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कहानी

एक्वेरियम

महेंद्र सिंह


यह मैं हूँ। यह मेरी तस्वीर है। इसमें मेरे बाल खूब बढ़े हुए हैं - धोनी प्रभाव के चलते नहीं, बल्कि अल्प-बेकारी से उपजे आलस के कारण। मेरी बेतरतीब मूँछें काली-काली हैं। बाल भी काले ही हैं। तब उनमें सफेदी नहीं आई थी। मैंने कोट पहना हुआ है। टाई लगाई हुई है। कोट भूरे रंग का है। टाई गुलाबी-लाल-चमकीले रंग की है। मैं फोटो इस शर्त पर खिंचाने के लिए राजी हुआ था कि वह मेरी छाती तक खींची जाएगी। उसमें शरीर के शेष अंग नहीं दिखाए जाएँगे। पर भाई-भाभी के बीच आँखों ही आँखों में कुछ इशारे हुए। भैय्या ने अपनी फोटोग्राफी का कमाल दिखा दिया और मेरी पूरी फोटो खींच डाली - सिर से ले कर नंगे पाँव तक। भाई-भाभी-छुटकी फोटो देख-देख कर हँस रहे हैं। भाभीजी ने फोटो का नामकरण कर दिया है - दाढ़ी वाला बकरा और अब वह मुझसे चुहल कर रही हैं - "वाह! क्या लाजवाब फोटो है। बढ़े हुए बाल! बेतरतीब मूँछें! ठोडी पर उगी बकरे की दाढ़ी! भूरा कोट! चमकीली टाई! सफेद पाजामा! पाजामे में लटकता नाड़ा! नंगे पाव! क्या एस्थेटिक सेंस है मेरे देवर जी का!" माँ-पिताजी के चेहरे पर भी मुसकुराहट तैर रही है। पर वह लिहाजवश खिलखिला नहीं रहे हैं। मैं हँसना चाह रहा हूँ, पर उसमें खिसियाहट है... खंभा नोचने की बिलौटे की इच्छा समाहित है। थोड़ी देर बाद मैं स्वयं को फोल्डिंग-बेड पर पसरा हुआ पाता हूँ। रात के दस बजते-बजते घोड़े बेचने की मेरी तैयारी पूरी हो चुकी होती है।

सुबह के आठ बजे हैं। मेरे मोबाइल में आठ बजे का अलार्म बजने लगा है। मेरे हाथ में भैय्या का दिया हुआ डयूटी फ्री शॉप का पॉलीथीन बैग है। थैले में कंपीटिशन सक्सेस रिव्यू का ताजा अंक है। टिफिन है। मैं ब्लू लाइन बस में हूँ। आई.टी.ओ. से एक दढ़ियल-पढ़ा-लिखा युवक बस में चढ़ा। झोले को बगल में दाब कर वह सीधा अगले दरवाजे की दूसरी पायदान पर पहुँच गया। मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के खूनी दरवाजे वाले बस स्टॉप पर वह एक पायदान और उतर गया। फिर न जाने उसे क्या हुआ कि वह पुनः दूसरे फुटबोर्ड पर आ गया। अंबेडकर स्टेडियम आते-आते वह टू-बाई-टू पहले पायदान पर पुनः पहुँच गया। सवारी नवयुवक को देख रही थी और मेरी नजर चालक पर थी। ड्राइवर का धैर्य जवाब दे गया। वह कुढ़न मिश्रित क्रोध में उस युवक से बोला - "रै कटैले के बीज! (एक जंगली झाड़ जिसका फल कड़वा होता है और जिसमें काँटे होते हैं।) पाछै नै होज्जा कि उत्तर्र ज्जा।" कटैले के बीज शब्द सुन कर टू-बाई-टू के नथुने फूल गए। हालाँकि उसे इसका मतलब समझ में नहीं आया था। वह बिफरता हुआ ड्राइवर से बोला -

"क्या बोला तूने?"

"रै सन्नी देओल पाछै नै होज्जा कि उत्तर्र ज्जा!"

नवयुवक की बुद्धि सही समय पर उसका साथ दे गई और उसकी तरेरती हुई आँखें अंबेडकर स्टेडियम की लालबत्ती देख कर कदमों को अपने साथ ले चली, वरना एकबारगी तो छह फुटे वाहन चालक ने 'जैक' लगाने के इरादे से खटारा ब्लू लाइन बस रोक ही डाली थी। मन ही मन मैंने शुक्र मनाया कि सुबह-सुबह एक कांड होने से बच गया। मेरी तरह बस की अन्य सवारियों ने भी राहत की साँस ली। अंबेडकर स्टेडियम से गोलचा थियेटर तक की आधे किलो मीटर की दूरी नापने में मुझे बीस मिनट लग गए। दस मिनट तो लालबत्ती ने ही ले लिए। शेष समय बस की कच्छपगति ने लील लिया। गोलचा पर जब मैं उतरा, तब नौ बज चुके थे।

न्यू ग्रुप के दफ्तर पहुँचने तक मेरे मन में खूनी दरवाजे के बारे में सवाल उठते रहे। जहाँगीर ने अब्दुल रहीम खान-ए-खाना के दो बेटों को खूनी गेट पर मरवा दिया था। औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह का सिर काट कर इसी दरवाजे पर लटकाया था। विलियम हडसन ने 1857 के विद्रोह के अंत में बहादुरशाह के बेटे मिर्जा मुगल और किर्जा सुल्तान तथा उसके पोते अबू बकर को यहीं पर गोली से मार दिया था। और अब आजाद भारत में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज की एक छात्रा का यहीं पर चाकू की नोक पर दिन दहाड़े बलात्कार किया गया था। क्या यह खूनी दरवाजे का अर्थ विस्तार है या अर्थ ह्रास या खूनी दरवाजे ने यहाँ पर केवल अपनी परंपरा का निर्वाह ही किया है? ऐसे कितने और खूनी दरवाजे हम बनाते रहेंगे? क्या इन खूनी दरवाजों को ढहाया जा सकना कभी संभव हो पाएगा?

न्यू ग्रुप के दफ्तर में पहुँचने पर मैंने अपने विचारों को लगाम लगाई। यहाँ तक पहुँचने के दो रास्ते थे। एक गोलचा के पीछे से जाता था। यह चौड़ा, पर लंबा रास्ता था। दूसरा, दरियागंज सब्जीमंडी के बगल से जाने वाली पाँच फुटा गली से होता हुआ जाता था। लाला हरदयाल पुस्तकालय, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं की दुकानों, मोती महल रेस्टोरेंट और सब्जीमंडी को देखता-दाखता और भीड़-भाड़ से बचता-बचता मैं दूसरे रास्ते पर ही चल पड़ा। गली में अंदर मुड़ते ही एक लैंपपोस्ट पर अँग्रेजी में तीर के निशान के ऊपर न्यू ग्रुप लिखा हुआ था। तीस कदम चलने पर गली के मोड़ पर इस बार हिंदी में 'यू ग्रुप '(शायद आँधी-बारिश की मार झेलते-झेलते न्यू ग्रुप, यू ग्रूप हो चला था।) दीवार पर लिखा गया था और तीर के संकेतक से रास्ता बताया गया था। दस-पंद्रह कदम और चलने पर गली एक बार फिर से मुड़ गई थी। यहीं पर न्यू ग्रुप का दफ्तर था।

मुझे संपादन कक्ष में बैठा दिया गया था। इसमें घुसते ही बाई ओर पर एक मेज और उसके पीछे रिवाल्विंग चेयर थी। कमरे के आजू-बाजू में दो उप-कमरे और थे। बाएँ कमरे में एक स्टडी टेबल-चेयर-लैंप ही थे। यह सेठी साहब का कमरा था। दाएँ कमरे के दरवाजे का शीशा काला था। कोई अन्य अंतर उनमें न था। हाँ, दरवाजे के हिस्से के अलावा दाईं ओर एक बुकशेल्फ भी थी। कमरे में घुसते ही सामने की दीवार के साथ डेढ फुट चौड़ा और साढ़े छह फुट लंबा लकड़ी का मेजनुमा स्लैब सा था जिसके सम्मुख चार कुर्सियाँ रखी हुई थीं। अपनी गर्दन सीधी करने पर ऊपर बनी हुई लकड़ी की अलमारियों से सिर टकरा जाता था तथा दीवार पर लगी छोटी-छोटी ट्यूबलाइटों से आँखें चौंधियाने लगती थीं। यह हमारा संपादन कक्ष था। रिवाल्विंग चेयर पर बैठे एक सज्जन टाइप कर रहे थे और करते चले जा रहे थे। फिर की-बोर्ड पर एक जोर का स्ट्रोक मार कर टाइपिंग रोकते हुए वह बोले -

"लो कवर स्टोरी तो नक्की हो गई। अब बस एडिट बचा है।"

"सुनेजा साहब बधाई हो! तो हो जाए कुछ।" गोरे रंग के पूर्णचंद्र ने आँख पर चढ़े हुए चश्मे को नीचे करते हुए कहा।

"क्या हो सकता है यार यहाँ पर?" आह भरते हुए सुनेजा साहब बोले।

"क्यों क्या बी.बी.सी. के भूतपूर्व विशेष संवाददाता को याद आ रही है अपनी कुलीग की?"

"डॉक्टर गिहरोत्रा याद तो उसकी आती है, जो दिल से अलग हो! वो तो आज भी मेरे दिल में रहती है!"

"तो चले जाओ न फौरन उसके पास!" फिर जैसे डॉ गिहरोत्रा को कुछ याद आ गया हो। वह गर्दन पलट कर एक वृद्ध सिक्ख से बोले - "मदान साहब जब आप नेपाल में पोस्टेड थे, तब आप वोट्टी (पत्नी) को साथ ले गए थे!"

"हाँ!"

"तभी आपको कोई विक्टोरिया नहीं मिली! सुनेजा साहब को देख लो, वो बस एक बार ही इंग्लैंड गए थे और वहाँ पर अपना डंडा गाड़ कर आ गए!"

"ओ यार! सुनेजा साहब ही डेविड बैकम बन सकते हैं, मैं नहीं। महाराज! मुझे तुम बख्शो।"

तभी एक छह फुटा युवक टक-टक छोड़ कर 'वोट्टी' बोलने वाले डॉक्टर के पास आया और उनसे बोला -

"डॉ. गिहरोत्रा सर... इसकी स्पैलिंग ठीक नहीं है।"

"यार! मैथ्यू तू आधा एडिटर तो हो ही चला है... खुद ठीक कर ले न इसे...।"

मैथ्यू की बात से जैसे सुनेजा साहब वापस धरती पर लौट आए हों। उन्हें मेरी उपस्थिति का ख्याल आ गया। वह बोले - "बेटा!" सुनेजा साहब के संबोधन ने मुझे पिघला सा दिया। मैं उठ कर उनके पास जाने लगा। तो, वह तुरंत बोल पड़े - "नहीं, नहीं... मेरे पास आने की जरूरत नहीं है। तुम मैथ्यू की बगल में ही बैठे रहो। वही तुम्हारी सीट है।" दो-तीन मिनट बाद एकाउंट्स सेक्शन से किसी सज्जन के जोर-जोर से बोलने की आवाजें आने लगीं। मेरे हिसाब से उनकी आवाज एक किलोमीटर की दूरी से भी आराम से सुनी जा सकती थी। वह फोन पर किसी को डाँट रहे थे - "हाँ! भैय्या मैं सर्कुलेशन इंचार्ज सक्सेना बोल रहा हूँ। भैय्या हमारी बिलटी का क्या हुआ? माल अभी तक गोदाम में क्यों नहीं पहुँचा?" थोड़ी देर में सक्सेना जी पत्र लिखवाने के लिए सुनेजा जी के पास आए। उन्होंने सक्सेना जी से पूछा - "आप कुछ देर पहले बहुत जोर-जोर से बोल रहे थे।" सक्सेना जी जवाब देते, इससे पहले डॉ. गिहरोत्रा ने अपनी चोंच मारते हुए कहा - "दरअसल, दूसरा आदमी धीरे बोल रहा था, इसलिए सक्सेना जी जोर से बोल रहे थे!" टिप्पणी करने के बाद गिहरोत्रा जी काम में मशगूल हो गए। एक बजे लंच हो गया। मेरे पीछे बैठे हुए मदान साहब बोले - "आ डांगडर! रोटी-शोटी खा ले।"

मदान साहब ग्रुप के अतिवरिष्ठ सदस्य थे। सरकारी सेवा के दौरान वह सेठी साहब के महकमे में सेक्शन ऑफिसर थे। तब सेठी साहब उनके निदेशक और अब संपादक थे। मदान साहब ने बात छेड़ी हो और सुनेजा साहब उस पर लाला अमरनाथ की तरह विशेष टिप्पणी न करें, ऐसा हो ही नहीं सकता था। इनकी दूसरी आदत यह थी कि वह कोई बात शुरू करने से पहले खौं-खौं कर अपना गला साफ करते थे और फिर अपने अँग्रेजी लहजे में हिंदी बोलते थे क्योंकि उनकी आत्मा में इंग्लिश का लेक्चरर बसता था। मदान साहब के ट्रेडमार्का संबोधन पर प्रतिक्रिया करते हुए वह बोले -

"मदान साहब! यह डॉक्टर नहीं है। इसने डी.यू. से हिंदी में ऐेंवे (एम.ए.) किया हुआ है!"

"ओ जी छड्डो इसको। हमारे लिए तो सभी के सभी डांगडर हैं! छोटू चायवाला भी डांगडर है! मैथ्यू भी डांगडर है! स्वीपर भी डांगडर है!" गिहरोत्रा-मदान संवाद के आधार पर मैं डॉक्टर साहब को उस व्यक्ति की श्रेणी में डाल चुका था जो अपनी नाक में मक्खी तक बैठने नहीं देता था। उनके हिसाब से उनकी सभी बातें अच्छी होती थीं। यदि कोई उन पर छीटा फेंकता था, तो वह जामे से बाहर हो जाते थे। मदान साहब ने जान-बूझ कर बर्र के छत्ते में हाथ दे डाला था। डॉ. गिहरोत्रा तुनक कर बोले - "मदान साहब! इसके लिए पढ़ना पड़ता है। आँखें खराब करनी पड़ती हैं। आपकी तरह नहीं कि एस.एस.सी. की सेक्शन ऑफिसर की परीक्षा पास कर ली, तो किला फतह कर लिया और परीक्षा भी पास कब की जब रिटायरमेंट को केवल तीन साल रह गए थे!" इसके बाद उन्होंने अपनी पतलून की जेब से रूमाल निकाला और वह नाक सिनक-सिनक कर साफ करने लग गए। इससे मदान साहब की प्रतिक्रिया में क्षणिक विराम आ गया। पर वह भला पेट्रोल को दियासिलाई दिखाने का मौका हाथ से कब जाने देते और क्यों जाने देते। तपाक से वह बोल पड़े -

"यही तो मैं कह रहा हूँ। अगर आपमें कुछ बात है, तो करके दिखाओ पास कोई एग्जाम...। एक बार दाखिला लेने पर हर गधा-घोड़ा तो डांगडर बन ही जाता है! फिर मैं तो टैंट कोलंबस (टाट-पट्टी स्कूल) का पढ़ा हुआ हूँ। आप तो सेंट कोलंबस के छात्र रहे हैं। हम दोनों एक ही जगह पर हैं। अब हममें क्या फर्क रह गया - बल्कि चेला ही शक्कर हो चला है।"

"मदान साहब! गिहरोत्रा जी ने न्यू ग्रुप के लिए कई किताबें लिखी हैं। यह ग्रुप की विज्ञान पत्रिका के संपादक भी हैं। गोल्ड मेडलिस्ट भी रहे हैं।" सुनेजा साहब ने हस्तक्षेप करते हुए कहा।

"हाँ! तभी पत्रिका के संपादकीय की फाइनल कॉपी मुझसे करैक्ट करवाने के लिए आप लाए थे...!"

आधे घंटे के लंच में जितनी छींटाकशी हो सकती थी, इस बीच हो चुकी थी। अब काम की बेला आ चुकी थी। मदान साहब जी.के. एक्सपर्ट थे। अँग्रेजी पर भी उनका अच्छा अधिकार था। लेकिन विज्ञान के प्रश्नों से वह अपने बाल खुजलाने लगते थे। तब वह डॉ. गिहरोत्रा की शरण में जाते थे। ऐसे मौकों पर डॉक्टर साहब उनकी अच्छे से नीली-पीली कर डालते थे। मदान साहब उन्हें मनाते हुए कहते -

"गिहरोत्रा यार जरा मदद कर दे मेरी।" डॉ. गिहरोत्रा फूले तो बैठे ही होते थे, वह बोलते

"मदान साहब, प्लीज मुझे डिस्टर्ब मत करो...।"

"ओ यार! तू नाराज मत हो डांगडर।"

"मदान साहब! मैं शाम तक इसे सॉल्व कर दूँगा। अभी मैं आई.आई.टी. में लगा हूँ।" डॉ. साहब पाँच-छह प्रश्नों के लिए मदान साहब को शाम तक लटकाए रखते। थोड़ी देर में इंटरकाम बजने लगा। डॉ. गिहरोत्रा की जबान से शब्द निकलते जा रहे थे - "जी सर, यस सर, राइट सर, हुक्म सर, श्योर सर, ठीक है जनाब, वेल्कम सर।" इस समय उन्होंने अपने बाएँ हाथ से रिसीवर पकड़ा हुआ था और दाएँ से वह पैन पकड़ कर अपनी कपार खुजाते जा रहे थे। फिर हुक्म की तामील करते हुए वह बोले -

"क्या नाम है आपका मिस्टर... राजेंद्र सिंह। यह आई.आई.टी. का पिछले साल का सॉल्वड पेपर है। इसे शाम तक नक्की कर डालो!"

"क्या कर डालो?"

"खैंच डालो!"

आई.आई.टी. और एम.ए. (हिंदी) में कोई संबंध न था और न कोई संबंध हो ही सकता था। मैं मन ही मन अगण-मगण-जगण तगण-रगण-भगण करने लगा! प्रश्न पत्र डॉ. गिहरोत्रा के हाथों से लेते हुए मेरे हाथ काँप रहे थे। मेरे कानों में किसी विद्वान के शब्द गूँज रहे थे - अनुवादक धोखेबाज होते हैं! (ट्रांसलेटर्स आर चीटर्स!) यह है... ट्रांसलेटर्स च्वाइस बेबी... अहा...! मैंने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के दोनों खंडों को उठा लिया। उक्त हल प्रश्न पत्र से कम से कम सौ तकनीकी शब्दों को एक कागज पर उतार लिया। मदान साहब ने घर जाते समय एक बार फिर मुझे डॉक्टर कहा - "अच्छा डांगडर चलता हूँ।" डॉ. गिहरोत्रा को धूल से एलर्जी थी। वह साइनस के भी शिकार थे। अचानक उन्हें छींक आनी शुरू हो गई और वह अपनी कमर दर्द से भी तिलमिलाने लगे। होते-करते वह भी सुनेजा साहब की तरह साढ़े पाँच बजे तक फुट लिए। मैथ्यू-मिश्रा भी छह बजे तक तक टक-टक-टक कर चलते बने। संपादन कक्ष में रह गया सिर्फ मैं। मैंने छह बजे के बाद दो घंटे में उक्त प्रश्न पत्र खैंच डाला।

रात आठ-सवा आठ बजे मैं एक बार फिर से गोलचा के पास था। घर की बस पकड़ने के लिए सड़क पार करके बस स्टॉप पर खड़ा हो गया मैं। इस तरफ दरियागंज पुलिस स्टेशन था। थाने से निकलती हुई उप-सड़क पर आगे अंसारी रोड था। यहाँ पर कई प्रकाशन समूह थे। ...गोलचा के इस पार से उस पार तक न जाने कब पहुँच पाऊँगा मैं...। कोई साहित्यक पत्रिका, कोई नामी-गिरामी प्रकाशक न जाने कब मुझे मौका देगा... न जाने कब मेरी कहानियाँ प्रकाशित करेगा। एक आह की लकीर सी मेरे जहन में खिंच गई।

बकौल मिश्रा डॉ. गिहरोत्रा ने पहले दिन ही मेरी नत्थ उतार दी थी। अगले दिन ठीक नौ बज कर पंद्रह मिनट पर मदान साहब नीली पगड़ी से मैच खाता हुआ कोट-पैंट-टाई-शर्ट पहन कर संपादन कक्ष में नमूदार हुए। रोज की तरह वह शीशगंज गुरुद्वारे में मत्था टेक कर आए थे। अगर मदान साहब सुबह शीश नवा नहीं पाते थे, तो वह शाम को अवश्य दर्शन करने जाते थे। उन्हें देख कर सुनेजा जी बोल पड़े -

"वाऊ टेरेफिक! आज तो परजाई की खैर नहीं। कहीं आज आपकी सालगिरह तो नहीं है!"

"नहीं, दरअसल मदान साहब आज के दिन ही सेक्शन ऑफिसर बने थे!" डॉ. गिहरोत्रा ने फुलझड़ी जलाई।

मदान साहब के पिलपिले से मुख में एक खिसियाई सी हँसी आई और छिप गई। वह गुरुद्वारे से लाया गया प्रसाद कमरे में बैठे एक-एक व्यक्ति को बाँटने लगे। मैं मजे से अपनी कुर्सी हिला रहा था। यकायक बेध्यानी में मेरा शरीर का संतुलन गड़बड़ा गया और मैं कुर्सी समेत पीठ के बल गिर पड़ा। हालाँकि मदान साहब मेरे बिल्कुल समीप खड़े हो रखे थे, पर उठाया मुझे मैथ्यू ने। डॉ. सुनेजा और डॉ. गिहरोत्रा समेत सभी लोगों ने मेरी चोट-वोट के बारे में पूछा। पर मदान साहब निर्विकार भाव से खड़े रहे। तब डॉ. गिहरोत्रा ने उनसे पूछा -

"मदान साहब आप इसकी कुर्सी पकड़ नहीं सकते थे।"

"डांगडर साहब! एक तो इसे मैंने गिराया नहीं था और दूसरे यह मुझ पर गिर नहीं रहा था!"

"वाह मदान साहब! तुस्सी ग्रेट हो।"

सौभाग्य से मुझे कोई चोट नहीं लगी। इंटरकॉम की घंटी बजी। सुनेजा साहब ने रिसीवर बढ़ाते हुए मुझसे कहा -

"लो 'इंगे वा' (अर्थात इधर आ। जॉल्सी किसी को बुलाने के लिए ही फोन किया करती थी। इसलिए यह उसका निकनेम हो चला था।) का फोन है तुम्हारे लिए!"

"गुड मॉर्निंग सर! रिसेप्शन से जॉल्सी बोल रही हूँ। भाई साहब आपको याद कर रहा है।"

"अच्छा।" रिसीवर वापस रखते हुए मैंने मैथ्यू से पूछा -

"यह भाई साहब कौन है?"

"आखिर नाजी कैंप से तुम्हें भी बुलावा आ ही गया!" मदान साहब ने चुटकी लेते हुए कहा।

"वह मिस्टर ब्राइन हैं। क्या तुम्हें अभी तक डायरी नहीं मिली?"

"नहीं तो!"

मैथ्यू केरलवासी था। उसने एम.ए (अँग्रेजी) किया हुआ था। वह पाँच हजार रुपये की पगार पर पिछले डेढ साल से न्यू ग्रुप में क्लर्की कर रहा था। उसने मुझे ब्राइन साहब के बारे में कुछ और भी बातें बताईं। ब्राइन नाम सुन कर मैं सोच रहा था कि वह जेम्स-वेम्स की तरह का कोई अँग्रेज या अँग्रेजी मानसिकता वाला कोई शख्स होगा। पर वह निकला राजौरी गार्डन के सिक्ख मुहल्ले का ठेठ सरदार। मैं भीगी बिल्ली सा ब्राइन साहब की मेज के सामने खड़ा हो गया। पहली भेंट में भाई साहब मुझे प्रेम चोपड़ा के सिक्ख संस्करण लगे। अलबत्ता, उनकी टमी जरूर प्रेमनाथ जैसी थी। मेरी तरह प्रोडक्शन मैनेजर खुराना भी ब्राइन साहब के सामने खड़े हो रखे थे। उनके चेहरे पर पाषाणता थी और नेत्रों में क्रूरता थी। मैं पहली बार भाईसाहब से मिल रहा था और वह मुझे उपेक्षित करते जा रहे थे। थोड़ी देर में उन्होंने इंटरकाम से डॉ. सुनेजा और डॉ. गिहरोत्रा को भी अपने कमरे में बुला लिया। वाइस-प्रिंसीपल साहब और गिहरोत्रा साहब भी भाई साहब के सामने आ कर खड़े हो गए। उनके चेहरे रूपी लिफाफे पर वेल्ले यानि कि खुराना को कोसे जाने का मजमून साफ-साफ लिखा हुआ नजर आ रहा था। उन तीनों की पेशी हो रही थी और मेरा उनसे परिचय हो रहा था। भाई साहब के फूले हुए नथुनों का कारण पत्रिका के अंक का तैयार न होना था। वह अपनी क्रोधाग्नि से तीनों को झुलसाते जा रहे थे। पेशी पूरी होने पर वह तल्खी से डॉक्टर सुनेजा से बोले -

"चौबीस घंटे हो गए इन्हें दफ्तर में आए हुए... और यह अभी तक मुझसे डायरी लेने नहीं आए। इन्हें आई.ए.एस. की जनरल स्टडीज की बुक दे दो। टाइम लिमिट तय कर दो। और हाँ, आई.ए.एस के रिजल्ट पर नजर रखो। रिजल्ट आउट होने के चौबीस घंटे के भीतर मुझे आई.ए.एस. टॉपर का इंटरव्यू और न्यू ग्रुप के साथ उसके एग्रीमेंट पर साइन चाहिए। अपनी तैयारी पूरी रखो। इंडिया के किसी भी कोने में आपको जाना पड़ सकता है।" फिर मेरी तरफ मुखातिब होते हुए वह बोले -

"यह है आपकी डायरी। रोज इसमें अपनी आउटपुट लिखो और मुझे दिखाओ।"

मेरे जहन में आउटपुट शब्द कुलाँचे मारने लगा। सुबह-शाम का दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरने लगा। डॉ. सुनेजा, डॉ. गिहरोत्रा, मदान साहब, प्रोडक्शन मैनेजर, सर्कुलेशन मैनेजर, एल.डी.सी., ...सभी के सभी एक-एक कर आ रहे हैं और भाई साहब के कमरे का दरवाजा खोलकर मत्था टेक रहे हैं... डायरी ले जा रहे हैं। शाम को डायरी में आउटपुट दर्ज करो, प्रणाम करो और घर जाओ...। अगले दिन डायरी में दिए गए निर्देश के अनुसार काम करो। मेरी पहले दिन की डायरी में खिचड़ी भाषा में लिखा हुआ था - "इनक्रीज स्पीड... हिंदी करो आई.ए.एस. बुक... पेजस 300। टाइम-लिमिट... 30 डेज...।" डायरी के उस पेज की पताका पर लिखा हुआ था - 'फ्रॉम दि डेस्क ऑफ ब्राइन'...।

'अस्सी-तुस्सी प्रा-प्रा' पेशी वाली शाम को रात नौ बजे तक भट्‌ठी में तपते रहे थे। अगली सुबह डॉक्टरों की जुगल जोड़ी भाईसाहब के सामने सीट पर बैठ कर हँस-हँस कर बातें कर रही थी। सुबह की दूसरी हैरानी मुझे मदान साहब को देख कर हुई। उस दिन मदान साहब पग बाँध कर नहीं आए थे। वह प्रभात फेरी से सीधे दफ्तर आ गए थे। थकावट और नींद पूरी न हो पाने के कारण उन्हें सजने-सँवरने का मौका नहीं मिल पाया था। उस समय वह शीशगंज गुरुद्वारे के ग्रंथी लग रहे थे। उनके पास सिर्फ बड़ी कृपाण ही नहीं थी। मदान साहब के हाथ में डायरी थी और जबान में हीरा-मोती थे -

"आज न जाने क्या होगा! रावण हँस रहा है और पछाई जाति के हीरा-मोती उसके पास हैं!"

"रावण हँस रहा है और पछाई जाति के हीरा-मोती उसके पास हैं! वाह! क्या खूब रही।" मदान साहब के व्यंग्य की तासीर मैं हृदय में महसूस कर रहा था कि तभी कमरे में दो महानुभवों का आगमन हुआ। पहले के मोटा चश्मा चढ़ा हुआ था। उसकी कमीज पेंट के बाहर थी। दूसरे का चश्मा नहीं, पेट मोटा था। उसकी कमीज पेंट के अंदर थी। इन्हें देख कर मदान साहब बोले -

"आओ भई, अहलावत-सहरावत...।"

"डॉ. गिहरोत्रा दिख नहीं रहे हैं।" मोटे चश्मे वाले ने पूछा।

"दूरबीन दूँ क्या..!"

"मेरा मतलब है कि वो इस वक्त कहाँ पर हैं?"

"नाजी कैंप में हैं...!"

उनके बीच कुछ और भी गुफ्तगू होती रही जिससे मैंने आइडिया लगा लिया कि वह भी डॉक्टर गिहरोत्रा के कॉलेज के लेक्चरर हैं। यह भी न्यू ग्रुप में नोट छाप रहे हैं। मदान साहब की कुढ़न का सबब अब मुझे समझ में आने लगा था। वह हीरा-मोती के सिंडीकेट से व्यथित थे, पर सेठी साहब के पास अपनी विनयपत्रिका भेजने में उन्हें कोई गुरेज न था।

हीरा-मोती की पेशीवाले रोज मेरे पास 'लोलिता' (व्लादिमीर नाबोकोव) थी। मदान सहाब ने जिज्ञासावश पुस्तक उठा ली और उसका नाम पढ़ते ही उसे मेज पर रख भी दिया। मैं काम की मात्रा के कारण चिंतित हो रहा था। तीस दिन में तीन सौ पेज केवल डिक्टेशन की सूरत में ही नक्की किए जा सकते थे। डॉ. सुनेजा ने समस्या का हल निकालते हुए आशुलिपिक जसप्रीत कौर को मेरे साथ नत्थी कर दिया। संपादन कक्ष के शोर-शराबे से बचने के लिए मुझे पहली मंजिल पर आर्टिस्ट गोबिंद सिंह की बगल में बैठा दिया गया। पहले लोलिता, फिर जसप्रीत कौर और उसके बाद एकांत... मदान साहब के दोनों कान खड़े हो गए। उनका काम में मन लगना बंद हो गया। वह पहली मंजिल में आते, झाँकते और बिना कुछ बोले लौट जाते। तीन-चार दिन बाद मैंने टिफिन लाना बंद कर दिया। मैं कभी गोलचा के पास कुल्फी-फलूदा खाने चला जाता, कभी कुलछे-छोले...। संयोग से एक रोज जसप्रीत भी लंच नहीं लाई। मैंने उससे सरसों का साग और मक्की की रोटी खिलाने की फरमाइश कर डाली। वह मुझे ट्रीट देने के लिए राजी हो गई। हम गोलचा की बगल में स्थित रेस्टोरेंट में जाने के बजाय उसकी पहली मंजिल में स्थित आकाशदीप नामक एक छोटे से रेस्टोरेंट में घुस गए। मदान साहब तक ट्रीट वाली बात पहुँचा दी गई थी। वह हमारे पीछे हो लिए। मदान साहब हमें गोलचा के आस-पास ढूँढ़ते रहे और थक-हार कर वापस दफ्तर लौट गए। थोड़ी देर में मैं डिक्शनरी लेने के लिए संपादन कक्ष में घुसा। उन्होंने मुझसे पूछा -

"आज कुल्फी नहीं खाई!"

"हाँ! आज हम सरसों का साग खाने चले गए थे।" मैंने सहज रूप में उत्तर दिया। इसी बीच जसप्रीत किसी काम से उधर आ निकली। उसे देख कर मदान साहब सकपका गए। यकायक वह उससे पूछ बैठे - 'जसप्रीते तेरी माँ का नाम की है?" मदान साहब का प्रश्न सुन कर पानी पी रहे सुनेजा साहब की साँस की नली में पानी की बूँद चली गई जिससे वह फुक-फुक करने लगे। डॉ. गिहरोत्रा भी 'खौ-खौ' करने लगे। एक बार उन्होंने 'हि-हि' भी किया। इससे उनका थुल-थुल पेट ऊपर-नीचे होने लगा। जसप्रीत के लिए प्रश्न अप्रत्याशित था, पर उसने यथासंभव प्रकृतस्थ रहते हुए जवाब दिया - "जसवंत कौर।" इसके बाद वह ऊपर चली गई। उत्तर सुन कर मदान साहब उठे और नारद मुनि के केबिन में जाने लगे। फिर जैसे यकायक उन्हें कोई बात याद आ गई हो। वह मुझे सुनाते हुए कहने लगे - "दिमाग का क्या है, कभी भी खराब हो जाए और अक्ल का क्या है, कभी भी आ जाए!" मैनेजर माथुर उन्हें भाई साहब के पास ले गए। इसके आधे घंटे के बाद सुनेजा साहब के मार्फत मुझ तक संदेश पहुँच गया कि "अब मुझे पहली मंजिल में नहीं बैठना है। मुझे संपादन कक्ष के दाईं ओर बुक शेल्फ के पीछे वाले-काले शीशेवाले कमरे में बैठ कर जसप्रीत को डिक्टेशन देनी है।" हम डार्क रूम में घुसे ही थे कि बिजली चली गई। अचानक हुए अँधेरे से सुश्री कौर चीख पड़ी - "उई!" जसप्रीत का चीखना था और मदान साहब का हड़बड़ी में उठना था। ऐसे में सेवानिवृत्त एस.ओ. का गिरना लाजिमी था। गिरे-गिरे में ही उन्होंने जसप्रीत से पूछ डाला - "की होया जसप्रीते!" उसने जवाब दिया - "कुछ नहीं सर। अँधेरे से डर गई थी।" फिर वह मोमबत्ती जला कर जसप्रीत को देते हुए बोले - "ले तू मोमबत्ती फड़।" अब डार्करूम का दरवाजा खुला हुआ था। मोमबत्ती जली हुई थी। कमरे में मैं था। वो थी। डॉ. सुनेजा, डॉ. गिहरोत्रा, मैथ्यू और मिश्रा थे। सभी की बगल में मोमबत्तियाँ जल रही थीं। वहाँ घुटन थी। पसीना था। झुकी हुई गर्दनें थीं। उधर सिर्फ मदान साहब ही चोट सहलाने और अपनी कमजोर नेत्रशक्ति के चलते काम नहीं कर पा रहे थे। यह अलग बात थी कि उनकी गिद्धी नजरें मुझ पर गड़ी हुई थीं।

मैंने उनतीस दिनों में ही किताब नक्की कर डाली। इकतीसवें दिन जसप्रीत का हिसाब-किताब कर दिया गया क्योंकि उसने अपनी माँ की तबीयत खराब होने के कारण बिना किसी पूर्व सूचना के तीसवें रोज दफ्तर से छुट्टी कर ली थी। मदान साहब मोने का स्यापा खत्म होने पर खासे खुश हुए। उन्हें यह बात अखर जरूर रही थी कि एक धर्मभाई ने अपनी धर्मबहन को नौकरी से निकाल दिया है। पर हाँ, भाई साहब की तरह वह भी मेरी स्पीड से बहुत प्रसन्न हुए। इसलिए मेरे ना-नुकुर करते-कराते भी एक दिन मदान साहब मुझे अपने घर ले गए। घर पर मुझे उनके नए-पुराने दोनों रूप देखने को मिले। पुराने मदान साहब ने मुझसे पहले यह पूछा -

"उस वक्त जसप्रीत ने उई क्यों बोला था?"

"शायद वह अँधेरे से डर गई थी!" मैंने जवाब दिया।

"वह बच्ची तो नहीं थी कि अँधेरे से डर जाती!"

"मदान साहब आप खुद ही तो कह रहे हैं कि वह बच्ची नहीं थी, सरदारनी थी। अगर उसके साथ कुछ ऐसी-वैसी बात हुई होती, तो वह बता न देती?" मेरी बातें ठोस और तर्कसम्मत थीं। मगर मदान साहब को फिर भी मैं यकीन नहीं दिला पा रहा था। अंत में मेरे से आँख से आँख मिलाते और अपनी पारखी नजरों से मुझे तोलते हुए वह बोले -"मचला क्यों बन रहा है?" इसके बाद मदान साहब गंभीर हो गए। मेरे लिए यह उनका नया रूप था। एक वृद्ध पिता के रूप में वह अपने छोटे बेटे के भविष्य को ले कर काफी चिंतित रहा करते थे। बड़ी बेटी की वह शादी कर चुके थे। मँझला बेटा कनाडा में सैटल हो चुका था। बस छोटा बेटा ही उनका ठिकाने से लग नहीं पाया था। पिछले कुछ वर्षों से मदान साहब कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तकें छपवा कर उन्हें निजी स्तर पर बेचते आ रहे थे। उनकी किताबें बिक भी जाती थीं। अब वह इसे व्यवस्थित रूप देना चाहते थे। इसलिए वह अपने छोटे बेटे के नाम से प्रकाशनगृह खोलना चाहते थे। लेकिन उनका छोटा बेटा इसके प्रति गंभीर नहीं हो पा रहा था। अपने छोटे बेटे की स्थिति के लिए वह स्वयं को ही दोषी मान रहे थे। अतः, वह बोले - "दरअसल, इसके लिए हम ही काफी हद तक जिम्मेवार हैं। यह हमारे लाड़-प्यार की वजह से बिगड़ गया है। बड़े बेटे के कनाडा में सैटल हो जाने के बाद हम यह चाहते थे कि कम से कम यह तो हमारे साथ इंडिया में रहे। हमारी यह चाहत ही इसकी दुश्मन बन गई। यह लोगों के साथ घुल-मिल नहीं पाता है। हमने इसे काफी समझाया-बुझाया, पर इसने हमारी बातों पर ध्यान देना छोड़ दिया है। मैं इसे न्यू पब्लिकेशंस में लगाना चाहता हूँ। सुनेजा भी अपने बेटे को इसमें लगाना चाहता है। मुझे मालूम है कि सुनेजा इसका विरोध करेगा। मैं इसके लिए सेठी साहब से भी बात कर लूँगा, पर यह वहाँ जाने के लिए राजी हो तभी तो बात बनेगी न। तुम इसे समझाओ कि नेतागिरि में कुछ नहीं रखा है। वे लोग मतलब निकल जाने पर इसे दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह निकाल देंगे।"

अब तक मदान साहब काफी भावुक हो चले थे। वह अपनी रौ में बहते चले जा रहे थे। इस मनःस्थिति में उन्हें टोकना मैंने मुनासिब न समझा। इसलिए मैंने उन्हें बोलते रहने दिया - "बेटा राजेंद्र! बहुत दुख झेले हैं मैंने। मेरा परिवार सैंतालीस के दंगों की भेंट चढ़ गया था। पंजाब से जब मैं दिल्ली आया, तब केवल सोलह साल का था। पिताजी के दफ्तर में मुझे अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिली। अंडर एज होने के कारण मेरी दो साल की सर्विस काउंट नहीं हुई। प्राइवेट से मैंने पढ़ाई पूरी की। परीक्षाएँ दीं। रिटायरमेंट से पहले एस.ओ. की परीक्षा पास की। एस.ओ. की परीक्षा के दौरान सेठी साहब ने मेरी खूब हिम्मत बढ़ाई। इसके अलावा मकान बनाने के लिए उन्होंने मुझे पैसे भी दिए। शुरू-शुरू में न्यू ग्रुप का दफ्तर एक स्टोर में चलता था। हम रात-रात भर प्रूफ देखते थे। परीक्षाओं के उत्तर तैयार करते थे। पुस्तकों का काम चल जाने पर, हमने न्यू ग्रुप की पत्रिका निकाली। इसके मुख्य संपादक सेठी साहब थे। कार्यकारी संपादक मुझे बनाया गया था। मैंने सोचा कि रिटायरमेंट के बाद इससे बुढ़ापा अच्छा कट जाएगा। पर ब्राइन के आने से सारे समीकरण बदलने लग गए। यह अपने साथ डॉ. सुनेजा और विज्ञान पत्रिका के लिए डॉ. गिहरोत्रा को ले आया। धीरे-धीरे हम दोनों बुड्‌ढे हाशिए पर धकेल दिए गए। पत्रिका से भी मेरा नाम हटा दिया गया। इसलिए मैं अपना पब्लिकेशंस खोलना चाहता हूँ जिसके लिए मुझे तुम्हारे जैसे युवाओं की जरूरत है।"

मदान साहब का एकालाप लंबा जरूर हो गया था। पर उनके भावोद्गारों से मुझे इस बात का यकीन हो गया कि मदान साहब दिल के बहुत सच्चे हैं। उनके अंदर मकड़जाल नहीं है। उन्होंने मेरे सामने अपने दिल की सारी बात उँड़ेल कर रख दी थी। उनकी बातों से मुझे न्यू पब्लिकेशंस के शक्ति संतुलन के बारे में भी पता चला। रात को जब मैं मदान साहब के घर से निकला, तब ग्यारह बज चुके थे। अगले दिन संपादन कक्ष में शांति छाई रही। डॉ. सुनेजा आई.ए.एस. टॉपर का इंटरव्यू लेने के लिए कानपुर निकल गए थे। डॉ. गिहरोत्रा अपनी कमर दर्द के कारण परेशान हो रखे थे। इसलिए वह आज दफ्तर से छुट्टी मार गए थे।

न्यू पब्लिकेशंस में मैथ्यू और मिश्रा के साथ मेरी अच्छी पटने लगी थी। हम अपना टिफिन शेयर करने लगे थे। मेरे आने से पहले सुनेजा साहब की टेबल पर सभी लंच किया करते थे। मदान साहब ने पहले से अपना खान-पान अलग रखा हुआ था। कुछ समय बाद हम लंच करने के लिए बाहर जाने लग गए। इसके पीछे हमारा मकसद होता था कि दफ्तर से थोड़ी देर के लिए बाहर निकल कर खुली हवा में साँस ली जाए क्योंकि वहाँ पर न तो कोई खिड़की और न ही कोई रोशनदान था। पर दरियागंज की तंग गलियों और व्यस्त सड़क पर खुली हवा की आशा करना निरी बेवकूफी थी। वाहनों के शोर-शराबे और आदमियों की रेलमपेल से सिर दर्द होने लग जाता था। मगर आजादी, आजादी ही होती है। इसे हम किसी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए हम दरियागंज पुल की ओर निकल जाया करते थे। इधर एक गली में छोटा सा मद्रासी ढाबा था। यहाँ पर हम मसाला डोसा खाया करते थे। कभी-कभी हम सड़क पार करके एक्वेरियम की दुकान पर चले जाया करते थे। एक्वेरियम की मछलियों को देख कर हम कहा करते थे - "न्यू ग्रुप ब्राइन सर का एक्वेरियम है और हम उनके खाद्य चक्र की छोटी-छोटी मछलियाँ हैं।" जब हम मस्ती के मूड में होते, तो हम गोलचा थियेटर पर चले जाया करते थे। हम वहाँ पर फिल्मों के पोस्टर देखा करते। अगर मार्निंग शो में बेसिक इंस्टिंक्ट या अमेरिकन ब्यूटी जैसी कोई गर्मागर्म अँग्रेजी फिल्म लगी होती थी, तो हम उसे देखने की प्लानिंग बना लिया करते थे। कभी-कभार हम अपने भविष्य की योजनाएँ बनाने लगते। हमारी योजनाएँ बनती-बिगड़ती रहती थीं। एक बार हमने यह संकल्प किया कि हम एक साल तक प्रतियोगी परीक्षाओं की पूरे मनोयोग के साथ तैयारी करेंगे। हम दरियागंज के रविवारीय पुस्तक बाजार से सस्ते दामों पर पत्रिकाएँ और किताबें खरीद लाएँगे। फिर जी जान से पढ़ाई में जुट जाएँगे। किंतु, हमारा उत्साह पुस्तक खरीद कर आने के बाद ठंडा पड़ गया और हम न्यू ग्रुप की चक्की में पुनः पिसने लगे।

न्यू ग्रुप से लंच के लिए बाहर निकलते समय चौकीदार हमारी तलाशी लिया करता था। उस समय हम सोचा करते थे कि जब हम बड़े और सफल हो जाएँगे, तब हमें इस तरह से अपमानित नहीं होना पड़ेगा। ऐसे में हम नौकरी, छोकरी, क्रिकेट और आतंकवाद पर बात करके अपना जी हल्का किया करते थे। गुजरात, जयपुर, दिल्ली और असम के बम विस्फोटों ने हमें दहला के रख दिया था। हम जामा मस्जिद और दरियागंज के ढाबों में आतंकवाद के सिरे तलाशने की कोशिश किया करते, पर हर दम निराशा हमारे हाथ आती। हमें आम मुसलमान और आम हिंदू की आँखों में कोई अंतर दिखाई न देता। एक अमनपसंद मुसलमान का दिल बेकुसूर लोगों की जानों पर हमें वैसा ही सिसकता और तड़पता हुआ मिलता, जैसा हिंदुओं का मिलता था।

लेकिन मैथ्यू की सेहत हमें चिंतित करके रखी हुई थी। वह दिल्ली में बहुत असुरक्षित महसूस किया करता था। पिछले एक-आध माह से उसकी खाँसी भी ठीक नहीं हो पा रही थी। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली का प्रदूषण था जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था। मिश्रा ने मैथ्यू को खाँसी ठीक कराने के लिए गोलचा के पीछे स्थित एक ळाला छाप डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी। उसके पास अधिकतर खाँसी से परेशान रोगी आया करते थे। वह उन्हें इंजेक्शन लगाया करता था। पर हाँ, इंजेक्शन लगाने से पहले वह यह जाँच-परख लिया करता था कि रोगी को इंजेक्शन सूट कर रहा है कि नहीं। वह पहले इंजेक्शन की हल्की डोज रोगी को दिया करता था। फिर उस जगह पर पैन से घेरा बना दिया करता था। यदि वह जगह काली पड़ जाती थी, तो वह इंजेक्शन नहीं लगाया करता था। इंजेक्शन लगाने के बाद वह सीरींज को हीटर पर रखे एक बर्तन में पानी में उबालता था। फिर उससे एक अन्य रोगी को वह इंजेक्शन लगा दिया करता था। मिश्रा उसके पास से एक बार इंजेक्शन लगवा कर आ चुका था। पर मैथ्यू इस तरह का कोई जोखिम लेने के लिए राजी नहीं हुआ। वह अच्छी नौकरी न मिल पाने के कारण इधर खुद से काफी नाराज रहने लगा था और कर्नाटक लौट जाने की बात करने लगा था। नियुक्ति के समय ब्राइन सर ने मैथ्यू को आश्वासन दिया था कि डेढ-दो साल में वह उसका वेतन बढ़ा देंगे। लेकिन उक्त अवधि के बीत जाने पर भी मैथ्यू की पे बढ़ नहीं पाई थी। इस संबंध में वह ब्राइन सर से भी बात करके आ चुका था। पर उसका सकारात्मक परिणाम नहीं निकल पाया था, उल्टे वह ब्राइन सर की आँखों की किरकिरी बन गया था। मैथ्यू की अपेक्षा मिश्रा अधिक सख्तजान था। उसके लिए इलाहाबाद और दिल्ली में कोई अंतर न था। वह राजधानी में रह कर ही अपना संघर्ष जारी रखना चाहता था।

मैथ्यू को कर्नाटक की बहुत याद आया करती थी। वह कहा करता था कि कॉलेज के दिनों में बास्केटबॉल और वॉलीबॉल खेलते-खेलते कब सुबह से शाम हो जाया करती थी, इसका पता ही नहीं चलता था। उसे इस बात से अफसोस होता था कि किताबों के बीच होने के बावजूद वह उन्हें पढ़ नहीं सकता। परीक्षा की तैयारी न कर पाने का भी उसे काफी मलाल होता था कि दफ्तर में इतने निचुड़ जाते हैं कि पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता है। मैंने उससे डॉ. गिहरोत्रा और डॉ सुनेजा की मदद लेने के लिए कहा। इस पर वह बोला -

"वो तो बनिये हैं... ब्राइन सर मालिक हैं... वे दोनों... उनके चमचे हैं।"

"कैसे?"

"डॉ. सुनेजा कॉलेज के वाइस-प्रिंसिपल हैं। डॉ. गिहरोत्रा फिजिक्स के लेक्चरर हैं। फिर भी वे यहाँ पर काम कर रहे हैं और हमारे जैसे लोगों के पेट पर लात मार रहे हैं। इसलिए आउटसोर्सिंग का अमेरिका में विरोध हो रहा है...। नौजवानों को नौकरी मिल नहीं पा रही है और बुड्ढे जगह खाली नहीं कर रहे हैं।"

"यह तो तुम लेक्चर देने लग गए।"

"नहीं मैं लेक्चर नहीं दे रहा हूँ... मैंने एक-दो बार इनसे कुछ प्रश्न पूछे थे... पर वे मेरी बात को टाल गए। फिर क्या मुँह लेकर मैं उनके पास जाता?

मैथ्यू से मेरी बात हो रही थी कि 'इंगे वा' का फोन आ गया। उसने मैथ्यू को आगाह करते हुए कहा कि "कमरे में स्पीकर और कैमरा लगा हुआ है। तुम्हारी सारी बातें ब्राइन सर देख-सुन रहा है।" मैथ्यू के यकायक चुप हो जाने से मुझे खटका हुआ कि अवश्य कोई गंभीर बात हो गई है। फिर मैथ्यू ने मुझे जॉल्सी की बात बताई। मुझे यह जान कर अचरज हुआ कि हम पर हर वक्त नजर रखी जा रही है। कुछ सेकेंडों के बाद फिर से 'इंगे वा' का फोन आ गया। इस बार उसने मुझसे बात की। वह बोली - "भाई साहब! आपको बुला रहा है।" मैं ब्राइन सर के केबिन में घुसने वाला था कि जॉल्सी ने मुझे यह कहते हुए रोक दिया कि "भाई साहब अभी ड्राइवर से बात कर रहा है।" मैं वहीं दरवाजे पर खड़ा हो गया। भाई साहब के केबिन से मुझे गालियों की आवाजें आती हुई सुनाई दीं। वह अपने ड्राइवर को एक से एक गालियाँ दे रहे थे। गाली प्रकरण बंद हो जाने पर मैं केबिन के अंदर घुस गया। हमेशा की तरह ब्राइन सर ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा। मेरी बाईं ओर ड्राइवर खड़ा हुआ था। उसका चेहरा लाल हो रखा था। फिर भाई साहब मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोले - "आज आप मैथ्यू से लाइब्रेरी का काम समझ लो। उससे यह पूछ लो कि दफ्तर में कौन-कौन सी पत्रिकाएँ आती हैं और वह कहाँ से खरीदी जाती हैं। अब आप लाइब्रेरी का काम भी सम्हालेंगे।"

"मैं!"

"हाँ, आप।"

"पर यह काम तो मैथ्यू का है... मैं तो अनुवाद करता हूँ।"

"मैंने कहा न कि अब से यह काम भी आप देखेंगे।"

भाई साहब के आदेश के बाद से उनसे बहस करने की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। संपादन कक्ष में लौटने पर मैंने मैथ्यू से पुस्तकालय के काम के बारे में पूछताछ की। मैं निश्चित रूप से अपमानित महसूस कर रहा था। फिर भी मैंने अपने स्वर को यथासंभव संयत रखते हुए कहा - "यह मेरा काम तो नहीं है। इसका भला क्या मतलब हुआ कि अनुवाद भी करो और लाइब्रेरी का काम भी देखो।"

"इसका सिर्फ यही मतलब है कि आज मुझे लिफाफा मिलने वाला है।"

"क्या?"

"हाँ! मैंने भी सहायक संपादक के लिए आवेदन किया था और बना मुझको दिया गया संपादकीय सहायक।"

शाम को मैथ्यू को लिफाफा मिल गया।

बीस-पच्चीस दिन बाद उसका एक खत मेरे पास आया था। इसमें उसने मुझे बताया था कि उसे दिल्ली रास नहीं आई। वह वापस कर्नाटक जा रहा है। वह दिल्ली का प्रदूषण सहन नहीं कर पाया। कर्णाटक की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। इधर पर दोबारा से चर्चों पर हमले शुरू हो गए हैं। पिछली बार जब जसप्रीत को न्यू ग्रुप से निकाला गया था, तब मैंने यह सोचा था कि निजी क्षेत्र में एक-एक दिन कीमती होता है। उसे अपनी छुट्टी पहले ही से मंजूर करा लेनी चाहिए थी। लेकिन मैथ्यू का मामला बिल्कुल अलग था। उसने तो कोई छुट्टी भी नहीं ली थी। फिर उसे नौकरी से क्यों निकाला गया? क्या इसलिए कि वह मुझे न्यू ग्रुप का असली चेहरा दिखा रहा था?

मैथ्यू के जाने के बाद से डॉ. सुनेजा और डॉ. गिहरोत्रा से मुझे चिढ़ मचने लगी थी। मैंने उनसे दुआ सलाम करना छोड़ दिया था। इसे वह अपनी शान के खिलाफ समझा करते थे। चूँकि मेरे पास लाइब्रेरी भी थी, इसलिए उन्हें न चाहते हुए भी मुझसे बोलना पड़ जाता था। उस समय वह मुझसे काफी ओक्खे हो कर बोला करते थे। मैं अनुवाद करता होता, तो कभी डॉ. सुनेजा बोल देते कि मुझे फ्रंट लाइन और वीक पत्रिकाओं के फलाँ-फलाँ अंक दे दीजिए। वह पत्रिकाएँ मैं उन्हें ढूँढ़-ढाँढ़ कर दे देता, तो डॉ. गिहरोत्रा की फरमाइश आ जाया करती कि उन्हें दि हिंदू और साइंस पत्रिका से विज्ञान की खबरों संबंधी कतरनें चाहिए। मुझे यह काम बोझिल लगा करता था। इसलिए मैं मन मार कर यह काम किया करता था। अक्सर मुझे वांछित पत्रिकाएँ वांछित स्थान पर नहीं मिल पाती थीं। लाइब्रेरी से कुछ पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें गायब भी होने लग गईं थीं। उनका ठीकरा तो मुझ पर फूटता ही, साथ ही ब्राइन सर से यह शिकायत भी कर दी जाती कि मैं ठीक तरह से काम नहीं कर पा रहा हूँ। इसकी वजह से मेरा अनुवाद संबंधी टारगेट पिछड़ता चला जा रहा था। डायरी में इस बाबत लाल एवं हरी कलम से टिप्पणियाँ लिखी हुई आने लगतीं जो मुझ पर अनावश्यक दबाव डाल देतीं। इतना ही नहीं स्कूलों में क्विज आयोजित करने और क्लर्क के पद के उम्मीदवारों का इंटरव्यू लेने की जिम्मेवारी भी मुझ पर डाल दी गई। मदान साहब के जिम्मे पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देने का दायित्व आ गया। हालाँकि, उसके ऊपर आई.ए.एस. टॉपर की फोटो छपी हुई होती थी और न्यू ग्रुप के बारे में उत्साहवर्द्धक बातें लिखी हुई होती थीं कि उसे उक्त परीक्षा क्रैक करने में न्यू ग्रुप की पत्रिका से काफी मदद मिली।

"दुनिया गोल है। काल का पहिया घूमता रहता है। इतिहास स्वयं को दोहराता है।" जैसी कई उक्तियाँ मेरे अंदर कुलबुलाने लगी थीं। अब मैं स्वयं को मैथ्यू की स्थिति में पा रहा था। पगार मेरी एक धेला भी नहीं बढ़ी थी और मुझ पर नए-नए काम लदते जा रहे थे। यह एक तरह से ब्राइन सर की व्यापारिक रणनीति थी कि अकुशल श्रमिक को काम पर लगाओ। उससे ज्यादा से ज्यादा काम करवाओ और कम से कम वेतन दो। वह अपनी कमजोरी के चलते मुँह खोलने की स्थिति में नहीं होगा। जब वह विरोध करने लगे, तो उसके स्थान पर दूसरा अकुशल श्रमिक ले आओ। इस देश में बेरोजगारों की कोई कमी नहीं है। बाजार में अच्छा-बुरा सब माल खप जाता है। केवल आपकी मार्केटिंग अच्छी होनी चाहिए। अधकचरे ज्ञान और नौकरी की झूठी आशा दिला कर, जब दमड़ी कमाई जा सकती है, तब गुणवत्ता पर काहे ध्यान दिया जाए।

न्यू ग्रुप में व्याप्त अनाचार को देख-देख कर मैं पक गया था। अब मेरे व्यवहार में भी बदलाव आने लगा था। मेरा बोलना-चालना कम हो चला था। खुद को फिटफाट-टिचटाच रखने वाला राजेंद्र, खुद से उदासीन रहने लगा था। चेहरे पर मेरे बकरे जैसी दाढ़ी उगने लगी थी। बाल मेरे बेतरतीब और बड़े-बड़े हो चले थे। भाई साहब को मेरे घुन्ना हो जाने से बड़ी खुशी हुई। उन्हें ऐसे ही सिरफिरे की तलाश थी जो काम में हीरो और व्यवहार में जीरो हो। डॉ. सुनेजा और डॉ. गिहरोत्रा की नजरों में मैं जसप्रीत के तीरे नैनकश का शिकार होने के कारण गवाच गया था।

कभी-कभी मुझे अफसोस भी होता था कि जिन लोगों ने न्यू ग्रुप के लिए अपनी जिंदगी होम कर दी, उन्हें अपनी स्वामिभक्ति का क्या प्रतिफल मिला? वह 15-15 घंटे काम करने के बाद आज भी दाने-दाने को मोहताज हो रखे हैं। इस बारे में एक दिन मैंने सक्सेना जी से पूछा था और तब मुझे उनका जवाब मिला था कि - "जिंदगी लगा दी हमने न्यू ग्रुप के लिए दाँव पर। अब साहब बुढ़ापे में कहाँ दर-दर की ठोकरें खाते फिरें?" सक्सेना जी का उत्तर सुन कर मैं सोचने लगा कि हो सकता है कि वह भी मेरी और मिश्रा की तरह शुरू-शुरू में न्यू ग्रुप से निकलने के लिए छटपटाते हों और उन्होंने भी हमारी ही तरह एक साल में अच्छी-खासी नौकरी ढूँढ़ लेने का संकल्प किया हो, पर एक्वेरियम की मछलियाँ चाह कर भी उसकी काँच की दीवारें कहाँ तोड़ पाती हैं? वे नदी-तालाब की मछलियाँ थोड़ी होती हैं जिन्हें साफ हवा-पानी नसीब हुआ होता है। उनके बारे में तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि नदी में छोड़ देने के बाद वे जिंदा बच जाएँगी। जसप्रीत और मैथ्यू तो एक्वेरियम से बाहर निकल कर आ चुके थे। मगर सक्सेना जी जैसे कुछ लोग अभी भी एक्वेरियम में बंद हो रखे थे। अब मिश्रा और मुझे यह तय करना था कि एक्वेरियम के लिए मरना ठीक है कि उससे बाहर आ कर शहीद हो जाना...।


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हिंदी समय में महेंद्र सिंह की रचनाएँ