हिंदी कहानी में कथ्य, शिल्प और स्वर वैविध्य की जितनी बहुलता आज की कहानियों
में दिखाई देती है, उतनी शायद ही किसी और दौर में नजर आती हो। पिछले दो-तीन
दशकों में नगरों, महानगरों और छोटे कस्बों के अलावा ठेठ देहात से आए
कहानीकारों के पास अलग-अलग तरह के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सत्ता की
कार्य-शैली के जीवनानुभव हैं। विभिन्न सत्ताओं के शब्द और कर्म के द्वैध को
पहचानने की सूक्ष्म दृष्टि और उनकी मनुष्यविरोधी प्रवृत्तियों को अनावृत्त
करने का साहस भी है। पिछले दो दशकों में प्रेम, स्नेह और वात्सल्य जैसे शाश्वत
विषयों पर जो कहानियाँ आई हैं, उसमें उदारीकरण के बाद निर्मित नई
सामाजिक/सांस्कृतिक संरचना की शिनाख्त की जा सकती है। दूसरी तरफ वे लोग भी
समकालीन कहानी से अनुपस्थित नहीं हैं, जो कथित सामाजिक विकास की धारा में पीछे
छूट चुके हैं और तमाम तरह के विकास और संचार से कोसों दूर हैं। यह आकस्मिक
नहीं कि आज के कथाकारों ने अपनी कथा-भूमि महज 'काउ बेल्ट' तक सीमित नहीं रखी,
बल्कि उनकी कहानियों में असम, पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रदेशों
की आम जनता, किसान, मजदूर और शहरी मध्यवर्ग का जीवन-यथार्थ भी अभिव्यक्त हुआ
है। इन कथाकारों ने कथ्य, शिल्प और भाषा में आमूल-चूल बदलाव के साथ-साथ
प्रस्तुति के स्तर पर भी हिंदी कहानी को समृद्ध किया है। जिन भारतीय आम जन की
कथा दुख ही रही है, उस जन की दंतुरित मुस्कान और शक्ति-संरचना के शास्ताओं के
चरित्र को आज के कथाकारों ने काफी हद तक ठीक लक्षित किया है।
बीसवीं सदी के साठ के दशक से लेकर नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध तक की कहानियों
को देखें, तो कथा-भूमि या तो हिंदी प्रदेश का गाँव रहा है या शहर। गैर हिंदी
भाषी कथा-भूमि से वाबस्ता कहानियाँ लगभग नहीं के बराबर मिलती हैं। इसकी वजह
शायद यह हो कि हिंदी भाषी प्रदेशों के कथाकारों में घुमक्कड़ी की प्रवृत्ति उस
अनुपात में कम पाई जाती है, जितनी बांग्ला या मराठी कथाकारों में। जिस वजह से
वे भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश की वास्तविकताओं और संशलिष्ट
यथार्थ की परतों को भेदकर गैर हिंदी भाषी कथा-भूमि की कहानियाँ संभव नहीं कर
पाते। नए कथाकारों ने बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश की वास्तविकता को पिछली
पीढ़ी के कथाकारों के मुकाबले ज्यादा गहराई से जाना/समझा है और अपनी
कथा-दृष्टि से अद्भुत आख्यान रचने में सफलता अर्जित की है। नई कथा-भाषा और
प्रस्तुति के बावजूद स्त्रियों की दशा और समस्याओं की समझ के मामले में महिला
और पुरुष कथाकारों की कहानियों में दृष्टिकोण की एक फाँक नजर आती है। एक ही
समय और समाज में जी रहे महिला और पुरुष कथाकारों की स्त्रियों को लेकर समझ और
दृष्टिकोण में विद्यमान अंतर को स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है -
पुरुषवादी भाषा, शब्द-चयन, अंदाज-ए-बयाँ और फिकरों में। असल में चेतन स्तर पर
किसी चीज के प्रति हम साकांक्ष हों, तब भी अवचेतन में मौजूद सोच भाषा,
शब्द-चयन और शैली की असलियत को सामने ला देती है। स्त्री देह को लेकर जिस तरह
की उन्मुक्तता और वर्णन इधर की कहानियों में नजर आती है, उसमें भी स्त्री और
पुरुष कथाकारों के वर्णनों को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि दृष्टिकोण के
फर्क से किस तरह चीजों के अर्थ और समस्याओं की समझ में तब्दीली आ जाती है।
आज की कहानियों की भाषा को ध्यान से देखें, तो लगता है कि कथा-भाषा में
रंग-भाषा और चित्र-भाषा के प्रयोग की कोशिशें हुई हैं। कुछ कहानियों में
उप-शीर्षकों के प्रयोग से शिल्प के साथ-साथ अर्थ के स्तर पर भी नए मानी पैदा
होते हैं, मगर जिस महामारी की तरह यह कहानियों में प्रयुक्त हो रही हैं उससे
ऊब और व्यर्थता बोध अधिक पैदा होती है - पता नहीं कथाकारों को इस चीज का अहसास
है कि नहीं। आजकल जिसे देखिए वह बिना उपशीर्षकों के कहानी लिख ही नहीं रहा है।
अन्य मामलों में भले स्त्री और पुरुष कथाकारों के नजरिये में फर्क नजर आता हो,
लेकिन इस मामले क्या स्त्री, क्या पुरुष कथाकार सभी यह मान चुके हैं कि बिना
उपशीर्षकों के कहानी अब संभव ही नहीं हो सकती। उपशीर्षक न हुआ, मानो अर्थ और
शिल्प सौंदर्य का अनिवार्य तत्व हो गया! शिल्प और अर्थ सौंदर्य बढ़ाने की जगह
यह यदि कथ्य में अवरोध पैदा कर रहा हो, तो ऐसे शिल्प को हर जगह इस्तेमाल करने
का क्या फायदा?
हिंदी कहानी पर जबसे उत्तर आधुनिकता और बाजार का दबाव बढ़ा है, तबसे स्त्री
देह को लेकर सहजता और स्वाभाविकता से अधिक लोकप्रियता का दबाव बढ़ गया है।
शायद इसीलिए एक स्थापित स्त्री रचनाकार से नवोदित स्त्री रचनाकार सहजता से पूछ
लेती हैं कि कहानी/उपन्यास में देह-वर्णन किस तरह और किस सीमा तक किया जाए कि
उन्हें भी तत्काल प्रसिद्धि प्राप्त हो जाए! गनीमत यह है कि ऐसी महिला
कथाकारों की संख्या अधिक नहीं है। ज्ञानेंद्रपति की काव्य पंक्ति है : 'छपते
हुए अखबार / और पकते हुए मांस को चाहिए / गरम मसाला'। कई बार बोल्डनेस और
उन्मुक्त वर्णन की साहसिकता दिखाने के लिए, तो कई बार कथा-परिदृश्य में बने
रहने के लिए भी इस तरह के देह वर्णन को विस्तार से जगह दी जाती है।
स्त्री कथाकारों के यहाँ मौजूद स्त्री देह के डिटेल्स, शैली और भाषा को
परिस्थिति, माहौल और स्वाभाविकता के लिहाज से देखें, तो चीजें ठीक से खुलती
हैं। तकरीबन एक दशक पूर्व 'हंस' के अगस्त 1996 के अंक में लवलीन की कहानी आई
थी 'चक्रवात'। इस कहानी में लवलीन ने स्त्री-पुरुष संबंध को बहुत बिंदास तरीके
से चित्रित किया था, जिसकी चर्चा महीनों तक रही थी। ये कहानी है उन दो दोस्तों
की जो दोस्त से कुछ अधिक हैं। दोनों कॉलेज और यूनिवर्सिटी में साथ पढ़ाई की है
और उसी जमाने से दोनों में एक-दूसरे के प्रति सहज जैविक आकर्षण है। कॉलेज खत्म
होते ही दोनों की शादी किसी और से हो जाती है। कुछ समय बाद कीर्ति रणजीत के घर
उससे मिलने आती है और हालात कुछ ऐसे बन जाते हैं कि दोनों के मन में कॉलेज के
दिनों का दमित आकर्षण उस दिन चरम सीमा पर आ जाता है और मानवीय संबंधों का
चक्रवात शुरू हो जाता है।
लवलीन के उन्मुक्त वर्णन को लेकर पुरुष पाठकों और रचनाकारों को लगा कि एक
महिला होकर स्त्री-पुरुष संसर्ग का कितना बोल्ड वर्णन कर रही है! यानी कितनी
साहसी महिला कथाकार है! अब तक तो परंपरा यही रही थी कि प्रेम और देह के मामले
में स्त्री की भूमिका समर्पणकारी से अधिक की नहीं रही थी। जबकि इन कहानियों ने
पात्रों के माध्यम से दिखाया कि दैहिक संसर्ग को लेकर भी पुरुष और स्त्री की
दृष्टि अलग है। ऐसी ही पृष्ठभूमि पर बीसवीं सदी के सातवें दशक में मन्नू
भंडारी की एक कहानी छपी थी 'ऊँचाई'। जिसकी पात्र शकुन अपने युवा काल के मित्र,
जिसके प्रति उसके मन में अत्यंत कोमल भावनाएँ थीं, से मुलाकात के दौरान उससे
दैहिक रूप से भी मिलती है। यह बात जब उसके पति को पता चलती है, तो तनाव, कटुता
और संबंध विच्छेद जैसी बातें सामने आने लगती हैं। मन्नू भंडारी की ही एक और
कहानी है 'स्त्री सुबोधिनी' जिसमें उन्होंने दिखाया है कि पुरुषवादी सत्ता के
प्रतिनिधि पुरुष किस तरह स्त्री को पत्नी, प्रेमिका और रखैल की अलग-अलग
भूमिकाओं में देखता है।
'हंस' के ही दिसंबर 2010 के अंक में युवा कथाकार जयश्री राय की कहानी छपी थी
'एक रात'। उस कहानी में जयश्री संभोगरत क्षण को देह से की गई प्रार्थना मानती
हैं, 'ऐसी प्रार्थना जो दो शरीर, दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद,
लय और ताल में एक ही उद्देश्य से करते हैं - उस बंधन में जो योग और
अर्द्धनारीश्वर है और उस मुक्ति के लिए जो बुद्ध का निर्वाण या आशुतोष का
मोक्ष है। प्रेम में घटित हुआ संभोग बंधन में अपनी मुक्ति तलाश लेता है और हर
मुक्ति को अपना आलिंगन बना लेता है।' स्त्री यौनिकता को लेकर भारतीय समाज में
जिस तरह की मानसिकता और सोच रही है, उसको महिला कथाकारों ने अपनी ही तरीके से
समझा है। उनमें यौनिकता को लेकर अलग नजरिया ही नहीं, स्पर्श, प्रेम और आलिंगन
का मुख्तलिफ अहसास और संवेदनशीलता भी नजर आती है। इसी कहानी में जयश्री राय
आगे लिखती हैं, 'जरूरी नहीं कि स्त्री पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में
दो हाथ की तरह जुड़ें, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक
सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहें, प्रार्थना
में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें...!' संयुग्मन के एकाकार क्षण में भी
जयश्री राय इस बात प्रति साकांक्ष हैं कि 'प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व
समाप्त न कर लें'।
इस कथांश को देखने के बाद एक प्रश्न सहज ही मस्तिष्क में आता है कि स्त्री देह
को लेकर जैसी संवेदनशीलता और कोमलता जयश्री राय के वर्णन में दृष्टिगोचर होता
है, क्या वैसा ही नजरिया स्त्री-देह और यौनिकता को लेकर उनके समकालीन पुरुष
कथाकारों के यहाँ दिखता है? अब वरिष्ठ-से हो चुके कथाकार प्रियंवद की एक कहानी
में एक माँ अपने असामान्य बच्चे की बेहतरीन परवरिश करते हुए एक दिन उसका वीर्य
स्खलित करवाने के बाद जिस मानसिक दशा में पहुँच जाती है, उसे यदि कोई स्त्री
रचनाकार लिखती तो क्या उसका ट्रीटमेंट भी इस कहानी के साथ यही होता? प्रियवंद
की शिल्पसिद्ध कहानियों में असामान्य और अजीबो-गरीब पात्रों की यौनिकता को
लेकर जैसी समझ और संवेदना दिखती है, उसी को यदि स्त्री रचनाकारों की दृष्टि से
देखने पर एक भिन्न प्रकार का निष्कर्ष निकलता है।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद जब अपने चरम पर होता है तो हर औरत को
वेश्या को बनने के लिए लालायित करता है। आए दिन प्रकाशित/प्रसारित होने वाले
विज्ञापनों में हम देख रहे हैं कि किस तरह हर उत्पाद के प्रचार में स्त्री देह
का इस्तेमाल भी एक उत्पाद की तरह ही किया जा रहा है। वीर, भोग्या, वसुंधरा की
तर्ज पर पुरुष वर्चस्व की सत्ता और बाजार दोनों की मानसिकता में कहीं-न-कहीं
आज भी स्त्री महज भोग्या-भर का दर्जा रखती है। एक चर्चित और पुरस्कृत पुरुष
कथाकार की एक लंबी कहानी कुछ महीने पहले एक पत्रिका में आई थी, जिसमें कथाकार
ने वर्तमान समाज में लड़कियों को विवाह पूर्व यौन संबंध बनाने में बाधा बनने
वाले परिवार को सबसे बड़ी स्त्री-समस्या के रूप में दिखाया है। स्त्री शुचिता
को लेकर समाज के इस दृष्टिकोण पर परंपरावादियों और प्रगतिशीलों में बहस हो
सकती है, लेकिन दिक्कत तब होती है, जब पुरुष कथाकार स्त्री-देह को ही प्रेम का
पर्याय बताते हुए विवाह पूर्व उन्मुक्त सुख-भोग को भारतीय स्त्री की सबसे बड़ी
समस्या के रूप में दिखाता है। शिल्प के स्तर पर तमाम बाजीगरी दिखाने के बावजूद
वह कहानी आज की लड़कियों की समस्याओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि
कहीं-न-कहीं उन पुरुषवादी ताकतों के शक को पुष्ट करती-सी प्रतीत होती है, जो
यह मानकर चलती है कि बाहर भेजने पर लड़कियों के बिगड़ जाने के खतरा रहता है।
पुरुष लाख यह दावा करे कि स्त्री उसके भीतर है, लेकिन भीतर की स्त्री को जब
कोई बाहरी स्त्री ठीक से देखती है, तभी पता चल पाता है कि भीतर की स्त्री
मनुष्यवत है या महज एक देह-भर। स्त्री देह में किसी को उसका मांसल सौंदर्य और
उन्नत उरोज दिखता है, तो किसी को भर बँधा यौवन के नीचे खाली पेट और कुपोषित
देह। इसलिए मसला देह-वर्णन से अधिक स्त्री-देह को देखने की जो दृष्टि है उस पर
निर्भर करती है। युवा कथाकार कविता की एक कहानी है 'बावड़ी'। कहानी की माँ
बेटी अन्वी को लेकर कुछ अधिक ही पजेसिव है और बेटी की सुरक्षा को लेकर अति
साकांक्ष। उसके पति उसकी इस अति साकांक्षता के कारणों से अपरिचित है, इसलिए वह
पत्नी के भीतर छिपे डर और शक की वजहों को नहीं जान पाता। क्लब में टेंपरेरी
स्टाफ जरा-सा दरवाजा क्या बंद कर देता है, उसके भीतर शक का बीज अंकुरित होने
लगता है - कहीं बेटी के साथ के साथ कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं घटित हुआ? उसने
दरवाजा क्यों बंद कर दिया था?
मनुष्य अपने अनुभवों से ही सीखता है और 'बावड़ी' की नायिका के भीतर जन्मा शक
और असुरक्षा बोध भी उसके अनुभवों की ही उपज हैं। रात के गहन अंधकार में जब
उसका अतीत उसके भीतर जागता है, तो पाठकों को उसके असामान्य डर और व्यवहार का
पता चलता है, 'नन्हीं-सी मैं घर के उस ड्राइवर की गोद में हूँ, जो सबका प्रिय
है। जो अक्सर मुझे गोद में बिठा कर रखता है, जाँघों पर अपनी पूरी ताकत से दबा
कर - जहाँ मेरा दम घुटता है। ट्यूशन पढ़ाने वाले भैया की वो गंदी सी चुम्मियाँ
जिसमें वो होंठ गालों से नहीं सटाते, होंठों पर रगड़ते हैं, कस कर... उस दूर
के अधेड़ जीजा जी का पाँव दबवाने के बहाने जगह-जगह उँगलियाँ फिराना... मैं चुप
थी और चुप होती गई थी। कोई प्रतिरोध नहीं करना स्वभाव का एक हिस्सा बन गया हो
जैसे। बस दुख... भीतर तक पसरता एक अजनबी, अनचाहा और अनजाना-सा दर्द।' इस दर्द
को स्त्री होने के नाते कविता ने जिस संवेदनशील भाषा में एक माँ की आशंका,
व्याकुलता और मानसिक उद्वेलन के साथ लिखा है, वैसा किसी समकालीन पुरुष कथाकार
ने लिखा हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। ऐसा नहीं है कि बड़ों के इन कुंठित
व्यवहार का शिकार बच्चियाँ ही होती हैं, बच्चे भी होते हैं। अभी हाल में
मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने पटना जाते समय अपने साथ हुए हादसे के बारे में
लिखा है, जिससे पता चलता है कि बच्चे तो बच्चे, किशोर उम्र के लड़के भी
तत्क्षण ऐसे दुर्व्यवहारों का विरोध नहीं कर पाते हैं। पुरुषवादी समाज की
संवेदना का पता इससे भी चलता है कि विनीत को सांत्वना के दो बोल कहने और उसका
साथ देने का हिम्मत भी एक स्त्री ही दिखाती है, बस में मौजूद कोई पुरुष नहीं।
अभी 'हंस' के जनवरी 2013 के अंक में ही जयश्री राय की कहानी छपी है 'छुट्टी का
दिन'। जिसके पुरुष पात्र को देखें, तो लगता है कि पुरुषों की लंपटता किसी भी
उम्र में मौजूद रहती है। कामवाली बाई को लेकर उसके मन में उठने वाले विचारों
को देखें, 'मराठी ढंग से बांधी गई तंग साड़ी से उसके विपुल नितंब मेरे एंगल से
नगाड़े की तरह दिख रहे थे। यकायक किसी आदिम इच्छा से भरकर मेरा मन हुआ था कि
उठकर उसे दनादन बजा दूँ।' दूसरी तरफ मोहल्ले की भाभियाँ ही नहीं, अंकल कहने
वाली बच्चियों के प्रति भी उसके खयाल नेक नहीं हैं। यहाँ तक कि आमला भाभी को
नहाते समय देखने की भी उसने तरकीब निकाल ली है। ऐसे पुरुषों की पत्नियाँ जब
बराबरी पर उतर आती हैं, तो लंपटता की जमीन खिसकने लगती है। पुरुषों की लंपटता
को बयान करने वाली कुछ इसी तरह की वंदना राग की एक कहानी अभी हाल में 'अनहद'
में छपी है 'पति परमेश्वर'। बाजार किस प्रकार अपने साजो-सामान के साथ बेडरूम
में भी घुस आया है, इसके प्रमाण हैं इस कथा के नायक सहाय जी। सहाय जी
सेक्स-कुंठित ऐसे पात्र हैं जो अपने कार्यालय में सहकर्मियों से पत्नी से
प्रेम करने के तरीकों पर चर्चा करते हैं - यहाँ तक कि महिला सहकर्मी रंजना जी
तक से ऐसी सलाह-मशविरा करने से गुरेज नहीं करते। पत्नी को फिल्म दिखाने ले
जाते हैं, 'पिक्चर हाल पहुँच, पोस्टर देख संध्या अकबका गई, सारे एडल्ट पोज थे,
'अरे सुनो, ये कौन पिक्चर आ गए, गलत टिकिट ले लिए क्या?' नहीं! खुशी को सीने
में दबाते, लपके सहाय जी संध्या का हाथ पकड़ हाल में घुसे।'
गीताश्री की एक कहानी है 'गोरिल्ला प्यार'। यूरोप और अमेरिका में प्रचलित
लिव-इन-रिलेशनशिप अब भारत के महानगरीय जीवन का भी यथार्थ है। विवाह संस्था ने
किस तरह औरतों की स्वतंत्रता, अस्मिता और आत्मसम्मान का जनाजा निकाला है, इसे
कोई विवाहित स्त्री ही जानती है। इसलिए कथा की नायिका सोचती है, 'अर्पिता ने
प्रेम किया, पर शादी उसे मंजूर नहीं थी। कि शादी बंधन है और बंधना उसे स्वीकार
नहीं। पत्नी के फ्रेम में तो वह छटपटाती रहती। घुट जाती। उसका प्रेमी
दकियानूसी पति में बदल जाता। घड़ी के काँटों से दफ्तर जाना। साँझ को लौटना।
कभी-कभी पिक्चर, पिकनिक और शॉपिंग। बच्चे-वच्चे, सास-ससुर, देवरानी-जेठानी,
देवर और जेठ नहीं भी तो बंधी-बंधाई दिनचर्या। बंधा-बंधाया रिश्ता। कोई ऊष्मा
नहीं, गर्माहट नहीं। सिर्फ औपचारिक प्रेम और किताबी रिश्ता-देह के स्तर पर भी,
और दिमाग के स्तर पर भी।'
पुरुषवादी समाज में मर्दवादी मानसिकता का प्रतिनिधित्व सिर्फ पुरुष ही नहीं
करते। दादी, नानी, चाची, ताई, बुआ आदि के माध्यम से औरतें भी करती हैं। रघुवीर
सहाय ने हिंदी को दुहाजू की बीवी कहते हुए उसकी अंतिम साध के बारे में बताया
था कि खसम से पहले मरे। तो खसम से पहले मरे वाली जो सोच है, उस सोच में
कंडीशंड मानसिकता की शिकार औरत की सोच के बारे में नवोदित कथाकार इंदिरा दांगी
ने 'परिकथा' के जनवरी-फरवरी, 2012 के अंक में छपी अपनी कहानी 'मैंने परियाँ
देखी हैं' में लिखा है, 'सदा की संस्कार लक्ष्मी शांतिदेवी तरुणाई से प्रौढ़ता
तक गुस्सैल पति के ही पैरों चली थी, पति की ही आँखों देखती रही थीं। पति की ही
जुबान बोलती रही थीं और पति को ही कुल अपने कुल विश्व के तौर पर समझ-बूझ पाई
थीं। सुहागिन मरना ही उनके जीवन की सबसे बड़ी मनोकामना रही थी।' सिमोन द
बोउवार की प्रसिद्ध स्थापना है कि औरतें पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं। पति
ही औरत का कुल जहान और पति से पहले औरत सुहागिन मरे - यह विचार औरत के मन में
किसी भावुकता या सहज तर्क के कारण पैदा नहीं होते। न ऐसे विचार अति-प्रेम के
कारण पैदा होते हैं। पितृसत्ता के द्वारा औरतों के दिमाग में शैशव काल से ही
ऐसे विचार बड़ी-बूढ़ियों द्वारा प्रक्षेपित किए जाते हैं।
चाहे औरत हो या मर्द, नीयत और चलन से तो को नेक और बद हो सकता है, लेकिन बदचलन
शब्द सामाजिक रूप से प्रायः औरत के लिए ही प्रयुक्त होता है। नवोदित कथाकार
वंदना शुक्ला की एक कहानी आई है - 'बदचलन'। हर चीज को बिकाऊ समझने वाला बाजार
और हर गरीब औरत को बिस्तर तक ले जाने का आकांक्षी पुरुष समाज जब अपने मंसूबे
में कामयाब नहीं हो पाता है, तो नीचता की सारी हदें पार कर जाता है। वंदना
शुक्ला ने इस कहानी में सामाजिक संरचना, धन और प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ पुरुष
मन की गहराइयों को भी ठीक समझा है, 'ये औरतें छिनाल कहती हैं मुझसे कि इनके
मर्दों पे डोरे डालती हूँ मैं? पूछो अपने इन शरीफ शौहरों से, कि रात में कितनी
बार कुंडी खटखटाते हैं मेरे दरवाजे की मर्दजात से शरीफजादे! मेरे साथ सोने की
क्या कीमत लगाते हैं? मुझे कितने में खरीदने की पेशकश करते हैं ये इज्जतदार
मर्द!' परवीन के माध्यम से वंदना शुक्ला इस कहानी में पुरुषवादी मानसिकता और
सामाजिक यथार्थ की पोल खोलकर रख देती हैं। इन कहानियों के उदाहरणों से पता
चलता है कि स्त्री-जीवन के समकालीन यथार्थ को अधिक प्रामाणिक और वास्तविक रूप
में स्त्री कथाकारों की नजर से ही देखना मुमकिन है।