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कविता

मेरे मन का शतरंज

विनीता परमार


मेरे मन का शतरंज
चौसठ खानों के बीच
उलझा हुआ
हाँ और ना में
कभी अमावस्या में
पूर्णिमा का अहसास

तो कभी पूर्णिमा में
अमावस्या का अहसास।
तरंगों के प्यादे आगे बढ़ाने में
कभी समान तरंगों के प्यादे से
अहं के ऊँट को निगलते हुए
हाथी की चाल से मात देते हुए
मन के घोड़े को दौड़ाती चली गई

कि अपने प्रेम के वजीर से जीत ही
लूँगी शह और मात का खेल।


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