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कहानी

इतिहासबिद्ध

राकेश मिश्र


दिव्यांशु कबीर ने अपना यह नाम खुद ही रखा था। माँ बाप जिन्हें वे मम्मी डैडी कहते थे ने 'कबीर' की जगह कुमार रखा था, अपनी हैसियत के मुताबिक। इसी हैसियत के अनुपात में वे दिव्यांशु कबीर के अम्मा बाबूजी ही कहलाना चाहते थे, जैसा उनके बाकी बेटे बेटियाँ बुलाते थे। दिव्यांशु के मम्मी डैडी कहने पर वे कभी कभी यूँ ही चौंक पड़ते थे जैसे दिव्यांशु उन्हें नहीं किसी और को पुकार रहे हों। वैसे ही जब उनसे दिव्यांशु कबीर के बारे में पूछा जाता तो भी वे कभी कभी चौंक पड़ते और कभी कभी तो मायूस हो जाते कि ये 'कबीर' कहाँ से उनके घर में घुसपैठ कर गया जबकि वे तो सिर्फ दिव्यांशु के माँ बाप थे।

वैसे इन सब स्थितियों के लिए सिर्फ परिस्थितियाँ ही जिम्मेवार थीं। दरअसल दिव्यांशु के 'डैडी' रामबचन चौरसिया जब बरौनी फर्टीलाइजर में इस 'टाउनशिप' में रहने आए तो वे अपनी अच्छी खासी जिंदगी बेगूसराय शहर में गुजार चुके थे। बेगूसराय शहर उनके गाँव 'बखरी' का ही स्वाभाविक विस्तार था, जहाँ वे अपने तमाम ऊँच नीच, अच्छे बुरे अनुभवों के साथ जिंदगी बसर कर रहे थे। बेगूसराय के लोहियानगर मुहल्ले में वे लगभग 'बखरी' जैसे ही सामाजिक संबंधों में थे जहाँ वे मुहल्ले में चौबे जी की 'पांयलागी' करते थे, तो अपना संडास साफ करने वाले पाँचू को अपनी उतरन देकर उसकी नजर में ओहदेदार और सम्मानित भी थे। 'बखरी' में उनकी अपनी थोड़ी बहुत जमीन भी थी, जिस पर छोटे भाई बटाईदारी की खेती करते थे और साल में एक बार उनका हिस्सा ईमानदारी से पहुँचा जाते थे, वैसे वे इस मामले में काफी उदार थे और गाँव से अपना संबंध और पुख्ता महसूस करने के लिए और कभी कभी छोटे भाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी के वास्तविक अहसास से वे यह हिस्सा लेने से इनकार भी कर देते थे। हालाँकि इस दरियादिली से उनकी पत्नी फूलमति देवी इत्तफाक नहीं रखती थीं लेकिन वे इस मामले में अपनी पत्नी की आपत्तियों को नजरअंदाज कर जाते थे, उन्हें लगता था कि इस संदर्भ में उन्हें दुनियादारी का ज्यादा अनुभव था और वे अब तक के जीये हुए जीवन से इसे पुष्ट भी कर सकते थे। चालीस पैंतालीस की उम्र तक आते आते वे अपनी दोनों बेटियों का विवाह अच्छे खाते पीते परिवारों में कर चुके थे, और इन संबंधों में उनके छोटे भाई की अहम भूमिका रही थी।

'टाउनशिप' में वे अनायास ही आ गए थे। काम तो वे पहले भी इसी फर्टिलाइजर कंपनी में ही करते थे, लेकिन ओहदा थोड़ा नीचे था, मतलब वे 'फिटर' थे - कुशल मजदूर। कंपनी की नई नीतियों के तहत वे रातोंरात प्रोन्नत होकर सुपरवाइजर बना दिए गए और वे एकाएक कुशल मजदूर से अधिकारी की श्रेणी में आ गए - अधिकारविहीन अधिकारी। काम तो कमोवेश वही रहा, लेकिन आस पड़ोस, परिवेश और मिलने जुलने वालों से उनका रिश्ता चुपचाप और बेआवाज तरीके से बदलने लगा और जब उन्होंने बेगूसराय के लोहियानगर मुहल्ले से अपनी गृहस्थी इस टाउनशिप में आवंटित ए- ४ क्वार्टर में स्थानांतरित की तो जैसे एक झटके में उनका सब कुछ 'पुराना' नएपन में तब्दील हो गया। यह एक साथ ही सांस्कृतिक झटका और नवाचार का आनंद जैसी विरोधाभासी अनुभूति थी, जिससे वे आखिर तक नहीं उबर सके। यहाँ वे उत्पादन संबंधों में बिना बदलाव के सामाजिक संबंधों में तेज बदलाव के शिकार हुए, जिसका सबसे वास्तविक परिणाम 'दिव्यांशु' के रूप में उनके सामने था। रामबचन बाबू से आर.बी. चौरसिया और अनीत के बाबू से दिव्यांशु के डैडी तक के सफर में वे इतने हक्के बक्के और हैरान रहे कि दिव्यांशु और उसके छोटे भाई 'प्रिंस' (जिसका जन्म इसी टाउनशिप में हुआ था) के जीवन, जगत में आ रहे तेज बदलाव को वे अंत तक सिर्फ समझने की कोशिश करते रहे, समझ नहीं पाए। इन बदलावों के प्रति एक शुरुआती बेचैन और जिज्ञासु प्रतिक्रियाओं के अलावा वे कोई सार्थक अंतःक्रिया नहीं कर पाए और इस बात से भी लगभग प्रतिक्रियाविहीन रहे कि दिव्यांशु में बनारस चले जाने के बाद 'प्रिंस' कब से उन्हें पहले पीठ पीछे अपने संबोधन में और फिर सामने ही बूढ़ा बूढ़ी कहने लगा था।

वैसे वे दिव्यांशु को बनारस या कहीं और भेजने में पक्ष में नहीं थे, उनका मानना था कि बैंकिंग या कर्मचारी चयन आयोग की तैयारियों के लिए ज्यादा से ज्यादा पटना में एक दो साल की तैयारी पर्याप्त थी और अब, जबकि उनकी नौकरी को भी एक दो साल ही बचे थे और प्रिंस अभी इंटरमीडिएट में ही था, दिव्यांशु को वे जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ा हुआ देख लेना चाहते थे।

लेकिन यह उनका देखना था और दिव्यांशु उनके देखने से इत्तफाक रख भी सकता था यदि वह 'दिव्यांशु कुमार' होता। अब तो वह 'दिव्यांशु कबीर' था। दुनिया को देखने का, समझने का उसका अलग और अलहदा नजरिया था। इतना अलग था कि मिस्टर आर.बी. चौरसिया बहुत कोशिश करके भी नहीं समझ सके कि जब उसकी उम्र के लड़के डॉक्टर इंजीनियर आई.ए.एस. और बैंक पी.ओ. बनना चाहते हैं तो दिव्यांशु आखिर पत्रकार क्यों बनना चाहता है और यदि बनना भी चाहता है तो यहीं किसी अखबार से क्यों नहीं जुड़ जाता इसके लिए बनारस जाकर पढ़ने की क्या जरूरत है जवाब में दिव्यांशु ने तफसील से समाज में पत्रकार की अहमियत और उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला जो चौरसिया जी के बुझे हुए चेहरे पर तनिक भी उजाला नहीं ला पाया। दिव्यांशु कबीर ने अपने समूचे ज्ञान से समाज के प्रति मनुष्य के कर्तव्य को विवेचित किया और समाज के हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज कैसे पत्रकारिता में मुखर होती है और पत्रकार कैसे समूचे अछोरे में रोशनी की संभवतः आखिरी लकीर होता है, पर एक जोरदार तर्क प्रस्तुत किया। मम्मी डैडी तो पता नहीं क्या समझ पाए, लेकिन इंटरमीडिएट में पढ़ने वाला प्रिंस लगभग निर्णायक स्वर में बोला - तुम लोग काहे झक झक मचाए हुए हो भैया को जो करना है, करने दो। फिर दिव्यांशु से मुखातिब होकर कहा - ''तुम जाओ। इन लोगों के भेजे में तुम्हारी बात नहीं घुसेगी। तुम चिंता मत करो मैं यहाँ सँभाल लूँगा।''

कायदे से यह बड़े भाई का डॉयलाग होना चाहिए था, लेकिन प्रिंस इतने बड़प्पन से बोल रहा था कि दिव्यांशु भी यह तय नहीं कर पाया कि उसे कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। कुल मिलाकर बनारस के लिए बेगूसराय से रवानगी के समय तक यह असमंजस उसके दिमाग पर छाया रहा, और यह तो वह भी नहीं जानता था कि यह असमंजस ही भविष्य में उसका स्थायी भाव होगा।

दिव्यांशु यदि 'फर्टीलाइजर टाउनशिप' से नहीं आकर सीधे बेगूसराय से बनारस आता तो यह असमंजस थोड़ा कम होता या देर में आता, लेकिन बनारस तो उसको कदम कदम पर असमंजस में डाले दे रहा था, कहाँ तो वह समाज के हिरावल दस्ते में शामिल होने के लिए पत्रकार बनना चाहता था और कहाँ उसके अध्यापक ही उसे सलाह दे रहे थे कि अब भी मौका है, यदि वह बच सके तो बच ले। खासकर, उसके विभागाध्यक्ष सोहन राज गुप्त तो पत्रकारिता के बारे में उसके आदर्श और विचार सुनकर सनाके में आ गए। उन्होंने कई बार घुमा फिरा कर जानना चाहा कि वह निजी तौर पर जानना चाहते हैं कि उसका वास्तविक उद्देश्य क्या है वह कोई साक्षात्कार नहीं ले रहे हैं कि आदर्श बखानना जरूरी हो, लेकिन हर बार जब दिव्यांशु ने और जोर धोर से अपने ध्येय और आदर्श रखे तो गुप्त जी ने सिर शुनते हुए कहा - दिव्यांशु जी, आपसे बड़ा चूतिया मैंने आज तक नहीं देखा। बीस तीस साल पहले जब मैं इस चूतियापे के चक्कर में फँसा था और अच्छी खासी सरकारी नौकरी छोड़कर इस नरक में आया था तो उस समय भी कुछ लोग थे जो मेरे इस हौंसले और फैसले की दाद देते थे। आज आपके विचारों को सुनने के बाद मुझे लग रहा है कि आपको भी इस पत्रकारिता की दाद ही मिलेगी, जिंदगी भर खुजाते रहिएगा।

सोहन राज गुप्त ये बातें अपने चैंबर में कर रहे थे, जहाँ दिव्यांशु के अलावा कुछ और भी लोग थे जिनमें मैं भी था। इतना तो सबको पता था कि सोहन राज अपने प्रोफेशन से खुश नहीं हैं, और वे अक्सर अपनी कक्षाओं में अपनी सरकारी नौकरी के ठाठ सुनाया करते थे। उनके अनुसार वे आइ.ए.एस. रैंक के अधिकारी थे लेकिन हम अपनी खोजी पत्रकारिता से जानते थे कि वे पी.सी.एस. के निचले रैंक मतलब बाट माप अधिकारी जैसी कोई चीज थे। लेकिन वे इतना खुलकर दिव्यांशु को ही अपना फटा हुआ क्यों दिखा रहे थे, यह समझने में हमें जरा वक्त लगा। दरअसल, वे दिव्यांशु कबीर का नामांकन फॉर्म पढ़कर जान गए थे कि दिव्यांशु चौरसिया मतलब वणिक जाति का ही है, और मैट्रिक, इंटर, स्नातक में उसके प्रथम श्रेणी से उन्हें यह भान भी हो गया था कि लड़का किसी गरीब की गुदड़ी का लाल है, इस लिहाज से उन्हें इस धंधे की ऊँच नीच समझाना उन्हें बनारस के हिसाब से अपना जातीय दायित्व महसूस हो रहा था इसलिए किसी भी हिसाब से दिव्यांशु को देखकर उनके मुँह से निकल ही गया - देखिए, आप अपने लोग हैं, इसलिए समझाना हमारा फर्ज था। पत्रकारिता में आप हम जैसों के लिए अब कुछ नहीं रखा है। यह तो अब इन बड़े लोगों की चीज है। अपनी खीझ में उन्होंने हम लोगों की तरफ इशारा किया और बिना किसी की प्रतिक्रिया जाने अपने चैंबर से बाहर हो लिए।

बाद में जब मैंने दिव्यांशु से जानना चाहा कि वह गुप्ता का अपना आदमी कैसे हैं, तो जवाब में वह मेरे बड़प्पन का राज जानने को उत्सुक था। मैं उसके कंधे पर हाथ रखकर मुस्कराया - हम जैसे लोग गुप्ता जी लोगों के लिए हमेशा 'बड़े आदमी' हुआ करते हैं।

- 'हम जैसे लोग क्या मतलब है तुम्हारा दिव्यांशु का असमंजस बरकरार था।

- हम जैसे से मतलब ठाकुर ब्राह्मण, भूमिहार। अब हम लोग तो बनिया बकालों के लिए बड़े आदमी तो होंगे ही न। मैं कहना तो ब्राह्मण, ठाकुर ही चाहता था, लेकिन भूमिहार मैंने तुक्का के तौर पर जोड़ा था कि अक्सर भूमिहार ही अपनी टाइटल नहीं लगाते, और बेगूसराय तो वैसे भी भूमिहारों का गढ़ माना जाता था।

जाने दीजिए पंडीजी। मैं आपकी तरह का बड़ा आदमी नहीं हूँ। दिव्यांशु ने तत्परता से मेरा हाथ अपने कंधे से झटक दिया। मुझे भी आप बनिया बकाल ही समझें। मेरा तीर और तुक्का दोनों ही टूट चुका था। दिव्यांशु की ऐसी प्रतिक्रिया से मैं खुद को नंगा महसूस कर रहा था। अपने भीतर, अपने हमाम में मैं चाहे जितना नंगा रहूँ, नंगा दिखना मुझे गवारा नहीं था। वैसे गुप्ता जी की बात से मैं सहमत ही था। मैं तो इसलिए ही पत्रकारिता पढ़ रहा था कि अपनी अकड़, हेकड़ी और रुतबे को मैं इसी धंधे में सुरक्षित देख पा रहा था। बाकी जो ऐसे रुतबेदार विकल्प थे उनके लिए मैं अयोग्य था। आइ.ए.एस. की तैयारी लायक बाप के पास पैसा नहीं था, दरोगा इन्स्पेक्टर जैसी नौकरियों में बीस पच्चीस लाख की बोली लगती थी। खानदान में कोई प्रोफेसर लेक्चरर भी नहीं था कि 'बरलैन' के तौर पर ही कहीं कोई जुगाड़ फिट हो जाय। लिहाजा पत्रकारिता ही ऐसा रास्ता था, जहाँ आदमी थोड़े कम पैसे में भी अपना कॉलर ऊँचा कर चल सकता था। मैं अपने अनुभव से जानता था कि एक बिना पढ़ा लिखा स्टिंगर टाइप का पत्रकार भी अपने इलाके के बाबू दरोगा आदि से सलाम पाने का हक रखता था। फिर मैं तो एक बड़े विश्वविद्यालय से इस धंधे की डिग्री पाने वाला था, इसकी बदौलत तो मैं देश की राजधानी में मंत्री संत्री के बीच जरूर अपनी पैठ बना लूँगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास था। फिर इतने लोग अपनी जान पहचान, गाँव जवार और कुछ तो अपने परिवार के ही इन बड़े अखबारों और चैनलों में थे। वे मुझे अपनी इस डिग्री की बदौलत कहीं भी फिट करवा देंगे, इस पर यकीन नहीं करने का कोई कारण नहीं दिखता था। लेकिन अभी अभी दिव्यांशु ने गुप्ता के चैंबर में पत्रकारिता के जिन उच्च आदर्शों की बात की थी और उसके लिए झिड़की भी खाई थी, फिर भी अपनी जिद पर जिस तरह अड़ा रहा था, उसके मुकाबले अपनी सोच में उससे अलग हो जाने में मुझे अपनी हेठी और हार लग रही थी। और फिर अपने सहज ज्ञान से मैं जानता ही था कि वह पत्रकार ही क्या, जो अवसर के अनुसार अपना रंग न बदल सके।

मैंने दिव्यांशु को लगभग अंकवार में भरते हुए कहा - लेकिन गुरू, तुमने आज गुप्ता को चुप ही करा दिया। अरे यार, यह उसका अपना फ्रस्ट्रेशन है, नहीं तो तुम्हीं बताओ अभी जिस तरीके से पॉलिटिक्स में नंगा नाच चल रहा है, पत्रकार यदि अपना काम ठीक से न करें, तो जनता की चेतना का विकास कौन करेगा?

दिव्यांशु वाकई भोला था, वह मेरे शब्दों से ताव में आ गया था - ठीक कहते हो मिसर। लेकिन इस क्षेत्र में जितनी तैयारी की जरूरत है, उस लिहाज से तो यहाँ कुछ भी नहीं है। वह बड़ी देर तक डिपार्टमेंट में अच्छी फैकल्टी का अभाव, उपकरणों के पुरानेपन, पत्रकारिता में चल रहे नए रुझानों के प्रति विभाग की उदासीनता का रोना रोता रहा और मैं हैरत से उस अजूबे को देखता रहा कि अच्छे नंबर लाकर किसी तरह डिग्री लेकर निकल लेने के अलावा कोई इस तरीके से भी इस पढ़ाई के बारे में सोच सकता है।

सिर्फ यही एक सोच नहीं, दिव्यांशु अपनी तमाम सोच में मेरे लिए अजूबा ही था। अपनी जितनी कहानियाँ उसने बताई थीं, उसके मुकाबले 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में गांधीजी द्वारा बचपन में सच बोलने की कोशिशें बचकानी लग सकती थीं। उसने पिताजी मतलब डैडी के लाख समझाने के बावजूद उनके दोस्तों को हमेशा सच ही बताया था कि वो घर पर ही हैं, और साथ में यह भी जोड़ा था कि उन्होंने बताने से मना किया है। छोटा भाई एक बार दोस्तों के साथ बीयर पी आया था। दिव्यांशु के पैरों पर गिर पड़ा कि भैया जी आज भर माफ कर दो, लेकिन उसने उसे पैरों से उठाते ही आवाज दी - डैडी, प्रिंस आज पीकर आया है। (उसे बाकी बीयर और दारू का भेद पता नहीं था) और तो और जब पड़ोस में शर्मा अंकल की लड़की अनुपमा ने उसे जीवन का पहला प्रेमपत्र लिखा तो वह शर्मा आंटी को बता आया कि आज की पीढ़ी पर नजर रखना बहुत जरूरी है। लेकिन दिव्यांशु आज तक यह नहीं समझ पाया कि पत्र पढ़ने के बाद शर्मा आंटी ने अपनी बेटी को कुछ नहीं कहा बल्कि उसे ही हिकारत से देखते हुए कहा था कि वे अपनी बेटी को स्मार्ट समझती थीं, उन्हें नहीं मालूम था कि इस चुगद को पसंद करेगी। दिव्यांशु उन्हें तसल्ली से समझाना चाहता था कि दरअसल आस पड़ोस में लोगों से इस तरह का संबंध धोखा या विश्वासघात हो सकता है, तो उन्होंने उसे ही अपने घर में कभी भी आने से मना कर दिया।

सच बोलने की अपनी झक, पास पड़ोस की लड़कियों को माँ बहन समझने की उसकी सनक के अलावा उसमें एक और अजूबापन था। वह खुशी और गम एक ही तरीके से मनाता था - मुर्गा खाकर। मुर्गा पकाना उसके लिए जैसे एक आध्यात्मिक प्रक्रिया थी। धीमी आँच में खड़े मसाले के एक एक अवयव को उचित अनुपात में नापकर उसके भूने जाने से उठती खुशबू के मुर्गे में घुलते जाने की समूची प्रक्रिया से वह ऐसा एकाकार हो जाता कि उसका कबीर नाम सार्थक हो जाता। कपड़ा बुनते हुए इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना की बारीकियाँ समझते कबीर या मुर्ग के एक एक रेशे में घुलते मसाले में अपने सुख और दुख दोनों घुलाकर तरोताजा हो जाने वाला दिव्यांशु कबीर।

दिव्यांशु के मुर्गे के स्वाद की बारीक समझ रखने वाला ही बता सकता था कि उस दिन का मुर्गा उसने अपनी खुशी जाहिर करने के लिए पकाया था या अपना दुख भुलाने के लिए। दरअसल जब वह खुशी में मुर्गा पकाता तो उसमें परंपरागत मसालों के अलावा थोड़ा काजू, किशमिश भी डालता और पक जाने के बाद शुद्ध घी या बटर तो जैसे अनिवार्य था। इस प्रक्रिया में मुर्गे के स्वाद में थोड़ा मीठापन आ जाता, इसके उलट दुख में पकाए गए मुर्गे में तेल मसालों और लाल मिर्च की मात्रा अधिक होती और खाने वाला तथा खिलाने वाला दोनों सी सी कर उठते। उस सी सी की आवाज, खाते हुए निकलने वाले पसीने, आँसू में जैसे सारे दुख बाहर आ जाते। दिव्यांशु का यह अजूबा शौक मुझे उसका पक्का शैदाई बनाने में काफी मददगार हुआ। अपनी पीढ़ी में यू.पी. के अधिकांश ब्राह्मणों की तरह मुझमें भी मांसाहार के प्रति अगम्य आकर्षण था और अपने ब्राह्मणत्व के दबाव में उसे छुपाने का जबर्दस्त कुटैव भी। मेरे हॉस्टल में हालाँकि रविवार को 'फीस्ट' के नाम पर मुर्गे का विकल्प था लेकिन मुझे ब्राह्मण लाबी के दबाव में मिठाई और केला ही खाना पड़ता था। ऐसे में दिव्यांशु की यह आदत मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था और उसमें भी सुहागा कि वह हॉस्टल में नहीं बल्कि बाहर कमरा लेकर रहता था। विभाग में मैं अक्सर दिव्यांशु का मूड भाँपने की कोशिश में रहता, उसकी थोड़ी सी खुशी या थोड़ा सा भी गुस्सा मुझे आशान्वित कर देता और मैं अक्सर शाम को टहलता हुआ उसके कमरे पर जा धमकता। बाज दफा खुशी और गम से बेजार उसे देखकर मैं बहुधा इस जुगाड़ में रहता कि वह मेरी किसी बात से खुश या दुखी हो जाय। दुखी भी इतना हो कि वह गुस्से में न आ जाय। और मुझसे लड़ झगड़कर मुझे चलता ही न कर दे। एकदम छलछलाती खुशी या एकदम धीमे बुखार की तरह का कोई दुख, जिसमें वह गहरी साँस छोड़ता हुआ अचानक उठ खड़ा हो जाय - चल, मुर्गा ले आते हैं। मुर्गा खाने की हवस में, मैं दिव्यांशु को ही 'मुर्गा' समझने लगा था। फँसा फँसाया मुर्गा। बस उसे हलाल करने के लिए खुशी या दुख का कोई पाँसा चाहिए होता था। ऐसे में एक दिन मैंने एक बड़ा पाँसा फेंका। इस दाँव में चित और पट दोनों ही अपनी होनी थी। विभाग में श्वेता राय नाम की एक बंगाली लड़की थी, जो अपने बंगाली स्वभाव के कारण सबसे हँस बोलकर मिलती थी। उसके इस कदर मिलनसार होने से विभागाध्यक्ष सोहन राज गुप्त भी थोड़े तन्नाए और भरमाए से दिखते थे। विभाग में यू.जी.सी. के अनुदान से आयोजित होने वाले रस्मी राष्ट्रीय आयोजन, जिसका विषय 'मीडिया की सामाजिक भूमिका' था, के संयोजन और संचालन का जिम्मा गुप्त जी ने श्वेता को ही दिया था। श्वेता के पिता कहीं पी.आर.ओ. थे और वह भी यह डिग्री इसीलिए चाहती थी कि पिता के जुगाड़ से कहीं पी.आर.ओ. लग जाएगी। आयोजन चाहे जितना रस्मी रहे, लेकिन संयोजन करते वक्त कुछ न कुछ तो बोलना ही था, और नौकरी का जुगाड़ कर लेने के अलावा श्वेता मीडिया की किसी भी भूमिका से अनभिज्ञ थी। ऐसे में 'गुप्त' जी के प्रोत्साहन से श्वेता ने दिव्यांशु से संपूर्ण ज्ञान लिखित रूप में लेकर मौखिक तौर पर उसका वाचन कर पर्याप्त वाहवाही बटोरी। दिल्ली से आए कुछेक पत्रकार और पत्रकारिता के अध्यापकों ने बेचारी श्वेता के ज्ञान में इतने कसीदे पढ़े कि गुप्ता तक को रश्क होने लगा कि, उन्होंने बेकार में ही उससे संयोजन करवा लिया।

श्वेता अपनी तारीफ से इतनी भाव विह्वल हो गई कि वह भावना के अतिरेक में दिव्यांशु को धन्यवाद कहते हुए उसके गले लग गई। इस एक घटना से दिव्यांशु के मस्तिष्क में या कहें कि तनबदन में एक धमाका सा हुआ, जिसे मैंने विभाग के कुछ और लड़कों के साथ मिलकर पोखरन विस्फोट जैसा रूप दे दिया। अभी तक 'परदारेषु मातृवत' ही महसूस कर सकने वाले दिव्यांशु को हमने दिव्य ज्ञान दिया कि यह श्वेता राय का महज औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन नहीं था बल्कि वह उस पर मर मिटी है। नहीं तो सबके सामने विभाग में गले लगने का दुस्साहस तो वही कर सकती है, जिसमें लैला की जिद्दी आत्मा प्रवेश कर गई हो। दिव्यांशु पहले तो शरमा शरमी में हँसकर टालता रहा, लेकिन उसके टालने में अंदाज से उसके मन में छूट रही फुलझड़ी के अंगारे उसी के तनबदन को कँपाए दे रहे थे। और शाम को, सांस्कृतिक आयोजन में, श्वेता राय ने जब आपकी नजरों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे वाला गाना गाया, तो मैंने महसूस किया, मेरी बगल में बैठे दिव्यांशु का हाथ पूरी तरह पसीज गया था और बंदापरवर शुक्रिया, अपनी जिंदगी में आपने हँसकर कर लिया शामिल मुझे पंक्ति तक पहुँचते पहुँचते वह मेरे कंधे लगकर लगभग सुबकने भी लगा था।

दिव्यांशु अब तक जितने भी कारणों से जिंदगी में खुश हुआ था, यह खुशी सबसे अलग और खुश थी। यह वैसी खुशी थी, जो संतुष्टि के बजाय बेचैन किए दे रही थी। उस रात दिव्यांशु ने जो मुर्गा पकाया, वह अब तक के खाए सारे स्वादों से जुदा था। उसे अच्छा बहुत अच्छा, श्रेष्ठ, लाजवाब, कुछ नहीं कहा सकता था। उसका स्वाद सिर्फ खाकर महसूस किया जा सकता था, गूँगे का गुड़ था।

मैं जानता था कि यह स्वाद फिर कभी दुबारा पैदा नहीं होने वाला था, मैं एक दो दिन उसकी खुशी को खींचना चाहता था। यह सिर्फ दिव्यांशु की गलतफहमी थी, जो हमारे द्वारा रचकर उस पर चिपकाई गई थी। मैं यह भी जानता था कि इस चिपकाने में इतनी कमजोर लेई इस्तेमाल की गई थी कि पहली मुलाकात में ही इसके सब रंग उतर जाने वाले थे। मैं भरसक कोशिश में था कि एकाध दिन यह मुलाकात न होने पाए। लेकिन मेरी कोशिश श्वेता राय से उसके मुलाकात न होने देने पर केंद्रित थी, सोहन राज गुप्त को तो जैसे मैं भूल ही गया था। दूसरे दिन हवा हवाई की तरह उखड़े, बिखरे लेकिन मस्त मलंग की तरह की अदा से लैस दिव्यांशु को देखकर सोहन राज ने नोटिस कर ही लिया। वैसे भी वह गले लगने वाले दृश्य को देखकर थोड़ा नर्वस था। उन्होंने दिव्यांशु को अपने चैंबर में बुलाकर पूछ ही लिया और, पत्रकार साहब आज कुछ बदले बदले नजर आ रहे हैं, आखिर बात क्या है

दिव्यांशु जैसे इसी सवाल के इंतजार में था। सच बोलने के लिए जैसे अभी आत्मा छटपटा रही थी। एक लंबी साँस छोड़ते हुए जैसे उसने अपनी आत्मा का बोझ उतारा - सर, मुझे भी प्यार हो गया है। गुप्ता ऐसे सपाट और 'टन्न' से लगने वाले सच के लिए तैयार नहीं था। वह घुटा हुआ पत्रकार था, तुरंत भाँप गया कि, यदि वह पूछ गया कि किससे तो दिव्यांशु किसका नाम ले लेगा।

बिलकुल प्यार कीजिए। प्यार करने से पत्रकारिता में धार आती है। वह बदहवास सा बोल गया। फिर उसे अपना विभागाध्यक्ष होना ध्यान आया, लेकिन उस रुतबे का इस्तेमाल करते शायद उसे झिझक महसूस हुई, फिर भी भरसक दिव्यांशु के नंगे सच के करंट से खुद को बचाते हुए, वह आप्त वाक्य बोलता निकल गया कि पढ़ाई पर ध्यान दीजिए। फालतू के मामलों में अपना समय मत गँवाइए।

दिव्यांशु इसका प्रतिवाद करना चाहता था कि यह फालतू का मामला कैसे है वह लपकता हुआ सोहन राज गुप्त के पीछे भागा कि सामने से उसे श्वेता आती दिख गई। उसे देखते ही वह गुप्ता और उसके प्रतिवाद को एकदम से भूल गया। श्वेता उसे देख कृतज्ञता और अपनेपन से मुस्कराई। मैं दिव्यांशु के साथ ही था। श्वेता का मुस्कराना और उसके जवाब में दिव्यांशु के चेहरे पर आते इंद्रधनुषी रंग से, मैं किसी अनहोनी की आशंका से सिहर उठा। मैं उसे खींचकर कहीं दूर ले जाना चाह रहा था, लेकिन उसने मेरा हाथ झटक दिया और लपकते हुए श्वेता के पास जा पहुँचा। मैं जल्दी से दूसरी दिशा में बढ़ गया। मैं अपनी खुशी में फूले गुब्बारे को आवाज के साथ फटना नहीं देख सकता था।

तीखा मुर्गा खाने की अदम्य इच्छा के बावजूद मैं उस शाम को दिव्यांशु के कमरे पर नहीं गया। मैं जानता था कि यह दुख लंबा खिंचेगा और कभी कभी उसकी याद दिलाकर यह जायका हासिल किया जा सकता था। दो तीन दिन बाद जब मैं उसके कमरे पर पहुँचा तो वहाँ का नजारा कुछ अजीब सा दिखा। वातावरण में तनाव, उदासी और बोझिलपन तो था, लेकिन वैसा नहीं, जिसकी मैं कल्पना करता हुआ आया था। मेरे ख्यालों में दिव्यांशु को कमरे में अँधेरा किए मुँह ढाँपे, टू इन वन पर जगजीत सिंह की गजलों में सुबकते होना था। लेकिन यहाँ वह किसी दुबले पतले मगर लंबे, कम उम्र लड़के के सामने सर झुकाए चुपचाप अपने गद्दे पर बैठा था। वह लड़का स्टडी टेबल पर पैर फैलाए कुर्सी की पुश्त से माथा टिकाकर सिगरेट खींच रहा था, और बीच बीच में चुटकी बजाकर, बाकायदा कमरे में फैली किताबों पर ही राख झाड़ रहा था। मेरे कमरे में प्रवेश करने पर भी उस लड़के की पोजीशन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैं माहौल को भाँपने की कोशिश करता हुआ दिव्यांशु की बगल में बैठ गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद दिव्यांशु ने उसका परिचय कराया - मिसर! ये मेरा छोटा भाई है, प्रिंस। और प्रिंस। ये मिसर है, प्रवीण मिश्र। मेरा क्लासमेट।

परिचय सुनकर मैं तो जैसे चौंक ही उठा था। छोटा भाई! और इस बदतमीज अंदाज में। मेरे भी दो छोटे भाई थे, लेकिन क्या मजाल कि भैया यदि किसी दिशा में जाते दिखें, तो उधर उनकी परछाईं भी फटके। और यहाँ यह सरेआम बड़े भाई के मुँह पर सिगरेट उड़ा रहा था। मेरे परिचय कराए जाने के बावजूद उसने नमस्ते या प्रणाम जैसा कुछ कहा नहीं था सिर्फ मुझे तौलता हुआ, उठकर बाथरूम चला गया। बहुत गहरा नहीं होने बावजूद मैं दिव्यांशु से मित्रता तो महसूस करता ही था। उसकी ऐसी दुर्दशा पर मुझे तरस के साथ साथ क्रोध भी आ रहा था। वह खुद भी शायद मेरे भीतर की उथल पुथल को समझ रहा था। भाई के बाथरूम जाते ही मेरा हाथ दबाकर बोला - पीठिया है मेरा। यही एक गलत आदत है इसकी, इंटर से ही सिगरेट पीने लगा।

'लड़का ही गलत है।' मैं कहना चाहता था, लेकिन तब तक वह बाथरूम से वापस आ गया था।

तो समझे दिव्यांशु कुमार उर्फ कबीर दास! जमाना बहुत खराब है। आपके सुधारने से यह नहीं सुधरने वाला है। आप खुद सुधर जाइए और हो सके तो बूढ़े माँ बाप का ख्याल कर घर द्वार सुधारने की फिक्र कीजिए।

वह इतनी ऊँचाई से बोल रहा था, कि वह दिव्यांशु का छोटा भाई न होकर उसका बाबा परबाबा हो।

लेकिन तुमको चाचाजी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। दिव्यांशु की मिनमिनातीं सी आवाज निकली।

अच्छा उसने फिर से एक सिगरेट सुलगा ली और धुआँ लगभग दिव्यांशु के मुँह पर छोड़ता हुआ व्यंग्य से मुस्कराया।

- आप तो बुढ़ऊ को भाषा बोल रहे हैं। उसका आशय अपने पिताजी से था

- आप लोगों की ऐसी सोच के कारण ही आज हमारी ऐसी दुर्गति हुई है।

- क्या दुर्गति हो गई है? दिव्यांशु ने हल्का सा प्रतिवाद करना चाहा।

बचा क्या है, होने को उसने तुर्श आवाज में कहा। सब तो गया। छोटा भाई छोटा भाई कहते कहते बुढ़ऊ की जुबान सूख गई, लेकिन छोटे भाई से क्या मिला उसने फिर से चुटकी बजाकर राख झाड़ी

बीसियों साल से फसल का कोई हिसाब नहीं। बहनों की शादी करवा दी। अच्छे घरों में। कभी देखकर आए हैं छोटी का घर? एक नंबर का पियक्कड़ है, जीजा। सब जमीन घोलकर पी गया है। उसके बच्चों का कोई भविष्य भी है? वहाँ बेचारी लोक लिहाज से कभी शिकायत तक नहीं कर पाई। ...किताब पढ़के दुनिया समझना और बात है, कबीरदास जी, हकीकत पर उतरिए, तो दुनिया का असली रंग मालूम होता है। क्यों भाई साहब?

आखिरी वाक्य बोलते हुए वह मुझसे मुखातिब हो गया और अपनी घूरती नजरें उसने मुझ पर टिका दीं। उसकी इस हरकत से मैं अकबका गया, और तत्काल कुछ बोलते नहीं बना।

- आप तो समझदार दिखते हैं, समझाइए मेरे मेंटल भाई को। मुझे असहज देखकर जैसे वह मुझ पर चढ़ बैठा - कबीरदास का जमाना नहीं है यह कि 'साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय... ।

- अब तो... सब साधू का वेश बनाए चोर घूम रहे हैं... वो भूखा जाएगा आपको लूटकर भूखा मार देगा।

उसका प्रवचन और प्रलाप सुनकर मेरा खून खौल रहा था। दिव्यांशु मेरी मनःस्थिति समझ रहा था, इसलिए मेरे कुछ बोलने से पहले ही बोल उठा - मिसर, चलो मुर्गा ले आते हैं। भाई आया है आज, बातें तो होती रहेंगी।

मैं इनकार करना चाहता था, लेकिन फिलहाल वहाँ से निकलने का यह अच्छा अवसर था। मैं चुपचाप उसके साथ हो लिया। कहाँ तो मैं श्वेता राय का एपिसोड जानने आया था, और कहाँ मैं साउथ इंडियन फिल्म का भोजपुरी वर्जन देख रहा था। रास्ते में दिव्यांशु ने तफसील से बताया कि दरअसल 'डैडी' अब रिटायर कर गए हैं और छोटा भाई ही एक तरह से परिवार का मुखिया है। उसने अपने इस बड़प्पन का धौंस दिखाकर, डैडी पर दबाव डालकर गाँव की जमीन चाचा जी से लेकर किसी दूसरे को बटाई पर दे दी है। गाँव में डीह का भी हिस्सा बखरा कर आया है, और अब जोर दे रहा है कि उसे बेच ही दिया जाय, क्योंकि गाँव का अब कोई भविष्य नहीं।

- मिसर, अब उसको मौन समझाए कि गाँव से जुड़ाव भविष्य के लिए नहीं अपने अतीत की पहचान को सुरक्षित रखने के लिए होता है। ओह डैडी तो टूट ही गए होंगे, कहते कहते उसकी आवाज भर्रा उठी। लेकिन यार! ये तुम्हारा छोटा भाई है। अभी इंटर ही पास किया है, तुम लोगों ने इसे कुछ ज्यादा बदतमीज नहीं बना दिया है मैं अपनी झल्लाहट छुपा नहीं पाया। छुपाना चाहता भी नहीं था।

तुम तो देख ही रहे हो। तुमसे क्या छुपाना तुम कुछ समझा सको तो... उसकी आवाज कातर हो उठी।

उसे ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता। मैं चल रहा हूँ हॉस्टल। मैं उसका हाथ छुड़ाकर बढ़ने को हुआ कि उसने लपककर मुझे लगभग अंकवार में भर लिया। नहीं मिसर आज भर यहीं रुक जाओ, प्लीज। उसका बदन ऐसे काँप रहा था, जैसे वह अपने भाई के साथ अकेले रहने की कल्पना से ही सिहर उठा हो। मैं उसकी कातरता को नजरअंदाज नहीं कर सका। आखिर इतना मुर्गा खाया था उसका, कुछ तो अदा करना बनता ही था। आपस लौटते समय मैंने वैसे ही उसका ध्यान बँटाने की गरज से पूछा - और श्वेता से मामला कुछ आगे बढ़ा

मैं समझ रहा था, इस प्रसंग से वह कुछ और कातर हो उठेगा लेकिन उसने एक दीन सी मुस्कराहट ओढ़कर कहा - हटाओ, यार, उसकी अँग्रेजी तक अच्छी नहीं है।

साले, उसकी अँग्रेजी का क्या करना है, तुमको! प्यार करने के लिए भाषा की क्या जरूरत मैंने उसे छेड़ते हुए कहा।

- अरे भाषा से ही तुम्हारे व्यक्तित्व का पता चलता है। वह अचानक पत्रकार दिव्यांशु कबीर हो उठा। अब उसे इनकार करना भी ठीक अँग्रेजी में नहीं आता है। जब मैंने उससे कहा कि आइ थिंक वी आर एप्रोप्रिएट टू ईच द फॉर एवर... तो पहले तो वह मेरा मुँह ताकती रही, फिर एकदम से पूछ बैठी - मतलब

मैंने समझाना चाहा कि यदि वह मुझे पसंद करती है तो मैं भी उससे प्यार करता हूँ तो वह एकदम से बिफर पड़ी। पहले तो वह 'अपना चेहरा देखा है कभी आईने में' जैसा सस्ता सा वाक्य बोली, फिर यह सोचकर कि मैंने अँग्रेजी में प्रपोज किया है तो इनकार भी उसे अँग्रेजी में ही करना चाहिए बोली - 'डू योर ऑन वर्क।' बताओ भला, उसे बोलना चाहिए या - डू योर ऑन जॉब।

वह इतनी तत्परता से 'वर्क और जॉब' के अंतर को समझाने लगा कि, मुझे हँसी छूट गई। मुझे हँसते देख वह भी थोड़ा हँसा - लेकिन मिस ये हँसने वाली बात नहीं है। वह लड़की पी.आर.ओ. बनना चाहती है, अँग्रेजी का इतना सतही ज्ञान होने से कैसे चलेगा?

- बेचारी... अब तो तुम भी उसे कुछ सिखाने से रहे। मैंने बात को टालने की गरज से कहा।

- नहीं, वह सीखना चाहे तो मैं पीछे नहीं रहूँगा। आखिर पढ़ने पढ़ाने के लिए ही तो...।

वह वाकई कबीरदास था। उसका छोटा भाई ठीक ही कह रहा था। कमरे में वापस लौटते हुए मैं थोड़ा तैयार था। प्रिंस बाकायदा उसी तरह बैठा हुआ सिगरेट फूँक रहा था। मैंने भी उसकी डिब्बी से एक सिगरेट निकालकर सुलगा ली। उसकी अति बदतमीजी का जवाब अति विनम्रता ही हो सकती थी।

अपनी आवाज को भरसक विनम्र बनाते हुए मैंने उससे कहा - प्रिंस, भाई साहब। आजकल आप क्या कर रहे हैं मेरा ख्याल था कि भाई साहब कहने से वह थोड़ा फैलेगा, लेकिन उसने जैसे इसे अपना अधिकार माना।

- करने को तो भाई साहब, मैं बहुत कुछ करता हूँ। नट शेल में समझिए कि माइक्रो फाइनेंसिंग का बिजनेस है। उसने एक बड़े उद्योगपति की तरह तुर्की ब तुर्की जवाब दिया।

- हाँ बड़ा माइक्रो फाइनेंसिंग। सीधे सीधे क्यों नहीं बताता कि जेवीजी का एजेंट है, कलेक्शन एजेंट। दिव्यांशु जैसे पहली बार बड़े भाई की भूमिका में आया।

- तो क्या हुआ अभी सीख रहा हूँ। आप लोग यदि रोड़े नहीं अटकाएँगे तो साल भर में अपनी कंपनी खड़ी कर लूँगा।

- रोड़े क्या अटका रहे हैं? गाँव की जमीन बेचना चाहते हो! क्या मिलेगा उससे, दो तीन लाख... उसमें हो जाएगी तुम्हारी कंपनी खड़ी? बन जाओगे टाटा बिड़ला?

दिव्यांशु को इस रूप में देखना अच्छा लग रहा था। आखिर वह बड़ा भाई था।

- आप भी, कबीरदास जी। अपने जमाने से बाहर आइए। टाटा बिड़ला का युग गया। यह अंबानी और सहारा का युग है। क्या था सहाराश्री के पास एक टुटही सी स्कूटर, उसी पर घूम घूम कर माइक्रो फाइनेंसिंग का ऐसा साम्राज्य खड़ा किया उन्होंने। वह किसी भी तरह दिव्यांशु को बढ़त नहीं लेने देना चाह रहा था।

- और अब तो घूमने की भी जरूरत नहीं रही। ऐसी ऐसी स्कीम आ रही हैं कि बस एक बार इनवेस्ट करो, फिर जिंदगी भर ऐश करो, देखो, मैं कौन सी स्कीम लाया हूँ... इसे कहते हैं चेन मार्केटिंग। वह अपनी बैग से कुछ ब्रोसर, कागज निकालने लगा। उसे मेरे सामने फैलाते हुए बोला - देखिए भाई साहब। ये है इस्कीम। इसे कहते हैं 'जापान लाइफ'। फिर वह तफसील से बताने लगा कि कैसे उस ब्रोसर में छपा हुआ रजाई का चित्र उसकी किस्मत बदलने वाला था। वह एक दिव्य ज्योति से भरा हुआ रजाई का चित्र जिसे कोई कोरियाई या चीनी परी लपेटे हुए सोई थी। उसके अनुसार वह कोई साधारण रजाई नहीं थी। वह जापान और कोरिया में पाए जाने वाले किसी पक्षी के पंखों के रेशे से बुनी हुई रजाई थी, जिसमें जादुई शक्तियाँ थीं। यह जादुई करतब किसी चमत्कार से नहीं बल्कि विज्ञान से होना था। उन पक्षी के पंजों में कुछ ऐसी ताकत का दावा था जिससे पोलियो, लकवा जैसे विकार ठीक हो सकते थे। फिर रजाई में जगह जगह चुंबक भी थे, जो शरीर में किसी हिस्से का दर्द सोख सकते थे।

दिव्यांशु के मुर्गा बनाते बनाते उसने मुझे विस्तार से समझाया कि यह चेन मार्केटिंग क्या थी। उसके अनुसार वह अपने नीचे पाँच एजेंट बनाएगा, फिर वे पाँच अपने नीचे पाँच पाँच फिर वे पच्चीसों पाँच पाँच... इस तरह, समझ गए आप। फिर हर एक एजेंट का कमीशन आपको। उसकी गणना के हिसाब से वह अगले दो तीन सालों में ही करोड़पति बनने वाला था।

मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैं सिर्फ उसकी चमकती आँखें देख पा रहा था। वह रेत की सी चमकती आँखें थीं। उतना ही सूखा और उजाड़। वह अपनी आवाज की खनक से उसमें आर्द्रता लाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन थोड़ी देर बाद वहाँ से भी सूखे कुएँ से बोलने जैसी भाँय भाँय की आवाजें आने लगीं। वह किसी सपने देखने की बात कर रहा था तो उसकी आँखों में इतनी रिक्तता और पीलापन क्यों था क्या वह जेठ में अंधे हो गए, किसी लाचार की आँखें थीं मैं कुछ तय नहीं कर पाया। यहाँ तक कि आज दिव्यांशु के मुर्गे का स्वाद भी मैं तय नहीं कर पाया कि वह कितना और कैसा दुखी था। पहली बार मुर्गे का स्वाद कुछ कुछ कड़वा जैसा लग रहा था, जैसे किसी ने पकाने के बाद उसमें दो चार नीम की पत्तियाँ डाल दी हों।

बनारस में दिव्यांशु के कमरे पर वह मेरी आखिरी शाम थी। मुर्गे के उस स्वाद ने जैसे मेरे भीतर मांसाहार के प्रति अरुचि पैदा कर दी थी। डिपार्टमेंट में भी दिव्यांशु से कम ही मुलाकात हो पाती थी। श्वेता प्रकरण के बाद गुप्ता जी ने भी जैसे उसे बरज दिया था। उनके अनुसार वह उनके चित्त से उतर गया था। गाहेबगाहे जब कभी मुलाकात होती भी तो वह हमेशा चिड़चिड़ा और उखड़ा उखड़ा सा लगता। डिपार्टमेंट के कई लड़के उसके सामने, आपकी नजरों ने समझा... वाला गाना गाकर उसे छेड़ने की कोशिश करते, तो भी वह नहीं समझ पाता कि उसे ही छेड़ा जा रहा है। इसके उलट, जब कभी यूँ ही किसी गंभीर विषय पर चर्चा चलती और उसकी बात को कोई मात देता तो वह हत्थे से उखड़ जाता। उस समय, उसको खुद के चिढ़ाए जाने का बोध होता और वह जोर जोर से वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति दंश पर बोलने लगता। मैं उससे मित्रता जैसा कुछ महसूस करने लगा था, उसकी ऐसी हालत पर मैं उसे समझाना चाहता था, लेकिन मेरी समझाईश पर वह और प्रतिक्रियावादी हो जाता - मिसर! तुम भी उन्हीं में सुर में बोल रहे हो, और बोलोगे क्यों नहीं आखिर ये तमाम हिकारत का शास्त्र तो तुम्हीं लोगों ने लिखा है।

मैं भी धीरे धीरे आजिज आने लगा, और उसको नजरअंदाज करने की कोशिश की। वैसे भी समय बीतता जा रहा था और सभी को अपना जुगाड़ जमाने भी पड़ी थी। अंतिम दो महीनों में किसी अखबार से जुड़कर इंटर्न भी करना था और दो एक जगह बात करने से पता चल रहा था जैसे यह डिग्री लेकर हम लोग कबाड़ हो गए थे और कोई भी संस्थान छः महीने तक किसी कबाड़ को रखने को तैयार नहीं था। ऐसे में सबसे बड़ा सहारा अपना 'मिश्रा' होना ही था और उम्मीद थी कि देर सबेर कुछ न कुछ जुगाड़ हो ही जाएगा। और हुआ भी। दस पंद्रह दिनों की भागदौड़ और सेटिंग बिठाने पर दैनिक जागरण में मेरा ठौर जम गया। मेरे प्रार्थनापत्र और विभाग के अनुशंसापत्र पर अपनी पीक चुआते हुए सीनियर सब एडिटर चतुर्वेदी जी ने यही कहा - ई कुल अपनी विशिष्ट जगह में डारि ला। तू आपन बच्चा हउव, सिर्फ इहै खातिर इहाँ बइठ सकीला। नाहिं त देखते हउव..., कहते हुए उन्होंने भरे हुए डस्टबीन की तरफ इशारा कर मेरी असली जगह समझाई।

मुझे दिव्यांशु की बेतरह याद आई। उसके साथ रहते रहते मैं काफी कुछ बदल बदल सा गया था। मेरा जमा हुआ जुगाड़ मुझे खुशी भी जगह अपमान जैसी फीलिंग दे रहा था। एक पल के लिए मैंने महसूस भी किया कि मैं स्वयं दिव्यांशु हूँ और इस चतुर्वेदी के लिए मेरे पेट में गालियों की मरोड़ें उठने लगीं लेकिन यह क्षणिक ही था, दूसरे ही पल मैं अपने ही शरीर में अपनी ही गिरवी आत्मा के साथ उस दढ़ियल चतुर्वेदी के चरणों में झुका हें हें कर रहा था, जैसे उसने इंटर्नशिप का अवसर न देकर मुझे किसी दैनिक अखबार का संपादक बना दिया हो। लेकिन चाहे जो हो, फिलहाल तो मैं ही 'मीर' था और विभाग में हर कोई मेरी उपलब्धि को हसरत की निगाह से देख रहा था। लेकिन मैं दिव्यांशु को दिखाना चाह रहा था, या यूँ कहें कि उसे देखना चाह रहा था कि मेरी सफलता पर वह दिखता कैसा है मेरी हार्दिक इच्छा हो रही थी कि वह मेरे इस जुगाड़ पर वर्णाश्रम और जाति व्यवस्था को खुलकर गालियाँ दे और मैं जोर से कहकहा लगाऊँ। लेकिन, वह कई दिनों से विभाग में दिखाई ही नहीं दे रहा था। किसी से उसके बारे में पूछने का भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि उसकी थोड़ी बहुत भी यदि किसी से दोस्ती थी, तो वह मुझसे ही थी। हिम्मत करके, एक बार गुप्ता जी से पूछा तो वे बमक से गए कि, ऐसे लापरवाह छात्रों का लेखा जोखा रखना उनका काम नहीं। किसी अनहोनी की आशंका से मैं उसके कमरे पर पहुँचा तो वहाँ भी ताला लगा था। उसकी मकान मालकिन ने बताया कि वह तो आठ दस दिन पहले ही अपने घर चला गया है। मेरे पूछने पर कि अभी तो घर जाने का कोई कारण नहीं था, उन्होंने बताया कि दरअसल उसे घर से फोन आया था, उसके घर में कोई दुर्घटना हो गई है। मैं अधीरता से जानना चाह रहा था कि कैसी दुर्घटना, सब ठीक ठाक तो है न लेकिन कुछ और जवाब देने के बजाय उस महिला ने अपना दरवाजा बंद कर लिया। उस बंद दरवाजे के साथ ही दिव्यांशु के बारे में जानने की संभावना भी बंद हो गई।

दरअसल वह सभी तरह की संभावनाओं के बंद होने का ही समय था। अगले छः महीनों तक उस दैनिक जागरण के दफ्तर में बैठते बैठते मेरी आत्मा लाल हो गई थी। यह बताना मुश्किल था कि उस लाल में कितना उस आत्मा से रिसता खून था और कितना उस चतुर्वेदी की पीक। उस लाल होती जा रही आत्मा का असर मेरे व्यक्तित्व पर भी पड़ रहा था, और मैं एक साथ ही विद्रोही और चापलूस हुआ जा रहा था। मेरे इस चरित्र से चतुर्वेदी खुश था और अक्सर मेरी पीठ थपथपाता कि आदर्श पत्रकारिता के लिए मैं एकदम उपयुक्त होता जा रहा था। मेरे विभाग के अधिकांश लड़के 'इंटर्नशिप' तक में ही अपना जुगाड़ नहीं जमा पाए थे, इसलिए भविष्य में दुर्ग-द्वार पर दस्तक देने के बजाय उन्होंने चोर रास्तों से निकल लेना उचित समझा। कुछ प्राइमरी स्कूल के अध्यापक हो गए, कुछ ने लाइब्रेरी साइंस, लॉ, बी.एड. आदि में एडमिशन ले लिया। मेरा सहपाठी उमेश सिंह इसी आपाधापी में दरोगा बन गया तो गुप्ता जी ने उसके सम्मान में विभाग में एक कार्यक्रम कर डाला और जोर जोर से अपने शिष्य भी हुनरमंदी का बखान किया जैसे उनके पढ़ावे और प्रशिक्षण से ही यह दरोगा बन पाया हो। श्वेता राय उस कार्यक्रम में गुप्ता से जिस तरह चिपक रही थी, उससे पता चल गया कि उसका बाप भी उसको पी.आर.ओ. नहीं बनवा पाया। अब गुप्ता ही उसका सब कुछ था। गुप्ता ने उसे पी.एच.डी. कराने का आश्वासन दिया था, और साथ ही एडहॉक पढ़ाने का लॉलीपाप भी। उसे देखकर मुझे फिर से दिव्यांशु की बेतरह याद आई और कार्यक्रम के बाद जब गुप्ता अपने चैंबर में भारत की सामासिक संस्कृति पर फूहड़ सी टिप्पणी कर रहा था, और श्वेता राय को हँसते हुए बता रहा था कि अब किसका रक्त किसमें दौड़ रहा है, और वह उसका आशय समझ कर लज्जा से दोहरा होती हुई निर्लज्जता से खीखी कर रही थी, मैंने रंग में भंग डालने के गरज से ही दिव्यांशु का जिक्र छेड़ दिया। उसका नाम सुनते ही श्वेता ने ऐसा मुँह बनाया जैसे उसके दाँतों के नीचे तिलचट्टा आ गया हो। रंग तो गुप्ता का भी उड़ा, लेकिन उसने तत्काल अपनी रंगत बदल ली।

- अरे, वो अपना दिव्यांशु कबीर! अरे उन पर तो मैं अलग से कार्यक्रम करूँगा। उन्होंने अपने विभाग का नाम बहुत ऊँचा किया है भाई। मैं भौंचक था। आखिर क्या कर डाला दिव्यांशु ने और गुप्ता का सुर, उसके बारे में बात करते हुए इतना 'सम' पर कैसे था वह तो किसी दुर्घटना में अपने घर गया था, फिर ये किस उपलब्धि की बात हो रही थी

आश्चर्य की तरह गुप्ता जी ने अपने ड्रॉअर से एक पत्र और एक कार्ड निकाला। वह पत्र दिव्यांशु ने ही लिखा था, वह अब दिल्ली में जनसंचार संस्थान में अँग्रेजी पत्रकारिता का छात्र था, और आगामी २६ जनवरी को उसके द्वारा खींचे गए ऐतिहासिक स्मारकों के फोटो की प्रदर्शनी लगाई जाने वाली थी, जिसका उद्घाटन सूचना प्रसारण राज्यमंत्री करेंगे, यह उसी का कार्ड था।

वाह, वाह! दिव्यांशु, वाह! आखिर तुमने कर दिखाया। तुम केवल एक खोखले बतोलेबाज नहीं थे। तुम वाकई जेनुइन थे, जहीन थे। आदमी यदि सच्चे लगन से काम करे तो क्या नहीं हो सकता इसी डिपार्टमेंट में हम लोगों के साथ ही उठते बैठते, आखिर तुमने वह कर दिखाया, जो इस क्षेत्र में किसी की भी साध हो सकती थी।

मैं इसी आशय की प्रशस्ति गा रहा था कि गुप्ता जी ने जैसे एकदम से लगाम खींच ली- अजीब अहमक है ये दिव्यांशु भी।

- यहाँ तो हम लोग डिग्री दे रहे थे। अभी वह फिर से वहाँ 'डिप्लोमा' का विद्यार्थी बन गया।

- रहने दीजिए सर! हमारी पी.एच.डी. की डिग्री पर पी.आइ.आइ.एन.सी. का डिप्लोमा भारी पड़ता है। मैं अचानक तल्ख हो उठा, लेकिन फिर गुप्ता की हाँ में हाँ मिलाते बोला - वैसे, यदि जज्बा हो तो, यहाँ की डिग्री से भी क्या नहीं हो सकता आखिर देश भर में फैले हुए इतने नामी गिरामी पत्रकार यहीं के तो विद्यार्थी रहे हैं।

ये दोनों वाक्य मेरे इन दिनों में हासिल किए योग्य पत्रकारीय चरित्र के आप्त प्रमाण थे।

लेकिन मैं महसूस कर रहा था कि ऐसे वाक्यों, फिकरों के अलावा पत्रकारिता में मैं कदमलाल ही कर रहा था। वैसे भी हिंदी अखबारों में पत्रकारिता का मतलब अँग्रेजी से अनुवाद भर था। अँग्रेजी मुझे आती नहीं थी, लिहाजा शहर भर के नेताओं, समाजसेवियों, छार्मसवेकों, कवियों के छींकने, हगने, मूतने तक की प्रेस विज्ञप्ति को अखबार में छपने लायक बनाना ही मेरा काम था। यह काम भी मेरे नहीं बल्कि चतुर्वेदी के जिम्मे था, क्योंकि उसे भी अँग्रेजी नहीं आती थी। लेकिन, वह प्रशिक्षण के नाम पर मुझसे बेगारी करवा रहा था, और कहीं मैं किसी ऊब या आजिजी में यह सब छोड़ न दूँ, इसलिए मुझमें हवा भरे रखता था। पत्रकार का मतलब था घूमना फिरना, लोगों से मेल जोल बढ़ाना, थाना पुलिस को धमकाना, कोई भंड़ाफोड़ न्यूज ब्रेक करना, नेता परेता का विश्वासपात्र और भरोसेमंद बनना, और यहाँ तो चतुर्वेदी मुझे आठ से दस घंटा एक टुटही कुर्सी पर बिठाए रखता। शुरू में एक दो सप्ताह सिखाने में जितना वक्त दिया हो उसने, उसके बाद तो जैसे वह समूचा काम मेरे भरोसे छोड़कर निश्चिंत था। लोग बताते थे, उसने कुछ जुगाड़ भिड़ा के कहीं पर अपना साइबर कैफे जैसा कुछ खोला था, और ज्यादा समय वहीं इन्वेस्ट कर पैसा पीट रहा था। एक बार वह मुझे भी अपने कैफे ले गया, तो मुझे उम्मीद थी कि कैफे है, तो चाय नाश्ता तो होगा ही, लेकिन वहाँ तो आठ दस दड़बेनुमा केबिन के अलावा कैफेटेरिया जैसा कुछ नहीं था। जब मैंने चतुर्वेदी से धीरे से इसके बारे में जानना चाहा तो वह इतना ठठाकर हँसा कि पान की पीक से उसकी शर्ट लाल हो गई। उसने एक डब्बा खोलकर मुझे दिखाया। उसमें कंप्यूटर पर एक लड़का पोर्नोग्राफी देख रहा था - देखत हाउव, गुरू! आज कल इहै कुल जने के नास्ता, चाय और भोजन है। लोग कुल ई मनोरंजन से रिफ्रेश होत हईं, इहै बदे एके कैफेटेरिया कहल जात है। खासकर कैफे। कुल आनंद ला बाकी दूर से, आभासी।

लेकिन मैं अब और आभासी मजा लेने की स्थिति में नहीं था। मुझे अब भीतर घुसकर पत्रकारिता का असली मजा लेना था। जैसा दिव्यांशु ले रहा था। मंत्री उसकी प्रदर्शनी का उद्घाटन कर रहा था। अभी तो वह डिप्लोमा ही कर रहा था, जब नौकरी करेगा तो प्रशानमंत्री के साथ उठेगा बैठेगा। अब मुझे बनारस काटने दौड़ रहा था। एक एक दिन बिताना मतलब अपने कैरियर को पीछे ढकेलना। हालाँकि मुझे बनारस छोड़ने की तैयारी और दिल्ली जाने का हौसला बनाने में छः माह लगा लेकिन इन छः महीना में एक दिन भी दिव्यांशु की तसवीर मेरी आँखों से ओझल नहीं हुई। मैं बनारस की पत्रकारिता के जितने चूतियापे में उलझता, मुझे दिव्यांशु की उतनी ही स्वच्छ सुंदर और धवल छवि दिखाई देती। अपनी कल्पना में मैं उसे द हिंदू, टाइम्स ऑव इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द ऑब्जरवर के किसी पत्रकार की हैसियत से तमाम कैबिनेट मंत्री, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा और लालकृष्ण आडवाणी से बतियाता देखता। मैं अँग्रेजी अखबार ठीक से नहीं पढ़ पाता था, लेकिन इस दौरान रमेश बुक स्टाल पर घंटों इन अखबारों में दिव्यांशु का नाम ढूँढ़ा करता।

अखबार में तो खैर मैं उसका नाम नहीं ढूँढ़ पाया लेकिन दिल्ली में उसे ढूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई। आई.ए.एस. की तैयारी के नाम पर दिल्ली में अपना डेरा जमाए अपने जूनियर्स के ठीहे पर जैसे ही मैंने दिव्यांशु के बारे में दरियाफ्त की... सभी एक साथ ठठाकर हँस पड़े - अरे, मा बदौलत लेकिन उसको आप कैसे जानते हैं?

- मा बदौलत? मैं दिव्यांशु के इस परिचय से थोड़ा अकबकाया।

- तुम लोग उसको मा बदौलत क्यों कहते हो?

- हम लोग नहीं कहते हैं। वह खुद अपने आपको मा बदौलत कहता है।

- अभी आ ही रहे होंगे मा बदौलत। यहाँ रोज ही आते हैं, अपना दरबार लगाने। एक ने वक्रोक्ति में कहा।

मेरी गुत्थी उलझती ही जा रही थी। वे लोग जिस तरीके से दिव्यांशु के बारे में बातचीत कर रहे थे, उससे तो उसकी कुछ झक्की और सनकी टाइप तसवीर बन रही थी। वैसे सनक तो उसमें शुरू से थी, लेकिन वह तो उसके जेनुइन काम के प्रति जोश सा दिखता था।

- क्या करता है वो आजकल? मैंने भी अपने अंदाज को जरा चालू बनाकर पूछा। क्योंकि मुझे भय लगा कि यदि मैं दिव्यांशु के बारे में पाली गई अपनी अपेक्षा और अपने मन में बसी उसकी छवि के बारे में इन्हें बताऊँगा तो ये लोग मुझे उससे भी बड़ा झक्की और सनकी न समझ लें।

- करेंगे क्या? हिंदुस्तान की प्रापर्टी का मुआइना कर रहे हैं।

- ताकि अपनी जानेमन के लिए ताजमहल तामीर करवा सकें...

किसी ने पहले के आलाप में अपना सुर जोड़ा और जोर का ठहाका लगा। मैं कुछ समझ पाता, तब तक वाकई दिव्यांशु आता दिखा। उसके आते ही सब लोग खामोश और संजीदा हो गए। एक ने तो बकायदा दरबारे खास अंदाज में कोर्निश बजाते हुए तीन सलाम पेश भी किया - आइए जहाँपनाह! तसरीफ रखिए। हम लोग आप ही के बारे में चर्चा कर रहे थे।

- चर्चा क्या कर रहे होगे तुम लोग मा बदौलत की शान में जरूर गुस्ताखी कर रहे होगे। उसने एक खाली सोफे पर सिंहासन पर बैठने के से अंदाज में कहा। अचानक से उसकी नजर मुझ पर पड़ी, तो जैसे वह एकाएक मध्यकाल से आधुनिक काल में आ गया - अबे, मिसर, तुम तुम अब, कहाँ, कैसे?

उसे ऐसा सहज और नार्मल पाकर मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ। नहीं तो मेरे सपने का कुतुबमीनार अब गिरने ही वाला था।

दिव्यांशु मुझे देखकर वाकई बहुत खुश था। उसकी खुशी से मेरे मुँह में मीठे बटर चिकन का स्वाद ताजा हो गया। उसने उस स्वाद की कद्र भी की और हुलसते हुए मुझे अपने कमरे पर ले गया। मैं एक साथ कई चीजें जानना चाहता था। आखिर उसके घर में क्या दुर्घटना हुई थी वह बनारस से अचानक क्यों गायब हो गया अभी वह दिल्ली में क्या कर रहा है और... और ये मा बदौलत का क्या चक्कर था आदि... आदि। मेरे सारे सवालों के जवाब में वह मंद मंद मुस्कराता हुआ मेरा ताप बढ़ाता रहा। मेरे ताप और तान से बेखबर वह उसी कबीरदासीय तन्मयता से मुर्गा पकाता रहा। पकते हुए मुर्गे के साथ साथ अपने सवालों के साथ साथ मैं भी पकता रहा। काफी देर तक मेरे धैर्य का इम्तहान लेने के बाद वह मुझे इतिहास की कहानी सुनाने लगा - जानते हो मिसर, इतिहास कभी खत्म नहीं होता, वह हजार हजार साल तक हमारे तुम्हारे साथ चलता है। इतिहास में मर चुके बादशाह भी कभी नहीं मरते, वह हमारे तुम्हारे साथ साथ चलते हैं। तुम्हें क्या लगता है, इतिहास में कौन मर गया? क्या अकबर मरा? क्या औरंगजेब मरा? और तो और, पूरे मुगल साम्राज्य के द्वारा बहुत कोशिशों के बावजूद क्या वे लोग शेरशाह को मार पाए?

मैं जानता था कि दिव्यांशु ऐतिहासिक स्मारकों की तसवीर खींचकर उसकी प्रदर्शनी लगा चुका है, जिसका उद्घाटन मंत्री ने किया था, लेकिन ये स्मारक उसके भीतर इतनी मजबूती से धँस जाएँगे, इसकी कल्पना मुझे नहीं थी।

- तुम पूछ रहे थे न कि मैं क्या कर रहा हूँ? देखो... मैं ये कर रहा हूँ, उसने छज्जे पर चढ़कर एक मोटा सा अल्बम निकाला और उसे मेरे सामने उलटने लगा। बी.ए. तक मैंने भी इतिहास पढ़ा था, लेकिन उतना ही जितना परीक्षा पास करने के लिए जरूरी था। उस अलबम को उलटते हुए वह जैसे मुझे जबर्दस्ती खींचकर मध्यकाल में लिए जा रहा था। अल्बम के सभी फोटोग्राफ ब्लैक एंड व्हाइट थे। वह अपनी रौ और लरज में हर फोटो का परिचय देता जा रहा था - यह अजमेरी गेट है, यहीं से औरंगजेब ने दिल्ली में प्रवेश किया था... ये दीवाने खास... ये दीवाने आम... ये हुमायूँ का मकबरा... ये सफदरजंग... मैं आजिज आ रहा था। मैं उसके निकट अतीत और वर्तमान के बारे में जानना चाह रहा था, और बार बार वह मेरे सवालों को टालता हुआ, मेरे दिमाग में इतिहास की उँगली डाल रहा था।

- अबे, हटाओ ये सब! मैं पूछ रहा था कि तुम बनारस से अचानक गायब क्यों हुए क्या दुर्घटना हुई थी घर पे?

- हमारे तुम्हारे हटाने से ये इतिहास नहीं हटेगा, मिसर। इसकी नींव बहुत मजबूत है, और... और ये देखो खूनी दरबाजा।

उसने एक उजाड़ से खंडहर का चित्र मेरी आँखों के सामने लहराते हुए कहा... यहाँ हुई थी। इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना... यहीं पर औरंगजेब ने दाराशिकोह का सर काटकर चौराहे पर लटका दिया था, और बाद में वही सर शाहजहाँ को बकायदा तोहफे की शक्ल में पेश किया गया था।

- साले, मैं तुम्हारे घर की दुर्घटनाओं के बारे में पूछ रहा हूँ, इतिहास की नहीं, मेरा स्वर थोड़ा तल्ख हो रहा था।

- दुर्घटनाएँ सिर्फ इतिहास में होती हैं, दोस्त, जिससे समूची कौम का नसीब बनता बिगड़ता है... साधारण लोगों की जिंदगी में सिर्फ घटनाएँ होती हैं... जिसका कोई वजूद नहीं... हमारा तुम्हारा जीना जैसे एक साधारण घटना है... वैसे ही प्रिंस... मेरा छोटा भाई उसका मर जाना भी एक घटना ही थी... साधारण और तुच्छ...।

- क्या क्या कहा प्रिंस मर गया मेरे वजूद में कँपकँपी सी हो आई।

- हूँ! उसने एक छोटी सी हुंकारी भरी। वह वर्तमान के दबाव का सामना नहीं कर पाया। उसने आत्महत्या कर ली थी।

इतनी बड़ी बात उसने इस तरह बताई जैसे यह रोजमर्रा की बात हो।

- किस दबाव का सामना नहीं कर पाया मैं अभी तक शॉक्ड था।

- जाने दो मिसर! मैं भी डिटेल्स में नहीं गया। आम आदमियों के जीवन में हजार दबाव होते हैं। उनका लेखा जोखा नहीं रखा जाता। कहीं से कुछ पैसे लौटाने का दबाव था, कोई लड़की का भी मामला बता रहा था, बहुत सी बातें रही होंगी... या इनमें से कुछ नहीं रहा होगा... एक निरर्थकता का बोध भी इसके लिए काफी होता है।

वह इतनी दूर से और इतनी ऊँचाई से बोल रहा था कि लग ही नहीं रहा था कि बात उसके अपने छोटे भाई के बारे में हो रही थी। वह इतना अलिप्त भी था कि बोलते हुए मुर्गे के भगोने को हिलाता भी जा रहा था।

- और तुम्हारे माँ, पिताजी? मैं किसी भी तरह उसे जमीन पर लाना चाह रहा था।

- हैं, मम्मी, डैडी हैं, जैसे साधारण आदमी रहते हैं। बहन को उसके पति ने छोड़ दिया है, वह अपने बच्चों के साथ वहीं रहती है।

वह एक पर एक शॉक दिए जा रहा था। बूढ़े रिटायर माँ बाप का जवान बेटा सुसाइड कर ले रहा हो, बेटी को उसका पति छोड़ गया हो, बचा हुआ एक बेटा जिम्मेदारी उठाने के बजाय इतिहास के ढेर के पीछे छुप गया हो, और निस्संगता से बता रहा हो कि आम लोगों के जीवन में ये सामान्य घटनाएँ हैं, इससे ज्यादा असामान्य दृश्य मैंने हाल फिलहाल नहीं देखा था।

तुम्हें उन लोगों के साथ रहना चाहिए था। मैंने अपने हिसाब से एक सामान्य लेकिन नैतिक वाक्य बोला।

हाँ! ताकि मा बदौलत भी उनके बीच रहकर अपने मौत की बारी का इंतजार करते। मिसर, ठीक है कि इतिहास में आम लोगों का प्रवेश निषिद्ध है, लेकिन आम लोग इतिहास में शामिल होते ही रहे हैं, तमाम निषिद्धताओं और षड्यंत्रों के बावजूद! शेरशाह को तो जानते ही होगे तुम?

वह फिर से इतिहास के जंगलों में दौड़ने लगा। कहाँ का था शेरशाह बिहार के सासाराम का। लेकिन क्या किया उसने मुगलवंश को चुनौती दी। चुनौती क्या दी, लगभग उखाड़ ही डाला। ये देखो ये मकबरा है उसका, वह फिर कोई तसवीर लहराने लगा। दिल्ली का बादशाह होते हुए भी उसकी कब्र दिल्ली में नहीं है, बिहार में है, यह मुगलिया सल्तनत द्वारा उसको इतिहास से बेदखल करने की कोशिश थी, लेकिन क्या ऐसा हो पाया जानते हो... अपनी लपट में हुमायूँ उससे जीत ही गया था, लेकिन वह जीतकर उसका जश्न मनाने लगा। शेरशाह की झपट का अंदाजा उसे नहीं था। डेढ़ दिन में उसने अपनी फौज के साथ चुनार से बक्सर पहुँचकर, आज तक इतिहासकारों को हैरान कर रखा है।... मैं भी प्रिंस के जाने के दो दिन बाद दिल्ली कूच कर गया। सत्ता और उसके केंद्र पर इसी तरह झपट्टा मारकर इतिहास में शामिल हुआ जाता है। जश्न और शोक मनाने वाले इतिहास से बाहर हो जाते हैं...

- लेकिन तुम अभी वर्तमान में क्या कर रहे हो? मैं इतिहास के बारे में उसके प्रलाप से बोर हो रहा था।

जवाब में उसने बताया कि वह हिंदुस्तान टाइम्स में इंटर्नशिप कर रहा है। इंटर्नशिप नाम सुनकर मेरे रोएँ सिहर गए, लेकिन उसने बताया कि इस काम में भी अँग्रेजी में पैसे दिए जाते हैं। लेकिन वह अपने काम से बिल्कुल खुश नहीं था। अखबार में उसे 'प्रॉपर्टी और रीयल इस्टेट' का पन्ना दिया गया था। उसका काम था राजधानी और उसके आस पास फैलते जा रहे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एन.सी.आर.) में प्रॉपर्टी की वैल्यू, उसमें इन्वेस्टमेंट के फायदे, जोखिम और उसकी बढ़त की संभावनाओं के बारे में लिखे। लेकिन वह कुछ और लिख लाता था, वह शहर में जायदाद की संभावनाओं से ज्यादा शहर की बसावट में दफन हो चुके इतिहास की कब्रों को खोदना चाह रहा है था। लिहाजा उसकी बॉस उसे नोटिस दे चुकी थीं और यह उसके काम का आखिरी महीना था। उसके इसी काम को मेरे जूनियर्स 'हिंदुस्तान की प्रॉपर्टी खोजना' कह रहे थे।

- हूँह! मुझे नोटिस दे रही है। मा बदौलत को उसे तो यह भी नहीं पता कि जिस मुनीरका में हम लोग बैठे हैं, वह कोई जाटों का गाँव नहीं, बल्कि मुनीर खाँ की जागीर का हिस्सा है... जानते हो, मुनीर खाँ कौन था और उसने जाटों को ये जमीन क्यों दी?

- नहीं मैं बिल्कुल नहीं जानना चाहता। मैं तो ये जानना चाहता हूँ कि तुम ताजमहल किसके लिए बनवाना चाह रहे हो?

- मा बदौलत ने अभी ये मामला स्थगित रखा है। उसने उसी नाटकीय अंदाज में कहा। फिर थोड़ा झेंपते हुए उसने बताया कि सामने वाले वन रूम सेट में 'दिव्या' जी रहती हैं, जिनसे उसे उनके नाम के कारण ही प्यार हो गया था। दिव्या का दिव्यांशु। अपने मन में पक्का प्यार कर लेने के बाद उसने दिव्या जी को यह बात बिल्कुल सच सच बता भी दी। दिव्या जी ने उसका श्वेता वाला हाल तो नहीं किया, बल्कि उन्होंने विनम्रता से समझाया कि वे साम्राज्ञी बनने की हैसियत नहीं रखती हैं। वे पहाड़ों से थीं और देरसबेर उन्हें पहाड़ों में ही लौट जाना या, जहाँ कोई शेर सिंह लगातार अपने विरह गीतों में उन्हें पुकार रहा था।

- बताओ, यही होता है साधारण जीवन... साधारण लोगों पर शेर सिंह की पुकार भारी पड़ जाती है... वे इतिहास की पुकार को भी अनसुना कर देते हैं। वैसे, सिर्फ इतिहास में बनी हुई चीजों की ही अहमियत नहीं होती मिसर, नहीं बनी हुई या अधबनी चीजें भी इतिहास में वैसे ही अमर होती हैं। कुतुबमीनार देखा है, तुमने उसके सामने एक और अधबनी मीनार या खंडहर है... जो इल्तुतमिश बनवाना चाहता था..., वह पता नहीं किस खंडहर की बात कर रहा था। उसकी बातें सुनकर तो मेरा वर्तमान ही मुझे खंडहर महसूस हो रहा था। मैं इसके भरोसे अपना भविष्य सँवारने यहाँ दिल्ली आया था, और कहाँ यह इतिहास के खंडहरों में मारा मारा फिर रहा था। वैसे खंडहरों का भी सही इस्तेमाल किया जाय, तो वर्तमान को चमकाया जा सकता है, आखिर अभी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक खंडहर को गिराकर ही तो सत्तानशीं हुई थी। मैं मन में सोचता सो गया। लेकिन भविष्य तो खंडहर तोड़ने वालों का सुरक्षित था, दिव्यांशु तो खंडहरों को सँभालने और बचाने की बात कर रहा था। बात ही नहीं कर रहा था। वह तो ऐसे पेश आ रहा था, जैसे इसमें से अधिकांश खंडहर उसी की बनाई इमारतें हों।

दिल्ली में मुझे मेरा कोई भविष्य तो क्या वर्तमान तक नहीं दिखाई दे रहा था। मंत्री संत्री से संपर्क और परिचय तो दूर अखबार के संपादक तक मिलने का समय नहीं दे रहे थे। मेरे इलाके के, मेरी जाति के मेरे ताल्लुके के, सारे छोटे बड़े पत्रकारों से मैं लगातार मिल रहा था, लेकिन सब मायूस और लाचार थे। पत्रकारिता इतनी बदल चुकी थी कि मैं इस धंधे में एकदम अनस्किल्ड लेबर माना जा रहा था। अखबारों से डी.टी.पी. सेक्शन खत्म हो गया था। पत्रकार खुद कंप्यूटर पर अपनी खबरों की पेज सेटिंग कर रहे थे। अँग्रेजी से अनुवाद का मामला तो खैर बनारस में भी था, लेकिन यहाँ यही अनिवार्य था। अखबारों में संपादक से ज्यादा मार्केटिंग हेड की सुनी जा रही थी, और कई बार तो संपादक ही उनकी दया पर निर्भर थे।

हर जगह मंदी और रिसेशन का ऐसा धोर था कि जो लोग नौकरी कर रहे थे, उन्हें अपने होने पर आश्चर्य था और जो नौकरी नहीं कर रहे थे, उन्हें अपने जीने पर। वातावरण में चारों ओर बदहवासी और अनहोनी का अंदेशा था, लेकिन सरकार 'फीलगुड' का नारा दे रही थी। सारी दिल्ली खुदी हुई पड़ी थी, कहीं भी पहुँचने में चार से पाँच घंटे लग जाते थे, लेकिन लोगों से कहा जा रहा था, भविष्य में वे उन्हीं जगहों पर मेट्रो से पाँच मिनट में पहुँच जाएँगे। लोग आश्चर्य से बातें कर रहे थे कि जमीन के भीतर रेल दौड़ेगी। लोग आश्चर्य से देख रहे थे कि लोग सड़क के किनारे बने वातानुकूलित शीशे के कमरे में जाकर एक मशीन के कुछ बटन दबाकर रुपये निकाल पा रहे थे। मैं तो जानता था कि यह एडवांस बैंकिंग है, ए.टी.एम. लेकिन उस रिक्शेवाले को क्या मालूम जो हर ऐसे मशीन के पास जाकर उसके सारे बटन दबाकर रो रोकर कह रहा था - यह सबको पैसे देती है, तो उसे क्यों नहीं दे रही है

मैं एक डेढ़ माह के शुरुआती संघर्ष के लिए जो जमापूँजी लाया था, वह तुरंत ही स्वाहा हो गई थी। आगे अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए मैं दिव्यांशु से जोंक की तरह चिपक गया।

उसकी नौकरी चली जाने के बाद भी, उसके पास पर्याप्त पैसा था। भाई के मर जाने के बाद अपने 'डैडी' के रिटायरमेंट के पैसों का वही मालिक था, जिसे वह इतिहास में शामिल होने के अपने एजेंडे पर शहंशाह की तरह खर्च कर रहा था। उसने एक लाख का तो कैमरा खरीद रखा था, जिसे वह शेरशाह का घोड़ा कहता था, जिसके फ्लैश की एक चमक पर सवार होकर वह पलक झपकते 'चुनार' से बक्सर पहुँच जाता था। अपने वर्तमान को बचाए रखने के लिए उसके साथ थोड़ा अतीत में टहल लेना कोई घाटे का सौदा नहीं था। मैं उसके साथ इतिहास के पन्नों में दाखिल होता और वर्तमान में उससे मुक्ति के लिए छटपटाता।

मैं दिव्यांशु के साथ रहता जरूर था, लेकिन मैं उसका आश्रित हूँ, यह तथ्य होते हुए भी इसे स्वीकार कर पाना मेरे लिए कठिन था। आखिर एक 'बड़ा आदमी' एक ब्राह्मण एक बनिये के आश्रय पर टिका रहे, इस तथ्य के स्थापित होते ही मेरा रहा सहा ओहदा भी खतम हो जाता। मैं उसकी अनुपस्थिति में अपने जूनियर्स को ऐसे जताता, जैसे दिव्यांशु जैसे चूतियों का शोषण करना ही असली पत्रकारिता है, और मैं इसे बखूबी कर रहा हूँ, उसके आने पर मैं भी उन लोगों में आँख मारकर शामिल हो जाता, और मा बदौलत कहकर उसका मखौल उड़ाने की जुगत में रहता। मैं अक्सर शाम को एकाध जूनियर को पकड़ भी लाता कि देखो आज तुम्हें भी मुर्गा खिलवाकर दिव्यांशु को चूतिया बनाने का आनंद दूँगा। लेकिन दिव्यांशु सनका हुआ जरूर था, पर चूतिया नहीं था। वह मेरी हरकत ताड़ गया था। और एक दिन जब वह शहंशाह अकबर की मुद्रा में ठीहे पर था, और मैं दस कदम आगे बढ़कर उसका मखौल उड़ाने में लगा था, वह अचानक से वर्तमान में आ गया।

- मिसर, तुम भी इन चूतियों का साथ दे रहे हो। मेरे ही पैसों पर ऐश कर, मुझे ही चूतिया समझ रहे हो। मेरे पास अब सफाई का कोई अवसर नहीं था। सफाई देने का मतलब था कि इस बात को सिद्ध करना कि मैं उसके रहमोकरम का मोहताज था। मुझे तो सिद्ध करना था कि मैं श्रेष्ठ हूँ, उसका बाप हूँ, बड़ा आदमी हूँ।

- औकात में रहो, साले। बोलने के पहले तौलो कि किसके सामने बोल रहे हो।

- किसके सामने बोल रहा हूँ उसी के सामने, जो मेरे आश्रय का मोहताज है। मा बदौलत के...

उसका वाक्य उसके मुँह में ही रह गया क्योंकि उसके पूरा होने के पहले ही मेरा हाथ चल गया था। साले... बनिया बकाल शहंशाह बना फिरता है... पागल साला... मैं इतिहास से भी पीछे मनुस्मृति काल में चला गया था।

मेरी इस हरकत से वहाँ बैठा हरेक शख्स जड़ रह गया। एक साथ ही विद्रोही और चापलूस होकर योग्य पत्रकार होने की मेरी सारी काबिलियत धरी की धरी रह गई। मैं कुछ नहीं था सिवा एक अहंकारी सवर्णवादी के अलावा। सिर्फ अहंकारी ही नहीं अवसरवादी भी।

थप्पड़ खाकर भी दिव्यांशु का अंदाज नहीं बदला था। उसने उसी अंदाज में कहा - जिल्लेइलाही ने तुम्हारी यह कायराना हरकत माफ की। उसी अंदाज में अकड़ से उठकर खरामा खरामा चलता हुआ वह अपने कमरे की ओर चला गया। मैं अवाक और शर्मिंदा सा उसे जाते देखता रहा। मैंने उससे बड़ा इतिहासबिद्ध नहीं देखा था, लेकिन लोगों ने मुझसे बड़ा प्राक् ऐतिहासिक भी कहाँ देखा होगा।

मुझे पक्की उम्मीद थी कि दिव्यांशु मुझे कमरे से निकाल बाहर करेगा। वैसे भी अब मैं उसके साथ आँख मिलाकर बात नहीं कर सकता था। शाम को मैं अपना सामान लेने ही उसके कमरे पर गया था। दिव्यांशु चुपचाप अपने अलबम को पलटते हुए मुर्गा बना रहा था। मैं भी चुपचाप अपना अपना सामान समेटते हुए अपनी वापसी के बारे में सोचता रहा। जब मैं सामान समेटकर चलने को हुआ तो दिव्यांशु की भी एक ठंडी सी आवाज आई - मा बदौलत चाहते हैं कि रात के दस्तरख्वान पर रकीब भी शरीक हों।

कहते हुए वह थाली भी परोस रहा था। न जाने क्या सोचकर मैं भी रुक गया और परोसी गई थाली खाने लगा।

उस मुर्गे में नमक कम था। मैं शिकायत भी नहीं कर सका, शायद नमक वजूद में ही कम था। मेरे भी और उसके भी। और - समय में तो खैर था ही नहीं।


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