ठाकुर दिग्विजय सिंह की कोठी में अंदर के काम-काज की खातिर दो लड़के हैं। एक
का नाम है मनीराम। दूसरे का केसव। मनीराम लबा-पतला और आबनूस-सा काला है। केसव
का रंग खुला हुआ है, किंतु वह नाटा है। दोनों की उमर तकरीबन तेरह-चौदह की है।
लेकिन जहाँ लंबाई की वजह मनीराम सत्रह-अट्ठारह का लगता, वहीं नाटा होने के
कारण केसव दस बरस का। मनीराम के चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ बेतरतीब फैल गई है। केसव
के चेहरे पर हल्के मटमैले रंग का जाला चिपका नजर आने लगा है। दोनों के बदन पर
ठाकुर साहब की दी नीली रंग की जाँघिया और मारकीन की नीम आस्तीन बनियाइन हैं।
मनीराम का बायाँ कान छिदा है। उसमें लाल मोती गुँथा ताँबे का एक पतला तार पड़ा
है।
मनीराम गाँव से आया है। उसका बाप गाँव के एक ठाकुर के यहाँ हरवाही करता है।
उसकी इच्छा थी कि जब तक मनीराम छोटा है किसी चाय की दुकान में कप-प्लेट साफ
करे। बाद में संज्ञान होने पर, गुजर-बसर के लिए रिक्शा खींचे और वह उससे
निश्चिंत हो। वह नहीं चाहता था कि मनीराम भी उसी की तरह बँधी और तंग जिंदगी
जिए - इसी इच्छा के तहत वह मनीराम को कस्बे में लाया था। संयोग ही था कि कस्बे
में दौड़ने से पहले ही मनीराम को ठाकुर दिग्विजय सिंह के यहाँ काम मिल गया।
उस समय वह ग्यारह बारह का था। कोठी का माहौल तब उसे दमघोंटू लगा। सबेरे से
उठना। काफी रात गए सोना। झाड़ू लगाना। बरतन माँजना। पोंछा मारना। पानी भरना। ये
काम थे लेकिन कुछ गलती हो जाए जैसे गिलास गिर जाए या काँच के बरतन फूट जाएँ तो
झन्नाता थप्पड़! काम करते-करते ऊँघ जाने पर कान गरम किए जाते या सिर के बाल
बेरहमी से खींचे जाते... परेशान होकर तब वह भाग खड़ा हुआ था। लेकिन उसकी इस
हरकत पर बाप ने उसे कई खड़ी लातें लगाई थीं। पच्चीसों मुक्के मारे थे और मारे
क्रोध में उसी दम बकरी की तरह हाँकता ठाकुर साहब की हवेली में ढकेल आया था कि
अब साले भागा तो...
वह दुबारा न भागा। हालाँकि उसमें यह बात तब भी थी और अब भी बरकरार है कि कोठी
से वह कब निकल पाएगा!
केसव इसी कस्बे का है। अभी दो बरस हुए उसे यहाँ आए। इसके पहले वह एक बेकरी में
काम करता था जहाँ हमेशा मैदा गूँथता या दहकती भट्ठी के सामने बैठा उसमें कच्चे
बिस्कुट की पत्तल रखता या पके हुए की निकालता रहता।
बेकरी से पहले वह एक मिठाई की दुकान, उससे भी पहले एक होटल में काम करता था।
वह चाहता था कि कड़ी मेहनत करनी पड़े, किंतु पूरा आराम भी करने को मिले, पर
थोड़ा आराम भी उसे नसीब न था। सभी जगह मुश्किल से दो या तीन घंटे सोने को
पाता। उस पर थोड़ी तनवाह! इसलिए वह काम छोड़-छोड़ भागता रहा। ठाकुर दिग्विजय
सिंह के यहाँ वह यह सोचकर आया कि यह घर है, काम कम होगा - कपड़े-खाने के लाभ
मिलेंगे - बख्शीश में कभी-कभार पैसे भी मिल जाया करेंगे। लेकिन पहले ही दिन
उसे पता चल गया कि कोठी और दुकान में कोई फर्क नहीं है! पता नहीं क्यों उसमें
यह बात समा गई कि अगर वह कोठी छोड़कर भागा तो ठाकुर उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा।
जब कभी वह ठाकुर साहब को देखता - चाहे अकेले खड़े या टहल रहे हों या किसी से
बातें कर रहे हों, उसे लगता, वे उसके खिलाफ मिस्कौट कर रहे हैं!
पोंछा लगाते हुए, गिलास साफ करते हुए, कपड़ों पर लोहा फेरते हुए दोनों में यह
धड़का बना रहता कि कहीं कोई गलती न हो जाए। फर्श पर ज्यादा पानी गिर जाता या
गिलास में खर चिपका रह जाता तो दोनों भयभीत हो जाते-पसीने से नहा जाते!
कोठी मे जितनी चमक थी उतनी ही बेरौनकी उनके दिल और दिमाग में थी। जीवन एकदम
नीरस और यांत्रिक था। मुँह अँधेरे दोनों उठते और काम में जुट जाते। दोपहर को
तकरीबन एक बजे कोयला रगड़कर जल्दी-जल्दी दाँत घिसते, उँगलियों से जीभ साफ करते
और रात का बासी रखा खाना खा फिर काम में लग जाते देर रात तक के लिए। उसी समय
अपने ही हाथ की मोटी-मोटी रोटियाँ ऊँघते हुए खाते और फाटक के पास भूसे की
कोठरी में लेटते ही खर्राटे भरने लगते। सुबह चार बजे ठाकुर साहब ऊपरवाले कमरे
की खिड़कियाँ खोलकर जोर-जोर से मानस-पाठ करते। दोनों को जगाने की जरूरत न
पड़ती। ये ठाकुर साहब के झटके से खिड़कियाँ खोलते ही जाग जाते और उठकर बैठ
जाते। थोड़ी देर बैठे-बैठे सोते रहते फिर यकायक उठने के लिए एक-दूसरे को
झकझोरते।
प्रकृति में तब्दीली है लेकिन इनके दैनिक क्रिया-कलाप में नहीं। सख्त मेहनत से
इनके हाथों में घिट्टे पड़ गए हैं। नींद पूरी न हो पाने की वजह आँखों में
हमेशा नींद भरी होती और शरीर में थकान!
मनीराम का जो कहना है, वह केसव का भी कि अगर उसे खड़े-खड़े सोने का मौका मिले
तो वह आराम से सो सकता है। किसी ने दोनों को कभी न मुस्कुराते देखा, न हँसते।
लेकिन पिछली शाम दोनों काफी खुश नजर आए। इतने कि तालियाँ बजा रहे थे। बीच-बीच
में हथेलियों पर थूकते और रगड़ते हुए जाँघ ठोकते कहते - आओ गुरु, एक जोड़ हो
जाए कुस्ती!
इस खुशी का कारण था ठाकुर साहब का सपरिवार कुछ दिनों के लिए शिमला जाना। वैसे
ठाकुर साहब माह में एक या दो बार कहीं-न-कहीं बाहर जाते ही रहते थे - अकेले या
दुकेले, पर घर में कोई रहता जरूर था। पूरा घर कभी अकेला न छोड़ा। लेकिन पिछली
शाम घर के सभी सदस्य मोटर में बैठकर चले गए।
***
कस्बे से लगे एक गाँव में होली से पंद्रह दिन पहले से एक मेला लगता जो होली के
पंद्रह दिन बाद तक चलता। मेले का अपना आकर्षण है। जगह-जगह पेड़ की छाँह में
आल्हा होता। धोबी और कहरवा नाच की धूम रहती, ठौर-ठौर पर लोग चूल्हा जलाकर
पूड़ियाँ छानते और इनका मजा लूटते। एक और अनोखा मजा है जिसका खर्च प्रधान
मानसिंह उठाते और वह है कस्बे की हसीना और चवन्निया बाई का डांस!
मनीराम और केसव ने मेला देखने की योजना बना ली।
यकायक केसव ने डरकर कहा - कोठी का क्या करोगे?
- कोठी का क्या करोगे? - मनीराम मुँह बनाकर जोरों से गुस्से में बोल पड़ा -
कोठी यूँ ही रहेगी! हमेशा परिकमा करते रहेंगे? हद हो गई। हम कुछ नहीं जानते,
पहरा नहीं देंगे - यकायक वह चुप हो गया जैसे केसव की बात का यथार्थ समझ में
आया। बोला - कोठी का कोई डर नहीं, कुछ नहीं होगा। चालू रास्ता है किसे क्या
पता कि कोठी में कोई नहीं है! फिर लूट थोड़े मची है? चल जल्दी सो लें, भिनसारे
ही चलना है!
केसव जब राजी न हुआ तो मनीराम ने उसे समझाया कि अपनी जिंदगी कितनी रूखी है, हम
लोग कभी न हँसे, न खेले, इस तरह काम में फँदे रहे। यहाँ तक कि एक-दूसरे से कभी
बतिया नहीं पाए। हम लोग, जब मालिक नहीं हैं खेल लें, घूम आएँ तो इसमें हरज ही
क्या है?
मनीराम ने अपनी मजबूरियों और ठाकुर साहब की शातिराना हरकतों का ऐसा नक्शा
खींचा कि केसव आश्वस्त हो गया। थोड़ी देर की खातिर जो उदासी छा गई थी, छँट गई।
दोनों फिर ताली पीटकर हँसे और भूसे के ऊपर सो गए।
***
केसव की एक बार भी नींद न खुली लेकिन मनीराम रात में कई बार उठा। हर बार उसे
लगता - सबेरा हो गया! वह कोठरी से बाहर निकल आता। बाहर अँधेरा और सन्नाटा
रहता। वह आकाश की तरफ देखता - तारे झरबेरी के बेर की तरह छिटके रहते। सोचता,
अभी रात है सो जाएँ। कुछ देर वैसे ही खड़ा रहता। कोठी के चारों ओर चक्कर लगा
आता। फाटक बंद है कि नहीं, देख आता। वह आकाश की ओर फिर देखता - उड़ती सफेद
बगुलों की पाँत उसे बेहद प्यारी लगती।
मनीराम की नींद टूटी जब सूरज निकल आया, चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। वह झटके से उठ
खड़ा हुआ और उसने केसव को झकझोर डाला।
केसव बेअसर रहा। पूर्ववत् खर्राटे लेता रहा।
मनीराम ने उसे फिर झिंझोड़ा - अब चलना है कि नहीं कि पड़ा-पड़ा सुस्ताता
रहेगा!
केसव आँख मलता हुआ उठकर बैठ गया - कहाँ चलना है बे! अरे मेला!
दोनों की तबियत हुई कि जल्दी से कोठी के उन तमाम स्थानों पर हो आएँ जहाँ पर
जाने की मनाही थी पता नहीं क्यों, उनकी वहाँ जाने की इच्छा मर गई। दोनों ने नल
पर कोयला घिसा। दाँतों पर एक-दो बार उँगलियाँ फेरी अँगूठे से जीभ साफ की। मुँह
चिपड़कर धीरे से डरते हुए फाटक खोला कि कोई देख तो नहीं रहा है, फिर बाहर आकर
फाटक बंद किया और दौड़कर गलियों में खो गए। वे गोपाल बाबा के पुल के पास आ गए
जहाँ सड़क एकदम खाली थी। ढालू और चढ़ावदार। वे अगल-बगल बौरे आम के पेड़ों,
बिजली, टेलीफोन के तारों पर बैठे कौवों-फाख्तों और लगातार चिटकारी मारती
गिलहरियों को देखते हुए बढ़ रहे थे। उनके मुख पर प्रसन्नता थी। वे कभी धीमे
चलते, कभी तेज, कभी दुलकी मारने लगते।
मनीराम ने कहा - कई बरस बाद मैं यह दुनिया देख रहा हूँ। पेड़ पालव कितने सुंदर
हैं! तुमने कभी डाल से चुआ आम उठाया है?
केसव बोला - आम तो नहीं, महुआ जरूर बीना है गिरजाघर की कबर के ऊपर से... लेकिन
अब... उसके चेहरे पर पीड़ा उभर आई - अब तो जंजाल ने जकड़ लिया कि दम मारने की
फुरसत नहीं। बड़ी साँसत है... उसने गहरी साँस छोड़ी - तुहारी तरह मैं भी आज यह
दुनिया देख रहा हूँ!
ठंडी हवा बह रही थी और दोनों कह रहे थे कि कितनी बढ़िया हवा है! अगर रोज ऐसे ही
मस्ती से घूमने को मिले तो कितना अच्छा रहे!
अनाज से लदी दस-पंद्रह बैलगाड़ियाँ चुर्र-चूँ की आवाज करती चली जा रही थीं।
उनके गाड़ीवान चादर लपेटे ऊँघ रहे थे।
मनीराम ने केसव के कान में धीरे से कहा - चलो इनके पीछे लटका जाए।
केसव ने सिर हिलाकर कहा - ना बाबा, मारेगा पैने से!
- नहीं बे! टिरिक होती है लटकने की कि पता न चले! देख हमें - कहता मनीराम पहले
एक बैलगाड़ी के समानांतर चलता रहा कुछ दूर तक फिर धीरे से पहिये के धूरे की
लकड़ी पर बैठ गया।
केसव डर रहा था कि कहीं गाड़ीवान भाँप न जाए और मारे, इसलिए वह आगे बढ़ गया।
मनीराम उसी तरह बैठा रहा। इस वक्त उसे अपने बचपन की एक घटना याद आई जब वह इसी
तरह बैठा अपने गाँव से काफी दूर निकल गया था और उसने पीछे लटकी लालटेन खोल ली
थी! सोचा था कि लालटेन देखकर बाप खुश होगा लेकिन वह जरा भी खुश न हुआ बल्कि
दुखी हो गया था। किरासन न होने की मजबूरी ने उसे उतना दुखी न किया जितना चोरी
जैसे गंदे काम ने! वह क्रोध में भर उठा और तुरंत लालटेन लौटा आने के लिए चीखा
था। मनीराम उसी दम उल्टे पाँव लौट गया था और गाड़ीवान को लालटेन वापस कर आया
था यह कहकर कि सामान पीछे से गिर रहा है और तुम कुमकरन बने सो रहे हो!
गाड़ी हचकोले खाती चल रही थी। केसव की भी इच्छा हुई बैठने की। वह बढ़ा और जैसे
ही मनीराम के बगल आहिस्ते से बैठा, गाड़ी पीछे ओलार हुई - ऊँघता गाड़ीवान
जोरों से चीख पड़ा और कूदकर पहिये के पास पैना फटकारते हुए बढ़ा कि दोनों कूद
कर भागे, खिलखिलाते हुए।
***
थोड़ी देर में दोनों के समीप पहुँच गए और उन्हें दूर से देहाती आदमी-औरतों और
बच्चों की भीड़ दिखाई दी। सभी के बदन एकदम सूखे और उन पर चिथड़े होते कपड़े
चिपके थे। वे मैदा होती धूल में लगी छोटी-छोटी दुकानों से टिकुली, सिंदूर,
आईना, काठ के चकले-बेलन जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते हुए खरीद रहे थे।
इस भीड़ को पार करते ही मनीराम और केसव के सामने मेले की विशाल भीड़ थी। वे
उसमें घुसे। जगह-जगह बैलगाड़ियाँ झुकी थीं जिन पर लाई-लावे और गुड़ के पहाड़
तने थे। कहीं सूखे बेर का ढेर लगा था, कहीं चोटहिया जलेबी बिक रही थी। चारों
तरफ आँख का अंजन खरीदने, जुएँ और चूहे मारने की दवा, चार आने में हाथ गुदवा
लेने की गुहार थी।
एक स्थान पर आम के पेड़ के नीचे एक आदमी जिसका सिर घुटा हुआ था, लंबी चुरखी
हवा में हिल रही थी, केवल जाँघिया पहने उधारी पीठ को जनेऊ से खुजलाता सत्तू
बेच रहा था। सत्तू में लाल-हरी मिरचें खुँसी हुई थीं। पास ही नया पानी से भरा
घड़ा रखा था। कुछ देहाती जिनकी बेवाइयाँ फटी थीं और जो सिर्फ धोती और जाँघिया
पहने थे, उसी के पास बैठे अँगौछे में सत्तू फेंटते हुए खा रहे थे। वे दाँतों
से मिरचा काटकर सत्तू इस तरह सिर हिला-हिलाकर खा रहे थे गोया सत्तू के लजीज
होने की दिल से सराहना कर रहे हों!
उन्हें इस तरह खाते देख मनीराम और केसव की भूख जाग गई। दोनों के मुँह में पानी
आ गया।
केसव ने मनीराम से पूछा - सत्तू का स्वाद कैसा होता है?
- हमें नहीं पता!
- तुम्हें नहीं पता?
- नहीं!
- गाँव में रहकर भी तुम्हें सत्तू का स्वाद नहीं पता!
मनीराम सत्तू का स्वाद बताना नहीं चाह रहा था। एक तो लंबे समय से खाया नहीं
था। दूसरे, इस वक्त जोरों की भूख में उसकी याद ने उसे बेचैन कर दिया था। केसव
की बात पर झल्लाकर बोला - तुम्हें बालूसाही का स्वाद पता है? तुम तो उसे बनाते
थे!
केसव को भी वही कष्ट हुआ जो मनीराम को हुआ। उसने मनीराम और सत्तू खानेवालों की
तरफ से मुँह फेर लिया और उस ओर बढ़ गया जहाँ पेड़ की छाँह में इक्के के ऊपर
बैठे लोग आल्हा गा रहे थे। नीचे भीड़ थी। आल्हा गानेवालों में पाँच लोग थे। दो
के हाथों में ढोल था। एक के हाथ में मजीरा। एक के हाथ में झाँझ। एक आदमी साफा
बाँधे बीच में बैठा था घुटनों के बल। आल्हा गाते-गाते वह जोश में एकदम खड़ा हो
जाता और कमर से तलवार निकाल लहराने लगता कि लोग वाह-वाह कर उठते।
केसव थोड़ी देर यहाँ खड़ा रहा, फिर बाएँ हाथ की तरफ बढ़ा जहाँ नीले-नीले परदे
ताने जा रहे थे। एक आदमी एक लड़के से पूछ रहा था - यहाँ हसीना बाई का डानस
होगा? लड़का आदमी की जिज्ञासा शांत करता, लगभग थिरकता कह रहा था - हाँ, छप्पन
छूरी का डानस होगा। करेजा बचाय के रखना नहीं...
आदमी की बत्तीसी झिलमिलाने लगी - अच्छा!
लड़के ने आँख मारी और कहा - हाँ!
केसव और मनीराम को लड़के और आदमी के सवाल-जवाब में कुछ ऐसा मजा मिला कि दोनों
ठठाकर हँस पड़े।
***
दोनों एक स्थान से दूसरे स्थान पर सारी चीजों को गौर और अचंभे से देखते हुए
काफी देर तक टहलते रहे। भीड़ में घुसना, उसमें से निकलना उन्हें अच्छा लग रहा
था। दोनों एक अजीब उल्लास की तरंग में थे, तभी सहसा केसव सकते में आ गया।
थोड़ी दूर स्थित एक पेड़ के नीचे उसने कुछ देखा।
वह पेड़ की ओट में छिप गया और पीछे-पीछे दौड़े आए मनीराम की बनियाइन खींचकर
काँपते स्वर में बोला - बो देखो, कौन है?
- कहाँ बे!
- अरे बो... उसने काँपता हाथ उठाकर सामने की ओर इशारा किया - देखा?
- कौन है? - मनीराम ने अत्यंत ही सहजता से पूछा।
- ठाकुर! ...वह तो सिमला गया है, यहाँ कहाँ बे?
- अरे देख... यह टहल रहा है... धोती कुरता पहने, छड़ी लिए... देख... हमारा
खियाल है वह सिमला नहीं गया। बीच से लौट आया - इतना कहते-कहते केसव एकदम
सिकुड़ गया। चेहरा पीला पड़ गया। 'अब मारे गए' कहता वह बेतहाशा भागा।
मनीराम जो भौंचक खड़ा था, यकायक दिमाग में आया कि हो सकता है ठाकुर लौट आया
हो... यह सोचते ही उसमें डर समा गया। सिकुड़कर उसने कान का तार पकड़ लिया। ऐसी
स्थिति में उसने एक बार उस व्यक्ति की ओर फिर देखा जो काफी दूर धोती का खूँट
मुट्ठी में लिए मूँछ ऐंठ रहा था। बगल में छड़ी दबाए और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा
आ रहा था। उसे भी वह व्यक्ति ठाकुर लगा - केसव ने सच कहा... हाय राम! - मनीराम
ने केसव का अनुसरण किया।
***
दोनों बेतरह हाँफते हुए कोठी में आए। भूसे की कोठरी में घुसकर अंदर से कुंडी
चढ़ा ली। केसव काँपता कह रहा था - अब तो परान निकाल लेगा ठाकुर, कोठी छोड़कर
काहे गए!
मनीराम की बोलती नहीं फूट रही थी। फिर भी उसने साहस बटोर कर कहा - हम किवाड़
नहीं खोलेंगे!
- किवाड़ तोड़कर वह लहास गिरा देगा!
सहसा फाटक के पास किसी जीप के हॉर्न की आवाज आई।
केसव को लगा - ठाकुर आ गया। उसका शरीर बेकाबू हो गया। पैर लड़खड़ा गए।
मनीराम थर-थर काँपने लगा!
थोड़ी देर बाद जब कोठी में कोई गाड़ी दाखिल नहीं हुई - दोनों एक-दूसरे का मुँह
देखकर मुस्कुरा उठे!