तुम बड़े खुश थे
उस औरत की कामयाबी से
जो तुम्हारी कुछ भी नहीं लगती थी
तुम्हारी चहक ने याद दिलाया
कभी मैं भी 'कुछ' थी
और
रीझ गए थे तुम मेरे उस 'कुछ' होने पर ही
सोचा, फिर से कुछ बन जाऊँ
तो मैं भी अपने आपको फिर से पाऊँ
और
तुम्हें भी तुम्हारी 'मैं' वापस दिलाऊँ
उसी दिन तुमने कह डाला
छोड़ा ये 'कुछ' बनाने की धुन
जो हो, जैसी हो... अच्छी हो... खूब अच्छी हो
तुम रोटी सेंको
दाल छौंको
तुम्हारे हाथ के स्वाद के क्या कहने
पानी में छौंक लगाओ तो पकवान बन जाए
यह बात उस कामयाब औरत में कहाँ
अब मैं खूब करारी रोटी सेंकती हूँ
और
स्वादिष्ट दाल छौंकती हूँ
अब मैं खुश हूँ
कि
मैं उस कामयाब औरत से कहीं बढ़कर हूँ