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कविता

नाभिक

विनीता परमार


लहरें उठती हैं
गिरती हैं
छूती हैं किनारे को
लहरों की
अनवरत तपस्या
और केंद्र की चुप्पी।

हताश, पागल, बहका मन
भाग रहा किनारे-किनारे
नाभिक से अलग-थलग हो
ढूँढ़ता फिरता पतवार को।
इलेक्ट्रान भी कहता है
प्रतिक्रिया तो बाहर का खेल है
नाभिक तो सिर्फ तमाशा देखता है
क्योंकि केंद्रक
जब टूटता है,
तब विध्वंस होता है या निर्माण।


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