लू लू ने बाँहें समेट लीं। काँखों में। मुँह फेर लिया। उठा और अंदर जाकर बैठ
	गया। सोचने ल - "अब मैं 10 वर्ष का हो गया हूँ। माँ कुछ नहीं समझती। मेरी बात
	सुनती ही नहीं। माँ, माँ करता रह जाता हूँ। अब उनसे कभी बात नहीं करूँगा।" लू
	लू कुछ देर यूँ ही कुछ का कुछ सोचता रहा। फिर बोर होने लगा। "माँ अब तक क्यों
	नहीं आई। मुझे मनाने। माँ अच्छी नहीं है। बिलकुल अच्छी नहीं है।" उसने सोच
	लिया।
	"पर ऐसा तो पहले भी हो चुका है"। लू लू ने सोचा। उसे याद आया। पहले भी उसे माँ
	की एक बात अच्छी नहीं लगी थी। उसे इसी तरह बुरा लगा था। गुस्सा भी आया था। तब
	भी तो ऐसा ही सोचा था। यही कि माँ से अब कभी बात नहीं करेगा। पर थोड़ी ही देर
	में सब गड़बड़ हो गया था। माँ ने आकर जब उसे प्यार किया था और उसके पसंद की
	आइसक्रीम दी थी तो उसे बहुत-बहुत अच्छा लगा था। उसे तो याद ही नहीं रहा था कि
	उसे माँ से बात नहीं करनी थी। और बस। सब पहले जैसा हो गया था। पर इस बार माँ
	ने जो किया है उससे उसे बहुत गुस्सा है। तभी तो वह माँ से कभी बात नहीं करना
	चाहता।
	लू लू ने इधर-उधर देखा। कान लगा कर सुना भी। कहीं से आवाज नहीं आ रही थी। उसने
	पाया कि वह एकदम अकेला था। सोचा, जब यहाँ कोई है ही नहीं तो वह ऐसे क्यों बैठा
	रहे - मुँह फुलाकर। "पर मैं तो उदास हूँ। गुस्सा हूँ। फिर मुँह कैसे न
	फुलाऊँ"? उसने अगले ही क्षण सोचा।
	जल्दी ही लू लू इस उधेड़-बुन से निकल गया। उसके हाथ कोई गेम (खेल) जो लग गया
	था। उसने अकेले ही खेलना शुरू कर दिया।
	लू लू अब काफी हद तक शांत हो चुका था। उसे कुछ-कुछ मजा भी आ रहा था। उसे मजा
	क्यों आ रहा था, इस बात को लेकर लू लू ने जरा भी नहीं सोचा। उसे तो बस यही लगा
	कि जब आस-पास कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होता तो मजा आता है।
	अचानक उसे फिर याद आया - वह तो नाराज है। उसे माँ से कभी नहीं बोलना है। "पर
	माँ बार-बार याद क्यों आ रही है", उसने सोचा। उसने यह भी सोचा कि वह क्यों
	चाहता है कि माँ आए और उसे मनाए। लू लू थोड़ा परेशान होने लगा। माँ से नाराज
	होने की बात उसे कम लगने लगी थी। उसे तो माँ का आकर उसे न मनाना ज्यादा खराब
	लग रहा था। उसके मन में आया - "माँ उससे प्यार नहीं करती।"
	तभी बाहर से आवाज आई। माँ की थी - "लू लू कहाँ है तू? जरा यहाँ तो आना बेटे!"
	लू लू ने सुन लिया। उसने सोचा, "मैं नहीं जाऊँगा। जब माँ को मेरी परवाह नहीं
	तो मैं ही माँ की परवाह क्यों करूँ? ...पर जाना तो होगा ही। माँ के पास एक
	आंटी भी तो आई हुई है। आंटी क्या सोचेगी।" असल में उसे पापा की बात याद हो आई
	थी। पापा ने कहा था कि दूसरों के सामने हमें अपने घर के झगड़े नहीं दिखाने
	चाहिए। उसे यह भी याद आया कि तब उसे "झगड़े" शब्द का मतलब ही नहीं मालूम था। जब
	पापा से पूछा तो उन्होंने बताया था - लड़ाई समझ लो। याद करते-करते उसे लगा -
	"मुझे हँसी आ रही है। मुझे तब "झगड़े" शब्द का मतलब ही नहीं पता था। हम कैसे
	नए-नए शब्द और उनके अर्थ सीख जाते हैं न! पता नहीं नए-नए शब्द और उनके अर्थ
	जानकर हमें इतना मजा क्यों आता है?"
	माँ की फिर आवाज आई - "लू लू बेटे, जरा सुन तो! सो तो नहीं गया बेटू!" लू लू
	ने फिर सुना। सोचा - "माँ की आवाज कितनी प्यारी है न! जितने प्यार से बुलाती
	है। माँ को इतने प्यार से नहीं बुलाना चाहिए। मेरा गुस्सा कम होने लगता है।
	माँ क्यों नहीं समझती कि मैं नाराज हूँ।"
	लू लू उठा और माँ के पास चला गया। जाकर चुपचाप खड़ा हो गया। उसने मन ही मन सोचा
	- "माँ मुझे देख क्यों नहीं रही? क्यों नहीं समझ रही कि मैं नाराज हूँ।" तभी
	माँ ने कहा - "लू लू बेटे, आंटी को बताना तो जरा! अपने स्कूल की वह बात! वही
	टीचर की शाबासी वाली बात। मैं बताने लगी तो आंटी ने कहा कि ये तुम्हारे मुँह
	से ही सुनेगीं।" "मैं क्यों बताऊँ अब?" - लू लू के मन में आया। पर लू लू तो कब
	से बताना चाहता था। जो भी सुनता उसकी प्रशंसा जो करता था। लू लू को प्रशंसा
	बहुत अच्छी लगती थी। प्रशंसा सुन कर लू लू को थोड़ी झिझक जरूर होती थी। पर तब
	भी। इंपोरटेंस (महत्व) मिलने पर उसे बहुत बहुत खुशी होती थी। अपने को खास
	समझने का मौका जो मिलता था। लू लू यह सब सोच ही रहा था कि आंटी बोली - "लू लू
	बेटे! तुम्हारी माँ ने थोड़ा-थोड़ा बताया तो है पर मैं तो तुमसे सुनना चाहती
	हूँ। बतलाओ न? शरमाओ मत। अच्छी बात बताने में कैसी शरम?" सुन कर लू लू को बहुत
	अजीब लगा। लगा कि आंटी तो बड़ी फनी है। उसने सोचा - "मैं शरमा कहाँ रहा हूँ।
	मैं तो माँ से नाराज हूँ इसलिए नहीं बता रहा। कब से तो बताना चाह रहा था। पर
	अब तो आंटी पूछ रही है।"
	लू लू ने शुरू किया - "आंटी पता है क्या हुआ? हमारे खेलने का पीरियड था। पूरी
	क्लास के बच्चे खेल रहे थे। थोड़ी देर के लिए हमारे अध्यापक, हमें बताकर वाशरूम
	चले गए थे। मेरी दोस्त नयना कोने वाले पेड़ के नीचे जाकर बैठ गई थी। उसकी तबीयत
	ठीक नहीं थी न? इसीलिए। मैंने देखा कि स्कूल में काम करने वाले एक अंकल उसके
	पास आए और कुछ पूछने लगे। तभी मैंने देखा कि नयना अंकल के साथ-साथ चली गई। वह
	बीमार थी इसलिए शायद धीरे-धीरे चल रही थी। मैंने सोचा कि मैं भी पीछे-पीछे चला
	जाता हूँ। शायद उसकी मदद करनी पड़े। मुझे अजीब लगा। अंकल नयना को दो कमरों के
	बीच की खाली जगह की ओर ले जा रहे थे। उधर तो कोई भी नहीं जाता। मैं छिपा रहा।
	अंकल ने नयना की पीठ पर हाथ लगा कर पूछा - "यहाँ दर्द है?" नयना ने मना किया।
	तब अंकल ने नयना को ऐसी-ऐसी जगह छूना शुरू कर दिया जहाँ नहीं छूना चाहिए था।
	सू सू की जगह भी। यह सब मैं ने टी.वी. के एक कार्यक्रम से जाना था। नयना को
	बुरा लग रहा था। वह वहाँ से चले जाना चाहती थी। लेकिन अंकल जाने ही नहीं दे
	रहे थे। बीच-बीच में नयना को डाँट भी रहे थे। बड़े डरावने लग रहे थे। मुझे बहुत
	डर लग रहा था। सोचा भाग जाऊँ। कहीं दिख गया तो अंकल मुझे बहुत मारेंगे। क्या
	करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। नयना मेरी दोस्त है, मुझे उसकी मदद करनी
	चाहिए। पर मैं तो बहुत छोटा हूँ। तभी मुझे कुछ सूझा। मैं भाग कर खेल के मैदान
	की ओर भागा। अध्यापक आ चुके थे। मैंने उन्हें सब कुछ बताया और उन्हें लेकर उस
	जगह लेकर गया जहाँ अंकल नयना के साथ थे। नयना सुबक रही थी और अपने को छुड़ाने
	की कोशिश कर रही थी। लेकिन अंकल मान ही नहीं रही थी। हमारे अध्यापक ने अंकल को
	जोर से पकड़ लिया और प्रिंसिपल के रूम (कमरे) में ले गए। हमें भी साथ-साथ आने
	को कहा। हमारी बात सुनकर प्रिंसिपल जी को अंकल पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने
	अंकल को बहुत डाँटा तो अंकल ने अपनी गलती मानी और सॉरी कहा। लेकिन प्रिंसिपल
	ने हमारे अध्यापक से कहा - "मैं इस बदमाश को पुलिस में दूँगा।" और मेरी ओर
	देखते हुए कहा - "तुमने बहुत ही बहादुरी और समझदारी काम किया है। शाबास!
	तुम्हें पुरस्कार मिलेगा।" नयना को बहुत ही प्यार से देखते हुए कहा - "डरो
	नहीं बेटी। मैं इसको ऐसा सबक सिखाऊँगा कि आगे से कोई ऐसी हरकत नहीं करेगा।"
	अगले दिन सुबह की असेंबली (सभा) में, प्रिंसिपल जी ने सबके सामने मेरी बहुत
	प्रशंसा की। पुरस्कार देने की बात भी की। मुझे बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा। नयना
	भी बहुत खुश थी। नयना के ममी-पापा तो हमारे घर भी आए थे। मुझे प्यार करने।"
	बात खत्म हुई तो आंटी ने कहा - "अरे लू लू, तुम तो सच्ची में बहुत समझदार हो।
	बहादुर भी।" पर कहानी सुनाने के बाद लू लू फिर उदास हो गया था। वह चुप हो गया
	था। उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर आंटी ने पूछा - "लू लू तुम्हारा मुँह क्यों
	लटक गया है?" "हाँ हाँ लू लू, तुम्हें क्या हुआ है? इतने अच्छे से तो अपनी बात
	बताई है!" - लू लू की माँ ने भी पूछा।
	"लेकिन माँ, मैं आपसे बहुत नाराज हूँ!" लू लू ने कहा।
	"क्यों भला? तुम तो मेरे प्यारे-प्यारे बेटे हो।" माँ ने आश्चर्य से पूछा।
	"लेकिन माँ, जब आंटी और आप कपड़ों की बातें कर रही थीं तो मैं आया था न?"
	"हाँ, आया था।"
	"तो मेरी बात क्यों नहीं सुनी थी? कितनी बार माँ माँ करता रहा था।"
	"कौन-सी बात लू लू?"
	"मैं ने जब कहा था कि माँ मैं अपनी बात बताऊँ तो आपने कहा था न कि बाद में
	बताना। अभी हम बात कर रहे हैं। बड़ों के बीच बच्चे नहीं आते। मैं बच्चा नहीं
	हूँ माँ। मैं भी बताना चाहता हूँ। कितनी कोशिश की थी मैंने। पर आपने बोलने ही
	नहीं दिया। तभी तो मैं नाराज हूँ। अंदर भी चला गया था।"
	"कोई जरूरी बात बतानी थी लू लू?" आंटी ने पूछा।
	"हाँ आंटी, यही बात तो बतानी थी! स्कूल वाली!" लू लू ने आंटी से कहा।
	"अरे, यह तो सचमुच बड़ी गलती हो गई। हमने तो अपनी बातों की मस्ती में तुम्हें
	सुना ही नहीं।" आंटी ने कहा।
	"हाँ लू लू, मुझे भी लग रहा है कि मुझसे गलती हो गई है। आगे से तुम्हारी बात
	जरूर सुनूँगी। सॉरी लू लू!" माँ ने लू लू को अपनी ओए खींचते हुए कहा।
	"ओके माँ!" लू लू ने खुश होकर कहा।
	लू लू को बहुत अच्छा लग रहा था। उसने मन ही मन कहा - "माँ इतनी अच्छी क्यों
	होती है?"