धरतीपुत्र जी दसवीं क्लास में घुसे हुए थे। दो पीरियड हो चुके थे। लेकिन अभी
भी वे बच्चों को छोड़ने के मूड में नहीं थे। लघु विश्रांति भी हो चुकी थी।
लेकिन वे भूल चुके थे कि पँवार सर को भी अँग्रेजी का पीरियड लेना है।
धरतीपुत्र जी अक्सर ऐसा ही करते हैं। जनवरी-फरवरी में कोर्स पूरा करने में
जी-जान से जुट जाते हैं। साल भर उनका ध्यान अपने खेत की ओर ही लगा रहता है।
सड़क के पश्चिम की ओर स्कूल और सड़क के पार पूरब की ओर उनका खेत। खेती करते-करते
स्कूल सँभाल लेते हैं और स्कूल करते-करते खेती। उनके उनके जीवट का सभी लोहा
मानते हैं। उनके इसी खेत-प्रेम को लेकर उन्हें साथी शिक्षकों ने धरतीपुत्र
कहना शुरू कर दिया था। रेसेस के बाद वे अपने खेत की ओर निकल जाते हैं। समय देख
कर फिर एक चक्कर स्कूल का लगा जाते हैं। यानि दो घोड़ों पर सवार। बल्कि कहें कि
वे दो से भी अधिक घोड़ों पर सवार रहते हैं। उनका मन कई हिस्सों में बँटा रहता
है। लगातार एक भागम-भाग लगी रहती है। सामाजिक कार्यों में भी उनकी सक्रियता
रहती है। वे सिर्वी समाज से ताल्लुक रखते हैं। फिलवक्त आई जी माता मंदिर के
निर्माण की आर्थिक जिम्मेदारी समाज वालों ने उन्हें ही सौंप रखी है या कहें कि
उन्होंने ओढ़ रखी है। चंदा उगाहना और मंदिर निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में
उन्हें व्यस्त रहना पड़ता है। अभी पिछले महीने ही माता की मूर्ति, स्टोन आदि की
खरीदी के लिए मंदिर निर्माण समिति के साथ उन्हें राजस्थान जाना पड़ा था। इसके
अलावा गीत-संगीत में भी उनकी रुचि है। भक्ति-भावना की एक धारा भी उनके भीतर
प्रवाहित होती रहती है। सुंदरकांड की एक मंडली से जुड़े हैं। सुंदरकांड के लिए
उन्हें जहाँ भी न्यौता मिलता है, वे मंडली के साथ निकल जाते हैं। अक्सर नींद
की खुराक स्कूल में पूरी करते हैं। कभी-कभी तो इतने थके होते हैं कि बैठे-बैठे
ही खर्राटे भरने लगते हैं। यदि हाथ में अखबार हुआ तो छूटकर नीचे गिर जाता है।
पुस्तक हाथ में हुई तो फिसल जाती है। नींद को रोक पाना उनके हाथ में कतई नहीं
होता है।
पँवार सर धरतीपुत्र जी के क्लास से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन
उनके निकलने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। आखिर वे क्लास की ओर रवाना हो गए।
धरतीपुत्र जी ने उन्हें कनखियों से देख लिया था। लेकिन बाहर नहीं निकले। अधूरे
सवाल को पूरा करने में जुट गए। बिना बोले ही उन्होंने पँवार सर को यह संकेत दे
दिया था कि बस, यह सवाल पूरा करके निकलता हूँ।
समय काटने की गरज से पँवार सर बरामदे में चक्कर काटने लगे। क्लास से बाहर
दीवार के तल से लगी छात्र-छात्राओं के जूते-चप्पलों की कतार थी। तरह-तरह के
जूते-चप्पल थे।
जूते तो बस दो-चार ही थे, बाकी सभी चप्पलें थीं। सभी मामूली और सस्ती चप्पलें
थीं। पँवार सर उनको ही देखने लगे। उनके मन में अजीब सा खयाल आया कि क्यों न इन
चप्पलों को देखकर ही शासन इनका आय प्रमाण पत्र बना दे। इनके आय प्रमाण पत्र के
लिए सरपंच, पटवारी, तहसीदार और एसडीएम के प्रमाणीकरण की जरूरत ही क्या है?
नाहक पालकों को परेशान किया जाता है। प्रमाण-पत्र के चक्कर में मजदूरों की
मजदूरी मारी जाती है और किसान के खेत के काम रुके पड़े रहते हैं। इनके चप्पल ही
इन बच्चों की आर्थिक स्थिति का जीता-जागता प्रमाण है। कागज के प्रमाण तो झूठे
भी हो सकते हैं। इन चप्पलों से अधिक सच्चा प्रमाण और क्या होगा!
इसी बीच उन्हें गाँव के शौकीन जागीरदार साहब के घर देखे जूतों-चप्पलों की याद
हो आई। उनके हवेलीनुमा घर का एक कमरा ही तरह-तरह के जूते, चप्पलों और मोजड़ियों
से भरा था। इनके रख-रखाव के लिए भी उन्होंने एक नौकर रख छोड़ा था।
देखते-देखते एक जोड़ी चप्पलों पर पँवार सर की निगाहें अटक कर रह गई, बल्कि कहें
कि चिपक ही गई। आदमी के द्वारा इस्तेमाल की जा रही चीजें भी अनजाने में ही उस
आदमी के बारे में बहुत कुछ कह जाती हैं। यह आदिवासी इलाके का एक ग्रामीण
शासकीय स्कूल है। यहाँ ज्यादातर गरीब आदिवासी बच्चे ही पढ़ते हैं। सामान्य वर्ग
का तो एक बच्चा भी स्कूल में नहीं पढ़ता। जिन पालकों की हालत थोड़ी भी ठीक होती
है, वे अपने बच्चों को प्रायवेट स्कूल में ही पढ़ाते हैं, सरकारी स्कूल में कतई
नहीं भेजते। सरकारी स्कूल गरीब बच्चों के स्कूल बनकर रह गए हैं। स्कूल में
सबसे अधिक आदिवासी बच्चे हैं। उससे कम पिछड़ा वर्ग के और सबसे कम अनुसूचित जाति
के छात्र।
पँवार सर उस एक जोड़ी चप्पल को देखे जा रहे थे। सभी चप्पलों में से उसी एक जोड़ी
चप्पल की हालत सबसे खराब थी। मतलब यह कि इसे पहनने वाले बच्चे की हालत निश्चित
ही बहुत खराब रही होगी।
चप्पलें ऐसी थीं कि उन्हें पहनने का कोई अर्थ नहीं था। दानेदार धूसर रंग के
तलवे वाली चप्पलें एड़ियों पर से अर्धचंद्रकार घिस चुकी थी। उबड़-खाबड़ रस्ते
एड़ियों को खा चुके थे। चप्पलों की एक्सपायरी डेट कब की निकल चुकी थी। उन्हें
मजबूरी के कारण अब भी पहना जा रहा था। लगता था जैसे एड़ियों से एक जोड़ी चाँद
गायब हो चुके हैं। जैसे पहनने वाले के जीवन से खुशियों का चाँद गुम हो चुका
हो। अब एड़ियों को काँटों और कंकरों से बचाना उन चप्पलों के बूते की बात नहीं
रह गई थी। उन्हें तो कचरे में फेंक दिया जाना था। लेकिन उन्हें पहना जा रहा
था। किसकी होंगी ये चप्पलें ? कौन है जो ऐसी चप्पलों को पहनने पर विवश है।
पँवार सर के मन में ऐसे कई सवाल उठ खड़े हुए। उनकी जिज्ञासा प्रबल हो उठी।
चप्पल तो निश्चित ही इसी कक्षा के किसी लड़के की होगी, यह तय था।
आखिर धरतीपुत्र बाहर निकले। पँवार सर ने अँग्रेजी का पीरियड लिया। लेकिन क्लास
से बाहर निकलने पर दिमाग में वही सवाल घूमता रहा - किसकी होगी चप्पलें? कौन
लड़का इन्हें पहनता होगा। सीधे-सीधे कक्षा में पूछते तो तत्काल पता लग जाता।
लेकिन उन्हें ऐसा करना ठीक नहीं लगा।
उस दिन से वे लडकों के पाँवों पर नजर रखने लगे। कुछ ही दिन बाद तीन लड़के उनके
पास हिंदी के कुछ वाक्यों की अँग्रेजी बनवाने के लिए स्टाफ रूम में आए।
उन्होंने क्लास में कह रखा था कि अँग्रेजी की कोई भी समस्या हो तो वे बेझिझक
उनके पास चलें आएँ। उन्होंने उनकी समस्या का समाधान कर दिया। वे तीनों अपने
चप्पल दरवाजे के पास उतारकर भीतर आए थे। अब अपने-अपने चप्पल पहनकर जाने लगे।
अनायास उनका ध्यान उनके पाँवों की ओर चला गया। मनोज के पाँवों में वही चप्पल
थे। वांछित लड़का आखिर मिल ही गया था। उसके पाँवों में वही चंद्राकार कटी हुई
चप्पलें थीं।
अरे, यह तो हीरालाल का लड़का है। पँवार सर को याद आया। हीरालाल का ताल्लुक
सिर्वी समाज से है, जो पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आता है। मनोज के चेहरे पर अक्सर
गांभीर्य रहता था। एक बदहवासी सी उस पर छाई रहती। वह अपनी उम्र से बड़ा नजर आता
था। सर्वे के दौरान उसके घर जाना पड़ा था। तब उसकी दादी ने 'आओ मास्टर साब..
'आओ मास्टर साब...' करके उनका खूब स्वागत किया था। घर छोटा सा था, लेकिन शायद
दिल बहुत बड़ा था उनका। घर के नाम पर मिट्टी की कामचलाऊ दीवारों वाला बस एक
बड़ा-सा कमरा था। पुराने दरवाजे के पास ही कपड़े सीने की मशीन रखी थी। एक थोड़ी
आड़ करके रसोई बना ली गई थी। एक कोने में पनियारा था। छत दो ढाली थी। आधी छत
पतरों और आधी छत कवेलुओं से ढकी थी।
मनोज की दादी ने कहा था - 'मास्टर सब... मनोज अन डिंपल न... अच्चा भणाजो...
अनारी जिनगी सुदरी जिगा। थनान याद करिगा। कमय खयगा। हीरालाल भई री हालत तो थाय
जाणोज हो।'
हीरालाल के पास नाम मात्र की खेती बची थी। सिलाई भी कम ही आती थी। सबसे बड़ी
लड़की की शादी के लिए उसे खेत का एक टुकड़ा बेचना पड़ा था। पिछले साल पिता गुजर
गए थे। उनके नुक्ते में भी उसकी कमर टूट गई थी। सिलाई भी अब नाम मात्र की रह
गई थी। छोटे दोनों बच्चे पढ़ रहे थे। पढ़ाई के साथ-साथ खेती और घरेलू काम में भी
मदद करनी पड़ती थी। छुट्टियों में जहाँ दो पैसे मिलते, वहीं वे काम पर चले जाते
थे।
हीरालाल ने निराश स्वर में कहा था - 'कई बतावां मास्साब, लोग अब रेडीमेड कपड़ा
पेर। अवं पेंट-बुशट घणा कम सिवाड़। थोड़ी-भोत कमीज-पजामा न पालाँ नारी सिलई
चल्या कर।'
मतलब यह कि गरीबी ने घर को घेर रखा था। जब वे सर्वे की जानकारी लेकर जाने लगे
तो उन्हें बिना चाय के मनोज की दादी ने उठने नहीं दिया था। उसकी दादी ने
मिट्टी के चूल्हे पर कोरे दूध की चाय बनाकर पिलाई थी।
परीक्षाएँ निपटने के बाद गर्मी की छुट्टियाँ लग गईं। लेकिन सरकार शिक्षकों को
चैन से कहाँ बैठने देती है। भर गर्मी में फिर एक नए सर्वे में लगा दिया गया
था। पँवार सर तपती धूप में सिर पर गमछा बाँधे गाँव की खाक छान रहे थे।
इसी बीच एक दिन गाँव में उन्हें मनोज मिल गया। मनोज को देख उन्हें अचानक याद
आया कि दसवीं का रिजल्ट तो आ चुका है। परीक्षा विभाग धरतीपुत्र जी के पास है।
सर्वे के चक्कर में रिजल्ट के बारे में उन्हें खास जानकारी नहीं थी। हाँ, इतना
जरूर पता था कि इस साल रिजल्ट अच्छा निकला है। उन्होंने मनोज से पूछ ही लिया
-'पास हो गया ?'
'हाँ, सत्तर परसेंट बने हैं।' कहते-कहते उसका चेहरा दमक उठा। लगा कि गुमशुदा
चाँद उसके चेहरे पर लौट आए हों। उसकी आखों में चाँद झिलमिला रहे थे।
उसने झुककर पँवार सर के पाँव छू लिए। अब उन्हें मनोज के पाँवों की ओर देखना
जरूरी नहीं लगा। उन्होंने अपने भीतर एक गहरी तसल्ली महसूस की।