बाईसवें प्रकरण में हमें अपनी भीतरी मुसीबतों की थोड़ी कल्पना हुई थी।
जोहानिसबर्ग में मुझ पर पठानों का हमला हुआ उस समय मेरा परिवार फिनिक्स में
रहता था। हमले के कारण मेरी पत्नी और बच्चों के मन में चिंता होना
स्वाभाविक था। मुझे देखने के लिए पैसे खर्च करके फिनिक्स से जोहानिसबर्ग तक
दौड़ आना उनके लिए संभव नहीं था। इसलिए अच्छा होने के बाद मेरा ही उनके पास
जाना जरूरी था।
कामकाज के सिलसिले में नेटाल और ट्रान्सवाल के बीच मेरा आना-जाना होता ही
रहता था। यह बात मेरी जानकारी से बाहर नहीं थीं कि नेटाल में भी सरकार के साथ
हुए कौम के समझौते के बारे में भारी गलतफहमी फैली हुई थीं। मुझे और दूसरों को
जो पत्र नेटाल से लिखे जाते थे, उनसे मुझे इसका पता चलता था। और 'इंडियन
ओपीनियन' के नाम तीखे व्यंग्य से भरे हुए जो पत्र भेजे जाते थे, उनका ढेर भी
मेरे पास था ही। यद्यपि अभी तक सत्याग्रह की लड़ाई ट्रान्सवाल के
हिंदुस्तानियों तक ही सीमित थीं, फिर भी नेटाल के हिंदुस्तानियों की सम्मति
प्राप्त करना और उनकी भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था। ट्रान्सवाल के
हिंदुस्तानी ट्रान्सवाल के निमित्त में समस्त दक्षिण अफ्रीका के
हिंदुस्तानियों की लड़ाई लड़ रहे थे। अतः नेटाल में फैली हुई गलतफहमी को दूर
करने के लिए भी डरबन जाना मेरे लिए आवश्यक था। इसलिए पहले ही मौके से लाभ
उठाकर मैं वहाँ पहुँच गया।
डरबन में हिंदुस्तानियों की एक सार्वजनिक सभा बुलाई गई। कुछ मित्रों ने पहले
से मुझे बता दिया था कि इस सभा में मुझ पर आक्रमण होनेवाला है; इसलिए या तो
मैं इस सभा में उपस्थित ही न रहूँ या अपनी रक्षा के कुछ उपाय करूँ। लेकिन
दोनों में से एक भी मार्ग मेरे लिए खुला नहीं था। सेवक को उसका स्वामी बुलाए
और सेवक डर के मारे न जाए, तो उसका सेवाधर्म भंग हो जाता है। और जो सेवक
स्वामी की सेवा से डरे, वह सेवक कैसा? सेवा के खातिर जनता की सेवा करना तो
तलवार की धार पर चलने जैसा है। यदि जनसेवक प्रशंसा को स्वीकार करने के लिए
तैयार हो, तो निंदा से वह कैसे भाग सकता है? इसलिए मैं निश्चित समय पर सभा में
उपस्थित हो गया। वहाँ लोगों को मैंने समझाया कि सरकार के साथ समझौता कैसे हुआ।
उनके प्रश्नों के उत्तर भी मैंने दिए।
यह सभा रात के लगभग 8 बजे हुई थी। सभा का कामकाज लगभग पूरा होने को आया था कि
एक पठान बड़ी लाठी लेकर मंच पर आया। उसी समय सारी बात्तियाँ बुझ गईं। मैंने
तुरंत सारी स्थिति समझ ली। सभा के अध्यक्ष सेठ दाऊद मुहम्मद टेबल पर चढ़कर
लोगों को समझाने और शांत करने लगे। मेरी रक्षा करनेवालों ने मुझे घेर लिया।
मैंने अपनी रक्षा के लिए कोई उपाय नहीं किए थे। लेकिन बाद में मैंने देखा कि
जिन लोगों को मुझ पर हमला होने का डर था, वे तो पूरी तरह मेरी रक्षा की तैयारी
करके आए थे। उनमें से एक मित्र तो जेब में पिस्तौल रख कर आए थे और उन्होंने
हवा में पिस्तौल का एक धड़ाका भी किया था। इस बीच पारसी रुस्तमजी, जिन्होंने
हमले की सारी तैयारियाँ देखी थीं, बिजली की गति से दौड़ कर पुलिस-थाने पर
पहुँच गए और पुलिस सुपरिटेंडेंट एलेक्जेंडर को सारी स्थिति बता दी। उन्होंने
पुलिस का एक दस्ता भेज दिया। पुलिस भीड़ में से रास्ता निकालते हुए मुझे
अपने बीच रखकर पारसी रुस्तमजी के घर ले गई।
दूसरे दिन सुबह पारसी रुस्तमजी ने डरबन के पठानों को एकत्र किया और उनसे कहा
कि मेरे खिलाफ उन्हें जो भी शिकायत हो वह मेरे सामने रखें। मैं उन लोगों से
मिला। मैंने समझा कर उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया। लेकिन मैं नहीं
मानता कि मैं उन्हें शांत कर पाया था। शक की दवा दलीलों से या समझाने से नहीं
हो सकती। उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि मैंने हिंदुस्तानी कौम को धोखा
दिया है। जब तक शक का यह जहर उनके मन से निकले नहीं तब तक मेरा समझाना बेकार
ही था।
उसी दिन मैं डरबन से फिनिक्स के लिए रवाना हुआ। जिन मित्रों ने पिछली रात को
मेरी रक्षा की थी, उन्होंने मुझे अकेला छोड़ने से साफ इनकार कर दिया और मुझसे
कह दिया कि वे फिनिक्स में आकर डेरा डालेंगे। मैंने उनसे कहा : ''आप मेरी
'ना' की परवाह न करके फिनिक्स आना चाहेंगे, तो मैं आपको रोक तो नहीं सकूँगा;
लेकिन वहाँ जंगल है और अगर वहाँ बसनेवाले हम लोग आपको खाना भी न दें तो आप
क्या करेंगे?'' उनमें से एक ने उत्तर दिया : ''हमें ऐसा डर दिखाने की जरूरत
नहीं। अपनी सुविधाएँ हम स्वयं खड़ी कर लेंगे। और जब तक हम सिपाहीगीरी करेंगे
तब तक आपके कोठार को लूटने से भी हमें कौन रोक सकेगा?''
इस प्रकार विनोद करते करते हम फिनिक्स पहुँचे। इस रक्षकदल का नेता जैक मुडली
था, जो हिंदुस्तानियों में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। वह नेटाल में
तामिल माता-पिता से जन्मा था। उसने घूँसेबाजी की (बॉक्सिग की) खास तालीम पाई
थी। वह ऐसा मानता था, और उसके साथी भी ऐसा मानते थे, कि घूँसेबाजी में गोरों
या कालों में से कोई भी उसका प्रतिस्पर्धी नहीं हो सकता।
दक्षिण अफ्रीका में, बरसात न हो तब, मेरी आदत वर्षों से घर के बाहर बिलकुल
खुले में सोने की थी। उसमें इस समय कोई फेरबदल करने को मैं तैयार नहीं था।
इसलिए रक्षकों के स्वनिर्मित दल ने रात में मेरे बिस्तर के आसपास पहरा देने
का निर्णय किया। यद्यपि डरबन में इस रक्षक-दल का मैंने मजाक उड़ाया था और मेरे
साथ आने से रोकने का भी प्रयत्न किया था, फिर भी मुझे अपनी यह कमजोरी
स्वीकार करनी चाहिए कि जब उन लोगों ने पहरा देना शुरू किया तब मुझे अधिक
निर्भयता अनुभव हुई और मन में यह विचार भी आया कि यदि ये लोग न आए होते तो मैं
इतना निर्भय बनकर सो नहीं पाता। मैं मानता हूँ कि किसी भी तरह की आवाज से मैं
अवश्य ही चमक उठता।
मेरा विश्वास है कि ईश्वर पर मेरी अटल श्रद्धा है। वर्षों से मेरी बुद्धि यह
भी स्वीकार करती आई है कि मृत्यु मनुष्य के जीवन में होनेवाला एक बड़ा
परिवर्तन ही है और वह जब भी आए तब स्वागत करने योग्य है। हृदय से मृत्यु के
भय को और दूसरे प्रकार के भयों को दूर करने के लिए मैंने समझ-बूझ कर महान
प्रयत्न किया है। इसके बावजूद अपने जीवन के ऐसे अवसर मुझे याद आते हैं जब मैं
मृत्यु के आलिंगन का विचार करते हुए वैसी प्रसन्नता अनुभव नहीं कर सका, जैसी
प्रसन्नता हम किसी दीर्घ काल से बिछुड़े हुए मित्र से मिलने का विचार करते
समय अनुभव करते हैं। इस तरह बलवान बनने का महान प्रयन्त करने पर भी मनुष्य
प्रायः निर्बल रहता है और केवल बुद्धि तक पहुँचा हुआ उसका ज्ञान अनुभव का अवसर
आने पर उसके जीवन में बहुत उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाता। इसमें भी जब मनुष्य को
बाहरी सहारा मिलता है और उसको वह स्वीकार कर लेता है, तब तो वह बहुत हद तक
अपना आंतरिक बल खो देता है। सत्याग्रही को ऐसे भयों से सदा बचते रहना चाहिए।
फिनिक्स में रहते हुए मैंने एक ही काम किया। कौम के लोगों की गलतफहमी दूर
करने के लिए मैंने 'इंडियन ओपीनियन' में खूब लिखा। संपादक और शंकाशील पाठक
वर्ग के बीच होनेवाला एक काल्पनिक संवाद मैंने लिख डाला। उसमें समझौते के
विषय में जो जो शंकाएँ और आक्षेप मैंने सुने थे, उन सबका यथासंभव अधिक से अधिक
विस्तार से मैंने समाधान किया। मेरा विश्वास है कि इसका फल अच्छा आया। यह
मालूम हो गया कि ट्रान्सवाल के हिंदुस्तानियों ने लंबे समय तक समझौते को गलत
नहीं समझा; उनमें यदि समझौते के बारे में गलतफहमी बनी रहती, तो उसका परिणाम
सचमुच विनाशक होता। समझौते को मानना या न मानना केवल ट्रान्सवाल के
हिंदुस्तानियों का काम था। इसलिए उनके कार्यों से स्वयं उनकी कसौटी और उनके
नेता तथा सेवक के नाते मेरी भी कसौटी होनेवाली थी। अंत में ऐसे बहुत ही कम
हिंदुस्तानी रहे होंगे, जिन्होंने स्वेच्छा से परवाने न लिए हों। इतने
अधिक लोग परवाने लेने के लिए एशियाटिक ऑफिस जाते थे कि परवाने देनेवाले
अधिकारियों को क्षण भर का भी आराम नहीं मिलता था। कौम ने बड़ी शीघ्रता से
समझौते की ऐसी शर्तों का पालन कर दिखाया, जिनका पालन उसे स्वयं करना था। यह
बात सरकार को भी स्वीकार करनी पड़ी; और मैं यह देख सका था कि गलतफहमी का
क्षेत्र अत्यंत संकुचित रहा, यद्यपि उसने बड़ा उग्र रूप धारण कर लिया था। कुछ
पठानों ने जब कानून को अपने हाथ में ले लिया और हिंसा का रास्ता अपनाया, तब
कौम के लोगों में बड़ी खलबली मच गई थी। लेकिन ऐसी खलबली का विश्लेषण करें तो
पता चल जाता है कि उसका कोई आधार या बुनियाद नहीं होती; और प्रायः ऐसी खलबली
क्षणिक ही होती है। ऐसा होते हुए भी आज तक उसकी ताकत दुनिया में बनी हुई है,
क्योंकि रक्तपात और हिंसा से हम सब काँप उठते हैं। परंतु धैर्य के साथ इस
प्रश्न पर विचार करें, तो मालूम हो जाता है कि हिंसा से काँप उठने का कोई भी
कारण नहीं है। मान लीजिए कि मीरआलम और उसके साथियों के आक्रमण से घायल होने के
बजाय मेरा शरीर नष्ट हो गया होता और यह भी मान लीजिए कि हिंदुस्तानी कौम
जान-बूझ कर निश्चिंत और शांत रही होती और यह समझकर कि मीरआलम अपनी बुद्धि का
अनुसरण करके केवल हिंसक आचरण ही कर सकता था, कौम ने उसके प्रति मित्रता का और
क्षमा का भाव दिखाया होता, तो कौम को कोई नुकसान न हुआ होता; बल्कि कौम को ऐसे
उदात्त और उदार व्यवहार से बहुत बड़ा लाभ हुआ होता; क्योंकि कौम की सारी
गलतफहमी मिट जाती, जिससे वह दुगुने जोश और दुगुने उत्साह से अपनी प्रतिज्ञा
पर डटी रहती और अपने कर्तव्य का पालन करती। और मुझे तो केवल लाभ ही लाभ होता,
क्योंकि सत्याग्रह के संबंध में अपने सत्य का आग्रह रखते हुए अनायास
सत्याग्रही मृत्यु का आलिंगन करे, इससे अधिक मंगलमय परिणाम की कल्पना वह कर
ही नहीं सकता।
ऊपर की दलीलें केवल सत्याग्रह जैसी लड़ाई को ही लागू हो सकती हैं, क्योंकि
उसमें वैर या घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होता। आत्मशक्ति या स्वावलंबन ही
उसका एकमात्र साधन होता है। उसमें कोई किसी की ओर मदद की आशा से नहीं देखता।
उसमें कोई नेता नहीं होता, इसलिए कोई सेवक-अनुयायी नहीं होता। अथवा यों कहा
जाए कि उसमें सब नेता होते हैं और सब सेवक होते हैं। इसलिए चाहे जितने
प्रसिद्ध व्यक्ति की मृत्यु भी सत्याग्रह की लड़ाई को शिथिल नहीं बनाती,
बल्कि उसके वेग को बढ़ाती है।
सत्याग्रह का शुद्ध और मूलभूत स्वरूप ऐसा है। अनुभव में हम उसके इस स्वरूप
को देख नहीं पाते, क्योंकि हम सबने वैर और घृणा का त्याग नहीं किया है।
प्रत्यक्ष अनुभव और व्यवहार में सब लोग सत्याग्रह का रहस्य नहीं समझते और
कुछ लोगों का आचरण देखकर अनेक लोग उसका मूढ़ अनुकरण करते हैं। इसके सिवा,
ट्रान्सवाल में किया गया सामुदायिक और सामाजिक सत्याग्रह का प्रयोग,
टॉल्स्टॉय के कथनानुसार, पहला ही माना जाएगा। मैं स्वयं तो शुद्ध
सत्याग्रह के कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं जानता। इतिहास का मेरा ज्ञान बहुत ही
मामूली है, इसलिए मैं इस विषय में कोई निश्चित मत नहीं बना सकता। लेकिन सच
पूछा जाए तो हमारा ऐसे उदाहरणों के साथ कोई संबंध नहीं है। यदि हम सत्याग्रह
के मूलभूत सिद्धांतों को स्वीकार करें, तो यह देखा जा सकेगा कि मेरे बताए हुए
परिणाम उसमें से निकलते ही हैं। सत्याग्रह का प्रयोग करना कठिन अथवा असंभव
है, ऐसा कहकर सत्याग्रह के समान अमूल्य शक्ति को छोड़ा नहीं जा सकता।
शस्त्र बल के प्रयोग तो हजारों वर्षों से होते ही आए हैं। उसके कड़वे परिणाम
हम अपनी आँखों के सामने देखते हैं। भविष्य में भी उससे मीठे परिणाम उत्पन्न
होने की शायद ही कोई आशा रखी जा सकती है। अंधकार से यदि प्रकाश उत्पन्न किया
जा सकता हो, तो ही वैरभाव से प्रेमभाव प्रकट किया जा सकता है।