कविता
निर्वात विनीता परमार
जहाँ तुम थे वहाँ अब एक भग्नावशेष है, जो निर्वात की नींव पर ठहरी थी। जहाँ बना मकान बिन भूकंप, बिन बाढ़ कब ढह गया पता ही ना चला, फिर भी उस निर्वात के अवशेषों पर आज भी गुरुत्व बल को महसूसती हूँ।
हिंदी समय में विनीता परमार की रचनाएँ