कोलकाता से चेन्नई के लिए ट्रेन में बैठा था। २४ घंटे का सफर। साथ में दो एक
किताबें रख ली थी। नीचे की बर्थ पाकर संतुष्ट था। सामान लगाया और टीटी से
निपटा तो जाने कहाँ से कोई टपक पड़ा और मेरी बर्थ के अंतिम छोर पर बैठ गया - यह
रिजर्व्ड कोच है, कौन है आप... यहाँ क्यों बैठे हैं? मैं भुनभुनाया। उसने
झपकती आँखों से मुझे देखते हुए विनम्रता से जवाब दिया... भैया खड़गपुर में उतर
जाऊँगा, ढाई घंटे की ही तो बात है। यहाँ बैठ तो सकता हूँ, जनरल बोगी में गया
तो माथा चकरा गया, वहाँ घुस गया तो यह भी गारंटी नहीं कि खड़गपुर में उतर भी
पाऊँगा या नहीं... ऊफ इतनी भीड़... इतनी पसीने की बदबू... इतनी उमस कि उलटी हो
जाए। भेड़ बकरी की तरह आधा भारत ठुँसा हुआ हैं। बदबू मारते लोग, लोग ही लोग।
सीट के ऊपर लोग, सीट के नीचे लोग। बाथरूम भी जाना मुश्किल। बाथरूम के अंदर भी
लोग, बाहर भी लोग।
- इतना आराम चाहिए था तो सीट रिजर्व क्यों नहीं करवा ली?
- भैया अचानक से जाना पड़ रहा है... बोलते बोलते उसका गला भर्रा गया था।
- ठीक है ठीक है... जरा सिकुड़ कर बैठो... मुझे उसकी बनाई कहानी में कोई
दिलचस्पी नहीं थी।
सुबह! फिर वही चिल्ल पों... नींद में सुराख करती आवाजें। ...चाय ...अदरक की
चाय...। गरम गरम चॉप, कटलेट, बडा। मैं भुनभुनाया। नींद टूट चुकी थी। अलसाया
अधमुँदी आँखों से टॉयलेट जाने के लिए चप्पल पहनने लगा तो चप्पल ही नदारद। हे
भगवान कहीं वही तो नहीं ले गया जो सिरहाने बैठा था, और करो दया... सोच रहा था
कि तभी किसी की अटेची के पीछे लावारिस सी पड़ी एक चप्पल पर नजर पड़ी। राहत की
साँस ली... तो दूसरी भी आस पास होगी। पर नहीं दूसरी चप्पल मिली, दरवाजे के
पास, किसी के पाँवों से खिसकते खिसकते पहुँच गई थी।
सोचा किताब पढ़ लूँ तो वह भी मुश्किल। बीच की बर्थ वाला अधजगा करवटें बदल रहा
था जब तक वह नहीं उठ जाता, मैं खुल कर बैठ नहीं सकता था, गर्दन झुका कर पढ़ना
पीड़ादायक था। टकटकी लगाए बीच वाले को देखता रहा, कब उठे... ये दाढ़ी वाला...।
आखिर वो उठा। अपनी बर्थ नीचे गिराई और मेरे समीप आकर बैठ गया, मैं अपनी किताब
में दुबक गया और ऐसा दुबका कि पूरी दोपहर उसी में सिमटा रहा।
ढलती दोपहरिया मैं बाथरूम से आ रहा था कि उस दाढ़ी वाले युवक ने फटी फटी आँखों
से देखते हुए एक उदास मुस्कान मुझ पर फेंकी और आग्रह भरे स्वरों में कहा -
बहुत पढ़ने लिखने वाले लगते हैं। मेरे पास भी एक छोटा सा अफसाना है सुन लीजिए
शायद आपके कुछ काम आ जाए... उसकी उदासी में दिल को पिघला देनेवाला ऐसा कुछ था
कि मैंने मौन सहमति में सर हिलाया। उतरती धूप सीधी उसके मुँह पर पड़ रही थी
इसलिए वह थोड़ा और करीब खिसक आया। पसीने की बूँदों में चिपके बालों पर रूमाल
फिराया उसने और मुझे गौर से देखने लगा जैसे कूदने के पहले कोई सागर की गहराई
नापता है।
आधा कस्बाई, आधा आधुनिक सा दिखता वह युवक। सीट पर पड़े उस दिन के अखबार को परे
सरकाते हुए कहना शुरू किया उसने, ओंठ फड़फड़ाए भर कि फिर एकाएक रुक गया वह, जेब
से एक लंबा सा नीले रंग का लिफाफा निकाला, लिफाफे को बड़ी नजाकत से खोला जैसे
वह दुनिया का सबसे बहुमूल्य लिफाफा हो और बेहद सावधानी से उसके अंदर रखे
पन्नों को खोला जैसे गुलाब की पंखुड़ियों को खोल रहा हो और उसे मेरे सामने रखते
हुए कहा - पहले इसे पढ़ लीजिए... कहानी तो दो मिनट की है और हमारे पास समय अनंत
है। उसकी गंभीरता, उसका दार्शनिक अंदाज... मैं इनकार नहीं कर सका जबकि मेरी
दिलचस्पी उसकी कहानी में ज्यादा थी - पढ़िए, पढ़िए ना... वह मुझे पढ़ने के लिए
उत्साहित कर रहा था।
पहली ही पंक्ति खासी मौजूँ लगी। लिखा था - जब दुखी होने की कोई वजह नहीं तो
मतलब आप सुखी हैं। फिर नीचे कोई तारीख थी, फिर कुछ लिखा गया था, फिर उसे काट
दिया गया था, लेकिन काटा इस प्रकार गया था कि उसे आसानी से पढ़ा जा सकता था।
लिखा था - मुहब्बत के जो भी पहले स्वर फूटे, दुनिया का पहला गीत वही था। लेकिन
जिंदगी की हाय हाय आपको कहाँ इस लायक रहने देती है कि आप मुग्ध हो किसी की
मुहब्बत में डूब जाएँ।
शुभानाल्लाह! यह तो किसी पहुँचे हुए की डायरी लगती है, मैंने खिड़की से सतरंगी
होते आसमान की ओर देखते हुए कहा और सोचने लगा कहीं यह इसी की डायरी तो नहीं?
शब्दों और उच्चारण से भी पढ़ा-लिखा और उत्तर भारत का मालूम देता था, फिर चेन्नई
क्या करने जा रहा है यह?। मैंने सवालिया निगाह से से देखा उसकी ओर... कोई शक्ल
थी इन पत्रों के पीछे जो झाँक रही थी उसकी आँखों के परदे के पीछे से... दीये
की लौ सी... भर्राए गले से कहा उसने - पढ़ते जाइए, आगे और मोती मिलेंगे। इस बार
बड़ा धाँसू लिखा था -
'जब हम ही न महके फिर साहिब
तुम बागे सबा महकाओ तो क्या'
स्लीपर क्लास की चिल्ल-पों, धूल गर्द और गर्मी के बीच उसके पत्र को पढ़ते पढ़ते
लगा जैसे गुलमोहर की छाँव तले आ गया हूँ।
वाह क्या बात है? कौन है यह? मैंने धीरे से फिर पूछा। उसने किसी सिद्ध
निर्देशक की तरह कहा - पढ़ते जाइए ना, आपको सब कुछ बता दूँगा, यह मेरा वादा
रहा। इस बार शब्द आकार में बहुत छोटे थे। लिखा था - हर औरत एक कहानी है... एक
अधूरी कहानी, जो रोज रात में जन्म लेती है और सुबह होते ही मसल दी जाती है।
इतना तो मैं समझ गया था कि ये पन्ने किसी महिला के लिखे हुए हैं। क्या संबंध
हो सकता है इस महिला से इसका? मैं सोच रहा था कि तभी उसने दूसरा पृष्ठ मेरे
सामने खोला, लिखा था - दिन इतने लंबे क्यों होते हैं? फिर उसकी अगली ही पंक्ति
थी - स्याह रात नहीं लेती नाम ढलने का।
एकदम नीचे लिखा था - सो नहीं पाती। उफ कितना दुखद होता है मरे हुए सपनों को
नींद में फड़फड़ाते जिंदा देखना। क्यों आज भी जीवित है वह स्वप्न देखती,
गुनगुनाती, मुस्कुराती षोडसी जो दिन भर टकटकी लगाए देखती है कि शायद आज खत्म
हो इंतजार की घड़ियाँ... पर कितने गहरे होते हैं इंतजार के रंग। जिंदगी का
दूसरा नाम इंतजार...। दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में।
माजरा क्या है, कभी ये मोहतरमा लंबे दिन को कोस रही हैं तो कभी स्याह रात को।
कभी स्वप्नों को। उसने जवाब नहीं दिया और अगली पंक्ति पर उँगली धर दी...।
पढ़िए! मैंने ध्यान से देखा उसके चेहरे की तरफ, उसकी आँखों की कोर में अटकी थी
एक बूँद, शायद उसी में छिपी थी उसकी पूरी कहानी। उसने फिर कहा पढ़िए, प्लीज
पढ़िए न इस पंक्ति को। मैंने पढ़ा, इस बार लाल स्याही में लिखा हुआ था - दिन रात
चलता रहता है एक युद्ध, कभी खुद से तो कभी जमाने से। क्या करूँ इस प्यासी
आत्मा का। इस तड़प का। कोई उस पार से बुलाता है मुझे... उड़ो... उड़ो खुलकर
उड़ो...
किसी पुराने फिल्मी गाने की उदास धुन मेरे भीतर गूँजने लगी थी, साथ ही एक
जिज्ञासा भी, कौन थी वह? जोर देकर कहा मैंने - देखो जब तक नहीं बताओगे कौन है
यह, क्या संबंध है तुम्हारा इस महिला से? मुझे इन पत्रों में कोई दिलचस्पी
नहीं जगेगी।
'गरम गरम ताजा इडली...। सांभर बड़ा...।' इडली वाला कान के पास खड़ा चीख रहा था।
मुझे भी खाने की इच्छा हो रही थी। आगे बड़ा स्टेशन पूरे दो घंटे बाद था। मैंने
पूछा उस दाढ़ी वाले से - खाएँगे? उसने मुंडी हिला दी। जाहिर था कि उसकी पूरी
चेतना कागज के उन तीन पन्नों में दबी पड़ी थी। मैंने इडली परे सरका दी - बाद
में खा लूँगा, आप जारी रखें। उसके चेहरे पर संतोष के भाव उभरे। इधर उधर ताका
उसने कि कोई और तो नहीं सुन रहा उसकी कहानी। बाकि दूसरे लोग अपने में व्यस्त
थे। आश्वस्त हो वह थोड़ा और पास खिसक आया। फिर कहना शुरू किया उसने - जब पहली
बार देखा था मैंने उसे तो वह मुझे एक फुदकती हुई चिड़िया सी लगी थी।
- वह! वह कौन? कुछ कुछ अंदाज मुझे लग गया था... फिर भी पूछा मैंने।
- वही जिसकी डायरी पढ़ रहे हैं आप, मेरी पत्नी माधुरी!
- माधुरी? अभी कहाँ है वह?
- उसने ऊपर गर्दन कर आसमान की ओर उँगली तान दी...। वहाँ!
- कैसे? कब? क्यों?
- क्योंकि उसके हिस्से के दस मिनट नहीं दे सका मैं उसे।
- अब जलेबियाँ मत छानो, जो कहना हो साफ साफ और खुलकर कहो... सच्चाई जानने को
मरा जा रहा था मैं।
उसका पहला वाक्य ही मेरी छाती पर घूँसे की तरह पड़ा - ठीक जब आप जिंदगी के जादू
को महसूसना शुरू करते हैं, लहरों पर सबार हो चाँद को छू रहे होते हैं, तभी वह
ऊपरवाला आपको वह पटकनी देता है कि सारी हवा निकल जाती है, आपको भनक भी नहीं
पड़ती कि ठीक आपकी नाक के नीचे आपके घर के भीतर ही मौत के फंदे की तैयारी हो
रही है... मैं भी सर जी ऐसा ही अंधा हो गया था कि दुनिया तो दूर अपने बेडरूम
की सच्चाई भी भाँप नहीं सका। उस देश में प्रवेश तो कर गया जिसे औरत कहते हैं
पर सँभाल नहीं पाया उसे।
क्या? क्या कह रहा है यह बंदा? मैं उलझन में था। संशय में था पर वह इस कदर
अपने ही सन्नाटे में... अपने ही भीतर के उफनते तूफान में डूब उतरा रहा था कि
इस बार मैंने नहीं टोका उसे... बोलने दिया... बहने दिया। उसने जारी रखा, 'सर
जी, मैं सांतागाछी (कोलकाता से करीब ६० किलोमीटर दूर एक गाँव) के बहुत ही गरीब
घर में पैदा हुआ था, जन्म से ही भूख, गरीबी, बीमारी, झगड़े, टंटे देखता आया था।
तीन पैसे बचाने के लिए पिताजी तीन कोस पैदल चलते थे। माँ रास्ते में पड़ा गोबर
बटोरती रहती थी उपले बनाने के लिए। घर में जो साबुन बनता, उसी से दो दिन में
एक बार कपड़ा धुलते और नहाते भी उसी साबुन से थे, सिर्फ मुँह धोने के लिए
लाइफबॉय मिलता। घर में कुछ समय के लिए खुशहाली तभी आती जब पिता की कुछ
अतिरिक्त कमाई हो जाती और घर में ईद के चाँद की तरह कभी कभार नए कपड़े, फल और
मिठाई के दर्शन होने लगते। मुझे समझ में आने लगा था कि हर झगड़े की जड़ में है
गरीबी। मैंने सोच लिया था कि यदि मौका मिला तो मैं गरीबी को कभी अपने पास भी
फटकने नहीं दूँगा। सरजी मैंने जी तोड़ मेहनत कर, वजीफा और कर्ज लेकर बीकॉम तक
पढ़ाई की, मुझे अच्छे मार्क्स मिले, बीकॉम के साथ ही मैंने सी.एस. भी कर लिया
था। और कमाल देखिए कि मुझे नौकरी भी तुरंत चेन्नई की एक अच्छी एफएमसीजी कंपनी
में मिल गई। वेतन अच्छा था लेकिन उससे अच्छी बात थी कि मुझे अपने सेल्स पर
कमीशन मिलता था... यानी कंपनी के लिए मैं जितनी अधिक बिक्री करवाऊँगा, मेरी
कमाई उतनी अधिक होगी। उस समय मैं समझ नहीं पाया इस चमकीले जाल को, मुझे लगा
मेरी प्रतिभा को मुकाम तक पहुँचने का यह स्वर्णिम अवसर है।
और मजा देखिए कि इधर नौकरी लगी और उधर मेरी सगाई हो गई। मेरी टीम अच्छी थी और
दिमाग उपजाऊ, इसलिए मेरे सेल्स टारगेट भी पूरे हो रहे थे। देखते न देखते साल
भर के अंदर मेरा प्रोमोशन हुआ और मुझे सेल्स मेनेजर बना दिया गया। मैं घर का
बड़ा लड़का था, इसलिए सेल्स मेनेजर बनते न बनते मेरी शादी भी हो गई। माधुरी भी
कोलकाता की ही थी। उसका परिवार हमारे परिवार से काफी समृद्ध था।
मैंने महीने भर की छुट्टी के लिए आवेदन दिया था पर मुझे छुट्टी मिली सिर्फ
पंद्रह दिन की। पंद्रह दिन शादी के बंदोबस्त, तैयारी, मिलने जुलने, बहनों को
लाने ले जाने में ही कट गए। मैं वापस चेन्नई। वापस अपने ऑफिस। मैंने माधुरी से
वादा किया कि बहुत जल्द ही मैं उसे हनीमून के लिए गेंगटोक ले जाऊँगा। उसे
हिमालय से बहुत प्यार था।
बहलहाल सेल्स मैनेजर बनते न बनते मुझ पर जिम्मेदारियों का बोझ इस कदर बढ़ गया
था कि रात में भी मुझे स्वप्न में माधुरी नहीं, गेंगटोक नहीं सेल्स टार्गेट ही
दीखते थे। मुझे पूरे आंध्र प्रदेश की सेल्स सँभालनी पड़ती थी, डिस्ट्रीब्यूटर
से लेकर दुकानदार तक की लय ताल बनाई रखनी पड़ती थी। इस कारण मुझे सप्ताह में
तीन दिन हैदराबाद में रहना पड़ता था। मैं चूँकि तेलगु भाषा भी नहीं जानता था इस
कारण मुझे चेन्नई में तेलगु सीखने के लिए भी ट्यूशन लेना पड़ता था। लब्बोलुबाब
यह कि मेरे लिए समय पंख लगाकर उड़ने लगा था। जबकि माधुरी के लिए समय एक ही जगह
ठिठका हुआ था।
नई जगह का नयापन अब मिट चुका था। माधुरी अब जड़ से उखड़ते पेड़ की तरह मुरझाने
लगी थी विशेषकर जब मैं हैदराबाद के लिए निकल जाता, उसके लिए करने को कुछ भी
नहीं रह जाता था। मैं उससे कहता - तुम बाहर निकल जाया करो, वह फनफनाती - कैसे
निकल जाऊँ, मैं तो यहाँ की भाषा भी नहीं जानती...। यहाँ तो सब तमिल बोलते हैं।
कल बाजार हल्दी खरीदने गई, लेकिन किसी प्रकार नहीं खरीद पाई। किसी प्रकार उसको
नहीं समझा पाई क्योंकि हल्दी कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी और टर्मेरिक वे समझ
नहीं पा रहे थे, कैसी जगह लाकर पटक दिए हो, ग्राउंड फ्लोर और पीछे का घर...
रात तो रात दिन में भी किसी की शक्ल देखने को तरस जाती हूँ और कोई दिख भी जाय
तो क्या... न किसी से बोल सकती हूँ... न कहीं जा सकती हूँ, लगता है जैसे देश
में रहकर भी विदेश में रह रही हूँ।
उसकी बात सच थी। माधुरी की समस्या मैं समझ सकता था। लेकिन खुद मेरी समस्या
मेरा बॉस नहीं समझ रहा था। वह पूरी तरह मुझे निचोड़ने में लगा था। वह जीवन में
अर्थ नहीं अर्थ में जीवन खोजने वाला जीव था। उसकी आँख पर कोल्हू में जुटे हुए
बैल का चश्मा लगा हुआ था जो एक ही सीध में देख सकता था और वह सीध थी - मुनाफा
और सिर्फ मुनाफा। मैं माधुरी से कहता समुद्र किनारे बैठ जाया करो। वह चिढ़
जाती। समुद्र किनारे भी गई थी, पर दिल नहीं बहला। समुद्र देखते देखते भी मैं
तुम्हारा जाना ही देख रही थी।
मैंने कहा - जाना देखती हो, आना नहीं देखती, वीक एंड में आता भी तो हूँ। उसने
तल्खी से जवाब दिया - हाँ आते जरूर हो, पर क्या तुम खुद नहीं जानते कि तुम
कितने मेरे हो। कंपनी के फायदे की चिंता रहती है लेकिन खुद का जीवन कितने घाटे
में जा रहा है उसकी कोई चिंता नहीं। काश तुम मेरी जगह होते और मैं दिखा पाती
तुम्हें कि अपने प्रिय का जाना कैसा होता है।
बोलते बोलते वह फिर गमगीन हो गया, उमस बढ़ गई थी, रूमाल से ललाट का पसीना
पोंछते हुए बुदबुदाया...। दिखा दिया उसने मुझे अपना जाना... भयंकर जाना। ले
लिया बदला मुझसे। जी भर देख भी न पाया उसे कि जी भारी कर चली गई वह। ओह जिसे
दस मिनट नहीं दे पाया, आज हर पल दे रहा हूँ... कहीं भी चला जाऊँ, समुद्र
किनारे, नदी, पहाड़, श्मशान... हर रात मेरे सिरहाने आकर खड़ीं हो जाती है वह,
कोई भी रात सो नहीं पाता। दस मिनट के बदले दस जन्म भी दे दूँ उसे तो भी क्या
माफ करेगी वो मुझे... कितनी जल्दी फैसला दे दिया उसने मुझ पर... कहीं पढ़ा था
कि भगवान भी आदमी पर उम्र खत्म होने तक नहीं देता फैसला...। और वह फिर हिचकी
ले ले बिसूरने लगा।
मैंने उसके कंधे पर हाथ धरा। कनखियों से देखा, कोई देख तो नहीं रहा। सामने
बैठा युवक किसी फिल्मी पत्रिका में डूबा पैर हिला रहा था। आसपास के लोग उतर गए
थे। मैंने उसे शांत करने की चेष्टा की। उसे पानी की बोतल दी, उसने कुछ घूँट
गटके, नीचे खिसक आए चश्मे को ऊपर किया और फिर चालू हो गया।
- आजकल हर पल यही सोचता हूँ कि जीवन क्या है? सत्य क्या है। आनंद क्या है? सुख
क्या है? मैं सुख के चक्कर में अधिक से अधिक धन बटोर लेना चाहता था। अधिक
बिक्री के चक्कर में जरा सा भी समय मिलता तो कंज्यूमर्स साइकोलोजी पढ़ने लगता।
काश उसकी जगह इनसान को पढ़ता तो शायद उसे समझ पाता। पर क्या मैं गलत था? क्या
बताऊँ सर, जन्म से ही तंगी देखी थी, नीचे से ऊपर उठा था, गाँव का आदमी था,
सुनता आया था कि आई हुई लक्ष्मी और परोसी हुई थाली को ठुकराना नहीं चाहिए।
गाँव में लोगों को काम नहीं मिलता था, दिनभर उन्हें हाथ पर हाथ धरे बैठे देखता
था, मुझ पर ईश्वर की मेहरबानी से काम और मौका दोनों बरस रहे थे, इस कारण कमाने
का कोई भी मौका खोना नहीं चाहता था। आप ही बताइए सर क्या मेहनत करना, कमाना
अपराध है? पर देखिए कैसा सर्वनाश हो गया। वह दीवार पर टँग गई और मैं जिंदगी और
मौत के बीच टँग रहा हूँ।
वह बोलता जा रहा था और मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि वह अपनी मृत पत्नी को याद
कर रहा था या उसे कोस रहा था। क्यों कह रहा था वह मुझसे यह सब? मैंने पूछा -
लेकिन एकाएक ऐसा क्या हो गया था कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी।
उसका चेहरा नीला पड़ा। एक लंबी साँस खींची उसने। इधर उधर नजरें घुमाई और फिर
अपने प्रवाह में बहने लगा - क्या बताऊँ सर, वो फुदकती चिड़िया धीरे धीरे खामोश
सी हो गई थी। उसने मुझसे धीरे धीरे झगड़ना और शिकायत करना भी कम कर दिया था। एक
कमजोर लहर की तरह उसका गुस्सा, उसकी शिकायत उसी के समुद्र में विलीन होने लगी
थी, मुझे लगा उसने वक्त से समझौता करना सीख लिया है। मैं उसे सांत्वना देते
हुए अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में बताता - हम जल्द ही नया घर ले लेंगे,
कबूतर के दड़बे जैसे इस घर से निकल कर एक खुला और हवादार घर।
वह बुदबुदाती - जब वर्तमान ही नहीं बचेगा तो भविष्य किसके लिए बचाओगे। मैंने
देखा उसकी सर्पीली आँखों की चमक बुझती जा रही थी। पर साहब देखना भी तो मन की
आँखों से ही न होता है, इसलिए मैं देख कर भी नहीं देख पा रहा था, काश मैं उस
दिन उसके मन की गहरी पीड़ा, उसके मन की भीतरी सीलन तक पहुँच पाता! काश उसके
दर्द को उसका दिल बन समझ पाता। पर मैं तो काम में अंधा था और ऐसा भी नहीं था
कि मैं खुद जी रहा था मैं तो खुद कमाने की मशीन बनते बनते मर रहा था, गल रहा
था। इसलिए मैंने कई बार बॉस से कहा भी - मुझे कुछ दिनों के लिए छुट्टी चाहिए,
मैं आराम करना चाहता हूँ,
लेकिन समय बाजारू होता जा रहा था। बॉस कहता - यदि बाजार में टिकना है तो हमें
नए नए आर्डर लाने होंगे, नई नई संभावनाएँ टटोलनी होगी, नई योजनाएँ बनानी होगी,
कंज्यूमर्स साईकोलोजी को समझना होगा, उसपर रिसर्च करना होगा। इसके लिए समय तो
तुम्हे देना ही होगा और मुझे संतुष्ट करने के लिए उसने फिर एक इन्क्रीमेंट कर
दिया मेरा, लेकिन साथ ही मेरे सेल्स टारगेट भी बढा दिए। कुल मिलाकर मेरा जीवन
सेल्स टार्गेट, नंबर, बोनस और ग्रेड में सिमटता जा रहा था। दिन के चौबीस घंटे
भी मेरे काम के लिए कम पड़ते थे और माधुरी के लिए एक एक दिन एक एक युग जैसा बीत
रहा था। एक भीतरी खालीपन से भरती जा रही थी वह। मेरे घर से आवाजें धीरे धीरे
कम हो रही थी, मनहूसियत सर उघाड़े टहल रही थी। पर मैं सोच रहा था कि बस ये
क्वाटर किसी प्रकार निकल जाए, अधिक से अधिक दिवाली का त्यौहार निकल जाए, तो
बॉस से बात करूँ, यदि कमाने का यह समय निकल गया तो फिर मेरे पास समय तो रहेगा
पर उसे भोगने के लिए साधन नहीं रहेंगे। तो सर जी 'पत्नी को बाद में मना लूँगा'
की तर्ज पर मैं फुल टाइम बॉस का हो गया। लेकिन ऐसा नहीं था कि मैं उसकी तरफ से
एकदम बेखबर था। एक अज्ञात भय मेरे भीतर भी उग रहा था। फाँस मेरे भीतर भी गड़ी
हुई थी। उसके चेहरे की उड़ती रंगत कह रही थी कि आसार ठीक नहीं, इसलिए महीने भर
बाद ही फिर हिम्मत कर बॉस से कहा मैंने - सर मेरी नई नई शादी हुई है, घर पर
मेरी बीवी अकेली रहती है, मुझे कुछ समय के लिए हैदराबाद से दूर रखिए।
बॉस ने हँसते हुए जवाब दिया - तुम्हें नौकरी से ही न दूर कर दें... फिर समझाते
हुए कहा - जीवन में आगे बढ़ने के मौके बार बार नहीं मिलते। खुद सालों घिसने के
बाद मुझे मिला है ऐसा बाजार! ऐसी माँग! बीवी कहाँ भागी जा रही है, लेकिन
दिवाली तक हमने नया प्रोडक्ट डिलीवर नहीं किया तो सोचो हमें क्या फिर मिलेगा
ऐसा आर्डर! ऐसा मौका! ऐसा तेज बाजार!
उसकी उदास आँखें खिड़की के रास्ते कहीं दूर ठिठकी हुई थी - क्या बताऊँ सर, नई
नौकरी, नई बीवी और नए घर की तनी रस्सियों के बीच मैं थरथराता रहता। कभी नौकरी
छूटने का डर, कभी टारगेट पूरा न होने का डर तो कभी बीवी के नाराज होने का
डर... तरह तरह के डर मेरे भीतर इकट्ठा होते जा रहे थे। माधुरी भावुकता रहित
प्यार को स्वीकार कर ही नहीं सकती थी और जबतक मेरे टारगेट पूरे नहीं हो जाते
मैं भावुक हो नहीं पाता था...। बस ऐसे ही चलता रहा विवाह बाद का वह समय...
सूखा... बंजर... अतृप्त... ना मैं उसके मन के तारों को झंकृत कर पाया, ना जागी
उसकी देह।
ऐसे में एक मनहूस दोपहर घर आया तो टेप चल रहा था... तेरी दुनिया में दिल लगता
नहीं वापस बुला ले... वह गाना खत्म हुआ तो फिर दूसरा गाना, उतना ही
डिप्रेसिंग...। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है... बस दिमाग भन्ना गया...
माना आप दुखी हैं लेकिन अपने दुख का इस प्रकार इजहार कराना... मानो मैं बेखबर
हूँ... मुझे अखर गया। भीतर दुबका अपराधबोध का कीड़ा भी कुलबुलाया। बस अपना आपा
खो बैठा मैं... मैं दुनिया को सुंदर बनाने के लिए तिल तिल जल रहा हूँ...। न
दिन का ठिकाना न रात का, न खाने का सुख न सोने का और यह मुझे सुना रही है...
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। थका तन, भूखा पेट और चिड़चिड़ा मन। बेबस
आदमी का गुस्सा यूँ भी भयानक होता है सर जी। किधर का गुस्सा किधर निकल गया।
बिना वजह उलझ गया और डपट दिया उसे... कुछ अच्छे गाने नहीं सुन सकती क्या...?
तीन दिन तक गधा खटनी कर घर आया हूँ, यही रोना धोना सुनने के लिए? और मेरा
दुर्भाग्य देखिए की तभी बॉस का फोन आया... तुरंत बंगलौर के लिए रवाना हो जाओ,
दिवाली के लिए स्पेशल मेकअप सेट लांच करना है... एयर टिकट मेल कर दिया है। मैं
रो पड़ा... कहीं चैन नहीं। न घर में न बाहर। पत्नी से हुई उस झपट के चलते मैं
बिना खाए ही निकल गया। जाते जाते पत्नी ने मुझे गौर से देखते हुए सहमी सी आवाज
में कहा - मुझे आपसे दस मिनट चाहिए, एक जरूरी बात करनी है। गहरी झील से उठती
वह एक ऐसी ठंडी आवाज थी जिसके अंश अंश से बेबसी, हताशा और अवसाद टप टप टपक रहे
थे। मेरे भीतर धुकधुकी होने लगी, दस मिनट तो सिर्फ कहने की बात है, एक बार यदि
उसकी शिकायतों का पुलिंदा खुल गया तो फिर सँभाल नहीं पाऊँगा मैं... आज का दिन
महत्वपूर्ण था मेरे लिए... मैंने घड़ी की ओर देखा... दस मिनट दे सकता था मैं
उसे, पर उसका रोना धोना सुनने के मूड में नहीं था मैं। भीतर यह डर भी कि क्षण
भर भी रुक गया तो यह लड़की मुझे उस तूफान में घसीट ही लेगी जिससे बचने की
पुरजोर कोशिश कर रहा था मैं। उस वक्त मेरे दिमाग में सिर्फ नया प्रोडक्ट,
डीलर्स और दुकानदार थे... जल्दी से जल्दी प्रोडक्ट को दुकानों और ग्राहक तक
पहुँचाने की हड़बड़ी थी, टारगेट की तलवार सर पर थी। इन सबके बीच यह बखेड़ा...
मेरे माथे पर बल पड गए... गर्मी, भूख थकान और उसकी रोऊँ रोऊँ मनहूस शक्ल देख
तीव्र इच्छा जोर मार रही थी कि भाग खड़ा होऊँ वहाँ से। मैंने झुँझलाते हुए और
बिना उससे आँख मिलाते हुए, अपने पर्स में रुपया ठूँसते हुए कहा, अभी नहीं रुक
पाऊँगा, आकर बात करता हूँ। उसने आहत दृष्टि से मेरी और देखा, मैंने फिर आँखें
घुमा ली। फिर एक गहरी गीली उच्छवास उसके गले से बाहर निकली - ठीक है।
सबकुछ ज्यों का त्यों याद है सरजी। चाहूँ तो भी भूल नहीं सकता उन लम्हों को,
उस दिन यदि रुक जाता तो यह हादसा टल जाता। उस दोपहर उसके व्यवहार में ऐसा कुछ
था जिसे पकड़ नहीं पाया मैं। एक गहरी निश्वास ले वह दार्शनिक अंदाज में कहने
लगा - चरम हताशा, आवेग और विवशता के वे कुछ क्षण जब उसकी सारी अंतःशक्तियों और
विवेक ने साथ छोड़ दिया था उसका...। मैं रुक जाता तो थम जाते वे आवेग। दुनिया
के सारे युद्ध, सारी त्रासदियाँ, सारे विचलन चंद लम्हों के दिमागी विचलन के ही
परिणाम होते हैं... वे सध जाएँ तो टल जाती है विपदा।
मैंने उसे आश्वस्त और शांत करते हुए कहा - तुम अपने दिल पर मत लो, होनी को कौन
टाल सकता है!
- नहीं सर जी, वह होनी नहीं, अनहोनी थी जो टल सकती थी। एकदम टल सकती थी।
दुनिया में ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं। अभी कुछ दिन पहले ही मैंने पढ़ी एक सच्ची
घटना। एक फ्रांसीसी मैथेमेटीसियन था सरजी, जिंदगी से निराश होकर उसने
आत्महत्या की ठानी। बहुत व्यवस्थित ढंग से वह आत्महत्या की ओर बढ़ रहा था। उसने
पूरी लिस्ट बनाई। कहाँ कहाँ पत्र लिखने हैं, किस किस को उसका क्या क्या लौटाना
है। क्या क्या बेचना है। उसने सोचा कि अमुक रात को बारह बजे वह आत्महत्या कर
लेगा। वह इतना व्यवस्थित था कि उसका सारा काम रात ग्यारह बजे ही पूरा हो गया।
अब बचा एक घंटा। क्या करे वह! वह लाइब्रेरी में चला गया। वहाँ समय बिताने की
गरज से उसने एक किताब उठाई। किताब भी एक मैथेमेटीसियन की ही थी। उसने लिखा था
कि मैं जानता हूँ कि यह थ्योरी सही है पर नहीं सोच पा रहा हूँ कि कैसे?उसने
सोचा कि मेरे पास घंटा भर शेष है क्यों न इस पर सोचा जाए। उसने सोचना शुरू
किया। सोचते सोचते सुबह के छह बज गए...। और तब एकाएक उसे ध्यान आया कि वह तो
आत्महत्या करना ही भूल गया। बाद के वर्षों में उसने उसी थ्योरी पर काम किया।
उसके ओंठ काँपे - सर जी दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं नहीं रुका इसीलिए जी
पाने की उसकी उस आखिरी फड़फड़ाहट ने भी दम तोड़ दिया था। वे दस मिनट टल जाते तो
वह दुर्घटना भी टल जाती। पर कहाँ भाँप पाया मैं उस फड़फड़ाती चिड़िया की वेदना
को... मैं तो बस उसकी देह के द्वार पर ही ठिठका खड़ा रहा... उफ कितना मुश्किल
होता है एक स्त्री को उसकी संपूर्णता में पकड़ पाना! मेरे अंदर तो उस समय पूरी
दुनिया को लेकर गुस्सा भरा हुआ था। काश मैं उससे थोड़ी सहानुभूति के साथ पेश आ
जाता, और कुछ नहीं बस एक मीठा बोल, एक प्यार भरी दृष्टि और एक आत्मीय छुअन ही
दे पाता उसे तो क्या वह करती ऐसा? पर टारगेट के तनाव और बॉस के खौफ ने सुखा
डाला था मुझे, कहाँ बची थी मेरे भीतर वह नमी। वह कोमलता। वह प्रेम। मेरे भीतर
तो बचा था सिर्फ गुस्सा और एक मरियल सा अपराधबोध जो कतरा रहा था उससे सामना
करने से... मैं उससे जान छुड़ा भागा और उस क्षण की लपट में सब खाक हो गया
सर...। और बिडंबना देखिए सर जी कि बॉस के फोन ने मुझे इतना हड़बड़ा दिया कि मैं
अपनी ब्रीफकेस तक खोलना भूल गया जिसमें मोगरे के फूल की माला रखी हुई थी जिसे
मैंने उसके लिए खरीदी थी... चेन्नई में हर चौराहे पर बिकती है फूलों की
मालाएँ... बहुत पसंद थी मुझे उसकी गंध! क्या बताऊँ सर मैं एक सेल्स मैनेजर
जिसका काम ही है प्रदर्शन... दिखावा... अपनी चीजों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाना, भीतर
कुछ हो न हो पर पैकिंग का दिखावा। सारी दुनिया को दिखाता रहा... वह जो नहीं
था... पर जो सचमुच दिल के भीतर था उसे ही नहीं दिखा पाया और वह भी अपनी ही
पत्नी को... और दो दिनों के बाद जब घर लौटा तब तक... वह थरथरा रहा था, आँधी के
आवेग को अपने भीतर थामे रखने की कोशिश में। अपनी दोनों हथेलियों के बीच अपने
मुँह को छिपा लिया था उसने। मैं बाहर की ओर देखने लगा - सूखे सूखे पेड़ों की
कतार... पीछे आधी टूटी इमारतें भग्न कंकालों सी...
कुछ खामोश पल...। मैंने उसे फिर पानी की बोतल थमाई। उसने कुछ घूँट भरे, रूमाल
से मुँह-गर्दन का पसीना पोंछा और फिर कहने लगा - उसी दिन उसने मुझे दो मिस कॉल
और अंत में एक sms भी भेजा था। मेरा फोन साइलेंट मोड में था क्योंकि मैं पूरे
दिन जरूरी मीटिंग में था। उस दिन नया प्रोडक्ट लांच होना था, उसी की योजना चल
रही थी। मैंने सोच लिया था कि अब मैं किसी भी कीमत पर पंद्रह दिन की छुट्टी
लेकर माधुरी के साथ किसी पहाड़ी जगह पर निकल जाऊँगा और वो सब उसे दूँगा जिसकी
चाहत उसकी मूक आँखों के झरोखों से उड़ उड़ कर मेरे तक पहुँचती रहती थी... पर कुछ
नहीं कर पाया सर, सबकुछ अनकहा अनसुना ही रह गया... हम नया प्रोडक्ट नहीं, नई
यातनाएँ पैदा कर रहे थे...। और वह फिर विचित्र तरीके से होठों को गोल गोल कर
मुँह से हवा बाहर निकालने लगा।
अपनी डबडबाती आँखों को पोंछते हुए आगे बढ़ा वह - जानते हैं सर उसके स्युसाइड
नोट में क्या लिखा था, जो लिखा था उसको पढ़कर तो रूह काँप गई मेरी, लिखा था -
चुप रहते रहते लगता है ओंठ ही चिपक गए हैं मेरे। खिड़की के पास बैठे बैठे लगता
है शरीर ही काठ का हो गया है। कृपया मेरे इस शरीर को... मेरे अंगों को, मेरी
भूरी आँखों को दान कर दें। उसके नीचे लिखा था... जो कहना चाहती थी, कह नहीं
पाई... जीना चाहती थी जिंदगी, जी नहीं पाई... सह भी नहीं पाई, रह भी नहीं
पाई...। जा रही हूँ... कहा सुनी माफ... अलविदा।
वो फिर भिंचे भिंचे गले से दबी दबी सिसकियाँ लेने लगा, मैंने फिर आसपास नजर
घुमाई, सामने की बर्थ वाला ऊँघ रहा था, मैंने उसका कंधा थपथपाया, आँसू पोंछते
हुए वह फिर बहने लगा - 'वह जब थी तो बहुत कम थी और अब जब नहीं है तो हर जगह
मौजूद है, एक बात बताइए सर जी क्या सचमुच कोई बोलना भी भूल सकता है? उसकी
डायरी में एक जगह लिखा हुआ था - जैसे पिंजरे में कैद पाखी उड़ना भूल जाता है,
लगता है मैं भी बोलना भूल जाऊँगी'।
सचमुच वह दुनिया कितनी मनहूस और कुरूप होगी जिसमे पाखी उड़ना तक भूल जाए... मैं
मन ही मन सोच रहा था कि वह फिर फूट पड़ा - जानते हैं सर जी उसके मरने के बाद
मैंने वह नौकरी भी छोड़ दी जो मुझे दस मिनट नहीं दे सकी पर इस पर भी गिल्ट ने
मुझे नहीं छोड़ा। रात रात जागकर मैं यही खोजता रहा कि लोग आत्महत्या क्यों करते
हैं। मैंने नेट पर कुछ आत्महत्याओं के कारण जानने की कोशिश की, मैं उन
आत्महत्याओं की बात नहीं कर रहा जो भूख, गरीबी, कर्ज, असाध्य बीमारी जैसे
गंभीर कारणों से की गई थी, मैं उन आत्म्हात्याओं की बात कर रहा हूँ जहाँ बिना
किसी गंभीर वजह से ही ऐसा किया गया था। क्या बताऊँ सर जी मैंने माथा पीट लिया
कि इस पीढ़ी में जीवन के प्रति सम्मान क्यों नहीं हैं। जीवन की जड़ें गहरी क्यों
नहीं हैं। जरा सी मन की नहीं हुई तो सलाद की तरह काट दी अपनी ही जिंदगी को। आप
ताज्जुब करेंगे सर जी कि एक मुंबई के बंदे ने तो सिर्फ इस कारण आत्महत्या कर
ली थी कि उसकी भतीजी की शादी थी और उसके बड़े भाई ने उसे विवाह में आमंत्रित
नहीं किया था। एक ने सिर्फ इस कारण कर ली थी कि उसके बाल तेजी से झड़ रहे
थे...। एक बंदा जो सारे दिन नेट पर बैठ रहता था, ने अपने सुसाइड नोट में लिखा
था 'जा रहा हूँ क्योंकि सब कुछ जान चुका हूँ... अब आगे देखने सुनने को कुछ
नहीं बचा... नथिंग तो लुक फॉरवर्ड, माय वर्क इज डन, देन व्हाई वेट... तो सर जी
देखिए बिना किसी ठोस वजह के भी कर लेते हैं लोग आत्महत्या। फर्ज कीजिए यदि
माधुरी को भी पेट पालने के लिए नौकरी करनी पड़ती या बूढ़े माँ-बाप की देखभाल
करनी पड़ती... मिलकर घर खर्च निकालना पड़ता तो क्या पाल सकती थी वह आत्महत्या की
विलासिता... नहीं न... उसने समर्थन के लिए मेरी ओर ताका। मैंने नजरें घुमा ली।
मैं झूठ-मूठ की सहानुभूति नहीं दिखाऊँगा।
वह फिर अपनी रौ में बहने लगा... मुझे लगता है सरजी, माधुरी के भीतर भी कुछ इसी
प्रकार उल्टा पुल्टा चल रहा होगा, नहीं तो देखिए सब कुछ था उसके पास, घर,
शिक्षा, पैसा, सुरक्षा, सुंदरता, जिम्मेदार और मेहनती पति, पर उसने वह सब एकदम
नहीं देखा... देखा सिर्फ अपना अकेलापन, अपनी बोरियत जो भी बस कुछ दिनों भर की
थी... क्या यह खुदगर्जी नहीं? क्या जीना एक कर्तव्य नहीं? क्या इस प्रकार
सिर्फ अपने बारे में सोचते सोचते जीवन से ही बाहर चले जाना सही था? मेरी दादी
की एक बहन थी सरजी, उसके दस बच्चे हुए थे... एक भी नहीं बचा था और स्वयं उनके
पति भी चल बसे थे, मैंने देखा है उनको... अपने अंतिम समय में दादी उन्हें अपने
पास ले आई थी... उन्होंने आत्महत्या की नहीं सोची। मेरे पिता तो कहते थे कि हर
आदमी अपने सर पर तीन ऋण लेकर जन्म लेता है - मातृ ऋण, गुरु ऋण और देव ऋण... और
जब तक वह इन तीन ऋणों से मुक्त नहीं हो जाता उसके जीवन पर उसका अधिकार ही नहीं
रह जाता है। तो कैसे कर सकती थी वह खुदकुशी? बोलिए सर बोलिए! क्या सारा दोष
मेरा ही था? जीवन में प्रेम होता है सर, प्रेम में जीवन नहीं...। काश उसे समझा
पाता... मैं मेहनत का बादशाह था और सफलता के खुदा से हाथ मिला रहा था। सब ठीक
ही था बीच में यह सब नहीं होता तो हम संसार के सबसे खुशनसीब दंपति होते। वह
साहसी थी, साहसी लोग ही आत्महत्या की हिम्मत कर सकते हैं पर जितना साहस उसने
मरने में दिखाया उसका आधा भी यदि वह जीने में दिखाती तो आज जीवन कितना सुंदर
होता। कितने गाने सुनती थी काश मेरे दिल की आवाज भी सुन पाती, मेरी मजबूरी को
भी सुन पाती। पर सारे उत्पात की जड़ साला यह मन ही है। और सच कहूँ तो मुझे लगता
है कि उसका मन एक घरेलू औरत जैसा था ही नहीं, वह शायद घर गृहस्थी के लिए बनी
ही नहीं थी। उसे देख लगता जैसे किसी काल्पनिक दुख से रोमांस चल रहा हो उसका।
दिन भर बैठे बैठे वह दुख दर्द ही सोचती थी। और बात भी अजीब तरीके से करती थी।
मैं उसे पैसे देता तो आम घरेलू औरत की तरह खुश होने की बजाय कहती - ख्वाहिशों
से खाली हूँ क्या खरीदूँ? सर जी - बड़े बाप की बेटी थी न कभी तेल नून लकड़ी के
संघर्ष से पाला नहीं पड़ा था न इसीलिए ये सब बातें दिमाग में आती थी।
जाहिर था कि अब वो अपने को अपराधबोध से मुक्त करने की नाकाम चेष्टा में लगा
हुआ था। मुझे कॉफी की तलब महसूस हो रही थी। चेन्नई आने में अभी भी आधा घंटा
बाकी था। उसके स्मृति समय में टहलने की मेरे अंदर अब विशेष इच्छा बची भी नहीं
थी। इसलिए उससे पिंड छुड़ाने की गरज से मैंने सोचा पेंट्री कार तक का चक्कर लगा
आऊँ।
लेकिन कॉफी मुझे वहाँ भी नहीं मिली। थोड़ा निराश सा मैं लौटा तो देखा वह अभी भी
बल्कि उसी मुद्रा में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था। मुझे देख फिर उसकी उदास
आँखें चमकी - कॉफी तो अब चेन्नई में ही मिलेगी सर। मैंने विषय बदलने की गरज से
कहा - अब तो सामने का बर्थ भी खाली हो गया है, आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए। उसने
जवाब और भी विचित्र दिया - साहब जब तक किसी नतीजे तक नहीं पहुँच जाऊँ, कैसा
आराम! आप सोचने समझने वाले विद्वान व्यक्ति हैं शायद मेरी थोड़ी मदद कर सकें।
मदद! कैसी मदद? मैं थोड़ा घबड़ाया... कहीं ये सब कहानियाँ सुना बुना कर
सहानुभूति पैदा कर बंदा मुझसे कुछ पैसे वैसे न माँगने लगे। वैसे भी हालत बहुत
अच्छी नहीं दिख रही थी उसकी। नौकरी भी छोड़ दी थी उसने। बुदबुदाते हुए कहा उसने
- सरजी, अपनी तरह से समझ ही नहीं पाया, क्या है जिंदगी? वह आजादी हासिल ही
नहीं हो पाई कभी। पहले इसे गरीबी की आँख से देखता था और अब तो कोई आँख ही नहीं
बची... चारों तरफ है बस एक शून्य...। क्या सोचते हैं आप? कैसे की होगी उसने
खुदकुशी। शांत मन से? किसलिए की होगी? मन की शांति के लिए? या मुझे सबक सिखाने
के लिए... रात दिन मैं यही सोचता रहता हूँ... अब मैं कभी भी वह नहीं हो सकूँगा
जो मैं था। अब मैं ज्यादा दिन जिंदा भी शायद न बचूँ... हर रात सपने में अपनी
मौत देखता हूँ मैं। मेरे बेडरूम की खिड़की से झाँकती है वह!
- आप कुछ बोलते क्यों नहीं सरजी। कुछ तो बोलिए।
उसकी आँखें मुझ पर चिपकी थीं। उसके स्वर में एक मरियल सी आशा झलक आई थी, जैसे
मेरे उत्तर से उसकी नियति तय होनी है। क्या बोलूँ, समझ नहीं पा रहा था मैं।
जाहिर था कि वह कुछ ऐसा सुनना चाहता था जिससे उसका गिल्ट कम हो जाए। मैं कहना
चाहता था कि रिश्तों के नाजुक पौधे को हर दिन सींचना पड़ता है, उसे आप बाद के
लिए स्थगित नहीं कर सकते हैं। पर मैं कह नहीं पाया। क्या होगा उसके अपराधबोध
को और बढ़ाकर।
चेन्नई स्टेशन करीब आ रहा था। मैंने उसके कंधे पर हाथ धरते हुए कहा - चलो, पास
के किसी रेस्तराँ में बैठकर कॉफी पीते हैं।