3.
इंग्लैंड में कार्य
पाठक पिछले प्रकरणों में यह देख चुके हैं कि हिंदुस्तानी कौम ने अपनी स्थिति
को सुधारने के लिए कुछ प्रयत्न किए और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई। जिस प्रकार
दक्षिण अफ्रीका में कौम ने अपने सारे अंगों का विकास करने का यथाशक्ति प्रयत्न
किया, उसी प्रकार हिंदुस्तान और इंग्लैंड से जितनी मदद मिल सकती थी उतनी पाने
का प्रयत्न भी उसने किया। हिंदुस्तान के कार्य के बारे में मैं थोड़ा लिख चुका
हूँ। अब यह बताना चाहिए कि इंग्लैंड से मदद लेने के बारे में क्या किया गया?
सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी के साथ संबंध जोड़ना
आवश्यक था। इसलिए हिंदुस्तान के दादा श्री दादाभाई नौरोजी को और ब्रिटिश कमेटी
के अध्यक्ष सर विलियम वेडरबर्न को सारी घटनाओं का ब्योरेवार वर्णन करने वाले
साप्ताहिक पत्र लिखे जाते थे। और जब-जब अरजियों की नकलें वगैरा भेजने का मौका
आता तब-तब कमेटी के डाक-खर्च में और सामान्य खर्च में मदद करने के लिए कम से
कम 10 पौंड की रकम भेजी जाती थी।
यहाँ मैं दादाभाई नौरोजी का एक पवित्र संस्मरण दे दूँ। दादाभाई ब्रिटिश कमेटी
के अध्यक्ष नहीं थे। फिर भी हमने सोचा कि उनके द्वारा ही कमेटी को पैसे भेजना
उचित होगा, और वे हमारी ओर से भेजे हुए पैसे कमेटी के अध्यक्ष को दे दें।
परंतु पहली ही बार हमने जो पैसे भेजे उन्हें दादाभाई ने लौटा दिया और सुझाया
कि कमेटी के नाम के पैसे और पत्र आपको सीधे सर विलियम वेडरबर्न के पास ही
भेजने चाहिए। दादाभाई स्वयं तो यथाशक्ति हमारी सहायता करते ही थे, परंतु उनका
कहना था कि कमेटी की प्रतिष्ठा तभी बढ़ेगी जब हम सर विलियम वेडरबर्न के द्वारा
ही काम लेंगे। मैंने यह भी देखा कि दादाभाई इतने बूढ़े होते हुए भी अपने
पत्र-व्यवहार में बड़े नियमित रहते थे। उन्हें कुछ अधिक न लिखना होता तो कम से
कम पत्र की पहुँच तो वे लॉटरी डाक से भेज ही देते थे और उसमें प्रोत्साहन की
एक पंक्ति अवश्य रहती थी। ऐसे पत्र भी वे स्वयं ही लिखते थे और उनकी नकल अपनी
टिश्यु-पेपर बुक में कर लेते थे।
पिछले एक प्रकरण मैं यह भी बता चुका हूँ कि हमने अपनी संस्था को 'कांग्रेस' का
नाम दिया था, परंतु हमारा इरादा अपने प्रश्नों को किसी एक पार्टी के प्रश्न
बनाने का कभी नहीं रहा। इसलिए दादाभाई जानें इस ढंग से हमारा पत्र-व्यवहार
दूसरी पार्टियों के लोगों के साथ भी चलता था। उनमें दो सज्जन मुख्य थे : एक सर
मंचेरजी भावनगरी और दूसरे सर विलियम विल्सन हंटर। सर मंचेरजी भागनगरी उस समय
ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य थे। उनसे हमें अच्छी मदद मिलती थी; वे सदा हमें
महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी देते रहते थे। लेकिन दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों
के प्रश्न का महत्व हिंदुस्तानियों से भी पहले समझने वाले और उनकी बहुमूल्य
सहायता करने वाले यदि कोई थे तो वे सर विलियम विल्सन हंटर थे। वे 'टाइम्स' के
हिंदुस्तानी विभाग के संपादक थे। हमने अफ्रीका की स्थिति के बारे में उन्हें
प्रथम पत्र लिखा तभी से उस विभाग में हिंदुस्तानियों के प्रश्न की उसके सच्चे
स्वरूप में सार्वजनिक चर्चा करने लगे थे; और हमारे ध्येय के समर्थन में अनेक
सज्जनों को व्यक्तिगत पत्र भी लिखते थे। जब कोई महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित
होता तब उनका पत्र लगभग प्रति सप्ताह हमें मिलता था। उनका जो पहला उत्तर आया
उसमें उन्होंने लिखा था : "आपकी बताई स्थिति के बारे में पढ़कर मुझे बड़ा दुख
हुआ है। आप अपनी लड़ाई विनय से, शांति से और बिना किसी अतिशयोक्ति के लड़ रहे
हैं। इस प्रश्न में मेरी सहानुभूति संपूर्ण रूप में आपके साथ है। आपको न्याय
मिले इसके लिए मैं अपनी शक्तिभर व्यक्तिगत रूप में और सार्वजनिक रूप में
सब-कुछ कर गुजरूँगा। मेरा विश्वास है कि इस मामले में हम एक इंच भी पीछे नहीं
हट सकते। आपकी माँग ऐसी है कि कोई निष्पक्ष मनुष्य उसमें काटछाँट करने की बात
सुझा ही नहीं सकता।" 'टाइम्स' में इस विषय में जो पहला लेख उन्होंने लिखा था
उसमें भी अपने पत्र के लगभग यही शब्द उद्धृत किए थे। अंत तक उनका यही रुख
हमारे प्रश्न के बारे में रहा। लेडी हंटर ने अपने एक पत्र में लिखा था कि अपनी
मृत्यु से कुछ समय पूर्व ही दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों के प्रश्न पर
लिखि जाने वाली एक लेखमाला की रूपरेखा उन्होंने तैयार की थी।
श्री मनसुखलाल नाजर का नाम मैं पिछले प्रकरण में दे चुका हूँ। हिंदुस्तानियों
का प्रश्न अधिक अच्छे ढंग से समझाने के लिए कौम की ओर से उन्हें इंग्लैंड भेजा
गया था। उन्हें यह सूचना की गई थी कि वे सब पार्टियों को अपने साथ रखकर यह काम
करें। इंग्लैंड के अपने निवासकाल में वे सदा स्व. सर विल्सन हंटर, सर मंचेरजी
भावनगरी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी के संपर्क में रहे। वे
भारतीय सिविल सर्विस के सेवा-निवृत्त अधिकारियों, भारत-मंत्री के कार्यालय तथा
उपनिवेश-मंत्री के कार्यालय के संपर्क में भी रहते थे। इस प्रकार अपने प्रयत्न
में उन्होंने एक भी दिशा ऐसी नहीं छोड़ी, जहाँ उनकी पहुँच हो सकती थी। इस सबका
परिणाम स्पष्ट रूप में यह आया कि हिंदुस्तान के बाहर बसनेवाले हिंदुस्तानियों
की स्थिति ने बड़ी (साम्राज्य) सरकार की दृष्टि में प्रथम श्रेणी का महत्व
ग्रहण कर लिया। और उसका अच्छा तथा बुरा असर दूसरे उपनिवेशों पर भी पड़ा।
जिन-जिन उपनिवेशों में हिंदुस्तानी लोग बसे हुए थे वहाँ वे अपनी स्थिति के
महत्व के प्रति जाग्रत बन गए और वहाँ के यूरोपियन निवासी उस खतरे के प्रति सजग
हो गए, जो उनके खयाल से हिंदुस्तानी लोग उपनिवेशों में यूरोपियनों के प्रभुत्व
को पहुँचा सकते थे।