तीन अप्रैल 1929 में शिमला में जन्म निर्मल वर्मा ने लगभग सुदीर्घ साहित्यिक
जीवन जिया है। वे हमारे समय के कुछ बड़े उपन्यासकारों में एक हैं। विश्व के
कुछ चुनिंदा उपन्यासकारों की सूची बनाई जाए तो उसमें उनका स्थान निसंदेह होगा।
उन्होंने अपने साहित्य में न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ संबंधों पर
गहन चिंतन किया बल्कि उसकी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक भूमिका क्या हो, तेजी
से बदलते हालातों में मनुष्यता के मूल्यों की रक्षा कैसे हो, इन सब प्रश्नों
से वे न सिर्फ बार-बार टकराते हैं बल्कि राह भी दिखाते हैं। वे एक नई शैली के
माध्यम से मनुष्य के अंतर्मन की जटिलतम गुत्थियों की खोज करते चले जाते हैं।
या यों कहें कि उन्होंने साहित्य में उदासी, उलझन और अकेलेपन को एक नई
सार्थकता देते हुए हिंदी कहानी को सर्वथा नई भाषा और सौंदर्य दिया और कुछ
आलोचक मानते हैं कि उनकी चंद कृतियाँ क्लासिक की श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
सन साठ के दशक (1958) में अपने पहले कहानी-संग्रह 'परिंदे' के प्रकाशन के साथ
ही निर्मल वर्मा को हिंदी में नई कहानी आंदोलन के प्रणेता के रूप में पाठकों
के बीच स्थान मिला और वे लेखनी के माध्यम से देश-विदेश में जीवनपर्यंत
परिवर्तनगामी चेतना से समाज को आलोकित करते रहे। उनकी लेखन शैली की यह विशेषता
है कि वह कहानी नहीं बल्कि दृश्य और वातावरण प्रस्तुत करते हैं। इन दृश्यों
में भी, वह दृश्य की ऊपरी तह तोड़, केवल दृश्य के भीतर ही नहीं पैठते हैं
बल्कि उस दृश्य को उसकी भीतर और बाहरी विशेषताओं समेत पूरी समग्रता के साथ
ईमानदारी से प्रस्तुत कर देते हैं। साहित्यकार नंद किशोर आचार्य के शब्दों
में, 'निर्मल वर्मा की कहानियाँ हिंदी कहानी में प्रसाद-प्रेमचंद और जैनेंद्र
-अज्ञेय से अलग एक नई परंपरा की शुरूआत करती हैं क्योंकि इन रचनाकारों की
कहानियाँ या तो चरित्र प्रधान हैं या घटना-प्रधान और परिस्थिति-प्रधान।' लेकिन
निर्मल की रचना इनसे भिन्न इस अर्थ में कि वे चरित्र, घटना या परिस्थिति को
रचती हुई भी शब्द की बहुआयामी संभावनाओं को सर्जनात्मकता से लैस करते हैं। एक
और बात ध्यान देने की है कि निर्मल जी के उपन्यासों में चरित्रों का
'उपन्यासों की परंपरा के अनुसार' विकास नहीं होता है यानि 'प्रारंभ, मध्य और
चरम' की अवस्थाएँ नहीं आती हैं बल्कि पात्र कथानक के उतार-चढ़ाव एवं तनाव के
बीच अपनी विभिन्न प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करता हुआ, हमारे सामने खुलता जाता
है यानि चरित्र विकास की ऊर्ध्वमुखी यात्रा करने की अपेक्षा, कथानक के
समानांतर एक आत्मोन्मुखी यात्रा करते हैं, एक ऐसी यात्रा जो उपन्यास की कहानी
समाप्त हो जाने के बाद भी समाप्त नहीं होती बल्कि आगे चलती जाती है।
निर्मल जी वर्धा विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहते हुए मेरा उनसे संपर्क हुआ,
वर्ष 2000 में प्रकाशित उनकी ताजा और अंतिम उपन्यास 'अंतिम अरण्य' पढ़ा, यह
उपन्यास उनके अन्य उपन्यासों के समान होते हुए भी कहीं उनसे भिन्न है। साहित्य
कार डॉ. शैलजा सक्सेना कहती हैं, 'निर्मल वर्मा के सभी उपन्यास मानव संवेदना
के उस अतल को छूते हैं जहाँ अनेक ज्वालामुखी सोते हैं। एक हल्का धुआँ कुहासे
की तरह उठता रहता है जो संवेदना से भरे मन के होने का पता देता है पर ये
ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं और बाहर की बजाय भीतर की तरफ खुलते हैं, अपने ही मन
की पर्तें खोलते हुए पाठक को 'विचार' के अनजाने तल पर ले जाकर छोड़ देते हैं
अपनी-अपनी विचार - यात्रा करने के लिए।'
निर्मल बेजोड़ कथाकार भी हैं उनकी कहानियों में कई आलोचक नव रूमानीवाद की
झलकियाँ भी पाते हैं। उनकी कई कहानियों का नायक शहरी चरित्र का होता है और
प्रायः उसका दृष्टिकोण वैश्विक होता है। निर्मल के साहित्य में प्रकृति एकदम
नए अंदाज में और कई बार चौंकाने वाले ढंग से सामने आती हैं। उदाहरण के तौर पर
वह कमरे में आने वाली धूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह ऐसे ही आती है
जैसे दबे पाँव कमरे में बिल्ली आती हो। निर्मल के 'वे दिन', 'अंतिम अरण्य',
'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत' और 'रात का रिपोर्टर' उपन्यासों ने शहरी
मध्यम वर्ग के पात्रों की समस्याओं को बखूबी उभरते हुए नए दौर की भाषा को एक
नई ताजगी प्रदान की। निर्मल वर्मा के रचना संसार में शामिल पाँच उपन्यासस, आठ
कहानी संग्रह और नौ निबंध संग्रह तथा यात्रा-वृत्तांत को पढ़ें तो हमें उनकी
भाषा लुभाती है। उनकी सृजनात्मक भाषा, एक सचमुच जी रहे व्यक्ति की भाषा है,
जिसमें अनुभव की लयात्मकता तो है ही और साथ ही बौद्धिक बहस भी। नई कहानी के
कथित ठेकेदार चाहे अपने को जितना प्रोजेक्ट कर लें सच्चाई यही है निर्मल की
कथ्यात्मक संवेदना और शिल्प आग्रह ने हिंदी कथा साहित्य को बिल्कुल नया मोड़
दिया और शानदार पाठक का जुड़ाव भी। रचनात्मक भाषा में वे अपनी तकलीफ के साथ
जाते हैं, और शायद यही वजह है कि उनके यहाँ एक मानवीकृत संसार बसता है। उनकी
कहानी 'मायादर्पण' पर 1973 में फिल्म बनी जिसे कला फिल्म का राष्ट्रीय
पुरस्कार मिला।
दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन कॉलेज से इतिहास में एम.ए करने वाले निर्मल
वर्मा बापू से काफी प्रभावित थे। वह नियमित तौर पर उनकी प्रार्थना सभाओं में
शिरकत करते थे। दिलचस्प बात यह है कि बापू से प्रभावित निर्मल जी भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी के 'कार्ड होल्डर' थे। हालाँकि 1956 में सोवियत संघ के
हंगरी पर हमला करने के बाद उनका वामपंथ से मोहभंग हुआ और उन्होंने पार्टी छोड़
दी। राजनीतिक सक्रियता और सामाजिक कार्यों में रहकर वर्मा ने हिंदी साहित्य
में बतौर कहानीकार, उपन्यासकार और अनुवादक अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी रचनाओं
में भी परिवर्तन की झलक दिखती थी। चेक गणराज्य और लंदन में लंबा समय गुजारने
वाले निर्मल वर्मा ने यूरोपीय जीवन की विसंगतियों को समझा और उनकी बहुत ही
बारीक मानवीय व्याख्या अपनी कहानियों में की। उन्होंने कई वैश्विक रचनाओं का
हिंदी में अनुवाद किया। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ परिंदे, लाल टीन की छत, रात का
रिपोर्टर, अंतिम अरण्य, पिछली गर्मियों में और बीच बहस में प्रमुख हैं। बेहद
चर्चित कहानी संग्रह 'कव्वे और कालापानी' के लिए 1985 में साहित्य अकादमी,
1995 में ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार, 1999 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और
2002 में पद्म भूषण से सम्मानित निर्मल वर्मा का फेफड़े की बीमारी से जूझने के
बाद 76 वर्ष की अवस्था में दिल्ली में 25 अक्टूबर, 2005 में निधन हो गया। उनके
विपुल साहित्य संसार से गुजरते हुए एक ऐसे रचनाकार का बोध होता है जो शब्दों
के माध्यम से मानवीय आदर्शों के लिए पूरा जीवन ही समर्पित कर देते हैं।