"साहित्य जीवन की अभिव्यक्ति होता है और यह अभिव्यक्ति व्यष्टि द्वारा ही संभव है समष्टि द्वारा नहीं। कलाकार की अभिव्यक्ति तथा कलाकृति में पारस्परिक संबंध का निरूपण मनोवैज्ञानिक आलोचना का कार्य है लेकिन जीवन की घटनाओं, विशेष परिस्थितियों और तज्जनित मानसिक अवस्थाओं का कला कृति के वर्ण्य विषय, भाव-शैली आदि के साथ संबंध निर्देश जीवन वृत्तांतीय या चरित मूलक आलोचना प्रणाली है। जीवन में घटित महत्वपूर्ण घटनाएँ मानव की प्रकृति और स्वभाव का निर्माण करती हैं जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व विशेष दिशा में विकास करता है। आलोचक इन घटनाओं और व्यक्तित्व के समन्वित रूप का साहित्य के साथ संबंध स्थापित करके देखता है।"1 -श्यामसुंदर दास
वर्तमान चिंतन विमर्श का एक पहलू यह है कि उसमें एक ही जगत के नियम नहीं लागू होते वरन उसकी प्रतिछवियों की तलाश अंतरनिहित रहती है उदाहरण के लिए प्राचीन कहानियों में जैसे - तोता-मैना की कहानी या कथा-सरित सागर में कुछ दैवीय संयोग एवं कुछ ठोस यथार्थ सबका सम्मिश्रण रहता है। प्रमुख स्पाहानी लेखक बोर्खेज ने अपनी बहुत सारी रचनाएँ कथा-सरित सागर या पूर्वी दुनिया की अन्य प्रचलित लोक कथाओं के आधार पर रची हैं। इस कहानी के शुरुआत में ही प्राचीन किस्सागो परंपरा की झलक दिखाई पड़ती है। और इस प्रकार की परंपरा का आधुनिकता में प्रायः ह्रास मिलता है, लेकिन उत्तर आधुनिकता इससे अपना सीधा संबंध रखती है। हमारी प्राचीन धरोहर वेद-पुराण आदि इसी वाचिक परंपरा के कारण जीवित बचे हैं दरअसल किस्सागोई परंपरा में कोई भी विचारधारा (कहानी) आदि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती रहती हैं इससे उस काल विशेष की संस्कृति, सभ्यता आदि का भी बोध होता है। लेकिन इन सब बातों एवं अर्थव्याप्तियों को आधुनिकता दकियानूसी परंपरा मानकर तिरस्कृत करने का प्रयास करती है। निराला द्वारा रचित इसी प्रकार की एक कहानी है 'अर्थ' जो अपेक्षाकृत कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण कहानी है।
यह कहानी एक तरह से यथार्थ से प्रारंभ होकर यथार्थ पर समाप्त होती है। प्रारंभ बहुत सामान्य वर्णन से होता है। एक ट्रेन में 'हीरालाल' व 'दिनेश कुमार' नामक दो मुसाफिर चले जा रहे हैं उनमें से हीरालाल दिनेश कुमार को एक कहानी सुनाता है। यह कहानी रामकुमार की है जो भक्ति में लीन होकर ईश्वर पर इतना विश्वास करता है कि अपनी पढ़ाई-लिखाई सब कुछ चौपट कर डालता है पढ़ाई के बारे में उसकी यह धारणा थी कि ''अँग्रेजी शिक्षा से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।''2 वह अपनी सुंदर पत्नी के साथ रहता है। उसके विचार को निराला ने कहा है कि ''पत्नी को पूर्ण मादकता से प्यार देना धर्म में दाखिल है।''3 इसी कारण आगे जीवन में कोई भी काम नहीं करता। उसको यह भरोसा है कि जो भी जीवन यापन के साधन आदि हैं उन सबकी व्यवस्था भगवान स्वयं करेंगे। निराला कहते है - ''रामकुमार को बालक काल से संतों की उक्तियों पर दृढ़ विश्वास करने की आदत पड़ गई थी। गोस्वामी जी की चौपाई याद आई 'विश्व भरण पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।' जो भरत संसार का पालन करते हैं वह भोजन न देंगे, उन पर कितना अविश्वास है इन लोगों को! सोचता हुआ वह चला जाता पिता खिन्न हो जाते।''4
रामकुमार के पिता का देहांत हो जाता है और इसके पास के सारे पैसे अंतिम संस्कार में खर्च हो जाते हैं राम कुमार की पत्नी भी एक तरह से रामकुमार की ही मानसिकता से संचालित थी क्योंकि यदि रामकुमार को संतों की उक्तियों पर विश्वास था दूसरी ओर पत्नी विद्या को भी यह विश्वास था कि पति के अनुसार चलना स्त्री का धर्म है। यह विश्वास उसे अपने संस्कारों को प्राप्त हुआ था। आधुनिकता में संस्कार आदि की बात बेमानी साबित हो चुकी थीं वहीं पर उत्तर आधुनिक धारणा में संस्कार की उपेक्षा नहीं होती है। इसको निराला जी के शब्दों में ''पति ही पत्नी का ईश्वर है यह संस्कार यद्यपि घर से ही पत्नी को प्राप्त हो चुका था।'' 5 यहाँ पर एक बात और दृष्टव्य है कि आधुनिक समाज में पति पत्नी मात्र उपभोग की वस्तु रह गए हैं। समान की भाँति आवश्यकता समाप्त हो जाने पर इनका कोई औचित्य नहीं रह जाता। जिस आधुनिक समाज में एक्स-हसबैंड प्रथा विकसित हो चुकी हो वहाँ पर पति को ईश्वर का दर्जा प्रदान करना कहीं न कहीं अपनी भारतीय मूल की ओर संकेत देता है और अपने मूल उत्स को उपेक्षित न करना ही उत्तर आधुनिकता मूल आशय है।' वह अपने सारे गहने घर खर्च चलाने के लिए दे देती है। अंत में रामकुमार एक पत्र भगवान रामचंद्र के नाम लिखते हैं।
'प्रभो, मुझे तुम्हारा बड़ा भरोसा था। मेरी नाव अब मँझधार में है। पर तुम्हारी कृपा तो मुझे नहीं नजर आती। अब तुम्हारे सिवा संसार में मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है। मेरे पिता का भी सहारा तुमने छुड़ा दिया। अब तो दया करो। तुमने सुग्रीव और विभीषन को राजा बना दिया; तो मेरी कुछ तो खबर करो प्रभो मैंने तुम्हीं को संसार में माना है...। रामायण में भक्त शिरोमणि तुलसीदास जी ने लिखा है - 'जो संपत्ति शिव रावणहिं दीन दिए दस माथ; सोई संपदा बिभीषणहिं, सकुचि दीन रघुनाथ।' क्या यह सब झूठ ही है? रघुनाथ, विश्वास जो नहीं होता? अधिक और क्या लिखूँ? तुम तो हृदय-हृदय का हाल जानते हो, स्वामिन्। तुम्हारा दास, रामकुमार।"6
अंततः अपनी पत्नी को मायके भेजकर वह चित्रकूट की ओर चल देता है। इसके पास जो भी पैसे थे उन्हें वह रास्ते में फेंक देता है और केवल आस्था बल पर आगे चलता है। इसको भूख-प्यास वस्त्रहीनता आदि कष्ट झेलने पड़ते हैं उसकी इस दशा का वर्णन निराला जी इन शब्दों में किया है - ''धीरे-धीरे रामकुमार बस्ती पार कर गया जिधर निगाह जाती लक्षहीन उसी तरफ चला गया, दुख, ग्लानि, क्षोभ, क्लांति और भूख से बिल्कुल मुरझा गया था। मन इतने उच्च स्तर पर था कि उसे अपने नग्न शरीर के लिए अब बिल्कुल लज्जा न थी। प्रकाश फैलने के साथ ही लज्जा का अँधेरा भी मिट गया। सामने महुवे के दो-तीन पेड़ देख पड़े, उसी ओर चला। पहुँच कर छाया में बैठते ही इतनी क्लांति बढ़ी कि लेट गया। लेटते ही बेहोश हो गया।
''जब जागा तब दोपहर थी। देह फूल सी हल्की हो गई थी। इतनी स्वच्छता को उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था। शंका आप ही आप पैदा हुई 'क्या भगवान नहीं हैं?'
''सुना, ठीक मस्तक के ऊपर से आवाज आई - 'हैं, हैं।'
''तअज्जुब में आ निगाह उठा कर देखा, एक सुग्गा बैठा हुआ फिर 'टें-टें' कर उठा। ''संदेह से निगाह हटा ली। फिर शंका हुई, 'यह सब क्या है?'
''फिर ऊपर से आवाज आई चित्रकूट-चित्रकूट।" मन में उत्तर तैयार हो गया, ''चित्र है कूट इसका।"
''समास का ज्ञान रामकुमार को था। इस उत्तर के निकलते ही जैसे सारी पृथ्वी उसको दृष्टि में चक्कर खाने लगी, पेड़ आदि सब घूमने लगे, घूमते-घूमते धूमिल छाया में बदलते हुए सब आकाश में मिलने लगे। अंत में राम कुमार को कहीं कुछ नहीं दीख पड़ा। उसके देह है, यह ज्ञान भी न रहा। शरीर निश्चल, आँख निष्पलक रह गईं।" कुछ देर के बाद ज्ञान हुआ। गोस्वामी तुलसीदास की जीवनी का वह अंश याद आया, जहाँ लिखा है, महावीर-रूपी तोते ने कहा है -
चित्रकूट के घाट पै भई संतन की भीर,
तुलसीदास चंदन घिसैं, तिलक देत रघुवीर।
''इसके बाद शुकदेव की याद आई। मन में फिर शंका हुई, 'तो क्या अभी-अभी जो कुछ मैंने देखा, यही राम हैं?'' फिर सुन पड़ा 'हाँ हाँ! आँख उठाकर देखा - 'टें-टें' करता हुआ सुआ उड़ गया। ''फिर मन चिरकाल से अभ्यस्त अज्ञान वाले घर में जाना ही चाहता था कि 'उठ-उठ' की आवाज आई। फिर कर देखा तो एक कठफोरा दूसरे महुवे की सूखी डाल में खटाखट चोंच मार रहा था।
आगे कहते हैं - ''कुछ चरवाहे बालक सामने आ, हाथ जोड़ कर बोले 'महाराज गाँव जाइए। पास ही देख पड़ता है।"7
"मन आज के विश्व के अद्भुत सत्य परिचय में तनमय था, स्वभाव एक सरल बालक सा बन रहा था। लज्जा लेश मात्र न थी। घर-द्वार पेड़-पौधे छायामय दिखाई दे रहे थे। उनका सत्य उन्हीं के पास सिमटा हुआ था।'' अपने पुराने मित्र से उनकी भेंट होती है उन्हीं के शब्दों में - ''परिचय के पश्चात रामकुमार का मन नीचे ऊतर चला। उसे लाज लगने लगी।''
आगे रामकुमार को एक छोटी सी नौकरी मिल जाती है और वह एक लेखक बन जाता है - ''चार ही साल में वह उपन्यास साहित्य की चोटी पर पहुँच गया। कई हजार रुपये उसने एकत्र कर लिए। सारा ऋण चुका दिया अब विद्या के साथ सुखपूर्वक रहता है।" रामकुमार का कहना है कि ईश्वर ही अर्थ है वह जिस भक्त पर कृपा करते हैं उसमें सूक्ष्म अर्थ बनकर रहते हैं जिससे वह स्थूल अर्थ पैदा करता रहता है।'' 8
अंतिम वाक्य में सूक्ष्म अर्थ से स्थूल अर्थ तक की यात्रा का जो विश्वास निराला जी ने प्रकट किया है वह वास्तव में उनकी रचना-प्रक्रिया का भी विश्वास है। ऊपर से देखने पर यह केवल एक ऐसे वृत्त की कहानी है जिसमें बुद्धि के पार जाकर धर्म के प्रशंसा वाक्यों में आस्था है किंतु निराला जी रामकुमार का न तो उपहास करते हैं और न ही उसे किसी अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे केवल उस मन की खोज कर रहे हैं जो तल्लीनता की स्थिति में स्थूल जगत और कल्पनालोक का अंतर विस्मृत कर देता है।
यद्यपि इस कहानी में धर्म, ईश्वर में विश्वास को ही कल्पना जगत का आधार बनाया गया है फिर भी वस्तुतः 'ईश्वर में विश्वास' केवल एक उप-लक्षण के तौर पर है। निराला जी यह जाँच रहे हैं कि मन द्वारा बनाए गए संसार में और वास्तविक संसार में जो खाईं है वे कैसे पटती है। प्रारंभ में वह खाईं बड़ी है। रामकुमार का विश्वास, उसकी कल्पनाएँ बाह्य-जगत को प्रमावित करने में नितांत असमर्थ है। लेकिन ज्यों-ज्यों कहानी बढ़ती है और त्यों-त्यों यह साबित होने लगता है कि रामकुमार की मानसिक कल्पनाएँ वास्तविक रचना संचार से टकराकर हार नहीं मानती। त्यों-त्यों बाह्य संसार किसी न किसी प्रकार मानसिक कल्पनाओं के साथ ढलता जाता है। शुरू में जब उसे पैसे की जरूरत होती है और वह भगवान से माँगता है तो उसे भगवान तो चुपचाप पैसे नहीं देते किंतु उसे छक्कन साहु से उधार मिल जाता है।
यद्यपि यह बाह्य जगत को मानसिक कल्पना द्वारा पूरी तरह प्रभावित करने की बात नही है किंतु घटना-क्रम इस प्रकार है कि अपनी शर्तों पर ही सही, कड़े सूद पर कर्ज देने के लिए ही सही छ्क्कन साहु ठीक उसी समय रामकुमार के यहाँ पहुँचते हैं जब वह जानना चाहता है कि भरत जी के नाम जप की मजदूरी कहाँ रखी हैं वह न तो इसके पहले पहुँचता है और न ही इसके बाद धीरे-धीरे रामकुमार का मन दृढ़ हो जाता है और वह बाह्य जगत को अधिक प्रभावित करने लगता है। चित्रकूट में लोग उसे एक महात्मा के रूप में देख रहे हैं। उसकी स्वयं भी लज्जा की सांसारिक भावना समाप्त हो चुकी है और वह गाँवों में बिना एक सूत पहने नंगा घूम रहा है। निराला जी के शब्दों में यही वह समय है जब 'रामकुमार के मन में सूक्ष्म अर्थ का वास्तविक प्रवेश होता है' या यों कह लें कि वह ईश्वर में तल्लीन हो जाता है फिर धीरे-धीरे वह एक छोटी नौकरी से शुरू करता है और पढ़ाई भी करने लगता है अर्थात वह वे सारे काम करता है जो उसने इस आधार पर नहीं किए थे कि ईश्वर भक्त होने के नाते उसे इन कामों को करने की कोई जरूरत नहीं है, सूक्ष्म अर्थ इसी प्रकार स्थूल अर्थ में बदलता है।
रामकुमार एक सफल व्यक्ति अंततः साबित होता है लेकिन इसका यह कारण नहीं है कि उसने अपनी भक्ति को छोड़ दिया है और वह यह विश्वास करने लगता कि बिना वास्तविक जगत की शर्तों पर रुपया कमाए जीवन नहीं जिया जा सकता। इसका कारण ठीक उल्टा है। इसका कारण यह है कि उसकी भक्ति या उसकी मानसिक कल्पनाएँ इतनी दृढ़ है कि वह बाह्य जगत में इच्छाशक्ति से इसके लिए विवश कर सकती है कि वह काल्पनिक जगत के अनुसार चले। रामकुमार के लिए चित्रकूट में पेड़ पौधे भी एक छाया भाँति ही हैं और जैसा कि निराला जी लिखते हैं - "उनका सत्य उन्हीं के पास सिमटा हुआ है।" 9
यों तो यह अद्वैत वेदांत की इसी स्थापना से निकली हुई बात है कि यह संसार एक अवास्तविक संसार है। मिथ्या है और जैसा मन में आभास होता है, जैसी मन की संस्थापनाएँ होती है वैसा ही बाह्य जगत भी प्रतीत होता है। किंतु इस संदर्भ में हमें दो बातों की ओर ध्यान देना होगा पहली तो यह है कि जैसा हम अन्यत्र संकेत करते हैं कि जिसे हम उत्तर-आधुनिक वैचारिकता का नाम देते हैं वह अपने में बहुत ही परिष्कृत प्रकृष्ठ और अधिक सामर्थ्यशाली रूप में प्राचीन भारतीय चिंतन में उपलब्ध है। इसलिए अद्वैत वेदांत की पारंपरिक विचारशैली स्वभावतः उत्तर-आधुनिकता की मंजिल है। दूसरी बात यह है कि निराला इन दोनों संसारों काल्पनिक जगत और वास्तविक जगत के बीच का पुल शब्द के माध्यम से बाँधते हैं, चित्रकूट का अर्थ रामकुमार के समझ में आता है कि 'चित्र है कूट इसका' अर्थात इसका रहस्य, इसकी कूट भाषा विचित्र है। वे आज स्पष्ट कहते हैं कि समास का ज्ञान रामकुमार को था। अर्थात चित्रकूट का जो बहुब्रीह समास के माध्यम से एक नया अर्थ निराला ने प्रस्तुत किया वह रामकुमार के लिए उस ज्ञान की कुंजी है जो उसे इतनी तपस्या के बाद मिलता है।
देश और काल की सीमाएँ, मानवीय व्यवहार के परिवेश सबकुछ इस नई ज्ञानावस्था में गड्डमड्ड हैं। कभी वे हैं और कभी नहीं हैं। रामकुमार अंततः जिस मनः स्थिति में पहुँचता है। उसमें सत्य एक परिवर्तनशील वस्तु है पेड़-पौधे और गाँव सच भी हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं यह सब कुछ मन की स्थिति के अनुसार। उत्तर-आधुनिकता ने सत्य की स्थिरता को चुनौती दी है। एक निश्चित ध्रुव सत्य और विश्वास करना आधुनिकता का लक्षण है इसमें विकल्प की स्थिति नहीं है समझौते की गुंजाइश नहीं है। किसी कथन के सत्य होने अथवा असत्य होने की बीच की सीमा रेखा बिल्कुल स्पष्ट है और संसार को दो भागों में बाटती है। एक वे लोग जो सत्य में विश्वास नहीं करते हैं। इस प्रकार आधुनिकता का सत्य दुनिया को बाँटने का प्रयास करता है और संघर्ष की बुनियाद रखता है। उत्तर-आधुनिकता ने सत्य को एक अटलशील प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। सत्य के अनेक रूप होते हैं। सत्य एक व्यक्तिगत अनुभव और अवधारणा है तथा सत्य के दो अवधारणाओं में परस्पर टकराव या विरोध का नहीं बल्कि परस्पर पूरकता का भाव होता है।
रामकुमार का कल्पना-जगत वास्तविक-जगत का पूरक है। वह उसमें प्रवेश करता है उसको तोड़ता-मरोड़ता है फिर उसे अपने अनुकूल ढालता है। दूसरी ओर रामकुमार का कल्पना-जगत वास्तविक-जगत से एक संवाद से लगा हुआ है, वह वास्तविक जीवन को उपेक्षित नहीं करता है। रामकुमार अपने भक्ति को केवल मोक्ष का साधन नहीं मानता। दरअसल भक्ति के इस आत्यंतिक स्वरूप में, मोक्ष में और सांसारिक जीवन चर्चा में कोई भेद या वैर मात्र रह ही नहीं जाता। रामकुमार ने भक्ति को कोई ऐसी चीज नहीं माना जिससे उसे मोक्ष की तो उम्मीद नहीं किंतु जीविका चलाने के लिए इसका आश्रय नहीं लिया जा सकता, रामकुमार को निराशा अवश्य होती है, जब उसे नाम जप की मजदूरी नकद रुपयों की शक्ल में नहीं मिलती किंतु इसके आधार पर वह ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं निकालता कि दुनिया में पैसों की जरूरत है उस दुनिया में भक्ति से काम नहीं चलता।
प्रत्येक ज्ञान मनुष्य, जीवन और सृष्टि के किसी न किसी पहलू के बारे में चिंतन मनन तो करता ही है साथ ही साथ शास्त्र मिलकर इस समस्याओं को अपने दायरे में समेट लेते हैं।"10 एक तरह से यह रामकुमार के आस्था की दृढ़ता कही जा सकती है किंतु वास्तविकता यह है कि निराला जी ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे इस आस्था की दृढ़ता का कोई समर्थन कर रहे हैं। वे एक पक्षपात हीन भाव से घटनाओं को प्रलेखित करते जाते हैं और उसके सभी पक्षों को सामने रखते है कहानी के अंत में कहानी सुनने वाला मुसाफिर कहानी सुनाने वाले से पूछता है, ''तो रामकुमार की तरह आपको भी हिंदू धर्म के गपोड़ों पर विश्वास करने की आदत है'' ''नहीं, इसलिए नहीं, बल्कि रामकुमार - "छूटते ही हीरालाल ने पूछा, ''रामकुमार आप ही हैं...? वह केवल इतना बताता है कि ''नहीं रामकुमार को वस्त्र देनेवाला उसका मित्र।'' कहानी सुनाने वाला मुसाफिर इस बात का स्वीकार्य रूप में उत्तर नहीं देता। वह जो उत्तर वह देता है उसे अस्वीकार भी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार घटना की सच्चाई को उस हद तक रेखांकित करता है जिस हद तक एक बाहरी व्यक्ति जो कि रामकुमार के कल्पना जगत में नहीं है, और उस सच्चाई से परिचित नहीं हो सकता, जिस हद तक रेखांकित कर सकता है। देखा जाय तो 'निराला' ने किसी प्रकार की पक्षधरता नहीं दिखाई है और यह पाठक के ऊपर छोड़ दिया है कि इस संबंध में वह क्या निष्कर्ष निकाले। संक्षेप में कहें तो इस कहानी में निराला जी के पास कोई ''लेखकीय संदेश'' नहीं है।
पक्षधरता आधुनिकता का परिचायक है। एक आधुनिक लेखक चीजों को इस ढंग से सँजोता है कि उनसे एक संदेश उभरे, जो वह पाठक को दे सके। आधुनिकता का लेखक एक ईश्वर की तरह कार्यरत होता है जिसे अपने अनुयापियों को कोई संदेश देना होता है उसका दावा मौलिकता का, नएपन का होता है। पक्षधरता के इस अभाव ने निराला जी को यह अवसर दिया कि वे अपनी कहानी में किसी भी जोड़-तोड़ के बिना यह स्वीकार कर सकें कि एक सच्चाई रामकुमार की भी है जो उसे देखती है किंतु औरों की नहीं। इस सच्चाई में पेड़-पौधे छाया हैं तथा जीवन-यापन के साधन भजन करने वाले को भगवान स्वयं ही उपलब्ध कराते हैं। घटना-क्रम जिस प्रकार बढ़ता है उससे उसकी व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है। यह भी कहा जा सकता है कि रामकुमार की एक सच्चाई है ईश्वर ने उनकी सारी व्यवस्था की है। दूसरी बात है कि रामकुमार की सोच एक प्रकार का छलावा थी। रामकुमार दुनिया के और लोगों की तरह काम करके ही इस दुनिया में जीवन-यापन के साधन जुटा सका। ये दोनों पाठ इस कहानी के संभव हैं। निराला जी अपने पाठक को इसकी पूरी छूट देते हैं कि वह अपनी पहुँच के हिसाब से पाठ करे। इसमें उन्होंने किसी भी पाठ के समर्थन में अपने शक्ति का प्रयोग नहीं किया है।
संदर्भ
1. श्यामसुंदर दास,(1942), साहित्यालोचन, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ-196
2. अर्थ, निराला रचनावली-4, पृष्ठ-333
3. वही पृष्ठ-333
4. वही पृष्ठ-333
5. वही पृष्ठ-333
6. वही पृष्ठ-335
7. वही पृष्ठ-340
8. वही पृष्ठ-341
9. वही पृष्ठ-340
10. इस्सर, देवेंद्र, (1996), उत्तर-आधुनिकता : साहित्य और संस्कृति की नई सोच, नई दिल्ली : इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, पृष्ठ-18