9. बोअर-युद्ध
जिन पाठकों ने पिछले प्रकरण ध्यान से पढ़े होंगे उन्हें इस बात का खयाल होगा कि बोअर-युद्ध के समय दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की दशा कैसी थी? उस समय तक अपनी दशा को सुधारने के लिए उन्होंने जो-जो प्रयत्न किए, उसका वर्णन भी किया जा चुका है।
डॉ. जेमिसन की सोने की खदानों के मालिकों के साथ जो गुप्त मंत्रणा हुई थी, उसके अनुसार उन्होंने 1899 में जोहानिसबर्ग पर धावा बोल दिया। दोनों को आशा तो यह थी कि जोहानिसबर्ग पर अधिकार कर लेने के बाद ही बोअर-सरकार को इस धावे का पता चलेगा। पर ऐसी आशा रखने में डॉ. जेमिसन तथा उनके मित्रों ने बहुत बड़ी गलती की। दूसरी गलती उन्होंने यह आशा रखकर की कि हमारे षड्यंत्र का भंडाफोड़ हो गया, तो भी रोडेशिया में तालीम पाए हुए निशानेबाजों (शार्प-शूटर्स) के सामने अनाड़ी बोअर किसान कुछ कर नहीं सकेंगे। उन्होंने गलती से यह भी मान लिया था कि जोहानिसबर्ग की आबादी का बहुत बड़ा भाग उनका स्वागत ही करेगा। उन भले डॉक्टर की यह आशा भी पूरी नहीं हुई। प्रेसिडेंट क्रूगर को सारे षड्यंत्र का पूरा पता चल गया था। उन्होंने अत्यंत शांति, कुशलता और गुप्त रीति से डॉ. जेमिसन का सामना करने की तैयारियाँ कर ली थीं, जो लोग उनके साथ षड्यंत्र में शरीक हुए थे, उन्हें गिरफ्तार करने की भी पूरी तैयारी कर ली थी। इसलिए डॉ. जेमिसन जोहानिसबर्ग के निकट पहुँचे उसके पहले ही बोअर-सेना ने अपनी गोलियों से उनका स्वागत किया। इस सेना के सामने डॉ. जेमिसन की टुकड़ी टिक ही नहीं सकती थी। जोहानिसबर्ग में कोई सरकार के खिलाफ विद्रोह न कर सके, इसके लिए भी प्रेसिडेंट क्रूगर संपूर्ण रूप में तैयार थे। इसके फलस्वरूप शहर की आबादी में से कोई आदमी सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर सका। प्रेसिडेंट क्रूगर की सारी कार्रवाई से जोहानिसबर्ग के करोड़पति स्तब्ध रह गए। प्रेसिडेंट की इतनी सुंदर तैयारी का परिणाम यह हुआ कि धावे को पीछे धकेलने में पैसे का कम से कम खर्च हुआ और प्राणों की भी कम से कम हानि हुई।
डॉ. जेमिसन और उनके सब मित्र - सोने की खदानों के मालिक - पकड़ लिए गए और तुरंत उन पर मुकदमा चलाया गया। कुछ लोगों को फाँसी की सजा हुई। इन अपराधियों में से अधिकतर तो करोड़पति ही थे। लेकिन बड़ी (साम्राज्य) सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर सकी, क्योंकि उन्होंने दिन-दहाड़े धावा बोलने का अपराध किया था। प्रेसिडेंट क्रूगर का महत्व एकदम बढ़ गया। उपनिवेश-मंत्री श्री चैंबरलेन ने उन्हें दीन वचनवाला तार किया और प्रेसिडेंट क्रूगर के दयाभाव को जाग्रत करके इन सब करोड़पतियों के लिए दया की भीख माँगी। प्रेसिडेंट क्रूगर अपना दाँव खेलने में अत्यंत कुशल थे। उन्हें इस बात का कोई भय था ही नहीं कि दक्षिण अफ्रीका की कोई भी शक्ति उनके हाथ से राजसत्ता छीन सकती है। डॉ. जेमिसन तथा उनके मित्रों का षड्यंत्र उनकी अपनी दृष्टि से तो बड़ी कुशलतापूर्वक रचा गया था, परंतु प्रेसिडेंट क्रूगर की दृष्टि में वह बालिशता का काम था। इसलिए उन्होंने श्री चैंबरलेन की नम्र प्रार्थना स्वीकार कर ली और न केवल किसी को फाँसी की सजा नहीं दी, बल्कि सबको संपूर्ण क्षमा करके मुक्त कर दिया।
लेकिन उछाले के साथ ऊपर आया हुआ अन्न पेट में कब तक टिक सकता है; वह तो बाहर निकलेगा ही। प्रेसिडेंट क्रूगर भी जानते थे कि डॉ. जेमिसन का धावा तो गंभीर रोग का एक सामान्य-सा लक्षण भर था। जोहानिसबर्ग के करोड़पति अपनी बदनामी को किसी भी तरह धोने का प्रयत्न न करें, यह असंभव था। इसके सिवा, जिन सुधारों के लिए डॉ. जेमिसन के आक्रमण की योजना बनाई गई थी, उनमें से तो अभी तक एक भी सुधार नहीं किया गया था। इस कारण से यह संभव नहीं था कि जोहानिसबर्ग के करोड़पति शांत रहें। उनकी माँगों के लिए दक्षिण अफ्रीका स्थित ब्रिटिश हाई कमिश्नर लॉर्ड मिल्नर की पूरी सहानुभूति थी। साथ ही, श्री चैंबरलेन ने भी ट्रांसवाल का द्रोह करने वाले डॉ. जेमिसन तथा करोड़पतियों के प्रति दिखाई गई प्रेसिडेंटल क्रूगर की महान उदारता की स्तुति करते हुए उनका ध्यान सुधारों की आवश्यकता पर खींचा था। सब कोई यह मानते थे कि युद्ध के सिवा इस झगड़े का निबटारा कभी हो ही नहीं सकेगा। खदानों के मालिकों की माँगें इस प्रकार की थीं कि उनका अंतिम परिणाम ट्रांसवाल में बोअरों के प्रभुत्व का नाश होने में ही आता। दोनों पक्ष जानते थे कि इसका अंतिम परिणाम युद्ध ही होगा, इसलिए दोनों युद्ध की तैयार कर रहे थे। उस समय दोनों पक्षों का शब्द युद्ध देखने जैसा था। जब प्रेसिडेंट क्रूगर अधिक हथियार और युद्ध-सामग्री मँगाते थे तब ब्रिटिश एजेंट उन्हें चेतावनी देता था कि आत्मरक्षा के लिए अँग्रेज सरकार को भी दक्षिण अफ्रीका में थोड़ी सेना लाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जब ब्रिटिश सेना दक्षिण अफ्रीका में आती थी तब प्रेसिडेंट क्रूगर अंग्रेजों को ताना मारते थे और युद्ध की अधिक तैयारियाँ करने में लग जाते थे। इस प्रकार एक पक्ष दूसरे पर आरोप लगाता था और दोनों तैयारी भी करते जाते थे।
जब प्रेसिडेंट क्रूगर ने पूरी तैयारी कर ली तब उन्हें लगा कि अब बैठे रहने का अर्थ होगा खुद होकर शत्रु की शरण में जाना। ब्रिटिश साम्राज्य के पास धन का और पशुबल का अखूट भंडार है; ब्रिटिश सामाज्य धीरे-धीरे तैयार करते हुए और प्रेसिडेंट क्रूगर को खदान-मालिकों की शिकायतें दूर करने के लिए समझाते हुए लंबा समय निकाल सकता है और दुनिया को यह दिखा सकता है कि प्रेसिडेंट क्रूगर खदान-मालिकों की शिकायतें दूर करते ही नहीं, इसलिए हमें मजबूर होकर युद्ध करना पड़ा है। ऐसा कहकर वह इतनी जबरदस्त तैयारी के साथ युद्ध करेगा कि प्रेसिडेंट क्रूगर युद्ध में उनका मुकाबला कर ही न सकें और दीन तथा अपमानित होकर ब्रिटिश साम्राज्य की माँगें स्वीकार करने के लिए विवश हो जाएँ। जिस प्रजा का 18 से 60 वर्ष की आयु का समग्र पुरुष-वर्ग युद्ध करने में कुशल हो, जिसकी स्त्रियाँ भी इरादा कर लें तो युद्ध में लड़ने की क्षमता रखती हों, जिस प्रजा में राष्ट्रीय स्वतंत्रता एक धार्मिक सिद्धांत मानी जाती हो, वह प्रजा चक्रवर्ती राजा के बल और सत्ता के सामने भी ऐसी दीन नहीं बन सकती। और, बोअर प्रजा सचमुच ऐसी ही बहादुर थी।
ऑरेंज फ्री स्टेट के साथ प्रेसिडेंट क्रूगर ने पहले ही समझौता कर लिया था। इन दोनों बोअर राज्यों की नीति और कार्य-पद्धति एक ही थी। प्रेसिडेंट क्रूगर बिल्कुल नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश माँगें पूरी तरह स्वीकार कर ली जाए; खदान-मालिकों को संतोष हो इस हद तक भी वे इन माँगों को स्वीकार नहीं करना चाहते थे। इसलिए दोनों राज्यों ने सोचा कि जब युद्ध अनिवार्य ही है तो ऐसी स्थिति में जितना भी समय जाएगा उतना ब्रिटिश साम्राज्य को युद्ध की तैयारी के लिए देने के बराबर होगा। इस पर प्रेसिडेंट क्रूगर ने अपने अंतिम विचार और अंतिम माँगें लॉर्ड मिल्नर को बता दीं। इसके साथ ही उन्होंने ट्रांसवाल और ऑरेंज फ्री-स्टेट की सीमा पर सेना तैनात कर दी। इसका परिणाम युद्ध के सिवा दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता था। ब्रिटिश साम्राज्य के समान चक्रवर्ती राज्य इस धमकी के सामने झुक ही नहीं सकता था। प्रेसिडेंट 'अल्टीमेटम' का समय पूरा हुआ और बोअर-सेना बिजली की गति से आगे बढ़ी। उसने लेडी स्मिथ, किंबरली और मेफेकिंग पर घेरा डाल दिया। इस प्रकार 1899 में इस महान युद्ध का आरंभ हुआ। पाठक यह तो जानते ही हैं कि इस युद्ध के कारणों में - अर्थात ब्रिटिश माँगों में - एक कारण बोअर - राज्यों में हिंदुस्तानियों की दुर्दशा भी थी।
अब दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों के सामने यह महान प्रश्न खड़ा हुआ कि उन्हें इस मौके पर क्या करना चाहिए। बोअरों का समूचा पुरुष-वर्ग तो युद्ध में चला गया। वकीलों ने वकालत छोड़ी, किसानों ने खेत छोड़े, व्यापारियों ने व्यापार छोड़ा और नौकरों ने नौकरी छोड़ी। अंग्रेजों के पक्ष में बोअरों जितने तो नहीं, परंतु केप कॉलोनी, नेटाल और रोडेशिया में असैनिक वर्गों के लोग बड़ी संख्या में स्वयं सेवक बने। अनेक बड़े अँग्रेज वकील-बैरिस्टर और अँग्रेज व्यापारी स्वयंसेवकों में भरती हो गए। जिस अदालत में मैं वकालत करता था उसमें अब मुझे बहुत कम वकील दिखाई देते थे। अनेक बड़े वकील युद्ध कार्य में जुट गए। हिंदुस्तानियों पर जो आक्षेप लगाए जाते थे, उनमें से एक यह था : "ये लोग दक्षिण अफ्रीका में केवल पैसे जमा करने ही आते हैं। ये हम पर (अंग्रेजों पर) निरे बोझ बने हुए हैं। जिस प्रकार दीमक लकड़ी में घुस जाती है और कुरेदकर उसे बिलकुल खोखला बना देती है, उसी प्रकार ये हिंदुस्तानी हमारे कलेजे कुरेद कर खाने के लिए ही यहाँ आए है। देश पर यदि आक्रमण हो, हमारे घरबार लुटने का मौका आए, तो ये लोग हमारी थोड़ी भी मदद करने वाले नहीं हैं। उस समय न केवल हमें शत्रुओं से अपनी रक्षा करनी होगी, परंतु अपने साथ इन लोगों की भी रक्षा करनी पड़ेगी।" इस आक्षेप के बारे में भी हम सब हिंदुस्तानियों में गहरा विचार किया। हम सबको लगा कि इस समय यह सिद्ध कर दिखाने का एक सुंदर अवसर हमें मिला है कि इस आक्षेप में कोई सचाई नहीं है - वह निराधार है। लेकिन दूसरी ओर कुछ लोगों ने नीचे के विचार भी सामने रखे :
"अँग्रेज और बोअर दोनों ही हमें एक से तकलीफ देते हैं। ट्रांसवाल में ही हमें दुख भोगना पड़ता है और नेटाल व केप कॉलोनी में नहीं भोगना पड़ता, ऐसी बात नहीं है। भेद केवल दुख की मात्रा का है। फिर, हमारी कौम तो गुलामों की कौम कही जाती है। हम जानते हैं कि बोअरों जैसी एक छोटी सी कौम अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजों से लड़ रही है। यह जानते हुए भी हम उसके नाश का कारण कैसे बन सकते हैं? और अंत में यदि व्यवहार की दृष्टि से देखें, तो कोई यह भविष्य-वाणी नहीं कर सकता कि बोअर लोग इस युद्ध में हारने वाले हैं। वे युद्ध में यदि जीत गए, तो क्या हमसे बदला लिए बिना रहेंगे?"
यह दलील जोरदार भाषा में सामने रखने वाला एक सबल पक्ष हमारे बीच था। मैं खुद भी इस दलील को समझ सका था और उसे आवश्यक महत्व भी देता था। फिर भी मुझे वह जँची नहीं। मैंने उसका खंडन अपने मन में और कौम के लोगों के सामने इस तरह किया :
"दक्षिण अफ्रीका में हमारा अस्तित्व केवल ब्रिटिश प्रजाजनों के नाते ही है। हर अरजी में हमने ब्रिटिश प्रजाजनों के रूप में ही अपने अधिकार माँगे हैं। हमने ब्रिटिश प्रजाजन होने में गौरव माना है अथवा अपने शासकों और दुनिया को यह मानने दिया है कि ब्रिटिश प्रजाजन होने में हमारा गौरव है। हमारे शासकों ने भी हमारे अधिकारों का बचाव इसीलिए किया है कि हम ब्रिटिश प्रजाजन हैं। दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेज हमें दुख देते हैं, इस कारण से उनके और हमारे घर-बार नष्ट होने का मौका आने पर भी यदि हम हाथ पर हाथ धरे प्रेक्षकों की तरह तमाशा देखते रहें, तो यह हमारे मनुष्यत्व के लिए शोभा की बात नहीं है। इतना ही नहीं, यह मनोवृत्ति हमारे दुखों में वृद्धि करने वाली सिद्ध होगी। जिसे आक्षेप को हमने गलत माना है उसे गलत सिद्ध करने का अनायास हमें जो अवसर मिला है, उसे हाथ से जाने देने का अर्थ होगा स्वयं उस आक्षेप को सिद्ध करना। उसके बाद अगर हम पर अधिक दुख पड़ें और अँग्रेज हमें अधिक ताने मारें और हमसे अधिक नफरत करें, तो वह आश्चर्य की बात नहीं होगी। वह तो हमारा ही दोष कहा जाएगा। अंग्रेजों ने जितने आक्षेप हम पर लगाए हैं वे बिलकुल निराधार हैं - उन पर दलील करने जैसा भी कुछ नहीं है - ऐसा कहना अपने आपको धोखा देना है। यह सच है कि हम ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामों के समान हैं, परंतु आज तक का हमारा प्रयत्न ब्रिटिश साम्राज्य में रहकर गुलामी को दूर करने का रहा है। हिंदुस्तान के सारे नेता ऐसा ही करते हैं। हम लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं। और यदि हम ब्रिटिश साम्राज्य के सदस्यों के रूप में ही अपनी स्वतंत्रता और उन्नति सिद्ध करना चाहते हों, तो इस समय हमें भी तन-मन-धन से इस युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करके यह ध्येय सिद्ध करने का सुवर्ण अवसर मिला है। बोअरों का पक्ष न्याय का पक्ष है, ऐसा बहुत हद तक कहा जा सकता है। परंतु किसी राज्य तंत्र के भीतर रहते हुए प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वतंत्र विचारों को आचरण में नहीं उतार सकता। राज्य के अधिकारीगण जितने भी कार्य करते हैं वे सब उचित ही होते हैं ऐसा नहीं। फिर भी जब तक प्रजाजन अमुक राज्य को स्वीकार करते हैं तब तक उस राज्य के कार्यों का समर्थन करना और उनमें राज्य की सहायता करना उनका स्पष्ट कर्तव्य है।"
"इसके सिवा, प्रजा का कोई भाग यदि राज्य या सरकार के किसी कार्य को धार्मिक दृष्टि से अनीतिपूर्ण समझता हो, तो उस कार्य में विघ्न डालने से पहले या सहायता देने से पहले राज्य को ऐसे अनीतिपूर्ण कार्य से बचाने का संपूर्ण प्रयत्न प्राणों को संकट में डालकर भी उस भाग को करना चाहिए। ऐसा हमने कुछ किया नहीं है। ऐसा धर्म-संकट हमारे सामने खड़ा भी नहीं हुआ है और ऐसे किसी सार्वजनिक और व्यापक कारण से हम इस युद्ध में भाग नहीं लेना चाहते, यह न तो किसी ने कहा है और न माना है। इसलिए प्रजा के नाते हमारा सामान्य धर्म तो यही है कि युद्ध के गुण-दोष का विचार किए बिना जो युद्ध हो रहा है उसमें यथाशक्ति सहायता करें। अंत में यदि बोअर-राज्य युद्ध में जीतें - और वे हारेंगे ही ऐसा मानने का हमारे पास कोई कारण नहीं है - तो हम चूल्हे से निकलकर भट्ठी में गिरेंगे और फिर तो वे हमसे मनमाना बदला लेंगे, ऐसा कहना या विश्वास करना बहादुर बोअरों के साथ और स्वयं अपने साथ भी अन्याय करना है। यह तो केवल हमारी कायरता की निशानी मानी जाएगी। ऐसा सोचना भी हमारी वफादारी को बट्टा लगाना है। क्या कोई अँग्रेज एक क्षण के लिए भी ऐसा सोच सकता है कि अँग्रेज हार गए तो उसका क्या होगा? युद्ध के मैदान में जाने वाला कोई भी मनुष्य अपना मनुष्यत्व खोए बिना ऐसी दलील कर ही नहीं सकता।"
यह दलील मैंने 1899 में की थी; और आज भी उसमें परिवर्तन करने का कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता। मेरा कहने का मतलब यह है कि जो मोह उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में मुझे था और हमारी स्वतंत्रता की जो आशा ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत रहकर उस समय मैंने बाँधी थी वह मोह और वह आशा आज भी बनी रहती, तो मैं अक्षरशः यही दलील दक्षिण अफ्रीका में करता और वैसी स्थिति में यहाँ हिंदुस्तान में भी करता। इस दलील के अनेक खंडन मैंने दक्षिण अफ्रीका में और उसके बाद इंग्लैंड में भी सुने थे। फिर भी आपने इन विचारों को बदलने का कोई कारण मुझे नहीं दिखाई पड़ा। मैं जानता हूँ कि मेरे आज के विचारों का प्रस्तुत विषय के साथ कोई संबंध नहीं है। परंतु ऊपर का भेद बताने के दो सबल कारण हैं। एक तो यह है कि इस पुस्तक को उतावली में पढ़ना चाहने वाले पाठकों से यह आशा रखने का मुझे कोई अधिकार नहीं कि वे इसे धैर्य से और ध्यान से पढ़ेंगे। ऐस पाठकों के लिए मेरे आज के कार्यों के साथ उपर्युक्त विचारों का मेल बैठाना कठिन होगा। दूसरा कारण यह कि उस विचारसरणी में भी सत्य का ही आग्रह है। हम भीतर जैसे हैं वैसे ही बाहर दिखाई दें और उसके अनुसार व्यवहार करें, यह धार्मिक आचरण की अंतिम सीढ़ी नहीं किंतु पहली सीढ़ी है। इस नींव के बिना धार्मिक जीवन की इमारत खड़ी करना असंभव है।
अब हम फिर अपने इतिहास की और मुड़ें।
मेरी ऊपर की दलील अनेक लोगों की पसंद आई। पाठक यह न मान लें कि मेरी अकेले की ही यह दलील थी। फिर, इस दलील से पहले भी युद्ध में भाग लेने की इच्छा रखने वाले अनेक हिंदुस्तानी थे। लेकिन अब व्यावहारिक प्रश्न यह खड़ा हुआ : युद्ध की इस भयंकर आँधी में हिंदुस्तानियों की कमजोर आवाज को कौन सुनेगा? हिंदुस्तानियों के सहायता के प्रस्ताव का कितना महत्व आँका जाएगा? हथियार तो हममें से किसी ने कभी उठाए ही नहीं थे। युद्ध में सैनिकों से भिन्न काम करने के लिए भी तालीम जरूरी थी। कदम से कदम मिलाकर एक ताल में कूच करना भी तो हममें से किसी को नहीं आता था। इसके सिवा, सेना के साथ लंबी मंजिलें तय करना, अपना-अपना सामान खुद उठाकर चलना - यह भी हमारे लिए कठिन था। इसके सिवा, गोरे हम सबको 'कुली' ही मानेंगे, हमारा अपमान भी करेंगे, हमें तिरस्कार की नजर से देखेंगे। यह सब कैसे बरदाश्त किया जाए? और अगर हम सेना में भरती होने की माँग करें, तो उस माँग को स्वीकार कैसे कराएँ? इन प्रश्नों पर सोचने-विचारने के बाद अंत में हम इस निश्चय पर आए कि अपना प्रस्ताव स्वीकार कराने के लिए हमें जोरदार प्रयत्न करना चाहिए; काम का अनुभव हमें अधिक काम करना सिखाएगा, यदि हमारे भीतर इच्छा होगी तो सेवा करने की शक्ति ईश्वर देगा; मिला हुआ काम कैसे पूरा होगा, इसकी चिंता हमें छोड़ देनी चाहिए; यथाशक्ति तालीम लेनी चाहिए और एक बार सेवाधर्म स्वीकार करने का निश्चय कर लेने के बाद मान-अपमान का विचार छोड़ देना चाहिए; और यदि अपमान हो तो उसे सहन करके भी सेवा करनी चाहिए।
अपनी माँग स्वीकार कराने में हमे बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसका इतिहास रसप्रद है, लेकिन उसे देने का यह स्थान नहीं है। इसलिए यहाँ मैं इतना ही कह देता हूँ कि हममें से मुख्य लोगों ने घायलों और बीमारों की सार-सँभाल करने की तालीम ली। हमने अपनी शारीरिक क्षमता के बारे में डॉक्टरों के प्रमाण-पत्र लिए और एक पत्र द्वारा युद्ध में जाने की अपनी माँग सरकार के सामने रखी। हमारे इस पत्र का और माँग स्वीकार करने के हमारे आग्रह का सरकार पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। पत्र का उत्तर देते हुए सरकार ने हमारा आभार माना, परंतु उस समय हमारी माँग स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इस बीच बोअरों की शक्ति बढ़ती गई। उनका आक्रमण एक भयंकर बाढ़ की तरह हुआ और नेटाल की राजधानी तक उनके आ पहुँचने का भय खड़ा हो गया। हर जगह घायल और मृत सैनिकों के ढेर लग गए थे। अपनी माँग स्वीकार कराने का हमारा प्रयत्न जारी ही था। अंत में एंबुलेंस कोर (घायलों को उठाने वाले और उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाले दल) के रूप में हमारी सेवाएँ स्वीकार की गई। हमने तो अपने पत्र में अस्पतालों के पाखाने साफ करने या झाड़ू लगाने का काम स्वीकार करने की बात भी लिख दी थी। इसलिए एंबुलेंस कोर बनाने की बात हमें स्वागत के योग्य लगे, यह स्वाभाविक था। हमारा प्रस्ताव स्वतंत्र और गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों के विषय में ही था। परंतु हमने सुझाया था कि गिरमिटिया हिंदुस्तानियों को भी उनके साथ शामिल करना अच्छा होगा। उस समय तो सरकार को अधिक से अधिक मनुष्यों की जरूरत थी। इसलिए उसने गिरमिटिया मजदूरों के गोरे मालिकों की कोठियों में पहुँचकर उनसे अपने मजदूरों को एंबुलेंस कोर में भरती होने देने की विनती की। इसके फलस्वरूप लगभग 1100 हिंदुस्तानियों का एक बड़ा और शानदार दल डरबन से युद्ध के मोर्च पर जाने के लिए रवाना हुआ। रवाना होते समय हमें श्री एस्कंब के, जिनसे पाठक परिचित हो चुके हैं और जो नेटाल के गोरे स्वयंसेवकों के मुखिया थे, धन्यवाद और आशीर्वाद प्राप्त हुए।
अँग्रेजी अखबारों को तो यह सब चमत्कार जैसा ही लगा। उन्हें यह आशा नहीं थी कि हिंदुस्तानी लोग इस युद्ध में कोई भाग लेंगे। एक अँग्रेज ने वहाँ के एक प्रमुख दैनिक में हिंदुस्तानियों की स्तुति करने वाली एक कविता लिखि। उसकी टेक की एक पंक्ति का आशय यह था : 'अंत में तो हम सब एक ही साम्राज्य के बालक है।'
इस दल में लगभग 300 से 400 गिरमिट-मुक्त हिंदुस्ताननी रहे होंगे, जो स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के प्रयत्नों से भरती हुए थे। इनमें से 37 आदमी नेता माने जाते थे, क्योंकि उनके हस्ताक्षरों से उपर्युक्त प्रस्ताव सरकार के पास गया था और दूसरों को एकत्र करने वाले भी वे ही थे। इन नेताओं में बैरिस्टर थे और मुनीम थे। बाकी के लोगों में राज, सुतार जैसे कारीगर और सामान्य मजदूर वगैर थे। उनमें हिंदू, मुसलमान, मद्रासी और उत्तर-भारतीय इस प्रकार सब धर्मों और सब प्रांतों के लोग थे। कहा जा सकता है कि व्यापारी-वर्ग से एंबुलेंस दल में कोई नहीं था। परंतु व्यापारियों ने पैसे की काफी मदद दी थी।
ऐसे दल के लोगों को फौजी भत्ता तो मिलता है, परंतु उनकी दूसरी जरूरतें भी होती हैं। ये जरूरतें पूरी हो जाएँ, तो कैंप, के कठोर जीवन में उन लोगों को कुछ राहत मिल जाती है। इस तरह की जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी हिंदुस्तानी व्यापारी-वर्ग ने अपने सिर ले ली। इसके सिवा, जिन घायल सैनिकों की हमें सेवा-शुश्रूषा करनी होती थी, उनके लिए मिठाई, सिगरेट वगैरा चीजें मुहैया करने में भी व्यापारियों ने अच्छी मदद की। जब कभी हम शहरों के पास अपनी छावनी डालते थे, तब वहाँ के व्यापारी हमारी ऐसी जरूरतें पूरी करने में पूरा हाथ बँटाने थे।
इस एंबुलेंस दल में जो गिरमिटिया मजदूर शरीक हुए थे, उनके साथ उनकी कोठियों से अँग्रेज सरदार देखरेख के लिए भेजे गए थे। लेकिन काम तो हम सबका एक ही था। सबको साथ रहना होता था। इसलिए गिरमिटिया मजदूर हमें देखकर बड़े प्रसन्न हुए। और उसे पूरे दल की व्यवस्था स्वाभाविक रूप में हमारे ही हाथों में आ गई। इस कारण से यह संपूर्ण एंबुलेंस दल हिंदुस्तानी कौम का ही माना गया और उसके काम का यश हिंदुस्तानी कौम को ही मिला। सच पूछा जाए तो गिरमिटियों के इस दल में भरती होने का श्रेय कौम नहीं ले सकती, उसका श्रेय तो कोठियों के गोरे मालिक ही ले सकते हैं। लेकिन इसमें कोई शंका नहीं कि इस दल के बन जाने के बाद उसकी सुव्यवस्था का श्रेय तो स्वतंत्र हिंदुस्तानी ही - अर्थात हिंदुस्तानी कौम ही ले सकती है। और यह बात जनरल बुलर ने अपने खरीतों (डिस्पेचों) में स्वीकार की थी।
हमें बीमारों और घायलों की सार-सँभाल की तालीम देने वाले डॉ. बूथ भी मेडिकल सुपरिटेंडेंट के रूप में हमारे दल के साथ थे। वे एक भले पादरी थे और भारतीय ईसाइयों में काम करते थे, परंतु वे सबके साथ घुलमिल जाते थे। और ऊपर मैंने जिन 37 नेताओं की बात कही है उनमें से अधिकतर लोग इन भले पादरी के शिष्य थे। हिंदुस्तानियों के एंबुलेंस बल की तरह यूरोपियनों का भी एक एंबुलेंस दल बनाया गया था और दोनों दलों को एक ही जगह काम करना होता था।
युद्ध में सहायता करने का हमारा प्रस्ताव बिना किसी शर्त के सरकार के सामने रखा गया था। परंतु स्वीकृति पत्र में यह कहा गया था कि हमें तोप या बंदूक की मार की सीमा के भीतर काम नहीं करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि युद्ध के मैदान में जो सैनिक घायल हो, उन्हें सेना के साथ रहने वाला स्थायी एंबुलेंस दल उठाकर सेना के बहुत पीछे लाकर छोड़ जाए, उसके बाद हम उन्हें सँभालें। गोरो का और हम हिंदुस्तानियों का अस्थायी और एंबुलेंस दल तैयार करने का कारण यह था कि जनरल बुलर लेडीस्मिथ में बोअर-सेना से घिरे हुए जनरल व्हाइट को मुक्त कराने का महाप्रयत्न करने वाले थे; और उसमें स्थायी एंबुलेंस दल व्यवस्था कर सके उससे कही अधिक संख्या में सैनिकों के घायल होने की आशंका थी। युद्ध ऐसे प्रदेश में हो रहा था जहाँ रणक्षेत्र और केंद्रीय अस्पताल के बीच पक्की सड़कें भी नहीं थीं। इसलिए घायल हुए सैनिकों को घोड़ागाड़ी वगैरा में अस्पताल तक ले जाना असंभव था। केंद्रीय अस्पताल हमेशा किसी रेलवे स्टेशन के पास और रणक्षेत्र से सात-आठ मील से लेकर पच्चीस मील तक दूर रखा जाता था।
हमें जल्दी ही काम करने का अवसर मिल गया; और वह काम हमारी अपेक्षा से ज्यादा कठिन था। घायलों को उठाकर सात-आठ मील तक ले जाना तो हमारे लिए सामान्य बात थी। परंतु कभी-कभी हमें बुरी तरह जख्मी हुए सैनिकों और अफसरों को पच्चीस-पच्चीस मील तक भी उठाकर ले जाना पड़ता था। रास्ते में उन्हें दवा देनी होती थी। कूच सवेरे आठ बजे शुरू होती थी; और पाँच बजे शाम तक केंद्रीय अस्पताल में पहुँचाना जरूरी होता था। यह बड़ा कठिन काम कहा जाएगा। ऐसा मौका एक ही बार आया जब एक दिन में घायलों को उठाकर हमें पच्चीस मील का रास्ता तय करना पड़ा। इसके सिवा, युद्ध के आरंभ में ब्रिटिश सेना को हार पर हार खानी पड़ी और बहुत बड़ी तादात में सैनिक घायल हुए। इस कारण से हमें तोप-बंदूकों की मार के भीतर न ले जाने का विचार भी अधिकारियों को छोड़ देना पड़ा। लेकिन इतनी बात मुझे कहनी चाहिए कि जब ऐसा मौका आया उस समय हम से कह दिया गया कि 'आप लोगों के साथ हुई शर्त के अनुसार हम आपको ऐसे खतरे की जगह नहीं भेजना चाहते जहाँ आप पर गोले बरसें। इसलिए अगर आप इस खतरे में न पड़ना चाहे तो जनरल बुलर का आपको मजबूर करने का बिलकुल विचार नहीं है। परंतु यदि आप स्वेच्छा से यह खतरा उठाना चाहें, तो सरकार अवश्य ही आपका उपकार मनेगी।' हम तो खतरा उठाने को तैयार ही थे। खतरे के स्थान से बाहर रहना हमें जरा भी पसंद नहीं था। अतः हम सब ने इस अवसर का स्वागत किया। लेकिन न तो हममें से किसी को गोलों का घाव लगा और न दूसरी कोई चोट पहुँची।
हमारे दल को अनेक सुखद अनुभव हुए। लेकिन उन सबको देने का यह स्थान नहीं है। फिर भी इतना कहना चाहिए कि हमारे इस दल को जिसमें अनाड़ी माने जाने वाले गिरमिटिया मजदूर भी थे, यूरोपियनों के अस्थायी एंबुलेंस दल के सदस्यों और सेना के गोरे सैनिकों के संपर्क में कई बार आना पड़ता था, परंतु हममें से किसी को भी ऐसा नहीं लगा कि गोरे हमारे साथ रूखा बर्ताव करते हैं या हमारा अपमान करते हैं। गोरों के अस्थायी दल में तो दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए गोरे ही थे। उन्होंने युद्ध से पहले हिंदुस्तानी-विरोधी आंदोलन में भाग लिया था। लेकिन उन पर आई हुई विपत्ति के समय हिंदुस्तानी लोग अपने निजी दुखों को भूलकर उनकी मदद करने के लिए निकल पड़े हैं, इस ज्ञान और इस दृश्य ने उस समय तो उनके हृदयों को भी पिघला दिया। जनरल बुलर के खरीतों में हमारे कार्य की प्रशंसा की गई थी, यह बात पहले कही जा चुकी है। हमारे एंबुलेंस दल के 37 नेताओं को युद्ध के तमगे भी दिए गए थे।
जब लेडीस्मिथ को बोअरों के घेरे से मुक्त कराने का जनरल बुलर का आक्रमण पूरा हो गया तब - अर्थात लगभग दो महीनों में - हमारा दल तथा गोरों का दल भी बिखेर दिया गया। वैसे युद्ध तो उसके बाद बहुत लंबा चला। हम फिर से जुड़ने के लिए सदा तैयार रहते थे; और हमारे दल को बिखेरने वाले हुक्म में हमसे कहा गया कि यदि फिर से इतने बड़े पैमाने पर जोर की सैनिक कार्रवाई करना जरूरी हुआ, तो सरकार हमारा उपयोग अवश्य करेगी।
दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों ने बोअर-युद्ध में जो भाग लिया वह तुलना में बहुत मामूली कहा जाएगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्राणों की हानि तो उन्होंने बिलकुल नहीं उठाई। फिर भी सहायता करने की शुद्ध इच्छा का असर हुए बिना नहीं रहता। और जब ऐसी इच्छा-की किसी ने आशा न रखी हो उस समय यदि उसका अनुभव हो, तब तो उसकी कीमत दूनी आँकी जाती है। बोअर-युद्ध के समय अंग्रेजों के मन में हिंदुस्तानियों के बारे में ऐसी सुंदर भावना बनी रही।
यह प्रकरण पूरा करने से पहले एक जानने जैसी घटना मुझे यहाँ बता देनी चाहिए। लेडीस्मिथ में घिरे हुए लोगों में अंग्रेजों के साथ वहाँ बसने वाले सब गिरमिटिया मजदूर थे - जो या तो रेलवे में काम रकते थे या अंग्रेजों के घरों में नौकर थे। उनमें से एक गिरमिटिया था परभुसिंग। घिरे हुए लोगों में से प्रत्येक आदमी को लेडीस्मिथ के सैनिक अधिकारी ने कोई न कोई कार्य सौंपा था। एक अतिशय खतरनाक और उतना ही महत्वपूर्ण कार्य 'कुली' कहे जाने वाले परभुसिंग के हाथ में था। लेडीस्मिथ के पास की एक पहाड़ी पर बोअरों की पोम-पोम नामक एक तोप रखी हुई थी। उसके गोलों से लेडीस्मिथ के अनेक मकान नष्ट हो गए थे; कुछ लोग जान से भी मारे गए थे। उस तोप में गोला छूटे और दूर के निशाने तक पहुँचे, इसमें एक-दो मिनट तो लगते ही थे। यदि इतने समय की चेतावनी भी घिरे हुए नागरिकों को मिल जाए, तो गोला निशान तक पहुँचे उसके पहले वे कोई न कोई रक्षा का स्थान खोज लें और अपने प्राण बचा लें। परभुसिंग को एक पेड़ के नीचे बैठना होता था। तोप का चलना शुरू होते ही वह पेड़ के नीचे बैठ जाता था और तोप चलती रहती तब तक वहीं बैठा रहता था। उसे यह काम सौंपा गया था कि तोपवाली पहाड़ी को सतत देखता रहे और ज्यों ही तोप से निकलती ज्वाला को देखे त्यों ही घंटा बजा दे। प्राण-घातक गोला छूटने की चेतावनी का घंटा बजते ही लेडीस्मिथ के नागरिक अपनी-अपनी रक्षा की जगह में छिपकर उसी तरह प्राण बचा लेते थे, जैसे बिल्ली को देखकर चूहे अपने बिल में घुस जाते हैं जान बचा लेते हैं।
परभुसिंग की इस अमूल्य सेवा की प्रशंसा करते हुए लेडीस्मिथ के सैनिक अधिकारी ने कहा था कि 'परभुसिंग ने इतनी निष्ठा से कार्य किया कि एक बार भी घंटा बजाना वह चूका नहीं।' यह कहना शायद ही जरूरी हो कि खुद परभुसिंग का जीवन तो सदा खतरे में ही रहता था। उसकी बहादुरी की कहानी न सिर्फ नेटाल में प्रसिद्ध हुई, बल्कि भारत के तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड कर्जन के कानों तक भी पहुँची। उन्होंने परभुसिंग को देने के लिए एक काश्मीरी अंगरखा भेजा और नेटाल सरकार को लिखा कि अधिक से अधिक प्रसिद्धि के साथ, कारण बताकर, परभुसिंग को यह अंगरखा भेंट किया जाए। यह काम डरबन के मेयर को सौंपा गया था। उन्होंने डरबन के टाउन-हॉल के कौंसिल चेंबरर में आम सभा करके परभुसिंग को वह अंगरखा भेंट किया। यह उदाहरण हमें दो बातें सिखाता है : 1. किसी भी आदमी को हलका या तुच्छ नहीं मानना चाहिए; 2. चाहे जैसा डरपोक आदमी भी अवसर आने पर वीर बन सकता है।