अस्मितावादी राजनीति के तहत जबसे हिंदी कहानी में 'विमर्श' रचने की शुरुआत हुई
है, तब से उत्तर-आधुनिकता, प्रगतिशीलता और सामाजिक न्यायप्रियता के तमाम
दावों/नारों के बीच 'कहानी' की विश्वसनीयता और मानवीयता दोनों का लगातार क्षरण
हुआ है। 'फैंटेसी' और 'कल्पना-शक्ति' के सहारे यथार्थ को अधिक गहराई और
सूक्ष्मता से चित्रित करने के स्वाँग में यदि गल्परचित जीवन संसारजनित
जीवन-सत्य से भिन्न विमर्शजनित सत्य को ही उसका स्थानापन्न स्वीकार करने का
प्रबल आग्रही होने लगे, तो आलोचना की भूमिका दोहरी हो जाती है। सच्ची और खरी
आलोचना जहाँ एक ओर विमर्शजनित कृत्रिम सत्य को अनावृत्त करते हुए उसके साथ
संघर्ष करती है, वहीं दूसरी ओर वास्तविक यथार्थ के बरक्स कृत्रिम यथार्थ को
रखकर उसे अनावृत करती हुई भी चलती है। आलोचना का काम सिर्फ रचना की व्याख्या
और मूल्यांकन करना भर नहीं है, बल्कि रचना में व्यक्त विचारधारा की पहचान,
पक्षधरता का अनावरण और 'विमर्श-रचना' के फेर में अमानवीय और असामाजिक होते चले
जाने के खतरों से रचनाकार को आगाह करना भी होता है। दुर्भाग्य से पिछले कुछ
सालों में 'असहमति के साहस और सहमति के विवेक' के अभाव में जहाँ एक ओर आलोचना
अस्मितावादी सर्जकों के समक्ष रक्षात्मक-सी हो गई है, वहीं दूसरी ओर गलत समझे
जाने के भय से 'चुनी हुई चुप्पी' अख्तियार करने को ही अपनी सबसे बड़ी समझदारी
मानकर चलने लगी है। इसमें सुविधा यह रहती है कि समय और अवसर के अनुकूल चुनी
हुई चुप्पी की अलग-अलग कोणों से अलग-अलग व्याख्या किए जाने की गुंजाइश बची
रहती है। जाहिर है, ऐसे में विश्वसनीयतारहित रचना का मूल्यांकन रक्षात्मक हो
चुकी आलोचना के वश की बात नहीं रह जाती है और अस्मितावादी व्याख्या के घटाटोप
में वास्तविक जीवन-यथार्थ धीरे-धीरे छिपता चला जाता है। विमर्श का संबंध जितना
परिवर्तन और मुक्ति की आकांक्षा से है, उतना ही उसके लिए किए जाने वाले अथक
संघर्ष और मानवीय-विवेक के प्रति सत्याग्रह से भी है। अमेरिका और अफ्रीका में
अश्वेत लेखकों द्वारा रचित साहित्य इस बात का प्रमाण और प्रतिमान दोनों है कि
जमीनी संघर्ष से ही वास्तविक सत्य और मानवीय सौंदर्य की अभिव्यक्ति संभव है।
कोई रचनाकार जब वास्तविक संघर्षों से दूर होकर महज अस्मितावादी विमर्शों के
सहारे जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति करने का दावा करता है; तो इस प्रयास में वह न
केवल असफल होता है, बल्कि कई बार मनुष्य होने की गरिमा को भी ठेस पहुँचाता है।
ऐसे रचनाकार अक्सर दमन और उत्पीड़न से राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर संघर्ष
करने की जगह छल-प्रपंच के सहारे शोषक समुदाय की 'पीली छतरी वाली लड़की' को
प्रेमजाल में फँसाकर उसके साथ संबंध को सामंतवाद और जातिवाद से संघर्ष का
स्थानापन्न मान लेते हैं। जबकि कुछ रचनाकार जैविक कारणों से होने वाले शारीरिक
क्षमताओं के क्षरण और परिवर्तनों के विपरीत शोषक समुदाय की कई पीढ़ियों की
स्त्रियों के साथ दमित समुदाय के व्यक्ति द्वारा यौन-संबंध बनाने को 'चमरिया
माई का शाप' बताकर सामाजिक न्याय हो जाना दिखा देते हैं! ऐसी रचनाओं की चर्चा
और कथित सफलता इस बात में निहित होती है कि इन रचनाओं से दमित समुदाय के अहं
को क्षणिक पोषण और आत्मतोष मिलता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि 'पोलिटिकली
करेक्ट' रहने के दबाव में रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर चुकी आलोचना सही को
सही और गलत को गलत कह सकने का खतरा मोल लेना नहीं चाहती। नतीजतन साहित्यिक
परिदृश्य में विमर्शवादी रचनाओं के अवास्तविक रचना-लोक में वास्तविक
जीवन-विवेक से उपजी रचनाएँ उपेक्षा और मौन की भेंट चढ़ जाती है। हिंदी के
समकालीन कथा-परिदृश्य में ऐसे अनेक कथाकार हैं, जिन्होंने सायास या अनायास
अपने को अस्मितावादी विमर्श से दूर रखा है और रचनात्मक स्तर पर मानवीय गरिमा
से अपने को च्युत नहीं होने दिया। लेकिन लोकप्रियता और लेखकप्रियता की मारी
समकालीन आलोचना अक्सर असहमति का साहस नहीं जुटा सकने के कारण वास्तविक
रचनात्मक प्रतिरोध की शिनाख्त करने से चूक जाती है, क्योंकि उसमें उसे किसी
तरह के 'विमर्श' की कोई गंध नहीं मिलती। रचना के मानवीय पक्षों को देखने की
जगह यदि आलोचना 'गंध' के मानक से 'क्रांति' या 'सामाजिक न्याय' तय करने लगे,
तो इसमें निश्चित रूप से ऐसे रचनाकारों के नेपथ्य में जाने का अंदेशा रहता है,
जिन्हें गंध के दायरे में कुछ रचने और प्रचारित करने से मुसलसल गुरेज रहा हो।
पिछले पाँच दशक से हिंदी कथा-परिदृश्य में निरंतर सक्रिय असगर वजाहत की पहचान
कमोबेश ऐसे रचनाकार की है, जिन्होंने किसी 'गंध' या 'विमर्श' को मानक बनाकर
नहीं लिखा है। वे कहते हैं, 'स्त्री विमर्श, उसके बाद दलित विमर्श, फिर
आदिवासी विमर्श तथा अल्पसंख्यक विमर्श को रेखांकित किया जा सकता है। ये
साहित्यिक विमर्श राजनीतिक स्तर पर उपेक्षित जातियों, समूहों तथा समुदायों के
स्थापित होने के विमर्श हैं। राजनीति में जिनको-जिनको स्वर मिलता गया उन्होंने
साहित्य में अपने विमर्श खड़े करने शुरू कर दिए। मैं इन विमर्शों का विरोधी
नहीं हूँ बल्कि उनका स्वागत करता हूँ। समस्या यह हो गई है कि इन विमर्शों के
अंतर्गत लिखे गए साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की माँग
की जा रही है। नए पैमाने उपलब्ध नहीं हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि
चूँकि यह रचना स्त्री विमर्श या दलित विमर्श या अल्पसंख्यक विमर्श पर केंद्रित
है इसलिए यह अच्छी रचना है। मतलब रचना के मूल्यांकन का आधार और कुछ नहीं केवल
विमर्श बन जाते हैं।' (वजाहत, असगर : पिचासी कहानियाँ, साहित्य उपक्रम,
दिल्ली, 2015, पृ.14) कहना न होगा कि अस्मिता केंद्रित यह सोच दरअसल बहुलता और
व्यापकता मानवीयता की धारणाओं के विपरीत है। पश्चिम की विमर्शवादी दुनिया में
इन दिनों 'बहुसंस्कृतिवाद' पर बल दिया जा रहा है, जबकि विविधताओं और बहुलताओं
से भरे भारत में एकल अस्मिताओं का प्रचार और 'बहुसंस्कृतिवाद' को दरकिनार किया
जा रहा है।
अस्मितावादी सोच किसी व्यक्ति या समाज को एकल अस्मिता में सीमित कर देता है और
वह किसी व्यक्ति या समाज की बहु-अस्मिता का विरोध करता है। दुनिया भर में हो
रहे संघर्ष के पीछे एक कारण बहु-अस्मिता को एकल अस्मिता तक सीमित कर देने की
कोशिशें भी हैं। जबकि विविधताओं और बहु-अस्मिताओं से भरी इस दुनिया में शांति
और सह-अस्तित्व, बहु-अस्मिता के प्रति राजनीतिक और रचनात्मक स्तर पर सम्मान से
ही संभव है। सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक 'आइडेंटिटी
एंड वायलेंस : द इल्यूजन ऑफ डेस्टिनी' में लिखा है, 'निश्चय ही हमारी
सांस्कृतिक पहचान महत्वपूर्ण है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरों से
अलग-थलग हमारी संस्कृति और समझदारी नहीं बनी है। इसके निर्माण में बहुत सारी
गतिविधियों, मानवीय क्रिया-व्यापारों का योगदान है। हमारी संस्कृति ही हमारी
अस्मिता और जिंदगी के लिए अनूठी पहचान या कहें सब कुछ नहीं है। यह वर्ण, जाति,
लिंग, व्यवसाय, राजनीति इत्यादि से मिलकर बनी है और संस्कृति के बारे में
सोचते हुए हमें इसकी ताकत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।' दुर्भाग्य से हमारे
यहाँ अस्मितावादी विमर्श के पैरोकार अपने मत से अलग 'बहुसंस्कृति' या
'बहु-अस्मिता' जैसे व्यापक मानवीय विचारों पर चिंतन-मनन करने की स्थिति में
नहीं हैं। अस्मितावाद के जो व्याख्याकार गल्प को महज गप्प मानकर अस्वाभाविक
जीवन-स्थितियों को पेश करके क्रांति हो जाना मान लेते हैं, वे दरअसल कृत्रिम
आक्रामकता से स्वयं को जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। 'कुछ लेखकों ने अपनी
विद्वता, जानकारी और प्रतिभा से पाठकों को आतंकित करने का रास्ता निकाल लिया
है। उनको पढ़ते हुए पाठक भाषा-शैली के चमत्कार, विद्वता के बोझ, जानकारियों की
रेल-पेल से प्रभावित हो जाता है और रचना को श्रेष्ठ मान लेता है।' (वही,
पृ.14)
आलोचना का इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि आलोचना से असंतोष और निराशा के
कारण ही कोई लेखक आलोचना के मैदान में उतरने को विवश हुआ। कुछ लेखकों ने जहाँ
इसके लिए आलोचना की पूरी पुस्तक लिखी, वहीं कुछ लेखकों ने अपनी किताब की
भूमिका में विस्तार से इस पर बात की है। मसलन विलियम वर्ड्सवर्थ ने अपनी
पुस्तक 'लिरिकल बैलेड्स' में 'व्हाट इज रोमांटिसिज्म' शीर्षक से लंबी भूमिका
लिखी, तो प्रमुख छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत ने पल्लव में 'छायावाद क्या
है' को विस्तार से समझाने की कोशिश की है। असगर वजाहत ने 'पिचासी कहानियाँ'
'भूमिकाओं' में हिंदी आलोचना की पुस्तकों और पत्रिकाओं में कथा-आलोचना को लेकर
चल रहे विमर्शों और माँगों पर अपनी राय व्यक्त की है-जो किसी भी संवेदनशील
व्यक्ति को विचलित कर देने के लिए काफ़ी है, 'छद्म, छलावा और तमाशा हमेशा
चुनौती रहे हैं, लेकिन हमारे समाज का छद्म बेमिसाल है। आदमी जो कह रहा है,
उसका वह अर्थ ही नहीं है, जो निकल रहा है। बल्कि जो निकल रहा है, वही अर्थ है।
मेरे ख्याल से भारत में सार्वजनिक स्तर पर जितना झूठ बोला जाता है, उतना शायद
ही किसी देश में बोला जाता हो। देशप्रेम की जितनी बातें भारत में जितने बड़े
स्तर पर और जितने प्रभावशाली लोगों द्वारा की जाती है, उन्हें सुनकर लगता है,
अगर यह सच होता तो भारत देश स्वर्ग बन चुका होता। धर्म का यहाँ जो रूप है वह
अमानवीय पाखंड है। एक तरफ करोड़पतियों की संख्या यहाँ बढ़ रही है, दूसरी ओर
जितनी भयावह गरीबी यहाँ है, उतनी कम ही देशों में है। यह विरोधाभास समझ में
नहीं आता।'
यही विरोधाभास जब किसी कवि/लेखक को समझ में नहीं आता है, तो उसके मस्तिष्क में
प्रश्न पैदा होना आरंभ हो जाता है और फिर वह प्रश्नों को रचनात्मक तरीके से
अभिव्यक्त करना शुरू कर देता है। इस प्रक्रिया में जब वह देखता है कि उसके
रचनात्मक प्रयासों से सत्ता और समाज पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ रहा या जिस
परिवर्तना की आकांक्षा से वह लिख रहा है वह नहीं हो रहा है, तो वह विवशतावश
आलोचना के मैदान में आता है। अपनी बातों को सीधे-सीधे अभिधा में व्यक्त करता
है, 'जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी परतें क्या उखाड़ेगा? रोज
अखबार में जो छपता है वह पूरे समाज को नंगा करने के लिए काफी है। पाठक के अंदर
अब उस तरह से किसी भाव का संचार नहीं हो सकता जैसे पहले हुआ करता था।' (वही)
इसलिए असगर वजाहत जैसा रचनाकार साहित्य के अलग-अलग रूपों, अलग-अलग शिल्प और
शैलियों को आजमाने को कोशिशें करता है, लघुकथा, नाटक, आलेख, यात्रा-वृतांत
इत्यादि हर गद्य-विधा का दरवाजा खटखटाता है। हर विधा में अपने प्रश्नों को,
अपने दृष्टिकोण को, अपने सौंदर्यबोध और स्वप्न को जाहिर करने का प्रयास करता
है, ताकि संवेदनहीन दुनिया के नक्कारखाने में रचना की तूती संवेदनशील दुनिया
के ख्वाब को आवाज देती रहे।
हिंदी कहानी में सक्रिय विमर्शवादी कथाकार जिस गति से 'साहिब-ए-किताब' बन रहे
हैं, उस हिसाब से असगर वजाहत ने कहानियाँ नहीं लिखी हैं। लेकिन उनकी कहानियाँ
जब-जब छपी हैं, पाठकों के बीच चर्चा और बहस का विषय बनने में सफल रही हैं।
असगर वजाहत पिछले पाँच दशक से हिंदी कथा परिदृश्य में सक्रिय हैं और इस बीच
उन्होंने अपनी आँखों से अनेक सत्ताओं को बनते-बिगड़ते देखा है। अनेक
व्यक्तियों, प्रवृत्तियों और घटनाक्रमों को देखा-समझा और परिवर्तनों को महसूस
किया है। जाहिर है, अनुभव ने उन्हें, उनकी रचनात्मकता को समृद्ध करने के
साथ-साथ उदास और बेचैन किया है, 'उस समाज में जहाँ रोज लोग जला दिए जाते हैं,
सैकड़ों बेसहारा गरीब रोज सड़कों पर मर जाते हैं, चंद रुपयों के लिए हत्याएँ
होती हैं, इनसान की जिंदगी की कोई कीमत नहीं बची है, उस समाज में लोग कितने
संवेदनशील हो सकते हैं ये तो रोज की बात है। रोते-रोते आँखों के आँसू तक सूख
जाते हैं और हम लेखक, कलाकार आँखें नम करने की कोशिश करते हैं। ऐसी
चुनौतीपूर्ण स्थिति में लड़कियों को लड़कियाँ ही लिखा जा सकता है। शाहआलम कैंप
में रूहें ही आ सकती हैं। मृतक ही वार्तालाप कर सकते हैं।' (वही, पृ.11) जिस
समाज में इतनी तरह की समस्याएँ, ज्यादतियाँ और अमानवीयता हों, उस समाज का अक्स
साहित्य में इतर भला कैसे हो सकता है? कपड़ों में हम वह छिपाते फिरते हैं जो
आँखों से, जबान से लगातार टपकता रहता है - गीला, चिपचिपा, गंदा, बू से भरा,
गला घोंटता हुआ। हम अभी तक एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो सबसे ज्यादा आईने
से डरता है। खुद के अल्फ़ खुला देख पाने की हिम्मत हममें नहीं है। कोई खोल कर
सामने रख दे, तो नारियल और सिंदूर लेकर ढोंगियों की तरह पीठ फेर लेते हैं। इस
पूरे दायरे को, जो हमने अपनी शक्लों के इर्द-गिर्द, आईनों से दूर तैयार कर
लिया है, यहाँ जब-जब असगर वजाहत आईना लेकर आते हैं, हम नंगे नजर आने लगते हैं।
हैरत यह सोचकर होती है कि दशक-दर-दशक बीत जाते हैं, लेकिन यथार्थ में बहुत
अधिक अंतर नहीं आता। सन् 1971 में छपी असगर वजाहत की कहानी 'केक' की इन
पंक्तियों को देखिए, 'अब तो छोटे-मोटे करप्शन पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी
मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं, कुत्ते। मैं भी आजादी से
पहले गांधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन वायलेंस इज द बेस्ट
पॉलिसी। लेकिन अब सोचता हूँ कि यह चूतियापा है। वायलेंस इज द बेस्ट पॉलिसी।
लटका दो पाँच सौ आदमियों को सूली पर।' (वही, पृ.18) यह डेविड साहब नामक जिस
व्यक्ति के हताश मन की व्यथा है, उसका गुस्सा हिंदुस्तान के उन करोड़ों लोगों
के मन की व्यथा है, जिनका क्रोध, जिनकी आशा-निराशा और भग्न-स्वप्न से सत्ता ने
कोई सरोकार कभी नहीं रखा। इसके बावजूद कि तब तक आजादी के कई बरस बीत चुके थे
और लोकतंत्र से युवाओं की उम्मीदें टूटने लगी थी। जिसके कारण राजधानी दिल्ली
एक पढ़ा-लिखा इनसान इस कदर अपनी बेबसी की दास्तान बयान करता है, 'मैं शादी
कैसे कर लूँ आंटी? दो सौ पचहत्तर रुपये इक्कीस पैसे से एक पेट नहीं भरता। एक
और लड़की की जान लेने से क्या फायदा! मेरी जिंदगी तो गुजर ही जाएगी। मगर मैं
यह नहीं चाहता कि अपने पीछे एक गरीब औरत और दो-तीन प्रूफ रीडर छोड़कर मर जाऊँ
जो दिन-रात मशीन की कान फाड़ देनेवाली आवाज के बीच बैठकर आँखें फोड़ा
करें।'(वही, पृ.28) इस कहानी में दो तरह की स्थितियों को एक साथ रखकर कथाकार
ने दिखाने का प्रयास किया है - एक डेविड साहब हैं जो पढ़े-लिखे हैं। अच्छी
अँग्रेजी जानते हैं, लेकिन महज प्रूफ रीडर बनकर रह गए हैं और जिनकी सारी
उम्मीदें बेमानी हो चुकी हैं।
दूसरी तरफ कहानी का नैरेटर है, जो पढ़े-लिखे डेविड साहब की असलियत देख चुका
है। इसलिए उसके भीतर अपने भविष्य को लेकर निराशा बढ़ती जा रही है, 'मैंने
कॉलेज में इतना पढ़ा ही क्यों? इतना और उतना की बात नहीं है, मुझे कॉलेज में
पढ़ना ही नहीं चाहिए था और अब दो साल तक ढाई सौ की नौकरी करते हुए क्या किया
जा सकता है? क्यों मुस्कराता और क्यों शांत रहा? दो साल से दोपहर का खाना गोल
करने के पीछे क्या था?' (वही, पृ.25) बहुत कठिन संघर्षों के बाद जिन लोगों के
लिए 'ब्रेड-बटर' जुटाना कठिन हो रहा है, वह सपने 'केक' की देखता है! त्रासद यह
है कि आर्थिक तंगी का रोना रोते हुए जो डेविड साहब शादी का इरादा मुल्तवी कर
देते हैं, वे केक की बारीकियों को लेकर इस कहानी के नैरेटर से बहसें करते हैं।
मुर्गीखाना और फार्म हाउस को लेकर बाते करते हैं। जीवन में असफल और दुखी लोग
प्रायः नष्ट हो चुकी पारिवारिक समृद्धि, बीत चुके अच्छे अवसर और समय की
गाहे-बगाहे चर्चाएँ किया करते हैं। इससे उनके फटेहाल वर्तमान पर भले कोई फर्क
न पड़ता हो, लेकिन आहत अहं को पोषण अवश्य मिलता है। समृद्ध समाज में अपने असफल
वर्तमान को ढकने और सफल अतीत के दम पर जगह बनाने में तात्कालिक सफलता मिलती
है। जमींदारी और सामंती जागीरदारियों को गँवा देने वाले लोग आजादी के बाद कई
दशकों तक इसी तरह जीते थे। इसलिए डेविड साहब का स्वभाव उस प्रवृति का बेहतर
प्रतिनिधित्व करता है।
मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में सबसे महत्वपूर्ण है रोटी और रोटी के लिए
चाहिए होता है पैसा और पैसा कमाने के लिए लिए मध्यवर्ग का आदमी सबसे सुरक्षित
नौकरी को समझता है, जो उसे आसानी से नहीं मिल पाती है। इसलिए बेरोजगार आदमी को
जितनी बेकद्री और बेरुखी का सामना करना पड़ता है, उतना किसी को नहीं।
'मुर्दाबाद' कहानी के एक पात्र के मुँह से बेरोजगार लोगों की हालत सुन लीजिए,
'यू.पी. के चार शहरों-फतेहपुर, कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ के इंप्लायमेंट
एक्सचेंज में नाम लिखा है। दो-चार सौ रुपये खर्च हो गए मगर नौकरी नहीं मिली...
और घरवालों से बीड़ी-साबुन के पैसे कब तक माँगें?' चुनाव लड़ने के लिए जिन
नेताओं को भीड़ की आवश्यकता होती है, वे इन बेरोजगारों को भीड़ का हिस्सा बना
लेते हैं। जाति, धर्म और बिरादराने-इस्लाम का हवाला देकर वोट हासिल करते हैं,
मगर देर-सबेर लोगों की आँखों पर पर्दा हट जाता है, 'कलूट मौलवी इसरार को गाली
देते हैं। साले ने चढ़वा-चढ़वाकर पाँच बच्चे करवा दिए। इस्लाम इसी तरह तो
फैलेगा। अब इसरार मौलवी पता नहीं कहाँ चला गया है। आजकल होता तो कलूट मियाँ
'इस्लाम' उसी के हवाले कर देते। पाँच बच्चों को पालो-पोसो तो 'इस्लाम' की
पोल-पट्टी खुले। ठाठ से खाते हैं मुर्गी। दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर लेक्चर
झाड़ते हैं साले और चल देते हैं।' (वही, पृ.38) मुस्लिम समाज की अंदरूनी
दिक्कतों और आम लोगों की सोच लेकर लिखी गई इस कहानी में धर्म और राजनीति के
गठजोड़ को बेनकाब करने के अलावा कथाकार ने उन धर्म-गुरुओं की शिक्षा और
उपदेशों पर भी सवाल खड़ा किया है, जो लोगों को धर्म की बात तो बताते हैं,
लेकिन व्यावहारिक बातों को गोल कर जाते हैं। आमजन धर्मगुरुओं की बातों के
खोखलेपन से वाकिफ हो रहे हैं और इसकी आड़ में जीवन को दोजख बनाने वालों को
पहचानने लगे हैं। अधिक बच्चा पैदा करके इस्लाम को बढ़ाने की शिक्षा देने वाले
धर्म गुरुओं को इस बात की कोई फ़िक्र नहीं है कि एक बेरोजगार आदमी आख़िर इतने
बच्चों की परवरिश कहाँ से करेगा?
अंग्रेजों के आने के बाद इस देश में जबसे 'फूट डालो और राज करो' की राजनीति
शुरू हुई, तबसे हिंदू-मुसलमान के बीच दंगे-फसाद और नफरत की सियासत भी शुरू हो
गई। असगर वजाहत के पास अनेक ऐसी कहानियाँ हैं, जिसमें बहुत बारीकी से उन्होंने
दंगों की सियासत को बयान किया है। दंगे की परिस्थियों का विश्लेषण किया है और
दंगों के बाद होने वाले सांप्रदायिक सौहार्दों की असलियत की पोल भी खोली है,
'हर तीन-चार के बाद शहर में फसाद हो जाता है, ढाटे बाँधे हुए। 'हरहर महादेव'
का नारा लगाते हिंदुओं के गिरोह मुसलमानों के मोहल्लों पर हमला करते हैं और
मुसलमान हिंदुओं पर जिहाद बोले देते हैं। आग लगाई जाती है। जो होली-ईद-मिलन,
एकता के सिद्धांतों और सांप्रदायिकता विरोधी कमेटियों की कागजी दीवार को भस्म
कर देती है। दो-चार दिन तक गिरोह सक्रिय रहते हैं। तेजाब, चाकू, लाठियाँ,
बल्लम और एक-आध बंदूक, देसी कट्टे लिए शत्रु की खोज में केवल एक-आध आदमी, औरत
या दुकान ही नजर पड़ती है जिसका तत्काल फैसला कर दिया जाता है।'(वही, पृ.39)
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता के लिए निरंतर चलने वाली होड़ में एक
राजनीतिक विचारधारा के रूप में संप्रदायवाद एक शक्ति बन गया है। इसलिए इसे
धार्मिक संवेदनाओं और भावनाओं की समस्या के रूप में न देखकर एक राजनीतिक
समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए। आज दिखाई देने वाली सांप्रदायिकता के तीन
पहलू हैं। पहला, चिंतन और विश्वास की एक व्यवस्था के रूप में। सांप्रदायिकता
इस रूप में ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगी। दूसरा पहलू है चुनावी ढाँचे के
तहत सांप्रदायिकता का राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल, जो ज्यादा दिनों
तक चल सकता है। इसका तीसरा पहलू है घृणा की भावनाओं को उभार कर लोगों को
गोलबंद करने और हिंसा के लिए उकसाने का प्रयास करना। इस तीसरे प्रकार की
सांप्रदायिकता के कारण ही इसका जहर आज हमारे समाज के कोने-कोने में पहले से
कहीं ज्यादा गहरे पैठ गया है।
असगर वजाहत ने दंगे-फसाद से पहले लोगों की मानसिकता, शहर के हालात और
सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के नाम पर बनी कमेटियों की असलियत अनेक
कहानियों में बयान की है, जिससे गुजरने के बाद यथार्थ के इन पहलुओं से अनजान
पाठक पहले काफी हैरान और उसके बाद परेशान होता है। आम तौर पर दंगे-फसाद की
चर्चा तो होती है, लेकिन जिस सांप्रदायिक सोच की टकराहट दंगे के रूप में
निकलती है उस सोच को लेकर सामाजिक सजगता राजनीतिक हितों के कारण सामने नहीं आ
पाती है। 'सारी तालिमात' हासिल करने के बाद वास्तविक हासिल यह है कि 'दंगे के
बाद हिंदुओं के मोहल्ले के आसपास रहने वाले मुसलमान किसी मुसलमानी मोहल्ले में
चले जाते हैं और मुसलमानों की बस्ती के पास रहने वाले हिंदू रस्तोगीगंज या
रघुबीरपुरा चले जाते हैं। मुसलमानी मोहल्ले में दाढ़ियों की तादाद बढ़ जाती
है। मस्ज़िद में नमाज़ी अधिक आने लगते हैं। लोग देर तक गिड़-गिड़ाकर दुआएँ
माँगने लगते हैं। गुंडा पार्टी लूट के माल को इधर-उधर करने में लग जाती है।
हथियार जमा करने का चंदा वसूल करती है।'(वही) दंगे के सियासतदाँ इस सिद्धांत
पर काम करते हैं कि दूसरे समुदाय के नाम पर पहले समाज में भय फैलाओ और फिर
उसके बाद उस भय का दोहन राजनीतिक सत्ता के लिए करो। अधिकांश सीधे और भावुक लोग
आँखों के सामने घटित होने वाले दृश्य ही देख पाते हैं और उसी के अनुसार अपनी
राय कायम करते हैं, सच के ऐसे पहलू से वे कभी परिचित नहीं हो पाते हैं, जो
अप्रत्यक्ष रूप से किसी घटना के मूल में सन्निहित होते हैं।
अनेक अध्ययनों में यह बात साबित हो चुकी है दंगों के पीछे असली कारण धार्मिक
नहीं, आर्थिक और राजनीतिक होते हैं, जिसके दम पर समुदाय के नाम पर राजनीति
करने वाले कारोबारी फायदा उठाते हैं, 'इस्लाम तुम्हें कहाँ सिखाता है कि एक
मुसलमान के कारखाने में काम छोड़कर थोड़े से लालच में हिंदू के कारखाने में
चले जाओ? वीरेंद्र बाबू से तुम्हारा क्या रिश्ता है? मैंने माना कि तुमको यहाँ
तकलीफ है थोड़ी, लेकिन आराम भी तो है। ईद-बकरीद की छुट्टी देता हूँ। नमाज-रोजे
में तुम्हारे साथ हूँ। अरे भाई, मैं तो यहाँ से वहाँ तक तुम्हारे साथ हूँ। कोई
ज्यादती करूँ तो अल्लाह के यहाँ दामन थाम सकते हो। लेकिन वीरेंद्र बाबू के
यहाँ क्या करोगे? अगर कभी फसाद हो गया तो मार ही दिए जाओगे न? इस्लाम की सारी
तालीमात को भूल गए हो?'(वही, पृ.44) पूँजीपति किसी का नहीं, सिर्फ और सिर्फ
अपनी पूँजी का दोस्त होता है - जिसे बढ़ाने और फैलाने के लिए वह हर तरह के
हथकंडे का इस्तेमाल करता है। इसलिए हाजी साहब जैसे कारोबारी के लिए इस्लाम की
तालीम का एक ही अर्थ है बिना उफ किए उनके शोषण को सहते जाना। इस्लाम और अल्लाह
के नाम पर लोगों को दबाने वाले हाजी की असलियत देखिए, 'उन्हें मालूम है कि
बड़ी मशीनें लगाने से वह मिट सकते हैं। वह घाटे का काम है। अभी तो फैक्ट्री
एक्ट ही लागू नहीं होता 'हाजी करीम एंड को' पर, जो काम कम-से-कम तीन सौ आदमी
करते, मोहल्ले की औरतें कर देती हैं। लेबर इन्स्पेक्टर के आने से पहले ही चंदू
का लौंडा जो लेबर आफिस में चपरासी है, आकर हाजी जी को बता देता है। हाजी आधे
से ज्यादा मजदूरों और कारीगरों को पिछली खिड़की से बाहर कर देते हैं। हाजी जी
इतवार की भी छुट्टी नहीं देते। कहते हैं, वही होगा जो होता चला आया है। जिसे न
करना हो वह वीरेंद्र बाबू के कारखाने में चला जाए।'(वही, पृ.43) इस तरह हाजी
गरीब मुसलमान मजदूरों को हिंदुओं और दंगों का डर दिखाकर, बिरादराने इस्लाम के
नाम पर शोषण करते हैं। हाजी जैसे पूँजीपति दरअसल उस प्रवृत्ति के प्रतीक हैं,
जो अपने फायदे के लिए अल्लाह और इस्लाम का इस्तेमाल करते हैं।
असगर वजाहत ने अपने कहानी-संग्रह की भूमिका में एक स्थान पर स्पष्ट किया है,
'कार्ल मार्क्स से परिचय होने से पहले भी मैं यह मानता था कि अन्याय और शोषण
नहीं होना चाहिए। समाज में इतनी अधिक विषमता नहीं होनी चाहिए।' वामपंथी
विचारों से परिचित होने से पूर्व भी वे आर्थिक और सामाजिक शोषण, असमानता और
पाखंड को असहनीय मानते थे, इसलिए इस्लाम के नाम इस्तेमाल करने वाले हाजी, नूर
मियाँ, हैदर हथियार आदि की कारकर्दगी को बेनकाब करते हैं। अमेरिका जैसे आधुनिक
मुल्क में रहने वाले पेशेवर मुसलमानों के पाखंड को 'उनका डर' कहानी में वे
तार-तार कर देते हैं, 'लोग अपनी-अपनी लड़कियों को अमेरिकी लड़कों के साथ संभोग
के ख्याल से काफी डर गए थे। अहमद साहब गुनगुना रहे थे। उनकी लड़की हिंदुस्तान
में है। किसी अमेरिकी के साथ संभोग नहीं कर सकती। क्या गारंटी है कि और के साथ
यानी किसी हिंदुस्तानी के साथ संभोग नहीं कर रही होगी? लेकिन शायद अहमद साहब
इतनी दूर की कौड़ी लाने में यकीन नहीं रखते।'(वही, पृ.50) वे शुतुरमुर्ग की
तरह बालू में सिर छिपा लेने से बला का टल जाना मान लेते हैं, लेकिन कथाकार इस
पाखंड और धार्मिक संकीर्णता की पर्देदारी पर निशान साधने से गुरेज नहीं करता।
उनकी एक चर्चित कहानी का शीर्षक है 'मैं हिंदू हूँ', जिसमें दंगे की पर्देदारी
किस तरह बेनकाब होती है, देखिए, 'तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते
हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्य-पद्धति और गति में बहुत
परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिंदा जलाया जाता
था और न पूरी-की-पूरी बस्तियाँ वीरान की जाती थीं। उस जमाने में
प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को
नहीं मिलता था। अब तो दिल्ली दरबार पर कब्जा जमाने के साधन बन गए हैं
सांप्रदायिक दंगे। संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता
है, जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियाँ बहा सकता हो।' इन अंशों को
किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह अपने आप में हालात पर एक बेहतरीन
तब्सरा है। चाहे मंटो का 'टोबा टेक सिंह' हो असगर वजाहत की यह कहानी 'मैं
हिंदू हूँ', दोनों में होश-हवाशवालों से बेहतर सनकी और पागल ही दिखते हैं।
दोनों में पागल ही बिना किसी डर, बिना किसी भय के बेझिझक सच बोलते हैं, 'मुझे
मारा... मैं हिंदू हूँ... मैं हिंदू हूँ! सैफू धड़ाम-से जमीन पर गिरा... शायद
बेहोश हो गया था।'(वही, पृ.281) एक बार फिर इस तथ्य को यहाँ याद करना जरूरी है
कि तकरीबन पाँच दशक से कथा-परिदृश्य में सक्रिय असगर वजाहत की कथा-यात्रा में
सांप्रदायिक दंगों, सांप्रदायिक उन्मादों की कहानियाँ शुरुआती दौर से लेकर आज
तक मौजूद हैं। यानी देश 'विकास' कर रहा है, आधुनिक हो रहा है, निजीकरण और
उदारीकरण के कारण आर्थिक व्यवस्था की 'ट्रिकल डाउन थियरी' को असफल सिद्ध कर
रहा है, लेकिन सांप्रदायिक सोच और मानसिकता पर इन तमाम विकासों और परिवर्तनों
का कोई असर नहीं हो रहा है।
उनकी बहुचर्चित कहानी 'जख़्म' में इस सांप्रदायिक मानसिकता की बानगी देखिए,
'बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में सांप्रदायिक दंगों का मौसम आता है। फर्क
इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाए जा
सकते हैं, वैसे अनुमान सांप्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा
शहर यह मानने लगा है कि सांप्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता
है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गई है कि सांप्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी
तरह सुनते हैं, जैसे 'गर्मी बहुत बढ़ गई है' या 'अबकी पानी बहुत बरसा'-जैसी
खबरें सुनी जाती है। दंगों की खबर सुनकर बस इतना होता है कि शहर का एक हिस्सा
'कर्फ्यूग्रस्त' हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। बस थोड़ी-सी असुविधा पर
मन-ही-मन कभी-कभी खीझ जाते हैं।'(वही, पृ.167) दंगों में मरने वाले मासूम
लोगों की मौत से असुविधा नहीं होती, बेकसूर लोगों के घर जलाए जाने पर लोगों को
असुविधा नहीं होती, अजन्मे बच्चों को पेट में ही मार देने वाले पर क्रोध नहीं
आता, किसी तरह की असुविधा महसूस नहीं होती, लेकिन दंगे-फसाद के आदी हो चुके और
इसे जीवन का सामान्य हिस्सा मान चुके लोगों की संवेदनहीनता की यह इंतहा है कि
उन्हें असुविधा सिर्फ दंगों के कारण रास्ता बदलने से होती है!
सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के प्रयास में सांप्रदायिकता विरोधी जो सम्मेलन
आयोजित किए जाते हैं, उसके लिए ऐसे इलाके को चुना जाता है, जहाँ के लोग पहले
से सांप्रदायिकता विरोधी हैं। 'जख़्म' के बहाने बहुत वाजिब सवाल उठाया गया है
कि सम्मेलन तो ऐसे इलाके में करना चाहिए जहाँ सांप्रदायिक लोग रहते हों और जो
इन विचारों को सुनकर अपनी राय बदलने को मजबूर हों। कहना न होगा कि सतह पर
दिखने वाली सांप्रदायिकता से अधिक भयावह रूप में सुप्त सांप्रदायिकता प्रकट
होती है, जिसकी पहचान और प्रतिरोध दोनों प्रत्यक्ष सांप्रदायिकता के मुकाबले
कहीं अधिक मुश्किल काम होता है। किसी समाज के अवचेतन में विचारों की निर्मिति
कई तत्वों से मिलकर बनती है, जिसे कई स्तरों पर अनुकूलित किया जाता है। इसलिए
'जख़्म' के मुख़्तार को यह बात समझ में नहीं आती है कि जिन बस्तियों में, जिन
लोगों के बीच ऐसे भाषणों की जरूरत है, वहाँ तो ये लोग भाषण नहीं देते। वह इस
पाखंड को समझकर हैरान होता रहता है कि ये लोग दंगों के बारे में उन लोगों के
बीच क्यों भाषण दे रहे हैं, जहाँ इन भाषणों, नारों और बयानबाजियों की जरूरत
नहीं है।
दंगों की सियासत से सियासतदानों को जो मंजिल हासिल करनी होती है, वह कर लेता
है। जब चुनाव खत्म होने के बाद दंगाई मिल-बैठकर अपने कामों का हिसाब करते हैं,
अपनी बहादुरी की कहानियाँ सुनाते हैं, तो क्या-क्या कहते हैं, जरा सुनिए,
'मदिरालय में कभी कोई झूठ नहीं बोलता, यानी वहाँ कही गई बात अदालत में गीता या
कुरान पर हाथ रखकर खाई गई कसम के बराबर होती है। इसलिए यहाँ जो लिखा जा रहा
है, सच है और सच के सिवाए कुछ नहीं है। खैरियत खैरसल्ला पूछने के बाद बातचीत
इस तरह शुरू हुई। पहले गिरोह के नेता ने कहा, 'तुम लोग तो जन्खे हो, जन्खे...
हमने सौ दुकानें फूँकी हैं।' दूसरे ने कहा, 'उसमें तुम्हारा कोई कमाल नहीं है।
जिस दिन तुमने आग लगाई, उस दिन तेज हवा चल रही थी... आग तो हमने लगाई थी
जिसमें तेरह आदमी जल मरे थे।' बात चूंकि आग से आदमियों पर आई थी, इसलिए पहले
ने कहा, 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं।' 'अपने'
संप्रदाय के लिए 'दूसरे' संप्रदाय के तेरह लोगों को मारने वाला दंगाई अपनी
बहादुरी के बारे में कुछ इस तरह बताता है जैसे उसने बहुत अच्छा काम किया हो।
बहुत सराहनीय कार्य किया हो। इस पर दूसरा दंगाई उससे आगे बढ़कर अपनी शेखी
बघारता है कि उसने छब्बीस लोगों को मारा है। छब्बीस की संख्या वह इस तरह बताता
है जैसे चींटियों को मसला हो, मच्छरों को मारा हो - और कमाल की संगदिली देखिए
कि 'औरतों की हत्या करने से पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके
गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है... तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है।'
इस वहशियाना बयान के बाद यह मानने में कोई शुबहा नहीं रह जाता कि
सांप्रदायिकता का जहर किस कदर इनसान को हैवान बना देता है। यह देखकर थोड़ी देर
के लिए ही सही, इनसानियत पर भरोसा नहीं टूटता कि वहशीपने की चरम स्थिति में भी
हत्यारे के भीतर का इनसान एक बार को जाग उठता है, 'बच्चों को मारना बहुत
मुश्किल काम है... उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है... औरतों को
मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल।' सआदत हसन मंटो की कहानियों
के पेशेवर हत्यारे की तरह असगर वजाहत की इस कहानी का क्रूर और संगदिल हत्यारा
बच्चों की हत्या को इसलिए 'मुश्किल काम' कहने के लिए मजबूर होता है कि 'बच्चों
को मारते समय अपने बच्चे याद आ जाते हैं।'(वही, पृ.191) अपने बच्चे जब याद आते
हैं तो बच्चों के प्रति उसका ममत्व जाग जाता है और बच्चे जिस तरह भयाक्रांत
होकर जान की भीख माँगते हुए हत्यारे की ओर देखते हैं उसे देखकर संगदिल हत्यारे
का दिल भी पसीज जाता है और पेशेवर हत्यारे के हाथ भी रुक जाता है।
असगर वजाहत के पास जीवन के विभिन्न अनुभवों, सफलता-असफलता, राग-विराग,
सुविधा-असुविधा, देश-विदेश की यात्राओं और दोस्ती-दुश्मनी से हासिल भाषा का
इतना विशाल रेंज है कि देखकर तआज्जुब होता है कि एक ही आदमी के भीतर भाषा और
अनुभव की कितनी परतें हैं! जब वे किसी चीज का, किसी स्थान या किसी व्यक्ति का
जिक्र कर रहे होते हैं, तो उसके एक-एक पहलुओं का बहुत बारीक वर्णन करते हैं।
उनकी पैनी नजरों से कुछ नहीं बच पाता। अनेक बार तो यह कमाल होता है कि जिस
व्यक्ति का वर्णन वे कर रहे होते हैं, उसे भी अपनी कुछ चीजों के बारे में पता
नहीं होता, लेकिन कथाकार की एक्स-रे जैसी नजर से वह चीज छिपी नहीं रहती है।
प्रसंग और घटना के अनुसार रचना की भाषा और शैली तय हो जाती है, जो करुणा,
हास्य, व्यंग्य और पर्देदारी के लिए ओढ़ी गई बेखुदी को बेहिचक बेनकाब करती
चलती है। उनकी वर्णन की शैली इतनी रोचक होती है कि कोई पाठक यदि एक बार उनकी
रचना का कुछ हिस्सा पढ़ ले, तो पूरा पढ़े बिना उसे चैन नहीं मिल सकता। जिस दौर
में नई पीढ़ी मुहावरों और कहावतों से रहित भाषा में भाषा को सिर्फ सूचना
आदान-प्रदान करने भर का माध्यम मान चुकी हो, उस दौर में मुहावरों और कहावतों
के प्रयोग से असगर वजाहत अभिव्यक्ति के लिए ऐसी मारक भाषा का इस्तेमाल करते
हैं, जिसका कोई दूसरा उदाहरण आसानी से नहीं मिलता। अपने बच्चों को इंग्लिश
मीडियम स्कूल में ही पढ़ाने की लालसा जबसे 'चंद्रमा के देश में' जुनून की हद
तक बढ़ी है, तब से इंग्लिश मीडियम स्कूल चलाने वालों का धंधा बहुत चोखा हो गया
है। इन स्कूलों के अध्यापकों को ही चाहे अँग्रेजी न आती हो, 'उत्तर प्रदेश,
बिहार ही नहीं, पूरे-के-पूरे हिंदी बेल्ट में अँग्रेजी की जो हालत है किसी से
छिपी नहीं है। यह अच्छा है या बुरा यह अपने आप में डिबेटेबुल प्वाइंट हो सकता
है। लेकिन 'एम' को 'यम', 'एन' को 'यन' और 'वी' को 'भी' बोलने वालों और
अँग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या
करें यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर-पर-सुंदर होती जा रही है और प्रेमी
असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है।'(वही, पृ.144)
'सरगम कोला' कहानी की शुरुआत ही कुछ इस तरह होती है, 'जैसे कुत्तों के लिए
कातिक का महीना होता है वैसे ही कला और संस्कृति के लिए जाड़े का मौसम होता है
-दिल्ली में, गोरी चमड़े वाले पर्यटक भरे रहते हैं - खलखलाते, उबलते, चहकते,
रिझाते, लबालब-हमारी संस्कृति के सबसे बड़े खरीददार और इसलिए पारखी। बड़े घरों
की महिलाएँ लिपी-पुती कैलेंडर आर्ट - जिनसे घृणा करने का कोई काम नहीं है,
जाड़े की शामें किसी आर्ट गैलरी और नाटक देखने में गुजारना पसंद करती हैं।
जाड़ा कला और संस्कृति का मौसम है।'(वही, पृ.87) फणीश्वरनाथ रेणु ने के 'मैला
आँचल' में कबीर मठ के बाबा लक्ष्मी कोठारिन को 'कातिक की कुतिया' कहकर गाली
देते हैं। यदि आप माघ की कुतिया, फागुन की कुतिया या किसी भी अन्य महीने की
कुतिया कहेंगे तो उसका न कोई अर्थ होगा, न कोई मानी। मतलब यह ठेठ हिंदी का ऐसा
ठाठ है, जिससे वही व्यक्ति परिचित हो सकता है, जिसने कातिक के महीने में
कुत्ते की 'अभिसार-लीला' देखी हो। व्यंग्य की मारकता और भाषा की व्यंजकता
देखिए कि कथाकार कला और संस्कृति के कथित पारखियों के उत्साह की तुलना कुत्ते
के कातिकाना उत्साह से करते हैं! प्रसंग यदि ढोंग और पाखंड का निकल आए तो वे
भला कहाँ चूकते हैं, 'अधेड़ उम्र की औरतें थीं जिनकी शक्लें विलायती
कास्मेटिक्स ने वीभत्स बना दी थी। लाल साड़ी, आई शैडो, काली के साथ काला...
पीली के साथ पीला। जापानी साड़ियों के पल्लू को लपेटने की कोशिश में अपने
अधखुले सीने दिखाती, कश्मीरी शालों को लटकने से बचाती या सिर्फ सामने देखती...
या जींस और जैकेट में खट-खट-खट-खट। संपन्नता की यही निशानियाँ हैं।'(वही,
पृ.88)
राजधानी के कद्रदानों की कथित दृष्टि संपन्नता जिस फूहड़ तरीके से प्रकट होती
है, उसे शायद इसी व्यंग्यमिश्रित भाषा में सफलतापूर्वक बयान किया जा सकता था।
कला और संस्कृति के जो असली पारखी हैं, उन्हें पंडित भीमसेन जोशी को सुनने के
लिए टिकट या पास उपलब्ध नहीं हो पाता और वे संगीत समारोह में जाने के लिए किसी
जुगाड़ या चमत्कार की उम्मीद में बाहर ही खड़े रह जाते हैं। कला और संस्कृति
के पारखी होने का दम भरने वाले जो लोग हॉल में जाते हैं, उन्हें न कला की कोई
समझ है, न संगीत सुनने-गुनने का कोई धैर्य! आर्ट सेंटर के डायरेक्ट की हकीकत
यह है कि 'पेंटिंग बेच-बेचकर कोठियाँ खड़ी कर लीं। अब सेनेटरी फिटिंग का
कारोबार डाल रखा है। यहाँ साले आर्ट-कल्चर करते हैं, क्योंकि इनको पब्लिक
रिलेशन का काम सबसे अच्छा आता है। पार्टियाँ देते हैं। एक हाथ से लगाते हैं,
दूसरे से कमाते हैं। अपनी वाइफ के नाम पर इंटीरियर डेकोरेशन का ठेका लेता है।
जैसे सूअर गू पर चलता है और उसे भी खा जाता है वही ये आर्ट-कल्चर के साथ करते
हैं। फैक्ट्री न डाली 'कला केंद्र' खोल लिया।'(वही, पृ.91) कैसी विडंबना है कि
मनुष्य को सभ्य और संवेदनशील बनाए रखने का जो कार्य कला करती है, उस कला के
प्रचार-प्रसार और व्यापार का जिम्मा उन लोगों ने लिया हुआ है जिनके लिए कला के
व्यापार और सैनेटरी फिटिंग के कारोबार में कोई विशेष अंतर नहीं है। जबकि
दासगुप्ता जैसे संगीत के पारखी हॉल के बाहर रहने के किए हाशिये पर जीने को
विवश है। कथाकार असगर वजाहत ने कला के इस त्रासद पक्ष के लिए जितनी कठोर
उपमाएँ हो सकती थीं, उन सबका इस्तेमाल किया है, ताकि एक शाश्वत क्रोध की
ईमानदार अभिव्यक्ति संभव हो सके! यह अनायास नहीं है कि आज कला के संरक्षक और
पारखी वे कला-अज्ञानी लोग हैं, जिनका वास्तविकता में कला-संस्कृति से कोई
वास्ता नहीं है। वे ऐसे पारखी लोग हैं जिनका उस खेल से कभी कोई संबंध नहीं
होता जिसके वे संरक्षक बने होते हैं।
असगर वजाहत की ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिनमें राजनीति के अँधेरे-उजाले पक्षों
के अतिरिक्त ब्यूरोक्रेसी के भीतर के सामंतवाद, हनक और छल-छद्म की पोल खोली गई
है, 'हर प्रदेश की सरकारों ने दिल्ली में अपने भव्य भवन बनवा रखे हैं, जिनका
काम केंद्र में, प्रदेश की हित-साधना कम और प्रदेश से आए उच्च सरकारी
कर्मचारियों, मंत्रियों, एम.पी.ओ. की फौज का आदर-सत्कार करना अधिक होता है।'
यह सब कुछ जनता के पैसे से जनता की भलाई के नाम पर किया जाता है, जिससे जनता
का कितना भला होता है यह तो अभी तक पता नही चला है, अलबत्ता जनता के सेवकों का
बहुत भला होता रहता है। कथाकार असरगर वजाहत को जनता के नाम पर किए जाने वाले
इन पाखंडों से बहुत कोफ़्त होती है और उनकी कथा-भाषा में व्यंग्य की तुर्शी
बढ़ जाती है। पर्देदारी को बेनकाब करने की प्रवृत्ति उनकी अधिकांश कहानियों की
मूल प्रवृत्ति-सी लगती है। अकादमिक जगत की अंदरुनी खींचतान, लड़ाई-झगड़े और
शह-मात के खेल जिस रोचक अंदाज में उन्होंने बयान किया है, उसकी 'गवाही' का
नमूना देखिए, 'आजादी के बाद पूरे देश में बड़े स्तर पर शोध-संस्थान,
अकादमियाँ, परिषदें आदि खुलना शुरू हो गई थीं। हर विषय की एक-एक परिषद या
शोध-संस्थान खुल रहा था। वे लोग जिनकी दाल विश्वविद्यालयों में न गल सकी थी,
तेजी से हाथ-पैर मारते इधर आ रहे थे। लेकिन इन शोध संस्थानों में कहीं 'बिहार'
छाया हुआ था, कहीं 'मद्रासी' का बोलबाला था, कहीं 'पंडित' जमे थे और कहीं
'पंजाबी' छाए हुए थे। कुल मिलाकर स्थिति उन लोगों के पक्ष में थी जो 'आँखें
रखते थे। (वही, पृ.105) ऐसी आँखें रखने वाले तो खुशामद से खुदा को राजी कर
लेते हैं और एक बार खुदा राजी हो जाए, तो उनका सिक्का जम जाता है। वह संस्था
उनकी जागीर बन जाती है जिसके उत्थान और कल्याण के लिए सरकार उन्हें नियुक्त
करती है और अपने लोगों को उसमें समाहित करने का जिम्मा सौंपती है।
पारखी और तेज-तर्रार आँखें रखने वाले लोगों के कारण इन क्षेत्रों में कहीं
जातिगत, कहीं समुदाय, कहीं भाषा, कहीं क्षेत्र, कहीं भाई-भतीजावाद के नाम पर
किए जाने भेदभाव की खबरें आती रहती हैं, अखबारों की सुर्खियाँ बनती रहती हैं,
लेकिन किसी तरह से दूर नहीं होती हैं। उनकी 'गवाही' कहानी इस तथ्य को बहुत
बारीकी से सामने लाने में सफल होती है राजनीति और भेदभाव ने किस प्रकार ज्ञान
का प्रकाश देने वाली संस्थाओं को अंधकार, अज्ञान और भ्रष्टाचार का सुरक्षित
चरागाह बनाकर छोड़ दिया है, 'प्रोफेसर सूरी, शर्मा और के.के. के चले जाने के
बाद निरंकुश होते चले गए। मीमो इशू करने में उन्होंने रिकार्ड तोड़ दिए।
चपरासियों तक की सी.आर. खराब कर दी। पूरे "ऑफिस के प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त
करने के नाम पर एक मासूम क्लर्क को सस्पेंड कर दिया। लिफ्ट में एक आशिक मिजाज
रिसर्च ऑफिसर ने किसी लड़की के गाल में काट खाया था। हालाँकि प्रायः इस पर कोई
कार्यवाही नहीं होती थी, पर इस बार प्रोफेसर सूरी ने इसे पुलिस केस बना दिया
और आशिक पर मुकदमा चलवा दिया। प्रत्येक रिसर्च ऑफिसर के जरूरी हो गया था कि वह
हर सप्ताह पूरे किए काम का विवरण प्रोफेसर सूरी को स्वयं जाकर दे। इस
कार्यवाही से पूरा ऑफिस उनसे नाराज था।'(वही, पृ.121)
इसके दूरगामी परिणाम से अनजान प्रोफेसर सूरी अपनी बेइज्जती का बदला लेने के
लिए जब ऑपिस में किसी को गवाह बनाना चाहते हैं, तो चपरासी तक उनके पक्ष में
गवाही देने को तैयार नहीं होता। 'गवाही' इस बात की भी गवाही देती है कि
अकादमिक जगत में तिकड़मी लोग ईमानदार विद्वानों को मुख्य धारा से काटकर किस
तरह हाशिये पर धकेल देते हैं और अपने आसपास चमचों की फौज खड़ी करके शैक्षणिक
संस्था को बर्बाद करके रख देते हैं। चापलूस पसंद और तिकड़मी लोग सफलता के शिखर
पर पहुँचकर जब बिल्कुल अकेले पड़ जाते हैं, सारे संगी-साथी पीछे छूट जाते हैं
तो बुरी तरह अपमानित होते हैं और त्रासदपूर्ण स्थिति यह होती है कि उनके लिए
सांत्वना के दो बोल बोलने वाला भी कोई व्यक्ति कार्यस्थल पर नहीं बचता है। इस
कहानी में जाति और क्षेत्र के नाम पर जो अस्मितावादी तत्व है, वह इस बात को
प्रमाणित कर देती है कि वर्चस्व और प्रतिरोध के संघर्ष में अंततः इन अस्मिताओं
से व्यापक सामाजिक हितों को नुकसान ही पहुँचता है और अकादमिक गुणवत्ता और
ईमानदारी बहुत पीछे छूट जाती है।
साहित्य में जमने के लिए 'खूँटा' तलाश करने वाले लेखक को किस तरह उपेक्षित और
अपमानित होकर गुमनामी के ब्लैकहोल में चले जाने को विवश होना पड़ता है, इसकी
एक बानगी देखिए, 'साहित्येश्वर इस वक्त अपने कमरे में सो रहे हैं। उनके
सिरहाने मुक्तिबोध बैठे बीड़ी पी-पीकर धुआँ छोड़ रहे हैं। उनके तकिए के नीचे
निराला बैठे गोश्त पका रहे हैं, प्रसाद 'कामायनी' लिख रहे हैं, प्रेमचंद अपने
ग्रामीण पात्रों के साथ जमींदारी व्यवस्था के तोड़ दिए जाने की जबर्दस्त वकालत
कर रहे हैं। अज्ञेय हवाई जहाज से उतर रहे हैं। जैनेंद्र एक बाल पकड़े बैठे
हैं, जिसकी खाल निकाल देने की चिंता उन्हें सता रही है। 'भैंसा-गाड़ी' चली जा
रही है। 'चित्रलेखा' मदिरा के नशे में चूर चित्रगुप्त की ओर अधखुली आँखों से
देख रही है। 'नई कहानी' का आंदोलन पड़ा कराह रहा है। साठोत्तरी कहानी और नई
कविता के प्रवर्तक बैठे गप्पें मार रहे हैं। जनवादी कहानी अंगड़ाई ले रही है।
कहने मतलब यह कि साहित्येश्वर सो रहे हैं और पूरा हिंदी साहित्य या कहें हिंदी
साहित्य की परंपरा या कहें हिंदी की पुस्तकें उनके बिस्तर पर इधर-उधर खुली
पड़ी हैं।'(वही, पृ.125) साहित्य के ईश्वर जिन्हें वरदान दे दें, वे साहित्य
के महारथी हो जाते हैं, जिनकी ओर न ताकें वे उपेक्षा और अचर्चा के गर्त में
पड़े रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। अच्छी रचना करके जो लोग साहित्य में अपना
मुकाम बनाना चाहते हैं, अपने दम पर कुछ करने की अभिलाषा पाले बैठे हैं, उन
सबको साहित्येश्वर के खूँटे से नहीं बँधने के कारण बुरी तरह निराशा हाथ लगती
है, 'बहुत उदास, निराश, थके और टूटे हुए-से वे एक शाम अपने पुराने खूँटे के घर
पहुँच गए। खूँटे के पास तीन-चार महीने बाद गए थे। कहाँ ये हाल था कि रोज शाम
खूँटे के घर हाजिरी बजाया करते थे, बेगार करते थे और दूसरे लोगों पर रौब
झाड़ते थे कि खूँटा उनको बेटे की तरह समझता है। बहरहाल पहुँचे। उनको देखते ही
खूँटे ने उपेक्षा से उनकी तरफ देखा। उन्होंने सहन किया। गर्दन झुका ली और खड़े
रहे।'(वही, पृ.135) साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्म की अंदरूनी दुनिया से
वाकिफ लोग सार्वजनिक तौर पर भले इस पर कुछ न कहें, लेकिन यह तथ्य इस बात की
पुष्टि करता है कि इन क्षेत्रों में जमने और टिके रहने के लिए कुछ लोग पहले से
'खूँटे' तलाश लेते हैं और कुछ संघर्ष और तिक्त अनुभवों से खूँटे की शरण में
जाने को विवश हो जाते हैं।
हिंदुस्तान के अफसरों और नेताओं को किस तरह चापलूसी और चमचागिरी पसंद है, किस
तरह की उनकी कार्य-शैली है, किस तरह वे जातिवादी, सामंतवादी, क्षेत्रवादी और
समुदायवादी दृष्टि से काम करते हैं - इसकी बानगी असगर वजाहत की अनेक कहानियों
में देखने को मिलती है। आजादी के बाद देशी हुक्मरानों और देशी के वेश में
विदेशी मानसिकता के हुक्कामों की हनक से आम आदमी किस कदर डरा-सहमा रहता है,
देखिए, 'कहते हैं अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से जहाँ तक हो सके बचना
चाहिए। बचता मैं भी हूँ लेकिन क्या करूँ, कि यह सिर पर आ पड़ी है। अब
हुक्मउदूली की हिम्मत मुझमें है नहीं। ऐसा नहीं कि अठारह साल की नौकरी के
दौरान मैं ऊँचे अधिकारियों से नहीं मिला हूँ। मिला हूँ और मानता हूँ कि ऊँचे
अधिकारियों से मिलने का एक तरीका, ढंग और अंदाज होता है। एक कायदा होता है, एक
करीना होता है। ऐसा नहीं कि मुँह उठाए इस तरह पहुँच गए जैसे ससुराल जाते हैं।
बड़े अधिकारियों की निगाह पैनी और पसंद-नापसंद बहुत पक्की होती है। पसंद कर
लिया तो पौ-बारह और अगर आपकी किसी बात पर चिढ़ गए तो बस काला पानी।'(वही,
पृ.148) सैद्धांतिक रूप से हाकिम 'पब्लिक सर्वेंट' होते हैं, यानी जनता के
सेवक लेकिन आज भी जनता के लिए अधिकारियों की यही छवि है। जनता तो जनता, अफसर
के मातहत तक आज भी उसी तरह अपने अधिकारियों से डरते हैं और किसी बात से नाराज
होकर वे उनका अहित न कर दें, इसलिए हमेशा चापलूसी करते रहने को भी विवश होते
हैं, 'श्री त्रि का काम राजदूत की चिंताओं को अपनी चिंता बना लेना था।
उन्होंने राजदूत से कहा, 'सर, मैं खानदानी रसोइया हूँ।' राजदूत ने उन्हें
घूरकर देखा क्योंकि इससे पहले वे अपने आपको अलग-अलग अवसरों पर खानदानी मोची,
खानदानी धोबी, खानदानी माली आदि बता चुके थे। पर राजदूत इतिहास में नहीं गए।
कूटनीति का काम इतिहास में जाना नहीं है।'(वही, पृ.269) अपना निजी हित साधने
के लिए और कई बार अफसर की कुदृष्टि से बचने के लिए श्री त्रि जैसे विदेश सेवा
के मुलाजिम अफसर की चमचागिरी करने के लिए बाध्य होते हैं। अफसर को
येन-केन-प्रकारेण खुश करने के लिए मौके की नजाकत देखकर वे कुछ भी बन जाते हैं,
जिसका एकमात्र उदेश्य अफसर की कृपा प्राप्त करना होता है। उद्धरण के अंतिम
वाक्य में कूटनीति पर अद्भुत व्यंग्य है - कूटनीति का काम इतिहास में जाना
नहीं है। इतिहासबोध से रहित कूटनीति आज भारतीय कूटनीति का तेजी से एक हिस्सा
बनता जा रहा है।
इसके दूसरे पहलू को भी देखना जरूरी है, जो इसी कहानी में है। श्री त्रि जैसे
सरकारी मुलाजिम अपने हाकिम की चापलूसी करने के लिए क्यों विवश होते हैं, इसकी
पृष्ठभूमि जान लेना जरूरी है, 'जहाँ श्री त्रि की नई पोस्टिंग हुई, वहाँ एक
दलित राजदूत था। श्री त्रि पोस्टिंग पर पहुँचते ही दलित हो गए। लेकिन राजदूत
को विश्वास नहीं हुआ। वह समय-कुसमय कभी शराब के नशे में श्री त्रि को अपमानित
किया करता था। उन्हें उलझन में डालकर मजा लेता था। रोज श्री त्रि से उनके
रक्तचाप की खबर लेता था और उसी के अनुसार उन्हें आदेश देता था।' आदेश भी ऐसा
कि जिसे सुनकर साँप-छुछुंदर वाली स्थिति हो जाए-न निगलते बने, न उगलते। राजदूत
का आदेश माने तो दिल्ली स्थित विदेश मंत्रालय के अफसर का गुस्सा झेले और आदेश
न माने तो राजदूत की प्रताड़ना सहे, 'मुझे मालूम है कि श्री 'फ' को अगर रात
में जगा दिया जाए तो उन्हें नींद नहीं आती और सुबह कब्ज हो जाता है। 'मोशन'
नहीं होगा तो उन्हें गुस्सा आ जाएगा, गुस्सा आएगा तो कब्ज ज्यादा बढ़ेगा। कब्ज
बढ़ेगा तो गुस्सा आएगा... जाओ श्री 'फ' को फोन करो।' (वही, पृ.265) इस तरह
सरकारी महकमों में हाकिम अपने मातहतों का किस प्रकार अकारण उत्पीड़न करते हैं
और इसे आत्महीन, भाषाहीन चापलूस बन जाने को विवश कर देते हैं! अस्मितावादी
राजनीति के पैरोकार इस बात से शायद ही इत्तफाक रखें कि अस्मिता के नाम पर की
जाने वाली राजनीति अहं को तो तुष्ट करती है, लेकिन इन कृत्यों से मानवता और एक
संविधान प्रदत्त एक नागरिक की गरिमा की हार होती है।
असगर वजाहत ने अपनी कहानियों में हर तरह की शैलियों को आजमाया है - कई-कई
खंडों की लघुकथा शैली में, संवाद-शैली और उत्तम पुरुष शैली के 'मैं' के रूप
में अपनी बेचैनियों और विकलताओं को व्यक्त किया है। अफसरशाही और अकादमिक जगत
के नग्न यथार्थ के साथ-साथ समाज के निरंतर सांप्रदायिक और क्रूर होते चले जाने
की कथा को बहुत व्यथा के साथ व्यक्त किया है। एक बड़ा रचनाकार आहत मानवता और
विलुप्त होती संवेदनशीलता के पक्ष में पूरी ताकत से बोलता है, लेकिन इसके बाद
भी यदि उसे समाज पर कोई प्रभाव पड़ता दिखाई न दे तो हताशा तो होती है, 'हो गया
व्यर्थ जीवन मैं रण में गया हार!' जब महाप्राण निराला ने यह पंक्तियाँ लिखी
थीं, तो उनके जहन में अपने प्रयासों के व्यर्थ होते जाने की शायद ईमानदार
व्यथा ही थी! जब 'तमाशे में डूबा देश' अपने राग-रंग और विनाश के बल पर हासिल
की गई समृद्धियों के नशे में इतरा रहा हो, तो एक कथाकार का यह सोचना, 'अब
मैंने कहानियाँ लिखना छोड़ दिया है क्योंकि कहानी लिखने से कोई बात नहीं बनती।
झूठे-सच्चे पात्र गढ़ना, इधर-उधर की घटनाओं को समेटना, चटपटे संवाद लिखना,
अपनी पढ़ी हुई किताबों की जानकारियों और अपने ज्ञान को कहानी में उलट देने से
क्या होता है? मैं अपने दूसरे कहानीकार मित्रों को सलाह देता हूँ कि वे
कहानी-वहानी लिखने का काम छोड़ दें। हमारे देश में जहाँ रोज, हर पल, हर जगह
कहानी से ज्यादा निर्मम घट रहा हो वहाँ कहानी लिखना बेकार की बात है। अपने
चारों तरफ निगाह उठाकर देखिए आपको बिखरी पड़ी कहानियाँ देखकर अपने कहानीकार
होने पर शर्म आएगी जो मुझे आ चुकी है और मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया
है।'(वही, पृ.306) स्थिति वाकई भयावह है और 'तमाशे में डूबा देश' के नैरेटर ने
जो बयान किया है वह भी काफी हद तक सच है, लेकिन कथाकार असगर वजाहत ने तमाशे
में डूबे देश की हकीकतबयानी से मुँह नहीं मोड़ा है। अस्मितावादी विमर्श के इस
दौर में जब मानवीय भावनाओं, मानवीय संवेदनाओं की गहराई/सचाई को 'विमर्श' के
पैमानों से मापा जा रहा हो, तब व्यापक मनुष्यता के पक्ष में निरंतर मजबूती से
बोलने वाले रचनाकार से यही अर्ज करूँगा, 'बारिशें आती हैं तूफान गुजर जाते हैं
/ कोहसारों की तरह पाँव जमाए रखिए!'