थीं।
झुग्गियों में ज्यादातर जमादार, राजगीर, मजदूर, रिक्शेवान, भटसुअर चलाने वाले
ड्राइवर और क्लीनर रहते थे।
इस वक्त झुग्गियों में अँधेरा था। बिजली गोल थी। कुछ ही पलों में खंडेलवाल उस
झुग्गी के पास किसी तरह सँभलता आ खड़ा हुआ जहाँ पिट्टस पड़ी थी। यह दीना था जो
जोर-जोर से छाती पीटता हुआ रो रहा था। अँधेरे के बावजूद खंडेलवाल दीना की आवाज
पहचान रहा था। यह दीना की घरवाली थी जो पछाड़ें खा रही थी। पड़ोस के लोग
उन्हें सँभालने में लगे थे।
जाहिर था दीना का बेटा गुजर गया था।
चारों तरफ घना अँधेरा फैला था। हाथ को हाथ न सूझता था जो रोने-पीटने की आवाज
को और भी घना कर रहा था। आसमान में डुप-डुप तारे थे जो मृत्यु को अपनी उजास से
दीप्त कर रहे थे। लगता था, वे अकेले मृत्यु के साक्षी और सौंदर्यपारखी हैं।
जब एक कुत्ता खंडेलवाल के बगल में जोरों से रोया, उसी वक्त बेतरह रोता हुआ
दीना खंडेलवाल के पास आया। घने अँधेरे में भी उसने खंडेलवाल को चीन्ह लिया था।
रोते हुए वह खंडेलवाल से बोला - मालक, बेटा चला गया! - टीसते दर्द को यकायक
छाती में घोंटता हुआ-सा वह पलभर को चुप हो गया। नीचे देखने लगा और कलक में
गर्दन हिलाता रहा। रह-रह यह सोचते कि भगवान ने उसके साथ कैसी बेइन्साफी की है
जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता!!! यकायक उसे लगा कि खंडेलवाल सिसक रहा है और
उसके दुख में गमगीन है। कैसा भला आदमी है, सचमुच देवता, नहीं आज कोई किसी को
पहचानता नहीं! यह बेचारा दुख पड़ते ही अँधेरे में भी उस तक चला आया।
खंडेलवाल को वह सांत्वना देने के अंदाज में बोला - आप दुखी न हों सरकार! कत्तई
दुखी न हों मालक! हमारी किस्मत ही खराब है! - दीना खंडेलवाल की छाती पर हाथ
फेरने लगा जैसे यह दुख सचमुच उसका अपना नहीं, खंडेलवाल का हो, वह आगे बोलता
गया - आप मत रो मालक, मत रो! भगवान को बेटे का जीना मंजूर न था, इसलिए छीना।
लेकिन मालक, भगवान ने एक छीना तो दूसरा कोख में दे दिया! सहसा वह जोरों से
हँसा - भगवान की लीला कित्ती अपरंपार है! कोख का बच्चा आज-कल में जन जाएगा
हुजूर, और हमारा दिल कहता है भगवान यह बच्चा अब हमसे कभी नहीं छीनेगा!!! कभी
नहीं छीनेगा!!!
दीना के इस कथन पर एक क्षण को विलाप थम-सा गया।
खंडेलवाल चकित हो उसे देख रहा था।