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लेख

जे.सी. कुमारप्पा का आर्थिक चिंतन

डॉ. मिथिलेश कुमार


'विकास' का सवाल आज विमर्श के केंद्र में है। आधुनिकता के प्रतिफल के रूप में प्रगट हुई 'विकास' की अवधारणा के बारे में लोगों का विश्वास था कि विकास की यह अद्भुत घटना आधुनिक मनुष्य को अभाव, समाज और प्रकृति की दासता एवं जीवन को विकृत करने वाली शक्तियों से मुक्ति दिला देगी। लेकिन आधुनिक विकास के जो स्वप्न देखे थे उसके अपेक्षित परिणाम सामने नही आए। इसके फलस्वरूप उदार पश्चिमी चिंतन का प्रतिनिधित्व‍ करने वाले विकास के अध्येताओं को तीसरी दुनिया में अब पहले की तरह विस्मयाकुल श्रद्धा के साथ नही सुना जा रहा है। असहमति के वे 'स्वर' जो आरंभ में क्षीण थे, अब शक्ति पा रहे हैं तथा लोगों का मन वैकल्पिक उपायों के बारे में सोचने लगा है। इस क्रम में हमें बरबस कुमारप्पा, शुमाकर, इलिच, सुगमदास गुप्ता एवं पाउलो फेयरे आदि याद आते है जिन्होंने इस बात को मजबूती के साथ रखा है कि विकास की जो गांधीवादी अवधारणा है वही सार्थक एवं टिकाऊ है।

वैकल्पिक विकास का प्रारूप कैसा हो इस बारे में जे.सी. कुमारप्पा ने जो विचार प्रगट किए है उन्हीं को सूत्रबद्ध करने का प्रयास यह आलेख करता है। तमिलनाडु के तंजावुर में 4 जनवरी 1862 को एक पारंपरिक धार्मिक ईसाई परिवार में जन्मे जे.सी. कुमारप्पा पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट थें तथा बीसवीं सदी के प्रथम दशक में लंदन में कार्यरत रहे। इसके बाद कुछ समय के लिए मुंबई में कार्य किया। बाद में 1927 में अमेरिका चले गए जहाँ उनका संपर्क नए-नए विचारों से हुआ। कोलंबिया विश्वविद्यालय में एडविन सेलिगमन के मार्गदर्शन में उन्होंने "Public Finance and Poverty" शीर्षक से शोध प्रबंध लिखा। गांधी जी जब दांडी यात्रा में थे तब यह प्रबंध धारावाहिक रूप में यंग इंडिया में प्रकाशित हुआ। 8 मई 1826 को कुमारप्पा और गांधी जी की मुलाकात साबरमती में हुई जो आजीवन गुरू-शिष्य के संबंधों में परिवर्तित हो गई। गांधी जी ने कुमारप्पा की प्रतिभा को बखूवी पहचाना तथा उन्हें आर्थिक प्रश्नों के अध्ययन करने का काम सौंपा गया जो "A survey of matter Toluca: Khaira district" नाम से प्रकाशित हुआ। 1934 में "अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ" की स्थापना गांधी जी द्वारा की गई, जिसकी जिम्मेदारी कुमारप्पा पर डाली गई।

कुमारप्पा का आर्थिक दर्शन व्यापक और मौलिक है। वह मानव के आर्थिक प्रश्नों को निर्माण करने वाले घटकों का सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। उनके आर्थिक चिंतन में मूलभूत रूप से व्यक्ति के स्वभाव, मूल्य, कार्य का स्वरूप, श्रम विभाजन, राज्य का कार्य, संपत्ति का अधिकार, व्यापार या लेन-देन में रुपये का स्थान महत्वपूर्ण है। एक कुशल अर्थशास्त्री होने के नाते उनका चिंतन नवीनता लिए हुए है। 1926 में अपने सिद्धांतों और चिंतन को व्यवस्थित रूप में एक पुस्तक के रूप में उन्होंने प्रकाशित किया। कुमारप्पा के विचारों को समझने में यह पुस्तक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। मूलतः अँग्रेजी में लिखी गई पुस्तक का नाम है - Why the village movement? a plea for a village central economic order। इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद "गाँव आंदोलन क्यों? भारत में ग्राम-केंद्रित अर्थ-व्यवस्था के लिए एक दलील" नाम से उपलब्धी है। यह गांधी जी के आर्थिक सामाजिक विचारों का एक तरह से घोषणा पत्र ही है। कुमारप्पा के विशाल लेखन में एक और पुस्तक अपना अनूठा स्थान रखती है, वह है Economy of permanence: A Quest for a Quest for a social order based on Non-violence. इसका भी हिंदी अनुवाद "स्थायी समाज व्यवस्था" नाम से उपलब्ध है।

कुमारप्पा का आर्थिक चिंतन गांधीवादी अहिंसा पद्धति पर आधारित होने के कारण व्यधक्ति की स्वतंत्रता, सृजनशीलता तथा दैनिक काम से उसके स्वस्थ संबंध को महत्वपूर्ण मानता है। कुमारप्पा के अनुसार किसी के दैनिक कामों में ही उसके सभी आदर्श, सिद्धांत और धर्म प्रकट हो जाते है। यदि उचित रीति पर काम किया जाए तो वही काम मनुष्य के व्यक्तित्व, के विकास का रूप बन जाता है। "गाँव आंदोलन क्यों'' कार्य का विश्लेषण करते हुए कुमारप्पा लिखते है - "इसके दो विशेष अंग है 1. उन्नति के बीज यानि वह चीज, जिससे उसका विकास होता है और 2. शारीरिक क्लेश। इन मार्गदर्शक विचारों का विस्तार तथा गहराई से अध्ययन अनेक गुत्थियों को सुलझाने में मदद करेगा। इन्ही विचारों को आगे बढ़ाते हुए श्रम विभाजन के सदंर्भ में वे लिखते है - ''चीजों के बनाने की पद्धति में केंद्रीकरण के अंतर्गत जो श्रम-विभाजन होता है, जो कि स्टैंडर्ड माल तैयार करने के लिए आवश्यक है, उसमें व्यक्तिगत कारीगरी दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता। केंद्रित उद्योग में काम करने वाला उस बड़ी मशीन का एक पुर्जा भर बनकर रह जाता है। उसकी स्वतंत्रता और उसका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है।"

कुमारप्पा के ये विचार आज के स्वयंचलित मशीनआधारित महाकाय उद्योगों में कार्यरत मजदूरों के जीवन का प्रत्यक्ष अध्ययन करने पर उन विचारों की सत्यता को सिद्ध करते हैं। स्वस्थ समाज और स्वस्थ व्यक्ति के लिए वैकल्पिक विकेंद्रित व्य‍वस्था का भी अविष्का‍र जरूरी है। केंद्रीय बनाम विकेंद्रीयता की बहस में भी ये विचार महत्वपूर्ण हो जाते है।

आज इस बात को लेकर कोई दो राय नहीं है कि केंद्रीय उत्पादन व्यवस्था, अपने दुर्गुणों से छुटकारा नहीं पा सकती। वह और भयावह तब बन जाती है जब वह ''आवश्यकता के अनुसार उत्पादन'' के बजाय ''बाजार के लिए उत्पादन'' पर ध्यान केंद्रित करती है। बेतहाशा उत्पादन बाजार की तलाश करने के लिए विवश होता है तथा उसका अंत गलाकाटू परस्पर होड़ तथा युद्ध, उपनिवेशवाद इत्यादि में होता है। यदि ये उत्पादन ऐसे कच्चे माल पर आधारित हो जो कि प्रकृति में एक सीमा तक ही उपलब्ध है (जैसे कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, खनिज पदार्थ) तब तो स्थिति और भी विकट बन जाती है।

कुमारप्पा उपरोक्त तथ्यों को भलीभाँति परख चुके थे तथा स्थायी स्रोतों के दोहन पर ध्यान देने तथा उन्हें विकसित करने पर जोर देते रहे। प्रकृति के संदर्भ में चक्रीय अवधारणा को उन्होंने महत्व का स्थान दिया है।

उनके मौलिक चिंतन ने प्रकृति में पाँच प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं को माना -

1. परोपजीवी अर्थव्यवस्था (Parasitic Economy)
2. लूट-खसोट वाली अर्थव्यवस्था (Predatory Economy)
3. साहस वाली अर्थव्यवस्था (Economy of Enterprise)
4. झुंड वाली अर्थव्यवस्था (Economy of Gradation)
5. सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था (Economy of Service)

प्रथम दो व्यवस्थाओं में अधिकार और कर्तव्य का कोई विचार नहीं किया जाता। तीसरी में मनुष्य अपने परिश्रम और सृजनशीलता का फल चखता है। चौथी में सामूहिकता का भान और समूह के कल्याण की भावना होती है। जबकि पाँचवी व्यवस्था उच्च सांस्कृातिक भावना पर आधारित है तथा दूसरों के विकास में ही व्यक्ति का विकास निहित है, इस सिद्धांत पर चलती है। यही स्थायी समाज व्यवस्था है।

कुमारप्पा के विचारों की उपयोगिता आज के संदर्भ में भी खरी उतरती है। शूमाकर जैसे विचारक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Small is Beautiful में कुमारप्पा के विचारों का उल्लेख किया है।

अपने जीवन के उत्तारार्द्ध में कुमारप्पा ग्रामीण जीवन को प्रत्यक्ष जीने के लिए तथा खेती उत्पादन पर स्वावलंबी जीवन कैसे जी सकते हैं, इसका प्रयोग करने के लिए वर्धा से 32 कि.मी. दूर सेलडोह नामक ग्राम में रहने चले गए थे किंतु खराब स्वास्थ्य के कारण वे इस प्रयोग को अंतिम परिणिति तक नहीं ले जा सके।

कुमारप्पा के अनुसार विकास की आधुनिक पद्धति ने मनुष्य के जीवन को 'अवरुद्ध और पशुकोटि' का बना दिया है। इसलिए उन्होंने आधुनिक विकास के ढाँचे की तुलना 'भेड़ियों के गुट' से की है क्योंकि यह व्यवस्था मनुष्य को सिर्फ उपभोक्ता मानकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने पर जोर देती है तथा इस क्रम में अनिवार्यतः हिंसा करती है। इसके अतिरिक्त यह व्यवस्‍था मनुष्य जीवन एवं उसकी गुप्त शक्तियों (रचनात्मकता) की निर्मम हत्या भी करती है इसलिए यह व्यवस्था हमें निश्चित ही विनाश की ओर ले जाती है।

कुमारप्पा इसके बरक्स 'विकास' की जिस अवधारणा की बात करते हैं, उसके केंद्र में प्रकृति एवं मनुष्य है क्योंकि कुमारप्पा के लिए मनुष्य की सुप्त शक्तियों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण निर्माण करना ही सच्चे विकास का उद्देश्य है। उनके शब्दों में - ''यदि विकास को स्थायित्व और अहिंसा प्राप्ति करनी हो, तो उपभोक्ता को प्राधान्य देना होगा और हम एक चीज उसकी व्यक्तिगत जरूरत और रुचि के अनुसार पैदा करती होगी। यह तभी संभव हो सकता है जब उपभोक्ता वस्तुएँ उसकी आवश्यकतानुसार उपभोक्ता के देख-रेख में अपनी-अपनी जगह पर ही बने, खास कर घरों में।''

प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक प्रो. नंदकिशोर आचार्य के अनुसार - "विकास की योजना में मनुष्‍य की तरक्की के लिए अनुकुल वातावरण निर्माण करने की कुव्वत भी होनी चाहिए और यह तभी हो सकता है जब विकास ऐसी संस्कृति का निर्माण करे जो स्थायी हो, तथा निश्चित रूप से मानवीय प्रगति में सहायक हो। यहाँ प्रगति सिर्फ आर्थिक न होकर नैतिक भी है। क्योंकि गांधी दृष्टि में ''मनुष्य होने का मतलब ही नैतिक होना है।''

कुमारप्पा के अनुसार विकास की ऐसी संस्कृति का निर्माण तभी हो सकता है जब उसका ढाँचा अहिंसक हो और अहिंसक ढाँचे के निर्माण के लिए प्रेम एक बुनियादी शर्त है। ये प्रेम तभी स्थायी होगा जब हमारी हर-एक आवश्यकता की चीज हमारे आसपास के कच्चे माल से और आसपास के ही कारीगरों द्वारा बनाई हुई हो। यदि स्थानिक चीज का उपयोग स्थानिक लोगों द्वारा उत्पादन करने में किया जाएगा और उसका पैसा भी उसी क्षेत्र के कारीगरों के गुजर-बसर के काम में आ जाएगा तो कुमारप्पा के शब्दों में एक 'कुदरती-चक्र' पूरा हो जाएगा। चूँकि इस व्यवस्था में किसी से होड़ नहीं है इसीलिए इस हालत में हिंसा निर्माण का सवाल ही नहीं उठता। यही हमें शाश्वत व्यवस्था की ओर ले जाएगी। इसलिए कुमारप्पा कहते हैं कि यदि हमें स्थायी समाज निर्माण करना है तो हमें यह भी देखना होगा कि मनुष्य‍ प्रकृति और समाज के साथ कैसा बर्ताव रखे और उसमें कैसे एकात्म भाव प्राप्त करें।

लेकिन इसके लिए जरूरी है कि विकास का प्रारूप अपने उद्देश्य में बिल्कुल स्पष्ट हो। कुमारप्पा के अनुसार स्वय-पूर्ण एवं संगठित गाँव जिसे गांधी ग्राम स्वराज्य नाम देते हैं, बनाना हमारा ध्ये‍य होना चाहिए। उनके शब्दों में - ''अहिंसक विकास के लिए जिस गाँव में जो योजनाएँ बनाई जाए वे उस गाँव के फायदे की तो होनी ही चाहिए पर साथ ही साथ समूचे देश की बड़ी योजना के विरोधी नहीं होनी चाहिए।''

कुमारप्पा इस वैकल्पिक प्रारूप में निम्न कार्यक्रमों पर जोर देने की बात करते है-

1. कृषि

2. ग्रामीण-उद्योग

3. सफाई, आरोग्य एवं मकान

4. ग्रामों की शिक्षा

5 . ग्रामों का संगठन

6. ग्रामों का सांस्कृतिक विकास।

जिसके बुनियाद में वस्त्र और खुराक की आत्मनिर्भरता प्रमुख है। इस दृष्टि से ही प्रेरित होकर कुमारप्पा विकास योजनाओं में हमें खेती एवं ग्रामीणी उद्योगों पर सारा ध्यान केंद्रित करने की बात करते हैं। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि हमें कुमारप्पा के अहिंसक विकास की तरफ बढ़ना है तो विकास सिर्फ आर्थिक वृद्धि नहीं होकर मानव केंद्रित हो। विकास को मानव केंद्रित होने के लिए आधारभूत संरचनात्मक परिवर्तन जरूरी है। गांधी जी जब स्वदेशी की बात कर रहे होते हैं तो वह संरचनात्मक परिवर्तन की तरफ ही इशारा कर रहे होते हैं। जहाँ उत्पादन 'बाजार' की आवश्यकता के अनुसार न होकर 'समाज' की आवश्यकता के आधार पर हो। क्योंकि बाजार कृत्रिम माँग पैदा करता है तथा मानव केंद्र में नहीं रखता है। देशज (वैकल्पिक) विकास के लिए एक नई संस्थागत रूपरेखा को कुमारप्पा सहकारी समितियों का नाम देते हैं जिसमें जनता और उसके साहचर्यों को अधिक निर्णायक भूमिका मिल सकती है। इस क्रम में विकास की प्रक्रिया को सही अर्थों में सहभागी बनाने वाले प्रयास के विषय में सोचना आवश्यक है। यह तभी संभव होगा जब आम आदमी को सही अर्थों में सत्ता और संसाधनों तक पहुँच हो। गांधी के ग्राम स्वराज का भी तो आखिर यही सपना था।


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