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कविता

भटकते रास्ते

डॉ. भारत खुशालानी


कैसे करूँ मैं उसकी पैरवी
जिसके पास मैं खुद हूँ गिरवी
मेरे पास नौकरी थी
यह बात सही नहीं थी
कैदखाने में बंद था
ईटों से चुनी हुई दीवार की तरह तहबंद था
व्यवस्था का गुलाम था
न दिन में चैन न रात में आराम था
दिन-ब-दिन पिस रहा था
बेमतलब घिस रहा था
बेकार के मसलों में कुचला जा रहा था
जाने कहाँ चला जा रहा था
अपने रास्तों को हम खुद जब रँगते हैं
तो इरादे नेक और अच्छे होते हैं
लेकिन परिस्थिति का जरूरी करिश्मा है
वरना जिंदगी असहनीय ऊष्मा है
आखिर में जब हुआ उसका हस्तक्षेप
मेरी जीवनधारा को उसने कर दिया विक्षेप
तब जाकर मुझे छुटकारा मिला
अतिसुंदर दिखाई नजारा मिला


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