"निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है। ललित निबंध भी
	काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता।" के उद्घोषक
	श्री कुबेरनाथ राय की ख्याति साहित्य जगत में एक ललित निबंधकार के रूप में
	समादृत है। कुबेरनाथ राय हिंदी के उन लेखकों में हैं, जिनके लेखन की परिधि
	अपनी अंतर्वस्तु और चेतना में अखिल भारतीय या राष्ट्रीय थी। उनका लेखन
	बहुआयामी और विविधिता पूर्ण है, जिसका लक्ष्य है सत्यान्वेषण - "साहित्यकार
	सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए ही एक सांस्कारिक, मानसिक वातावरण
	तैयार करे।" वैसे तो श्री राय ने अपना लेखन छात्र-जीवन से ही शुरू कर दिया था।
	उनके निबंध तबके प्रतिष्ठित पत्रिकाओं 'माधुरी' और 'विशाल भारत' में छप भी रहे
	थे। पर असल लेखन बकौल श्री राय - "सन 1962 में प्रो. हूमायूँ कबीर की इतिहास
	संबंधी उलजूलूल मान्यताओं पर मेरे एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर
	पं. श्रीनारायन चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में
	धनुष-बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक उत्तरदायित्व के
	प्रति सजग था", से शुरू हुआ। 1969 में भारतीय ज्ञानपीठ से श्री राय का प्रथम
	निबंध संग्रह छपा - 'प्रिया नीलकंठी' जिसकी भूमिका ('अंत में') में उन्होंने
	लिखा - "मुझे किसी भाई के श्रेय की पत्तल नहीं छीननी है क्योंकि न तो मैं कवि
	हूँ और न कहानीकार। निबंधकार की महत्वाकांक्षाएँ सीमित होती है।" लेकिन अगली
	ही पंक्ति में अपने विशाल अध्ययन, अगाध पांडित्य और अपने अंतर्यामी के प्रति
	अचल निष्ठा के कारण उनमें उपजा अखंड आत्म विश्वास उनसे यह कहलवाने से भी नहीं
	चूकता है कि - "मैं अपने गाँव की धरती के हृदय से एक जीवित परंपरा का चयन करने
	चला हूँ। परंतु अतिशय विनय और अतिशय प्रीति के साथ... अब एक किनारे मैं भी जम
	रहा हूँ।"
	श्री राय के कुल 20 निबंध संग्रह प्रकाशित हैं। 1969 में 'प्रिया नीलकंठी' से
	शुरू हुई उनकी सारस्वत 'रस-आखेटक' साधना उनकी तीसरी कृति 'गंधमादन' में ही
	अपने चरम पर पहुँच गई सी लगती है। श्री राय के इन निबंध-संग्रहों को पढ़ते समय
	कई बार ऐसा लगता है कि अब आगे क्या होगा? कहीं लेखक चुक तो नहीं गया? लेखक
	कैसे पाठक के साथ न्याय करेगा? पर अपने अगले ही संग्रह 'विषाद योग' में श्री
	राय एक-दूसरे अवतार में और कसे हुए नजर आते हैं। कहने का तात्पर्य कि पाठक एक
	बार यदि श्री राय के निबंध-कांतार में प्रवेश कर लिया तो देखता है कि लेखक तो
	'पर्णमुकुट' बाँधकर 'कामधेनु' की रस्सी को 'महाकवि की तर्जनी' में लपेटे हुए
	'निषाद-बाँसुरी' पर 'त्रेता का वृहत्साम' धुन गाता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा
	है। रास्ते में यदि कहीं 'किरात नदी में चंद्रमधु' दिखा तो 'मन पवन की नौका'
	पर सवार होकर 'पत्र मणिपुतुल के नाम' को काँख में दबाये हुए 'मराल' बनकर
	'उत्तरकुरु' की ओर उड़ते हुए 'चिन्मय भारत' का 'दृष्टि अभिसार' कर रहा है। पुनः
	वह जब जमीन पर उतरता है तो 'अंधकार में अग्निशिखा' के माध्यम से 'आगम की नाव'
	में सवार होकर 'रामायण महातीर्थम' तक पहुँचकर 'वाणी के क्षीर सागर' में
	विश्राम पा लेता है।
	श्री राय ने अतीत, वर्तमान और भविष्य की साधना एक साथ की है, पर दृष्टि
	केंद्रित रही है सर्वदा भविष्य पर ही। उनका 'रस आखेटक' मन गजब का है। कभी वह
	वह वैदिक साहित्य, भारतीय तंत्र साधना, वैष्णव परंपरा, राम कथा, महाभारत और
	प्राचीन इतिहास के महासागर में गोते मारकर वहाँ से भारत-निर्मित के सूत्र
	'आर्य-किरात-निषाद-द्राविड़' लब्ध करता है तो कभी भूमिहार, कायस्थ, अहीर, धोबी,
	डोम आदि जातियों के उत्स-कला-परंपराओं की तलस्पर्शी छानबीन करते हुए उतराता
	है। कभी जीवहंस बनकर भारतीय साहित्य की रसवादी परंपरा के कजरीवन में डुबकी
	लगाता है तो कभी विश्व साहित्य और राजनीति के महाकांतार में अकेले ही गदा लेकर
	घूम आता है। वहीं पर वह 'शेक्सपीयर-होमर-वर्जिल' के साथ कुछ गप-शप भी लड़ा लेता
	है। फिर मन हुआ तो कंधे पर गमछा और हाथ में लउर लेकर गंगा किनारे चला जाता है।
	वहाँ अरार पर खड़ा होकर श्री राय जब 'निषाद बाँसुरी' का तान छेड़ते हैं तो
	अरियात-करियात से फागुन डोम, रामदेव मल्लाह और रंगा माझी को कौन कहे धोबी,
	होली-चैता-लोरकी गाने वालों के साथ-साथ फूल लोढ़ने वालों/वालियों की भीड़ लग
	जाती है। वहीं उस 'पाँत के आखिर' में 'शील गंध अनुत्तरों' का सोटा लिए हुए
	गांधी भी खड़े नजर आते हैं।
	श्री राय का जन्म भोजपुरी भाषी क्षेत्र गाजीपुर जिले के गंगातटवर्ती गाँव
	'मतसा' में हुआ था। पारिवारिक संस्कार वैष्णव था। वे एक किसान परिवार से थे।
	भारतीय किसान-मन 'उद्यम-तितिक्षा-सिसृक्षा-जिजीविषा' का संगम होता है। श्री
	राय में यह गुण सहज-आनुवांशिक रूप में उपलब्ध था। गांधी ने किसान को सौर-मंडल
	का सूर्य कहा है तो श्री राय किसान को 'संस्कृति का शेषनाग' कहते हुए -
	"छोटे-छोटे किसान ही संस्कृति के शेषनाग हैं - सबका भार वहन करने का इनका
	उत्तरदायित्व है। जो शेषनाग पृथ्वी का समस्त भार अपने फन पर लिए हुए हैं, उनकी
	एक ही करवट सबकी धड़कन बंद कर सकती है" उसके महत्व को बताना नहीं भूलते हैं।
	श्री राय का मन गाँव में खूब रमा है। उनके निबंध संग्रहों के नाम हों या उनमें
	संकलित निबंधों के नाम हों, दोनों इसकी पुष्टि करते हैं।
	कुबेर नाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहें हैं - 'सच तो यह
	है कि मेरा संपूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार। पर इस
	क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में
	देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा - 'अहं
	भारतोऽस्मि'। अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
	"निषाद-बाँसुरी' संग्रह का एक उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का
	प्रत्यभिज्ञान,अर्थात भारत की सही 'आइडेंटिटी' का पुनराविष्कार, जिससे वे जो
	कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं...।" लेकिन श्री राय
	की नजर में यह 'भारतीयता' किसी एक की बपौती नहीं अपितु "संयुक्त उत्तराधिकार
	है। और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुतः आर्यों
	के नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्राविड़-निषाद-किरात ने की है।
	ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है। नगर
	सभ्यता, कलाशिल्प, ध्यान-धारणा, भक्तियोग के पीछे द्राविड़ मन है। अरण्यक शिल्प
	और कला-संस्कारों में किरातों का योगदान है। ...भारतीय ब्रह्मा चतुरानन हैं
	जिनके चार मुख हैं : आर्य-द्राविड़-किरात-निषाद।" श्री राय के लिए 'भारतीयता'
	कोई अमूर्त अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है - "मुझसे जब
	कोई पूछता है कि 'भारतीयता क्या है' तो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ,
	वह शब्द है 'रामत्व' - राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग
	में भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ
	सफल भी रहा।" उनके लिए 'भारत' कोई 'मानसिक भोग' या 'भौगोलिक सत्ता' नहीं है।
	यह उससे बढ़कर 'एक प्रकाशमय, संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूप' तो
	है ही 'अधिक सत्य एवं शाश्वत' भी है। 'अरूप-अनिकेत गंध-उपवन' के मंह-मंह सुगंध
	से श्री राय की परमा-स्मृति प्रायः सक्रिय रहती है - "भारत की यह निराकार
	मूर्ति (अर्थात 'संस्कार समूह' के रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक
	कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसका 'पार्टीशन' या बंदर-बाँट नहीं कर
	सकता।" गांधी ने भी 'हिंद-स्वराज' में इसी बात को अपनी शैली में कहा है -
	"हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा।"
	कुबेरनाथ राय अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थे, पर लिखा उन्होंने हिंदी
	में। भोजपुरी/हिंदी उनकी मातृभाषा थी। वे इस बात से सहमत थे कि अभिव्यक्ति के
	लिए सर्वोत्तम भाषा मातृभाषा ही हो सकती है। अँग्रेजी साहित्य का उन्होंने
	गंभीर अध्ययन किया था। इसका प्रमाण है होमर-वर्जिल-शेक्सपीयर पर उनके द्वारा
	लिखे गए मोनोग्राफ। ये मोनोग्राफ गाँव-देहात से निकलकर विश्वविद्यालयों में
	अँग्रेजी साहित्य से अध्ययन करने वालों के लिए एक अमूल्य थाती है। भारत में कम
	विद्वान होंगे जिन्होंने अपने विषय के प्रख्यात विदेशी विद्वानों को लेकर श्री
	राय के मोनोग्राफ जैसी गंभीर रचना की हो। अपनी भाषा से लगाव रखने के साथ ही वे
	दूसरी भाषाओं से भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार शब्दों का आहरण भी करते रहे हैं।
	लेकिन श्री राय का मन तो जहाज-पंछी की तरह बार-बार अपने गाँव-घर की ओर लौट आता
	है - "अभिव्यक्ति की दृष्टि से अकेले-अकेले खड़ी बोली एक नितांत अक्षम भाषा है।
	यह कस्बे की बोली है। परंतु समग्र जीवन-व्यापी भाषा बनाने के लिए इसे
	ब्रज-अवधी-भोजपुरी-मगही-मैथली-छत्तीसगढ़ी के 'जानदार-पानीदार' शब्दों को लेना
	ही होगा, इसमें कोई विवाद ही नहीं, क्योंकि यह तो 'घर' की निधि है।" श्री राय
	साहित्य साधना के लिये एकांत को आवश्यक मानते हैं। उन्होंने स्वयं दुनिया के
	भीड़ से हटकर 'कामरूप-कांजीरंगा' और 'गंगा-ब्रह्मपुत्र'के तट पर रहकर साहित्य
	साधना की थी। उन्होंने अपने पिताजी को बचपन में ही संतोष दिलाया था कि वे बड़े
	होकर संन्यासी नहीं प्रोफेसर बनेंगे। पर तब उनको यह नहीं पता था कि 'भारतीय
	प्रोफेसर जीवन भर कदर्य-कुत्सित या अभिशप्त जीवन ही जिएगा और उसके जीवन का
	अधिकांश हिस्सा मंत्री से लेकर संतरी तक को खुश रखने में ही खर्च हो जाएगा'।
	बुद्धिजीवियों का 'नाई-बारी, भाँट-पवनी बनना' उन्हें कत्तई पसंद नहीं है।
	कुबेरनाथ राय एक सजग भारतीय हैं। भाषा का प्रश्न भी उनके लिए एक गंभीर प्रश्न
	हैं। वे कबीर की भाषा संबंधी उक्ति 'संस्कृत कबिरा कूप जल, भाषा बहता नीर' को
	अर्धसत्य मानते हैं। श्री राय मानते हैं कि - "संस्कृत जब पिघलती है या रिसती
	है तो 'पेय' जल बनकर 'भाषा' का रूप लेती है। भारतीय संदर्भ में यह अनिवार्य
	अमोघ सत्य है।" जब-जब हिंदुस्तान पर आक्रमण हुआ हिंदुस्तान उसे अपने साहित्य
	और भाषिक संस्कृति के बल पर झेल गया। उसके संस्कार जस-के-तस बने रहे। अगर आज
	हिंदी ने अँग्रेजी के मुकाबले कुछ ही समय में लंबी छलाँग लगाई है तो इसके
	'पीछे भाषा की तत्सम संस्कृति' की ही ताकत है। वनस्पति हो या भाषा उसकी जड़ें
	बड़ी गहरी होती है। वहीं से वे अपना प्राण-रस खींचती हैं। आज की भाषायी राजनीति
	को वे खतरे के रूप में देखते हैं। जो लोग इससे जुड़े हैं अथवा संयोग से केंद्र
	में हैं, उनकी नजर में 'आउटसाइडर' हैं। ये 'बाहरी' वस्तुतः 'भाषा बहता नीर' को
	अपना गुप्त हथियार बनाकर देश की आत्मा को बंधक बनाना चाह रहें हैं। श्री राय
	समाधान भी प्रस्तुत करते चलते हैं - "हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसे समग्र
	भारतवर्ष समझे और इसका महाकोश 1. लोकभाषा 2. प्रांतीय भाषा 3. संस्कृत भाषा के
	सहयोग से विस्तृत होगा। भाषा की दृष्टि से दिल्ली ही सारा हिंदुस्तान नहीं है।
	हिंदी को यदि वह भूमिका निभानी है जिसे संस्कृत अभी तक निभा रही थी, तो उसे
	संस्कृत जैसा बनना होगा। तभी वह शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान और साहित्य की
	दृष्टि से 'राष्ट्रभाषा' बन सकेगी।"
	सच तो यह है कि कुबेरनाथ राय को पढ़ने-समझने का मतलब है भारतीयता के मनोमय और
	चिन्मय स्वरूप से परिचित होना। श्री राय के शब्दों में ही कहें तो उन्हें पढ़ते
	समय "ऐसा लगता है कि इसके भीतर काव्य सुलग रहा है और कहीं-कहीं पर भक से गाँजे
	की चिलम की तरह जल भी उठता है" और तब ठिठककर किताब बगल में रखकर लेखक के साथ
	रस-लोलुप बनना पड़ता है। उनके साहित्य साधना को लेकर रघुवीर सहाय की टिप्पणी
	बहुत कुछ कह जाती है - "यदि संस्कार परंपरावादी हों तो क्या दृष्टि आधुनिक हो
	सकती है? ...इस प्रश्न का जितना साफ उत्तर कुबेरनाथ राय के निबंध को पढ़ कर
	मिलता है, उतना हिंदी में लिखी गई किसी कृति को पढ़कर नहीं मिलता। इन निबंधों
	को पढ़ना एक नया अनुभव पाना है।" दरअसल श्री राय को पढ़ते हुए पाठक एक ही साथ
	साहित्य, इतिहास, दर्शन, धर्म, नृतत्व, विज्ञान, मिथक, लोक, मनोविज्ञान,
	अर्थशास्त्र, शिक्षा आदि से परिचित होता हुआ अपने मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक
	क्षितिज का विस्तार करता चलता है। श्री राय कहते भी हैं - "मेरा उद्देश्य रहा
	है हिंदी-पाठक के हिंदुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि
	प्रदान करना। मेरे निबंध 'भारतीय मन और विश्वमन' के बीच एक सामंजस्य उपस्थित
	करते हैं।" उस रास्ते पर उसे वे वाल्मीकि से लेकर रवींद्र-गांधी,
	लोहिया-मुक्तिबोध-निराला के साथ-साथ इमर्सन, बायरन, सार्त्र, कामू, मार्क्स
	आदि सैकड़ों दार्शनिकों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, भाषाविदों आदि के
	उक्तियों, सूक्तियों, विचारों से भी परिचित कराते चलाते हैं। श्री राय को
	संस्कृति-चिंतन और प्रकृति के चित्रांकन में महारत हासिल है। मौसम विज्ञान,
	पक्षी विज्ञान और प्राणिशास्त्र नदी-ताल, पुष्प-पक्षी जंगल-जानवर आदि के बारे
	में उनका ज्ञान हमें चमत्कृत कर देता है। जिन चीजों के बारे में हम 'डिस्कवरी'
	आदि चैनल से जान पाते हैं उनके यहाँ वह ज्ञान-संवेदन के साथ सहज उपलब्ध है।
	कभी 'सारंग' और 'पंचाप्सर की मार कन्याएँ' के माध्यम से उनका 'रस-आखेटक' मन
	'रमन-तृषा' में उलझाता है तो कभी वही 'महाकांतार' में ले जाकर हमें उसकी
	विराटता से परिचित कराता है। एक तरफ 'नीलकंठ' किसी गहनतर दुख का चिंतन करता
	हुआ प्रतीत होता है तो दूसरी ओर 'पाकड़ बोली रात भर' हमारी परमा स्मृति की याद
	दिला जाती है। श्री राय के लेखन के 'परास' को देखते हुए निश्चय ही यह कहा जा
	सकता है कि हिंदी-निबंध-साहित्य को महत्व और गरिमा प्रदान करने वाले तमाम
	रचनाकारों के बीच अपने व्यापक अध्ययन, संस्कृति-चिंतन, मिथकीय-व्याख्या,
	औदात्य, लोक-संपृक्ति और शील-सौंदर्य-नीति बोध जनित रचना-भंगिमा के कारण 'भोर
	के तारे' की तरह अलग चमकते हुए दिखाई देते हैं।