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आलोचना

उपन्यास की भारतीयता और हिंदी आलोचना

शंभुनाथ मिश्र


उपन्यास हमारे समय का प्रतिनिधि साहित्य रूप है। आधुनिक साहित्य की सर्वाधिक जनतांत्रिक और लोकप्रिय विधा उपन्यास मूलतः यूरोपीय कथा रूप है, जिसकी अनेक परिभाषाएँ दी जाती हैं। उपन्यास की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप साहित्य की सबसे प्राचीन विधा कविता जब सामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति में नाकाम होने लगी, परंपरागत साहित्य रूपों की विधागत सीमाएँ अधिक मुखर होकर अपनी अपर्याप्तता सिद्ध करने लगी, तब उपन्यास का जन्म हुआ है। उपन्यास का कलेवर इतना विस्तृत और बहुआयामी होता है कि यथार्थ को उसकी बहुस्तरीयता के साथ व्यक्त करने का पर्याप्त अवसर यहाँ मौजूद है, संभवतः यही कारण भी है जिसके चलते उपन्यास अनेक समकालीन विमर्शों का केंद्र बना हुआ है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद संसार की स्थिति और नीतियों में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हुए, पूँजीवादी शक्तियों ने साम्राज्यवादी मानसिकता को पूर्ण प्रोत्साहन दिया। मानवीय संवेदनाओं के स्थान पर पूँजी और बाजारवादी शक्तियों को स्थान मिलने लगा जिससे समाज और सत्ता के संबंध विकृत हो गए। ऐसी अमानवीय और अराजक स्थितियों ने व्यक्ति की सामाजिक और रचनात्मक चेतना को भी दिग्भ्रमित और हतोत्साहित किया। उपन्यास ऐसे ही कठिन दौर की उपज है। युद्धोत्तर विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली और लोकतांत्रिक विधा है उपन्यास। अपनी प्रसिद्ध किताब 'उपन्यास का पक्ष' में ई.एम. फोर्स्टर्स लिखते हैं - "जब-जब समाज में सरलता, तारतम्यता और लयात्मकता होगी तब-तब पद्यात्मक साहित्य रूप अधिक प्रभावी होंगे, किंतु जब-जब समाज का यथार्थ कठोर और खुरदुरा होगा जीवन में लयबद्धता के स्थान पर जटिलता होगी, तब-तब गद्यात्मक रूप अधिक प्रभावी होंगे।"1 फलतः युद्धोत्तर विश्व में उपन्यास एक प्रमुख साहित्यिक विधा के तौर पर उभरा। उपन्यास की अनेक परिभाषाएँ हैं, और यह इतनी व्यापक और समावेशी है कि इसे किसी एक परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। उपन्यास के लिए अँग्रेजी में समानार्थी शब्द है 'नॉवेल'। 'नॉवेल' की परिभाषा देते हुए 'न्यू इंग्लिश डिक्सनरी' में लिखा गया है - "वृहद आकार का गद्य आख्यान या वृत्तांत जिसके अंतर्गत वास्तविक जीवन के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले पात्रों और कार्यों को कथानक में चित्रित किया जाता है।"2 रॉल्फ फॉक्स के अनुसार - "उपन्यास विश्व की कल्पना प्रसूत संस्कृति को बुर्जुआ अथवा पूँजीवादी सभ्यता की एक महत्वपूर्ण देन है। उपन्यास उसकी एक साहसपूर्ण खोज है - मानव के द्वारा मानव की खोज।"3 मिशेल जेराफा ने लिखा है कि - "उपन्यास ऐसी कला है जिसमें मनुष्य सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि से निरूपित होकर सामने आता है।"4 हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद ने कहा कि - "मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।" 5 हिंदी साहित्य का इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि उपन्यासों में देश के सर्वसामान्य जीवन के बड़े मार्मिक चित्र रहते हैं। शुक्ल जी के अनुसार - "यूरोप में जो नए ढंग के कथानक नॉवेल के नाम से चले और बंग भाषा में आकर 'उपन्यास' कहलाए (मराठी में वे कादंबरी कहलाने लगे) वे कथा के भीतर की कोई भी परिस्थिति आरंभ में रखकर चल सकते हैं, और उसमें घटनाओं की श्रृंखला लगातार सीधी न जाकर इधर-उधर की श्रृंखलाओं से गुंफित होती चलती है और अंत में जाकर सबका समाहार हो जाता है। घटनाओं के विन्यास की यह वक्रता या वैचित्र्य उपन्यासों और आधुनिक कहानियों की वह प्रत्यक्ष विशेषता है जो उन्हें पुराने ढंग की कथा-कहानियों से अलग करती है।"6 वस्तुतः उपन्यास की कोई एक परिभाषा स्थिर करने में उपन्यास के विकास का इतिहास और भी कठिनाई उत्पन्न करता है क्योंकि अपने उदय से लेकर अब तक इसने अनेक रूप धारण किए हैं।

उपन्यास हिंदी की अपनी जातीय विधा नहीं है। पश्चिम में उदित होकर बांग्ला के जरिए हिंदी में उपन्यास का प्रवेश हुआ। इसलिए प्रेमचंद ने लिखा कि - "उपन्यास पश्चिमी पौधा है, जिसे भारत में लाकर लगाया गया है।"7 यूरोप में जिन परिस्थितियों में उपन्यास का जन्म हुआ उनसे हम भली-भाँति परिचित हैं। वस्तुतः उपन्यास उसी समाज में जन्म ले सकता है और विकास कर सकता है, जहाँ व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन नष्ट होने लगे, जहाँ व्यक्ति को अपने समाज या प्रकृति से संघर्ष करना पड़े, इसलिए उपन्यास को समाज और प्रकृति से संघर्षरत व्यक्ति का महाकाव्य भी कहा गया है। यूरोप में उपन्यास के जन्म के पीछे औद्योगीकरण और मध्यवर्ग के उदय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। औद्योगीकरण के फलस्वरूप छापेखाने का आविष्कार हुआ साथ ही बुर्जआ और सर्वहारा के बीच एक नए वर्ग का उदय भी हुआ जिसे मध्यवर्ग कहा गया। उपन्यास का प्रारंभिक रूप रोमांस इसी नए वर्ग की मनोरंजन की आवश्यकताओं के साधन के रूप में पैदा हुआ। 'रोमांस' वस्तुतः गद्य में लिखित महाकाव्य जैसा होता है। उदात्त नायक, महान कथानक, कौतुकपूर्ण घटनाएँ, कल्पना आश्रित कथा आदि रोमांस की विशेषता है। रोमांस को आधुनिक उपन्यास का पूर्वज कहा जा सकता है। महाकाव्य से अपनी इसी निकटता की वजह से रोमांस के वयस्क रूप उपन्यास को आधुनिक जीवन के महाकाव्य की संज्ञा दी जाती है। यद्यपि यह विधा पूर्णतः पश्चिम से ली गई है किंतु फिर भी औद्योगीकरण, मध्यवर्ग का उदय, रोमांस, विश्वयुद्ध और फिर आधुनिक उपन्यास का उदय, की क्रमिक संगति को हिंदी या भारतीय उपन्यास के उदय के साथ लागू नहीं किया जा सकता। भारत में उपन्यास का उदय उन्नीसवीं सदी के मध्य में तब हुआ जब देश में अँग्रेजों का शासन था। यूरोप में उपन्यास का उदय जिन परिस्थितियों में हुआ था उनके ठीक विपरीत स्थितियाँ यहाँ मौजूद थी। भारत में न तो उस तरह का औद्योगीकरण हुआ था न ही मध्यवर्ग का विकास हो पाया था। मैनेजर पांडेय के शब्दों में कहें तो "भारत में उपन्यास का जन्म अभिशप्त स्थितियों में हुआ... उपनिवेशवाद के कारण भारतीय समाज के यथार्थ और भारतीय जनता की चेतना में ऐसे अंतर्विरोध थे, जो उपन्यास के स्वाभाविक विकास में बाधक थे। यहाँ जो नाममात्र का औद्योगीकरण हो रहा था, वह भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास का परिणाम न था। वह साम्राज्यवाद की लूट के लिए फैले व्यापक और बाजार का हिस्सा था।"9 वस्तुतः उपनिवेशवाद ने भारतीय सामंतवाद के मूल ढाँचे को बनाए रखा था और उसके साथ ही एक नए ढंग का सामंतवाद भी भारतीय जनता पर थोप दिया था। इसलिए भारत के औद्योगीकरण में स्वाभाविक रूप से विकसित पूँजीवाद की विशेषताएँ मौजूद नहीं थी। यूरोप में जिस चरित्र का मध्यवर्ग उपन्यास के विकास का आधार बन चुका था, वह यहाँ पर लगभग गायब था। डी.पी. मुखर्जी ने इस भारतीय मध्यवर्ग का चरित्र स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "यह मध्यवर्ग अपनी जड़ों से कटा हुआ आधारहीन वर्ग था। यह भारतीय समाज से लगभग विछिन्न अँग्रेजी पढ़ा-लिखा और ब्रिटिश शासन का समर्थक था। यह न तो पश्चिम के बुर्जआ वर्ग कि तरह था न ही पुराने भारतीय व्यापारी वर्ग कि तरह। संभवतः इसी कारण इस मध्यवर्ग में न तो पश्चिम के बुर्जआ की तरह स्वतंत्रता की भावना थी और न लोकतंत्र की चेतना। भारत में इस तरह के आधारहीन मध्यवर्ग का विकास सबसे पहले बंगाल में हुआ।"10

भारत का यह मध्यवर्ग अँग्रेजी पढ़े-लिखे जमीदारों, सरकारी मुलाजिमों, शिक्षकों और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों के रूप में निर्मित हुआ। कलकत्ता मद्रास और मुंबई जैसे शहरों में अँग्रेजी पद्धति के स्कूल, कॉलेज खुल जाने से पढ़े-लिखे मध्यवर्ग का संपर्क अँग्रेजी साहित्य से हुआ। इस नव शिक्षित वर्ग के बीच जल्द ही शेक्सपीयर, डेफो, जौनसन, स्कॉट और लिटन की रचनाएँ प्रसिद्ध हो गई। 'अरेबियन नाइट्स' के अनुवाद, जी.डब्ल्यू.एम. रेनॉल्ड के घटना प्रधान उपन्यास इस काल के भारतीय अँग्रेजी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए। धीरे-धीरे पढ़े-लिखे लोग अँग्रेजी नॉवेल से परिचित हुए, जो भारतीय साहित्य के लिए बिल्कुल नया काव्य रूप था। इसलिए आगे चलकर अपनी भाषा में भी इस प्रकार की रचनाएँ प्रस्तुत करने की आकांक्षा शिक्षित समुदाय के बीच उदित हुई। उपन्यास के विकास लिए पाठक वर्ग की उपलब्धता और मुद्रण की सहजता दो प्रमुख आवश्यकताएँ थी, जिन्हें तत्कालीन बंगाल में स्त्रियों के मनोरंजनार्थ प्रकाशित होने वाले छोटे से मासिक पत्र में प्रकाशित 'आलालेर घरे दुलाल (1854)' को प्रथम भारतीय उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है।11 हिंदी में उपन्यास सीधे तौर पर बांग्ला से आया, इस बात को स्वीकार करने में अब किसी को संदेह नहीं है। भारत की अपनी परंपरागत आख्यान शैली की महत्ता और परंपरा की उपलब्धता के बावजूद जिस नए ढंग के साहित्य रूप का विकास हो रहा था, उसकी जड़ें कहीं ना कहीं अनिवार्य रूप से बांग्ला उपन्यासों में पाई जाती हैं। इसलिए हिंदी के ज्यादातर प्रारंभिक उपन्यास बंगला से अनूदित हैं। मैनेजर पांडेय के अनुसार "हिंदी में उपन्यास का नाम ही नहीं, उसका रूप भी आरंभ में बंगला से ही आया। इधर जब से हिंदी नवजागरण की चर्चा का शोर बढ़ा है तब से हिंदी की अनन्यता सिद्ध करने पर सारा जोर लगाया जा रहा है। इस प्रयत्न में भारतीय नवजागरण की अनेक सच्चाइयों को झुठलाने की कोशिश हो रही है। ऐसी स्थिति में कुछ लोगों को यह बात स्वीकार करने में कठिनाई होगी कि उपन्यास बंगला से हिंदी में आया है।"12 लेकिन यह ऐतिहासिक सच्चाई है। काशी से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'सुदर्शन' में 'उपन्यास और समालोचक' शीर्षक आलेख में पं. माधव प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि "हिंदी में उपन्यास शब्द बंगला से आया है और अनुकरण प्रिय रचना चतुर बंगाली ग्रंथकारों ने आधुनिक लक्षण से इसे अँग्रेजी के नॉवेल शब्द का पर्याय बना दिया है।"13 आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी हिंदी साहित्य के इतिहास में इसे स्वीकार किया है उन्होंने इस बात को माना है कि हमारे आधुनिक हिंदी साहित्य में उपन्यास का नाम और उपन्यास का अँग्रेजी ढाँचा दोनों बंगला से आए हैं। गद्य साहित्य के प्रथम उत्थान की चर्चा करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है - "नाटकों और निबंधों की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंगभाषा की देखा-देखी नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी ध्यान दिया जा चुका था। अँग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहल हिंदी में लाला श्री निवास दास का 'परीक्षागुरु' निकला था... उस समय तक बंग भाषा में बहुत अच्छे उपन्यास निकल चुके थे।"14 आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार पहले-पहल भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही "अपने पिछले जीवन में बंग भाषा के एक उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा ना कर सके थे।"15 हिंदी का प्रथम अनूदित उपन्यास डेनियल डेफो कृत 'रॉबिन्सन क्रूसो' था जिसे पं. बदरीलाल ने 'राबिंसन क्रूसो का इतिहास' शीर्षक से 1870 ई। में प्रकाशित कराया। यह अनुवाद भी अँग्रेजी से नहीं बल्कि बंगला से किया गया था।"16

सन 1870 में प्रकाशित 'देवरानी-जेठानी की कहानी' को आलोचक गोपाल राय हिंदी का प्रथम उपन्यास मानते है जबकि यह हिंदी में प्रकाशित प्रथम मौलिक गद्य कथा थी। इसमें कहीं भी उपन्यास होने का दावा नहीं किया गया है। उपन्यास पद का हिंदी में पहली बार प्रयोग 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' में प्रकाशित एक कहानी के लिए 1857 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। वास्तव में पं. बालकृष्ण भट्ट का 'रहस्य-कथा उपन्यास' भी - "हिंदी-प्रदीप के नवंबर 1879 अंक से प्रकाशित होना शुरू हो चुका था पर उपन्यास नाम से लिखित हिंदी की पहली पुस्तक 'राधाकृष्ण दास' कृत 'निस्सहाय हिंदू' है। इसकी रचना 1881 में हुई थी यद्यपि इसका प्रकाशन 1890 में हुआ और लेखक ने इसे 'एक क्षुद्र उपन्यास' की संज्ञा दी थी।" 17 आचार्य शुक्ल और हिंदी के अन्य कई इतिहासकार 'परीक्षागुरु' को 'अँग्रेजी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास' मानते हैं। लेकिन स्वयं लेखक लाला श्री निवासदास ने इसके लिए उपन्यास पद का प्रयोग नहीं किया है। उन्होंने इसे 'अनुभव द्वारा उपदेश मिलने की एक संसार वार्त्ता' तथा हिंदी में 'नए चाल की पुस्तक' कहा है। यह एक तरह का उपदेशाख्यान है और इसकी विषय वस्तु बंगला के 'नव बाबू विलास' और 'आलालेर घरे दुलाल' से मिलती जुलती है। 'देवरानी जेठानी की कहानी' हालाँकि इससे पूर्व 1870 ई। में प्रकाशित हो चुकी थी लेकिन इसके रचना विधान को लेकर यह विवाद बना हुआ है कि इसे उपन्यास कहा जाय या एक लंबी कहानी। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है - "परीक्षा गुरु को रामचंद्र शुक्ल ने अपनी चिर-परिचित शैली में 'अँग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास' कहा जो पहले पहल हिंदी में निकला। अँग्रेजी ढंग का उपन्यास कहने से स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल चरित्र-चित्रण प्रधान संश्लिष्ट कथानक पर आधारित कृति की ओर संकेत कर रहे हैं जो परीक्षा गुरु मूलतः है। यह निरा संयोग नहीं कि यह रचना स्वयं भारतीय और अँग्रेजी संस्कृतियों के संघर्ष को उपजीव्य बनाकर चलती है।"18

हिंदी में उपन्यास का आगमन एक नए चाल की पुस्तक के रूप में हुआ यद्यपि हिंदी समाज के नव-शिक्षित वर्ग में इस तरह की पुस्तकों की चाह बढ़ रही थी फिर भी इस पश्चिमी विधा को अपनाने में एक तरह का संकोच और आशंका व्यक्त की जा रही थी। घड़ी, फाउंटेन, कैमरा जैसी विलायती वस्तुओं की तरह उपन्यास के प्रति भी एक तरफ तो आकर्षण और लोकप्रियता थी, वहीं दूसरी तरफ विरोध के स्वर भी उठ रहे थे। मामूली बांग्ला और अँग्रेजी पढ़े-लिखे लोग भी उपन्यासों का धड़ाधड़ अनुवाद करने लगे थे। इसलिए आचार्य शुक्ल उपन्यास के आगमन को 'भाषा बिगड़ने का एक और सामान' 19 कहते हैं, साथ ही प्रारंभिक उपन्यासों को भाषा-विन्यास के आधार पर 'हल्की रचनाएँ' भी मानते हैं। आचार्य शुक्ल गंभीर साहित्यिक रचनाओं में शुद्ध साहित्यिक हिंदी का प्रयोग चाहते थे, इसलिए उन्होंने शिव प्रसाद सिंह वाली आमफहम भाषा के व्यवहार के चलते, देवकीनंदन खत्री के बहुचर्चित उपन्यासों को हल्की स्तर की रचनाएँ कहा। हालाँकि इसके पहले आचार्य शुक्ल देवकीनंदन खत्री को पहला मौलिक उपन्यास लेखक मान चुके हैं, जिनके उपन्यासों की 'सर्वसाधारण में धूम हुई'। उपन्यास विधा की ग्राह्यता को लेकर हिंदी समुदाय में कई तरह के विवाद चले। विवाद के एक तरफ तो देवकीनंदन खत्री के तिलस्मी ऐयारी तथा किशोरीलाल गोस्वामी के ऐतिहासिक सामाजिक उपन्यास थे और दूसरी तरफ उपन्यास मात्र की उपादेयता को लेकर शंका व्यक्त की जा रही थी। हिंदी साहित्य सम्मेलन के कलकत्ता अधिवेशन में विष्णुचंद्र शर्मा ने 'हिंदी का हानिकर साहित्य' शीर्षक से एक विस्तृत आलेख पढ़ा, जिसमे हिंदी में उपन्यास साहित्य के प्रसार से होने वाली हानियों को कुछ इस तरह गिनाया गया - "पहली हानि यह होती है कि ये श्रृंगार रस के अधिक होते हैं और इनके पढ़ने से पाठकों के हृदय में कुवासना उत्पन्न होती है, वे इश्क की उपासना करने लगते हैं, जिससे थोड़े ही दिनों में वे बल, नैरोग्य, उत्साह, धैर्य, चरित्र और धन से जीवन-मुक्त हो जाते हैं, दूसरी हानि यह है कि उनके पढ़ने से ऐहिक व पारलौकिक कार्यों में कुछ भी फल सिद्धि नहीं होती और तीसरी हानि मन और बुद्धि का सुखियापन है।"20 यहाँ गिनाई गई सभी हानियाँ उपन्यास के मूल स्वरूप से जुड़ी हुई हैं क्योंकि उपन्यास ने प्रारंभ से ही समाज के यथातथ्य चित्रण को अपना आधार माना और समाज के विद्रूप का चित्रण किया। विष्णु चंद्र शर्मा के द्वारा उपन्यास विधा पर लगाए गए इन आरोपों का 'इंदु' पत्रिका में चंपालाल जौहरी 'सुधाकर' ने 'हिंदी साहित्य में डकैती' शीर्षक लेख लिखकर जोरदार खंडन किया। आचार्य शुक्ल ने भी किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यासों पर चर्चा करते हुए यह माना है कि - "उनके बहुत से उपन्यासों का प्रभाव नवयुवकों पर बुरा पड़ सकता है, उनमें उच्च वासनाएँ व्यक्त करने वाले दृश्यों की अपेक्षा निम्नकोटि की वासनाएँ प्रकाशित करने वाले दृश्य अधिक भी हैं और चटकीले भी।"21

निःसंदेह उपन्यास हिंदी या भारतीय साहित्य की अपनी जातीय विधा नहीं है। उपन्यास के स्वरूप और भारतीय संदर्भ में उसकी अवधारणा पर अनेक आलोचकों ने गंभीरतापूर्वक विचार किया है। वस्तुतः हिंदी साहित्य की अपनी कथा परंपरा बिल्कुल अलग है और उपन्यास का रचना विधान बिल्कुल अलग। कथासरित्सागर, जातक कथा, पंचतंत्र जैसी कथाएँ भारत की अपनी जातीय कथा विधा से उत्पन्न हैं। जब प्रेमचंद 1925 में इस बात को लिखते है कि - "उपन्यास एक पश्चिमी पौधा है जो भारतवर्ष में लगाया गया है।"22 तो एक तरह से यह उसी बहस को आगे बढ़ाने जैसा है, जो हिंदी में उपन्यास विधा को लेकर संशकित लोगों और इस पश्चिमी विधा की भारत के संदर्भ में उपादेयता पर प्रश्न उठाने वाले लोगों ने चलाई। वस्तुतः हिंदी के लिए अँग्रेजी ढंग के नॉवेल का ढाँचा उचित था, या विशुद्ध 'भारतीय उपन्यास' का विधान, इस पर लंबे समय तक चर्चा चली और आज भी इस पर किसी एक मत का निर्माण नहीं हो पाया है। मराठी के सुप्रसिद्ध विद्वान विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े ने 1910 ई. में 'कादंबरी' शीर्षक से एक लंबा आलेख लिखकर पहली बार अँग्रेजी ढंग के नॉवेल के मुकाबले 'भारतीय उपन्यास' की बात की। 1988 में यह लेख हिंदी में अनूदित होकर आलोचना-अंक-84 में छपा। उन्नीसवीं सदी के उपन्यास लेखन पर अँग्रेजी के घटिया उपन्यासों की चर्चा करते हुए राजवाड़े ने लिखा - "भारतीय यथार्थवादी उपन्यासों का मूल स्रोत ही विदेशी नहीं है, बल्कि नमूने के तौर पर जिन उपन्यासों को चुना गया, वे भी वहाँ के सामान्य स्तर के उपन्यास ही रहे हैं, जिन्हें विदेशों में यथार्थवादी उपन्यासों के मूल स्रोत कहा जा सकता है ऐसे बेहतरीन उपन्यासों से प्रेरणा पाकर लिखने वाले यहाँ शायद ही हैं।"23 इसलिए राजवाड़े ने भारतीय उपन्यास की अपनी जातीय जड़ों की गहरी छानबीन करते हुए इस विधा के लिए अँग्रेजी के 'नॉवेल' या बांग्ला के 'उपन्यास' की बजाय संस्कृत आख्यायिका से आए शब्द 'कादंबरी' का प्रयोग किया। यह अलग बात है कि संस्कृत में कथा आख्यायिका की एक महान परंपरा पहले से मौजूद रही है, किंतु आधुनिक उपन्यास, जिसका मूल आग्रह यथार्थवाद है इस परंपरा की एक आधुनिक कड़ी के रूप में कहीं भी 'फिट' नहीं बैठता। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य परिषद मेरठ के वार्षिक अधिवेशन में 'कथा-आख्यायिका और उपन्यास' शीर्षक अपने व्याख्यान में इस सरलीकरण के प्रति सचेत कर दिया था। हमारी कथा-परंपरा कितनी भी महान रही हो, किंतु 'आधुनिक-उपन्यास' को उसी से उत्पन्न बताने के प्रचलन का विरोध होना चाहिए। आचार्य द्विवेदी ने कहा कि "यह गलत धारणा है कि उपन्यास और कहानियाँ संस्कृत की कथा और आख्यायिकाओं की सीधी संतान हैं। एक युग गया है जब कादंबरी और दशकुमार चरित की रीति पर सभी प्रांतीय भाषाओं में उपन्यास लिखे गए थे। हिंदी में शिवनंदन सहाय के उपन्यास और हृदयेश की कहानियाँ उसी रीति पर अर्थात शब्दों में झंकार देकर गद्य काव्य बनाने का उद्देश्य लेकर लिखी गई थी। पर शीघ्र ही सर्वत्र भ्रम टूट गया। झंकार कविता का प्राण हो सकता है पर वह उपन्यास का प्राण नहीं हो सकता, क्योंकि वह विशुद्ध गद्य युग की उपज है और उसकी प्रकृति में गद्य का सहज स्वाभाविक प्रवाह है।" 25 वैसे आचार्य द्विवेदी उपन्यास को नए यंत्र युग से उत्पन्न गुण दोषों में से एक मानते हैं। उनके अनुसार यह 'साहित्य में मशीन की विजय-ध्वजा' है। द्विवेदी जी उपन्यास के भारतीय कथा-आख्यापिका से अलग होने के पीछे 'यथार्थ के प्रति' इसके दृष्टिकोण को सबसे महत्वपूर्ण मानते है। 'हिंदी उपन्यास में यथार्थवाद का आतंक' शीर्षक से एक अन्य निबंध लिखकर इसके सरलीकरण से उत्पन्न होने वाले खतरों की ओर भी इन्होंने संकेत किया है। आचार्य द्विवेदी इस बात को स्पष्ट तरीके से रखते हैं कि उपन्यास भारतीय कथा-आख्यायिकाओं से किस तरह अलग है। उपन्यास में दुनिया जैसी है वैसी ही चित्रित करने का प्रयास रहता है किंतु कथा या आख्यायिका में कवि कल्पना के बल पर अपनी वास्तविक दुनिया से भिन्न एकदम नई दुनिया बना सकता है।"26 इस आधार पर अगर देखें तो हिंदी की अपनी कथा और आख्यापिका का स्वरूप यूरोपीय 'रोमांस' से कुछ अधिक मिलता-जुलता है, बनिस्बत 'आधुनिक उपन्यास' के।

डॉ. नामवर सिंह 'उपन्यास' के इस अँग्रेजी ढाँचे के पीछे के आकर्षण को उपनिवेशवाद का परिणाम मानते हैं। अँग्रेजी उपन्यासों की देखा-देखी 'नए चाल की पुस्तक' लिखने की लालसा अनेक साहित्यकारों में जगने लगी थी। नामवर सिंह इसे विडंबनात्मक स्थिति मानते हुए टिप्पणी करते हैं - "कैसी विडंबना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब अँग्रेजी 'ओरिएंटलिस्ट' कादंबरी, कथा-सरित्सागर, पंचतंत्र जैसी भारतीय कथाओं के पीछे पागल थे, तब स्वयं भारतीय लेखक 'अँग्रेजी ढंग का नॉवेल' लिखने के लिए व्याकुल थे। ये है उपनिवेशवाद के दो चेहरे।" 27 आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी हिंदी साहित्य के इतिहास में इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि - "उपन्यासों को काव्य के निकट रखने वाला पुराना ढाँचा एकबारगी छोड़ दिया गया है। छोड़ा क्यों जाए? उसके भीतर हमारे भारतीय कथात्मक गद्य प्रबंधों (जैसे कादंबरी, हर्षचरित) के स्वरूप कि परंपरा छिपी हुई है। यूरोप उसे छोड़ रहा है तो छोड़ दे। यह कुछ आवश्यक नहीं कि हम हर एक कदम उसी के पीछे-पीछे रखें।"28 नामवर सिंह उपन्यास के निर्माण को राष्ट्र के निर्माण के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार अँग्रेजों की गुलामी में पड़े हुए भारत के लिए आजादी एक स्वप्न थी। आँखों के आगे रोज-रोज दिखाई देने वाला गुलाम भारत नहीं बल्कि स्वप्न की कल्पना में आने वाला आजाद भारत। इसे नामवर जी कल्प सृष्टि कहते हैं और इस कल्प सृष्टि की परिणति कल्प सृजन के जरिये ही संभव मानते हैं। उनके अनुसार उपन्यास एक तरह का कल्प सृजन है। एक प्रकार से इसे गल्प से गल्प की सृष्टि भी कह सकते हैं। एक गल्प उपन्यास तो दूसरा गल्प राष्ट्र। इस अवधारणा के विस्तार में जाते हुए नामवर जी लिखते हैं - "विचार करें तो राष्ट्र भी एक गल्प ही है। कुल मिलाकर राष्ट्र भी एक प्रतिमा ही तो है। इसके निर्माण में अतीत की कितनी पुरागाथाएँ, मिथक, किंवदंतियाँ, लोककथाएँ, स्मृतियाँ, इतिहास-पुराण आदि का योग होता है? कहना कठिन है कि इसमें कितना वास्तविक है और कितना काल्पनिक। बेनेडिक्ट एंडर्सन ने शायद इसीलिए राष्ट्र को कल्पित जनसमुदाय कहा है। इसका प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों, विशेष तौर से उत्तरी अमेरिका में देखा जा सकता है। वहाँ उपन्यास का निर्माण और राष्ट्र का निर्माण साथ-साथ चला। कैरेबियाई देशों में उपन्यास सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है, लेकिन वहाँ का एक भी उपन्यास अँग्रेजी ढंग का नहीं है। उपन्यास लेखन का उनका अपना ढंग है। इसलिए एक उपनिवेश ग्रस्त समाज में अँग्रेजी ढंग के नॉवेल का स्वागत किया जाना आश्चर्यजनक है।"29 बंकिमचंद्र को नामवर सिंह सच्चे अर्थों में पहला 'भारतीय उपन्यासकार' मानते हैं जिन्होने 'अँग्रेजी ढंग का नॉवेल' लिखने का प्रयत्न ही नहीं किया। हिंदी में ठाकुर जगमोहन सिंह प्रथम उपन्यासकार हैं जिनकी कथाकृति 'श्यामा स्वप्न' किसी भी तरह से अँग्रेजी ढंग का नॉवेल नहीं है। नामवर सिंह बंकिमचंद्र के दुर्गेश नंदिनी (1865), कपालकुंडला (1866), और मृणालिनी (1869) का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ये तीनों उपन्यास किसी अँग्रेजी ढंग के नॉवेल की अपेक्षा संस्कृत के कादंबरी की याद दिलाते हैं और इसके लिए कोई सही आधुनिक शब्द देना चाहे तो वह है 'रोमान्स'।"30 उपन्यास की भारतीयता के आग्रह के बावजूद भी नामवर जी इस एक बिंदु पर आचार्य शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी की ही तरह 'उपन्यास' को पश्चिम से आई विधा मानते हैं। हालाँकि भारतीय नवजागरण के पैरोकारों की तरफ से यह बात जोर-शोर से उठाई गई थी कि उपन्यास विधा वस्तुतः प्राचीन भारतीय कथा आख्यायिकाओं का ही आधुनिक रूप है। नामवर सिंह इससे आपत्ति व्यक्त करते हुए 'यूरोपियन रोमान्स' को आधुनिक उपन्यासों का पूर्वज मानते हैं - "भारतीय उपन्यास के मूलाधार उन्नीसवीं शताब्दी के ये रोमांस ही हैं, न की तथाकथित अँग्रेजी ढंग के नॉवेल। उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय मानस का सही प्रतिनिधित्व 'कपालकुंडला' करती है, 'परीक्षागुरु' नहीं। वस्तुतः तथाकथित अँग्रेजी ढंग के नॉवेल का तिरस्कार करके ही बंकिम चंद्र के उपन्यासों ने भारतीय राष्ट्र के भारतीय उपन्यास की अपनी पहचान बनाने में पहल की। अँग्रेजी ढंग के नॉवेल का तिरस्कार वस्तुतः उपनिवेशवाद का तिरस्कार है।"31

उपन्यास विधा की भारतीयता और यूरोपियन उपन्यास के द्वंद्व पर चिंतन करने वाले आलोचकों में एक निर्मल वर्मा ने इस पर कई निबंध लिखे। 'संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास' उनका इस विषय पर प्रसिद्ध निबंध है जो किसी भी सर्जनात्मक विधा के लिए आत्म-परीक्षण की आवश्यकताओं को रेखांकित करते हुए भारत में उपन्यास के उदय, अभिग्रहण और भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से विचार करता है। निर्मल वर्मा उपन्यास को एक सांस्कृतिक सृष्टि मानते हैं, जो सीधे तौर पर समय के चौखटों में अपना विकास पाता है। यूरोपीय उपन्यास का विश्लेषण करते हुए उसकी खास सांस्कृतिक विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान अनायास ही चला जाता है। निर्मल वर्मा मानते हैं कि -"शायद ही कोई साहित्यिक विधा इतने भयानक और नंगे ढंग से समय सापेक्ष-वर्ग सापेक्ष रही हो, जितनी उपन्यास विधा थी। यह एक आईना थी जिसमें पहली बार बुर्जआ संस्कृति ने अपने दर्पपूर्ण गौरव और घिनौनी विकृति, दोनों को एक साथ देखा था।"32 भारतीय उपन्यास के उदय की पृष्टभूमि, यूरोपीय उपन्यास के बुर्जुआई समाज और मध्य वर्ग की पृष्ठभूमि से पर्याप्त अलग थी। भारत में इसे प्रश्रय देने वाला न तो वह बुर्जुआ समाज था और न ही व्यक्ति तथा समाज के संबंधो में इतनी द्वंद्वात्मकता और विकृति ही थी, जिसे निर्मल वर्मा या अन्य आलोचक उपन्यास के उदय के संबंध में 'यूरोपीय समाज की सांस्कृतिक विशेषता' के तौर पर रेखांकित करते हैं। इसलिए उन्हें ताज्जुब होता है कि आखिर क्यों - "हमने अपने कथात्मक गद्य के लिए उपन्यास जैसी विधा को चुना, जो नितांत भिन्न सांस्कृतिक अनुभव क्षेत्र में पनपी और विकसित हुई थी।"33 यानि यह कुछ उसी तरह से है कि हम ऐसे मकानों में रहने लगें जिन्हें दूसरों ने अपनी जरूरतों, संस्कारों और जलवायु के हिसाब से बनाया हो। एकबारगी तो निर्मल वर्मा का यह निष्कर्ष उचित लगता है किंतु जब हम भारतीय उपन्यास की विस्तृत रचना परंपरा को देखते हैं, तो इसका एकांगीपन भी हमारे सामने आता है। उनकी इस बात से तो आपत्ति नहीं दर्ज की जा सकती कि उपन्यास विदेशी विधा है, लेकिन जब वे उपन्यास, संस्कृति और राष्ट्र के बीच संबंधों को सही परिप्रेक्ष्य में उल्लेख किए बगैर गोदान को भी विशिष्ट भारतीय उपन्यास मानने से इनकार करते हैं, तो स्थिति आपत्तिजनक हो जाती है। गोदान भारतीय किसान जीवन की महागाथा है और एक तरह से हमारा 'राष्ट्रीय रूपक' भी। डॉ. नामवर सिंह ने उपन्यास की हेगल द्वारा की गई परिभाषा के अनुरूप इस मत को स्थापित किया कि अगर यूरोपीय उपन्यास आधुनिक मध्यवर्ग का महाकाव्य है तो भारतीय उपन्यास को किसान जीवन का महाकाव्य मानना चाहिए। इस रूप में उड़िया का 'छमाड़ आठ गुंठ' और हिंदी में 'गोदान' को भारतीय उपन्यास का प्रतिनिधि कहा जा सकता है, जबकि निर्मल वर्मा उसकी संरचनागत कमजोरी को निशाना बनाकर उपन्यास की सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देते हैं। निर्मल वर्मा के अनुसार गोदान की कमजोरी उस - "फॉर्म में निहित है,जो प्रेमचंद ने होरी जैसे जीवंत, अपनी सुख पीड़ा में सतत प्रवाहमन जैसे पात्र पर आरोपित की है। एक तरफ प्रेमचंद की गहन अंतर्दृष्टि है जो गोदान के पात्रों ने उन्हें दी है, दूसरी तरफ एक ऐसी बनी बनाई विधा को अपनाने की मोहजनक सुविधा है, जिसका इन पात्रों के संस्कारों, व्यक्तित्व, जातीय अनुभवों - उनकी जीवन धारा से कोई संबंध नहीं।"34 वस्तुतः गोदान और होरी से परिचित पाठक के लिए निर्मल वर्मा का यह विश्लेषण आसानी से गले नहीं उतर सकता। यदि निर्मल वर्मा के कथनानुसार हम मान भी लें कि भारतीय कथा परंपरा के अनुकूल न होने से उपन्यास हमारी जातीय कथा शैली का स्थानापन्न नहीं हो सकता, फिर भी हम केवल इसी आधार पर भारत में उपन्यास विधा की आवश्यकता को ही प्रश्नांकित नहीं कर सकते और गोदान की प्रासंगिकता को तो कतई नहीं। डॉ. मैनेजर पांडेय 'भारतीय उपन्यास और प्रेमचंद' शीर्षक अपने निबंध में लिखते हैं कि - "प्रेमचंद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के कथाकार हैं, केवल हिंदी जाति के जातीय जीवन के कथाकार नहीं हैं। इसलिए उनके संदर्भ में भारतीय उपन्यास की अवधारणा पर विचार करना उचित होगा। उनके कथा साहित्य में भारतीय समाज के जितने वर्गों, भारतीय जीवन के जितने पक्षों और भारतीय मनुष्य के जितने रूपों का चित्रण है, वे सब किसी दूसरे भारतीय लेखक के कथा साहित्य में शायद ही मिलें।"35 प्रेमचंद के उपन्यासों का 'फॉर्म' जैसा भी हो लेकिन उनके उपन्यास भारत के जातीय जीवन की असली झाँकी हमारे सामने लाते हैं, न कि किसी विशिष्ट समाज और उसके पात्रों का जीवन। इसलिए हम प्रेमचंद के उपन्यासों को जबरदस्ती की जोड़-गाँठ से अँग्रेजी ढंग का नहीं साबित कर सकते।

वास्तव में भारत सहित तीसरी दुनिया के अन्य देशों में भी उपन्यास का स्वरूप पहली दुनिया के पूँजीवादी देशों और दूसरी दुनिया के समाजवादी देशों से अनेक अर्थों में भिन्न है। उपन्यास अपने आधारभूत समाज की ऐतिहासिक स्थिति, सामाजिक यथार्थ के स्वरूप और रचनाकार के सांस्कृतिक अनुभव से अपनी अंतर्वस्तु में ही नहीं बल्कि रूप के स्तर पर भी जुड़ा होता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है की तीसरी दुनिया के देशों के उपन्यास का स्वरूप और प्रयोजन यूरोप के उपन्यास से भिन्न होगा। भारत का अपना जातीय उपन्यास भारत की जड़ों से ही उत्पन्न होगा जो की मूलतः किसानी से जुड़ी हुई हैं। इसलिए भारतीय उपन्यास की चर्चा करते हुए हम बार-बार 'गोदान', 'मैला आँचल' और 'छमाड़ आठ गुंठ'( फकीर मोहन सेनापति) की ओर जाते हैं। इसलिए भले ही निर्मल वर्मा या अन्य आलोचक यह कहें कि हम बरसों से एक ऐसी विधा से चिपके हैं जो शुरू से ही हमारे सांस्कृतिक अनुभवों, हमारी स्मृति और संस्कार, समय और विकास के प्रति हमारी विशिष्ट मर्यादा के प्रतिकूल और अयोग्य रही है, पर उपन्यास आधुनिक भारतीय समाज की अनिवार्य साहित्यिक विधा है। बदलते हुए भारतीय समाज की वास्तविकताओं और लोक जीवन के वृहद अनुभवों का सच्चा अंकन उपन्यास के जरिए ही संभव है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो - "वर्तमान जगत में उपन्यास की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके भिन्न-भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं।"36 वस्तुतः साहित्य का यही उद्देश्य भी है।

संदर्भ

1 . उपन्यास के पक्ष, ई.एम. फोर्स्टर्स

2 . हिंदी साहित्यकोश, सं। धीरेंद्र वर्मा पृष्ठ-121

3 . उपन्यास और लोक जीवन, रॉल्फ फॉक्स,पृ।43

4 . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका पृष्ठ-227

5 . हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली,सं। अमरनाथ,पृष्ठ-91

6 . हिंदी साहित्य का इतिहास,रामचंद्र शुक्ल,पृ।307

7 . वही,पृ।336

8 . उपन्यास:स्वरूप, संरचना तथा शिल्प, शांतिस्वरूप गुप्त,पृष्ठ-12

9 . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका,मैनेजर पांडेय, पृष्ठ-277

10 . वही पृष्ठ-277

11 . भारतीय उपन्यास की दिशाएँ,सत्यकाम, पृष्ठ-21

12 . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका,मैनेजर पांडेय, पृष्ठ-282

13 . वही, पृष्ठ-282

14 . हिंदी साहित्य का इतिहास,रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-307

15 . वही, पृष्ठ-307

16 . हिंदी उपन्यास का इतिहास,गोपाल राय, इतिहास, पृष्ठ-21

17 . भारतीय उपन्यास की दिशाएँ,सत्यकाम पृष्ठ-56

18 . हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास,रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ-137

19 . हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-328

20 . वही, पृष्ठ-335

21 . वही, पृष्ठ-334

22 . हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास,रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ-138

23 . हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-335

24 . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका,मैनेजर पांडेय, पृष्ठ-280

25 . आधुनिक हिंदी साहित्य,सं।अज्ञेय, पृष्ठ-74

26 . वही, पृष्ठ-74

27 . संकलित निबंध, नामवर सिंह, पृष्ठ-141

28 . हिंदी साहित्य का इतिहास,रामचंद्र शुक्ल,पृ।360

29 . संकलित निबंध, नामवर सिंह,पृ।142

30 . वही-पृ। 143

31 . संकलित निबंध,नामवर सिंह,पृ।142

32 . लेखक की आस्था, निर्मल वर्मा,पृ।83

33 . वही,पृ।84

34 . लेखक की आस्था, निर्मल वर्मा,पृ।88

35 . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका,मैनेजर पांडे,पृ।290

36 . हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल,पृ।357


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