मेरे घर मासिक वेतन पर आई एक आया धीरे-धीरे यशोदा बन जाती है... मैं बनी रह गई देवकी... कभी परिवार की जरूरत कभी सपनों की उड़ान तो कभी मजबूरी की मोटी-मोटी साँकलों में जकड़ी रही... मैं किसी सूरत तोड़ न पाई अपना कारागार समय का कंस जकड़े रहा मुझे...
हिंदी समय में मंजूषा मन की रचनाएँ