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विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 7. हिंदुस्तानियों ने क्या किया? पीछे     आगे

2.

इस प्रकार नेटाल इंडियन कांग्रेस का कार्य स्थिर और स्थायी हो गया। मैंने लगभग ढाई साल नेटाल में बिताए और इस अरसे में अधिकतर राजनीतिक कार्य ही किया। अब मैंने सोचा कि अगर मुझे और ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में रहना हो, तो अपने परिवार को हिंदुस्तान से लाकर साथ रखना जरूरी है। हिंदुस्तान की एक छोटी सी यात्रा कर आने का भी मेरा मन हुआ। यह इच्छा भी मन में थी कि हिंदुस्तान में रहते हुए भारतीय नेताओं को नेटाल में और दक्षिण अफ्रीका के अन्य उपनिवेशों में रहने वाले हिंदु‍स्तानियों की स्थिति की संक्षिप्त कल्पना करा दी जाए। कांग्रेस ने मुझे छह महीने की छुट्टी दी और मेरी जगह पर नेटाल के प्रसिद्ध व्यापारी स्व. आदमजी मियाँ खान उसके मंत्री नियुक्त हुए। उन्होंने कांग्रेस का कार्य बड़ी कुशलता से चलाया। वे अँग्रेजी काफी अच्छी जानते थे और अनुभव से अँग्रेजी का अपना कामचलाऊ ज्ञान उन्होंने बहुत बढ़ा लिया था। गुजराती का अध्ययन उनका साधारण था। उनका व्यापार मुख्यतः हबशियों में चलता था, इसलिए जूलू भाषा का और उनके रीति-रिवाजों का उन्हें बड़ा ज्ञान हो गया था। उनका स्वभाव शांत और बहुत मिलनसार था। वे जरूरी हो उतना ही बोलते थे। यह सब लिखने का उद्देश्य इतना ही है कि जिम्मेदारी का पद सँभालने के लिए जितनी आवश्यकता अँग्रेजी भाषा के ज्ञान की अथवा दूसरी बड़ी विद्वत्ता की होती है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता सच्चाई, शांति, सहनशीलता, दृढ़ता, समय-सूचकता, और व्यावहारिक बुद्धि की होती है। जिस मनुष्य में इन सुंदर और उदात्त गुणों का अभाव हो, उसमें उत्तम कोटि की विद्वत्ता हो तो भी सामाजिक कार्य में उसका कोई मूल्य नहीं है।

1896 के मध्य में मैं हिंदुस्तान लौटा। मैं कलकत्ते के रास्ते होकर आया, क्योंकि उस समय नेटाल से कलकत्ता जाने वाले जहाज आसानी से मिलते थे। गिरमिटिया मजदूर कलकत्ते से बंबई आते हुए रास्ते में मैं ट्रेन चूक गया, इसलिए एक दिन मुझे अलाहाबाद रुकना पड़ा। वहीं से मैंने अपना कार्य शुरू कर दिया। मैं 'पायोनियर' के श्री चेजनी से मिला। उन्होंने मेरे साथ सौजन्यतापूर्वक बातें कीं। उन्होंने ईमानदारी से मुझे बता दिया कि उनकी सहानुभूति उपनिवेशों में बसे हुए गोरों के साथ है। परंतु यदि मैं कुछ लिखूँ तो उसे पढ़ जाने का और अपने पत्र में उस टिप्पणी लिखने का वचन उन्होंने दिया। इसे मैंने काफी माना।

हिंदुस्तान में रहते हुए मैंने दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की स्थिति पर प्रकाश डालने वाली एक पुस्तिका लिखी। उस पर लगभग सारे ही भारतीय अखबारों ने संपादकीय टिप्पणी लिखी। उसके दो संस्करण छपवाने पड़े। उसकी पाँच हजार प्रतियाँ मैंने देश के विभिन्न स्थानों पर भिजवाई। इसी समय मैंने हिंदुस्तान के नेताओं के दर्शन किए : बंबई में सर फिरोजशाह मेहता, न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी, महादेव गोविंद रानडे आदिके; पूना में लोकमान्य तिलक और उनके मंडल के तथा प्रो. भांडारकर, गोपालकृष्ण गोखले और उनके मंडल के बंबई से आरंभ करके पूना और मद्रास में मैंने भाषण भी किए। इन सबके ब्योरों में यहाँ मैं नहीं जाना चाहता।

परंतु पूना का पवित्र संस्मरण देने का लोभ मैं नहीं रोक सकता, यद्यपि हमारे विषय के साथ उसका कोई संबंध नहीं है। वहाँ की सार्वजनिक सभा लोकमान्य तिलक के हाथ में थी और स्व. गोखलेजी का संबंध डेक्कन सभा के साथ था। सबसे पहले मैं तिलक महाराज से मिला। उनसे जब मैंने पूना में सभा करने की बात कही तो उन्होंने मुझ से पूछा : तुम गोपालराव से मिले हो?

पहले तो मैं समझा नहीं कि उनका मतलब किस गोपालराव से है। इसलिए उन्होंने फिर पूछा : क्या तुम श्री गोखले से मिले हो? उन्हें जानते हो?

मैंने कहा : अभी मैं उनसे मिला नहीं हूँ। केवल नाम से ही उन्हें जानता हूँ। लेकिन मेरा उनसे मिलने का इरादा है।

लोकमान्य : तुम हिंदुस्तान की राजनीति से परिचित नहीं मालूम होते।

मैं बोला : इंग्लैंड से पढ़कर लौटने के बाद मैं हिंदुस्तान में बहुत कम रहा और उस समय भी राजनीतिक विषयों से मैं बिलकुल दूर रहा। मैं मानता था कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है।

लोकमान्य : तब तो मुझे तुम्हें थोड़ी जानकारी देनी होगी। पूना में दो पक्ष है : एक सार्वजनिक सभा का और दूसरा डेक्कन सभा का।

मैंने कहा : इस विषय में मैं कुछ जानता हूँ।

लोकमान्य : यहाँ सभा करना तो आसान है। लेकिन मैं देखता हूँ कि तुम अपना प्रश्न सारे पक्षों के सामने रखना चाहते हो और सब पक्षों की मदद भी तुम लेना चाहते हो। यह बात मुझे पसंद है। परंतु यदि तुम्हारी सभा में सार्वजनिक सभा का कोई सदस्य अध्यक्ष बना, तो डेक्कन सभा का कोई सदस्य उसमें नहीं आएगा और यदि डेक्कन सभा का कोई सदस्य अध्यक्ष होगा, तो सार्वजनिक सभा के सदस्य सभा में नही आएँगे। इस कारण से तुम्हें कोई तटस्थ अध्यक्ष खोजना चाहिए। मैं तो इस विषय में केवल सुझाव ही दे सकता हूँ। दूसरी कोई मदद मुझसे नहीं हो सकेगी। तुम प्रोफेसर भांडारकर को जानते हो? न जानते हो तो भी तुम उनके पास जाओ। वे तटस्थी पुरुष माने जाते हैं। वे राजनीतिक कार्यों में भाग भी नहीं लेते। लेकिन शायद तुम उन्हें अपनी सभा का अध्यक्ष बनने की ललचा सकोगें। श्री गोखले से इस संबंध में बात करना। उनकी भी सलाह लेना। बहुत संभव है कि वे भी मेरे जैसी ही सलाह तुम्हें देंगे। यदि प्रो. भांडारकर जैसे सज्जन सभा के अध्यक्ष हो जाएँ, तो मेरा विश्वास है कि सभा को सफल बनाने का काम दोनों पक्ष अपने हाथ में लेंगे। हमारी तो इसमें तुम्हें पूरी मदद मिलेगी।

लोकमान्य की यह सलाह लेने के बाद मैं गोखलेजी के पास गया। इस प्रथम मिलाप में ही उन्होंने मेरे हृदय पर कैसे अधिकार कर लिया, यह तो मैं अन्यत्र लिख चुका हूँ। जिज्ञासु पाठकों को 'यंग इंडिया' या 'नवजीवन' की फाइल पढ़ लेनी चाहिए। लोकमान्य की सलाह गोखलेजी को भी पसंद आई। मैं तुरंत प्रोफेसर भांडारकर के पास गया। उन विद्वान बुजुर्ग के दर्शन किए। नेटाल के हिंदुस्तानियों की कहानी ध्यान से सुनकर उन्होंने कहा : ''तुम देखते हो कि मैं सार्वजनिक जीवन में शायद ही भाग लेता हूँ। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। फिर भी तुम्हारी बातों ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला है। सभी पक्षों की मदद लेने का तुम्हारा विचार मुझे पसंद है। तुम नौजवान हो और हिंदुस्तान की राजनीतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ हो। इसलिए दोनों पक्षों के सदस्यों से कहना कि मैंने तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। जब उनमें से कोई सभा होने की सूचना मुझे करेंगे तब मैं जरूर हाजिर हो जाऊँगा।'' और पूना में सुंदर सभा हुई। दोनों पक्षों के नेता उसमें उपस्थित रहे और दोनों पक्षों के नेताओं ने उसमें भाषण किए।

इसके बाद मैं मद्रास गया। वहाँ मैं जस्टिस सुब्रह्मण्यम् अय्यर, श्री पी. आनंदचार्लु, 'हिंदू' के तत्कालीन संपादक श्री जी. सुब्रह्मण्यम्, 'मद्रास स्टैंडर्ड' के संपादक श्री परमेश्वरम पिल्ले, प्रख्यात वकील भाष्यम आयंगर, श्री नॉर्टन आदि से मिला। वहाँ भी एक बड़ी सभा हुई। मद्रास से मैं कलकत्ता गया। वहाँ मैं सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, महाराजा ज्योतींद्र मोहन टागोर, 'इंग्लिशमैन' के संपादक स्व. श्री सॉन्डर्स और दूसरे लोगों से मिला। कलकत्ते‍ में सभा की तैयारियाँ चल रही थीं, इतने में नवंबर 1896 में - नेटाल से मुझे तार मिला : ''तुरंत आइए।'' मैं समझ गया कि वहाँ हिंदुस्तानियों के विरुद्ध कोई न कोई नया आंदोलन शुरू हुआ होगा। इसलिए मैं कलकत्ते का कार्य पूरा किए बिना ही लौट पड़ा और बंबई से मिलने वाले पहले ही जहाज पर अपने परिवार के साथ सवार हो गया। यह जहाज दादा अब्दुल्ला की पेढ़ी ने खरीदा था। अपने अनेक साहसों में से नेटाल और पोरबंदर के बीच जहाज चलाने का उनका यह पहला साहस था। उस जहाज का नाम 'कुरलैंड' था। मेरा टिकट 'कुरलैंड' का था। इस जहाज के रवाना होने के तुरंत बाद उसी दिन पर्शियन कंपनी का एक जहाज 'नादरी' भी बंबई से नेटाल के लिए रवाना हुआ था। दोनों जहाजों में दक्षिण अफ्रीका जानेवाले लगभग 800 मुसाफिर रहे होंगे।

हिंदुस्तान में दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की स्थिति के बारे में मैंने जो आंदोलन किया था उसने इतना बड़ा महत्व ग्रहण कर लिया कि हिंदुस्तान के अधिकतर प्रमुख अखबारों ने उस पर टिप्पणियाँ लिखी थीं और रूटर ने उसके संबंध में कई तार विलायत भेजे थे। इसका पता मुझे नेटाल पहुँचने पर चला। विलायत पहुँचे हुए उन तारों के आधार पर रूटर के वहाँ के प्रतिनिधि ने एक संक्षिप्त तार दक्षिण अफ्रीका भी भेजा था। उस तार में हिंदुस्तान में मैंने जो कुछ कहा उसे कुछ अतिशयोक्ति का रूप दे दिया गया था। ऐसी अतिशयोक्ति हम बहुत बार देखते हैं। इस तरह की अतिशयोक्ति हमेशा जान-बूझ कर नहीं की जाती। अनेक कार्यों में व्यस्त रहने वाले लोग, जिनके अपने पूर्वाग्रह और पहले से बंधे हुए विचार होते हैं, किसी चीज को ऊपर-ऊपर से पढ़ ले‍ते हैं और फिर उसके आधार पर एक सार तैयार करते हैं, जो कभी-कभी आंशिक रूप में उनकी कल्पना की उपज होता है। फिर इस सार के विभिन्न स्थानों में विभिन्न अर्थ लगाए जाते हैं। यह सब अनायास ही होता रहता है। सार्वजनिक कार्यों के साथ जुड़ा हुआ यह एक खतरा है और यह उनकी मर्यादा भी है। हिंदुस्तान में रहते हुए मैंने नेटाल के गोरों की टीका की थी, उन पर आरोप लगाए थे; गिरमिटिया मजदूरों पर लगाए गए 3 पौंड के मुंड-कर की मैंने बहुत कड़े शब्दों में निंदा की थी। बाला सुंदरम् नामक एक निर्दोष गिरमिटिये पर उसके मालिक ने हमला किया था। इससे उसके शरीर पर जो अनेक घाव हो गए थे, उन्हें मैंने अपनी आँखों से देखा था। उसका सारा केस मेरे हाथ में था। बालासुंदरम के कष्टों का चित्रण मैं अपनी शक्ति के अनुसार काफी अच्छा कर सका था। जब मेरे भाषणों का तोड़ा-मरोड़ा हुआ रूटर का सार नेटाल के गोरों ने पढ़ा, तो वे मुझ पर आग-बबूला हो उठे। खूबी तो यह है कि इस विषय में मैंने नेटाल में जो कुछ लिखा था, वह हिंदुस्तान में जो कुछ लिखा और कहा उससे अधिक तीखा और अधिक विस्तृत था। हिंदुस्तान में एक भी बात मैंने ऐसी नहीं कही, जिसमें थोड़ी भी अतिशयोक्ति रही हो। परंतु अपने अनुभव से मैं यह जानता था कि किसी भी घटना का वर्णन जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति के सामने करते हैं तब जितना अर्थ हम उसे देते हैं उसकी अपेक्षा अपरिचित श्रोता अथवा पाठक उसमें अधिक अर्थ देखता है। इस कारण से हिंदुस्तान में मैंने जान-बूझ कर नेटाल का चित्र कुछ हद तक हलका ही चित्रित किया था। लेकिन नेटाल में मैं जो कुछ लिखता था उसे बहुत कम गोरे पढ़ते थे और उसकी परवाह तो उनसे भी कम गोरे करते थे। हिंदुस्तान में मेरे कहे या लिखे हुए शब्दों के बारे में इससे उलटा ही असर हो सकता था और हुआ। रूटर की साररूप रिपोर्ट तो हजारों गोरे पढ़ते थे। फिर, जो विषय तार में उल्लेख करने योग्य माना गया हो उसका महत्व वस्तुतः जितना होता है उससे अधिक माना जाता है। नेटाल के गोरों ने सोचा कि मेरे कार्य का हिंदुस्तान में उतना ही प्रभाव पड़ा है जितना उन्होंने माना है और इसलिए शायद गिरमिट की प्रथा बंद हो जाएगी, जिससे सैकड़ों गोरे मालिकों को नुकसान पहुँचेगा। इसके सिवा, उन लोगों को लगा कि हिंदुस्तान के सामने नेटाल के गोरे कलंकित हो गए हैं।

इस प्रकार नेटाल के गोरे मेरे विरुद्ध उत्तेजित हो रहे थे तभी उन्होंने सुना कि मैं अपने परिवार के साथ 'कुरलैंड' में नेटाल लौट रहा हूँ, जिसमें 300-४00 हिंदुस्तानी यात्री हैं। और उसके साथ उतने ही हिंदुस्तानी यात्रियों को लाने वाला 'नादरी' जहाज भी है। इस समाचार ने आग में घी डालने का काम किया। इससे गोरे और ज्यादा उत्तेजित हो गए। नेटाल के गोरों ने बड़ी-बड़ी सभाएँ कीं। लगभग सभी अग्रगण्य गोरों ने उनमें भाग लिया। सभाओं में मुख्यतः मेरे खिलाफ और सामान्यतः हिंदुस्तानी यात्रियों के खिलाफ सख्त‍ टीकाएँ हुई। 'कुरलैंड' और 'नादरी' के आगमन को 'नेटाल पर होनेवाले आक्रमण' का रूप दिया गया। सभा में भाषण करने वाले लोगों ने इसका यह अर्थ निकाला कि मैं इन दोनों जहाजों के 800 यात्रियों को अपने साथ नेटाल ला रहा हूँ। और सभा के लोगों को यह भी समझाया गया कि नेटाल को स्वतंत्र हिंदुस्तानियों से भर देने के प्रयत्न का मेरा यह पहला कदम है। सभा में एकमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि दोनों जहाजों के यात्रियों को और मुझे नेटाल की भूमि पर उतरने न दिया जाए। यदि नेटाल सरकार इन यात्रियों को न रोके या नहीं रोक सके, तो इस संबंध में सभा में नियुक्त की गई गोरों की कमेटी कानून को अपने हाथ में ले ले और अपने ही बल से हिंदुस्तानियों को उतरने से रोके! दोनों जहाज एक ही दिन नेटाल के डरबन बंदरगाह पर पहुँचे।

पाठकों को यह स्मरण होगा कि हिंदुस्तान में प्लेग के दर्शन पहले पहल 1896 में हुए थे। नेटाल सरकार के पास हमें बाकायदा हिंदुस्तान लौटा देने का कोई साधन नहीं था। उस समय तक प्रवेश-प्रतिबंधक कानून (इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन एक्ट) अस्तित्व में नहीं आया था। नेटाल सरकार की संपूर्ण सहानुभूति गोरों की उपर्युक्त कमेटी के साथ ही थी। नेटाल सरकार के एक मंत्री स्वं. श्री एस्कंब उस कमेटी के कार्य में पूरा भाग लेते थे। कमेटी को भड़काने का काम भी वे ही करते थे। प्रत्येक बंदरगाह में यह नियम होता है कि किसी जहाज में छुतहे रोग का उपद्रव हो अथवा कोई जहाज ऐसे बंदरगाह से आ रहा हो जहाँ छुतहा रोग फैला हो, तो उस जहाज को अमुक समय के लिए 'क्वारन्टीन' में रखा जाए - अर्थात जहाज के साथ का संपर्क तोड़ दिया जाए और यात्रियों, माल वगैरा को अमुक समय तक उतारने की मनाही कर दी जाए। ऐसा प्रतिबंध स्वास्थ्य के नियमों के आधार पर ही और बंदरगाह के स्वास्थ्य अधिकारी की आज्ञा से ही लगाया जा सकता है। नेटाल सरकार ने प्रतिबंध लगाने के इस अधिकार का केवल राजनीतिक उपयोग - इसीलिए दुरुपयोग - किया और जहाजों के यात्रियों में कोई भी छुतहा रोग न होते हुए भी दोनों जहाजों को 23 दिन तक डरबन बंदरगाह के प्रवेश-मार्ग पर लटकाए रखा। इस बीच गोरों की कमेटी का काम जारी रहा। दादा अब्दुल्ला 'कुरलैंड' के मालिक थे और 'नादरी' के एजेंट थे। उन्हें कमेटी ने खूब डराया-धमकाया। कुछ गोरों ने दोनों जहाजों को वापिस हिंदुस्तान ले जाने के लिए उन्हें प्रलोभन दिए और वापिस न ले जाने की स्थिति में उनके व्यापार को भी धक्का पहुँचाने का डर दिखाया। लेकिन पेढ़ी के साझेदार कायर नहीं थे। उन्होंने धमकी देनेवाली गोरों को सुना दिया : "हमारा सारा व्यापार चौपट हो जाएगा, हम बरबाद हो जाएँगे, तब तक हम लड़ेंगे। लेकिन डर कर इन निर्दोष और असहाय मुसाफिरों को वापस भेजने का गुनाह हम नहीं करेंगे। आप यह समझ लें कि जैसे आपको अपने देश का अभिमान है वैसे ही हमें भी अपने देश का कुछ अभिमान होगा।" इस पेढ़ी के पुराने वकील श्री एफ.ए. लॉटन भी साहनी और बहादुर थे।

संयोगवश इसी अरसे में स्व. श्री मनसुखलाल हीरालाल नाजर (सूरत के कायस्थ तथा स्व. श्री नानाभाई हरिदास के भानजे) दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। मैं उन्हें पहचानता नहीं था। उनके जाने का भी मुझे कोई पता नहीं था। मेरे लिए यह कहना शायद ही जरूरी हो कि 'नादरी' और 'कुरलैंड' जहाजों के मुसाफिरों को दक्षिण अफ्रीका लाने में मेरा बिलकुल हाथ नहीं था। उनमें से अधिकतर लोग दक्षिण अफ्रीका के पुराने निवासी थे। और बहुत से लोग तो ट्रांसवाल जाने के लिए इन जहाजों पर चढ़े थे। गोरों की कमे‍टी ने इन मुसाफिरों के लिए भी धमकी-भरी चेता‍वनियाँ भिजवाई। कैप्टनों ने मुसाफिरों को वे चेतावनियाँ पढ़ सुनाई। उनमें स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि : "नेटाल के गोरे अत्यंत उत्तेजित हो गए हैं। उनकी उत्तेजित स्थिति को जानते हुए भी यदि हिंदुस्तानी मुसाफिर जहाजों से उतरने का प्रयत्न करेंगे, तो बंदरगाह पर कमेटी के लोग खड़े रहेंगे ओर एक-एक हिंदुस्तानी को समुद्र में फेंक देगे।" 'कुरलैंड' के मुसाफिरों को इस चेतावनी का अनुवाद करके मैंने सुनाया। 'नादरी' के मुसाफिरों को वहाँ के किसी अँग्रेजी जाननेवाले मुसाफिर ने इनका अनुवाद सुनाया। दोनों ही जहाजों के मुसाफिरों ने वापिस जाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि : "बहुत से मुसाफिरों को ट्रांसवाल जाना है। जो लोग नेटाल में उतरना चाहते हैं, उनमें से भी बहुत से तो नेटाल के पुराने निवासी हैं। जो भी हो, हममें से हर एक हिंदुस्तानी को नेटाल में उतरने का कानूनी अधिकारी है और कमेटी की धमकियों के बावजूद अपना यह अधिकार सिद्ध करने के लिए मुसाफिर हर हालत में यहाँ उतरेंगे।"

नेटाल की सरकार भी थक गई थी। अनुचित और अन्यायी प्रतिबंध आखिर कितने दिन तक लगाया जा सकता था? 23 दिन पूरे हो गए। लेकिन न तो दादा अब्दुल्ला अपनी बात से डिगे और न हिंदुस्तानी मुसाफिर डिगे। इसलिए 23 दिन के बाद प्रतिबंध उठा लिया गया और जहाजों को बंदरगाह के भीतर आने की इजाजत मिली। इस बीच श्री एस्कंब ने उत्तेजित बनी हुई कमेटी को शांत किया। उन्होंने एक सभा करके नेटाल के गोरों से कहा : "डरबन में यूरोपियनों ने सुंदर एकता और हिम्मत दिखाई। आपसे जितना बना उतना आपने किया। सरकार ने भी आपकी मदद की। उसने 23 दिन तक हिंदुस्तानियों को प्रतिबंध में रखा। आपने अपनी भावनाओं और अपने जोश का जो प्रदर्शन किया वह काफी है। इसका इंग्लैंड की बड़ी सरकार पर गहरा असर होगा। आपके कार्य से नेटाल सरकार का काम सरल हो गया है। अब अगर आप बल का उपयोग करके एक भी हिंदुस्तानी मुसाफिर को उतरने से रोकेंगे, तो अपने काम को आप खुद ही नुकसान पहुँचाएँगे। आप नेटाल सरकार की स्थिति को विषय बना देंगे। ऐसा करके भी आप हिंदुस्तानियों को रोकने में सफल नहीं होंगे। मुसाफिरों का तो कोई अपराध है ही नहीं। उनमें स्त्रियाँ और बालक भी हैं। वे बंबई से जहाज पर चढ़े उस समय उन्हें आपकी भावनाओं का कोई ज्ञान ही नहीं था। इसलिए अब आपको मेरी सलाह बिखर जाना चाहिए और मुसाफिरों के उतरने में जरा भी रूकावट नहीं डालती चाहिए। लेकिन मैं इतना वचन आपको देता हूँ कि भविष्य में आनेवाले हिंदुस्तानियों के बारे में नियंत्रण लगाने की सत्ता नेटाल सरकार धारासभा से प्राप्त कर लेगी।" यहाँ मैंने श्री एस्कंब के भाषण का सार ही दिया है। श्री एस्कंब के श्रोतागण उनके भाषण से निराश तो हुए। परंतु नेटाल के गोरों पर उनका बड़ा प्रभाव था, इसलिए उनके कहने से सब गोरे बिखर गए। और दोनों जहाज बंदरगाह पर आए।

मेरे बारे में श्री एस्कंब ने कहलवाया कि मैं दिन में जहाज न छोड़ूँ। शाम को वे बंदरगाह के सुपरिटेंडेंट को मुझ लिवाने भेजेंगे। उसी के साथ मैं घर जाऊँ। परंतु मेरा परिवार किसी भी समय उतर सकता है। यह कोई बाकायदा हुक्म‍ नहीं था, बल्कि कैप्टन को जहाज से मुझे उतरने न देने की सलाह थी तथा मेरे सिर पर झूल रहे खतरे की चेतावनी थी। कैप्टन मुझे जबरन तो रोक ही नहीं सकता था। लेकिन मैंने यह माना कि मुझे इस सुझाव को स्वीकार करना चाहिए। अपने बाल-बच्चों को घर न भेज कर मैंने डरबन के प्रसिद्ध व्यापारी तथा मेरे पुराने मुवक्किल और मित्र पारसी रुस्तमजी के यहाँ यह कहकर भेज दिया कि मैं वहीं तुमसे मिलूँगा। मुसाफिरों के उतर जाने पर श्री लॉटन - दादा अब्दुल्लाह के वकील और मेरे मित्र - आए और मुझसे मिले। उन्होंने मुझ से पूछा : "आप अभी तक क्यों नहीं उतरे?" मैंने उनसे श्री एस्कंब के पत्र की बात कही। वे बोले : "मुझे तो शाम तक राह देखना और बाद में अपराधी या चोर की तरह शहर में प्रवेश करना पसंद नहीं है। आपको यदि कोई डर न हो, तो अभी ही मेरे साथ चलिए। मानो कुछ हुआ ही न हो इस प्रकार हम पैदल ही शहर में होकर चले जाएँगे।" मैंने कहा : "मैं नहीं मानता कि मुझे किसी तरह का डर है। मेरे समक्ष शिष्टता-अशिष्टता का प्रश्न केवल यही है कि एस्कंब की सूचना-सलाह को स्वीकार करना चाहिए या नहीं। और यह भी थोड़ा सोच लेना चाहिए कि जहाज के कैप्टन की इसमें कोई जिम्मेदारी है या नहीं।" श्री लॉटन हँस कर बोले : मि. एस्कंब ने आपके लिए ऐसा क्या किया है कि जिससे उसकी सलाह पर आपको थोड़ा भी ध्यान देना पड़े? इसके सिवा, उनकी सलाह में केवल भलमनसाहत ही है और कोई भेद नहीं है, ऐसा विश्वास करने के लिए आपके पास क्या कारण है? शहर में क्या-क्या हुआ है और उसमें इन महाशय का कितना हाथ रहा है, यह मैं आपसे ज्यादा जानता हूँ। (मैंने बीच में सिर हिलाया) लेकिन हम मान लें कि श्री एस्कंब ने भले आशय से ही आपको यह सलाह दी है। फिर भी मेरा यह निश्चित मत है कि उनकी सलाह पर अमल करने से आपकी प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा। इसलिए मेरी तो आपको यह सलाह है कि यदि आप तैयार हों तो इसी समय मेरे साथ चले चलिए। कैप्टन तो हमारे ही आदमी हैं, इसलिए उनकी जिम्मेदारी हमारी जिम्मेदारी है। उनसे पूछने वाले सिर्फ दादा अब्दुल्ला ही हो सकते हैं। मैं जानता हूँ कि वे इस विषय में क्या सोचेंगे, क्योंकि उन्होंने इस लड़ाई में बहुत बड़ी बहादुरी दिखाई है।" मैंने कहा : "तब हम चलें। मुझे कोई तैयारी नहीं करनी है। मुझे केवल अपनी पगड़ी ही सिर पर रखनी है। कैप्टन से कह दें और हम लोग निकल पड़ें।" हमने कैप्टन की इजाजत ले ली।

श्री लॉटन डरबन के बड़े पुराने और प्रसिद्ध वकील थे। मैं हिंदुस्तान गया उससे पहले ही मेरा उनके साथ घनिष्ठ संबंध बंध गया था। अपने कठिन मुकदमों में मैं उन्हीं की मदद लेता था और बहुत बार बड़े वकील के रूप में उन्हीं को रखता था। वे साहसी थे और कद्दावर शरीर वाले थे।

हमारा रास्ता डरबन के बड़े से बड़े मुहल्ले में होकर जाता था। हम रवाना हुए उस समय शाम के चार या साढ़े चार बजे होंगे। आकाश में हलके बादल थे, लेकिन सूरज को ढकने के लिए वे काफी थे। पैदल रुस्तमजी के घर तक पहुँचने के लिए कमसे कम एक घंटे का रास्ता था। हम जहाज से उतरे ही थे कि कुछ गोरे लड़कों ने हमे देख लिया। बड़ी उमर के आदमी उनमें कोई नहीं थे। सामान्यतः बंदरगाह पर जितने लोग रहा करते थे उतने ही वहाँ दिखाई देते थे। अपने ढंग की पगड़ी पहननेवाला केवल मैं ही था, इसलिए उन लड़कों ने मुझे तुरंत पहचान लिया। वे 'गांधी', 'गांधी', 'इसको मारो', 'इसको घेर लो' चिल्लाते-चिल्लाते हमारी ओर आए। कुछ लड़के कंकड़-पत्थर भी फेंकने लगे। अब कुछ अधेड़ उमर के गोरे भी उनमें मिल गए। धीरे-धीरे आक्रमणकारियों की भीड़ बढ़ने लगी। श्री लॉटन को लगा कि पैदल जाने में खतरे का सामना करना होगा। इसलिए उन्होंने रिक्शा बुलाया। रिक्शा का अर्थ है मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली छोटी गाड़ी। मैं तो किसी दिन रिक्शा में बैठा ही नहीं था; क्योंकि जिस सवारी को मनुष्य खींचते हों उसमें बैठने से मुझे बड़ी नफरत थी। फिर भी आज मुझे लगा कि रिक्शा में बैठ जाना मेरा धर्म है। परंतु ईश्वर जिसे बचाना चाहता है वह नीचे गिरना चाहे तो भी गिर नहीं सकता, ऐसा अपने जीवन में तो पाँच-सात बार आई कठिनाइयों में मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है। उन कठिनाइयों में मैं गिरा नहीं, इसका श्रेय मैं स्वयं तो बिलकुल नहीं ले सकता। दक्षिण अफ्रीका में रिक्शा खींचनेवाले हबशी ही होते हैं। गोरे लड़कों और बड़ी उमर के गोरों ने रिक्शावाले को धमकी दी कि तू अगर इस आदमी को रिक्शा में बैठाएगा, तो हम तुझे पीटेंगे और तेरी रिक्शा तोड़ डालेंगे। इसलिए रिक्शावाला 'खा' (नहीं) कह कर भाग गया और मैं रिक्शा में नहीं बैठ पाया।

अब हमारे सामने पैदल ही जाने के सिवा दूसरा कोई रास्ता न रह गया। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए वैसे गोरों की भीड़ भी बढ़ती ही चली गई। हम दोनों मुख्य मार्ग वेस्ट स्ट्रीट में पहुँचे तब तक तो छोटे-बड़े सैकड़ों इकट्ठे हो गए। एक बलवान गोरे ने श्री लॉटन को हाथों में उठाकर मुझसे अलग कर दिया। इसलिए अब वे मेरे पास तक पहुँचने की स्थिति में नहीं रहे। मुझ पर गालियों की और पत्थरों की या जो कुछ भी गोरों के हाथ लगा उसकी वर्षा होने लगी। मेरी पगड़ी सिर से नीचे गिरा दी गई। इसी बीच एक कद्दावर मोटा गोरा मेरे पास आया। पहले उसने मुझे एक जोर का थप्पड़ लगाया; फिर एक लात जमाई। मैं चक्की खाकर गिरनेवाला ही था कि रास्ते के पास के एक मकान के आँगन की जाली मेरे हाथ में आ गई। वहाँ मैंने थोड़ा दम लिया और चक्कर मिटने पर आगे बढ़ा। जिंदा मुकाम पर पहुँचने की आशा मैं लगभग छोड़ चुका था। लेकिन इतना मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय भी मेरा हृदय इन मारने वाले गोरों को जरा भी दोषी नहीं मानता था।

ऐसी मुसीबत में मैं अपना रास्ता तय कर रहा था कि इतने में डरबन के पुलिस सुपरिटेंडेंट की पत्नी मेरे सामने से निकली। हम एक-दूसरे को भलीभाँति जानते थे। वह एक बहादुर महिला थी। आकाश में बादल छाये हुए थे और अब तो सूरज भी ढल रहा था, फिर भी उस महिला ने मेरी रक्षा के लिए अपना छाता खोला और वह मेरी बगल में रहकर चलने लगी। किसी महिला का अपमान, और उसमें भी डरबन के बहुत पुराने और लोकप्रिय पुलिस सुपरिटेंडेंट की पत्नी का अपमान तो गोरे कर ही नहीं सकते थे - उसे कोई चोट भी नहीं पहुँचा सकते थे। इसलिए उसे बचाकर जो मार मुझ पर पड़ती थी वह बहुत हल्की ही होती थी। इतने में मुझ पर हो रहे इस आक्रमण का पता पुलिस सुपरिटेंडेंट को चल गया। उन्होंने मेरी रक्षा के लिए पुलिसदल भेजा, जिसने आकर मुझे घेर लिया। हमारा रास्ता पुलिस थाने के पास होकर जाता था। जब हम वहाँ पहुँचे तो मैंने देखा कि पुलिस सुपरिटेंडेंट हमारी प्रतीक्षा में ही खड़े थे। उन्होंने मुझे पुलिस-थाने में ही जाने की सलाह दी। मैंने उनका उपकार माना, लेकिन थाने में जाने से इनकार कर दिया। मैंने कहा : "मुझे किसी भी हालत में अपने मुकाम पर पहुँचाना होगा। डरबन के लोगों की न्यायवृत्ति पर और अपने सत्य पर मुझे विश्वास है। आपने मेरी रक्षा के लिए जो पुलिस-दल भेजा, उसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी हूँ। श्रीमती एलेक्जेन्डे ने भी मेरी रक्षा की है।"

वहाँ से मैं किसी अधिक कठिनाई और कष्ट के बिना सही-सलामत रुस्तमजी के घर पहुँच गया। उनके घर पहुँचते-पहुँचते लगभग शाम हो गई थी। 'कुरलैंड' जहाज के डॉक्टर दाजी बरजोर रुस्तमजी सेठ के यहीं थे। उन्होंने मेरा इलाज शुरू किया। मेरे घावों की परीक्षा की। घाव ज्यादा तो नहीं थे। एक गुप्त‍ चोट पड़ी थी, वहीं ज्यादा तकलीफ दे रही थी। लेकिन अभी मुझे शांति से आराम करने का अधिकार नहीं मिला था। रुस्तमजी सेठ के मकान के सामने हजारों गोरे इकट्ठे हो गए थे। रात पड़ जाने से लुच्चे-लफंगे लोग भी उनमें शरीक हो गए थे। उन लोगों ने रुस्तमजी से कहलवाया कि अगर तुम गांधी को हवाले नहीं करोगे, तो हम उसके साथ तुम्हें और तुम्हारी दुकान को भी जला कर खाक कर देंगे। लेकिन रुस्तमजी किसी के डराये डर जाएँ ऐसे हिंदुस्तानी नहीं थे। पुलिस सुपरिटेंडेंट एलेक्जेन्डर को इस बात का पता चला, तो वे अपने खुफिया पुलिस के साथ आकर चुपके से गोरों की भीड़ में पैठ गए। एक बेंच मँगाकर उस पर खड़े हो गए। इस तरह लोगों के साथ बातचीत करने के बहाने उन्होंने रुस्तमजी के मकान के दरवाजे पर कब्जा कर लिया, ताकि उसे तोड़ कर कोई भीतर न घुस सके। ठीक जगहों पर खुफिया पुलिस तो तैनातकर ही दी थी। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने अपने एक कर्मचारी से कह दिया था कि वह हिंदुस्तानी की पोशाक पहन कर और मुँह को रंग कर हिंदुस्तानी व्यापारी का वेश बना ले। साथ ही उसे यह हुक्म दिया था कि वह आकर मुझसे मिले और कहे कि : "अगर आप अपने मित्र की, उनके मेहमानों की, उनके माल की और अपने परिवार की रक्षा करना चाहते हों, परिवार की रक्षा करना चाहते हों, तो आपको हिंदुस्तानी पुलिस की पोशाक पहन कर पारसी रुस्तमजी के गोदाम में हुए गोरों की भीड़ में से ही मेरे आदमी के साथ चुपके से निकल जाना चाहिए और पुलिस-थाने पर पहुँच जाना चाहिए। इस गली के कोने पर आपके लिए गाड़ी तैयार रखी गई है। आपको और दूसरों को बचाने का मेरे पास सिर्फ एक यही रास्ता है। भीड़ इतनी अधिक उत्तेजित हो गई है कि उसे नियंत्रण में रखने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। अगर आप यहाँ से जल्दी नहीं निकल जाएँगे, तो यह मकान जमींदोज कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं; मेरे लिए इस बात का अंदाज लगाना भी संभव नहीं है कि आपके इस मकान में रहने से जान-माल का कितना नुकसान होगा।"

मैंने स्थिति को तुरंत समक्ष लिया। मैंने जल्दी-से हिंदुस्तानी सिपाही की पोशाक पहनी और रुस्तमजी के मकान से बाहर निकल गया। वह पुलिस अफसर और मैं सही-सलामत पुलिस थाने में पहुँच गए। इस बीच पुलिस सुपरिटेंडेंट श्री एलेक्जेनन्डर अपने प्रासंगिक गीतों से और भाषणों से भीड़ का मनोरंजन करते रहे। जब उन्हें मेरे पुलिस-थाने में पहुँचने का संकेत मिल गया तब उन्होंने गंभीर बनकर भीड़ से पूछा :

"आप लोग क्या चाहते हैं?"

"हम गांधी को चाहते हैं?"

"हम उसे जलाएँगे।"

"उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"

"उसने हमारे बारे में हिंदुस्तान में बहुतेरी झूठी बातें कही है और वह नेटाल में हजारों हिंदुस्तानियों की घुसाना चाहता है।"

"लेकिन गांधी बाहर न निकलें, तो आप क्या। करेंगे?"

"तो हम इस मकान को जला डालेंगे।"

"मकान में तो गांधीजी पत्नीं और बच्चे भी हैं। दूसरे स्त्री-पुरुष भी हैं। स्त्रियों और बच्चों को जलाने में भी आपको शर्म नहीं आएगी?"

"इसका दोष आप पर होगा। आप हमें ऐसा करने के लिए लाचार बना दें, तो हम क्या करें? हम दूसरे किसी को चोट पहुँचाना नही चाहते। गांधीजी हमें सौंप दीजिए, बस इतने से हमें संतोष हो जाएगा। आप गुनहगार को हमें न सौपें और उसे पकड़ने में दूसरों को होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी हम पर डालें, यह कहाँ का न्याय है?"

पुलिस सुपरिटेंडेंट ने मुस्कराकर भीड़ के लोगों को यह खबर सुनाई कि मैं तो उनके बीच के ही होकर दूसरी जगह सुरक्षित रूप में पहुँच गया हूँ! लोग यह सुन कर खिलखिला कर हँस पड़े और चिल्लाने लगे : "यह झूठ है, सरासर झूठ है!"

श्री एलेक्जेन्डर ने उनसे कहा : "यदि आप अपने बूढ़े पुलिस सुपरिटेंडेंट की बात का भरोसा न करें, तो आप पसंद के तीन-चार आदमियों की एक कमेटी बना दें। दूसरे सब लोग मुझ यह वचन दीजिए कि कोई मकान से अंदर नहीं घुसेंगे और यदि कमेटी गांधी को मकान में न खोज सके तो आप सब शांति से अपने-अपने घर लौट जाएँगे। आज उत्तेजित होकर आपने पुलिस की नहीं लेकिन आपकी हुई है। इसलिए पुलिस ने आपके साथ चाल चली : वह आपके बीच के आपके शिकार को निकाल कर ले गई और आप सब हार गए। इसके लिए पुलिस को तो आप दोष नहीं ही देंगे। जिस पुलिस को आपने ही नियुक्त किया है, उसने अपने कर्तव्यों का पालन किया है।"

यह सारी बातचीत पुलिस सुपरिटेंडेंट ने इतनी मिठास से, इतने विनोद से और इतनी दृढ़ता से की कि भीड़ के लोगों ने माँगा हुआ वचन उन्हें दे दिया। उन्होंने कमेटी बनाई। कमेटी ने पारसी रुस्तमजी के घर का कोना-कोना छान डाला और बाहर आकर लोगों से कहा : "सुपरिटेंडेंट की बात सच है। उन्होंने हमें हरा दिया है।" लोग सब निराशा तो हुए, लेकिन अपना वचन उन्होंने पाला। उन्होंने रुस्तमजी के मकान को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया। सब अपने-अपने घर चले गए। वह 13 जनवरी, 1897 का दिन था।

उसी दिन सबेरे मुसाफिरों पर लगे प्रतिबंध के उठते ही डरबन के एक अखबार का संवाददाता जहाज पर मेरे पास आकर सारी बातें मुझसे पूछ गया था। मुझ पर लगाए गए सारे आरोपों के बारे में पूरा स्पष्टीकरण देना मेरे लिए बहुत आसान था। मैंने सारे उदाहरण देकर संवाददाताओं सामने यह सिद्ध कर दिया था कि हिंदुस्तान में मैंने जरा भी अतिशयोक्ति नहीं की। जो कुछ मैंने वहाँ किया वह मेरा धर्म था। अपने धर्म का पालन यदि मैंने न किया होता, तो मैं मनुष्य-जाति में अपनी गिनती कराने लायक भी न रह जाता। ये सारी बातें दूसरे दिन पूरी-पूरी डरबन के अखबारों में छपीं और सयाने व समझदार गोरों ने अपनी गलती स्वीकार की। अखबारों ने नेटाल के यूरोपियनों कि स्थिति के बारे में अपनी सहानुभूति प्रकट की, परंतु उसके साथ मेरे कार्य का भी उन्होंने पूरा समर्थन किया। इससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़ी और मेरे साथ हिंदुस्तानी कौम की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। यूरोपियनों के सामने यह भी सिद्ध हुआ कि गरीब हिंदुस्तानी भी नामर्द और कायर नहीं हैं और हिंदुस्तानी व्यापारी अपने व्यापार की परवाह किए बिना स्वाभिमान के खातिर और स्वदेश के खातिर लड़ सकते हैं।

यद्यपि इससे कौमको बड़ा दुख सहना पड़ा, दादा अब्दुल्ला। को तो बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, फिर भी मैं मानता हूँ कि अंत में इससे लाभ ही हुआ। कौम को भी अपनी शक्ति का थोड़ा अंदाज लगा और उसका आत्म-विश्वास बढ़ा। मुझे भी अधिक अनुभव हुआ और अधिक तालीम मिली। आज जब मैं उन दिनों का विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि ईश्वर उस समय मुझे सत्याग्रह के लिए तैयार कर रहा था।

नेटाल की घटनाओं का असर इंग्लैंड में भी हुआ। श्री चैंबर लेनने नेटाल सरकार को तार किया कि जिन गोरों ने मुझ पर आक्रमण किया उन पर कोर्ट में मुकदमा चलाया जाना चाहिए और मुझे न्याय मिलना चाहिए।

श्री एस्कंब उस समय नेटाल सरकार के एटर्नी-जनरल थे। उन्होंने मुझे बुलाया। श्री चैंबरलेन के तारकी बात कही, गोरों के आक्रमण सें मुझे जो चोट पहुँची उसके लिए दुख प्रकट किया और मैं खतरे से बच गया इसके लिए अपनी खुशी बताई। उन्होंने यह भी कहा : ''मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहता था कि आपको या आपकी कौम के किसी भी आदमी को चोट पहुँचे। यूरोपियनों के आक्रमण से आपको चोट पहुँचने का मुझे डर था, इसी कारण से मैंने आपके पास यह सूचना भेजी थी दिन में न उतर कर आप रात को जहाज से उतरें। लेकिन मेरी सूचना आपको ठीक नहीं लगी। आपने मि. लॉटन की सलाह मानी, इसके लिए मैं आपको जरा भी दोषी नहीं मानता। आपको जो उचित लगा उसे करने का आपको पूरा अधिकार था। मि. चैंबरलेन की माँग के साथ नेटाल सरकार पूरी तरह सहमत है। हम चाहते हैं कि अपराधियों को दंड मिले। क्या आक्रमण करने वालों में से आप किसी को पहचान सकते है?''

मैंने उत्तर दिया : "संभव है, एक-दो आदमियों को मैं पहचान सकूँ। परंतु यह बात आगे बढ़े इसके पहले ही मुझे कह देना चाहिए कि मैंने अपने मन में कभी का निश्चय कर लिया है कि मैं अपने पर हुए इस हमले के बारे में किसी के खिलाफ अदालत में शिकायत करूँगा ही नहीं। हमला करने वाले लोगों का तो मैं इसमें कोई दोष भी नहीं देखता। उन्हें तो जो कुछ जानकारी मिली वह उनके नेताओं की ओर से मिली थी। वह सच थी या झूठ, इसकी जाँच करने के लिए वे बैठे नहीं रह सकते थे। मे‍रे विषय में जो कुछ उन्होंने सुना वह सब उन्हें सही लगा हो, तो उनका उत्तेजित होना और आवेश में आकर न करने जैसी बातें भी कर डालना स्वाभाविक था। इसमें मैं उन लोगों का दोष नहीं मानता। लोगों की उत्तेजित बनी हुई भीड़ तो इसी तरह न्याय प्राप्त करती आई है। अगर इस मामले में किसी का दोष हो, तो वह इस संबंध में रची गई कमेटी का है ओर स्वयं आपका है और इसलिए नेटाल सरकार का है। रूटर ने चाहे जैसा तार किया हो, परंतु जब आप यह जानते थे कि मैं यहाँ आ रहा हूँ तब आपका और कमेटी का कर्तव्य हो जाता था कि आप लोगों ने जो जो शंकाएँ हिंदुस्तान के मेरे कार्यों के बारे में अपने मन में खड़ी कर ली थीं उनके संबंधों में मुझसे पूछते, मेरे उत्तर सुनते और उसके बाद जो उचित मालूम होता वह करते। अब मुझ पर जो आक्रमण हुआ उसके लिए मैं आप पर या कमेटी पर तो मुकदमा चला ही नहीं सकता। और यदि मुकदमा चलाना संभव हो, तो भी ऐसा न्याय मैं कोर्ट के द्वारा प्राप्त नहीं करना चाहूँगा। नेटाल के गोरों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए आपको जैसे कदम उठाना उचित लगा वैसे आपने उठाए। यह राजनीतिक विषय है। मुझे भी राजनीतिक क्षेत्र में ही आपसे लड़ना होगा और आपको तथा नेटाल के गोरों को यह बताना होगा कि हिंदुस्तानी कौम ब्रिट्रिश साम्राज्य के एक बड़े भाग के रूप में गोरों की किसी तरह की हानि पहुँचाने बिना केवल अपने स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा करना चाहती है।"

श्री एस्कंबने कहा : "आपने जो कुछ कहा उसे मैं समझा हूँ और वह मुझे अच्छा भी लगा है। आप अपने आक्रमणकारियों पर मुकदमा नहीं चलाना चाहते, यह सुनने के लिए मैं तैयार नहीं था। और यदि आप उन लोगों पर मुकदमा चलाना चाहते, तो मैं जरा भी नाराज न होता। लेकिन जब आपने मुकदमा न चलाने का अथवा निर्णय बता दिया है, तो मुझे यह कहने में संकोच नहीं होता कि आपने सही निर्णय किया है। इतना ही नहीं, अपने इस संयम से आप अपनी कौम की अधिक सेवा करेंगे। इसके साथ मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि आप अपने इस कदम से नेटाल सरकार को विषय स्थिति से बचा लेंगे। आप चाहेंगे तो हम आपके आक्रमणकारियों की गिरफ्तारी बगैरा तो करेंगे, परंतु आपसे यह कहना शायद ही जरूरी हो कि इससे गोरे फिर भड़क उठेंगे और तरह तरह की टीकाएँ होंगी। और यह सब कोई भी सरकार कभी पसंद नहीं करेगी। परंतु यदि मुकदमा न चलाने के बारे में आपने अंतिम निर्णय कर लिया हो, तो आपको अपना यह विचार बताने वाला एक पत्र मुझे लिख देना चाहिए। केवल हमारी बातचीत का सार ही मि. चैंबरलेन के पास भेजकर मैं अपनी सरकार का बचाव नहीं कर सकता। मुझे तो आपके पत्र का भावार्थ ही तार द्वारा उनके पास भेजना होगा। लेकिन मैं यह नहीं कहता कि ऐसा पत्र आप इसी लिख दें। आप अपने मित्रों से इन विषय में विचार-विमर्श करें। मि. लॉटन की भी सलाह लें। यह सब कर लेने के बाद भी आप अपने निर्णय पर दृढ़ रहें, तो ही आप मुझे उपर्युक्त आशय का पत्र लिखें। लेकिन इतना मैं आपसे कह दूँ कि अपने पत्र में आक्रमणकारियों पर मुकदमा न चलाने की जिम्मेदारी स्पष्ट रूप में आपको स्वयं अपने सिर लेनी होगी। तभी मैं आपके इस पत्र का उपयोग कर सकूँगा।"

मैंने उनसे कहा : "मुझे कल्पना नहीं थी कि आपने इस घटना के संबंध में मुझे बुलाया है। इस विषय में न तो मैंने किसी से विचार-विमर्श किया है, और न किसी से विचार-विमर्श करने की मेरी इच्छा है। जब मैंने श्री लॉटन के साथ जहाज से उतरने और आगे बढ़ने का निर्णय किया तभी अपने मन में ठान लिया था कि गोरे मुझे कोई भी कष्ट क्यों न दें, मैं उसका बुरा नहीं मानूँगा। इसलिए आक्रमणकारियों पर मुकदमा चलाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। मेरे मन यह धार्मिक प्रश्न है और आपके कहे अनुसार मैं भी यह मानता हूँ कि मेरे इस संयम से न केवल मेरी कौम की सेवा होगी, परंतु मुझे स्वयं भी उससे लाभ होगा। इसलिए मैं सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेकर इसी समय आपका माँगा हुआ पत्र लिख देना चाहता हूँ।"

और मैंने श्री एस्कंब से एक कोरा कागज माँगकर वहीं पत्र लिखा और उन्हें दे दिया।


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