अपने इस आलेख का आरंभ मैं एक उद्धरण से करना चाहूँगा। रमेश आजाद : (किशोर
	साहित्य की संभावनाएँ, संपादक : देवेंद्र कुमार देवेश, पृ. 178 - "बाल साहित्य
	की यथास्थिति पर विचार भारत में हिंदी साहित्य में खड़ी बोली के विकास से करना
	पड़ेगा। इससे पहले संस्कृत की बालोपयोगी और किशोरोपयोगी रचनाएँ हमारे यहाँ थीं
	- जिनमें कथासरित्सागर, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ, ईसप की कहानियाँ आदि
	थीं। उन्नीसवीं सदी तक यूरोप का प्रभामंडल भी व्याप गया था। राबिन्सन क्रूसो,
	डेविड कॉपरफील्ड, सिंदबाद आदि पुस्तकों की किशोरोपयोगी कहानियों से भारतीय
	बच्चे परिचित हो चुके थे। हमारे यहाँ भी इसका असर पड़ रहा था और इस तरह के
	साहित्य का सृजन होने लगा था। संस्कृत और अंग्रेजी पुस्तकों के जोर-शोर से
	अनुवाद हुए। हिंदी खड़ी बोली तब अपने विकास की ओर अग्रसर ही थी। फिर भी
	भारतेंदु हरिश्चंद्र सत्य हरिश्चंद्र और अंधेर नगरी चौपट राजा जैसी नाट्य
	कृतियाँ हमारे किशोरों के लिए लिख रहे थे, जो शिक्षाप्रद तो थीं ही, सामाजिक
	चेतना को उजागर करनेवाली रचनाएँ भी थीं। ...भारतेंदु युग के तत्कालीन अनेक
	लेखकों ने अपने रचनात्मक सहयोग से न केवल खड़ी बोली की प्राण-प्रतिष्ठा में
	सहयोग दिया, अपितु उन्होंने बालोपयोगी, किशोरोपयोगी और शिक्षाप्रद रचनाएँ
	प्रचुर मात्रा में लिखीं। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि अनेक विद्वान
	हैं, जिनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। द्विवेदी युग तक आते-आते यह धारा
	काफी विस्तृत और विकसित हुई। प्रेमचंद के जमाने में खुद प्रेमचंद, जहूरबख्श,
	सुदर्शन जैसे कहानीकारों की अनेक कहानियाँ आईं, जिनमें आज भी प्रेमचंद की
	कहानी 'ईदगाह' को कोई भुला नहीं सकता। आज भी अनेक ऐसे रचनाकार हैं, जिनका
	योगदान इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा। बाल साहित्य और किशोर साहित्य के
	सृजन, संपादन और प्रयोगों की दिशा में मौलिक उद्भावनाओं का समावेश करने वाले
	हरिकृष्ण देवसरे हैं...। इसके साथ ही श्रीप्रसाद, विभा देवसरे, प्रकाश मनु,
	प्रयाग शुक्ल, देवेंद्र कुमार, दिविक रमेश, सुरेंद्र विक्रम, मधु पंत, श्याम
	सुशील सरीखे अनेकानेक लेखक हैं, जिनका योगदान बाल साहित्य और किशोर साहित्य
	में भुलाया नहीं जा सकता।" इसके साथ ही जयप्रकाश भारती जी के मत का सहारा लेकर
	यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ तक बालक की पहली पुस्तक का प्रश्न है, तो वह
	1623 ई. में जटमल द्वारा लिखित 'गोरा बादल की कथा' मानी जाती है। मिश्र बंधुओं
	ने कथा का गद्य में कहा जाना मानते हुए पुस्तक की भाषा में खड़ी बोली का
	प्राधान्य माना है। इस कृति में मेवाड़ की महारानी पद्मावती की रक्षा करने वाले
	गोरा-बादल की कथा है। उपर्युक्त मत यहाँ देने का आशय इतना भर है कि हल्के से
	बताया जाए कि हिंदी बाल-साहित्य में कहानी या गद्य लेखन का संकुचित सा, विशेष
	रूप से पूर्वपीठिकानुमा परिदृश्य क्या है।
	निःसंदेह जहाँ तक हिंदी में बाल कहानियों के उदय का प्रश्न है वह भारतेंदु युग
	से ही मान लिया गया है। इस युग में एक ओर अनूदित कहानियाँ मिलती हैं जिनमें
	संस्कृत कहानियाँ भी सम्मिलित हैं तो दूसरी और कुछ मौलिक कहानियाँ भी उपलब्ध
	हो जाती हैं। शोध के अनुसार यह भी मान लिया गया है कि शिवप्रसाद सितारे हिंद
	ने सबसे पहले "राजा भोज का सपना", "बच्चों का इनाम", और "लड़कों की कहानी" जैसी
	मौलिक कहानियाँ लिखीं। वस्तुतः उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी बालसाहित्य की
	प्रगति का प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों
	में कहा जाए तो - "भारतेंदु युग में अनेक लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र से
	प्रभावित थे। उन्होंने तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को ही नहीं स्वीकार
	किया, बल्कि साहित्य की विभिन्न विधाओं को समृद्ध किया, जिनमें बाल साहित्य भी
	एक थी?" लेकिन जहाँ तक हिंदी बाल कहानी में विशिष्टता के प्रारंभ का का प्रश्न
	है उसके लिए हमें प्रेमचंद को ही याद करना होगा। सच है कि उनकी अनेक कहानियों
	में पहली बार बाल-मन का प्रवेश हुआ भले ही वे प्राथमिक तौर पर बड़ों के लिए
	लिखी कहानियाँ ही क्यों न हों। परमानंद श्रीवास्तव के इस मत से सहमत हुआ जा
	सकता है कि "प्रेमचंद बड़ी संवेदना के लेखक हैं, उनके यहाँ सबके लिए साहित्य
	मिल जाता है - बच्चों के लिए साहित्य मिल जाएगा, किशोरों के लिए भी मिल जाएगा।
	'गुल्ली डंडा' किशोर भी मजा लेकर पढ़ेगा, बड़े लोग भी पढ़ सकते हैं।" प्रेमचंद की
	ईदगाह आदि कितनी ही कहानियाँ हैं बालकों और किशोरों के मनोविज्ञान का सूक्ष्म
	चित्रण हुआ है। इस रूप में प्रेमचंद को हम हिंदी में बाल कहानी का सच्चा मौलिक
	रूप प्रस्तुत करने वाला पहला लेखक कह सकते हैं। बल्कि आगे संभव हुई बाल कहानी
	की परंपरा के लिए भी प्रेमचंद को टटोला जा सकता है।
	अभी तक हमने थोड़े-बहुत उदाहरणों के द्वारा यह जाना कि मूलतः बड़ों के लिए लिखी
	गई प्रेमचंद की कहानियों में से अनेक ऐसी कहानियाँ भी हैं जिन्हें हम बाल
	कहानी के थैले में डाल सकते हैं। ऐसा हुआ भी है। मसलन साहित्य अकादमी ने
	'प्रेमचंद की चुनिंदा कहानियाँ (दो भाग) प्रकाशित किए हैं जिनमें 17 कहानियाँ
	हैं जो मूलतः बड़ों के लिए लिखी गई हैं लेकिन उन्हें यहँ प्रस्तुत किया गया है
	बच्चों के लिए। इसी प्रकार नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया द्वारा प्रकाशित ऐसी ही
	पुस्तक में भी ऐसा ही किया गया है जबकि संपादक को प्रेमचंद की उन तमाम
	कहानियों के बारे में भी जानकारी रही प्रतीत होती है जो मूलतः बच्चों के लिए
	ही लिखी गई हैं। ऐसी कहानियों के संबंध में संपादक का कहना है - "उन्हें इस
	संकलन में लेने का विशेष कारण यह है कि उन कहानियों का बच्चों से बरसों से
	संबंध रहा है। पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्यत्र, इन कहानियों को बचपन में पढ़कर कई
	पीढ़ियाँ बड़ी हुई हैं और उनकी छाप मन पर आज भी है। यह सत्य स्वीकार करना होगा
	कि प्रेमचंद को अधिकांश बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य-पुस्तकों में उनकी कहानियाँ
	पढ़कर ही जाना और याद रखा। बाद में पठन-रुचि वालों ने उनका साहित्य बड़े होकर
	पढ़ा। इस संकलन में ये वही कहानियाँ हैं जिनके द्वारा प्रेमचंद ने बच्चों की
	कई पीढ़ियों में मानवीय संवेदनाओं के साथ मानवता, न्याय-अन्याय, नैतिकता और
	सामाजिक आचार-व्यवहार से जुड़े मूल्यों और सामाजिक रिश्तों की महत्ता का संदेश
	पाठकों को दिया।" लेकिन मूलतः बड़ों के लिए लिखी गई सभी कहानियों को हूबहू
	बच्चों के लिए परोसे जाने को मैं, विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा, उचित नहीं
	मानता। अपने अनुभव से कहना चाहूँगा कि उनमें अनेक ऐसे स्थल देखे जा सकते हैं
	जिनकी बाल कहानी के रूप में कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। मसलन "नमक का दारोगा"
	को ही लें। इसका टिप्पणीनुमा प्रारंभ ही मेरी निगाह में, बच्चों की दृष्टि से
	फालतू है। बाल कहानी के रूप में अच्छा होता यदि कहानी कुछ यूँ शुरू होती - "एक
	थे वंशीधर। उन्हें नौकरी की जरूरत थी। उनके पिता चाहते थे कि वे ऐसी नौकरी
	करें जिसमें ऊपर की आय हो...।" कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचंद की अनेक
	कहानियों में यह गुण है कि उन्हें संपादित करके या उनका पुनर्लेखन करके उन्हें
	उत्कृष्ट बाल कहानियाँ बनाया जा सकता है। कहानियाँ ही नहीं प्रेमचंद के
	उपन्यासों के भी किशोर संस्करण निकाले जा सकते हैं बल्कि निकाले जाने चाहिए।
	अन्य बड़े लेखकों के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है।
	आगे बढ़ने से पूर्व साहित्य और बालक के बारे में प्रेमचंद के विचारों का जान
	लेना अच्छा रहेगा क्योंकि उनमें उनकी दृष्टि के दर्शन होते हैं और वह उनके
	साहित्य और बाल साहित्य में भी अनुस्यूत नजर आती है। सभापति के पद से
	प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेषण में उन्होंने कहा था - ''हमारी कसौटी पर
	वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य
	का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाशन हो - जो हममें गति,
	संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाएँ नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण
	है।'' इससे पूर्व हंस के एक संपादकीय में बच्चे को लेकर उनका विचार था - "बालक
	को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके।
	बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से
	देखें।''
	अच्छी बात यह है कि बाद के समय में ही सही, प्रेमचंद ने बच्चों के लिए विशेष
	रूप से ऐसी कहानियाँ लिखीं जो मूलतः बच्चों के ही लिए हैं। आज उनका समग्र बाल
	साहित्य उपल्ब्ध है। एक ही जिल्द में देखना हो तो डॉ कमल किशोर गोयनका द्वारा
	संपादित पुस्तक "प्रेमचंद : बाल-साहित्य समग्र" को देखा जा सकता है जिसका
	प्रकाशन दिल्ली के मेधा बुक्स ने किया है। प्रेमचंद की बाल-साहित्य की 7
	पुस्तकें हैं। इनमें "जंगल की कहानियाँ" और "कुत्ते की कहानी" सर्वाधिक
	प्रसिद्ध हैं जो सृजनात्मक साहित्य के अंतर्गत आती हैं। कुत्ते की कहानी एक
	लंबी कहानी है जिसे बाल-उपन्यास कहना अधिक उपयुक्त होगा। साथ ही महापुरुषों को
	लेकर उनका बालपोयोगी जीवनी साहित्य मिलता है। ऐसे साहित्य को हम जानकारी पूर्ण
	साहित्य भी कह सकते हैं। उनकी एक विशिष्ट पुस्तक है - राम चर्चा। पहले यह
	उर्दू में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक की भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा,
	"हिंदुओं में दो ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता है -
	एक कृष्ण और दूसरे हैं राम। ...यह रुतबा रामचंद्र जी को कैसे हासिल हुआ, आज हम
	तुम्हें वही किस्सा कहते हैं। दिल लगाकर पढ़ो। हमें उम्मीद है कि इस लासानी
	(अद्वितीय) बुजुर्ग के हालात ध्यान से पढ़ोगे और उनसे सबक हासिल करोगे।"
	रामचंद्र को लेकर इस प्रकार की पुस्तक कदाचित पहली बार लिखी गई थी जिसकी
	प्रशंसा गांधी जी ने भी की थी। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि प्रगतिशील
	विचारों के प्रेमचंद ने रामचंद्र को महापुरुष ही माना है। गोर्की आदि की तरह
	प्रेमचंद का भी बालक को लेकर किया गया चिंतन बहुत महत्वपूर्ण है। प्रेमचंद की
	बाल-कृतियाँ इस प्रकार हैं : माहात्मा शेख सादी, राम चर्चा, जगंल की कहानियाँ,
	कुत्ते की कहानी, दुर्गादास और कलम, तलवार और त्याग (दो भाग)।
	जंगल की 12 कहानियों को पढ़ें तो पाएँगे कि ये जंगल के प्राणियों से जुड़ी
	कहानियाँ हैं। शीर्षक हैं : शेर और लड़का, बनमानुष की दर्दनाक कहानी, दक्षिण
	अफ्रीका में शेर का शिकार, गुब्बारे का चीता, पागल हाथी, साँप की मणि, बनमानुष
	का खानसामा, मिट्ठू, पालतू भालू, बाघ की खाल, मगर का शिकार, और जुड़वा भाई।
	छोटे-छोटे आकार की हैं। ये निरी पशु-पक्षियों की कहानियाँ नहीं हैं। अंततः ये
	मानवीय संवेदनाओं का ही साक्षात कराती हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें जानवर
	पात्र और मानवीय पात्र दोनों की ही भूमिका अपने अनिवार्य रूप में है। बालक और
	मनुष्य के ही नहीं बल्कि, लगने लगता है, कि जानवरों के मनोविज्ञान को भी
	प्रेमचंद बखूबी समझते थे। जानवरों के मन की बातों की ऐसी पकड़ और उसकी
	अभिव्यक्ति साहित्यकारों में दुर्भल ही होती है। अक्सर तो जानवरों का मानवीकरण
	ही कर दिया जाता है। लेकिन प्रेमचंद जानवरों को जानवरों के रूप में ही मौजूद
	रखते हुए उनके अंतर्मन को बाहर लाने में सक्षम नजर आते है भले ही उन्हें वाणी
	मानवीय पात्रों की सी दी गई हो। मूलतः बड़ों के लिए लिखी कहानियों में "दो
	बैलों की कथा" में यही कमाल उजागर हुआ है। एक कुत्ते की कहानी में भी ऐसा ही
	देखा जा सकता है। ऐसी कहानियाँ जहाँ एक ओर पशु जगत से परिचित कराती हैं वहीं
	पशुओं के प्रति संवेदनशील बनाने में भी कारगर सिद्ध होती हैं। पंचतंत्र के
	कहानी-शिल्प से ये कहानियाँ हट कर हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि "प्रेमचंद के
	जानवरों का मनोविज्ञान" विषय पर भी शोध होना चाहिए। जंगल की कहानियों के
	विस्तार में जाने से पूर्व यह भी बताना चाहूँगा कि प्रेमचंद की इन कहानियों
	में साहस और रोमांच अधिक मिलता है। शिकार करना हावी है। अतः इन्हें शिकार की
	कहानियाँ भी कहा जा सकता है। मोगली और रोबिनहुड की भी याद आ जाती है। इन्हें
	बड़ों को भी अवश्य पढ़ना चाहिए। यहीं यह भी बता दूँ कि आज जबकि जानवरों के
	शौकिया शिकार की बात गले से नहीं उतरती ऐसे में कम से कम प्रेमचंद की एक कहानी
	"मगर का शिकार" में एक क्रूर यथार्थ भी सामने आता है। दिक्कत यह है कि इस
	क्रूर यथार्थ को लेखकीय स्वीकृति भी मिल गई है जो छोटे-बड़े किसी को भी
	अस्वीकार्य होगी। उदाहरण के लिए यह वर्णन देखिए : "मैं पार जाना भूल गया। वहीं
	मगर का शिकार देखने के लिए ठहर गया। देखा कि लोगों ने उस बकरी के बच्चे को एक
	पेड़ के नीचे बाँध दिया। वह पेड़ दरिया से कुल बीस गज पर था। इसके बाद उन्होंने
	एक हाँडी से कुछ जोंक निकाले और उन्हें बकरी के बच्चे पर लगा दिया। जब बच्चा
	में-में करने लगा तो हम लोग एक पेड़ की आड़ में छिप गए और मगर का इंतजार करने
	लगे।" बेशक यह कहानी एक निर्दोष मगरमच्छ के शिकार करने की एक दिलचस्प जानकारी
	रोमांचकारी किस्से की शैली में देती है लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ नहीं करती।
	बल्कि अपने चित्रण में क्रूर हो उठती है। अतः इसे अप्रेमचंदीय कहानी ही कहा जा
	सक्ता है। यह अपवादस्वरूप ही है। यहीं एक दूसरी कहानी देखिए 'मिट्ठू''। यह एक
	बंदर है। मिट्ठू सरकस का जानवर है। गोपाल को वह बहुत अच्छा लगता है। वह उसे
	मटर, केले आदि खूब खिलाता है। सरकस के जाने की बात सुनी तो गोपाल उदास हो जाता
	है। माँ से से माँगता है ताकि बंदर खरीद कर ला सके। मालिक अपने बंदर को अभी
	बेचना नहीं चाहता। गोपाल मिट्ठू को इधर-उधर ढूँढ़ने लगा लेकिन बेध्यानी में एक
	चीते के पिंजरे के पास जा पहुँचा। चीता उसके हाथ को पकड़ने ही वाला था कि
	मिट्ठू ने खुद जख्मी होकर उसे बचा लिया। मिट्ठू बेहोश तक हो गया। उसका इलाज
	हुआ और वह अच्छा हो गया। गोपाल उसके पास रोज आता और प्यार करता। आखिर सरकस के
	मालिक ने मुफ्त में ही बंदर गोपाल को दे दिया। "दोनों खेलते-कूदते घर पहुँच
	गए।" जानवर के प्रति मनुष्य की और मनुष्य के प्रति जानवर की गहरी संवेदना,
	आत्मीयता, मित्रता, कृतज्ञता को यह कहानी बखूबी बच्चे की दुनिया में आत्मसात
	करने में सक्षम है। और वह भी बिना बड़बोली हुए। बिना शिक्षा देने के अतिरिक्त
	भार से बोझिल हुए। एक कहानी जुड़वा भाई का जिक्र भी करना चाहूँगा। यह कहानी एक
	ऐसी औरत की कहानी से शुरू होती है जो किसान की पत्नी है और किसान उसे मूर्ख
	मर्द की तरह बात बात पर पीटता था। इस औरत के जुड़वा बच्चे हुए। एक को भालू उठा
	ले गया। यहाँ भालू का चित्रण पढ़ने लायक है : "भालू उस बच्चे को ले जाकर अपनी
	माँद में घुस गया और बच्चों के पास छोड़ दिया। बच्चे को हँसते-खेलते देखकर भालू
	के बच्चों को न मालूम कैसे उस पर तरस आ गया। पशु कभी-कभी बालकों पर दया करते
	हैं। यह लड़का भालू के बच्चों के साथ रहने लगा।" सच तो यह है कि प्रेमचंद की ये
	कहानियाँ कहीं से भी उपदेश या शिक्षा के अतिरिक्त भार से बोझिल नहीं हैं। और
	अंततः अपने सुखद अंत से विभोर करने वाली भी हैं। कहीं-कहीं आदर्श का स्वर जरूर
	फूटा है लेकिन अधिकतर स्वाभाविक रूप मे। साहस, विपत्ति में भी सूझबूझ से काम
	लेना आदि इन कहानियों में भरपूर है। मूसीबतों का गहरा और परेशान कर देने वाला
	चित्रण भी है तो उनसे निकलने के सूझबूझ भरे साहसी रास्ते भी। वस्तुतः ये
	कहानियाँ बालक के आत्मविश्वास को जागृत करने में नायाब भूमिका निभा सकती हैं।
	जमीनी पकड़ बराबर बनी रहती है, कोरी आसमानी उड़ानें या कहें दूर की कौड़ियाँ कम
	ही हैं। न के बराबर। अतः ये केवल चौंकाती नहीं हैं। "गुब्बारे का चीता" कहानी
	में कल्पना की उड़ान है। बलदेव और चीता दोनों ही उड़ेते हुए गुब्बारे पर चढ़ गए
	थे। आगे की कहानी दिलचस्प है। लेकिन यह कहानी भी और कहानियों की तरह जिज्ञासा
	और विश्वसनीयता को साथ लेकर चलती है। प्रेमचंद की कुछ कहानियों को संकुचित और
	आंशिक अर्थ में वैज्ञानिक कहानियाँ भी कहा जा सकता है क्योंकि लेखकीय दृष्टि
	वैज्ञानिक है। उनकी एक कहानी है - "साँप की मणि"। इसका अंत देखिए जिसके द्वारा
	मणि के रहस्य को खोला गया है - "दर्याफ्त करने पर मालूम हुआ कि यह एक किस्म का
	पत्थर है, जो गर्म होकर अँधेरे में जलने लगता है। जब तक वह ठंडा नहीं हो जाता,
	वह इसी तरह रोशन रहता है। साँप इसे दिन-भर अपने मुँह में रखता है, ताकि यह
	गर्म रहे। रात को वह इसे किसी जंगल में निकालता है और इसकी रोशनी में
	कीड़े-मकोड़े पकड़कर खाता है।"
	कुत्ते की कहानी, जैसा कह चुका हूँ वस्तुतः बाल-उपन्यास ही है। संक्षेप में
	इतना ही कि 10 भागों में बँटी यह कहानी एक माँ के जाए दो कुत्तों की कहानी है
	जिनके नाम कल्लू और जकिया है। अपनी बहादुरी और भाग्य से कल्लू (जो कथावाचक भी
	है) साहबी में पलता है अतः सुख सुविधाओं से संपन्न है। अपने करिश्माई कारनामों
	के कारण उसे लोग देवता का दर्जा देने लगते हैं। प्रेमचंद कुत्ते के मुँह से
	कहलावाते हैं, "शायद सब समझ रहे थे, यह कोई देवता है और इस रूप में संसार का
	कल्याण करने आया है। जेंटलमैन लोग देवता का अर्थ तो न समझते थे, पर कोई
	गैर-मामूली, चमत्कारी जीव अवश्य समझ रहे थे। कई देवियों ने तो मेरे पाँव भी
	छुए। मुझे उनकी मूर्खता पर हँसी आ रही थी। आदमियों में भी ऐसे-ऐसे अक्ल के
	अंधे मौजूद हैं।" साहस, रोमांच और सूझबूझ की तरकीबों से भरी यह कहानी एक रूपक
	के रूप में पढ़ी जा सकती है लेकिन बालक इसे कुत्ते की कहानी के रूप में ही
	पढ़ेंगे और आनंद उठाएँगे। कहानी का अंत प्रेमचंद के सवतंत्रता के सिद्धांत की
	पुष्टि करता है - "मगर अब यह मान-सम्मान मुझे बहुत अखरने लगा है। यह बड़प्पन
	मेरे लिए कैद से कम नहीं है। उस आजादी के लिए जी तड़पता रहता है, जब मैं चारों
	तरफ मस्त घूमा करता था। न जाने आदमी साधु बनकर मुफ्त का माल कैसे उड़ाता है!
	मुझे तो सेवा करने में जो आनंद मिलता है, वह सेवा पाने में नहीं मिलता, शतांश
	भी नहीं।"
	विशेष रूप से बालकों के लिए लिखी गई इन कहानियों की भाषा-शैली भी बहुत सहज-सरल
	है। बाल-सुलभ प्रायः छोटे-छोटे सरल वाक्य हैं। लिख दूँ कि आगे चलकर छोटे-छोटे
	वाक्यों वाला गुण जयप्रकाश भारती जी कहानियों में देखते ही बनता है। वर्णन
	शैली में लिखी गई इन कहानियाँ बालक को अपने से जोड़ने में सफल हैं और इनमें
	वाचिकता का या कहन शैली का भी अद्भुत गुण है। लोककथाएँ न होते हुए भी इनमें
	लोककथाओं का सा मजेदार स्वाद है। मूलतः बड़ों के लिखी गई कुछ कहानियों के
	प्रारंभ करने की टिप्पणीनुमा शैली यहाँ भी मिलती है लेकिन कहानी के आकार के
	अनुपात में। बीच-बीच में भी लेखकीय सूक्तियाँ मिल जाती हैं। अच्छी बात यह है
	कि वे अधिक व्यवधान पैदा नहीं करतीं।
	जैसा ऊपर संकेत दिया जा चुका है मैं प्रेमचंद की मूलतः बड़ों के लिए लिखी गई
	कहानियों को हूबहू उसी रूप में बाल कहानियों के रूप में बालकों को परोसने के
	पक्ष में नहीं हूँ। यह कुतर्क ही है कि क्योंकि हम उन कहानियों को बच्चों को
	पाठ्यक्रम रख कर या यूँ भी पढ़ाते आए हैं अतः उन्हें बाल कहानियाँ मान लिया
	जाए। मजबूरी को प्रतिमान नहीं बनाया जाना चाहिए। निश्चित रूप से, बाल कहानी की
	दृष्टि से तैयार किए गए उनके संपादित रूप या पुनर्लिखित रूप ही बाल कहानियों
	की श्रेणी में लिए जाने चाहिए। मूलतः बड़ों के लिए लिखी गईं जिन कहानियों को
	प्रायः बाल कहानियों के रूप में भी गिना जाता है उनमें बोध, नमक का दारोगा,
	स्वत्व-रक्षा, नादान-दोस्त, सत्याग्रह, नेउर, सुजान भक्त, सुभागी, कोई दुख न
	हो तो बकरी खरीद लो, बड़े भाई साहब, ईदगाह, गुल्ली-डंडा, दो बैलों की कथा,
	परीक्षा, बड़े घर की बेटी, रामलीला, कजाकी आदि को सम्मिलित किया जाता है।
	निःसंदेह इन कहानियों में बाल-मनोविज्ञान की दृष्टि से सफल चित्रण मिलता है और
	बाल मनोविज्ञान को समझने के लिए ये ऐसी कहानियाँ हैं जो बड़ों के लिए
	महत्तवपूर्ण भी हैं। यही नहीं इनमें बालकों के लिए प्रेरणादायी सामग्री भी है।
	उनमें बच्चों में नैतिकता, साहस, स्वतंत्र-विचार, अभिव्यक्ति और आत्मरक्षा की
	भावना जगाने वाले तत्व भी मौजूद हैं। कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनमें बड़ी आयु
	के हो जाने पर बचपन को याद किया गया है। फिर भी अपने अखंड रूप में वे बच्चों
	के लिए बाल कहानियाँ नहीं कही जा सकतीं। हाँ उन्हें बाल-कहानियाँ या किशोर
	कहानियाँ बनाया जा सकता है। ठीक है अभाव के चलते ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जिनसे
	यह सिद्ध किया जा सके कि हिंदी ही नहीं अन्य भाषाओं में भी ऐसी कालजयी कृतियाँ
	हैं जिन्हें बड़ी आयु के पाठकों के लिए लिखा गया था और वे बालकों की पसंद की भी
	हैं, लेकिन आज जब हिंदी में बाल-कहानी अपने उत्कृष्ट रूप में लिखी जा रही है
	तो यह भ्रम क्यों फैलाया जाए कि बड़ी आयु के पाठकों के लिए लिख कर भी कोई लेखक
	बाल कहानीकार कहलाया जा सकता है। यदि प्रेमचंद भी ऐसे भ्रम में आस्था रखते तो
	वे कदाचित "जंगल की कहानियाँ" जैसी बाल कहानियाँ न लिखते। आज ऐसी
	बाल-पत्रिकाएँ भी देखी जा सकती हैं जिनमें बड़ों के लिए लिखी गई रचनाओं को बाल
	रचनाओं के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है। प्रेमचंद की "गुल्ली-डंडा को ही
	लें। प्रारंभ का एक बड़ा अंश निबंधनुमा अधिक है और उसे आसानी से निकाला जा सकता
	है। तो भी चिड़िया और चिड़िया के अंडों को लेकर लिखी गई 'नादान दोस्त' जैसी
	कहानी (लगभग) बाल कहानी कही जा सकती है।
	अच्छी बात है कि आज जब प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान की बात आती है तो प्रायः
	लिखा यही जाता है कि कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10
	अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय भाषण, भूमिका,
	पत्र आदि की रचना की। इस संदर्भ शायद ही कोई अपवाद हो।