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कविता

फिर हो जाएँगी जल

विनीता परमार


जल होता ही है
शुद्ध, शीतल, निर्मल
रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन

वो होता ध्यान में लीन तपस्वी सा
नर्मदा, गंगा, यमुना सा पवित्र।

फिर पानी जिसे नहाने योग्य
पीने योग्य
बनाने की कवायद
पानी का खौलाना
एक चित्त की असहमति
जो खारिज करती है,
अंतस की कुलबुलाहट को
फिर भी
खौलते पानी की कुछ बूँदें आश्वस्ति हैं
कि वो भाप बन फिर हो जाएँगी जल।


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