शिक्षित होने से पहले ही हम शिक्षित बेरोजगार हो गए थे। हमारे शहर में ऐसा ही
होता था। इंटर की परीक्षा पास करते करते हमारे परिवारवालों का दम फूलने लगता
था। और 'कब तक यूँ ही हमारी छाती पर मूँग दलता रहेगा' का भाव स्थायी रूप से
हमारे पिताओं की आँखों में बस जाता था, हमारे खीझे और कातर चेहरों से हमारी
माँएँ असमय ही बूढ़ी और लाचार नजर आने लगतीं। हम पिताओं से पहले सहमते। फिर
बचते और अंत में ढीठ हो जाते। हम जानते थे हमारे शहर में काम की कोई कभी नहीं
है। और देर सबेर हम सबको चुपचाप बेआवाज किसी न किसी काम में लग जाना है। हमारे
पिता और परिजन भी जान चुके थे कि हममें से जो कोई भी कंपनी की 'अप्रेंटिस'
परीक्षा नहीं पास कर पाया, उसके लिए जिंदगी और जीने का स्तर कई हाथ नीचे गिर
गया। वहीं इक्का दुक्का ऐसे भी थे जो यह निहायत अपरिचित और 'खुल जा सिम सिम'
वाली परीक्षा पास कर चुके थे। हम सब अपनी सहज बुद्धि और सूचना तंत्र से जानते
थे कि ये पास करने वाले कोई बहुत होनहार और पढ़ाकू नहीं थे। बस उनके पिताओं की
यूनियन के कमेटी मेंबरान से सही सेटिंग बैठ गई थी। लाख डेढ़ लाख में पर्चा आउट
हुआ था, और हमारे देखते न देखते उनके पैर आसमान में कहीं खो गए थे। हम अपने
पिताओं के उलाहने के जवाब में अपना यह सामान्य ज्ञान बड़े आत्मविश्वास से
दुहराते थे, और हमारे पिता इस जवाब से और अगिया बेताल हो जाते - साले! लो तुम
भी डेढ़ लाख रुपया और दिखाओ सेटिंग करके। हम अपने ढीठपने में अपनी चुनौती
उन्हीं पर दे मारते - कमेटी मेंबरों से उनके बाप की सेटिंग थी उनकी नहीं।
रिटायरमेंट की तरफ तेजी से बढ़ रहे हमारे पिता की जलती आँखें धीरे धीरे बुझने
लगतीं और फिर धुआँने लगतीं। धुआँ धीरे धीरे हमारे छोटे छोटे क्वार्टरों में
जहरीली गैस की तरह फैलने लगता, घरों में हमारा दम घुटने लगता और हम अक्सर देर
तक घरों से बाहर ही रहने लगते।
वैसे धुआँ ही हमारे शहर की पहचान थी। हम देश के सबसे बड़े निजी क्षेत्र की
स्टील कंपनी के निर्माता के बनाए शहर टाटा नगर में रहते थे। इसी शहर में उसकी
कंपनी थी या यूँ कहें कि उसकी कंपनी थी इसलिए यह शहर था। इस शहर की आबोहवा में
चाहे जितना धुआँ हो, शहर की सड़कें एकदम साफ सुथरी और चौड़ी थीं। कंपनी का
चाहे जितना कचड़ा और कूड़ा बगल से गुजरने वाली खरकई नदी में बहता हो, शहर में
बिना नागा तीन वक्त स्वच्छ और साफ पानी की सप्लाई थी। हमारा शहर राज्य
प्रशासन, नगर निगम, नगर पालिका के भरोसे नहीं बल्कि कंपनी के शहर प्रबंधन के
जिम्मे था। हम अपनी लाख शिकायतों और परेशानियों के बावजूद अपने शहर की
सुविधाओं पर इठलाते थे। और शहर के आसपास के बसे इलाके जहाँ की व्यवस्था नगर
पालिका या राज्य सरकार देखती थी वहाँ से गुजरते हुए अपनी नाकों पर रूमाल रख
लेते थे। कंपनी ने हमारे लिए, हमारे शहर में क्या नहीं बनाया था। शहर के
बीचोंबीच जुबली पार्क था, जिसमें हम तमाम किस्म के गुलाब और फव्वारों के बीच
बैठते हुए अपना दिन काट सकते थे, पार्क के बीचोंबीच एक बहुत बड़ा तालाब था,
जिसके किनारे पिकनिक मनाते हुए परिवारों को देख अपने सुखद और खुशहाल जीवन की
कल्पना कर सकते थे, चिड़ियाघर था जहाँ देर सवेर हममें से किसी को सुरक्षा गार्ड
की नौकरी भी मिल जा सकने वाली थी। सिनेमा हाल थे जिसमें अपने इंटर तक की पढ़ाई
के दौरान हमने सबसे अच्छे वक्त बिताए थे, बेल्टबाजी की थी, और थोड़ी देर के
लिए ही सही, सिनेमा देखने आई किसी लड़की की नजरों में शाहरुख खान भी हो गए थे।
अब नहीं था, तो सिर्फ एक कॉलेज नहीं था, जो टाटा ने बनवाया हो। वैसे एक कॉलेज
था, जिसे कुछ पहले के सनकी और खब्ती लोगों ने 'कोऑपरेटिव' की योजना में बनाया
था और यही इसका नाम भी था, लेकिन हम भी और हमारे परिवारवाले भी इस पर एकदम
मुतमईन थे कि जब इंटर साइंस से पढ़कर हम इंजीनियरिंग, मेडिकल तो क्या
अप्र्रेंटिस तक का कुछ नहीं कबाड़ पाए, तो बी.ए. एम.ए. करके किसका और क्या
उखाड़ लेंगे यह सिर्फ हमारा सोचना भर नहीं था। इसके प्रमाण भी हमारे आसपास ही
थे। सबसे जीता जागता और ज्वलंत उदाहरण धीरेंद्र मामा ही थे जो उसी एकमात्रा
कॉलेज से 'इतिहास' में एम.ए. थे और हमारे मुहल्ले में ही 'कास्मेटिक कॉर्नर'
नाम से मनिहारी की दुकान चलाते थे। वैसे धीरेंद्र मामा किसी बहकावे या
प्रोपेगंडा के तहत कॉलेज नहीं गए थे बल्कि वे पढ़ने के लिए ही अपने गाँव सीवान
से यहाँ आए थे। पहले तो उनके रिश्तेदार को भी लगा कि भला बी.ए. करने के लिए
कोई सीवान से जमशेदपुर क्यों आ सकता है, लेकिन बाद में वे समझ गए कि यहाँ के
कॉलेज में बाहर से ही लोग आकर पढ़ते थे। दरअसल उत्तरी बिहार के तमाम छोटे शहर
और कस्बे जिस तरीके से जंगलराज में तब्दील होते जा रहे थे, उस जंगल में
जानवरों को कॉलेज, विश्वविद्यालय अपने सुरक्षित अभयारण्य महसूस होते थे। यहाँ
दाखिला लेने वाले मेमने लड़कों को वे बहुत जल्द अपने पीछे पीछे चलने वाले
सियार बना लेते थे। बाद में वे अपनी काबिलियत और सामाजिक जातीय समीकरण से
भेड़िया, लकड़बग्घा कुछ भी हो सकते थे। अपनी आँखों के सामने अपनी नस्ल को सियार
भेड़िया बनते देख वे तमाम अभिभावक, जिन्हें बच्चे 'गार्जीयन' कहते थे, अपने
मेमनों को अपने तमाम नजदीकी दूर दराज, नाते रिश्तेदारों के पास दक्षिण बिहार
के इस सम्मोहक तिलिस्म जैसे शहर में पढ़ने के लिए, कुछ कर गुजारने के लिए भेज
रहे थे। उस कॉलेज में आशा से ज्यादा लड़के उत्तरी बिहार के उन्हीं शहरों आरा,
छपरा, सीवान, नवादा, गया से थे। वैसे हमारे पिता भी बिहार के इन्हीं शहरों में
से एक थे, लेकिन हम खुद को इन शहरों का नहीं मानते थे, हम यहीं जन्मे थे,
इसलिए हम जमशेदपुरिया थे, क्योंकि हमारे पिता कंपनी के मजदूर थे, इसलिए भी इस
शहर पर हमारा ही हक था। भले ही यह हक कंपनी के किसी ठेकेदार के अंदर ठेका
मजदूर बन जाने का हो, इस बड़ी कंपनी की विभिन्न छोटी जरूरतों को पूरा करने
वाली किसी छोटी कंपनी में मुलाजिम बन जाने का हो, कंपनी के माल की ढुलाई के
लिए फैले ट्रांसपोर्ट के जाल में लोडिंग अनलोडिंग एजेंट बन जाने का हो। या
किसी छोटे बड़े कांट्रेक्टर का मुंशी बन जाने का हो, और बहुत ही कम हुआ तो
अपने पिता के पी.एफ. के पैसों से नई ऑटो खरीद कर खुदमुख्तार बन जाने का हो, हम
जानते थे, हमें यह शहर छोड़ नहीं सकता था, फिर इसे छोड़कर जाने का तो सवाल ही
नहीं पैदा होता था।
लेकिन इंटर पास करने के दो साल होने को थे और मैं इसमें से कुछ भी नहीं कर रहा
था। मेरे सारे दोस्त धीरे धीरे उन्हीं कामों में जम गए, मैं अपनी ही जगह जाम
हो गया। मुझे अपने दोस्तों के नाम से कोई उत्तेजना या प्रतियोगिता नहीं महसूस
हो रही थी, बल्कि धीरे धीरे उनसे विरक्ति जैसी हो रही थी। वैसे भी मैं शुरू से
ही उनसे कुछ कुछ अलग था। जैसे मैं कविताएँ लिखता था, भाषण, वाद विवाद
प्रतियोगिताएँ जीतता था। अखबारों में पत्र लिखता था। मतलब कुछ अलग तरह के काम
करता था। लेकिन यह सब करना, उनसे बहुत अलग हो जाना नहीं था। वो मेरे अलग होने
को महसूस करते थे, लेकिन बहुत महत्व नहीं दे पाते थे। मैं भी उनसे महत्व नहीं
पाना चाहता था, लेकिन उनसे कुछ अलग करना चाहता था। इसी अलग करने के चक्कर और
भ्रम में मैंने वह किया, जो हमारे मुहल्ले में नहीं किया जाता था - कॉलेज में
एडमिशन ले लिया। यह बात मेरे पिता के ध्यान में आते ही, जैसे उन्होंने वैराग्य
ले लिया। पहले तो कभी कभार डाँट डपट भी देते थे, लेकिन मेरे इस कदम से तो जैसे
उन्होंने मुझसे हाथ ही धो लिया। धीरेंद्र मामा की मनिहारी दुकान पर जब मैंने
अपने दोस्तों से इसकी चर्चा की, तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा, जैसे मैं चुगद तो
पहले भी था लेकिन इतना बड़ा चूतिया होऊँगा, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी।
स्याणा पंडित तो बाकायदा हिसाब लगाकर बताने लगा कि तीन साल बाद जब मैं बी.ए.
की डिग्री हाथ में लेकर टहलूँगा, तो वह पैसों के कितने बड़े ढेर पर खड़े होकर
मुझ पर हँसेगा। केवल धीरेंद्र मामा ने मुझे निरुत्साहित नहीं किया। वैसे
उन्होंने पढ़ाई को लेकर कोई उत्साहवर्धक हौसला आफजाई भी नहीं की। केवल, सबके
चले जाने के बाद मुझे एक अखबार जैसा कागज दिखाते हुए बोले - साला पंडित, अपने
आपको बहुत सयाणा समझता है, अब पैसा लगाना, पहले जैसा रह गया है क्या? पैसा
लगाने का सारा तरीका बदल गया है। यह देखो, ये है नया तरीका। मैंने अखबार के उस
टुकड़े पर यूँ ही उचटती नजर डाली, तो उन्होंने इसे मेरी बेरुखी समझते हुए
लताड़ा - अभी नहीं, लेकिन कुछ पढ़ जाओगे, तो समझोगे ये मामा क्या कहता था।
बाबू ये शेयर मार्केट है, इस पन्ने में रोज छपता है, कौन चढ़ा, कौन गिरा, केवल
माइंड लड़ाने की जरूरत है। थोड़ा सा लक, और एक चांस। फिर रातोंरात करोड़पति।
मामा ने उस कागज को थोड़ा छिपाते थोड़ा दिखाते हुए जैसा खुलासा किया - ये टाटा
कंपनी इसीलिए तो लोगों को कॉलेज नहीं जाने देना चाहती है। नहीं तो सब नहीं समझ
जाएँगे कि दुनिया में अभी पैसा कैसे कमाया जाता है सब यदि ज्यादा पैसा समाने
लग जाएँगे तो कंपनी में मजदूरी कौन करेगा?
लेकिन मैं मामा की बातों से ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। मुझे यकीन नहीं था कि
अखबार में उन छोटे छोटे छपे आँकड़ों और कूट भाषाओं से कोई पैसा भी कमा सकता
है। मेरी शंका पर, मामा ने मुझे लगभग खड़े होकर देखा और कहा - हर्षद मेहता का
नाम सुन लो रेलवे में क्लर्क था। बीवी का गहना बेचकर शेयर मार्केट खेला था,
देखो, रातोंरात करोड़पति बन गया।
- लेकिन, वो तो जेल में है। मैंने प्रतिवाद करना चाहा।
- तो कौन सा जन्म भर रहेगा। यूँ छूटेगा, वो और फिर राज करेगा, राज!
प्रशानमंत्री तक उसकी मुट्ठी में है। मामा ने आवेश में अपनी मुट्ठियाँ लहराईं।
वह कुछ और बताना चाहते थे हर्षद मेहता के बारे में लेकिन तभी कुछ लड़कियाँ
उनकी दुकान पर आती दिखीं और वे चुप हो गए। मैं वहाँ से फूटने लगा तो उन्होंने
फुसफुसाते हुए ताकीद की कि मैं इस नए धंधे और ज्ञान की चर्चा किसी से न करूँ।
मैंने भी उन्हें शेखचिल्ली की तरह देखा, और आँखों से ही आश्वस्त किया - ये भी
कोई बताने की बात है मैंने अभी कॉलेज जाना शुरू नहीं किया है। अभी भी लोग मुझे
थोड़ा अलग ही समझते हैं। पागल नहीं।
उस दिन के बाद से 'मामा' को देखने का मेरा नजरिया बदल गया। अभी तक तो मुझे वह
हताश, असफल, शिक्षित बेरोजगार का पोस्टर ब्वाय लगते थे, लेकिन किसी को क्या
पता कि एक आदमी कंपनी के ठीक नाक के नीचे, उसी के मुहल्ले में अखबार में कुछ
अंशों और सूचनाओं की बदौलत उसकी नींव हिलाकर उससे भी बड़ा बन जाने की फिराक
में था। मैं कल्पना करता कि एक दिन जब मैं कुछ दिनों बाद अपने मुहल्ले लौटूँगा
और किसी से 'कॉस्मेटिक कॉर्नर' का पता पूछूँगा, तो लोग हैरत से मुझे देखेंगे
क्योंकि वहाँ तो एक बड़ी, भव्य और आलीशान इमारत खड़ी है, जहाँ का दरबान मुझे
घुसने नहीं दे रहा, जैसे कंपनी के जनरल ऑफिस का दरबान पचास सवाल करता है,
किससे मिलना है क्या काम है, अपॉइंटमेंट बताइए। इंटरकॉम पर बात कीजिए। मैं
धीरेंद्र मामा का नाम लेता हूँ, तो वह अकबका कर ऐसे देखता है, जैसे मैंने रतन
टाटा का नाम ले लिया हो। मैं गौर कर रहा था कि शहर में धीरेंद्र मामाओं की
संख्या बढ़ती जा रही थी। हर चौक चौराहे पर लोग शेयर मार्केट की चर्चा करते मिल
जाते थे। बाजार में कई ऐसी जगहें खुल गई थीं, जहाँ लोग एक दो कंप्यूटर रखकर
बाकायदा शेयर ब्रोकर बन गए थे। वहाँ कंप्यूटर स्क्रीन पर नजर गड़ाए दर्जनों
लोग उजबक की तरह खड़े रहते। किसी को ठीक ठीक नहीं पता चलता था कि क्या हो रहा
है, या क्या होने वाला है, लेकिन एक उत्तेजना एक रोमांच बाजार में हमेशा महसूस
किया जा सकता था। बाजार के तमाम बनियों ने चाहे वह किसी का भी व्यापार करते
हों, अपने साईनबोर्ड पर 'शेयर ब्रोकर' या 'यहाँ शेयर खरीदे बेचे जाते हैं' की
सूचना जरूर चस्पाँ कर दी थी। लेकिन कौन खरीददार था कौन विक्रेता इसकी जानकारी
किसी को नहीं थी।
बाजार की उत्तेजना के उलट घरों में स्यापा करने जैसा माहौल था। घर घुसते ही एक
उदास अनहोनी की आशंका घर कर जाती। पिताजी रोज माँ से ई.एस.एस. स्कीम की चर्चा
करते। ई.एस.एस. मतलब अर्ली सेपरेशन स्कीम। कंपनी लगातार लालच दे रही थी कि आप
अपने रिटायरमेंट तक का सारा हिसाब करके कंपनी से अलग हो जाओ। बिना काम किए,
पैसा ले जाओ। कंपनी छोड़ने वालों को कंपनी पुरस्कृत कर रही थी। गृह पत्रिकाओं
में उनके फोटो छापे जा रहे थे। यूनियन उनका अभिनंदन कर रही थी। गले में हार
डाले वे मजदूर वधस्थल पर ले जाए जा रहे पशुओं की प्रतिच्छाया नजर आते थे।
पिताजी की एक उदास, हताश फुसफुसाहट कमरे में तैरती थी - ठीक ही स्कीम है।
अच्छा पैसा मिलेगा। हम सबके कानों में जैसे पिघले शीशे सा सुनाई देता - सब
खत्म। हम बर्बाद होने जा रहे हैं। समूचा घर एक दूसरे से छुपता, नजरें बचाता,
समय बीत जाने की प्रार्थना करता सा महसूस होता। लेकिन समय अपनी समूची भयावहता
से उपस्थित होता था, उसमें धीरे धीरे हम अपनी उम्मीदों, आकांक्षाओं और सपनों
के साथ बीत रहे थे।
वैसे मैं तो समय बिताने के लिए ही कॉलेज आता हूँ। यह वाक्य मैंने जिस लड़के से
कहा, वह मेरे चेहरे को यूँ ही बहुत देर तक पढ़ने की कोशिश करता रहा। दरअसल इस
कॉलेज में सब मुझे अपरिचित ही लगते थे। ज्यादातर लड़के भोजपुरी और मगही में
आपस में चिचियाते और लुलुहाते थे। मैं जमशेदपुरिया था और उनकी चिंताओं एवं
उम्मीदों से खुद को जोड़ नहीं पाता था। यह लड़का अविश्वासी था, और इसका चेहरा
जैसे इस्पात के साँचे में ढला हुआ लगता। मेरी तरह शायद इसका भी कोई दोस्त नहीं
था, या यह भी किसी से दोस्ती करना नहीं चाहता था।
- तुमने क्या सोच कर यहाँ एडमिशन लिया है? मैंने उसे यूँ ही टटोलते हुए पूछा।
- जानने, समझने के लिए। उसने जैसे एक एक शब्द को चबाते हुए कहा। ये कुछ शब्द
भी जैसे 'टन्न' से मेरे कानों में बजे थे।
- क्या जानना चाहते हो? मैं दिल्लगी पर उतर आया।
- यही कि आखिर हमारी जमीनें रातोंरात तुम लोगों की कैसे हो जाती हैं?
- अरे यार, तुम तो पॉलिटिक्स पर उतर आए। मैं बेसाख्ता बोल गया।
- पॉलिटिक्स तो तुम लोग करते हो। मैं तो सच बोल रहा हूँ। उसकी आवाज की तुर्शी
थोड़ी और बढ़ गई थी।
- अरे यार, तुम समझ नहीं रहे हो... मैंने माहौल को थोड़ा हल्का करने की गरज से
कहा।
- हम लोग कहाँ समझ पाते हैं। समझदार तो तुम लोग हो... वह नरम पड़ने को तैयार
ही नहीं था।
समझ पाते तो आज तुम लोगों की लूट बर्दाश्त करते! अपनी ही जमीन से इस तरह गायब
होते जाते? बातें कैंटीन में हो रही थीं। उसके इस कदर तैश और तेवर में बोलने
से कई लोगों का ध्यान हमारी तरफ आकर्षित हो गया था। समय काटने के ख्याल से
शुरू की गई बातचीत यहाँ तक पहुँच जाएगी इसका इल्म मुझे नहीं था। मैं किसी भी
तरह बातचीत खत्म करना चाह रहा था।
- अच्छा ठीक है। अब जाओ यहाँ से... मैंने उसे टालने के से अंदाज में कहा।
मैं यहाँ से जाऊँगा? मेरा तो ये घर है। जाना तो तुम लोगों को न पड़ेगा। वह
टालने की बजाय बरसने को तैयार बैठा था।
कहाँ भेजेगा रे? कहाँ भेजबय् हमनी के? बगल की टेबल से एक बिहारी बाँह चढ़ाता
उस पर चढ़ने से तत्पर हो आया।
साला ओंडो। जंगली होके हमनी के बुद्धि दे रहा है रे एक आध और आवाज आनी शुरू हो
गई।
क्या फसाद मोल ले लिया मैंने मैंने गौर किया कैंटीन में अभी वह अकेला आदिवासी
था। यदि मैंने तुरंत कोई एक्शन नहीं लिया तो एक अनहोनी वहाँ घटित होने को
तत्पर दिखाई दे रही थी।
- मैंने तुरंत अपना पैंतरा बदलकर बिहारियों को ललकारने वाली शैली में कहा, तुम
लोग काहे बीच में बोलता है रे? ढेर रंगबाजी का जरोरत नहीं है यहाँ पर।
मेरे पैंतरे का अपेक्षित असर पड़ा। खासकर उस आदिवासी लड़के पर। उसने भी बातचीत
की तुर्शी में कैंटीन के माहौल पर ध्यान नहीं दिया था। अचानक ऐसी स्थिति बन
जाने से वह भी थोड़ा सहमा और असहज था। मेरे इस दाँव से जैसे वह मेरे प्रति
थोड़ा उदार भी दिखा, और जब मैंने उठते हुए कहा चलो, बहुत हो गई पॉलिटिक्स आज।
चला जाए अब, तो वह भी मेरे साथ साथ कैंटीन से बाहर आ गया।
तुमने तो आज फँसा ही दिया था। बाहर निकलकर जब मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा, तो
वह पहली बार मुसकराया। मुस्कराते हुए उसका चेहरा इतना निश्छल और मासूम लगा कि
मैं अब तक कही गई उसकी सारी बातों को जैसे एकबारगी भूल गया। मुझे यकीन ही नहीं
हुआ कि इस्पात के साँचे में ढला चेहरा मुस्कराते हुए इतना कोमल और तरल भी हो
सकता है।
मैं समझ पा रहा था, कि हम दोनों बस बारूद के ढेर से उठकर आ रहे थे। अभी ही
क्यों हमेशा पलीता जैसे सुलगने सुलगने को ही था। पूरा शहर ही जैसे जलने को
तैयार बैठा था। झारखंड राज्य बनने का आंदोलन अपने चरम पर था। शेयर मार्केट की
तरह यहाँ भी किसी को पता नहीं था कि राज्य बनने के बाद क्या होगा? हमें तो
खुशी से ज्यादा उत्तेजना थी कि होश हवास में हम एक राज्य बनने की घटना को देख
रहे थे। वैसे हमारे शहर में इस आंदोलन की तपिश थोड़ी कम महसूस हो रही थी,
क्योंकि शहर में आदिवासी नहीं के बराबर दिखते थे और आंदोलन की कमान आदिवासियों
के हाथों में थी। मैंने पॉलिटिक्स की बात इसीलिए उठाई थी और उसके हक की बात को
मैं इसी चश्मे से देख रहा था। लेकिन उसका कहना था कि वह सचमुच में अपने हक की
बात कर रहा था। उसने अपना नाम बीर सिंह बोदरा बताया और उसका दावा था कि कंपनी
की जमीन का असली वारिस वही है। मुझे उसके दावे पर हँसी आ रही थी और मैं अपने
आपको चिकोटी काटकर इस बात के लिए आश्वस्त कर रहा था कि मेरे कान नहीं बज रहे
हैं और मेरी आँखें धोखा नहीं खा रही थीं कि वे जिन्हें देख रही थीं, वह कोई
मामूली, मरियल, औडो, आदिवासी नहीं बल्कि इतनी बड़ी जमीन की मिल्कियत का वारिस
था।
चलो मान भी लिया कि ये सारी जमीन तुम्हारे दादा परदादाओं की थी, लेकिन उसका
मुआवजा तो मिला होगा न तुम लोगों को?
मुआवजा... उसकी फिर पीसती सी आवाज निकली। मिला था न मुआवजा मेरे परिवार के लोग
रातोंरात कहीं गायब हो गए थे।
- गायब! कहाँ गायब हो गए थे। मुझे झुरझुरी सी हो आई।
और कहाँ गायब होंगे! जमीन के नीचे। मार के गड़वा दिया पठान लोगों से। केवल
मेरा बाबा भागकर बच पाया था। पठानों को मैं जानता था। वे अक्सर काजू, किशमिश,
पिस्ता का व्यापार करते, बुलेट पर चलते और उनके बुलेट की आवाज सुनकर मैंने भी
गौर किया था, मेरे मुहल्ले में कई लोगों का खून सूख जाता था। वे सूद पर पैसा
चलाते थे, और उसमें देरी होने पर साक्षात यमदूत थे। लेकिन जब कंपनी बन रही थी,
तो वे उस समय किसे बादाम पिस्ता बेचते होंगे
मेरी जिज्ञासा के जवाब में उसने अपने बाबा के हवाले से बताया कि कंपनी बनाने
वालों के साथ बहुत से पठान मजदूरों की शक्ल में लाए गए थे लेकिन वे सिर्फ नाम
के मजदूर थे। उनका असली काम था यहाँ के आदिवासियों, जो आसानी से अपनी जमीन
देने को तैयार नहीं थे, कत्ल करना, उन्हें खत्म करना। उन्होंने हजारों की
संख्या में उनका सफाया किया।
- लेकिन तुम लोग भी तो लड़े होगे? मैंने हल्का सा प्रतिवाद करना चाहा।
लड़े तो थे ही। अभी भी तो लड़ ही रहे हैं। नहीं तो, तुम क्या सोचते हो, जिन
लोगों ने अंग्रेज तक को अपनी जमीन पर नहीं आने दिया, वे आसानी से कंपनी को
अपनी जमीनें दे देते? उसके इस ऐतिहासिक और लगभग दार्शनिक से सवाल से मैं
निरुत्तर हो गया।
उस दिन के बाद से उससे मेरी दोस्ती जैसी हो गई। उसने अपने बाबा चुमनूं बोदरा
के बारे में बताया कि किस तरह वो दलया पहाड़ पर एक झोपड़ी बनाकर रहते हैं।
जंगल के सारे जानवर खासकर हाथी उनकी सारी बातें समझते हैं। उसकी बातें मुझे
किसी दूसरे लोक या ग्रह की बातें लगतीं। मैं उससे अपनी बातें भी शेयर करता।
मेरी बातें सुनकर उसने एक बार कहा कि कंपनी ने तो आदिवासियों से केवल जमीन ली
थी, लेकिन हम लोगों से तो हमारा जमीर छीन रही है।
जहाँ तक मैं देख पा रहा था, बीर सिंह सौ प्रतिशत सही था। अपने ही दोस्तों के
बीच मैं अजनबी और अजीब सा होता जा रहा था। अपने छोटे मोटे धंधों और नौकरियों
में उन्होंने न जाने कौन सा खुफिया रास्ता तलाश किया था जो किसी खुल जा सिमसिम
से खुलता था। वे अपनी कंपनियों से रोज कुछ न कुछ चुरा लाते थे, अपने बेबस
दोस्तों को, परिचितों को उधार सूद पर पैसे देते थे और उसे किसी भी तरह वसूलने
के लिए 'पठानों' के भी बाप बनते जा रहे थे। पठान तो गाली गलौज, और बहुत हुआ तो
मारपीट तक के लिए बदनाम थे। मेरे दोस्त तो अपनी वसूली में माँ बहनों की इज्जत
तक को देखने लगे थे। उनके घरों में रिटायर हो गए पिताओं के लिए जगह नहीं थी और
वे उन्हें जबर्दस्ती गाँव छोड़ आए थे। उन्हें यकीन था कि इतने दिनों तक जो
आदमी शहर में रह गया, वह गाँव जाते ही एकाध साल में मर खप जाएगा। उनका यकीन सच
में तब्दील हो रहा था, और वे अपनी योजनाओं पर, सफलताओं पर खुश थे। मैं घर में
अपने पिता को देखता था, और महसूस करता था कि वे मेरी आँखों में अपने लिए भय और
अनहोनी जैसा महसूस करते। शायद उन्हें यह भी लगता था कि मैं अभी तक अपने जैसा
कुछ नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए वे महफूज हैं। वे जब मुझे सुनाकर माँ को कहते कि
रिटायरमेंट के बाद वे भी गाँव चले जाएँगे, तो मैं भीतर से मर जाने की हद तक कट
जाता। मैं उन्हें छूकर, पकड़कर अंकवार में भर लेना चाहता था। उनकी आँखों में
आँखें डालकर उन्हें यकीन दिलाना चाहता था - मैं नकारा हूँ, हत्यारा नहीं।
लेकिन मैं ऐसा कुछ कर नहीं पाता था, सिवाय उनसे नजरें चुराने के। मेरा उनसे
नजरें चुराना, शायद उन्हें खुद के प्रति, खुद की ताकत के प्रति यकीन दिलाता
था।
लेकिन मेरा यकीन अपने दोस्तों से छूटता जा रहा था, उस दिन के बाद से तो एकदम
से जब 'स्याणा पंडित' 'मामा' की दुकान पर अपने पिता के अस्पताल में भर्ती होने
पर सबको चहक कर बता रहा था - 'बुड्ढा यदि नौकरी में रहते टपक गया तो कंपनी में
उसके घुस जाने के पूरे चांस रहेंगे। परंतु बीर सिंह बोदरा और उसकी बातों पर
मेरा यकीन बढ़ता जा रहा था। उसने बताया कि जहाँ कंपनी का ब्लास्ट फर्नेस है,
वहाँ उसके कुलदेवता का स्थान है। उसके बाबा चुमनूं बोदरा रात में दलया की चोटी
पर खड़े होकर अपने कुलदेवता से बातें करते हैं। उसने यह भी बताया कि शुरू में
तो कुलदेवता ने कंपनी को माफ कर दिया था, लेकिन वे अभी बहुत गुस्से में हैं,
और देखना एक दिन कंपनी नेस्तनाबूद हो जाएगी। पहले का समय होता तो कंपनी के
नेस्तनाबूद वाली बात पर मैं बोदरा का गिरेबाँ पकड़ लेता, लेकिन अभी उसकी बातों
से राहत जैसी महसूस हो रही थी।
कंपनी किसी भी कीमत पर अपने कर्मचारियों से छुटकारा पाना चाहती थी। मुख्य
कंपनी को छोड़कर उसकी कई छोटी छोटी इकाइयों को वह औने पौने मुआवजे देकर बंद कर
रही थी। इसके साथ साथ ही वह और कई छोटी कंपनियाँ खोलने की घोषणा भी कर रही थी।
इन कंपनियों में डिबेंचर और शेयर के फॉर्म के लिए बैंकों के बाहर भारी लाइन
लगती थी और कई बार कागज से उन टुकड़ों के लिए लोग एक दूसरे की जान लेने को
उतारू हो जाते थे। बंद की गई इकाइयों के क्वार्टरों से अचानक बिजली के बल्ब की
जगह लालटेन जलने लगती, उनकी महिलाएँ हमारे मुहल्लों में सार्वजनिक नलके से
पानी भरने लगतीं। उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पहुँच जाते और हम अचानक पाते
कि हमारे जगमगाते शहर के बीचोंबीच में टापुओं जैसे पुरापाषाणकालीन गाँव आबाद
होते जाते थे। शहर में सच और अफवाह के बीच फर्क करना उतना ही मुश्किल होता जा
रहा था जितना शेयर मार्केट के दलालों और इन बंद हो गई कंपनी के क्वार्टरों के
मुहल्लों में भूख से बेबस, परिवार की चिंता में घुलती माँ बहनों के जिस्म के
दलालों के बीच।
अपने शहर की जिन सुविधाओं पर मैं रश्क करता था, वो अब मेरी आँखों में चुभने
लगी थीं। वे चौड़ी सड़कें जिनपर मैं कभी शान से चहलकदमी करते हुए चलता था,
मुझे मेरे भविष्य की तरह उजाड़ और बियाबाँ लगतीं। मेरे मुहल्ले में तीन वक्त
आनेवाला पानी अब मुझे बेस्वाद ही नहीं खारा भी लग रहा था और जुबिली पार्क,
वहाँ तो जाते हुए झुरझुरी होती थी। एक दिन मैंने अपने पिता को वहाँ पौधों की
निराई करते देखा था। वो लोहे का काम जानने वाले स्किल्ड मजदूर थे। अपने जीवन
में तीस साल उन्होंने मशीन पर बिताए थे। मशीन की घरघराहट से वे उसके मिजाज का
पता लगा लेते, लेकिन वे जुबिली पार्क में पौधों की निराई क्यों कर रहे थे रात
में मैंने चुपके से माँ से पूछा तो उसने बताया कि पिताजी को 'पूल' में डाल
दिया गया था। मतलब जो लोग कंपनी नहीं छोड़ रहे थे कंपनी उन्हें जलील कर रही
थी। बरसों तक जो लोग अपनी जगह, अपनी मधीनों पर काम कर रहे थे, उन्हें वहाँ से
उठाकर 'पूल' में डाला जा रहा था। मतलब आप अपनी ड्यूटी के समय दिहाड़ी मजदूरों
की तरह जनरल ऑफिस से अहाते में खड़े हो जाते फिर आपका सुपरवाइजर, आपको आपकी
शिफ्ट में ऐसे ही किसी काम में लगाएगा। पौधों को पानी देने, झाड़ू बुहार करने,
नाला सफाई करने, क्रेन की साफ सफाई करने के किसी काम में। आप अपने 'हुनर' को
याद कीजिए और आँसू बहाते हुए चुपचाप अपमान सहते जाइए, नहीं तो सम्मानजनक तरीके
से कंपनी से बाहर हो जाइए।
'पूल' में एक दिन पिताजी की ब्रांच का कमेटी मेंबर भी डाल दिया गया। पहले तो
उसे अपने साथ किया गया यह सलूक समझ ही नहीं आया। वह अपने तई एक ईमानदार और साफ
सुथरी छवि का कमेटी मेंबर समझा जाता था। उसने लगभग ललकारते हुए सुपरवाइजर को
इस तरह का काम न करने की चुनौती दी। सारे मजदूरों के सामने सुपरवाइजर ने उसे
गंदे से लगभग धकियाते हुए क्यारियों की तरफ ठेल दिया - काम करना है तो करो,
नहीं तो शाम तक 'चार्जशीट' भर लेना।
वह कमेटी मेंबर था, अपनी ब्रांच के मदजूरों का चुना हुआ प्रतिनिधि। उसने कातर
और लाचार निगाहों से अपने साथियों को देखा, लेकिन किसी में भी 'सुपरवाइजर' की
इस कमीनगी के विरोध का साहस नहीं था। यह जलालत उससे बर्दाश्त नहीं हुई और उसी
दोपहर, उसने जुबिली पार्क के उसी मशहूर तालाब में डूबकर अपनी जान दे दी, जिसके
किनारे उस दिन भी लोग पिकनिक मना रहे थे, और कुछ लोग उन्हें देखकर अपने भविष्य
के सपने बुन रहे थे। पुलिस को उसके पास से कोई सुसाइट नोट तक बरामद नहीं हुआ।
सिर्फ उसकी ऊपरी जेब से एक कागज निकला जिसपर 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद,
पूँजीवाद हो बरबाद' जैसा नारा लिखा था।
दूसरे दिन शहर के किसी अखबार में इस घटना की कोई चर्चा तक नहीं थी। उस अखबार
में भी नहीं जिसमें मैंने थोड़े ही दिन पहले समय काटने के लिए बतौर 'ट्रेनी'
उपसंपादक ज्वाइन किया था। मुझे अपने इस अखबार में कम से कम इस खबर के दिखने की
उम्मीद थी, क्योंकि यह अखबार शुरू ही किया गया था - 'सनसनी' के लिए। 'सांध्य
सनसनी'। दरअसल इस अखबार का मालिक अखबार बेचने का धंधा करता था। कई तरह के
अखबार बेचकर उसने काफी पैसा कमाया था, और सिनेमा से कमाया पैसा सिनेमा में
बर्बाद होता है की तर्ज पर उसने अपना भी दैनिक सांध्य सनसनी अखबार शुरू कर
दिया था। वह निरक्षर था और अपने अखबार का शीर्षक तक नहीं पढ़ सकता था, लेकिन
हर खबर पर उसकी पैनी नजर रहती थी, और छपने से पहले हर खबर उसे सुनाई जाती थी।
वह समाचार और सनसनी के अंतर को अच्छी तरह समझता था। उस दिन जब मैं सनसनी के
तौर पर ही सही इस खबर को देखना चाह रहा था, मेरे अखबार की हेड लाइन थी - 'लालू
गए जेल'। बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले की खबरें उस
समय हवा में थीं। बड़े बड़े बोल्ड अक्षरों में इस 'हेडलाइन' ने लोगों में जैसे
एकबारगी उत्सुकता और रोमांच भर दिया था, लेकिन अंदर की खबर यह खुलासा करती थी
कि दरअसल कोई 'लालू' नामक जेबकतरा पुलिस के हत्थे चढ़ा था और उसे ही जेल हुई
थी। उस दिन उस एक भ्रामक सत्य ने सच बेचने वाले सारे अखबारों को औकात बता दी
थी। उस दिन ही क्यों, आए दिन मेरा यह अखबार अपनी बिक्री संख्या में शहर के
सारे अखबारों की कुल बिक्री संख्या पर भारी पड़ता। सिर्फ भ्रामक सत्य या
रोमांचक झूठ के बलबूते यह रोज संभव नहीं था। 'आँख के अंधे गाँठ के पूरे' हमारा
अखबार मालिक इससे भली भाँति अवगत था। उसने इस अखबार में 'शहर की सच्ची
कहानियाँ' नाम से एक दैनिक कॉलम शुरू करवाया था, जिसमें शहर के मुहल्लों के
वास्तविक नाम के साथ जिस्मफरोशी और ऐय्याशी की वासनात्मक कहानियाँ छपतीं।
इनमें उन्हीं कुछ मुहल्लों के नाम होते जिनमें अब बिजली की जगह लालटनें जलती
थीं और जिनकी महिलाएँ पानी लेने के लिए हमारे मोहल्ले के सार्वजनिक नलकों तक
आती थीं। यह कॉलम हमारे मालिक का जिगरी दोस्त लिखता था जो था तो मालिक के ही
धंधे में लेकिन अखबारों के साथ गुप्त रूप से मस्तराम की किताबें भी बेचा करता
था। उस कॉलम के छपना शुरू होते ही वह अखबार अखबार नहीं अफीम की डिबिया हो गया
था जिसे लिए बिना शहर को नींद नहीं आती थी। नींद तो वैसे कंपनी को भी नहीं आ
रही थी। नया राज्य बनने की जिस तपिश को हम नजरअंदाज कर रहे थे वह अचानक तेज
लपटों में हमारे सामने था। शहर में ज्यादातर संख्या उत्तरी बिहार के निवासियों
की थी और नया राज्य बिहार से ही टूटकर बनना था। जाने कैसी हवा थी कि लगता था
कि यदि यह राज्य बना तो सारे बिहारी सड़कों पर भीख माँगेंगे। बिहार के
मुख्यमंत्री ऐलानिया बयान दे चुके थे कि बिहार उनकी लाश पर ही बँट पाएगा।
कंपनी यह तय नहीं कर पा रही थी कि बदली परिस्थिति वह किसको सपोर्ट करे। नए
राज्य के गठन, प्रक्रिया और भविष्य के बारे में आकलन के लिए भी कंपनी के पास
कोई दिमाग नहीं था। कंपनी का जनसंपर्क विभाग उत्तरी बिहार के पूर्व आईपीएस के
एक बिगड़ैल तथा ऐय्याश बेटे के भरोसे था जो अधिसंख्य बिहारियों की तरह माने
बैठा था कि संभवतः नए बनने वाले राज्य में उसकी कोई जगह नहीं होगी। शहर में
बिहारी एकता संघ, बिहार बचाओ समिति, अखंड बिहारी समाज जैसे कई संगठन रातोंरात
खड़े हो गए थे और उनके नेता कंपनी के जनसंपर्क कार्यालय में डेरा डाले रहते।
जिस कॉलेज पर कंपनी ने कभी ध्यान नहीं दिया और भूलकर भी उसके अस्तित्व को नहीं
स्वीकारा, उसी कॉलेज में पढ़ने वाले वे सियार की ट्रेनिंग पाए बेकार और आवारा
छात्र कंपनी की उम्मीदों के चिराग हो गए थे। कंपनी की शह पर कॉलेज में 'अखिल
बिहार छात्रसंघ' नामक स्वयंभू यूनियन खड़ी हो गई थी, जो कॉलेज और शिक्षा को
छोड़कर हर मुद्दे पर फच्चर फँसाने को तैयार रहती। कंपनी ने जीरो प्रतिशत ब्याज
और बिना डाउन पेमेंट के आसान किश्तों पर उसी कॉलेज के युवाओं के लिए बाइक की
योजना लांच की, और देखते देखते लगभग सैकड़ों की संख्या में हीरो होंडा सवार
लड़कों का एक ऐसा दल तैयार हो गया था जो सौ हॉर्स पावर अपनी जाँघों में दबाए
कमर में कट्टा खोंसे, कहीं भी किसी भी मामले में वहशी सायरन बजाते हुए पहुँचकर
हुड़दंग मचाने को तत्पर रहता।
लेकिन कंपनी मामले के दूसरे पहलू पर भी नजर रखे थी। यदि नया राज्य बन ही गया
तो नए राज्य के संभावित कर्ताधर्ता को भी वह नजरअंदाज नहीं कर सकती थी। अपनी
लगातार गिरती वित्तीय स्थिति और घाटे का रोना रोकर अपने कर्मचारियों, मजदूरों
को किसी तरह निकाल बाहर करने को प्रतिबद्ध कंपनी इस मामले में अचानक उदार और
शाहखर्च हो गई थी। यह चर्चा आम थी कि वह जनसंपर्क अधिकारी अपने ऑफिस में नोटों
के बोरे के साथ बैठता था, और अपने मिलनेवालों में हुड़दंग मचाने की हैसियत के
मुताबिक दिन भर नोट बाँटा करता था। दरअसल नए राज्य के बनने न बनने से कंपनी को
कोई मतलब नहीं था। मतलब था तो इस सवाल से, कि क्या नई परिस्थिति में उसकी
हैसियत बरकरार रह पाएगी। हैसियत मतलब स्वायत्त हैसियत जहाँ वह बिना नगर
पालिका, नगर निगम, जिला परिषद के, कंपनी सोशल रिस्पांसबिलिटी (सी.एस.आर.) का
मुखौटा पहने करोड़ों रुपये के टैक्स की हेराफेरी कर सके। इस शहर का
सर्वेसर्वा, नियंता खुश, और खुदमुख्तार की हैसियत में था। उसे अपनी इस हैसियत
से प्यार था, उसे अपनी इस नायाब चोरी पर नाज था, और कोई भी राज्य हो उसे अपनी
यह स्वायत्त हैसियत कायम रखनी थी।
लेकिन शहर और उसके आसपास के इलाकों से आ रही खबरें कंपनी को बहुत आश्वस्त नहीं
रहने दे रही थीं। जुगसलाई, कागल नगर, बिरसा नगर, बागुनहातु जैसे इलाके जहाँ से
पहले हम अपने शहर की सुविधाओं पर रश्क करते नाक पर रूमाल रखकर चलते थे, अचानक
से नई राजनीति के सेतु हो गए थे। इन मोहल्लों में बसने वाले लोगों में एक नई
आशा, नई आकांक्षा उभार ले रही थी, और लोगबाग अपनी चर्चा में इस बात पर मुतमईन
थे कि नया राज्य बनते ही, कंपनी की लीज व्यवस्था से उन्हें आजादी मिल जाएगी और
उनके घर जो अभी तक कंपनी की लीज की मोहलत के मोहताज हैं, अब उनके पक्के
मालिकाना हक में आ जाएँगे। दरअसल समूचे शहर की जमीन को कंपनी ने खुद सरकार से
अनंत काल की लीज पर ले रखा था, और यहाँ के बाशिंदों को वह 'सबलीज' पर रहने दे
रही थी, मतलब जब भी कंपनी को उन जमीनों की जरूरत हो, वह लीज खत्म होने का
बहाना बनाकर उन जमीनों पर कब्जा कर सकती थी। नया राज्य बन जाने से कंपनी की वह
जमींदारी नहीं चल पाएगी, इस भरोसे ने आसपास के इलाकों में 'लगभग उलगुलान' जैसा
माहौल पैदा कर दिया था। कंपनी का रोज एक नया चेहरा सबके सामने उद्घाटित हो रहा
था। लोग यह जानकर हैरान थे कि कंपनी अपने इन आसपास के मोहल्लों में नगर निगम
नगर परिषद के अधिकारियों को अपने इलाके में विकास न करने के लिए मोटी रकम देती
थी ताकि उनकी बदहाली और बदइंतजामी के बरक्स अपने नियंत्रण वाले हिस्से की
चमकदार और रंगीन छवि का ढिंढोरा पीटा जा सके, और यहाँ के निवासियों में नगर
निगम बनने के नाम से ही जड़ैया बुखार आ जाए।
मेरा अखबार सांध्य सनसनी ऐसे रहस्योद्घाटनों का मुखपत्र बनता जा रहा था। बहुत
ही कम लागत से निकलने वाला यह अखबार सिर्फ अपनी सनसनीखेज हेडलाइंस के दम पर
रातोंरात कंपनी से बारगेन कर सकने वाली स्थिति में आ गया था। अखबार बेचने का
धंधा करने वाले मेरे निरक्षर मालिक प्रकाशक को पता था कि शहर के बाहर बड़े
शहरों में अखबार मालिकों के बहुत बड़े बड़े धंधे हैं। वे कागज, कोयला, स्टील,
तस्करी, कई तरह के उद्योगों में लिप्त उद्योगपति हैं। उसे अब अपना धंधा छोटा
लगने लगा था, आखिर वह भी एक अखबार का मालिक था, और उसके चमचे बताते थे कि उन
बड़े अखबार के मालिकों ने सरकार के खिलाफ इसी तरह की खबरें छापकर अपने धंधों
के लिए सहूलियतें हासिल की थीं। ठीक है कि सरकार उसका अखबार नहीं पढ़ती है
लेकिन कंपनी तो पढ़ती है, उसे अब कंपनी से वही सब सहूलियतें चाहिए थीं जो बड़े
अखबार के मालिक सरकार से हासिल करते रहे थे। इस 'बारगेन' में वह किसी भी हद तक
जाने को तैयार था। कंपनी के खिलाफ या उसे धमकाने वाली किसी भी खबर को छापने के
लिए वह कोई भी खतरा उठाने को तैयार था। उसके अखबार में काम करनेवाले मेरे सभी
सहकर्मी पत्रकार दिन रात कंपनी के खिलाफ कोई 'स्कूप' निकालने की जुगत में
भिड़े रहते। एक तगड़े 'स्कूप' से किसी की भी किस्मत अखबार में रातोंरात पलट जा
सकती थी। ऐसे में जब मैंने भी एक दिन लंबी छलाँग मारने की जुगत में उसे
'चुमनूं बोदरा' का किस्सा बताया कि किस तरह पुरानी जमीन पर ही कंपनी का
अधिकांश हिस्सा बना है, तो वह जैसे खुशी से उछल पड़ा। उसने मुझे तुरंत
उपसंपादक बना देने का वचन देते हुए 'स्टोरी' लिखने को कहा। विफलताओं के मीलों
पसरे उजाड़ और बियाबाँ में अचानक दिख गए किसी गुप्त खजाने के मार्ग जैसे
रोमांच से भरकर मैंने वह 'स्टोरी' फाइल की। उसमें मैंने चुमनूं बोदरा की
लड़ाई, कंपनी के जुल्म और अभी उसके कुलदेवता से बात करने जैसा सारा रोमांच
उड़ेल कर रख दिया। मुझे अब सफलता के खजाने की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ साफ साफ
दिखाई दे रही थीं। मामा ठीक कहता था, यह समय कागज के इसी टुकड़े 'अखबार' का
समय था। केवल आँकड़ों वाली बात वह ठीक से नहीं समझ पाया था। आज भी अक्षर ही
अपनी ताकत से लोगों को उठाते गिराते हैं।
दोपहर में यह खबर छपी जरूर लेकिन मेरी लिखी हुई नहीं। 'चुमनूं बोदरा करेगा
अपनी जमीन पर दावा' नामक इस शीर्षक से जो खबर छपी थी, उसमें मेरी केवल इस
सूचना का इस्तेमाल था कि 'कंपनी की जमीन पहले किसी चुमनूं बोदरा के नाम पर थी।
बाकी की खबर में यह तफसील थी कि नया राज्य बन जाने के बाद 'चुमनूं बोदरा' नई
सरकार से अपनी जमीन वापस पाने के लिए नालिश करेगा। उस खबर में 'मंगल भुइयाँ'
नाम के किसी आदिवासी नेता के बयान का बॉक्स भी छपा था कि नया राज्य बन जाने के
बाद 'चुमनूं बोदरा' के प्रति किए गए अन्याय का हिसाब किया जाएगा। खबर में मेरी
लिखी एक भी पंक्ति नहीं थी, लेकिन वह छापी गई थी मेरे ही 'बाय लाईन' से।
मैं थोड़ी नाराज शक्ल लिए जब अखबार के दफ्तर में दाखिल हुआ तो मालिक ने मेरी
पीठ पर धौंस जमाते हुए पुचकारा - वाह, पट्ठे कमाल कर दिया तूने। मैंने पुनपुना
कर प्रतिवाद करना चाहा कि यह सब तो मैंने लिखा ही नहीं। तो उसने जैसे समझाने
के से अंदाज में कहा - तुम्हारी खबर थी बेटा। केवल तुमको लिखना नहीं आता था।
इसलिए दूसरे से लिखवाया। दुनिया में सूचनाओं की कोई अहमियत नहीं होती, अहमियत
होती है उस सूचना में दिए सनसनी की। एक अँगूठा छाप, कबाड़ी बाकायदा मीडिया
विशेषज्ञ की तरह का सिद्धांत पेश कर रहा था। मैं विभ्रम में था। ठीक है, खबर
मेरी नहीं थी, लेकिन वह छपी मेरे ही नाम से थी। एक बार छपी है तो आगे भी
छपेगी। अभी हाल ही कॉलेज में पढ़ाई गई कविता की एक पंक्ति जैसे मेरे सामने
मूर्तिमान हो उठी थी, वसंत सेना! तुम्हें सीढ़ियों का रहस्य मालूम नहीं। ये एक
बार शुरू होती हैं तो खत्म होने का नाम नहीं लेतीं।
लेकिन मैं चाहे जितना खुश होना चाहता था, अंदर से एक कचोट सी भी उठती थी। यह
मैंने बीर सिंह के साथ अच्छा नहीं किया। एक शर्म, एक झिझक सी भी मचलती थी कि
कॉलेज में उससे नजरें कैसे मिला पाऊँगा अपने तई एक तर्क सा गढ़ता कि आखिर इस
खबर में कुछ गलत तो नहीं ही है, यह तो उसके हक की लड़ाई की ही बात है। जब मैं
कॉलेज पहुँचा, तो बीर सिंह पहले की ही तरह मिला। उसने वह खबर पढ़ी ही नहीं थी,
वह खबर ही क्यों, वह जहाँ रहता था, वहाँ कोई अखबार पहुँचता ही नहीं था और वहाँ
कोई अखबार पढ़ता भी नहीं था।
मैं बेकार ही डर रहा था। उस खबर को पढ़ा तो कई लोगों ने था, लेकिन मेरे नाम को
शायद ही किसी ने नोटिस किया हो। यहाँ तक कि मेरे घर और मोहल्लेवालों ने भी।
वैसे भी उस अखबार की मियाद दो घंटे की थी। मैं मन ही मन मुस्कराया, जिन खबरों
के बलबूते मेरा मालिक कंपनी से बारगेन कर उसका कोई बड़ा ठेका या ऑर्डर हथियाना
चाहता था, उस खबर के छपे हुए अखबार पर वहाँ शायद ही ही कोई भजिया भी खाता
होगा।
लेकिन यहाँ मैं गलत था। कंपनी अपने खिलाफ छपे एक एक अक्षर के प्रति चौकस थी।
वह अपने पक्ष विपक्ष में छपी खबरों का रिकार्ड भी रखती थी, लेकिन मीटिंग अपने
विपक्ष में छपी खबरों पर करती थी। वैसे, इस सूचना या खबर में कोई दम नहीं था।
चुमनूं हो या झुंझनूं कंपनी ने जमीन ली होगी, तो बाकायदा कागज पत्तर भी तो
बनवाए होंगे। फिर लगभग सत्तर साल पहले के किसी दावे पर कंपनी को आज या भविष्य
में किसी परेशानी का सामना करना पड़े, इसकी कल्पना कोई मेरे मालिक जैसा पागल
ही कर सकता था। लेकिन बात नफा नुकसान की नहीं थी। बात उस सूचना की थी कि कोई
'चुमनूं बोदरा' है, जिसका दावा था कि कंपनी उसकी जमीन पर 'अवैध अतिक्रमण' से
बनी है। मतलब कंपनी की बुनियाद, उसका अस्तित्व ही अन्याय और लूट से निर्मित
है। ऐसे में कंपनी के किसी वेलफेयर, किसी कल्याणकारी योजना, या उसके सामाजिक
उत्तरदायित्व का क्या अर्थ रह जाता था सवाल जमीन के मालिकाना हक से विवाद का
नहीं कंपनी के 'एथिक्स' का था, और यह बात कंपनी के ध्यान में थी। यदि
मूलवासियों, आदिवासियों के अस्तित्व और उनकी अस्मिता के नाम पर नए राज्य का
गठन होना था, तो इस तथ्य के स्थापित होने के बाद, उस संभावित राज्य में कंपनी
की उपस्थिति ही 'अनएथिकल' हो जाती थी।
साथ ही कंपनी अपने पैसों से उत्तर बिहार के लोगों को तो साध ले रही थी और इस
मामले में वह सरकार की आँख का तारा थी, लेकिन यदि ऊँट गलत करवट बैठ गया तो वह
नई सरकार की आँख की किरकिरी हो जाती। इस आशंका के मद्देनजर वह चाहती थी कि
उसकी चाँदी जूते की मार कुछ आदिवासी भी खाएँ। आदिवासी नेता कंपनी की चमकदमक और
चकाचौंध से उस तक पहुँचने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और कंपनी के पास
आदिवासियों तक पहुँचने की कोई ठोस योजना नहीं थी।
ऐसे में इस खबर ने कंपनी के लिए 'अंधे के हाथ लगी बटेर' का काम किया था, और
उसने बाकायदा उस बटेर की दावत परोस दी। उसने एक प्रेस कान्फ्रेंस आयोजित की और
इस बात का ऐलान किया कि कंपनी के दस्तावेजों में इस बात के सबूत हैं कि वाकई
जमीन अधिग्रहण के समय घोषित मुआवजे के कई लाभार्थियों तक वह रकम नहीं पहुँच
पाई थी। कंपनी अपने काफी प्रयासों के बावजूद उन लोगों तक उनका हक पहुँचाने में
नाकाम रही। इसलिए उन लाभार्थियों का कोई भी वारिस यदि कोई प्रमाण प्रस्तुत
करता है तो कंपनी उसका आज की कीमत में मुआवजा भरने को तैयार है।
उस प्रेस कान्फ्रेंस में अपने मालिक के साथ मैं भी मौजूद था। मालिक के उकसाने
और सिखाने पर मैंने उस अधिकारी से पूछा कि आखिर इतने वर्षों बाद कंपनी की नींद
क्यों खुली है पहले उसने ऐसा कोई प्रयास क्यों नहीं किया। तो वह अधिकारी मेरा
और मेरे अखबार का परिचय जानकर हमें धन्यवाद और शुभकामनाएँ देने लगा। भरी प्रेस
कान्फ्रेंस में यह ऐलान किया कि हमारी खबर पढ़कर ही कंपनी ने एक उच्चस्तरीय
बैठक में यह फैसला लिया गया है, और इस खबर के लिए कंपनी वाकई हमारी शुक्रगुजार
है। अधिकारी की ऐसी आत्मस्वीकृति और साफगोई से मेरा मालिक अकबका गया। कहीं भरी
प्रेस कान्फ्रेंस में उससे ही चुमनूं बोदरा के बारे में जवाब तलब न होने लगे,
इसी आशंका से वह 'बाकी तुम देख लेना।' फुसफुसाता हुआ वहाँ से खिसक लिया।
लेकिन वहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि कान्फ्रेंस खत्म होने के बाद वह अधिकारी
बड़ी गर्मजोशी से मुझसे मिला और बड़ी आत्मीयता से मेरी निजी मालूमात हासिल
करने लगा। यह जानकर कि मेरे पिताजी इसी कंपनी के वर्कर हैं, वह और दुगुने
उत्साह में आ गया और अपने मातहतों से, मुझे 'घर का आदमी' कहकर मिलवाने लगा। वह
जिस आत्मीयता से मेरा कंधा पकड़े मुझे जिन ऑफीसर्स से मिलवा रहा था, उसके
प्रताप से, मिलने वाले अधिकारी मेरे सम्मान में दुहरे हुए जा रहे थे। वे
अधिकारी उस जनसंपर्क अधिकारी के मातहत थे जरूर लेकिन अपनी हैसियत में वे इतने
बड़े थे कि मेरे पिता वर्षों कोशिश कर भी इनमें से किसी से नहीं मिल पाते।
काश! मेरे पिता यह दृश्य, यह जलवा देख पाते। मैं एक दीर्घ नशे और उसके भारी
खुमार में घर पहुँचा। क्या वाकई वसंतसेना के लिए सीढ़ियाँ शुरू हो गई थीं।
सीढ़ियाँ तो शुरू हो ही गई थीं, लेकिन वे ऊपर जा रही थीं या नीचे, मैं तय नहीं
कर पा रहा था। मेरे अखबार में उस प्रेस कान्फ्रेंस के बाबत कोई खबर नहीं छपी।
बल्कि अगले दिन 'खैरात नहीं, हक लेंगे : बोदरा की चुनौती' शीर्षक से हेडलाइन
छपी जिसका क्रेडिट लाइन भी मुझे ही दिया गया था। उस खबर में चुमनूं बोदरा के
हवाले से यह दावा किया गया था कि मुआवजा देने की घोषणा कंपनी की नौटंकी के
अलावा कुछ नहीं है। साथ ही हक नहीं मिलने की सूरत में कंपनी को देख लेने की
बात भी उसमें कही गई थी। मैं लगभग प्रतिवाद करने जब मालिक के पास पहुँचा तो
उसने बड़ी मुलायमियत से कहा कि दरअसल एक ही संवाददाता के नाम से जब खबरें छपती
हैं, तो खबर की विश्वसनीयता बनती है। इससे लोगों को खोजी पत्रकारिता का अहसास
होता है और उन्हें लगता है कि खबर की सही फॉलोअप की गई है।
अखबार की विश्वसनीयता के चक्कर में मेरी विश्वसनीयता की धज्जियाँ उड़ रही थीं।
ठीक है, बीर सिंह ने आज का भी अखबार नहीं पढ़ा होगा, लेकिन फॉलोअप वाली बात से
तो जाहिर था कि यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। बोदरा के रूप में मालिक को जैसे
कोई मोहरा मिल गया था, जिससे वह किसी कीमत पर कंपनी को मात देना चाह रहा था।
मामला वाकई मोहरे जैसा ही था। कंपनी में एक से एक तीसमार खाँ बैठे थे। उनके
दिमाग और षड्यंत्र के आगे मेरे अनपढ़ मालिक की क्या बिसात लेकिन अब तक के अपने
दाँव से मालिक ने भी अपने अनाड़ी होने का सबूत नहीं दिया था। कंपनी जब अपने
सभी जी हुजूरों को टुकड़े फेंक रही थी, तो मालिक को भी उसका चाहा मिल जाने में
उसे कोई उज्र नहीं होता, लेकिन मालिक के तरीके संभवतः कंपनी को रास नहीं आ रहे
थे। कंपनी को देने से शायद गुरेज नहीं था, लेकिन वह माँगने वाले को देती थी।
यहाँ तक कि सरकार भी अपने नुमाइंदे भेजकर उससे कुछ माँगने के ही जुगाड़ में
रहती। और यहाँ मालिक न जाने किस गुंताले में कंपनी से कुछ छीनता चाह रहा था।
मैं दम साधे इस खेल का दर्शक बना रहना चाहता था, लेकिन मैं तो स्वयं एक प्यादा
बन गया था। वो तो अच्छा हुआ था उस दिन कि मैंने उतावलेपन और जोश में उस
अधिकारी को अपने पिता का डिपार्टमेंट और नाम नहीं बताया था नहीं तो आज हम सब
सड़क पर होते। एक अनहोनी जैसे सिर्फ छूकर निकल गई थी। मेरा दिल बैठा जाता था।
कंपनी के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था। वह चाह ले तो, पाताल से लोगों को ढूँढ़
ले। फिर मेरे पिता की पहचान उसके लिए क्या मुश्किल थी। वह तो चुमनूं बोदरा को
भी अब तक ढूँढ़ निकाल चुकी होगी।
लेकिन ये खेल इतना सीधा और सरल नहीं था। कंपनी शायद इसमें मजा लेने लगी थी। वह
इसे और जटिल और मसालेदार बनाना चाह रही थी। थोड़े दिनों की चुप्पी के बाद शहर
के दूसरे अखबारों की हेडलाइंस थी - 'कंपनी ने चुमनूं बोदरा के बेटों को
नौकरियाँ दीं। साथ में कंपनी के जनरल मैनेजर की मुस्कराती फोटो थी, जिसमें वे
दो लगभग अधेड़ आदिवासियों को नियुक्ति का प्रमाणपत्र सौंप रहे थे। उस दिन उन
अखबारों में और कोई खबर नहीं छपी थी। सारे पन्नों पर कंपनी का 'कस्टमर फर्स्ट'
का विज्ञापन छपा था। अंदर की खबर थी कि उस दिन विज्ञापनों की दर आम दिनों से
दोगुनी थी।
कंपनी के इस दाँव से मेरा मालिक सनाके में था। दिमाग तो मेरा भी चक्कर खा गया
था। मैं जानता था कि कंपनी झूठ बोल रही थी। चुमनूं का एक ही बेटा था - बीर
सिंह बोदरा का बाप और वह बीर सिंह के मुताबिक मर चुका था। यहाँ उसके दो दो
जिंदा जवान बेटे कंपनी से अपना मुआवजा ससम्मान वसूल रहे थे। झूठ तो हमने भी
बोला था, लेकिन हमारा झूठ सच की थोड़ी परछाईं लिए था। कंपनी साफ और खुला झूठ
बोल रही थी, लेकिन वह ताकतवर थी, इसलिए उसका झूठ भी हमारे झूठ से ताकतवर था।
मालिक का दिमाग काम नहीं कर रहा था। बोदरा के हवाले से अब कोई और खबर छपने का
मतलब था कंपनी से सीधे युद्ध का ऐलान करना। मालिक जानता था कि कंपनी ने ऐसा
जाल बुना होगा कि अब एक भी खबर छपने से अखबार पर सीधा मुकदमा और मुकदमा भी
क्या सीधे मुकदमे का फैसला। अखबार का शटर बंद और मालिक सीखचों में।
एक ही तरीका था कि असली चुमनूं बोदरा हाथ आ जाए तो बाजी पलट सकती थी। लेकिन
चूमनूं तक पहुँचने का जरिया केवल वीरसिंह बोदरा था। और अब तक की मेरी
कारस्तानी मुझे उससे नजरें मिलाने की इजाजत नहीं देती थी। उसने बताया जरूर था
कि उसका बाबा दलमा पर कहीं झोपड़ी बनाकर रहता है, लेकिन इतने बड़े पहाड़ पर,
इतने घने जंगलों में उसकी झोपड़ी कहाँ होगी, यह शिनाख्त मुश्किल थी। कंपनी पर
मेरा गुस्सा भी कम नहीं हो रहा था। एक तरफ तो वह मेरे पिता जैसे वर्करों को
बिना मुआवजा धक्के देकर निकाल बाहर करने पर उतारू थी, वहीं झूठ मूठ के मुआवजे
का स्वाँग रचकर न जाने किसे मालामाल करने पर तुली थी। उसकी ऐसी ढिठाई बर्छी
बनकर चुभ रही थी। बीर सिंह मुझे इस पीड़ा, बदले की इस आग से निजात दिला सकता
था। यदि केवल एक बार वह अपने बाबा को लेकर हमारे अखबार के दफ्तर में चला आए।
बस कंपनी की निजामशाही जाते देर नहीं लगेगी। कंपनी का झूठ उसके ही मुँह पर थूक
बनकर गिरेगा।
बहुत सोच विचार कर मैंने बीर सिंह से सब सच सच बताने का ठान लिया। क्या होगा
अधिक से अधिक नाराज होगा लेकिन किस बात पर ठीक है, मैंने उसे यह सब बिना बताए
किया, लेकिन वह भी तो आखिर अपने हक की ही बात करता था। मैंने भी तो उसके हक की
ही बात उठाई थी। अब जब हक मिलने की बात थी, तो कंपनी अपनी असली औकात पर उतर आई
है। चलो हम आगे बढ़ते हैं और कंपनी से अपना हक ले लेते हैं।
अपने मन में यही सब तर्क वितर्क करता हुआ मैं कई दिनों तक बीर सिंह को कॉलेज
में ढूँढ़ता रहा। लेकिन उसका कहीं पता नहीं चल पा रहा था। मेरी तरह कॉलेज में
उसका भी कोई दोस्त नहीं था, जिससे उसके बारे में कुछ पूछा जा सके। मन में कई
तरह की शंकाएँ पनपती थीं कि कहीं मुआवजे के चक्कर में उसका कुछ हो हवा न गया
हो। यदि ऐसा कुछ था तो इसके लिए सीधे सीधे मैं ही जिम्मेवार था। मैं यह भी
नहीं जानता था कि वह रहता कहाँ है, ताकि उसके घर पर ही उससे मिल लूँ। कॉलेज के
ऑफिस से उसका पता मिल सकता था। पूछने पर पता चला कुछ दिन पहले उसने अपना
टी.सी. निकाल लिया। रिकॉर्ड में उसका स्थायी पता लिखा था - 'बुं तमाड़'। मैं
जानता था, यह बिरसा मुंडा का पता था।
बीर सिंह से मिलने की तमाम उम्मीदें टूट चुकी थीं। मैं भी धीरे धीरे अपने
पुराने ढर्रे में लौटने लगा। मेरा मालिक अब किसी नए स्कूप की तलाश में था। वह
कंपनी के हर नुक्स को हेडलाइन बनाकर छपता था। लोगों की रुचि धीरे धीरे उस
अखबार में कम होने लगी। एक दिन तो हमारे अखबार में यह भी हेडलाइन बनकर छपा -
'कंपनी का हूटर खराब, जनता की नींद हराम। दरअसल कंपनी हर साल ३१ दिसंबर को नए
साल के आगमन पर रात के बारह बजे अपना टूटर बजाती थी, लेकिन एक दिन अचानक एक
बजे उसके ब्लास्ट फर्नेस का हूटर जोर जोर से बजने लगा। लोग किसी अनहोनी की
आशंका से हड़बड़ा कर जाग गए थे। लेकिन थोड़ी ही देर में सब शांत भी हो गया था।
कंपनी हमारे अखबार के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गई थी। अगले दिन सभी
अखबारों में छपा था कि 'हूटर बजने की जाँच की जा रही है, लेकिन प्रारंभिक जाँच
में हूटर में कोई खराबी नहीं पाई गई थी। शहर को इन बातों से कोई मतलब नहीं था।
मेरा और मेरे शहर का रोमांच धीरे धीरे यूँ ही खतम हो रहा था, और मैं अब एक दिन
यूँ ही अपने मालिक के साथ बैठकर कंपनी के खिलाफ किसी नए स्कूप पर मगजमारी कर
रहा था तो अचानक से मैं जैसे उछल पड़ा। सामने बीर सिंह बोदरा खड़ा था। उसकी
हालत देखकर एकबारगी मैं सहम गया। उसका आबनूसी रंग जैसे और स्याह हो गया था, उस
पर उसकी जलती हुई लाल लाल आँखें जैसे 'जलते कोयले' का आभास दे रही थीं। उसकी
साँसों की तेज तपिश से मेरा अस्तित्व जैसे झुलस रहा था।
- ये क्या किया तुमने उसकी आवाज ऐसी कातर, ऐसी करुण, ऐसी हताश लेकिन ऐसी कड़क
थी कि मेरी घिग्घी बँध गई। उसके हाथ में मेरे नाम से छपे अखबार के पन्ने
फड़फड़ा रहे थे।
- मैंने... मैंने तो तुम्हारे हक की बात... मैंने हकलाते हुए कहना चाहा।
हक अरे जब तुम लोकोन का जमीर ही नहीं है, तो तुम लोग हक का बात कैसे करता हे
रे? हक जानता है तुम लोग? तुम लोग केवल हत्यारा है... मेरे बाबा को भी मार
डाला तुम लोगों ने। वह अचानक सुबक पड़ा। मैं उससे जबरदस्ती लिपट गया। बड़ी
मुश्किल से उसने बताया कि उसके बाबा इस खबर को सुनने के बाद उस रात बड़ी देर
तक अपने कुलदेवता से बात करते रहे थे, और बात करते करते ही खून की उल्टियाँ
करते हुए मर गए। मेरे साथ साथ मेरे मालिक के भी रोएँ खड़े हो गए। यह जानकर कि
यह वही रात थी जब कंपनी के हूटर अपने आप बजने लगे थे।
मैंने मालिक से कभी बीर सिंह का जिक्र नहीं किया था, लेकिन वह पलक झपकते ही सब
समझ चुका था। वह लगभग बीर सिंह को पकड़कर गिड़गिड़ाने लगा था - एक बार तुम
हमारा साथ तो दो। देखो हम क्या करते हैं। तुम्हारे हक की लड़ाई...
मालिक के शब्द उसके मुँह में ही रह गए थे। 'साला तुम दिकू लोग हमारा हक का बात
करेगा? हम लोकोन को पता है अपना हक किससे और कैसे लेना है। थू है रे साला तुम
लोकोन पर। वह लगभग हमारे वजूद पर थूकता वहाँ से चला गया।
अगले दिन मालिक मुझे लेकर कंपनी के जनरल ऑफिस पहुँचा। वहाँ उसने उस अय्याश और
डरपोक जनसंपर्क अधिकारी से 'चुमनूं बोदरा' के बारे में तफसील से चर्चा की।
मुझे गवाह की तरह पेश किया। हूटर वाली घटना की तरफ उसका ध्यान दिलाया। मैं गौर
कर रहा था, मालिक के बयान से उस अधिकारी का रंग उड़ता जा रहा था। अंत तक उसने
मालिक की शर्तों पर घुटने टेक दिए, मुझे भी कुछ हिस्सा देने की बात उठी, तो
मैंने अपने पिता को 'पूल' में डाले जाने का जिक्र किया। उसने मुझे आश्वस्त
किया और एक सप्ताह के भीतर भीतर मेरे पिता न सिर्फ अपने डिपार्टमेंट में वापस
थे, बल्कि अच्छे स्वास्थ्य के आधार पर एक साल का एक्सटेंशन भी उन्हें दिया गया
था। पिताजी इसे अपने पूजा पाठ का प्रताप मान रहे थे, केवल माँ ही थी जो
मुस्कराकर उन्हें समझा रही थी कि यह सब अच्छे कर्मों का फल है, तभी तो हमारा
छोटा इतना संस्कारी और गुणी है।
हम सबने जैसे अपना हक प्राप्त कर लिया था। लेकिन थोड़े ही दिनों में कई ऐसी
घटनाएँ घटीं जो कंपनी के हक में अच्छी नहीं थीं। कंपनी में अधिकारियों का एक
दल दलमा में चुमनूं बोदरा के ठिकाने की तलाश में गया था, ताकि वहाँ कंपनी उसकी
याद में एक भव्य स्मारक बनवा सके, लेकिन वहाँ हाथियों के एक झुंड ने उन्हें
खदेड़ डाला। कंपनी के दो अधिकारी हाथियों द्वारा कुचलकर मार डाले गए। वे
'बोदरा' जो मुआवजे के तौर पर कंपनी में नियुक्त हुए थे, उनमें से एक दिन
दहाड़े साक्ची गोलचक्कर पर चाकुओं से गोद डाला गया। प्रत्यक्षदर्शियों के
अनुसार, उसे मारने वाला कोई नहीं था, वह खुद ही चौराहे पर अपने शरीर में सपासप
छुरे घोंप रहा था, और लोगों से खुद को बचाने की प्रार्थना कर रहा था।
मेरा मालिक इस अफवाह से इत्तफाक नहीं रखता था। उसने अपने अखबार में 'मुआवजे के
लिए हुई हत्या' शीर्षक से इसे हेडलाइन के तौर पर छापा था, और इसके लिए 'बीर
सिंह बोदरा' को जिम्मेवार बताया था। उस खबर के मुताबिक कोई बीर सिंह बोदरा था,
जो असली बोदरा होने का दावा करता हुआ इस तरह का वहशी कारनामा करने पर आमादा
था। वह इस खबर में भी मेरा नाम डालना चाहता था, लेकिन मैं अखबार से इस्तीफा दे
चुका था। मेरी स्थिति लगभग सुधर चुकी थी और पिताजी इस बात पर राजी हो गए थे कि
मैं आगे की पढ़ाई के लिए बनारस चला जाऊँ।
इस खबर के बाद उस अखबार का ग्राफ फिर से बढ़ गया था। इसके बाद तो शहर में जो
भी घटनाएँ, दुर्घटनाएँ हुईं, उस अखबार ने उसके लिए सिर्फ और सिर्फ 'बीर सिंह
बोदरा' को जिम्मेवार बताया। मेरे बनारस जाते जाते उस शहर में पाँच हत्याएँ
हुईं, जिसमें एक यूनियन लीडर भी था। 'सांध्य सनसनी' के मुताबिक सब हत्याएँ
'बोदरा' ने की थीं। धीरे धीरे अन्य अखबारों में भी बोदरा फोबिया चढ़ गया।
समूचा शहर जैसे शाम को अखबार की ओर टकटकी लगाए देखता रहता कि आज बोदरा ने क्या
किया?
'बोदरा से ही पुलिस ने पूछा बोदरा कहाँ है? 'नहीं लौटेगा बोदरा का भूत',
'व्यापारी को मिली बोदरा की धमकी' जैसे शीर्षक एक दूसरे से होड़ लेते थे।
बोदरा हमारे शहर की रगों में अफीम का नशा बनकर दौड़ रहा था। उसके कारण दूसरे
तरह की राजनीति और सनसनी बाधित हो रही थी। शेयर मार्केट लुढ़का या उछला, नया
राज्य बनने की संभावना, नए राज्य की नीतियाँ, बिहारी कहाँ जाएँगे? जैसे अन्य
रोमांचक सवाल हाशिए पर जा रहे थे। ऐसे में, बहुत मंत्रणा के बाद अखबारों में
खबर छपी - 'मारा गया बोदरा'। एक आदिवासी नेता को टपकाने के लिहाज से उसके घर
में घुसा बीर सिंह बोदरा, आखिर उसके अंगरक्षकों द्वारा मार डाला गया था। अखबार
में मरे हुए बीर सिंह बोदरा की तसवीर भी थी। जो कुचले गए किसी चेहरे की थी।
खबर रोमांचक थी, क्योंकि पुलिसवाले बोदरा की लाश को हताशा में बूटों से रौंद
रहे थे - बहुत तड़पाया था साले ने। मैं आश्वस्त था कि बीर सिंह को कुछ नहीं
हुआ है, क्योंकि उस रात हूटर बजने जैसी कोई घटना नहीं हुई थी। बनारस में रहते
हुए भी मैं माँ से अक्सर पूछ लिया करता हूँ कि क्या कभी रात में अचानक जोर जोर
से 'हूटर' बजने की आवाज आई थी? वह जब तक मना करती है, इस सभ्यता की, इस कंपनी
सभ्यता की नींव के हिलने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है।