तमिल साहित्य में ई. सन् 100 से ई. सन् 500 तक नीति-काव्य का युग माना जाता है। 'तिरुक्कुरल' इसी युग का ग्रंथ है। नीति काव्यों में 'तिरुक्कुरल' महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह ग्रंथ कुरल वेण्बा नामक लघु छंद में रचित है। कुरल दोहे से भी छोटा छंद है। इसके प्रथम चरण में चार तथा द्वितीय चरण में केवल तीन पद होते हैं। कुरल छंद में रचे जाने के कारण इस ग्रंथ का नाम 'तिरुक्कुरल' पड़ा। 'तमिल साहित्य का इतिहास' पुस्तक के लेखक लिखते हैं - "इसके (तिरुक्कुरल के) रचयिता कवि का वास्तविक नाम मालूम नहीं है। उनकी जीवनी का भी सही विवरण प्राप्त नहीं होता है। तिरुवल्लुवर नामक कुनबा या पेशे से संबंधित नाम ही अब चल पड़ा है।"1 आज 'तिरुक्कुरल' के रचयिता तिरुवल्लुवर ही माने जाते हैं और उनकी मूर्तियाँ पूरे तमिलनाडु में बहुत ही सम्मान के साथ लगाई गईं हैं। सभी जाति-धर्म के लोग इस ग्रंथ का सम्मान करते हैं। डॉ. एम. शेषन लिखते हैं - "सभी मानवों के लिए स्वीकृत आचार-संहिता या सदाचारों पर यह ग्रंथ जोर देता है। ईसाई तथा मुसलमान भी इसमें अपने स्वस्थ जीवन के लिए वांछित अनुकूल विचारों और सिद्धांतों को पाकर संतुष्ट होते हैं। जीवन मूल्यों पर जोर देने वाला यह ग्रंथ सभी जातियों, धर्मों के बीच आदर पा चुका है। ...वास्तव में यह न केवल आचार-संहिता या नीति-संहिता है बल्कि जीवन मूल्यों पर जोर देने वाला मार्गदर्शक ग्रंथ भी है।"2 इस ग्रंथ में सभी को अपने जीवन की आचार-संहिता प्राप्त होती है; इसलिए सभी इस ग्रंथ को अपना मानते हैं; पर जैन लोग इस ग्रंथ पर अपना दावा प्रस्तुत करते हैं। इसका आधार वे इस ग्रंथ के प्रथम कुरल को बताते हैं। प्रथम कुरल है -
"अहर मुदल ऍलुत्तेल्लाम आदि
भगवन मुदट्रे उलहु।
अर्थात 'सकल वर्ण अकार से प्रारंभ होते हैं। उसी भाँति सकल विश्व का आदि-स्रोत भगवान है।"3 'आदि भगवन' का अर्थ जैन लोग आदि नाथ से लगाते हैं। तिरुक्कुरल ग्रंथ तीन खंडों में समायोजित है। जिनके नाम हैं - धर्म, अर्थ और काम। चार पुरुषार्थों में से एक मोक्ष का वर्णन इस ग्रंथ में नहीं है; केवल आत्मज्ञान प्रकरण में मुक्ति प्राप्ति का मार्ग सुझाया गया है। तिरुवल्लुवर का विचार रहा होगा यदि धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का निर्वाह ठीक से किया गया तो मोक्ष स्वयं ही प्राप्त हो जाएगा। धर्म, अर्थ और काम खंडों को प्रकरणों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक प्रकरण एक विशेष विषय पर केंद्रित हैं और उनमें 10 कुरल हैं। तिरुक्कुरल में कुल 1330 कुरल हैं। धर्म खंड में कुल 380 कुरल, 38 प्रकरण, अर्थ खंड में 700 कुरल, 70 प्रकरण और काम खंड में 250 कुरल, 25 प्रकरण हैं। तिरुक्कुरल में - "धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की विवेचना करने के कारण इस पुस्तक का दूसरा नाम 'मुप्पाल' (त्रिवर्ग) भी है।"4 एम. शेषन इस ग्रंथ की विशेषता बताते हुए लिखते हैं - "सभी प्रकार के मतवाद से परे हटकर, मानव मन के स्वभावों का सूक्ष्म निरीक्षण-परिशीलन कर केवल सत्य की स्पष्ट व्याख्या करना इस ग्रंथ की बड़ी विशेषता है। किसी भी मतवाद या धर्म के बंधन में न पड़कर जीवन के आधारभूत सत्यों को परखकर उनका स्पष्टीकरण करने की अद्भुत क्षमता इस ग्रंथकार में थी।"5 तिरुवल्लुवर ने अपने ग्रंथ में प्रवृत्ति-मार्ग के महत्व बताते हुए उसे श्रेष्ठ बताया है। भारतीय परंपरा मूलतः प्रवृत्ति मार्गीय ही रही है। प्रवृत्ति मार्ग का आधार गृहस्थ जीवन है। 'गृहस्थ जीवन' शीर्षक प्रकरण में तिरुवल्लुवर ने गृहस्थ जीवन को सर्वोत्तम बताते हुए उसके महत्व एवं कर्तव्यों का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं -
"आट्रिन आलुक्कि अरनिलुक्का इलवालक्कै
नारपारिन् नोंमै उडैत्तु।
अर्थात अपने धर्म का भली-भाँति पालन करने वाला गृहस्थ तपश्चर्या करने वाले संन्यासी से भी उत्कृष्ट होता है।"6 इस कुरल से स्पष्ट होता है कि तिरुवल्लुवर गृहस्थ जीवन अर्थात प्रवृति मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वे 'सहधर्मिणी के गुण' प्रकरण में 10 कुरलों के माध्यम से सहधर्मिणी के गुणों का बड़ी सूक्ष्मता के साथ विस्तार से वर्णन करते हैं। वे लिखते हैं -
"मनैत्तक्क माण्बुडैयल आहित्तऱकोण्डान्
वलत्तक्काल वालक्कैत्तुनै।
अर्थात उत्तम गुणों से संपन्न और अपने पति की आय के अनुरूप घर चलाने वाली गृहणी उत्तम सहधर्मिणी है।"7 वे इसी प्रकरण में कहते हैं कि यदि किसी गृहस्थ की पत्नी उत्तम गृहणी है तो फिर उसे किस वस्तु का अभाव है? यदि गृहणी में ऐसा संस्कार नहीं है तो ऐसे गृहस्थ के जीवन में क्या शेष है? 'संतान प्राप्ति' प्रकरण में वे संतान के कर्तव्यों के साथ पिता के भी कर्तव्यों को बताते हुए कहते हैं कि पुत्र के प्रति पिता का यही कर्तव्य है कि वह उसे विद्वानों की सभा में आगे की पंक्ति में बैठने योग्य बनावे अर्थात पिता को पुत्र को सर्वोत्तम शिक्षा देनी चाहिए। तिरुवल्लुवर दांपत्य संबंधों में प्रेम पर बहुत बल देते हैं - "जिनका गृहस्थ जीवन प्रेममय होता है वे ही जग में सच्चा सुख और समृद्धि पाते हैं।"8 इस प्रकार तिरुवल्लुवर गृहस्थ जीवन के सभी अंगों का बहुत ही मनोरम वर्णन करते हैं। इसके साथ ही धर्म खंड के अंतर्गत ईश वंदना, आत्मसंयम, इंद्रिय-निग्रह, तृष्णा का त्याग, सत्य भाषण, मधुर भाषण, मितभाषण, अहिंसा, मांसाहार निषेध, सदाचार, अपरिग्रह, क्रोध त्याग, बाह्य आडंबर-विरोध, परोपकार, अतिथि सत्कार,दान, कृतज्ञता एवं समदृष्टि, क्षमा, तत्व, ज्ञान, ईश्वर स्वरूप चिंतन, जगत एवं उसकी नश्वरता, कर्म-सिद्वांत आदि विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। तिरुवल्लुवर पीठ पीछे निंदा करने को बहुत अनुचित मानते हैं। वे लिखते हैं -
"अरनलीइ अल्लवै चेय्दलिन तीदे
पुरनलीइप् पोय्त्तु नहै।
अर्थात जो व्यक्ति किसी के सामने हँस-हँसकर बोलता है, परंतु पीठ पीछे बुराई करता है, ऐसा कपटी व्यक्ति अधर्मियों और दुष्कर्म करने वालों से भी अधम है।9 वे धन का सर्वोत्तम निवेश बताते हुए लिखते हैं -
"अट्रार् अलिपशि तीरत्तल् अह्दोरुवन्
पेटान् पोरुल् वैप्पुलि।
अर्थात क्षुधा पीड़ित दरिद्र-जनों की भूख मिटाना धन का सर्वोत्तम निवेश है।"10
तिरुक्कुरल का दूसरा खंड अर्थ है। भारतीय चिंतन धारा में धर्म और अर्थ पर साथ-साथ विचार किया गया है। अर्थ का अर्जन धर्मानुसार किया जाना चाहिए। इस खंड के अंतर्गत तिरुवल्लुवर ने प्रशासन अथवा अधिकारी वर्ग जैसे - राजा, सामंत, दुर्ग, सैन्य, खाद्य, राजदूत, गुप्तचर, मित्र और इनसे जुड़े विषयों का वर्णन किया है। इसके साथ सामान्य समाज का भी विस्तृत वर्णन किया है। तिरुवल्लुवर 'नृपति की महिमा' प्रकरण में लिखते हैं - कि जिस राजा के पास सेना, निष्ठावान प्रजा, कोष, मंत्री, मित्र, दुर्ग - ये छहों अंग होते हैं वह राजाओं में सिंह के समान होता है। निर्भीकता, उदारता, बुद्धिमत्ता, स्फूर्तियुत उत्साह राजा की प्रकृति में होना चाहिए। इसके साथ सतर्कता, विद्या और वीरता होनी चाहिए। उत्तम राजा के विषय में बताते हुए वे लिखते हैं-
"काट्चिक् केलियन् कडुञ्चोल्लन् अल्लनेल्
मीक्कूरुम् मन्नन् निलम।
अर्थात राजा सौम्य हो, प्रजा की उस तक पैठ हो तथा वह मधुर व्यवहार करे तो जग ऐसे राजा की प्रशंसा करेगा।"11 यदि प्रजा की राजा तक पहुँच होगी तो वह अपने सुख-दुख राजा को बता सकेगी और राजा वस्तु स्थिति से अवगत हो उचित निर्णय ले सकेगा। इससे राज्य को सुचारु रूप से चलाने में सहायता मिलेगी।
शिक्षा प्रकरण में शिक्षा का महत्व बताते हुए तिरुवल्लुवर कहते हैं - "जो शिक्षित हैं वे ही सच्चे अर्थों में आँखों वाले हैं। अन्य लोगों के लिए उनकी आँखें चेहरे पर दो व्रणों (घाओं) के समान हैं।"12 पुनः वह शिक्षा को कुल की श्रेष्ठता से बड़ा बताते हैं - "उच्च कुल में उत्पन्न होने पर भी निरक्षर व्यक्ति श्रेष्ठता में उस व्यक्ति की समानता नहीं कर सकता जो नीच कुल में पैदा होने पर भी विद्वान हैं।"13 तिरुवल्लुवर महान व्यक्तियों के मार्गदर्शन को बहुत महत्व देते हैं। वे तिरुक्कुरल में लिखते हैं कि राजा को कुशल एवं बुद्धिमान व्यक्तियों के परामर्श का आदर करना चाहिए, जिससे वह आने वाले संकटों से बच सके और भविष्य में आने वाली विपत्तियों का निराकरण कर सके। वे राजा के लिए सत्य बोलने वाले मित्र और सचिव का महत्व बताते हुए लिखते हैं -
"इडिप्पारै इल्लाद एमरा मन्नन्
केडुप्पा रिलानुम् केडुम।
अर्थात सचेत करने वाले आलोचक मित्र और सचिव जिस शासक के पास नहीं हैं, वह राजा स्वयं विनाश को प्राप्त होता है। उसे नष्ट करने के लिए किसी बाहरी शत्रु की आवश्कता नहीं होती है।"14
किसी भी व्यक्ति पर उसकी संगति का असर पड़ता है जैसी संगति होती है व्यक्ति वैसा ही हो जाता है। तिरुवल्लुवर लिखते हैं - "जिस प्रकार मिट्टी की प्रकृति के अनुसार जल का गुण बदलता है उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति भी अपने संगी-साथियों के गुणों के अनुरूप बदल जाती है।"15 हिंदी साहित्य में दोहा है-
संगति से गुन होत है, संगति से गुन जाइ
बाँस, फाँस औ मीसरी ऐकै भाव बिकाइ।
तिरुवल्लुवर सुशासन की बात करते हुए कहते हैं - अपराधों की जाँच करते समय किसी के प्रति पक्षपात दिखाए बिना, नीतिज्ञों के परामर्श से, सही न्याय करना सुशासन कहलाता है। संत होते हुए भी तिरुवल्लुवर भयंकर अपराध के लिए मृत्युदंड देना उचित मानते हैं - "भयंकर अपराधियों को मृत्युदंड देना उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार खेती की समृद्धि के लिए खर-पतवार को उखाड़ फेकना।"16 यदि समाज को अपराध मुक्त करना है तो अपराधियों में भय उत्पन्न करना आवश्यक है। वे कहते हैं कि जो राजा प्रतिदिन अपराधों की जाँच करके प्रजा का न्याय नहीं करता उसका राज्य दिनों-दिन विनाश के गड्ढे में गिरता है। यह तथ्य आज भी कितना प्रासंगिक है इसमें कोई संदेह नहीं। वे नीति की बात करते हुए सावधान करते हैं - "जिस प्रकार आग तापते समय अग्नि के बहुत पास न जाते, न उससे दूर रहते हैं, चंचलचित्त राजाओं के साथ ऐसा ही व्यवहार करें।"17 उत्तम देश को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं - "देश वही उत्तम है जिसमें अवांछनीय गुटबंदी न हो और जो विनाशकारी आतंरिक शत्रुओं तथा राज्य को विनष्ट करने वाले विश्वासघातियों से रहित हो।"18 इस प्रकार हम देखते हैं कि तिरुवल्लुवर वांछनीय गुटबंदी के विरोध में नहीं हैं। वे मैत्री का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बुद्धिमानों के साथ मैत्री चंद्रकला-सम दिनों दिन वर्धित होती है। किंतु मूर्खों की मित्रता कृष्ण-पक्ष की चंद्रकला-सी दिनों-दिन क्षीण होती है। वे मित्र का कर्तव्य बताते हुए लिखते हैं -
"उडुक्कै इलनदवन् कैपोल आ वाङ्ग्यआङ्गे
इडुक्कण कलैवदाम् नट्पु।
अर्थात शरीर से वस्त्र के खुलने पर जिस तरह हाथ स्वतः आगे बढ़कर उसे थाम लेता है। उसी तरह मित्र पर विपत्ति पड़ने पर तुरंत पहुँचकर उसकी कठिनाई दूर करना ही मित्रता है।"19 तिरुवल्लुवर ने दरिद्रता को अत्यंत दुखदाई बताया है। उनका कहना है कि यदि पूछा जाए कि दरिद्रता के समान दुखदाई वस्तु कौन सी है, तो उत्तर मिलेगा, दरिद्रता के समान पीड़ादायक दरिद्रता ही है। तुलसीदास जी भी कहते हैं कि 'नहिं दरिद्र सम दुख जग माही।' इसके साथ अन्य कई विषयों पर अर्थ खंड में तिरुवल्लुवर ने गहरी संवेदना के साथ प्रकाश डाला है।
'तिरुक्कुरल' का तृतीय खंड काम है। जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और उससे उत्पन्न प्रेम काम के अंतर्गत आता है। 'तोलकाप्पियम' में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए पाँच विभागों का वर्णन किया गया है। ये विभाग है - कुरिंजि (पर्वत क्षेत्र), पालै (शुष्क-क्षेत्र), मुल्लै (वन-क्षेत्र), मरुदम (जल समृद्ध समतल प्रेदश)। इन भू-प्रदेशों के अनुसार प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। कुरिंजि के अंतर्गत अल्पकालीन विरह का वर्णन होता होता है। मुल्लै में दीर्घकालीन विरह का, पालै में दीर्घकालीन वियोग का एवं मरुदम में गृहस्थ जीवन के मधुर प्रणय का वर्णन किया जाता है। काम खंड में - पूर्वराग, मान, मान के प्रकार, वियोग से उत्पन्न व्याकुलता, वियोग के कारण नायिका के अंगों का कृश होना, स्वप्न-मिलन, सांध्यकालीन विरह, स्मरण आदि का वर्णन किया है। इन सबमें 'तोलकाप्पियम' के काव्यशास्त्री मानकों का ध्यान रखा गया है। नायिका का वर्णन करते हुए तिरुवल्लुवर लिखते हैं-
"मुरिमेनि मुत्तम् मुरुवल् वेरि नाट्रम्
वेलुण्कण वेय्त्तोलवट्कु।
अर्थात वंश-सरिस स्कंधों वाली इस ललना की देहकांति पल्लव-सदृश है, दंतपंक्ति मुक्ता सम है, गंध प्राकृतिक है और कजरारे नयन भाले तुल्य हैं।"20 नायिका इसलिए उष्ण पदार्थ नहीं खाती है कि कहीं उसके हृदय में बसे प्रियतम को ताप न लग जाए - "प्रियतम मेरे हृदय में बसे हैं। इसीलिए मैं उष्ण पदार्थ खाने से डरती हूँ। कहीं उन्हें ताप न लग जाए।"21 नायिका इसलिए पलक नहीं झपकाती कि कहीं उसके प्रियतम आँखों से ओझल न हो जाएँ। लोग कहते हैं कि उसके निर्दयी प्रियतम ने उसकी नींद चुरा ली है - "मैं इसलिए पलक नहीं झपकाती कि (उसमें बसे) प्रियतम कहीं ओझल न हो जाएँ। यह जाने बिना लोग उन्हें मेरी नींद चुराने वाला निर्दयी कहते हैं।"22 संध्या समय विरह और अधिक बढ़ जाता है। ऐसा लगता हैं कि संध्या आकर प्राण ही ले लेगी। संध्या का आगमन नायिका को लगता हैं कि - "प्रियतम के अभाव में संध्या ऐसी अनुभव हो रही है जैसे वधस्थल में वधिक आ रहा हो।"23 तिरुवल्लुवर कहते हैं कि प्रेम की पीड़ा सुबह कली की अवस्था में रहती है। दिनभर मुकुलित होती रहती है और शाम को पूर्ण विकसित हो जाती है। काम के आधिक्य के कारण नायिका की लज्जा समाप्त हो रही है। तिरुवल्लुवर लिखते हैं कि - "काम रूपी कुठार मानसिक धैर्य रूपी द्वार पर लगी लज्जा की अर्गला को तोड़ रहा है।"24 तिरुवल्लुवर नायिका की उत्कंठा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि नायिका अपलक नयनों से प्रियतम की बाट जोहती रहती है। इसलिए उसकी आँखों में झाईं पड़ गईं हैं और रेखाएँ खींचकर दिन गिनते-गिनते उसकी उँगलियों घिस गई हैं। यह कुरल इस प्रकार है-
"वालटरुप् पुर्केंर कण्णुम् अवर् चेन्ऱ
नालोट्रित् तेय्न्द विरल्।
अर्थात राह देखते-देखते आँखों में झाईं पड़ गईं हैं और दीवार पर (विरह-दिनों की) रेखा खींचते-खींचते मेरी उँगलियाँ घिस गई हैं।"25 तिरुवल्लुवर कहते हैं कि नायिका लज्जा बस स्पष्ट बात कह नहीं पाती; पर जिस प्रकार माला के मनकों के भीतर से जैसे सूत्र झलकता है; वैसे ही प्रिय के लावण्य के बीच अंतर्निहित संकेत भाषित होते रहते हैं। प्रेम में नायिका के रूठने को मान कहते हैं। तिरुवल्लुवर कहते हैं कि प्रेम में मान, भोजन में नमक की तरह होना चाहिए। संतुलित नमक से भोजन स्वादिष्ट बनता है। इसी तरह मान से प्रेम का आनंद बढ़ जाता है। पर यही मान यदि दीर्घकालीन हो तो प्रेम के आनंद को समाप्त करके मन को कुंठित कर देता है। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार भोजन में नमक अधिक होने पर भोजन का स्वाद नष्ट हो जाता है। इस प्रकार काम खंड में तिरुवल्लुवर ने स्त्री-पुरुष के प्रणय के विभिन्न पक्षों को बड़ी ही सूक्ष्मता से उकेरा है। तिरुवल्लुवर ने धर्म, अर्थ और काम खंडों में जीवन दर्शन, जीवन की आचार संहिता, समाज, नीति, लोक नीति और श्रृंगार का विषद वर्णन किया है। इसीलिए तिरुवल्लुवर की तुलना कबीर, रहीम, बिहारी आदि से की जाती है।
संदर्भ सूची
1. वरदराजन, मु. (अ.एम. शेषन). (1994). तमिल साहित्य का इतिहास. नई दिल्ली : साहित्य अकादेमी. पृष्ठ संख्या-73
2. शेषन, एम. (2003). तमिलनाडु में जैन/बौद्ध धर्म एवं तमिल साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान. दिल्ली : साहित्य सहकार. पृष्ठ संख्या-28
3. महालिंगम ना. (सं.). (1999). तिरुक्कुरल. नई दिल्ली : साहित्य शोध संस्थान. पृष्ठ संख्या-115
4. मीनाक्षिसुंदरन्, टी.पी.(1965). तमिल साहित्य. मद्रास : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा. पृष्ठ संख्या-46
5. शेषन, एम.(2012). तमिल साहित्य: एक परिदृश्य. दिल्ली: अभिव्यक्ति प्रकाशन. पृष्ठ संख्या-51
6. महालिंगम ना. (सं.).(1999). तिरुक्कुरल. नई दिल्ली : साहित्य शोध संस्थान. पृष्ठ संख्या-131
7. वही, पृष्ठ संख्या-132
8. वही, संस्थान. पृष्ठ संख्या-141
9. वही, पृष्ठ संख्या-178
10. वही, पृष्ठ संख्या-193
11. वही, पृष्ठ संख्या-253
12. वही, पृष्ठ संख्या-255
13. वही, पृष्ठ संख्या-161
14. वही, पृष्ठ संख्या-275
15. वही, पृष्ठ संख्या-276
16. वही, पृष्ठ संख्या-311
17. वही, पृष्ठ संख्या-362
18. वही, पृष्ठ संख्या-378
19. वही, पृष्ठ संख्या-397
20. वही, पृष्ठ संख्या-517
21. वही, पृष्ठ संख्या-522
22. वही, पृष्ठ संख्या-522
23. वही, पृष्ठ संख्या-557
24. वही, पृष्ठ संख्या-566
25. वही,पृष्ठ संख्या-570