संसार को समझने के ढेर सारे ढंग हैं। इन्हीं में एक है गरमी और सर्दी को बूझ
पाना।
आज बात ठंड की। आम आदमी की समझ उसे ठंड पहचानने के लिए बर्फ, फ़्रिज, मनाली या
अंटार्कटिका तक ले जाती है। यह ठीक भी है। पृथ्वी का सबसे ठंडा स्थान
अंटार्कटिका पर स्थित है, जहाँ तापमान घटते-घटते -89.2 सेल्सियस तक पहुँचता
पाया गया है।
लेकिन फिर ठंडक की कहानी यहीं रुक जाती, तो बात ही क्या थी। हमारे सौरमंडल में
सबसे ठंडे स्थानों में सुदूर के बौने ग्रह प्लूटो और हमारे अपने चंद्रमा के
बीच काँटे की टक्कर है, जिसमें अब तक बाजी चंद्रमा के पक्ष में रही है। -240
डिग्री सेल्सियस। लेकिन फिर ब्रह्मांड की और बढ़ती शीतलता के आगे यह ठंड भी कुछ
नहीं। पृथ्वी से दूर बूमरैंग नीहारिका का तापमान -272.15 डिग्री सेल्सियस तक
पहुँच जाता है। बीचोंबीच किसी तारे की मौत हुई और उससे निकली फैलती गैस ठंडी
होती ही चली गई।
तापमान को नापने के लिए सेल्सियस ही एक मात्रा पैमाना नहीं। भौतिकी के छात्र
जानते हैं कि फैरेनहाइट और केल्विन भी अन्य दो पैमाने हैं, जिनका जहाँ-तहाँ
ताप-मापन में प्रयोग होता आया है। शून्य डिग्री सेल्सियस के नीचे गिरते
तापमानों को बेहतर नापने के लिए वैज्ञानिक केल्विन का अधिक प्रयोग करते हैं।
ऐसे में बूमरैंग नीहारिका का तापमान 1 केल्विन तक जा पहुँचता है।
यहाँ आकर एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि ठंड की दुनिया में कितने नीचे जा सकते
हैं। और अगर हम नीचे जाते जाएँ, तो क्या पदार्थ के गुणधर्म न बदलने लग जाएँगे
? हाँ, हम जानते हैं कि भाप ठंडी होने पर पानी बनती है और फिर और ठंडक के कारण
पानी बर्फ, लेकिन यहाँ बात बहुत-बहुत नीचे के तापमानों की हो रही है। फिर एक
प्रश्न यह भी उठता है कि हम दरअसल कितने नीचे तक जा 'सकते' हैं और फिर उसके
नीचे क्यों नहीं जा सकते।
शून्य केल्विन के नीचे का तापमान नहीं पाया जा सकता, ऐसा मुख्य धारा की भौतिकी
मानती आई है। कारण कि इस तापमान तक पहुँचने के लिए जितना कार्य हमें करना
होगा, वह अनंत होगा और ऐसा किया नहीं जा सकता। यह कुछ-कुछ प्रकाश की गति से न
चल सकने का-सा मामला है। आप प्रकाश से बराबर नहीं चल सकते। आप शून्य केल्विन
से अधिक ठंडक नहीं पैदा कर सकते।
लेकिन आदमी तो फिर आदमी है। उसने प्रयोगशाला में 0.1 और 0.45 नैनोकेल्विन तक
का तापमान पैदा कर डाला ! इतनी कड़ाके की ठंड में पदार्थ का गुण-धर्म ही इतना
बदला कि वह न ठोस रहा, न द्रव और न गैस ! वह कुछ और ही हो गया !
गरमी के कारण ही पदार्थ के अणु-परमाणु गति-युक्त रहते हैं। जब सोडियम और
रोडियम-जैसे पदार्थों को इतना अधिक ठंडा किया गया, तो यह अणु-परमाणु-नृत्य
पारम्परिक ढंग से रुक ही गया। बल्कि उनकी क्वांटमीय तरंगें परस्पर मिल गईं !
अब वे परमाणु न रहे, मिलकर एक परम-परमाणु-जैसा कुछ हो गए ! पदार्थ की इस अतिशय
शीतल अवस्था को बोस-आइंस्टाइन-कन्डेंसेट कहा जाता है। न ठोस, न तरल, न गैस,
एकदम कुछ अलग ही ! ऐसा जिसे न हम आस-पास कहीं देखते हैं और न जानते हैं।
बोस-आइंस्टाइन-कन्डेंसेट को पढ़ने का फायदा क्या ? ताकि मैं-आप जान सकें कि
पदार्थ क्या और कैसे बर्ताव करता है इतने कम तापमान पर। ताकि ब्रह्मांड के और
रहस्य समझे जा सकें। ताकि तारों के जन्म के बारे में बेहतर जानकारी पाई जा
सके।