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कविता

कितना भी प्रतिकूल समय हो

सुधेश


कितना भी प्रतिकूल समय हो
सिर पर ज्वाला बरसे चाहे
लेकिन वन में फूल खिलेंगे।

एक धुरी पर धरती घूमे
अपना रस्ता नहीं बदलती
हर ऋतु भी निज क्रम से आती
ना अपना वह मार्ग बदलती।
रवि चंदा धरा के संबंधी
कभी कभी मिलते भूले से
वरना अपनी राह चलेंगे।

उषाकाल में गगन सिंदूरी
धूप उसे कर देती पीला
संध्या सुंदरी उतरती जब
गगन मन होता रंगीला।
नित मिलते हैं सुबह शाम भी
दिन के बिछड़े निशा तिमिर में
प्रेमी चुपके गले मिलेंगे।

जगत मंच हँस रोते एक्टर
नचाता सूत्रधार यहाँ पर
उस की मर्जी से पर्दा उठता।
कायर जीता, मरता वीर यहाँ पर।
आवागमन लगा जगत हाट में
न पनघट कहाँ पनहारिन अब
मेले में बिछुड़े मीत मिलेंगे।


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