माही के विवाह के मात्र बीस दिन ही शेष बचे थे। सावित्री चिंतित थी। इतना कम
समय ढेर सारी तैयारियाँ पूरी भी हो पाएगी। बेटी की माँ होने के कारण सावित्री
की चिंता स्वाभाविक थी। दीनानाथ का ट्रांसफर दूसरे शहर में होने के कारण अब
उनके पास छुट्टियाँ भी कहाँ बची थीं। माता जगदंबा की बीमारी के चलते इतनी
छुट्टियाँ वे पहले ही ले चुके थे। कपड़े वगैरह की खरीददारी तो सावित्री ने माही
के साथ जाकर काफी हद तक कर ली थी, लेकिन ऐसे बहुत से काम बाकी थे। जो दीनानाथ
के बगैर नहीं हो सकते थे। वैसे भी दीनानाथ ने सोना जेवर की अकेले खरीददारी
करने को सख्त मना किया था। उनका कहना है, ये सुनार औरतों को ठग लेते हैं।
औरतें सिर्फ डिजाइन देखती हैं। उन्हें रत्ती ग्राम यानि वजन का कोई ध्यान नहीं
रहता। जबकि ऐसा नहीं था। सावित्री डिजाइन पसंद करती, और माही कल्कुलेटर लेकर
रत्ती ग्राम का हिसाब जोड़ लेती।
लग्न तेज होने के कारण गेस्ट हाउस मनचाहा न मिल पाया था। जो जल्दबाजी में बुक
कराया, वह काफी छोटा लग रहा था। चान्स की बात चेतन ने अपने दोस्त के बताने पर
एक बड़ा गेस्ट हाउस बुक करा दिया। साथ ही पहले गेस्ट हाउस के मालिक ने एडवांस
के रुपये वापस करने से इनकार कर दिया, लेकिन रुपये न मिलने पर भी सभी को संतोष
था। यदि घर की पहली शादी में खुली जगह न मिलती तो कच-कच होती।
माता की चिंता घर में सभी को हर वक्त लगी रहती, क्योंकि इधर बीच वह पाँच महीने
के अंदर चार बार अस्पताल होकर आईं थीं। शादी रामो-राम निपट जाए। सभी यही मना
रहे थे। माता शादी में सम्मिलित होने आने वाली अपनी दोनों बेटियों का इंतजार
बेसब्री से कर रही थीं।
घर में पुताई व मरम्मत का काम भी चल रहा है। इन सब कामों के साथ सबसे जरूरी जो
काम है, वह माता की सेवा व उनकी जरूरतों का ध्यान रखना, समय पर दवाइयाँ देना।
एक बार सावित्री अपना लंच या डिनर करना भूल सकती है, लेकिन माता की दवाइयाँ
नहीं भूल सकती। उस पर भी माता जी रोज एक नई फरमाइश करती।
'बहू, आज छोले-भटूरे बना कर खिला देना शाम को, कई रोज से मन कर रहा है खाने
का।'
'माता जी मैं तो बना दूँगी, लेकिन डॉक्टर ने तो आपको ये सारी चीजें खाने को
मना किया है।' सावित्री ने डरते हुए धीमे स्वर में कहा।
'अरे बहू चार दिन की जिंदगी है। मर कर चली जाऊँगी, मरना तो है ही एक दिन, फिर
क्यों न खा पीकर मरूँ।'
'वो तो ठीक है, माता जी लेकिन बीमार होने पर तकलीफ भी तो आपको ही होती है।'
'याद है तुझे? पिछली बार जब अस्पताल गई थी। पूरे एक महीने से परहेज कर रही थी।
फिर भी अस्पताल जाना पड़ा तो क्यों अपने आपको तकलीफ दूँ। ये न खाओ वो न खाओ।'
माता जी भी जानती हैं, कि उन्हें इस तरह का मसालेदार खाना मना है, लेकिन
बेचारी क्या करें वो बूढ़ी हुई हैं उनकी जुबान तो नहीं। जुबान तो चक्खा मिट्ठा
खाने के लिए लुपलुपाती ही रहती है। माता जी की बातें सुनकर सावित्री चुपचाप चल
दी। रसोई की ओर, चने भिगोने। आज शनिवार था, दीनानाथ हर शनिवार रात को आते हैं।
भोजन के समय खाने की मेज पर छोले भटूरे देखते ही, दीनानाथ भड़क उठे सावित्री के
ऊपर। 'माता जी को तुम यह खाना खिलाओगी? जबकि तुम्हें मालूम है, माता जी के लिए
तेल मसाला सब जहर है, लेकिन तुम कहाँ ये सब समझने वाली। तुम्हें इन बातों से
क्या लेना देना?' सावित्री को इतना सुनना पड़ा। दीनानाथ से, लेकिन माता जी को
जैसे कोई फर्क नहीं पड़ा। सावित्री सिर झुकाए चुपचाप बाउल में छोले परोसती रही।
प्लेट लग जाने पर माता जी बिना कुछ बोले खाने का आनंद लेने लगीं। दीनानाथ और
तीनों बच्चों ने भी खाना शुरू कर दिया। प्लेट में खाना परोसकर बैठ तो सावित्री
भी गई, लेकिन उससे खाना खाया नहीं जा सका। सावित्री माता जी का मुँह देखती
रही, इस आस में, कि माता जी कुछ तो उसके पक्ष में बोलेंगी, लेकिन ऐसा नहीं
हुआ। ये पहला वाकया नहीं था। सत्ताइस सालों के वैवाहिक जीवन में अनगिनत बार
सावित्री इसी तरह आहत होती आई थी।
आज माही का तिलक जाना था। लड़के वालों की तरफ से एक से बढ़कर एक महँगे सामान की
डिमांड की गई थी। वैसे तो माही की ससुराल में थे तो कुल सात प्राणी, लेकिन
कपड़ों की माँग तीस लोगों के लिए की गई थी। फल, मेवे, मिठाई की पैकिंग साधारण
थाली में नहीं, बल्कि डिजाइनर ट्रे में होनी चाहिए। अन्य उपहारों की पैकिंग भी
कुछ अलग हटकर होनी चाहिए। जिससे लोगों में प्रभाव अच्छा पड़े। ये आर्डर माही की
होने वाली ससुराल से आया था। इस वक्त उनके सभी आदेश दीनानाथ के सिर आँखों थे।
भई लड़की वाले जो ठहरे। उनके सभी आदेश का पालन करना फर्ज था दीनानाथ का, लेकिन
माता जी को यह सब पसंद नहीं आ रहा था।
'अरे ये सब लड़केवालों के चोचले हैं। दिखावेबाजी में ज्यादा विश्वास करते हैं।'
माता जी ने नाराजगी जाहिर की।
'दद्दो आजकल इसी का जमाना है। परेशान क्यों होती हो? मेरी शादी में पूरी कसर
निकाल लेना।' चेतन ने माहौल को हल्का करने के लिए मजाक के लहजे में कहा।
'मैं तो तेरे ब्याह में कोई कानूनबाजी नहीं करने वाली। हर माँ-बाप अपनी बेटी
की शादी में अपनी हैसियत से बढ़कर ही करना चाहते हैं। फिर कुछ माँग कर छोटे
बनने की क्या जरूरत है।' सावित्री बेटी व बेटे दोनों की ही माँ होने के कारण
दोनों की मानसिकता समझती है। इसी कारण अपना पक्ष बड़ी सहजता से रखा।
माता जी शादी में होने वाली सभी तैयारियों व खर्चे की तुलना अपनी दोनों
बेटियों की शादियों से कर रही थीं, जबकि पंद्रह बीस साल पहले और आज के समय में
जमीन आसमान का अंतर आ चुका है। दरअसल पिता के असमय गुजर जाने की वजह से अपनी
बहनों का ब्याह दीनानाथ को ही करना पड़ा था। माता जी की कही हर बात से ऐसा
लगता, जैसे दीनानाथ ने अपनी बहनों की शादी में हाथ रोक कर खर्च किया, और बेटी
की शादी में फिजूलखर्ची कर रहे हैं। जबकि समय की माँग के हिसाब से जितना जरूरी
होता, उतना ही खर्च हो रहा था। दीनानाथ को दो चार सालों में अपनी छोटी बेटी
मानी का भी ब्याह करना है।
दीनानाथ के दोनों छोटे भाई जो इसी शहर में रहते हैं। हर रोज आफिस से लौटते
वक्त शादी वाले घर का मुआयना अवश्य करने आ जाते। चल रही तैयारियों की कोई राय
सलाह तो न देते, लेकिन घर में हो रहे हर काम की नुक्ताचीनी अवश्य करते। शादी
का आमंत्रण पत्र कैसा है, की उत्सुकता कम, उसमें अपने व अपने बच्चों के नाम
क्रमानुसार छपे हैं या नहीं, इसकी चिंता अधिक थी। भाइयों की पत्नियों का भी
ठीक वही हाल।
दोनों ननदें भी कुछ कम नहीं, सिर्फ नेग लेने में अपनापन, बाकी समय ऐसा लगता
जैसे किसी मोहल्ले-टोले का व्यवहार निभाने आई हों। जिम्मेदारी व अपनत्व जैसी
कोई बात न दिखती। घर में छोटे बड़े सभी कामों के लिए सावित्री फिरंगी की तरह
नाचती रहती।
देवरानियों व ननदों को प्रपंच से ही फुर्सत नहीं मिलती कि माता जी की दवाइयाँ
या उनकी ही जरूरतों का ध्यान रख लें, जिससे सावित्री अपने को कुछ हल्का महसूस
कर सके। माता जी का परहेजी खाना भी सावित्री अपने से ही पकाती। माता जी के
किसी काम में सावित्री को आलस्य नहीं बल्कि उनकी सेवा पूरी श्रद्धा से करतीं।
सावित्री का मानना है कि जैसा आज बोएँगे, वैसा ही कल काटेंगे। इन सबके बीच घर
में खुशी का माहौल था। पारिवारिक रिश्तों के साथ ही दीनानाथ और सावित्री ने
कुछ व्यावहारिक रिश्ते भी बनाए। जहाँ पारिवारिक रिश्ते मात्र पारिवारिक ताने
बाने के कारण आपके साथ दिखाई देते हैं, वहीं दूसरी ओर व्यावहारिक रिश्ते पूर्ण
सहयोग, प्रेम और पूरे विश्वास के साथ आपके सुख व दुख हर मौकों में आपके साथ
होते हैं। दीनानाथ के कुछ दोस्त अपने परिवार के साथ उपस्थित हैं। माता जी भी
पूरे जोश में हैं, पोती का ब्याह जो है।
'अरे भई तुम सब क्या कर रही हो? ब्याह वाले घर में ढोल-मंजीरे तो बजते ही रहने
चाहिए, लेकिन आज की औरतों को तो जैसे नाच-गाने में रुचि ही नहीं है। जब तुम
लोगों जैसी उम्र थी, मैं पास पड़ोस के विवाह जैसे उत्सव में गाने-बजाने का मौका
ढूँढ़ा करती थी।' माता जी ने अपनी बेटियों बहुओं व अन्य सभी को अपने उत्साह को
बताकर उन्हें भी उत्साहित किया। 'अरे माता जी अभी आपकी कौन सी उम्र निकल गई
हैं, ये लीजिए।' सावित्री ने ढोलक रख दी, और माता जी भी अपनी बीमारी भूलकर
पूरे जोश में गाने-बजाने में डूब गईं। घर में उपस्थित सभी महिलाओं व बच्चे भी
संगीत का लुफ्त उठाने लगे।
पूरा घर दुल्हन की तरह सज चुका था। फूलों के माले व बिजली की लड़ियाँ पूरे घर
में जगमग करने लगीं। घर के लोगों के चेहरे खुशियों से चमक रहे थे। दीनानाथ भी
काफी प्रसन्न दिख रहे थे। हो भी क्यों न, अब सारे कामों की जिम्मेदारी बेटे ने
अपने ऊपर जो ले ली थी।
'पापा आपको सिर्फ बारातियों की आवभगत भर करनी है। बाकी कोई टेन्शन लेने की
जरूरत नहीं है। किसी रिश्तेदार चाचा, मामा, मौसा, फूफाजी या अन्य किसी को भी
कोई काम में उलझाने की जरूरत नहीं है। मेरे इतने सारे दोस्त किस दिन काम
आएँगे। हम लोगों ने अपने काम बाँट लिए हैं। बस आप हम लोगों को निर्देश
करिएगा।' दीनानाथ बेटे की समझदारी से गद्गद हो उठे।
गेस्ट हाउस के कार्नर वाले रूम में माता जी के सोने का प्रबंध किया गया। जिससे
ज्यादा शोर-गुल उनके कमरे तक न पहुँचे। सावित्री ने माही और मानी को भी उनके
साथ में रहने को कहा, जिससे दोनों दद्दो का ख्याल रख सकें।
बारात आने का समय हो रहा था। माही पार्लर सजने गई थी। उसके साथ मानी भी गई हुई
थी। सावित्री ने माता जी को सिल्क की साड़ी पहना कर तैयार कर दिया। खुद भी
भागम-भाग के बीच थोड़ा वक्त निकालकर तैयार हो गई थी। दीनानाथ को कई बार बुलवा
भेजा था, लेकिन उनके पास टाइम इतना भी नहीं, कि दस मिनट कपड़े बदल लें।
'अरे भई मुझे क्या करना है चेंज करके। मैं तो बेटी वाला हूँ। जब बेटे की बारात
में जाऊँगा, तब मुझे देखना, तुम पहचान ही नहीं पाओगी।' सावित्री के कई बार जोर
देने पर दीनानाथ अंदर आए। इतनी व्यस्तता के बाद भी काफी प्रसन्न दिख रहे थे।
एक पिता अपनी बेटी की एक नई जिंदगी की शुरुआत के लिए उसे एक अच्छा जीवन साथी
और एक खुशहाल परिवार व उत्तम घर दिला सके। इससे बड़ी तमन्ना और खुशी, दूसरी
क्या हो सकती है, जो आज दीनानाथ की पूरी होने जा रही थी। दीनानाथ पूरे जोश व
उत्साह के साथ तैयार थे। बस काम में कोई अड़चन न आए, इसके लिए माता जी का
आशीर्वाद लेने उनके पास पहुँचे और माता जी के पैर छूकर बोले :
'माता जी, आशीर्वाद दीजिए, बारात जैसे हँसी-खुशी हमारे दरवाजे आए। वैसे ही
हमारे स्वागत सत्कार से खुशी-खुशी विदा होकर जाए।'
'तू क्यों तू चिंता कर रहा है दीना? मुझे पूरा विश्वास है, जितना सोच रहा है,
उससे बढ़कर तू कर पाएगा। बस समझदारी से काम लेना।' माता जी ने दीनानाथ के सिर
पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
चेतन दोनों बहनों से छोटा होने के बावजूद आज उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह
माही का बड़ा भाई हो। पूरी तन्मयता से अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था। बारात के
ढोल दूर से सुनाई पड़ने लगे। स्वागत वास्ते प्रत्येक बाराती के लिए गले में
फूलों की माला व एक-एक दीवार घड़ी गिफ्ट में दी गई। बारातियों में से कुछ लड़कों
ने ड्रिंक कर रखी थी। नषे में झूमते-नाचते लड़कियों पर फब्तियाँ भी कस रहे थे।
उन्हीं लड़कियों में दीनानाथ के छोटे भाई की भी बेटी थी। बहन पर छींटाकसी करते
देख भाई, बाराती लड़कों से हाथापाई पर उतर आया। बेटे को समझाने के बजाय दीनानाथ
के भाई भी हत्थे से उखड़ गए। चेतन और दीनानाथ ने समझदारी से मामला शांत कराया।
माता जी को, सावित्री ने, माही का जयमाल देखने के लिए कुछ देर पंडाल में
बिठाया। माता जी माही के दूल्हे को देख बहुत खु्श हुईं। स्टेज में जाकर
आशीर्वाद देते हुए फोटो भी खिंचवाई। सावित्री ने उन्हें खाना व दवाई खिलाई।
उन्होंने सोने की इच्छा जाहिर की वैसे भी उन्हें ज्यादा देर ठंड में नहीं
बिठाना था।
'चलिए माता जी अंदर, वरना आपको ठंड लग जाएगी।' सावित्री ने माता जी से कहा
'हाँ चलो अब मैं कुछ देर सो लेती हूँ। कन्यादान भी करना है माही का। मुझे उठा
देना।' माता जी उठकर अपने कमरे की ओर चल दी। भाँवरे को कुछ ही वक्त बचा था।
सुबह ट्रेन का समय भी जल्दी का था। बारात जल्दी ही विदा होगी। माता जी को रजाई
उढ़ाकर सावित्री फिर से पंडाल में आ गई।
दूल्हे ने पंडित जी से भाँवरे शार्टकट में करने को कहा पंडित हँसे यानि समझ गए
आधुनिक स्टाइल में ही कराने हैं फेरे। कन्यादान का समय भी आ गया। सावित्री ने
दीनानाथ से कहा -
'जरा सुनिए माता जी को जगाकर लेते आइए, कान बाँधकर शाल लपेटकर लाइएगा।'
सावित्री पूजा की थाल बैठी सजा रही थी। दीनानाथ गए माता जी को जगाने लेकिन कई
बार हिलाने पर भी माता जी न जगीं। दीनानाथ घबराकर दौड़े। फैमिली डॉक्टर जो
दीनानाथ के दोस्त भी हैं। दूसरे कमरे में सो रहे थे। दीनानाथ ने उन्हें झिंझोड़
कर उठाया।
'गौतम, देखो माता जी के शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही है।' दीनानाथ की बात
सुन वे बिना समय गँवाए दौड़े माता जी के कमरे में। उन्हें हिलाया डुलाया नाड़ी
चेक की, और रजाई से मुँह ढक दिया। दीनानाथ ने माता जी के मुँह से रजाई हटाई
उनसे लिपट गए, जैसे ही रोने की मुँह से आवाज निकलने को हुई गौतम ने उनके मुँह
पर अपना हाथ रख दिया।
'क्या कर रहे हो दीना?' दीनानाथ आश्चर्य भरी नजरों से गौतम को देखने लगे। तब
उन्हें गौतम ने धैर्य रखने को समझाया।
'दीना! माता जी अब हमें छोड़कर जा चुकी हैं। वे अब किसी भी कीमत पर वापस नहीं
आएँगी, लेकिन तुम्हारी इस तरह की भावुकता बेटी की विदाई अवश्य रोक देगी।
तुम्हारा महीनों का किया परिश्रम व्यर्थ हो जाएगा।' गौतम ने दीनानाथ को माँ के
पास से उठाकर अपने कंधे से लगा लिया। दीनानाथ ने अनसमझी नजरों से गौतम को
देखते हुए पूछा।
'तुम कहना क्या चाह रहे हो?'
'मात्र तीन घंटे शेष हैं, विदाई को, इस बीच तुम्हें अपनी अंतर्वेदना को दबाना
होगा। मैं जानता हूँ ये इतना आसान नहीं है। इसके लिए तुम्हें अपने हृदय पर
पत्थर रखना होगा।' दीनानाथ जो कुछ देर पहले खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। वही
अब मर्मान्तक पीड़ा से निर्वाक मृत माँ को एकटक देख रहे थे। मानो संज्ञाविहीन
हो गए हों। गौतम ने माँ का चेहरा फिर से रजाई से ढक दिया। दीनानाथ के कमर में
हाथ डालकर लगभग खींचते हुए उन्हें कमरे से बाहर ले आए। दीनानाथ की आँखों से
आँसुओं की धारा फिर बह निकली। गौतम ने रुक कर जेब से रूमाल निकाला। दीनानाथ के
आँसू पोंछे और बेटी की खुशी का वास्ता दिया।
'दीना ये आँसू तुम्हारे, अपनी जन्म देने वाली माँ के लिए बह रहे हैं न? कुछ
देर इन्हें, उसके लिए रोक ले जो तुझसे जन्मी है। यह विनती है तुझसे मेरी।
बारात बिदा होने तक सँभाल अपने आपको।' जो पैर कुछ देर पहले दौड़ते न थक रहे थे।
मानो अब बेजान हो गए हों। कुछ कदम भी चलने को तैयार न थे। गौतम के सहारे से
पंडाल तक पहुँचे उन्हें देखते ही सावित्री ने पूछा।
'अरे आप तो माता जी को लेने गए थे, कहाँ हैं माता जी?'
'भाभी माता जी बहुत गहरी नींद में हैं। मुझे लगता है, उन्हें इस तरह कच्ची
नींद में जगाना ठीक नहीं होगा। उन्हें सोने दीजिए।' गौतम ने दीनानाथ को बोलने
का मौका ही नहीं दिया। तभी पंडित जी बोले 'कन्या के माता-पिता को बुलाइए।'
सावित्री और दीनानाथ दोनों बेटी का कन्यादान करने बैठ गए। दीनानाथ के आँसुओं
के आवेग और कंठ स्वर में घोर युद्ध होने लगा। दोनों ही पहले निकलने को आतुर
थे।
दीनानाथ का शरीर स्पंदन करने लगा। गौतम ने दीनानाथ के कंधों को हौले से दबाया।
आँखों के इशारे से धैर्य रखने को कहा। हवनकुंड के उठ रहे धुएँ ने दीनानाथ के
चेहरे पर उभर आए वेदना के भावों को ढक दिया।