बुद्धिसेन इंतहा खुश हुआ जब डॉक्टर शाह उसे पिछला पैसा पकड़ा गए। डॉक्टर शाह
ने काफी पहले उससे कुछ काम कराया था जिसका पैसा देना वे भूल गए थे। बुद्धिसेन
भी संकोच में रहा। उसने कभी इस तरफ इशारा भी न किया। यह कहो, जब वे दुबारा काम
के लिए आए, तब उन्हें ध्यान आया।
बुद्धिसेन की उँगलियाँ टाइपराइटर पर चल जरूर रही थीं किंतु वह खुशी में मगन
था। कहीं खोया हुआ था। अगर इस क्षण ही पड़ताल की जाए और इसका ब्यौरा दर्ज किया
जाए तो वह यही होगा - मक्खी-मच्छरों भरा नीम अँधेरा कमरा जिसके आगे एक नाली
बहती है, बदबू छोड़ती जिस पर झुका है उसका सात साल का बेटा, हाथ में लकड़ी
लिए। लकड़ी नाली में चल रही है और बेटे की निगाहें उसके साथ-साथ, चौकस और कुछ
ढूँढ़ती हुई। मच्छर और मक्खियाँ उस पर मँडरा रही हैं, लेकिन बेटा है कि उनसे
बेखबर। अपनी चुचुआती नाक से भी। माँ से भी जो कमरे में एक कोने में जूठे बर्तन
घिर रही है। वह अस्त-व्यस्त है जूठे बर्तनों-सी बेरौनक। मच्छर-मक्खियाँ उसे
परेशान किए हैं जिन्हें वह गालियाँ देती, कोसती हुई कुहनियों से उड़ाती जाती
है। उसके दिमाग में कोई बात है तो यही कि किसी तरह रात की जून का आटा निकल आए,
बस! धनिया तो है ही, चटखारे लेके खा लेंगे! धनिया की सोच पर वह मुस्कुरा उठी
लेकिन मच्छर-मक्खियाँ उसे मुस्कुराने नहीं दे रहे हैं, वह गुस्से से भर उठी
है...
और सच भी यही है कि बुद्धिसेन घर में खोया था। वह यह सब कुछ सजीव देख रहा था।
वह सोच रहा था, क्यों न पैसों से घर की कायापलट कर दी जाए। कल्पना में देखा कि
उसने दरवाजे की नाली बंद करवा दी है। फर्श साफ चिकना। और नीम अँधेरा रोशनी में
तब्दील हो गया है। और गृहस्थी के वे जंग खाए डिब्बे अल्युमिनियम के बड़े डिबों
में बदल गए हैं। चूल्हे की जगह बत्तीवाला स्टोव है। और उसकी बीवी चमकदार साड़ी
में इन सबके पीछे खड़ी है जैसे टेलीविजन में उसने स्टोव के एक विज्ञापन में
देखा था। यकायक उसे धक्का-सा लगा। यह सपने की बात है, इन रुपयों में आएगा
क्या?
फिर भी वह खुश हुआ कि इतने एकमुश्त रुपये आज, पहली बार मिले। नहीं तो वही
चिल्लर। रो-धो के। लोग वकील को, उसके मुंशी को, चपरासी को खुशी-खुशी देते हैं।
लेकिन टाइप करवाते वक्त पता नहीं क्यों उनकी खुशी गायब हो जाती है और काम का
पैसा देना नहीं चाहते। धमकाते हैं कि करते हो कि जाऊँ सिंह के पास, झा शिवपुरी
के पास। वे इसके आधे में कर देंगे। वह हिम्मत करके कह देता कि जाइए लेकिन
कितने हिकने होते हैं कि फीकी हँसी हँसेंगे - भइया, कुछ तो शरम करो, हमें नहीं
है तो तुम काहे ऐसे हो रहे हो!
काम में उसका मन नहीं लगा। उसने टाइपराइटर चादर में बाँधा। दरी समेटी। और जब
इन चीजों को साइकिल पर लादे-फाँदे निकला, झा शिवपुरी ने 'सियाराम भज' के साथ
डकार निकालते हुए पूछा कि - क्यों खाँ, काँ जा रये? तो उसका जवाब उसे सिर्फ
मुस्कुराहट में दिया जिसका तात्पर्य था कि एक जरूरी काम आन पड़ा है लेकिन इसके
पीछे भी एक अर्थ साफ था - जहन्नुम में जा रिया हूँ, चलोगे?
हाँ, तो फिर-जिस बात को सोचकर उसने दुकान बढ़ा दी थी और साइकिल पर आ बैठा था,
पैडल मारते हुए, दिमाग उस छोर पर फिर जा पहुँचा। और वह खुशी से उमग उठा कि यह
ठीक रहेगा। सीता जब झोले में रसद-पानी देखेगी तो भौंचक रह जाएगी। पूछेगी तो कह
दूँगा - जादा सवाल-जवाब मत कर। कोई फटीचर नहीं। लंबा खेल खेलता हूँ और पैसा भी
वैसा पाता हूँ सिंग की तरह नहीं हूँ कि सिंधी से उधार लाऊँ! हें हें करूँ उसके
आगे। नकद लाता हूँ, नकद - जोर में बोलता हुआ वह जा रहा था कि उसने एक मुराई को
जोरों का धक्का दिया जो बीच सड़क पर चल रहा था। घंटी की आवाज नहीं सुन रहा था
और ठीक उसके सामने आ गया था। मुराई सिर पर सब्जी का टोकरा लादे था, धक्के पर
गिरते-गिरते बचा।
बुद्धिसेन का स्वाद बदमजा हो गया। मुराई के गाँवड़ेपन की वजह, फिर धीरे-धीरे
ठीक हो गया। हाँ, तो फिर - उसने बात का छूटा हुआ सूत्र पकड़ते हुए सोचा -
लेकिन झोला तो वह लिए नहीं है, रसद-पानी ले काहे में जाएगा? ले जाएगा भाई!
जैसे सब ले जाते हैं! नया झोला ले लेगा वह!
नया झोला खरीदकर जब वह आढ़तिये से गल्ला तौला रहा था, उसके दिमाग में एक विचार
कौंधा और वह झोला छोड़कर उठ खड़ा हुआ। उसने झोले का छोर पकड़ा और गल्ला उलट
दिया। आढ़तिया जब उस पर बिफरने लगा तो उसने पैसे गिर जाने का बहाना बनाया। जब
आढ़तिया यह कहने लगा कि कभी गल्ला खरीदा है कि लेने आ गए तो उसने कहा कि उधार
दे दो, कल दे जाऊँगा। इसके जवाब में आढ़तिया बोरा झाड़ने लगा और ढेर सारी धूल
से बुद्धिसेन को ढाँप-सा दिया।
बुद्धिसेन को खिसकने का यह सही मौका लगा। दन्न से वह आगे बढ़ गया।
एक गद्दीदार बेंच पर वह बैठा है। सामने पगड़ी बाँधे सुंदर-सा सिख जवान उसके
आगे साड़ियों की तह खोल-खोल कर ढेर लगाता जा रहा है। बुद्धिसेन की उँगलियाँ
साड़ियों को जाँच रही हैं। नए वस्त्रों की गंध चारों ओर भरी हुई है। 'साड़ी
सम्राट' की इस दुकान में घुसते हुए वह डर रहा था कि सालों बीत गए उसने साड़ी
नहीं खरीदी, कहीं सरदार उसे लूट न ले यह सोचते हुए वह दुकान के सामने ठिठका
खड़ा था कि सरदार ने मुस्कुराकर 'आइए साब' कहा तो उसका डर जाता रहा था और वह
सीढ़ियाँ चढ़ता दुकान के अंदर आ गया था। लेकिन यही डर उसे फिर सताने लगा जब
साड़ियों का पहाड़ बन गया और वह तै नहीं कर पाया कि कौन-सी साड़ी खरीदी जाए।
सरदार जो पहले मुलायम आवाज में बोल रहा था, लगभग बिछा जा रहा था, अब जैसे फाड़
खाएगा। उसकी आवाज तल्ख हो गई थी। लग रहा था उसका उसमें दम घुट जाएगा...
सरदार के पीछे शीशे के एक केस में, एक सुंदर युवती की मूर्ति थी जो खूबसूरत
साड़ी पहने थी, मुस्कुरा रही थी। साड़ी में वह सजीव लग रही थी। बुद्धिसेन की
इच्छा उस साड़ी को खरीदने की हुई। अब जब उसने उस साड़ी को दिखाने के लिए कहा
तो सरदार झुँझला उठा - आप कित्ते की साड़ी खरीदना चाहते हैं, कुछ बताइए तो
सही... आपको कुछ जँच ही नहीं रहा है!
बुद्धिसेन ने जब इस बात का जवाब नहीं दिया और साड़ी की माँग दोहरा दी तो सरदार
ने मसनद पर टिककर गहरी साँस छोड़ते हुए कहा - छै सौ की है जी। बुद्धिसेन यह
सुनकर सुन्न-सा हो गया। दिमाग चकरा गया। यकायक उसने साड़ियों के ढेर में हाथ
डाला और उस साड़ी का दाम पूछा जिसका दाम वह दस बार पूछ चुका था।
पता नहीं अपने अनिर्णय या सरदार की झुँझलाहट से वह इतना घबरा गया था कि उसने
सरदार के दाम बताने पर बिना हुज्जत के पैसे उसकी ओर बढ़ा दिए।
बाहर ठंडी हवा बह रही थी। बुद्धिसेन को लगा कि मुद्दतों बाद ऐसी हवा का सुख
मिला। हवा हल्की और सुगंध भरी थी जिसको लेते ही दिल-दिमाग भी उसी की तरह हो
जाता है। वह गाना गाने लगा, हैंडिल पर हथेलियों से ठोंका देते हुए। साइकिल
फुलस्पीड में बह रही थी जैसे जमीन पर न हो, हवा में हो।
नाली फलांग कर जब उसने दरवाजे से साइकिल टिकाई और कमरे में नमूदार हुआ, होंठ
गोल करके वह जोरों से सीटी में गाना गा रहा था। अब वह थिरकने लगा। यकायक वह
संजीदा हो गया। सीता कमरे के एक कोने में चूल्हे के सामने बैठी रोटी पो रही
थी। धुएँ में खोई थी जिस वजह से आँखें बीरबहूटी हो रही थीं और उनमें से आँसू
रिस रहे थे। बच्चा खाट पर औंधा पड़ा सो रहा था। उसकी बनियान छाती पर, ऊपर को
खिसकी हुई थी और गले, बाँह और छाती के गिर्द चड्ढी की तरह लिपटी लग रही थी।
बल्ब की पीली, मरियल-सी रोशनी में उसे सब कुछ-घर का उघड़ा रूप-दुबली, पीली-सी
हड़ियल सीता, झँगली खाट, बंदर के बच्चे-सा मरतुकहा बेटा, धुआँ और मोरचाखाई
छत-असह्य लगा। वह उदास हो गया। दीवार पर, बल्ब के करीब एक मोटी-सी छिपकली थी
जो पास फड़फड़ाते पतिंगे को दबोच लेने के लिए दौड़धूप रही थी। आखिरकार उसने
पतिंगे को मुँह में दबोच ही लिया। पतिंगे का आधा धड़ छिपकली के मुँह में था,
आधा बाहर। बाहर का हिस्सा, मुँह वाला हिस्सा था जो अब भी छूट निकलने के लिए
जोर लगा उठता था। बुद्धिसेन को लगा, वह, उसका घर, उसकी बीवी, बच्चा, जंग खाए
सारे सामान जैसे छिपकली के मुँह में पतिंगे की तरह दबे हों और फड़फड़ा रहे हों
छूट निकलने के लिए, लेकिन...
उसने जोरों की उसाँस ली और दूसरे पल वह सीता के पास था। वह सीता का हाथ पकड़े
था और सीता को खाट के पास ले आया था।
उसने खुशी दबाते हुए, पीछे कमीज में खोंसी साड़ी निकाली जिसे चौंकाने के लिहाज
से उसने रख ली थी। तह खोलकर उसने साड़ी सीता को उढ़ा दी। घूँघट बनाकर उसमें
झाँकते हुए कहा - दुल्हनिया लग रही है पूरी!
सीता हक्की-बक्की रह गई, पूछा - कहाँ से लाए?
- कहाँ से लाए क्या? खरीद कर लाया हूँ, नकद!
नकद! - सीता फीकी हँसी हँसी- कब से साहब जी नकद लाने लगे! मुद्दतों से थिगड़ा
लाए नहीं, आज यह साड़ी...
बुद्धिसेन ने जब छाती पर हाथ रखकर विश्वास दिलाया तो वह बोली - कहीं उधार तो
नहीं ले आए, नहीं आफत में फँस जाएँ। उठना-बैठना मुश्किल हो जाए।
- नहीं रे नकद लाया हूँ 'साड़ी सम्राट' के यहाँ से! डॉक्टर शाह ने पिछला...
- मजाक तो नहीं कर रहे हो? किसी की हो और दिखाने ले आए हो, बाद में उतरवा लो!
- च-च-च कैसी बात कर रही हो तुम! - बुद्धिसेन ने जब बच्चे की कसम खाई तो वह इस
बात पर गर्म होती हुई बोली - बच्चे की कसम क्यों खाते हो? बच्चे के सिर पर
प्यार से हाथ फेरते हुए तल्ख आवाज में वह बोलती गई - अपने पैसे की लाए हो,
मुझे तो विश्वास नहीं होता!
और आखिर तक उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने साड़ी तह करके उसी पन्नी में रख दी
जिसमें से वह निकाली गई थी।
बुद्धिसेन दुखी हो गया।