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कविता

हरबार

मंजूषा मन


जब राम ने
मेरी अग्नि-परीक्षा ली
फिर भी मुझे त्याग
वन भेजा
तब मैं सीता नहीं थी

जब सिर्फ एक वचन को निभाने के लिए
बनाया गया मुझे
पाँच पतियों की पत्नी
बाँटा गया मुझे
पञ्च पुरुषों में
मुझे दाँव पर लगाया
भरी सभा में
मुझे अपमानित किया
तब मैं द्रोपदी नहीं थी।

जब गौतम ऋषि ने
मेरे चरित्र पर शक कर
मुझे शिला बनाया
वर्षो सताया
तब मैं अहिल्या नहीं थी।

जब राणा ने
मुझे दिया विष का प्याला
घर और समाज से निकाला
तब मैं मीरा नहीं थी।

जब समाज ने
मुझे मेरे पति की चिता पर
जिंदा जलाया
मुझे सती बनाया
तब मैं रूपकँवर नहीं थी।

जब व्यभिचारियों ने
मेरा सतीत्व भंग किया
मेरी हत्या की
तब मैं... नहीं थी।

मैं कभी सीता, कभी द्रोपदी
कभी अहिल्या
कभी मीरा नहीं थी
यह सब हुआ मेरे साथ
सिर्फ इसलिए
क्योंकि हरबार
हाय! मैं
एक औरत थी
हरबार
सिर्फ एक औरत।


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